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Here is an essay on the ‘Associations of Regional Co-Operation in Asia’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. दक्षिण-पूर्वी एशियाई राष्ट्र संघ : आसियान (Association of South-East Asian Nations: ASEAN):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से दक्षिण-पूर्वी एशिया, संसार के सर्वाधिक विस्फोटक और महत्वपूर्ण स्थलों में से एक है । इस क्षेत्र के अन्तर्गत चीन के दक्षिण में तथा भारतीय उपमहाद्वीप के पूरब में स्थित देश म्यांमार (बर्मा), थाईलैण्ड, मलेशिया, इण्डोनेशिया, कम्पूचिया, वियतनाम, फिलिपीन्स, आदि सम्मिलित किए जाते हैं । द्वितीय महायुद्ध के बाद यह क्षेत्र विश्व राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है तथा पश्चिमी एशिया के समान ही महाशक्तियों के आकर्षण का केन्द्र बना रहा ।
द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् इस क्षेत्र में तीन आधारभूत परिवर्तन दृष्टिगत हुए हैं:
(a) यूरोपीय प्रभुत्व का क्रमश: अवसान होना,
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(b) यहां के देशों का स्वतन्त्र होना,
(c) चीन के प्रभाव की इस क्षेत्र में वृद्धि होना ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ‘दक्षिण-पूर्वी एशिया’ एक नया शब्द है जिसका प्रयोग द्वितीय महायुद्ध से पूर्व नहीं होता था । इस शब्द के प्रचलन का तात्कालिक कारण अगस्त 1953 में क्यूबेक सम्मेलन के द्वारा एडमिरल माउण्टबैटन की अधीनता में ‘दक्षिण-पूर्वी एशिया कमाण्ड’ की स्थापना था ।
प्रारम्भ में यह उद्बोधन उन देशों के लिए था जो भारत के पूरब और चीन के दक्षिण-पश्चिम में स्थित हैं जिनकी संख्या छ: थी । लेकिन द्वितीय महायुद्ध के उपरान्त नए सम्प्रभु राष्ट्रों के उदय से इस संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई ।
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आज अन्तर्राष्ट्रीय महत्व के दस राष्ट्र- म्यांमार, ब्रूनेई, इण्डोनेशिया, कम्पूचिया, लाओस, मलेशिया, फिलिपाइन, सिंगापुर, थाईलैण्ड तथा वियतनाम इस क्षेत्र में स्थित हैं । डॉ.बी.आर.चटर्जी के अनुसार, ”दक्षिण-पूर्वी एशिया पूरब से पश्चिम तक फिलिपीन्स, वियतनाम, लाओस, कम्बोडिया, थाईलैण्ड और म्यांमार और दक्षिण की ओर मलाया एवं सुमात्रा से लेकर न्यूगिनी तक इण्डोनेशिया द्वीप समूह से मिलकर बना है ।”
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में दक्षिण-पूर्वी एशिया का कई कारणों से बड़ा महत्व रहा है:
(I) यह क्षेत्र सामरिक (Strategic) और भौगोलिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा है । यह हिन्द महासागर को प्रशान्त महासागर से मिलाने वाले समुद्री मार्ग पर स्थित है और एशिया व आस्ट्रेलिया के मध्य तक प्राकृतिक पुल का सा कार्य करता है ।
(II) आर्थिक दृष्टि से यह क्षेत्र बहुत समृद्ध है । चावल, टिन, रबड़ और पेट्रोल यहां प्रचुर मात्रा में पाया जाता है । म्यांमार, थाईलैण्ड और हिन्दचीन में अन्न का विशाल उपजाऊ क्षेत्र है जिसे एशिया का ‘चावल का कटोरा’ कहा जाता है ।
मलाया में इतना अधिक टिन और रबड़ है कि वह अकेले विश्व की आवश्यकता पूर्ति कर सकता है । इण्डोनेशिया, सारावाक और उत्तरी ब्रूनेई में तेल के विशाल भण्डार हैं । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से इस क्षेत्र की विशिष्टता का कारण यहां प्रभुता पाने के लिए साम्यवादी चीन का प्रबल प्रयास तथा इसे रोकने के लिए पश्चिमी शक्तियों के प्रयत्न हैं । यहां के सभी देशों में चीनियों की बहुत बड़ी संख्या निवास करती है और चीन इनके माध्यम से सभी देशों में अपना मनचाहा साम्यवादी शासन स्थापित करना चाहता है ।
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद यहां शक्ति-शून्यता की स्थिति उत्पन्न होने लगी । ब्रिटेन द्वारा द.-पू. एशिया से अपनी सैनिक छावनियां और अड्डे हटाने की घोषणा से इस क्षेत्र के देशों की सुरक्षा का प्रश्न उपस्थित हुआ । अमरीका और चीन ब्रिटेन का स्थान लेने का प्रयत्न करने लगे, किन्तु उनकी विस्तारवादी नीति से द.-पू. एशिया के राष्ट्र सशंकित एवं चिन्तित होने लगे ।
इस स्थिति का प्रतिकार करने के लिए दो सुझाव दिए गए:
(A) द.-पू. एशिया को ‘तटस्थ क्षेत्र’ बना दिया जाए और चीन सहित सभी देश इसकी तटस्थता को बनाए रखने की गारण्टी दें ।
(B) आर्थिक सहयोग को बढ़ावा दिया जाए । यहां के सभी राष्ट्र एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हुए अपना आर्थिक संगठन इतना सुदृढ़ बनायें कि कोई भी आक्रमणकारी यहां किसी भी देश को हानि नहीं पहुंचा सके ।
दक्षिण-पूर्वी एशिया ‘क्षेत्रीय सहयोग’ की ओर:
दक्षिण-पूर्वी एशिया में क्षेत्रीय सहयोग को पुख्ता करने के लिए द्वितीय महायुद्ध के बाद अनवरत प्रयत्न किए जाते रहे हैं । द्वितीय विश्व-युद्ध की समाप्ति के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने ‘इकाफे’ (ECAFE) की स्थापना कर इस एशियाई भूभाग की आर्थिक विकास की समस्याओं को रेखांकित कर दिया था ।
1954 में सीटो (SEATO) की स्थापना से इस क्षेत्र की सामूहिक सुरक्षा एवं आर्थिक साधनों के विकास की ओर ध्यान केन्द्रित किया गया । किन्तु सीटी एक सैनिक सन्धि का निर्माण करने वाला संगठन था जिसमें ब्रिटेन, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, अमरीका आदि देश भी भागीदार थे ।
वी.के. कृष्णमेनन के शब्दों में- ”सीटो सुरक्षा का क्षेत्रीय संगठन नहीं है, अपितु ऐसे विदेशी लोगों का संगठन है जिन्हें इस क्षेत्र में अपने न्यस्त स्वार्थों की रक्षा करनी है ।” आगे चलकर ‘कोलम्बो योजना’ ने तकनीकी-सांस्कृतिक सहयोग के लिए जमीन तैयार की और 1959 में ‘आसा’ (Association of South-East Asian States) के निर्माण की पृष्ठभूमि तैयार की गयी ।
1967-68 में ब्रिटेन ने स्वेज के पूरब से अपनी सेनाओं को वापस बुला लेने की घोषणा की और चीन में महान् सांस्कृतिक क्रान्ति के विस्फोट के साथ इस क्षेत्र में अपने सामरिक हितों के लिए पश्चिमी शक्तियां व्यग्र होने लगीं ।
असली सवाल द.-पू. एशिया के देशों की सुरक्षा का था । ऑस्ट्रेलिया के विदेश मन्त्री ने सुझाव दिया था कि- “इसकी रक्षा करना हमारी जिम्मेदारी है, दूसरी शक्तियां हमारा भार क्यों उठाएं ? सबसे सुरक्षित और विश्वसनीय उपाय तो अपनी शक्ति बढ़ाना तथा एशियाई देशों का संगठन सुदृढ़ बनाना है ।”
आसियान का निर्माण:
‘एसियन’ या ‘आसियान’ का पूरा नाम ‘दक्षिण-पूर्वी एशियाई राष्ट्र संघ’ (Association of South-East Asian Nations – ASEAN) है । यह इण्डोनेशिया, मलेशिया, फिलिपीन्स, सिंगापुर तथा थाईलैण्ड का एक प्रादेशिक संगठन है । 1967 में दक्षिण-पूर्वी एशिया के पांच देशों ने क्षेत्रीय सहयोग के उद्देश्य से ‘आसियान’ नामक असैनिक संगठन का निर्माण किया और 8 अगस्त, 1967 को बैंकाक में एक सन्धि-पत्र पर हस्ताक्षर कर इसके निर्माण की औपचारिक घोषणा की । बाद में 1984 में ब्रूनेई भी इसका सदस्य बना ।
प्रारम्भ में वियतनाम, लाओस, कम्बोडिया तथा म्यांमार को प्रेक्षक का दर्जा प्रदान किया गया था । 1995 में वियतनाम को तथा 30 अप्रैल, 1999 को कम्बोडिया को पूर्ण सदस्यता प्रदान कर दी गई । इसके साथ ही आसियान की सदस्य संख्या अब 10 हो गई है ।
आसियान के वर्तमान 10 सदस्य राष्ट्रों में इण्डोनेशिया, मलेशिया, फिलिपीन्स, सिंगापुर, थाईलैण्ड, ब्रूनेई, वियतनाम, लाओस, म्यांमार एवं कम्बोडिया सम्मिलित हैं । आसियान देशों ने भारत को अपना आंशिक सहयोगी बना लिया है । 24 जुलाई, 1996 को भारत को आसियान का पूर्ण संवाद सहभागी बना लिया गया है । रूस और चीन को भी पूर्ण संवाद सहभागी का स्तर प्रदान किया गया है ।
आसियान का केन्द्रीय सचिवालय जकार्ता (इण्डोनेशिया) में है और उसका अध्यक्ष महासचिव होता है । महासचिव का पद प्रति दो वर्ष के लिए प्रत्येक देश को जाता है और देश के चुनाव का आधार अकारादि क्रम है । सचिवालय के ब्यूरो निदेशकों तथा अन्य पदों की भर्ती तीन वर्ष बाद होती है ।
आसियान के शिखर सम्मेलन सार्क की भांति अधिक नहीं हुए हैं । पहला शिखर सम्मेलन 1976 में बाली (इण्डोनेशिया) में आयोजित हुआ । 1987 में मनीला में सम्पन्न तीसरे शिखर सम्मेलन में तय किया गया कि प्रति पाँच वर्ष बाद शिखर सम्मेलन आयोजित किया जाएगा । परिणामस्वरूप 1942 में सिंगापुर में चौथा शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया ।
इस सम्मेलन में तय किया गया कि तीन वर्ष में एक सम्मेलन आयोजित किया जाएगा । वर्ष 2001 में यह निर्णय लिया गया कि आसियान शिखर सम्मेलन वर्ष में एक बार अवश्य आयोजित किया जाये । दिसम्बर, 2008 में आसियान चार्टर अस्तित्व में आया, जिसके अर्न्तगत वर्ष में दो बार आसियान शिखर बैठक आयोजित किये जाने का प्रावधान किया गया ।
