ADVERTISEMENTS:
Here is an essay on ‘Public Corporation’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Public Corporation’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on Public Corporation
Essay Contents:
- लोक निगम के अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Public Corporation)
- लोक निगमों का विकास (Evolution of Public Corporations)
- लोक (सार्वजनिक) निगमों की विशेषताएँ (Characteristics of Public Corporations)
- लोक निगमों के प्रकार (Types of Public Corporations)
- लोक (सार्वजनिक) निगमों का संगठन (Organization of Public Corporations)
- भारत में लोक निगमों पर सरकारी नियन्त्रण (Government Control on Public Corporations in India)
- लोक निगमों के लाभ (Advantages of Public Corporations)
- लोक निगमों की हानियाँ या दोष (Disadvantages of Public Corporations)
- भारतीय निगमों के सुधार हेतु सुझाव (Suggestions for the Reform in Indian Corporations)
Essay # 1. लोक निगम के अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Public Corporation):
‘विभाग’ एवं ‘स्वतन्त्र नियामकीय आयोगों’ की तरह ‘लोक निगम’ भी सूत्र अभिकरण का ही एक स्वरूप है । इन तीनों स्वरूपी के मध्य एक सामान्य-सा अन्तर यह है कि ‘विभाग’ पर कार्यपालिका का पूर्ण स्वामित्व रहता है, ‘स्वतन्त्र नियामकीय आयोग’ नियन्त्रण मुलत होते हैं तथा ‘लोक निगम’ इन दोनों के मध्य की स्थिति में आते हैं ।
आधुनिक राज्य की जटिलताओं ने राज्य के लिए यह आवश्यक कर दिया है कि वह व्यापार-उद्योग का न केवल नियमन करें वरन् कुछ का स्वामित्व भी अपने हाथों में ले ले । वस्तुत: लोक निगम (Public Corporation) इसी दिशा में एक सार्थक कदम है ।
‘निगम’ अंग्रेजी के ‘कॉरपोरेशन’ (Corporation) हिन्दी अनुवाद है तथा निगम का शाब्दिक अर्थ है ‘निरन्तर प्रगतिशील व्यापारिक संगठन’ । व्यवसाय के क्षेत्र में ‘लोक निगम’ शब्दावली का प्रयोग सर्वप्रथम संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ ।
वहाँ संयुक्त पूंजी वाली कम्पनियों के विकास के बाद ‘औद्योगिक व व्यापारिक निगमों’ का विकास हुआ । इन निगमों की सफलता से प्रोत्साहित होकर सरकार ने इन्हीं के आदर्शों पर ‘सरकारी निगमों’ का निर्माण किया ।
ADVERTISEMENTS:
विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रस्तुत की गई ‘लोक निगमों’ की परिभाषाओं में से प्रमुख निम्नलिखित हैं:
ADVERTISEMENTS:
अर्नेस्ट डेविस के अनुसार- ”निश्चित शक्तियों और कार्यों तथा वित्तीय स्वतन्त्रता सहित सार्वजनिक शक्ति द्वारा उत्पन्न निगम संयुक्त मण्डल हैं ।”
स्व. प्रेसीडेप्ट रूजवेल्ट के शब्दों में- “लोक निगम व्यवसाय का एक आदर्श स्वरूप है जिसके पास सरकार के अधिकार तथा निजी उद्योग का लचीलापन एवं स्वत: प्रेरणा होती है ।”
डिमॉक के मतानुसार- ”लोक निगम ऐसा सरकारी उद्यम है जिसकी स्थापना किसी निश्चित व्यापार को चलाने अथवा वित्तीय उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये संघीय राज्य अथवा स्थानीय कानून के द्वारा की गई है ।”
पिफनर के कथनानुसार- ”निगम एक ऐसा निकाय है जिसे अनेक व्यक्तियों के ‘एक व्यक्ति’ के रूप में कार्य करने के लिये स्थापित किया जाता है ।”
