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Here is an essay on the ‘Impact of Atomic Weapons on International Politics’ especially written for school and college students in Hindi language.
6 अगस्त, 1945 को जब अमरीकी बमवर्षक बी-29 ने जापान के हिरोशिमा पर अणु बम का विस्फोट किया था, उसी दिन मानव जाति मानो एक चौराहे पर आकर खड़ी हो गयी थी । अणु बम से आगे आज हाइड्रोजन बम, नाइट्रोजन बम, मेगाटन अन्तर महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र, अन्तरिक्ष यान, अन्तरिक्ष यात्रा, भू-उपग्रह, चन्द्र पर विजय आदि कई वैज्ञानिक अकल्पनीय उपलब्धि मानव जाति ने प्राप्त कर ली है ।
आज हमारी धरती पर चन्द्रलोक से लौटे कई अन्तरिक्ष यात्री हैं । यह केवल तकनीकी परिवर्तन मात्र नहीं है; इसके राजनीतिक, सामाजिक, अन्तर्राष्ट्रीय और व्यापक मानवीय प्रभाव हैं । आज मानव जाति असीम शक्ति की स्वामिनी बन गयी है ।
1954 में ओसलो में नोबल शान्ति पुरस्कार प्राप्त करते समय एल्बर्ट श्वीत्जर ने कहा था- ”आज का मानव महामानव हो गया है, क्योंकि उसने सृष्टि की मूल शक्ति पर अधिकार पा लिया है परन्तु आज भी उसका मन और मस्तिष्क आदम का ही है । इस अथाह शक्ति को नियन्त्रित करके मानव विकास के लिए उपयोग में लाने के लिए जिस चरम संयम की आवश्यकता है, उसका उसमें नितान्त अभाव है ।” आणविक शस्त्रों के आविष्कार ने विश्व राजनीति को बहुत अधिक प्रभावित किया है ।
इनके प्रभावों की चर्चा निम्नलिखित ढंग से की जा सकती है:
1. परम्परागत शक्तिशाली राज्यों को दुर्वल बनाना:
परमाणु युद्ध से शक्तिशाली राष्ट्रों की क्षमता पर सबसे गहरा प्रभाव पड़ा है । विमान युद्ध द्वितीय विश्व-युद्ध तक भी युद्धरत राष्ट्र की पराजय का कोई मुख्य कारण नहीं बना था, यद्यपि यह एक बड़ा सहायक कारण निश्चय ही बन चुका था ।
लेकिन आज का परमाणु युद्ध सीधी कार्यवाही द्वारा प्रतिरक्षा के दूसरे साधनों का उपयोग किये बिना एक पक्ष को हरा देने में पूरी तरह समर्थ है । इससे उन राज्यों की अभेद्यता का भी अन्त हो गया है जो परम्परागत रूप से बड़े शक्तिशाली रहे हैं ।
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2. युद्ध-कार्य विध्वंस का एक प्रक्रम बन गया है:
बी.एच. लिड्सहार्ट ने लिखा है, युद्ध कार्य पहले सिर्फ लड़ाई था पर अब विध्वंस का एक प्रक्रम बन गया है । पहले वायु युद्ध को सर्वथा नये ढंग की चीज समझा जाता था, युद्ध में आम जनता को उलझाने की बात सर्वथा कल्पनातीत समझी जाती थी पर परमाणु अस्त्रों की सर्वनाशकता ने इसकी सम्भावना को अनिवार्य बना दिया है । आज भूमण्डल का कोई भी भाग अभेद्य नहीं माना जा सकता ।
3. प्रत्येक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की ‘अनुमति’ से ही जीवित हैं:
बोल्डिंग के अनुसार संचार प्रणाली में सुधार के कारण संसार बहुत सिकुड़-सा गया है इसलिए विश्व का हर हिस्सा परमाणु युद्ध के लिए खुला हुआ है । बोल्डिंग ने बताया कि राष्ट्रों के प्रत्येक युगल (Blocs) में दोनों राष्ट्र एक-दूसरे का विनाश करने में समर्थ हैं, चाहे वे एक-दूसरे से कितनी ही दूरी पर हों ।
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पर हर राष्ट्र स्वयं भी दूसरे राष्ट्र के हमले से अरक्षित है और नष्ट हो सकता है । दूसरे शब्दों में, प्रत्येक राष्ट्र किसी भी अन्य राष्ट्र को नष्ट कर सकता है और वह अपना स्वयं का नाश भी नहीं रोक सकता । ऐसी स्थिति में प्रत्येक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की ‘अनुमति’ से ही जीवित है ।
4. आणविक शस्त्रों से अमरीका और सोवियत संघ में फूट पड़ना:
आणविक शस्त्रों के आविष्कार से सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमरीका में परस्पर फूट और वैमनस्य में वृद्धि हुई । अमरीका और सोवियत संघ द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान एक-दूसरे के मित्र थे, किन्तु अमरीका ने अणु बम के आविष्कार को सोवियत संघ से सर्वथा गुप्त रखा ।