आसियान का स्वरूप एवं उद्देश्य:
आसियान के दसों सदस्य राष्ट्रों में विभिन्न भाषा, धर्म, जाति, संस्कृति, खान-पान, रहन-सहन वाले लोग निवास करते हैं, इन देशों की औपनिवेशिक विरासत, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक जीवन मूल्यों में भिन्नता है तथापि उनमें कतिपय चुनौतियों का सामना करने की साझी समझ भी है ।
इन देशों के सम्मुख जनसंख्या विस्फोट, निर्धनता, आर्थिक शोषण, असुरक्षा आदि की समान चुनौतियां हैं जिन्होंने इन्हें क्षेत्रीय सहयोग के मार्ग पर चलने के लिए विवश कर दिया है । आसियान के निर्माण का प्रमुख उद्देश्य है द.-पू. एशिया में आर्थिक प्रगति को त्वरित करना और उसके आर्थिक स्थायित्व को बनाए रखना ।
मोटे तौर पर इसके निर्माण का उद्देश्य सदस्य राष्ट्रों में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, व्यापारिक, वैज्ञानिक, तकनीकी, प्रशासनिक आदि क्षेत्रों में परस्पर-सहायता करना तथा सामूहिक सहयोग से विभिन्न साझी समस्याओं का हल ढूंढना है, जो इसके निर्माण के समय आसियान घोषणा में स्पष्ट रूप से लिखित हैं ।
इसका ध्येय इस क्षेत्र में एक साझा बाजार तैयार करना और सदस्य देशों के बीच व्यापार को बढ़ावा देना है । 14 दिसम्बर, 1987 को आसियान का तीसरा शिखर सम्मेलन मनीला में हुआ । दो-दिवसीय शिखर सम्मेलन के अन्त में आसियान देशों ने आपसी व्यापार बढ़ाने हेतु चार समझौतों पर हस्ताक्षर किए ।
आसियान क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग पर बल देने वाला संगठन है, इसका स्वरूप कदापि सैनिक नहीं है । सदस्य राष्ट्र ‘सामूहिक सुरक्षा’ जैसी किसी कठोर एवं अनिवार्य शर्त से बंधे हुए नहीं हैं । यह किसी महाशक्ति से प्रोत्साहित, प्रवर्तित एवं सम्बद्ध नहीं है । इसकी सदस्यता उन सभी दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के लिए खुली है जो इसके लक्ष्यों से सहमत हैं ।
आसियान के कार्य एवं भूमिका:
आसियान के कार्यों का क्षेत्र काफी व्यापक है । यह आज समस्त राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांकृतिक, वैज्ञानिक, तकनीकी तथा प्रशासनिक क्षेत्रों में कार्यरत है । इसके सदस्य देश अपनी वैयक्तिक कार्य-प्रणालियों को क्षेत्रीय संगठन द्वारा सुलझाने के लिए प्रस्तुत करते हैं ।
सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों से सम्बन्धित स्थायी समिति ने अनेक परियोजनाएं बनायी हैं जिनका उद्देश्य जनसंख्या नियन्त्रण एवं परिवार नियोजन कार्यक्रमों को प्रोत्साहन, दवाइयों के निर्माण पर नियन्त्रण, शैक्षणिक, खेल, सामाजिक कल्याण एवं राष्ट्रीय व्यवस्था में सयुक्त कार्य-प्रणाली को महत्व देना है ।
1969 में संचार व्यवस्था एवं सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ाने के लिए एक समझौता किया गया जिसके अन्तर्गत आसियान के सदस्य देश रेडियो एवं दूरदर्शन के माध्यम से एक-दूसरे के कार्यक्रमों का परस्पर आदान-प्रदान करते हैं । पर्यटन के क्षेत्र में आसियान ने अपना एक सामूहिक संगठन ‘आसियण्टा’ स्थापित किया है जो बिना ‘वीजा’ के सदस्य राष्ट्रों में पर्यटन की सुविधा प्रदान करता है ।
आसियान देशों ने 1971 में हवाई सेवाओं के व्यापारिक अधिकारों की रक्षा एवं 1972 में फंसे जहाजों की सहायता पहुंचाने से सम्बन्धित समझौते पर हस्ताक्षर किए । आसियान ने खाद्य-सामग्री के उत्पादन में प्राथमिकता देने के लिए किसानों को अर्वाचीन तकनीकी शिक्षा देने के कुछ कदम उठाए हैं जो विशेषकर गन्ना, चावल तथा पशुपालन में सहायक होते हैं ।
प्राथमिकता के आधार पर सीमित वस्तुओं के ‘स्वतन्त्र व्यापार क्षेत्र’ (साझा बाजार) स्थापित करने के लिए भी आसियान देश प्रयत्नशील हैं । आसियान देशों में आपसी निर्यात एवं आयात उनके सीमित बाजार का विस्तार तथा विदेशी मुद्रा की बचत करेगा । इसके अतिरिक्त, आसियान वाणिज्य व उद्योग संघों के महासंघ के एजेण्डा पर मुख्य निर्यातों में आसियान देशों के संयुत्त बाजार एवं व्यापार का लक्ष्य रखा जा चुका है ।
1976 के बाली शिखर सम्मेलन में आसियान के सदस्य राष्ट्रों में पारस्परिक सहयोग को बढ़ाने के सन्दर्भ में निम्नांकित तीन सुझाव रखे गए:
(i) बाहरी आयात कम करके सदस्य राष्ट्र पारस्परिक व्यापार को महत्व देंगे,
(ii) अधिशेष, खाद्य एवं ऊर्जा शक्ति वाले राष्ट्र इन क्षेत्रों में अभाव से पीड़ित आसियान देशों को मदद देंगे,
(iii) आसियान के देश व्यापार को अधिकाधिक क्षेत्रीय बनाने का प्रयास करेंगे ।
बाली शिखर सम्मेलन में ही आसियान राष्ट्रों के प्रधानों ने क्षेत्रीय सहयोग में आसियान की भूमिका पर एक ठोस रूपरेखा प्रस्तुत की । एक घोषणा एवं समझौते में इण्डोनेशिया एवं फिलिपीन्स के राष्ट्रपति और सिंगापुर, मलेशिया एवं थाईलैण्ड के प्रधानमत्रियों ने यह घोषणा की कि आसियान का कार्य सिर्फ आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक मामलों तक ही सीमित रहेगा तथा उसमें ‘सुरक्षा’ को सम्मिलित नहीं किया जाएगा ।
जनवरी 1992 में चौथे शिखर सम्मेलन (सिंगापुर) में ‘आसियान’ ने नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग की जिसमें विकासशील और विकसित देशों के बीच कोई भेदभाव न रहे । आसियान देशों के नेताओं ने अपना एक अलग मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने का प्रस्ताव भी रखा ।
सम्मेलन के अन्त में जारी घोषणा-पत्र में दक्षिण-पूर्वी एशिया को शान्ति क्षेत्र बनाने पर जोर दिया गया । इससे पूर्व एशिया को सदस्य देशों के बीच क्षेत्रीय व्यापार को बढ़ावा देने के लिए करों में कमी के बारे में एक समझौता हुआ ।
इस समझौते को सिंगापुर, मलेशिया, इण्डोनेशिया, फिलिपीन्स और ब्रूनेई के वित्त मन्त्रियों ने मिलकर तैयार किया था । इसमें साझा प्रभावी कर योजना बनाने की बात कही गयी है । इसका उद्देश्य दक्षिण-पूर्व एशिया में 15 वर्षों के अन्दर एक मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाया जाना है ।
आसियान संगठन के देशों ने उन 15 उत्पादों की सूची भी तैयार कर ली है जिन्में मुक्त व्यापार क्षेत्र के अन्तर्गत, समान तटकर योजना के अन्तर्गत लाया जाएगा । इसमें तेल, सीमेण्ट, रसायन उर्वरक, प्लास्टिक, लुग्दी और रबड़ का सामान शामिल है । इन वस्तुओं पर तटकर में कमी लाई जाएगी ।
पूंजी बाजार में सहयोग को बढ़ावा देने के लिए सदस्य देश पूंजी और विशेष संसाधनों की स्वतन्त्र आवाजाही प्रोत्साहित करेंगे । ‘आसियान’ ने कृषि उत्पादन के व्यापार को बढ़ावा देने के लिए भी संयुक्त प्रयास करने का निर्णय किया है ।
दिसम्बर 1995 में आयोजित पांचवें शिखर सम्मेलन (थाईलैण्ड) में शिखर नेताओं ने सन् 2003 तक आसियान को मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने का निर्णय किया । आसियान के शिखर सम्मेलन का एक अन्य महत्वपूर्ण निर्णय बौद्धिक सम्पदा से सम्बन्धित समझौता है ।
इस समझौते से समूह के सदस्य देशों को विश्वास है कि वे विदेशी निवेश को आकर्षित करने में कामयाब होंगे तथा साथ ही तकनीक के हस्तान्तरण पर भी जोर दे सकेंगे । एक अन्य समझौता नाभिकीय शस्त्रों को रखने, उनका उत्पादन करने अथवा इन्हें प्राप्त करने को प्रतिबन्धित रखने के सिलसिले में भी सम्पन्न हुआ । समझौते के अन्तर्गत उत्तर में म्यांमार एवं वियतनाम तथा दक्षिण में फिलिपीन्स व इण्डोनेशिया तक एक नाभिकीय शस्त्रविहीन क्षेत्र बनाने की व्यवस्था है ।
आसियान का छठा शिखर सम्मेलन 15-16 दिसम्बर, 1998 को हनोई (वियतनाम) में सम्पन्न हुआ । दो दिन चले इस शिखर सम्मेलन में दक्षिण-पूर्व एशिया में स्वतन्त्र व्यापार क्षेत्र (Asean Free Trade Area-AFTA) को पूर्व निर्धारित समय सीमा से पहले ही प्रभावी करने पर सहमति रही । संयुक्त विज्ञप्ति में कहा गया कि आसियान के छ: पुराने सदस्य ब्रूनेई, इण्डोनेशिया, मलेशिया, फिलिपीन्स, सिंगापुर व थाईलैण्ड क्षेत्र में पूर्ण स्वतन्त्र व्यापार के लक्ष्य को पूर्व निर्धारित वर्ष 2003 के स्थान पर 2002 तक ही प्राप्त कर लेंगे ।
आसियान के पूर्व निर्धारित ‘विजन-2020’ की दिशा में पहले व्यावहारिक कदम के रूप में 1999-2004 ई. की अवधि के लिए स्वीकृत इस ‘हनोई कार्य योजना’ के अन्तर्गत क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण, व्यापार उदारीकरण व वित्तीय सहयोग वृद्धि के लिए विभिन्न उपाय निर्धारित किए गए हैं ।
नवम्बर, 1999 में सम्पन्न आसियान नेताओं के सम्मेलन में इस बात पर विशेष रूप से बल दिया गया है कि आसियान देशों को एक समूह के रूप में वित्तीय व आर्थिक सहयोग के लिए गम्भीरता से प्रयास करने चाहिए ।