विलियम ए. रॉब्सन के अनुसार- ”आधुनिक नमूने का निगम एक सांविधानिक नवीनता है । यह प्रशासन की इकाई को राष्ट्रीय या प्रादेशिक सीमा तक विस्तृत करने, औद्योगिक या सार्वजनिक उपयोगी कार्यों के प्रशासन को सरकार के सा धारण कार्यकलाप से पृथक् करने लाभ कमाने की प्रवृत्ति के स्थान पर लोक सेवा का उद्देश्य स्थापित करने की प्रवृत्ति को प्रकट करता है ।”
डॉ. एम. पी. शर्मा ने लिखा है- “विधि की दृष्टि से निगम एक कृत्रिम व्यक्ति होता है अर्थात वह ऐसे प्राकृतिक व्यक्तियों का समूह अथवा निकाय होता है जिन्हें विधि द्वारा एक व्यक्ति की भांति कार्य करने की मान्यता तथा सुविधा प्रदान कर दी जाती है ।”
हर्बर्ट मौरिसन के मतानुसार- ”लोक निगम सार्वजनिक स्वामित्व सार्वजनिक उत्तरदायित्व तथा लक्ष्यों की पूर्ति के लिये व्यापारिक प्रबन्ध का समन्वय है ।”
उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि लोक निगमों में ‘आर्थिक स्वायत्तता’ (Economic Autonomy) तथा ‘राज्य नियन्त्रण’ का उचित समन्वय देखने को मिलता है ।
Essay # 2. लोक निगमों का विकास (Evolution of Public Corporations):
संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन व भारत में लोक निगमों के विकास का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है:
संयुक्त राज्य अमेरिका में:
संयुक्त राज्य अमेरिका में लोक निगमों का अस्तित्व सन् 1904 से है जबकि सर्वप्रथम राज्य निगम ‘पनामा रेल कोड कम्पनी’ की स्थापना की गई ।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान व्यापक पैमाने पर निगमों की स्थापना की गई जिनमें कतिपय प्रमुख निम्नलिखित हैं:
‘यूनाइटेड स्टेट्स ग्रेन कॉर्पोरेशन’ (U.S. Grain Corporation), ‘यूनाइटेड स्टेट्स हाउसिंग काँपरिशन’, (U.S. Housing Corporation) एवं ‘अन्तर्देशीय जलमार्ग निगम’ (Inland Waterways Corporation) । तत्पश्चात् सन् 1929 के उपरान्त भी बड़ी संख्या में लोक निगमों की स्थापना की गई ।
इनमें प्रमुख हैं- पुनर्निमाण वित्त निगम (1932) (Re-Construction Finance Corporation), टेनिसी घाटी अधिसत्ता (1933), संघीय बचत तथा ऋण बीमा निगम । द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान स्थापित निगम इस प्रकार थे- रबड़ विकास निगम (Rubber Development Corporation) प्रतिरक्षा गृह निगम (1940) प्रतिरक्षा पूर्ति निगम (1940) । वर्तमान में अमेरिका में एक बड़ी संख्या में (लग भगा से भी अरि निगम अस्तित्व में हैं ।
इंग्लैण्ड में:
उन्नीसवीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में सरकारी नियन्त्रण से मुक्त कई तकनीकी, आर्थिक व सांस्कृतिक संगठन विद्यमान थे । बीसवीं शताब्दी में इनकी संख्या में तीव्रता से वृद्धि हुई । आर्थिक एवं व्यापारिक क्षेत्रों में ऐसे संगठनों की स्थापना 21वीं शताब्दी में सरकार द्वारा की गई ।
इन संगठनों को दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है:
(i) 1945 से पूर्व स्थापित निगम एवं
(ii) 1945 के बाद स्थापित निगम ।
प्रथम श्रेणी के अर्थात 1945 से पूर्व स्थापित प्रमुख निगम हैं- पोर्ट ऑफ लन्दन अथॉरिटी (Port of London Authority), ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरशन (British Broadcasting Corporation) (1926), लन्दन पैसेचर ट्रांसपोर्ट बोर्ड (London Passenger Transport Board) एवं ब्रिटिश ओवरसीज एयरवेज कॉर्पोरेशन (1929) (British Overseas Airways Corporation) ।
सन् 1945 के बाद स्थापित निगम निम्नलिखित हैं:
बैंक ऑफ इंग्लैण्ड (1945) (Bank of England) ब्रिटिश ट्रांसपोर्ट कमीशन (1946) (British Transport Commission), ब्रिटिश बिजली प्राधिकरण (1947) (British Electricity Authority) आदि ।
भारत में:
यद्यपि ब्रिटिशकाल में भी भारत में निगमों का अस्तित्व था, किन्तु स्वतन्त्रोत्तर भारत में निगमों की संख्या में तीव्रता से वृद्धि हुई । केन्द्रीय सरकार के क्षेत्राधिकार में आने वाले प्रमुख निगम हैं- एयर इण्डिया, इण्डियन एयरलाइन्स, जीवन बीमा निगम (L.I.C.), भारतीय खाद्य निगम (I.F.C.), तेल और प्राकृतिक गैस आयोग (O.N.G.C.), राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (N.C.D.C.) एवं दामोदर घाटी निगम । राज्य स्तर पर ‘राज्य वित्त निगम’ हैं । ये लघु उद्योगों के संवर्द्धन हेतु वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं । वर्तमान में देश में 18 वित्त निगम हैं ।
सभी देशों में लोक निगमों का विकास निम्नलिखित तीन उद्देश्यों को दृष्टिगत रखकर किया जाता है:
(i) साख (Credit) को सुगम बनाने के लिये एवं साख-वृद्धि हेतु ।
(ii) औद्योगिक, व्यावसायिक या किसी अन्य आर्थिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु ।
(iii) किसी प्रदेश के बहुधन्धी विकास हेतु ।
Essay # 3. लोक (सार्वजनिक) निगमों की विशेषताएँ (Characteristics of Public Corporations):
सामान्यतया लोक निगम की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई जाती हैं:
(i) वैघानिक अस्तित्व (Legal Existence):
लोक निगमों का निर्माण संसद द्वारा निर्मित विशेष अधिनियम के अन्तर्गत होता है । इस अधिनियम में ही इनके अधिकारों, दायित्वों एवं कार्य क्षेत्रों का उल्लेख होता है । इन निगमों का पृथक वैधानिक अस्तित्व होता है ।
(ii) राज्य का स्वामित्व (Dominance of the State):
लोक निगमों में समस्त पूंजी राज्य की लगी होती है, अत: इन पर राज्य का स्वामित्व होना स्वाभाविक है ।
(iii) विशिष्ट उद्देश्य (Special Purpose):
लोक निगमों की स्थापना किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति हेतु की जाती है । वह विशिष्ट उद्देश्य संसद के अधिनियम में वर्णित होता है । ये विशिष्ट उद्देश्य वाणिज्यिक प्रकृति के होने के बावजूद सेवा-भाव से युक्त होते हैं इनमें अर्जित लाभों को समाज व उपभोक्ता वर्ग की सेवा में प्रयुक्त किया जाता है ।
(iv) बोर्ड द्वारा प्रबन्ध (Management by a Board):
लोक निगम का प्रबन्ध एक प्रबन्ध बोर्ड या मण्डल द्वारा किया जाता है । यद्यपि बोर्ड की नियुक्ति सम्बन्धित मन्त्री द्वारा की जाती है तथापि अपने क्रियाकलापों में बोर्ड स्वतन्त्र होता है । बोर्ड इस विशेष जिसके अन्तर्गत लोक निगम का गठन किया गया है के प्रावधानों के अनुसार प्रबन्ध व संचालन सम्बन्धी नियम निर्मित करता है ।
(v) प्रशासनिक स्वायत्तता (Autonomy in Administration):
लोक निगम प्रशासनिक मामलों में स्वायत्त (Autonomous) रहता है । निगम को प्रशासनिक मानकों की अपेक्षा व्यापारिक मानकों का ध्यान रखना पड़ता है । बाजार भावों में तीव्रतापूर्वक आये उतार-चढ़ावों में निगम को शीघ्रतापूर्वक निर्णय लेने पड़ते हैं । इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए सरकार द्वारा कम-से-कम हस्तक्षेप किया जाता है ।