इस सन्दर्भ में चीन-आसियन सम्बन्धों का विस्तार इस सम्मेलन की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है । चीन, कोरिया व जापान के सकारात्मक रुख से आसियान देशों में नया उत्साह आया है तथा यदि यही रुख बना रहा तो क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग इस भाग में नया मोड़ ले सकता है ।
जुलाई, 2000 में आसियान का 33वां मंत्रिस्तरीय सम्मेलन बैंकाक में सम्पन्न हुआ । बैठक का मुख्य मुद्दा था विश्व व्यापार संगठन में विकासशील देशों के हितों की रक्षा कैसे की जाए ? आई.एम.एफ. तथा विश्व बैंक की नाराजगी के भय से इस प्रश्न पर खुलकर चर्चा नहीं हुई । चीन को विश्व व्यापार संघ का सदस्य बनाए जाने की अनुशंसा की गई ।
नवम्बर 2001 में बादर सेरी बेगावन (ब्रूनेई) में सम्पन्न आसियान शिखर सम्मेलन में भारत के साथ आसियान की नियमित शिखर बैठक करने का निर्णय लिया गया । दस सदस्यीय आसियान अभी तक तीन गैर आसियान सदस्यों (चीन, द.कोरिया तथा जापान) के साथ ही नियमित शिखर बैठक करता रहा है ।
भारत अभी तक आसियान का वार्ता भागीदार होने के साथ-साथ ‘आसियान रीजनल फोरम’ का सदस्य रहा है । शिखर सम्मेलन में लिए गए निर्णय के अन्तर्गत भारत व आसियान की शिखर बैठक ‘आसियान + 1’ के प्रारूप पर होगी ।
दस सदस्यीय आसियान (दक्षिण-पूर्व एशिया देशों का संगठन) देशों का 9वां शिखर सम्मेलन 7-8 अक्टूबर, 2003 को बाली (इण्डोनेशिया) में आयोजित हुआ । इसमें सभी दस सदस्य देशों के शिखर नेताओं के अतिरिक्त भारतीय प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी, चीन के प्रधानमन्त्री वेन जियाबाओ, जापान के प्रधानमन्त्री जुनीचीरो कोइजुमी और दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति रोह यू ल्यून ने भाग लिया । सम्मेलन का उद्घाटन इण्डोनेशिया की राष्ट्रपति मेघावती सुकर्णपुत्री ने किया । इस सम्मेलन में लगभग सभी नेताओं ने परस्पर सहयोग एवं सहभागिता का आह्वान किया ।
कोनकोर्ड समझौता-II:
दस देशों के आसियान समूह ने सन् 2020 तक मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने की राह आसान करने के लिए 7 अक्टूबर को एक महत्वपूर्ण समझौते पर दस्तखत किए । ‘आसियान सन्धि-II’ पर ये दस्तखत क्षेत्रीय समूह की शिखर बैठक की समाप्ति पर हुए ।
आसियान कोनकोर्ड नाम की इस सन्धि में नेताओं ने आसियान समुदाय बनाने की अपनी प्रतिबद्धता की घोषणा की । इस समुदाय में एक आसियान सुरक्षा समुदाय, एक आसियान आर्थिक समुदाय और एक आसियान सामाजिक एवं सांस्कृतिक समुदाय की संकल्पना है ।
सन्धि पर दस्तखत के बाद इण्डोनेशिया की राष्ट्रपति मेघावती सुकर्णपुत्री ने कहा कि- ”हम एक ऐतिहासिक घटना के चश्मदीद बन गए हैं । यह सन्धि अगली पीढ़ी ओर उसके भी आगे की पीढ़ियों के लिए शान्ति, स्थायित्व और समृद्धि की सम्भावनाएं बनाएगी ।”
नेताओं ने इस दस्तावेज के जरिए यह सहमति भी जताई है कि हर सदस्य देश की सम्प्रभुता बनी रहेगी, हर देश अपनी निजी विदेश नीति और रक्षा प्रबन्ध और अपने राष्ट्रीय अस्तित्व से जुड़े अधिकारों के मामले में पूरी तौर पर स्वतन्त्र होगा और अंदरूनी मामलों में बाहरी दखल से मुक्त होगा ।
‘एक सुरक्षा समुदाय’ बनाने की कोशिशों के बावजूद नेताओं ने इस बात पर जोर दिया है कि वे कोई रक्षा सन्धि, सैन्य गठकधन या कोई साझा विदेश नीति नहीं बनाएंगे । नेताओं ने सभी देशों की स्वतन्त्रता, सम्प्रभुता और भौगोलिक अखण्डता के प्रति सम्मान की प्रतिबद्धता दोहराई और एक-दूसरे के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देने, क्षेत्र के भीतर होने वाले किसी विवाद के शान्तिपूर्ण समाधान और आपसी सहयोग का भी संकल्प व्यक्त किया ।
साझा धोषणा-पत्र:
भारत और दस देशों के संगठन आसियान ने 8 अक्टूबर को आपसी व्यापार बढ़ाने, अगले दस वर्षों में मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने और अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद से निपटने में सहयोग के बारे में एक साझा घोषणा-पत्र जारी किया ।
साझा घोषणा-पत्र में आतंकवाद से निपटने का जिक्र करते हुए कहा गया है कि हाल के कुछ वर्षों में यह दोनों पक्षों के लिए एक जैसी समस्या बन गई है । भारत की तरह कई एशियाई क्षेत्र आतंकवाद की चपेट में आ गए हैं । आसियान इस सिलसिले में दूसरे देशों के साथ भी साझा घोषणा-पत्र जारी कर चुका है जिसमें अमेरिका भी शामिल है ।
साझा बयान में कहा गया है कि ‘अल जामिया नेटवर्क’ इण्डोनेशिया, सिंगापुर, मलेशिया और फिलीपीन्स में सक्रिय हैं । इस संगठन ने थाईलैण्ड और कम्बोडिया में भी अपनी गतिविधियां फैला दी हैं । इण्डोनेशिया आतंकवाद से बुरी तरह प्रभावित है । साझा बयान में अवैध धन की आवाजाही और नशीले पदार्थों के धन्धे के खिलाफ उपाय करने का भी जिक्र किया गया है ।
बिएनतिएन में 10वां आसियान शिखर सम्मेलन (29-30 नवम्बर, 2004):
29-30 नवम्बर, 2004 को लाओस की राजधानी विएनतिएन में आसियान का शिखर सम्मेलन सम्पन्न हुआ जिसमें सहयोगी देशों ने अपने नए साथियों के साथ मिलकर एक मजबूत और विश्वसनीय आर्थिक शक्ति के रूप में आसियान को विकसित करने का निर्णय लिया ।
30 नवम्बर, 2004 को आसियान और भारत के बीच एक ऐतिहासिक समझौता हुआ जिसमें शान्ति, सहयोग और विकास को आधार बनाया गया है । वर्तमान में आसियान और भारत के बीच व्यापार 13 अरब डॉलर तक सीमित है, जिसे 2007 तक बढ़ाकर 30 अरब डॉलर करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया । सम्मेलन के दौरान भारत के प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने एशियाई आर्थिक विकास समूह के गठन का एक प्रस्ताव भी दिया ।
क्वालालम्पुर में 11वां आसियान शिखर सम्मेलन (12-14 दिसम्बर, 2005):
आसियान का 11वां शिखर सम्मेलन 12-14 दिसम्बर, 2005 को क्वालालम्पुर में आयोजित किया गया । इसमें यूरोपीय संघ की तर्ज पर साझा बाजार, एकल मुद्रा और एकल एशिया का विचार उभरकर आया । आसियान सदस्य देश वर्ष 2020 तक एक पूर्णरूपेण आर्थिक समुदाय बनने के लिए आसियान ‘एकल खिड़की’ (सिंगल विंडो) व्यवस्था बनाने पर सहमत हो गये । सिंगल विंडो व्यवस्था के तहत आसियान देशों को तयशुदा समय सीमा के बाद से एक ही जगह सारे आंकड़े और सूचनाएं उपलब्ध करानी होंगी ।
इसके अन्तर्गत सभी आसियान देशों के बीच एक-दूसरे के माल की आवाजाही पर समान नियम और सीमा शुल्क लागू होंगे । आसियान शिखर सम्मेलन के बीच में चौथी भारत आसियान बैठक तथा पहले पूर्वी एशियाई शिखर सम्मेलन का आयोजन किया गया ।
सेबू में सम्पन्न 12वां आसियान शिखर सम्मेलन (13 जनवरी, 2007):
दक्षिण-पूर्व एशिया के 10 देशों के संगठन ‘आसियान’ के 13 जनवरी, 2007 को सेबू में सम्पन्न 12वें शिखर सम्मेलन में इन देशों ने 2015 तक मुक्त व्यापार क्षेत्र स्थापित करने का लक्ष्य निर्धारित किया है । फिलीपींस की राष्ट्रपति ग्लोरिया आरोयो की अध्यक्षता में सम्पन्न इस सम्मेलन में आतंकवाद के विरुद्ध एक समझौते के साथ-साथ ‘आसियान’ का पहला चार्टर बनाने के संकल्प पर हस्ताक्षर भी किए गए जिसका उद्देश्य आसियान को यूरोपीय संघ की तर्ज पर नियम-कायदों से बंधी एक संस्था के रूप में बदलना है ।
12वें आसियान शिखर सम्मेलन के साथ 14 जनवरी, 2007 को भारत-आसियान पांचवीं शिखर बैठक तथा 15 जनवरी, 2007 को दूसरा पूर्वी एशियाई शिखर सम्मेलन भी सम्पन्न हुआ । 13 अगस्त, 2009 को भारत ने 10 सदस्यीय आसियान के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किये । इस समझौते के परिणामस्वरूप दोनों पक्षों के बीच वार्षिक व्यापार 40 अरब डॉलर से बढ्कर 60 अरब डॉलर हो जाने की आशा व्यक्त की गई है ।
आसियान का 15वां शिखर सम्मेलन (24-25 अक्टूबर, 2009):
24-25 अक्टूबर, 2009 को आसियान का 15वां शिखर सम्मेलन थाईलैण्ड में चाआम व हुआहीन में संपन्न हुआ । इसके साथ ही भारत-आसियान सातवां शिखर सम्मेलन व चौथा पूर्वी एशियाई शिखर सम्मेलन भी संपन्न हुआ ।
आसियान का 16वां एवं 17वां शिखर सम्मेलन (8-9 अप्रैल, 2010 तथा 28-31 अक्टूबर 2010):
आसियान का 16वां एवं 17वां शिखर सम्मेलन वियतनाम की राजधानी हनोई में 8-9 अप्रैल, 2010 तथा 28-31 अक्टूबर, 2010 को संपन्न हुआ ।
आसियान का 19वां शिखर सम्मेलन (नबम्बर 2011):
17-19 नवम्बर, 2011 को आसियान देशों का 19वां शिखर सम्मेलन बाली (इण्डोनेशिया) में आयोजित किया गया । राजनीतिक व सुरक्षा सम्बन्धी मामलों में सहयोग संवर्द्धन, आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने एवं वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने के प्रति प्रतिबद्ध सम्मेलन में व्यक्त की गयी ।
सम्मेलन में स्वीकार किया गया- ‘डिक्लेरेशन ऑन आसियान कनेक्टिविटी’ घोषणा-पत्र इस क्षेत्र में सम्पर्क के विस्तार से सम्बन्धित है । सम्मेलन का मुख्य विषय था ‘राष्ट्रों के वैश्विक समुदाय में आसियान समुदाय ।’ इण्डोनेशियाई राष्ट्रपति सुसिलो बमबांग युधोयोनो ने इसकी अध्यक्षता की ।
20वां आसियान शिखर सम्मेलन (3-4 अप्रैल, 2012):
”आसियान : वन कम्युनिटी, वन डेस्टिनी” थीम के साथ फनोम पेह्न (कम्बोडिया) में आयोजित किए गए सम्मेलन में वर्ष 2015 तक यूरोपीय संघ की तर्ज पर आसियान समुदाय बनाए जाने की प्राथमिकता के साथ सबको मिलकर एकजुट प्रयास किए जाने पर सर्वसम्मति जारी की गई ।
सम्मेलन के बाद फिनोम पेह्न घोषणा-पत्र जारी किया गया । घोषणा-पत्र में 2015 तक अवैध मादक पदार्थ उत्पादन एवं तस्करी मुक्त क्षेत्र बनाए जाने और क्षेत्र में श्रमिकों की उन्मुक्त आवाजाही पर नीतिगत वक्तव्य जारी किया गया ।
21वां आसियान शिखर सम्मेलन (18-20 नवम्बर, 2012):
21वां आसियान शिखर सम्मेलन 18-20 नवम्बर, 2012 को कम्बोडिया की राजधानी फनोमपेह्न में आयोजित किया गया । सम्मेलन में विचारणीय मुद्दे थे – दक्षिण-चीन सागर पर चीन के दावे और सीमा विवाद के कारण उपजा तनाव, मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने पर चर्चा आदि ।
22वां 23वां आसियान शिखर सम्मेलन:
ब्रूनेई (24-25 अप्रैल, 2013 एवं 9-10 अक्टूबर, 2013) – 22वां (24-25 अप्रैल, 2013) एवं 23वां (9-10 अक्टूबर, 2013) आसियान शिखर सम्मेलन ब्रूनेई में सम्पन्न हुआ । “हमारे लोग, हमारा भविष्य साथ-साथ” के नारे के साथ सम्पन्न हुए 23वें शिखर सम्मेलन में 2015 तक आसियान समुदाय के गठन की प्रगति की समीक्षा की गई ।
अब केवल यूरोपीय संघ की तर्ज पर समुदाय गठन के लिए दो वर्ष शेष बचे हैं । अत: इस बात पर जोर दिया गया कि आसियान देशों को साथ-साथ चलते हुए ऐसी व्यापार सुविधाएं और व्यापारिक परिवेश बनाना चाहिए जिससे राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक एकीकरण की दिशा में बढ़ा जा सके ।
24वां आसियान शिखर सम्मेलन : नेपेडा (11 मई, 2014):
म्यांमार (नेपेडा) में पहली बार 11 मई, 2014 को शुरू हुए 24वें आसियान शिखर सम्मेलन का असमानता को पाटने, क्षेत्रीय विवादों पर काबू पाने और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के संघ (आसियान) को उसके निर्धारित समय सीमा समय की ओर अग्रसर कराने पर जोर रहा ।
इस बार के आसियान शिखर सम्मेलन का विषय ‘शान्तिपूर्ण एवं समृद्ध-समुदाय की ओर’ (मूविंग फॉरवर्ड इन यूनिटी टू ए पीसफुल एण्ड प्रोसपेरस कम्युनिटी) रखा गया । सम्मेलन के आखिर में जारी नेपेडा घोषणा-पत्र में 2015 के अन्त तक दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्रों की लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में प्रगति की समीक्षा और आर्थिक एकीकरण की प्रक्रिया की चुनौतियों से निपटने पर चर्चा की गई ।
फिलहाल आसियान की अध्यक्षता म्यांमार कर रहा है । भारत-आसियान व्यापार वर्तमान में 76 अरब डॉलर का है जिसे कि 2015 तक 100 अरब डॉलर तथा 2022 तक 200 अरब डॉलर किए जाने का लक्ष्य है और इस रूप में भारत के लिए आसियान बहुत महत्वपूर्ण है ।
25वां आसियान शिखर सम्मेलन : नेपेडा (12-13 नवम्बर, 2014):
नेपेडा में आसियान का 25वां शिखर सम्मेलन 12-13 नवम्बर, 2014 को सम्पन्न हुआ । सम्मेलन में आर्थिक मुद्दे व ट्रेड यूनियन के भीतर आर्थिक प्रक्रियाओं को मजबूत करने और विश्व शक्तियों के साथ अच्छे सम्बन्धों पर विचार-विमर्श हुआ, किन्तु दक्षिण चीन सागर में कुछ क्षेत्रीय विवादों के उत्पन्न होने और कुछ प्राकृतिक परिस्थितियों के उभरने से शिखर सम्मेलन अपने मूल व मुख्य मुद्दों पर चर्चा करने से दूर हो गया ।
26वां एवं 27वां आसियान शिखर सम्मेलन (26-28 अप्रैल, 2015 एवं 18-22 नवम्बर, 2015):
मलेशिया की राजधानी क्वालालम्पुर-लंगकावी में 26-28 अप्रैल, 2015 को 26वां आसियान शिखर सम्मेलन आयोजित हुआ । मलेशिया की राजधानी क्वालालम्पुर में 22 नवम्बर, 2015 को 27वां आसियान शिखर सम्मेलन आयोजित हुआ ।
आसियान नेताओं ने आज एक यूरोपीयन यूनियन की तरह का क्षेत्रीय, आर्थिक संगठन, आसियान आर्थिक समुदाय स्थापित करने की घोषणा की है । आर्थिक समुदाय एक एकल बाजार के गठन पर विचार कर रहा है जिसमें आसियान देशों के बीच वस्तुओं, पूंजी और कुशल श्रमिकों का मुक्त प्रवाह होगा ।
यह दक्षिण पूर्व एशिया की विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं का समन्वय करेगा । आसियान देशों की जनसंख्या 62 करोड़ और इनका सकल घरेलू उत्पाद 2.4 खरब अमरीकी डॉलर है । आसियान आर्थिक समुदाय के गठन के घोषणा पत्र पर प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून सहित विश्व नेताओं की मौजूदगी में आसियान के सदस्य दस राष्ट्रों के नेताओं ने हस्ताक्षर किए ।
कुवालालम्पुर घोषणा पत्र में एशियाई देशों के राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक क्षेत्र के लिए रोडमैप तैयार किया गया है । सदस्य देशों के बीच निवेश को बढ़ावा देने के लिए आपसी विश्वास पर ज्यादा जोर दिया गया है ।
घोषणा पत्र में कहा गया है कि आपसी मतभेद को भुलाकर सभी एशियाई देशों को आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त रणनीति बनाए जाने की आवश्यकता है । एकजुट होकर ही आतंकवाद का मुकाबला किया जा सकता है । उम्मीद की जा रही है कि बदलते परिवेश में क्वालालम्पुर घोषणा पत्र एशियाई देशों के लिए मील का पत्थर साबित होगा ।
आसियान की भूमिका का मूल्यांकन:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के कतिपय विद्वानों का मत है कि मोटे तौर पर ‘आसियान’ का कार्य एवं भूमिका मन्द एवं निराशाजनक रही है । आसियान की तुलना ‘यूरोपियन साझा बाजार’ से करते हुए उनका विचार है कि यह संगठन सदस्य राष्ट्रों में वह आर्थिक एवं अन्य प्रकार का सहयोग तीव्र गति से नहीं बढ़ा पाया है ।
आर्थिक सहयोग में ‘आसियान’ की गति मन्द होने का कारण सदस्य राष्ट्रों के पास आवश्यक पूंजी एवं क्रय-शक्ति का कम होना है । सदस्य राष्ट्रों के हितों में टकराव के कारण उनके बीच कई अन्तर्राष्ट्रीय विवाद भी उठे हैं ।
यह भी आरोप लगाया जाता है कि आसियान देशों का झुकाव पश्चिमी देशों की तरफ अधिक रहा है । यह सही है कि इण्डोनेशिया के अतिरिक्त आसियान के अन्य सदस्य राष्ट्र मलेशिया, सिंगापुर, फिलिपीन एवं थाईलैण्ड पश्चिमी देशों के साथ सुरक्षात्मक समझौते से जुड़े हैं तथा उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अनेक मुद्दों पर ही नहीं, बल्कि हिन्दचीन पर भी पश्चिमी शक्तियों का साथ दिया है । आसियान के सदस्य राष्ट्रों में विदेशी सैनिक अड्डे भी मौजूद हैं ।
इन सब आलोचनाओं के बावजूद आसियान एक असैनिक स्वरूप का संगठन है । आसियान की सदस्यता के द्वार दक्षिण-पूर्वी एशिया के उन सभी राष्ट्रों के लिए खुले हुए हैं जो इसके उद्देश्य, सिद्धान्त तथा प्रयोजनों में विश्वास रखते हैं । आसियान के सदस्य राष्ट्रों की जनता उसको एक ऐसी मशीनरी के रूप में मानती है जो एक देश की जनता को दूसरे देश की जनता से जोड़ती है ।
‘आसियान’ क्षेत्र को मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने के प्रयत्न क्षेत्रीय सहयोग की दिशा में महत्वपूर्ण चरण हैं । किसी ने ठीक कहा है कि- ”भारत आसियान का पश्चिमी पंख है और जापान व दक्षिण कोरिया पूर्वी पंख है । आसियान रूपी जम्बोजेट के उड़ने के लिए दोनों पंखों का सहयोग अपेक्षित है ।”
Essay # 2. दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (सार्क) (The South Asian Association for Regional Co-Operation-SAARC):
‘सार्क’ (दक्षेस) का पूरा नाम है ‘साउथ एशियन ऐसोसिएशन फॉर रीजनल को-ऑपरेशन’ (The South Asian Association for Regional Co-Operation) अर्थात्, ‘दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ’ । 7 व 8 दिसम्बर, 1985 को ढाका में दक्षिण एशिया के 7 देशों के राष्ट्राध्यक्षों का सम्मेलन हुआ तथा ‘सार्क’ की स्थापना हुई ।
ये देश हैं – भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका और मालदीव । यह दक्षिण एशिया के सात पड़ोसी देशों की विश्व राजनीति में क्षेत्रीय सहयोग की पहली शुरुआत है । ‘सार्क’ की स्थापना के अवसर पर दक्षिण एशिया के इन नेताओं ने जो भाषण दिए, उनमें आपसी सहयोग बढ़ाने और तनाव समाप्त करने पर जोर दिया गया ।
उन्होंने यह भी कहा कि इस नए संगठन के जन्म से इन सात देशों के बीच सद्भावना, भाई-चारा और सहयोग का नया युग शुरू होगा । उन्होंने ‘क्षेत्रीय सहयोग संघ’ के जन्म को ‘युगान्तरकारी घटना’, ‘नए युग का शुभारम्भ’ तथा ‘सामूहिक सूझबूझ और राजनीतिक इच्छा शक्ति की अभिव्यक्ति’ बताया ।
दक्षिण एशियाई संघ के सदस्य देशों में लगभग 168 करोड़ लोग रहते हैं । इस दृष्टि से यह विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला संघ है । यद्यपि यह क्षेत्र प्राकृतिक साधनों, जनशक्ति तथा प्रतिभा से भरपूर है तथापि इन देशों की जनसंख्या गरीबी, अशिक्षा और कुपोषण की समस्या से पीड़ित है ।