(vi) वित्तीय स्वायत्तता (Financial Autonomy):
लोक निगम वित्तीय मामलों में पूर्णतया स्वतन्त्र होते हैं । निगमों की वित्त व्यवस्था का विभागीय वित्त व्यवस्था से कोई सम्बन्ध नहीं होता है । निगमों के आय व्यय सम्बन्धी विवरण को सरकार के वार्षिक बजट में नहीं दिखाया जाता है
(vii) विभागीय नियमों से स्वतन्त्र (Free from Departmental Rules):
निगम कार्मिकों की भर्ती नियुक्ति पदोन्नति आदि के सम्बन्ध में विभागीय नियमों से आबद्ध न होकर पूर्णतया स्वतन्त्र हैं । कर्मचारियों का चयन लोक सेवा आयोग के द्वारा न होकर आवश्यकता के अनुसार किया जाता है ।
Essay # 4. लोक निगमों के प्रकार (Types of Public Corporations):
प्राय: सतही तौर पर लोक निगमों को दो श्रेणियों में विभक्त किया जाता है:
(i) कानूनी निगम तथा
(ii) कानूनेत्तर निगम
(i) कानूनी निगम (Statutory Corporations):
इन निगमों का गठन संसद के किसी कानून के अन्तर्गत होता है । इनके प्रशासन में कार्यपालिका का हस्तक्षेप न्यूनतम रहता है । उदाहरणार्थ- ‘जीवन बीमा निगम’, ‘दामोदर घाटी निगम’ आदि ।
(ii) कानूनेत्तर निगम (Non-Statutory Corporations):
ये निगम कार्यपालिका के आदेशानुसार बनाए जाते हैं तथा कार्यपालिका के नियन्त्रण में ही कार्य करते हैं । जैसे- भारतीय खाद्य निगम आदि ।
स्वामित्व व नियन्त्रण की दृष्टि से लोक निगमों की निम्नलिखित तीन श्रेणियाँ हैं:
(i) सरकारी निगम (Government Corporations):
इन निगमों का स्वामित्व व नियन्त्रण पूर्णतया या आशिक रूप से सरकार के हाथों में रहता है । उदाहरणार्थ- ‘राज्य व्यापार निगम’ ।
(ii) मिश्रित निगम (Mixed Corporations):
इन निगमों में सरकार पूँजी भी लगाती है तथा सरकार का प्रतिनिधित्व भी होता है किन्तु इनका नियन्त्रण गैर सरकारी हाथों में रहता है । जैसे- ‘अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम’ ।
(iii) गैर-सरकारी निगम (Private Corporation):
इन निगमों में सरकार न तो पूँजी लगाती है, न ही उसका कोई प्रतिनिधित्व होता है । इन निगमों की स्थापना निजी तौर पर व्यक्तिगत लाभ के उद्देश्य से की जाती है । उदाहरणार्थ- ओबेरॉय होटल्स, टाटा आयरन स्टील कोर्पोरेशन ।
Essay # 5. लोक (सार्वजनिक) निगमों का संगठन (Organization of Public Corporations):
लोक निगमों के संगठन के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिये:
निदेशक मण्डल (Board of Directors):
निदेशक मण्डल में ऐसे सदस्यों को स्थान दिया जाना चाहिये कि अधीक्षक की भूमिका निभाते हुए जनता का विश्वास जीतने का प्रयास करें । इसके साथ ही यह भी ध्यान रखने योग्य तथ्य है कि प्रबन्धकों एवं विशेषज्ञों का एक ऐसा निकाय होना चाहिये जो अपने उनुभव व क्षमता के आधार पर उद्देश्य-प्राप्ति में सहायक हो ।
ये निदेशक मण्डल दो प्रकार के हो सकते हैं:
(i) नीति मण्डल (Policy Board):
पूर्णकालिक अथवा अंशकालिक ऐसे व्यक्ति जो केवल नीति निर्धारण का कार्य करें ।
(ii) कार्यात्मक मण्डल (Functional Board):
जिसके सदस्य पूर्णकालिक हों तथा उद्यम के विभिन्न संभागों के कार्यकारी अध्यक्ष भी हों । मण्डल का गठन स्वायत्तता व कार्यकुशलता को दृष्टिगत रखते हुए किया जाना चाहिए । सदस्यों का पूर्णकालिक अथवा अंशकालिक होना या फिर सदस्यों की संख्या कार्यभार पर निर्भर करता है ।
निगमों के प्रबन्ध के परिचालन हेतु एक पृथक् एकीकृत प्रबन्ध सेवा होनी चाहिये । सरकारी अधिकारियों को निगम में (Deputation) पर नहीं भेजा जाना चाहिये । जहाँ तक निगम के आन्तरिक संगठन का प्रश्न है, उसमें एकरूपता का अभाव होता है क्योंकि प्रत्येक निगम में कार्य की प्रकृति अलग-अलग होती है ।
कार्मिक वर्ग:
कार्मिक वर्ग के सम्बन्ध में भी निगमों के पृथक्-पृथक् नियम हैं । कार्मिकों से सम्बन्धित प्रश्नों का निपटारा निगम स्वयं ही करते हैं भारतीय ।
निगमों में कार्मिकों के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिये:
(i) कार्मिकों द्वारा निष्पादित क्रियाएँ ऐसी होनी चाहिये कि वे लागत पूँजी को उत्पादकारी बनायें ।
(ii) श्रमिकों के मध्य तथा श्रमिकों व प्रबन्धकों के मध्य सम्बन्ध मधुर होने चाहिये कार्मिकों की कार्य-दशाएं अनुकूल व सन्तोषजनक होनी चाहिए ।
(iii) कार्मिकों को व्यापार, वाणिज्य व उद्योगों के परिचालन का अपेक्षित होना चाहिए ।
उच्च कार्यकारी (Executive):
निगम के निर्देशन व संचालन का पूर्ण उत्तरदायित्व प्रबन्ध संचालक अथवा उच्च कार्यकारी अथवा महाप्रबन्धक पर होता है । अत: उसका चयन नेतृत्व सम्बन्धी योग्यता प्रशासनिक कला एवं प्राविधिक क्षमता के आधार पर किया जाना चाहिये । महाप्रबन्धक की सहायतार्थ स्टाफ होना चाहिये तथा स्टाफ की नियुक्ति के बारे में महाप्रबन्धक को पर्याप्त अधिकार होने चाहिये ।
Essay # 6. भारत में लोक निगमों पर सरकारी नियन्त्रण (Government Control on Public Corporations in India):
लोक निगमों पर मन्त्रियों का नियन्त्रण होना एक स्वाभाविक एवं आवश्यक तथ्य है, क्योंकि मन्त्रिगण ही अपने निर्देशों द्वारा इन लोक निगमों को सरकारी नीतियों के अनुकूल बना सकते हैं । राष्ट्रीय योजना के साथ उनका उचित समन्वय करने के लिये मन्त्रियों का नेतृत्व आवश्यक है, किन्तु मन्त्रियों का हस्तक्षेप छोटी-छोटी बातों में नहीं होना चाहिये ।
(1) मन्त्रिमण्डल द्वारा निगमों पर नियन्त्रण (Control on the Corporations by Cabinet):
मन्त्रिमण्डल के द्वारा लोक निगमों पर नियन्त्रण की स्थापना निम्नलिखित विधियों से की जा सकती है:
(i) सरकार लोक निगमों के निदेशक मण्डल एवं प्रबन्धकों को नियुक्त करके प्रभावशाली नियन्त्रण स्थापित कर सकती है ।
(ii) निगमों को सामान्य नीतियों के सम्बन्ध में आदेश व निर्देश देकर भी नियन्त्रण स्थापित किया जा सकता है ।
(iii) निगमों को पूंजीगत-निवेश (Capital Investment) करने एवं ऋण लेने के लिये मन्त्रियों की स्वीकृति लेनी पड़ती है ।
(iv) निगमों के खाते महालेखा-परीक्षक (Auditor General) के परामर्श से निर्धारित किये जाते हैं तथा उन खातों का परीक्षण (Audit) भी उन लेखा परीक्षकों के द्वारा किया जाता है जो मन्त्री या महालेखा परीक्षकों द्वारा नियुक्त किये जाते हैं ।
(v) कतिपय निगमों को अपनी योजनाओं व नीतियों के लिये मन्त्रियों से स्वीकृति लेनी आवश्यक होती है ।
(vi) निगमों को समय-समय पर अपनी योजनाओं का विवरण एवं वार्षिक प्रतिवेदन सरकार के समक्ष प्रस्तुत करना होता है ।
(vii) कुछ निगमों का विघटन केवल केन्द्रीय आदेश से ही हो सकता है ।