इस क्षेत्र में जनसंख्या के सकल राष्ट्रीय उत्पाद में इस क्षेत्र का भाग केवल 2 प्रतिशत और निर्यात में 0.6 प्रतिशत है । भारत को छोड़कर इस क्षेत्र के अन्य देशों को खाद्यान्न का आयात करना पड़ता है ।
मालदीव को छोड़कर संघ के शेष सदस्य (भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, और श्रीलंका) भारतीय उपमहाद्वीप के हिस्से हैं । ये सभी देश इतिहास, भूगोल, धर्म और संस्कृति के द्वारा एक-दूसरे से जुड़े हैं । विभाजन के पहले भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक ही प्रशासन और अर्थव्यवस्था के अभिन्न अंग थे, लेकिन स्वतन्त्रता के बाद ये देश एक-दूसरे से दूर हो गए ।
‘सार्क’ का विकास धीरे-धीरे हुआ है । दक्षिण एशियाई देशों का क्षेत्रीय संगठन बनाने का विचार बांग्लादेश के पूर्व राष्ट्रपति जिया उर रहमान ने दिया था । उन्होंने 1977 से 1980 के बीच भारत, पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका की यात्रा की थी ।
उसके बाद ही उन्होंने एक दस्तावेज तैयार करवाया जिसमें नवम्बर 1980 में आपसी सहयोग के लिए दस मुद्दे तय किए गए । बाद में इसमें पर्यटन और संयुक्त उद्योग को निकाल दिया गया । इन्हीं में से चयनित मुद्दे आज भी ‘सार्क’ देशों के बीच सहयोग का आधार हैं ।
‘सार्क’ के विदेश सचिवों की अप्रैल 1981 में बांग्लादेश के दस्तावेज पर विचार करने के लिए एक बैठक हुई थी । विदेश मन्त्रियों की पहली बैठक नयी दिल्ली में सन् 1983 में हुई थी । इसी बैठक में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग की पहली औपचारिक घोषणा हुई । विदेश मन्त्रियों की बैठक जुलाई 1984 में मालदीव में और 1985 में भूटान में हुई । उसके बाद ही दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन की स्थापना हुई और इसका संवैधानिक स्वरूप निश्चित किया गया ।
सहयोग क्षेत्रों का निर्धारण:
सार्क का मूल आधार क्षेत्रीय सहयोग पर बल देना है । अगस्त 1983 में ऐसे नौ क्षेत्र रेखांकित किए गए थे – कृषि, स्वास्थ्य सेवाएं, मौसम विज्ञान, डाक-तार सेवाएं, ग्रामीण विकास, विज्ञान तथा तकनीकी, दूरसंचार तथा यातायात, खेलकूद तथा सांस्कृतिक सहयोग । दो वर्ष बाद ढाका में इस सूची में कुछ और विषय जोड़ दिए गए – आतंकवाद की समस्या, मादक-द्रव्यों की तस्करी तथा क्षेत्रीय विकास में महिलाओं की भूमिका ।
सार्क का चार्टर एवं ढाका घोषणा:
सार्क के चार्टर में 10 धाराएं हैं । इनमें सार्क के उद्देश्यों, सिद्धान्तों, संस्थाओं तथा वित्तीय व्यवस्थाओं को परिभाषित किया गया है ।
जो निम्न प्रकार हैं:
उद्देश्य:
अनुच्छेद 1 के अनुसार सार्क के मुख्य उद्देश्य हैं:
(a) दक्षिण एशिया क्षेत्र की जनता के कल्याण एवं उनके जीवन-स्तर में सुधार करना
(b) दक्षिण एशिया के देशों की सामूहिक आत्म-निर्भरता में वृद्धि करना
(c) क्षेत्र के आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक विकास में तेजी लाना
(d) आपसी विश्वास, सूझ-बूझ तथा एक-दूसरे की समस्याओं का मूल्यांकन करना
(e) आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, तकनीकी और वैज्ञानिक क्षेत्र में सक्रिय सहयोग एवं पारस्परिक सहायता में वृद्धि करना
(f) अन्य विकासशील देशों के साथ सहयोग में वृद्धि करना
(g) सामान्य हित के मामलों पर अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर आपसी सहयोग मजबूत करना
सिद्धान्त:
अनुच्छेद 2 के अनुसार सार्क के मुख्य सिद्धान्त निम्न हैं:
(i) संगठन के ढांचे के अन्तर्गत सहयोग, समानता, क्षेत्रीय अखण्डता, राजनीतिक स्वतन्त्रता, दूसरे देशों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना तथा आपसी लाभ के सिद्धान्तों का सम्मान करना,
(ii) इस प्रकार का सहयोग द्विपक्षीय और बहुपक्षीय सहयोग का स्थान नहीं लेगा बल्कि उनका पूरक होगा,
(iii) इस प्रकार का सहयोग द्विपक्षीय और बहुपक्षीय उत्तरदायित्वों का विरोधी नहीं होगा ।
संस्थाएं:
चार्टर के अन्तर्गत ‘सार्क’ की निम्न संस्थाओं का उल्लेख किया गया है:
(1) शिखर सम्मेलन:
अनुच्छेद 3 के अनुसार प्रतिवर्ष एक शिखर सम्मेलन का आयोजन किया जाता है । शिखर सम्मेलन में सदस्य देशों के शासनाध्यक्ष भाग लेते हैं । पहला शिखर सम्मेलन बांग्लादेश की राजधानी ढाका में (7-8 दिसम्बर, 1985), दूसरा सम्मेलन भारत के बेंगलुरू नगर में (16-17 नवम्बर, 1986), तीसरा शिखर सम्मेलन नेपाल (1987) में, चौथा शिखर सम्मेलन (1988) पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में, पांचवां शिखर सम्मेलन (1990) मालदीव की राजधानी माले में, छठा शिखर सम्मेलन 1991 में श्रीलंका की राजधानी कोलम्बो में, सातवां शिखर सम्मेलन (अप्रैल 1993) बांग्लादेश की राजधानी ढाका में, आठवां शिखर सम्मेलन भारत की राजधानी नई दिल्ली (3-4 मई 1995) में, नौवां शिखर सम्मेलन मालदीव की राजधानी माले (12-14 मई, 1997) में, दसवां शिखर सम्मेलन जुलाई 1998 में श्रीलंका की राजधानी कोलम्बो में, 11वां शिखर सम्मेलन जनवरी 2002 में नेपाल की राजधानी काठमांडू में, 12वां शिखर सम्मेलन जनवरी 2004 में पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में, 13वां शिखर सम्मेलन 12, 13 नवम्बर 2005 में बांग्लादेश की राजधानी ढाका में, चौदहवां शिखर सम्मेलन 2007 में भारत की राजधानी नई दिल्ली में, 15वां शिखर सम्मेलन 2-3 अगस्त, 2008 में श्रीलंका की राजधानी कोलम्बो में, 16वां शिखर सम्मेलन 28-29 अप्रैल, 2010 को भूटान की राजधानी थिम्पू में 17वां शिखर सम्मेलन 10-11 नवम्बर को मालदीव में तथा 18वां शिखर सम्मेलन 26-27 नवम्बर, 2014 को काठमाण्डू (नेपाल) में आयोजित किया गया ।
(2) मन्त्रिपरिषद:
अनुच्छेद 4 के अनुसार यह सदस्य देशों के विदेश मन्त्रियों की परिषद् है । इसकी विशेष बैठक आवश्यकतानुसार कभी भी हो सकती है परन्तु छह माह में एक बैठक होना आवश्यक है । इसके कार्य हैं – संघ की नीति निर्धारित करना, सामान्य हित के मुद्दों के बारे में निर्णय करना, सहयोग के नए क्षेत्र खोजना, आदि ।
(3) स्थायी समिति:
अनुच्छेद 5 के अनुसार यह सदस्य देशों के सचिवों की समिति है । इसकी बैठकें आवश्यकतानुसार कभी भी हो सकती हैं परन्तु वर्ष में एक बैठक का होना अनिवार्य है । इसके प्रमुख कार्य हैं – सहयोग के कार्यक्रमों को मॉनिटर करना, अन्तर-क्षेत्रीय प्राथमिकताएं निर्धारित करना, अध्ययन के आधार पर सहयोग के नए क्षेत्रों की पहचान करना ।
(4) तकनीकी समितियां:
इनकी व्यवस्था अनुच्छेद 6 में की गयी है । इनमें सभी सदस्य देशों के प्रतिनिधि होते हैं । ये अपने-अपने क्षेत्र में कार्यक्रम को लागू करने, उनमें समन्वय पैदा करने और उन्हें मॉनिटर करने के लिए उत्तरदायी हैं । ये स्वीकृत क्षेत्रों में क्षेत्रीय सहयोग के क्षेत्र और सम्भावनाओं का पता लगाती हैं ।
(5) कार्यकारी समिति:
अनुच्छेद 7 में कार्यकारी समिति की व्यवस्था की गयी है । इसकी स्थापना स्थायी समिति द्वारा की जा सकती है ।
(6) सचिवालय:
अनुच्छेद 8 में सचिवालय का प्रावधान है । इसकी स्थापना दूसरे सार्क सम्मेलन (बेंगलुरू) के बाद 16 जनवरी, 1987 को की गयी । 17 जनवरी, 1987 से काठमांडू सचिवालय ने कार्य करना शुरू कर दिया है । महासचिव का कार्यकाल 2 वर्ष रखा गया है तथा महासचिव का पद सदस्यों में बारी-बारी से घूमता रहता है ।
प्रत्येक सदस्य अपनी बारी आने पर किसी व्यक्ति को नामजद करता है जिसे सार्क मन्त्रिपरिषद् नियुक्त कर देती है । सार्क सचिवालय को सात भागों में विभक्त किया गया है और प्रत्येक भाग के अध्यक्ष को निदेशक कहते हैं । 1 मार्च, 2014 से नेपाल के अर्जुन बहादुर थापा सार्क के महासचिव पद पर कार्यरत हैं ।
काठमाण्डू स्थित सार्क सचिवालय ने वर्ष 2003 में श्रीलंका में एक सांस्कृतिक केन्द्र और मालदीव में तटीय प्रबन्धन केन्द्र की स्थापना की । दक्षिण एशिया के देशों के बीच विकास एवं सहयोग गतिविधियों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से अब तक सार्क के पांच केन्द्र खोले जा चुके हैं । ढाका में कृषि व मौसम विज्ञान पर शोध के लिए दो अलग-अलग केन्द्रों की स्थापना की गई है जबकि दिल्ली में सार्क का एक शोध केन्द्र स्थापित है ।
(7) वित्तीय प्रावधान:
सार्क के कार्यों के लिए प्रत्येक सदस्य के अंशदान को ऐच्छिक रखा गया है । कार्यक्रमों के व्यय को सदस्य देशों में बांटने के लिए तकनीकी समिति की सिफारिशों का सहारा लिया जाता है । सचिवालय के व्यय को पूरा करने के लिए सदस्य देशों के अंशदान को निम्न प्रकार निर्धारित किया गया है- भारत 32%, पाकिस्तान 25%, नेपाल, बांग्लादेश एवं श्रीलंका प्रत्येक का 11% और भूटान एवं मालदीव प्रत्येक का 5% ।
सार्क शिखर सम्मेलन:
ढाका शिखर सम्मेलन:
सार्क का पहला शिखर सम्मेलन बांग्लादेश की राजधानी ढाका में 7-8 दिसम्बर, 1985 में हुआ जिसमें दक्षिण एशिया के 7 देशों ने विभिन्न समस्याओं और भाई-चारे तथा सहयोग के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से विचार-विमर्श एवं विश्लेषण किया ।
बेंगलूरू शिखर सम्मेलन:
सार्क का द्वितीय शिखर सम्मेलन बेंगलुरू में 16-17 नवम्बर, 1986 को सम्पन्न हुआ । सम्मेलन में निश्चित किया गया कि सार्क का सचिवालय काठमाण्डू में स्थापित होगा जिसके प्रथम महासचिव श्री अब्दुल हसन नियुक्त किए गए । सहयोग के क्षेत्र में नशीले पदार्थों की तस्करी रोकने, पर्यटन के विकास, रेडियो-दूरदर्शन प्रसारण कार्यक्रम, विपदा प्रबन्ध पर अध्ययन सम्मिलित किए गए और क्रियान्वयन हेतु एक समयबद्ध कार्यक्रम की घोषणा की गयी ।
काठमाण्डू शिखर सम्मेलन:
सार्क का तीन-दिवसीय तृतीय शिखर सम्मेलन नेपाल की राजधानी काठमाण्डू में 4 नवम्बर, 1987 को समाप्त हुआ । आतंकवाद की समस्या पर सभी राष्ट्रों ने खुलकर विचार किया । आतंकवाद निरोधक समझौता उस सम्मेलन की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी । खाद्य सुरक्षा भण्डार की स्थापना एवं पर्यावरण की समस्या पर भी विचार-विमर्श हुआ ।
सार्क (दक्षेस) का चतुर्थ शिखर सम्मेलन (दिसम्बर, 1988) इस्लामाबाद धोषणा-पत्र:
सार्क (दक्षेस) का चतुर्थ शिखर सम्मेलन (29-31 दिसम्बर, 1988) क्षेत्रीय सहयोग के नूतन दिशा-संकेत इंगित करता है । ‘इस्लामाबाद घोषणा-पत्र’ में दक्षेस 2000 एकीकृत योजना पर विशेष जोर दिया गया । इस योजना के अन्तर्गत शताब्दी के अन्त तक क्षेत्र की एक अरब से अधिक जनसंख्या को आवास व शिक्षा देने का प्रावधान है ।
इसमें मादक-द्रव्यों के खिलाफ संघर्ष का आह्वान किया गया । घोषणा-पत्र में परमाणु निरस्त्रीकरण पर बल देते हुए सकारात्मक अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का नया माहौल बनाने का स्वागत भी किया गया । घोषणा-पत्र में नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था कायम करने की दिशा में फिर से बातचीत शुरू करने का आह्वान किया गया । विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग बढ़ाने पर आह्वान करते हुए घोषणा-पत्र में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ के सदस्य देशों में क्षेत्रीय सहयोग बढ़ाने पर जोर दिया गया ।
सार्क (दक्षेस) का पांचवां शिखर सम्मेलन (नवम्बर, 1990):
23 नवम्बर, 1990 को मालदीव की राजधानी माले में 5वां दक्षेस शिखर सम्मेलन सम्पन्न हुआ । सम्मेलन में भारत के प्रधानमन्त्री चन्द्रशेखर, पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री मियां नवाज शरीफ व नेपाल के प्रधानमन्त्री भट्टाराई शामिल हुए । मालदीव के राष्ट्रपति गयूम को दक्षेस का नया अध्यक्ष बनाया गया ।
शिखर सम्मेलन की समाप्ति पर सदस्य देशों के शासनाध्यक्षों ने माले घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किए । इन दक्षिण एशियाई देशों ने आर्थिक क्षेत्र में आपसी सहयोग मजबूत करने के लिए संयुक्त उद्योग स्थापित करने तथा क्षेत्रीय परियोजनाओं हेतु सामूहिक कोष गठित करने का निर्णय किया ।
सम्मेलन के नेताओं ने विकासशील देशों के लिए अधिक दिनों तक खाद्य जुटाने के सम्बन्ध में जैव-प्रौद्योगिकी के महत्व तथा चिकित्सा सम्बन्धी आवश्यकताओं पर बल दिया और इस क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने का आह्वान किया । घोषणा-पत्र में आत्म-निर्भरता की आवश्यकता पर बल दिया गया ।
सार्क (दक्षेस) का छठा शिखर सम्मेलन (दिसम्बर 1991):
21 दिसम्बर, 1991 को कोलम्बो में छठा सार्क शिखर सम्मेलन सम्पन्न हुआ । श्रीलंका के राष्ट्रपति सार्क के नए अध्यक्ष बनाए गए ।
सम्मेलन में निम्नांकित बातों पर सहमति व्यक्त की गई:
(I) क्षेत्र में आतंकवाद को रोकने के लिए व्यापक सहयोग और सदस्य देशों में सूचनाओं का आदान-प्रदान किया जाए ।
(II) निरस्त्रीकरण की सामान्य प्रवृत्ति का स्वागत इस आशा से किया गया कि उससे सैन्य शक्तियों को विश्व के अन्य भागों में संयम बरतने के लिए प्रेरणा मिलेगी ।
(III) मानव अधिकारों के प्रश्न को केवल संकीर्ण और विशुद्ध राजनीतिक दृष्टि से न देखकर आर्थिक और सामाजिक पहलू के साथ सम्बद्ध करके देखा जाए ।
(IV) सार्क के सदस्य देशों के बीच व्यापार के उदारीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसके संस्थागत ढांचे के बारे में समझौता किया जाए ।
(V) गरीबी उन्मूलन के लिए यह सार्क समिति की स्थापना की जाए ।
(VI) वर्ष 2000 तक क्षेत्र के सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा की सुविधा प्रदान करायी जाए ।
सार्क (दक्षेस) का सातवां शिखर सम्मेलन (अप्रैल 1993):
दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) का दो-दिवसीय शिखर सम्मेलन 10 अप्रैल, 1993 को बांग्लादेश (ढाका) में प्रारम्भ हुआ । बांग्लादेश की प्रधानमन्त्री बेगम खालिदा जिया ने श्रीलंका के राष्ट्रपति प्रेमदासा से संगठन की अध्यक्षता का कार्यभार लिया ।
सम्मेलन में सार्क के सातों सदस्य देशों के शासनाध्यक्षों ने भाग लिया । आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त अभियान के आह्वान, आपसी आर्थिक सहयोग का घोषणा पत्र स्वीकार करने और दक्षिण एशिया वरीयता व्यापार समझौते की स्वीकृति के साथ सार्क सम्मेलन सम्पन्न हुआ ।
भारत के प्रधानमन्त्री पी. वी. नरसिंहराव तथा भारत के दक्षिण एशियाई पड़ोसियों ने अन्तर-क्षेत्रीय व्यापार को धीरे-धीरे उदार बनाने सम्बन्धी ढाका घोषणा-पत्र को स्वीकार किया और कहा कि दक्षेस देशों के बीच रियायती व्यापार के विनिमय के लिए पहले दौर की वार्ता आरम्भ करने के लिए आवश्यक कदम उठाये जाने चाहिए ।
दक्षिण एशियाई वरीयता व्यापार समझौता (साप्टा) को मंजूरी दिए जाने से दक्षिण एशिया में आर्थिक सहयोग के एक नए युग का सूत्रपात हुआ । साप्टा का उद्देश्य दक्षिण एशिया में व्यापार सम्बन्धी बाधाओं को दूर करना है । साप्टा समझौते के तहत सार्क देशों के बीच अधिक उदार व्यापार व्यवस्था कायम किए जाने का प्रावधान है ।
सार्क का आठवां शिखर सम्मेलन (मई 1995):
3-4 मई, 1995 को सार्क का आठवां शिखर सम्मेलन भारत की राजधानी नर्ड दिल्ली में सम्पन्न हुआ । आतंकवाद एवं गरीबी के खिलाफ युद्ध की घोषणा दिल्ली घोषणापत्र का मुख्य स्वर है । इस शिखर सम्मेलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि सात देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने दक्षिण एशिया अधिमान्य व्यापार समझौता (SAPTA) लागू करना स्वीकार कर लिया । घोषणा पत्र में वर्ष 1995 को ‘दक्षेस गरीबी उन्मूलन वर्ष’ तथा वर्ष 1996 को ‘दक्षेस साक्षरता वर्ष’ भी घोषित किया गया ।
सार्क का नौवां शिखर सम्मेलन (मई 1997):
दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) का नौवां शिखर सम्मेलन 12-14 मई, 1997 को मालदीव की राजधानी माले में संपन्न हुआ । शिखर सम्मेलन का उद्घाटन मालदीव के राष्ट्रपति मैमून अब्दुल गयूम ने किया ।
सम्मेलन की समाप्ति के अवसर पर सर्वसम्मति से जारी संयुता घोषणा पत्र में यह स्वीकार किया गया कि दक्षिण एशियाई क्षेत्र में शांति एवं स्थिरता का माहौल बनाए रखने तथा इस क्षेत्र के त्वरित सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए अच्छे पड़ोसी सम्बन्धों का होना आवश्यक । इसके लिए राजनीतिक स्तर पर अनौपचारिक वार्ताओं के महत्व को घोषणा पत्र में स्वीकार किया गया ।
घोषणा पत्र में एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह रही कि संगठन के तीन या अधिक सदस्य देशों के हित की विशिष्ट परियोजनाओं को प्रोत्साहित करने की बात इसमें स्वीकार की गई । दक्षिण एशिया क्षेत्र को एक स्वतन्त्र व्यापार क्षेत्र (SAFTA) के रूप में विकसित करने के सन् 2005 तक के पूर्ण निर्धारित लक्ष्य को अब 2001 तक ही प्राप्त करने की बात माले घोषणा पत्र में कही गई ।
आतंकवाद से निपटने के मामले पर घोषणा पत्र में कहा गया कि दक्षिण एशिया में आतंकवादी गतिविधियां संचालित करने वाले गुटों के विदेशों में धन एकत्रित करने पर तुरन्त रोक लगाई जाए । इस सन्दर्भ में अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर 1996 में संयुक्त राष्ट्र घोषणा पत्र को स्वीकार किए जाने की मांग घोषणा पत्र में की गई ।
भारत के प्रधानमंत्री श्री इन्द्र कुमार गुजराल ने दक्षिण एशियाई देशों के इस संगठन को अधिक प्रभावपूर्ण बनाने व सदस्य देशों के बीच आर्थिक सम्पर्क घनिष्ट करने के लिए ‘दक्षिण एशियाई स्वतन्त्र व्यापार’ (SAFTA) की परिणति ‘दक्षिण एशियाई आर्थिक समुदाय’ (SAEC) में करने का आह्वान किया ।
सार्क का दसवां शिखर सम्मेलन (जुलाई 1998):