किसी भी निगम पर मन्त्रियों का नियन्त्रण कितना होना चाहिये ? इसका निर्धारण करने के लिये कई पहलुओं पर विचार करना होगा, किन्तु यह सही है कि सत्ता के दुरुपयोग को रोकने के लिये मन्त्रियों पर कुछ-न-कुछ नियन्त्रण अवश्य होना चाहिये । नियन्त्रण की यह शक्ति संसद को सौंपी जानी चाहिए । इस सम्बन्ध में अर्नेस्ट डेविड ने कहा है- ”सरकारी निगम को मंत्री रूपी पिता के हाथों में नहीं फेंक देना चाहिये जब तक कि पैतृक अनुशासन की अत्यधिक मात्रा को रोकने के लिये स्नेहमयी संसदीय माँ उपलब्ध न हो ।”
(2) संसदीय नियन्त्रण (Parliamentary Control):
सभी लोकतन्त्रीय देशों की दृढ़ मान्यता है कि सरकारी निगमों पर संसद का नियन्त्रण होना चाहिये ।
संसद अपनी नियन्त्रण शक्ति का प्रयोग इस प्रकार करती है:
(i) मन्त्रियों से प्रश्न पूछकर ।
(ii) उद्यम के सम्बन्ध में वाद-विवाद कराकर ।
(iii) सार्वजनिक महत्व के विषयों में ‘स्थगन’ या ‘काम रोको प्रस्ताव’ द्वारा
(iv) जाँच समिति प्रतिवेदन पर वाद-विवाद द्वारा ।
(v) निगमों के सम्बन्ध में कोई नया कानून आने पर या पुराने में संशोधन होने की स्थिति में वाद-विवाद कराकर ।
(vi) बजट पर होने वाले वाद विवाद के द्वारा ।
(vii) निगमों के वार्षिक प्रतिवेदनों पर वाद-विवाद कराकर ।
(viii) निगम द्वारा माँगे गये धन के सम्बन्ध में जाँच करके ।
(3) प्रवर समिति द्वारा निगमों पर नियन्त्रण (Control on the Corporations by Standing Committee):
वर्तमान में संसद के कार्यों में अत्यधिक वृद्धि हो गई है । ऐसे में निगमों पर भी नियन्त्रण कर पाना एक कठिन कार्य हो गया है । इस समस्या के समा धान हेतु संसद द्वारा ‘प्रवर समिति’ (Standing Committee) की माँग की जाती है जो निगमों व अन्य संस्थाओं का निरीक्षण व नियन्त्रण कर सके । ‘प्रवर समिति’ की स्थापना को लेकर विद्वानों में अत्यधिक वाद-विवाद हुआ ।
समिति के पक्षधरों ने तर्क प्रस्तुत किये कि समिति के माहमम से संसद को प्रशासनिक कार्यों की जानकारी मिलती है । इसके अतिरिक्त, समिति दलीय भावना से मुक्त होकर निष्पक्षता से कार्य कर सकती है । समिति के विपक्ष में तर्क इस प्रकार थे- इस प्रकार की समिति की स्थापना संविधान के विरुद्ध है । समिति की स्थापना से विभागों के प्रति उत्तरदायित्व समाप्त हो जायेगा समिति प्रारम्भ में सन्देशवाहक होगी किन्तु बाद में नियन्त्रण करने वाली संस्था बन सकती है ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि लोक निगमों पर नियन्त्रण आवश्यक है किन्तु यह नियन्त्रण कतिपय सीमाओं के अन्तर्गत होना चाहिये ।
Essay # 7. लोक निगमों के लाभ (Advantages of Public Corporations):
लोक निगमों की स्थापना के निम्नलिखित लाभ हैं:
(i) लोक निगम अपने कार्यक्षेत्र में स्वतन्त्र व स्वायत्त होते हैं तथा मन्त्रियों व सचिवों के नियन्त्रण से मुक्त रहते हैं । अत: कार्य तीव्रता से हो पाता है ।
(ii) इनके संचालन व प्रबन्ध की व्यवस्था सरकारी प्रबन्ध से मुक्त रहती है । अत: ये राजनीतिक दुष्प्रभावों से दूर रहते हैं ।
(iii) निगमों के कर्मचारियों की पदोन्नति व वेतन-वृद्धि सरकारी कर्मचारियों की अपेक्षा शीघ्रता से होती है । अत: कर्मचारी अधिक दक्षता व निष्ठा के साथ कार्य करते हैं ।
(iv) निगमों की वित्तीय व्यवस्था सरकारी बजट से पृथक रहती है । अत: स्वायत्तता के कारण आर्थिक क्षेत्र में दक्षता एवं मितव्ययिता बनी रहती है ।