29-31 जुलाई, 1998 को कोलम्बो में दसवें सार्क शिखर सम्मेलन का आयोजन हुआ । शिखर सम्मेलन ने व्यापार और निवेश के प्रमुख आर्थिक क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने के लिए कुछ महत्वपूर्ण निर्णय लिए । दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार से सम्बन्धित करार अथवा सन्धि पर बातचीत आरम्भ करने के लिए सार्क के सभी सात देशों के विशेषज्ञों का एक समूह गठित किया जाएगा ।
इस करार में व्यापार मुक्त करने के लिए बाध्य अनुसूचियों का उल्लेख होगा और इसे वर्ष 2001 तक अन्तिम रूप दे दिए जाने और सही स्थिति में ले आने की सम्भावना व्यक्त की गयी । कोलम्बो में सार्क नेता जनसंख्या की बढ़ोत्तरी को रोकने, शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, बाल कल्याण और महिलाओं के विकास के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रीय लक्ष्य निर्धारित करते हुए सार्क के लिए सामाजिक चार्टर तैयार करने पर सहमत हुए । क्षेत्र में गरीबी की समस्या पर विशेष ध्यान दिया गया और सार्क नेताओं ने एक-दूसरे को अधिकतम वर्ष 2002 तक दक्षिण एशिया में गरीबी के उन्मूलन के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त की ।
सार्क का 11वां शिखर सम्मेलन (जनवरी 2002):
सार्क का बहुप्रतीक्षित 11वां शिखर सम्मेलन 5-6 जनवरी, 2002 को काठमाण्डू में सम्पन्न हुआ । यह सम्मेलन मूलतः नवम्बर 1999 में प्रस्तावित था, किन्तु पाकिस्तान में नवाज शरीफ की निर्वाचित सरकार का तख्ता पलट जाने से वहां सैन्य सरकार होने के कारण उस समय नहीं हो सका ।
इस सम्मेलन का आयोजन अन्तत: ऐसे समय में हुआ जब भारत एवं पाकिस्तान के पारस्परिक सम्बन्धों में गम्भीर तनाव की स्थिति चरम अवस्था में थी । सम्मेलन की समाप्ति पर जारी 11 पृष्ठों के 56 सूत्रीय ‘काठमांडू घोषणा पत्र’ में आतंकवाद के खात्मे के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त की गयी । ‘दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार क्षेत्र’ (SAFTA) का मसौदा-2002 के अन्त तक तैयार करने की मंशा भी व्यक्त की गयी ।
सार्क का 12वां शिखर सम्मेलन (जनवरी, 2004):
12वां सार्क शिखर सम्मेलन 4 से 6 जनवरी, 2004 तक इस्लामाबाद में आयोजित किया गया । यह सम्मेलन आशा से अधिक सफल रहा । इसमें द्विपक्षीय मुद्दे, मसलन कश्मीर विवाद, आदि तो नहीं उठे, लेकिन आपसी व्यापार की बातें अवश्य की गईं ।
सारी बातचीत क्षेत्र में शान्ति, स्थायित्व, विकास और समृद्धि के केन्द्र में रखकर की गई । साफ्टा पर सहमति बनी और सार्क सामाजिक चार्टर को स्वीकृति प्रदान की गई । घोषणा-पत्र में स्पष्ट कहा गया कि हर तरह के आतंकवाद को समाप्त करने की जरूरत है और इसके लिए सभी सदस्य देश सार्क चार्टर एवं अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों के प्रति वचनबद्ध हैं । काफी समय तक अधर में लटके रहे साफ्टा के प्रस्ताव पर रजामंदी सार्क की एक दूसरी प्रमुख उपलब्धि रही ।
इस समझौते के अन्तर्गत सार्क देश जनवरी 2006 से मुक्त व्यापार के क्षेत्र में कदम रखेंगे । घोषणा-पत्र में सार्क सोशल चार्टर पर हस्ताक्षर किए जाने का स्वागत किया गया तथा इसे ऐसी ऐतिहासिक घटना बताया गया जिसके दक्षिण एशिया के करोड़ों लोगों के जीवन पर दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे ।
चार्टर में गरीबी उन्मूलन, जनसंख्या नियन्त्रण, महिलाओं का सशक्तिकरण, युवाओं की शक्ति को पहचानना, मानव संसाधन विकास, स्वास्थ्य, पोषाहार सुविधाओं का विस्तार करना, बच्चों की सुरक्षा और सभी दक्षिण एशियाई लोगों की भलाई के विषय शामिल रहे ।
सार्क का 13वां शिखर सम्मेलन (12-13 नवम्बर, 2005):
सार्क का 13वां शिखर सम्मेलन 12-13 नवम्बर, 2005 को ढाका में सम्पन्न हुआ । सम्मेलन के समापन से पूर्व तीन महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किये गये । यह समझौते दोहरे करारोपण से बचाव, बीसा नियमों में उदारता तथा दक्षेस संचार से सम्बन्धित हैं ।
सम्मेलन में स्वीकार किये गये ढाका घोषणा पत्र में अन्य बातों के अतिरिक्त क्षेत्र में आतंकवाद की समाप्ति के लिए परस्पर सहयोग, निर्धनता निवारण तथा व्यापार एवं आर्थिक क्षेत्रों में निकट सहयोग की बातें शामिल की गयीं ।
30 करोड़ डॉलर के आरम्भिक बजट से क्षेत्र के लिए एक गरीबी उन्मूलन कोष के गठन को सहमति इसमें व्यक्त की गई । शिखर सम्मेलन में अफगानिस्तान को संगठन का सदस्य बनाने तथा चीन व जापान को पर्यवेक्षक का दर्जा प्रदान करने पर सदस्य राष्ट्रों ने सहमति व्यक्त की ।
सार्क का 14वां शिखर सम्मेलन (3-4 अप्रैल, 2007):
14वां सार्क शिखर सम्मेलन 3-4 अप्रैल, 2007 को नई दिल्ली में आयोजित हुआ । इसके समापन समारोह में सार्क के मंत्रियों ने दक्षिण एशिया विश्वविद्यालय की स्थापना करने, सार्क खाद्यान्न भंडार बनाने, सार्क विकास कोष को क्रियान्वित करने तथा विवाद निपटारा परिषद् का गठन करने सम्बन्धी समझौतों पर हस्ताक्षर किए ।
सम्मेलन की शुरुआत इस्लामी गणराज्य अफगानिस्तान को सार्क में शामिल करने की संयुक्त घोषणा पर हस्ताक्षर से हुई । पहली बार चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, संयुक्त राज्य अमेरिका तथा यूरोपीय संघ पर्यवेक्षक के रूप में शामिल हुए ।
शिखर बैठक में आर्थिक मुद्दे ही ज्यादा छाए रहे । भारत की ओर से क्षेत्र के अल्पविकसित देशों के लिए शुल्क मुक्त व्यवस्था की एकतरफा घोषणा को इस सम्मेलन की मुख्य उपलब्धि कहा जा सकता है । सम्मेलन से दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार समझौता यानी साफ्टा के रास्ते की अड़चनें काफी हद तक दूर होने की उम्मीद दिखायी देती है ।
सार्क का 15वां शिखर सम्मेलन (2-3 अगस्त, 2008):
15वां सार्क शिखर सम्मेलन 2-3 अगस्त, 2008 को कोलम्बो में सम्पन्न हुआ । यह सम्मेलन इस बात के लिए जाना जाएगा कि आतंकवाद पर पहली बार इसके सभी सदस्य आमराय बनाने में सफल हुए । सार्क के मंच से भारत, अफगानिस्तान और श्रीलंका जैसे महत्वपूर्ण देशों ने खुलेआम इस मुद्दे को उठाया ।
हामिद करजई ने तो पाकिस्तान पर इसको शह देने को आरोप भी लगाया, फिर भी पाकिस्तान ने इस पर बिदकने की बजाय खुद को भी इसका भुक्तभोगी बताकर सबको चौंका दिया । सम्मेलन में खाद्य और ऊर्जा संकट से निपटने के लिए तीन सौ मिलियन डॉलर की एक सार्क विकास निधि बनाने और एक देश में अपराध करके बगल के देश में छिप जाने की क्षेत्रीय अपराध समस्या से निपटने के लिए कानूनी सहयोग का पुख्ता इंतजाम करने के मुद्दे पर भी सकारात्मक रुख अपनाया गया ।
सार्क का 16वां शिखर सम्मेलन (28-29 अप्रैल, 2010):
28-29 अप्रैल, 2010 को भूटान की राजधानी थिम्पू में सार्क का 16वां शिखर सम्मेलन संपन्न हुआ, दो दिन चले इस शिखर सम्मेलन में सदस्य देशों ने आतंकवाद से निपटने, क्षेत्रीय व्यापार प्रतिबंध समाप्त करने, ऊर्जा एवं खाद्यान्न संकट की चुनौतियों का एकजुटता से सामना करने की बात कही ।
शिखर सम्मेलन में मुख्य विचारणीय विषय जलवायु परिवर्तन था जिसे नाम दिया गया ”हरित एवं खुशहाल दक्षिण एशिया की ओर ।” सम्मेलन के दौरान पर्यावरण और सेवा व्यापार से सम्बद्ध दो सार्क करारों पर हस्ताक्षर किये गये । सम्मेलन के दौरान ही थिम्पू में ‘सार्क विकास कोष’ सचिवालय का भी उद्घाटन किया गया ।
सार्क का 17वां शिखर सम्मेलन (10-11 नवम्बर, 2011):
दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (दक्षेस) का दो दिवसीय शिखर सम्मेलन 10-11 नवम्बर को मालदीव के अतोल (अडू) द्वीप पर सम्पन्न हुआ । सम्मेलन के अन्तिम दिन दक्षेस के सदस्य देशों ने व्यापारिक उदारीकरण और आतंकवाद के खिलाफ सहयोग बढ़ाने का निर्णय लिया ।
साथ ही दक्षिण एशियाई देशों ने प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए एक त्वरित कार्रवाई बल कायम करने सहित कई उपायों की घोषणा की और क्षेत्रीय एकजुटता के अपने सपने को वास्तविकता में बदलते हुए दक्षेस बीज बैंक की स्थापना और व्यापार से जुड़े दो समझौते सहित चार करारों पर हस्ताक्षर किए ।
नेताओं ने सम्मेलन के केन्द्र बिन्दु ‘सम्पर्क निर्माण’ में आस्था रखने का संकल्प लिया और हिन्द महासागर में मालवाहक जहाजों और समुद्र यात्रा सेवा में तेजी लाने सहित क्षेत्रीय रेल और वाहन परियोजनाओं पर अगले वर्ष तक समझौता करने का निर्णय लिया ।
साथ ही उन्होंने बांग्लादेश, भारत और नेपाल के बीच शीघ्र ही एक मालवाहक रेलगाड़ी चलाने पर जोर दिया । शिखर सम्मेलन के समापन अवसर पर मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने व्यापारिक अवरोधों को कम करने, निवेश को मजबूत बनाने और सम्पर्क बढ़ाने की प्रतिबद्धताओं सहित कई निर्णयों की घोषणा की ।
इसके अतिरिक्त सदस्य देशों ने जलवायु परिवर्तन एवं अक्षय ऊर्जा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सहयोग का विस्तार करने का निर्णय लिया । साथ ही दक्षेस देशों ने आतंकवाद, अन्तर्राष्ट्रीय संगठित अपराधों खासकर अवैध मादक पदार्थों, मानव और छोटे हथियारों की तस्करी और समुद्री लूट के खिलाफ अपनी लड़ाई का संकल्प दोहराया ।
सार्क का 18वां शिखर सम्मेलन (26-27 नवम्बर, 2014):
काठमाण्डू में 18वां सार्क शिखर सम्मेलन 26-27 नवम्बर, 2014 को सम्पन्न हुआ । सदस्य देशों ने मुक्त व्यापार क्षेत्र, तटकर संघ, साझा बाजार और साझे आर्थिक तथा मौद्रिक संघ के द्वारा चरणबद्ध और योजनाबद्ध तरीके से दक्षिण एशियाई आर्थिक संघ को मूर्तरूप देने के प्रति अपनी वचन बद्धता दोहराई । सार्क विकास कोष की सामाजिक विंडो को मजबूत बनाने और शीघ्र आर्थिक विंडो और बुनियादी ढांचा विंडो को चालू करने पर सहमति हुई ।
सार्क की भूमिका का मूल्यांकन (Assesment of the Role of SAARC):
दक्षिण एशिया में समय बहुत तेजी से घूमा है । बाईस वर्ष पहले के समय पर नजर डालिए । खासतौर पर भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के प्रयासों से दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (दक्षेस) अस्तित्व में आया । उसमें भारत, बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका सम्मिलित हुए ।
विश्व की 22 प्रतिशत जनसंख्या को समेटने वाला यह विश्व का सबसे बड़ा क्षेत्रीय संगठन है । अस्सी और नब्बे के दशक में दक्षेस का मतलब केवल बड़े सम्मेलन और क्षेत्रीय मुद्दों से जुड़ी घोषणाएं थीं यद्यपि इस मंच पर द्विपक्षीय मुद्दे उठाना प्रतिबंधित कर दिया गया । पाकिस्तान कश्मीर का मुद्दा उठाता और भारत उसका जवाब भी देता रहा है । इससे सम्मेलन पटरी से उतर जाता ।
सदी बदलते ही स्थिति में बदलाव शुरू हुआ । दक्षिण एशिया के नेताओं ने यूरोपियन संघ और आसियान जैसे क्षेत्रीय संगठनों की सफलता से सबक सीखा । इन क्षेत्रीय संगठनों ने आर्थिक एकजुटता के जरिए काफी उपलब्धियां हासिल कीं ।
सात देशों के संगठन दक्षेस के समक्ष यह स्पष्ट हो गया कि आर्थिक विकास में क्षेत्रीय और वैश्विक सम्पर्क महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं । इन देशों ने आर्थिक विकास के लिए दक्षेस को एक माध्यम समझना शुरू किया । उन्होंने माना कि इससे आर्थिक विकास से साथ विवादों के निपटारे की प्रक्रिया में भी मदद मिल सकेगी ।
जनवरी 2004 में इस्लामाबाद में हुए सम्मेलन में इस तरह की स्पष्ट अभिव्यक्ति सामने आई । इस सम्मेलन में दक्षेस देशों ने 2012 तक दक्षिण एशियाई स्वतंत्र व्यापार क्षेत्र (साफ्टा) बनाने की वचनबद्धता जताई । साथ ही भारत और पाकिस्तान ने अपनी राजनीतिक समस्याओं के हल के प्रयास शुरू किए ।
नवम्बर 2005 में ढाका में हुए ऐतिहासिक सम्मेलन में यह प्रक्रिया आगे बढ़ी । दक्षेस के अस्तित्व में आने के बाद पहली बार इस क्षेत्र के नए सदस्य अफगानिस्तान को पूर्ण सदस्य के रूप में स्वीकार किया गया ।
साथ ही चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपियन संघ को पर्यवेक्षक का दर्जा दिया गया । इसके पीछे यह सोच रही कि इन शक्तिशाली देशों से दक्षेस देशों को आर्थिक सहयोग लेना चाहिए ।
यह साफ-साफ समझा गया है कि यदि दक्षेस देशों के बीच दूरी बनी रहती है तो सभी को आर्थिक घाटा जारी रहने के साथ ही उनकी प्रगति की रफ्तार भी तेज नहीं हो सकेगी । सदस्य देशों को असहयोग की भारी कीमत चुकानी पड़ रही है ।
दक्षेस देशों का आर्थिक व्यापारिक सहयोग उनके व्यापार लाभों को बढ़ाएगा । छोटे देशों को मन से यह हटाना होगा कि साफ्टा के बढ़ने से केवल भारत लाभान्वित होगा । श्रीलंका और भारत के बीच मुक्त व्यापार के पिछले 3 वर्ष के विश्लेषण से स्पष्ट है कि श्रीलंका का भारत को निर्यात 135 प्रतिशत वार्षिक की दर से बढ़ा ।
इस तुलना में भारत का श्रीलंका को निर्यात 32 प्रतिशत की दर से ही बढ़ रहा है यानी श्रीलंका को लाभ हुआ है और उसका व्यापार घाटा घट रहा है । गौरतलब है कि जब भारत और चीन जैसे विरोधी देश अपनी बीती बातें भूलकर नए व्यापार सहयोगी दिखाई दे रहे हैं तो दक्षिण एशियाई देशों के द्वारा व्यापार के ऐसे ही नए कदम क्यों नहीं उठाए जा रहे हैं ।
यहां पर हमें आसियान का उदाहरण सामने रखना होगा । एक क्षेत्रीय समूह के रूप में आसियान ने पहले अपने सदस्य राष्ट्रों के बीच आर्थिक सहयोग को तीव्र गति से आगे बढ़ाया और आर्थिक लाभ से आसियान के लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठाया है ।
भौगोलिक रूप से जुड़े हुए सार्क देशों को आर्थिक लाभ लेने के लिए एकीकृत परिवहन प्रणाली को अपनाना होगा । सार्क देशों के बीच कनेक्टिविटी के अन्तर्गत विमान सेवा से अधिक महत्वपूर्ण है सड़कों के द्वारा कनेक्टिविटी । इसके लिए काबुल, लाहौर, दिल्ली, ढाका, रंगून के बीच ट्रांसपोर्ट कॉरीडोर बनाया जाना चाहिए ।
एकीकृत सड़क परिवहन लिंक न होने के कारण दक्षिण एशिया के देशों की प्रतिस्पर्द्धी क्षमता कम है । नेपाल, भूटान जैसे जमीन से घिरे देशों के लिए तो सड़क लिंक बहुत जरूरी है । जब तक ऐसी व्यवस्था नहीं होगी, तब तक दक्षिण एशिया के देशों के बीच व्यापार बढ़ने की सम्भावना कम ही रहेगी । एशियाई विकास बैंक ने सार्क के लिए एक ट्रांसपोर्ट ब्लूप्रिंट बनाया है ।
इसके अन्तर्गत कोलंबो और चेन्नई के बीच ट्रेन सेवा, भूटान और नेपाल के बीच भारतीय बंदरगाहों के स्पर्श वाला ट्रांसपोर्ट कॉरीडोर और लाहौर से अगरतला के बीच बस सर्विस की योजना पेश की गई है । ऐसी योजनाओं को साकार किया जाना जरूरी है ।
यकीनन अब साफ्टा के माध्यम से दक्षिण एशिया की क्षेत्रीय व्यापारिक एकता न सिर्फ ऊंची ओर अरबों डॉलर की नई कमाई, अधिक रोजगार और अधिक व्यापार का मूर्तरूप दे सकती है, वरन् इन देशों को आर्थिक-सामाजिक समस्याओं से भी लड़ने में मदद दे सकती है ।
इतना ही नहीं, साफ्टा से अंतरक्षेत्रीय कारोबार हर पांच वर्ष में दोगुना हो जाएगा और साफ्टा से ही सार्क को क्षेत्रीय व्यापार की इकाई और आर्थिक संघ में तब्दील किया जा सकेगा । हम आशा करें कि साफ्टा के तहत सार्क देश एकजुट होकर आर्थिक-सामाजिक इतिहास को पलटने के लिए तेजी से कदम बढ़ाएंगे और इन देशों के करोड़ों लोगों को विकास की खुशहाली प्राप्त होगी ।
नरेन्द्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क राष्ट्रों के नेताओं को आमन्त्रित करके इस मृत होते जा रहे संगठन को फिर से जिन्दा करने की तगड़ी पहल की है । आप गौर से देखें तो पाएंगे कि सार्क की तब ही मीडिया में थोड़ी बहुत चर्चा हो जाती है, जब इसका शिखर सम्मेलन होता है ।
इसके बाद इसकी गतिविधियों के बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं रहती । इस लिहाज से मोदी की पहल महत्वपूर्ण है । कायदे से दक्षेस देश आर्थिक सहयोग, आतंकवाद के खासे और गरीबी उन्मूलन के लिए ठोस कार्य कर सकते हैं । सार्क सचिवालय के अनुसार क्षेत्रीय स्तर पर गरीबी को हटाने के प्रयास के बावजूद सार्क क्षेत्र में गरीबों की संख्या बढ़ रही है ।
दरअसल दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र समझौता (साफ्टा) के क्रियान्वयन में ‘सराहनीय प्रगति’ के बावजूद दक्षेस देशों के बीच व्यापार के क्षेत्र में सहयोग बढ़ने की जरूरत है । दक्षिण एशिया में आर्थिक वृद्धि में तेजी लाने में व्यापार सबसे महत्वपूर्ण औजार हो सकता है ।
साफ्टा के क्रियान्वयन में सराहनीय प्रगति हुई है, फिर भी काफी कुछ किया जाना बाकी है । सार्क देशों के बीच साफ्टा पर वर्ष 2004 में इस्लामाबाद में हस्ताक्षर किया गया था और इसके अन्तर्गत वर्ष 2016 के अन्त तक सीमा शुल्क घटाकर शून्य पर लाने का लक्ष्य रखा गया है । साफ्टा के अन्तर्गत दक्षेस देशों के वीच व्यापार वढ़ तो रहा है पर यह हमारे कुल अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की तुलना में बहुत कम है, जबकि सम्भावनाएं बहुत ज्यादा है ।
सार्क को सार्थक बनाने हेतु सुझाव:
सार्क की सफलता के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं:
(1) महाशक्तियों को क्षेत्र से दूर रखा जाए ।
(2) द्विपक्षीय और बहुपक्षीय सहयोग को बढ़ावा दिया जाए ।
ADVERTISEMENTS:
(3) अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर सार्क देशों द्वारा सर्वसम्मत दृष्टिकोण अपनाया जाए ।
(4) सहयोग के नए क्षेत्र ढूंढ़े जाएं, विशेषकर व्यापार, उद्योग, वित्त, ऊर्जा और मुद्रा और क्षेत्रों में सहयोग को बढ़ावा दिया जाए ।
(5) सांस्कृतिक सम्पर्क एवं एक-दूसरे के देश के लोगों की आवाजाही को प्रोत्साहन दिया जाए ।
(6) सार्क को आर्थिक मंच के साथ राजनीतिक विमर्श का मंच भी बनाया जाए ।
(7) टकराव पैदा करने वाले मुद्दों को टाला नही जाए बल्कि बातचीत द्वारा इनका समुचित समाधान किया जाए ।