(v) सरकार आर्थिक क्षेत्र में प्रवष्टि हुए बिना अपनी आर्थिक नीतियों को पूर्ण करने के अवसर प्राप्त कर लेती है ।
Essay # 8. लोक निगमों की हानियाँ या दोष (Disadvantages of Public Corporations):
लोक निगमों के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याओं का संक्षिप्त विवरण अग्र प्रकार है:
(i) लोक निगमों का कार्य केवल आर्थिक क्षेत्रों तक ही सीमित होता है ।
(ii) कई बार लोक निगमों एवं सरकार के कार्य क्षेत्रों में टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है ।
(iii) लोक निगमों की वित्तीय स्वायत्तता भी आलोचना का विषय रही है ।
(iv) लोक निगमों की नीतियों का निर्धारण मन्त्रियों द्वारा किया जाता है, जबकि आन्तरिक प्रशासन में लोक निगम स्वायत्त होते हैं । नीति-निर्धारण व आन्तरिक प्रशासन के मध्य एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींच पाना सम्भव नहीं है जिसके कारण अक्सर टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है ।
(v) लोक निगमों के संचालक मण्डलों में सरकारी अधिकारियों की उपस्थिति से कार्यपालिका के हस्तक्षेप की सम्भावना बनी रहती है ।
Essay # 9. भारतीय निगमों के सुधार हेतु सुझाव (Suggestions for the Reform in Indian Corporations):
भारतीय लोक निगमों के दोषों के निवारणार्थ ‘जीवन बीमा निगम’ के मूँदड़ा काण्ड की जाँच हेतु नियुक्त ‘छागला आयोग’ ने निम्नलिखित सिफारिशें प्रस्तुत कीं:
(i) सरकारी हस्तक्षेप पर रोक (Check on Interference by Government):
सरकार को स्वायत्त-निगमों (Autonomous Corporations) के कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये । यदि हस्तक्षेप करना भी हो तो लिखित उत्तरदायित्व से नहीं बचना चाहिये ।
(ii) अधिकारियों में कर्त्तव्यनिष्ठा (Loyalty in the Officers):
यदि निगम के कार्यकारी अध्यक्ष (Executive) की नियुक्ति लोक सेवाओं से की जानी हो, तब उन्हें सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों से प्रभावित नहीं होना चाहिये वरन् कर्त्तव्य-पालन हेतु निगम के प्रति उत्तरदायी होना चाहिये ।
(iii) अनुभवी व्यक्तियों की नियुक्तियाँ (Appointment of Experienced Persons):
बड़े निगमों के अपक्षों की नियुक्ति ऐसे व्यक्तियों में से की जानी चाहिये जिन्हें कि व्यावसायिक क्षेत्र का पूर्ण अनुभव हो और जो शेयर बाजार की विधियों से परिचित हों ।
ADVERTISEMENTS:
(iv) मन्त्रियों द्वारा संसद का विश्वास (Confidence of Parliament in the Ministers):
मन्त्रियों को सभी सम्बन्धित तथ्यों व सामग्री को संसद के समक्ष रखना चाहिये, अन्यथा बाद में उस समय परेशानियाँ उत्पन्न हो सकती हैं जबकि संसद अन्य स्रोतों से उन्हीं सूचनाओं को प्राप्त करती है ।
(v) कर्मचारियों में राष्ट्रीय हित की भावना (Feeling of National Interest in the Employees):
निगम के लाभों का उपयोग जनता के हित में किया जाना चाहिये व्यक्तिगत हित में नहीं जनता के हित में ही राष्ट्र का हित निहित होता है ।
अन्त में यही कहा जा सकता है कि वर्तमान युग में लोक निगमों की लोकप्रियता में निरन्तर वृद्धि हो रही है तथा उनकी उपादेयता स्वयंसिद्ध है किन्तु फिर भी इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि लोक निगमों की कार्यविधि व संचालन सन्तोषजनक नहीं है ।