1945 में जब अमरीका ने हिरोशिमा में परमाणु नरमेध किया था तब उसका मूल कारण शत्रुमय नहीं, बल्कि विजय और अन्वेषण का दर्प तथा अहंकार था । तब सोवियत संघ या किसी और के पास परमाणु शक्ति थी ही नहीं ।
स्टालिन ने अमरीका द्वारा अणु बम के रहस्य को सोवियत संघ से गुप्त रखने की बात को गम्भीर विश्वासघात माना । परिणामस्वरूप सोवियत संघ और अमरीका में परस्पर तनाव उत्पन्न हो गया और दोनों ही देश गुप्त रूप से वैज्ञानिक अस्त्र-शस्त्र के आविष्कार की होड़ में संलग्न हो गये ।
5. आणविक शस्त्रों का भय युद्ध प्रतिरोधक शक्ति के रूप में:
जे.डब्ल्यू. बर्टन के अनुसार दोनों महाशक्तियों के पास प्रचुर मात्रा में आणविक हथियार मौजूद हैं जिससे वे चाहें तो एक-दूसरे का विनाश कर सकते हैं । वर्तमान विश्व राजनीति में इस स्थिति को ‘आतंक का सन्तुलन’ (Balance of Terror) कहा जा सकता है और यही ‘आतंक का सन्तुलन’ महाशक्तियों को ‘युद्ध’ शुरू न करने के लिए बाध्य करता है ।
यदि किसी घटना को लेकर संघर्ष उत्पन्न भी हो जाये तो दोनों ही महाशक्तियां आणविक खतरे से परिचित होने के कारण युद्ध के बजाय कूटनीतिक रणनीति (Strategic Calculations) का सहारा लेना श्रेयस्कर समझती हैं । शीत-युद्ध की राजनीति के मार्फत अधिकांश देश किसी-न-किसी गुट से सम्बद्ध हैं अत: महत्वपूर्ण विश्व विवाद आणविक युद्ध के आसन्न खतरों से रोके जा सकते हैं ।
6. आणविक शस्त्रों के फलस्वरूप सामूहिक सुरक्षा व्यवस्थाओं का उदय:
आणविक आयुधों से असुरक्षा और आतंक इतना अधिक बढ़ा कि महाशक्तियों ने सुरक्षा हेतु सामूहिक सुरक्षा व्यवस्थाओं- नाटो, वारसा पैक्ट आदि का निर्माण किया । अमरीका नाटो को आधुनिक आणविक हथियारों से सुसज्जित करने में लगा रहा तो सोवियत संघ वारसा पैक्ट को आणविक हथियारों से सम्पन्न करता रहा ।
7. शान्ति-अनुसन्धान और शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए आन्दोलन:
आणविक शस्त्रों की प्रलयंकारी शक्ति और अणु युद्ध से मानव सभ्यता के विनाश के भय ने शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की धारणा को आज पहले से कहीं अधिक व्यावहारिक बना दिया है । यूरोपीय देशों की राजधानियों में परमाणु शस्त्र के विरोध में होने वाले प्रदर्शनों में लोगों का बड़ी संख्या में शामिल होना यह साबित करता है कि अणु युद्ध के खतरों के प्रति यूरोपवासी सजग हो गये हैं ।
यूरोपीय देशों में इस प्रकार के प्रदर्शन अपनी सानी नहीं रखते । लन्दन, रोम, ब्रुसेल्स में पांच लाख से भी अधिक लोगों के जुलूस की एक ही मांग थी- ”हमें विध्वंस की ओर न ले जाओ, पश्चिमी यूरोप में परमाणु अस्त्रों का प्रसार रोको ।”
हाल ही में कई देशों में परमाणु शस्त्रों के बारे में जो जनमत संग्रह हुए उनसे पता चलता है कि जनसाधारण की सोच में कितना बड़ा अन्तर आया है । नाटो जिन पांच देशों में पर्शिंग-5 प्रक्षेपास्त्र स्थापित करना चाहता था वहां के अधिकांश लोग या तो प्रक्षेपास्त्र के खिलाफ थे या उनकी जरूरत के बारे में मन में सन्देह पालते थे ।
नाटो के नीति-निर्धारकों के लिए यह एक चिन्ताजनक बात थी कि वे जिन देशों – ब्रिटेन, इटली, पश्चिमी जर्मनी, हॉलैण्ड और बेल्जियम को प्रक्षेपास्त्रों का गढ़ बनाना चाहते थे उन्हीं देशों के लोग उनकी नीति को चुनौती दे रहे थे ।
आजकल यूरोप के देशों में एक-पक्षीय परमाणु नि:शस्त्रीकरण के समर्थकों की संख्या बढ़ रही है । पेरिस में हुए एक प्रदर्शन में भाग लेने वालों की मांग थी कि परमाणु बमों पर रोक लगा दी जाये और सुरक्षा के लिए लगाये जाने वाले धन का रुख मोड़कर उसे तीसरी दुनिया की मदद के लिए खर्च किया जाये ।
8. मानव मात्र के अस्तित्व की समस्या:
मानव जाति के सम्मुख पहले भी संकट आये थे, परन्तु आज समस्या शान्ति स्थापित करने की नहीं है वरन् मानव मात्र के अस्तित्व की है । टॉयनबी के शब्दों में, ”स्थिति की विकटता अकल्पनीय है ।” परमाणु अस्त्रों के कारण युद्ध का अर्थ ही महाविनाश हो गया है ।
चर्चिल ने उचित ही कहा था- ”क्या विडम्बना है कि मानव मात्र चरम विकास की उस स्थिति में पहुंच गया है जहां हमारी सुरक्षा, आणविक शक्ति की भयंकरता के कारण ही सुरक्षित रहेगी, और मानव जाति का अस्तित्व महाविनाश की सम्भावना के भय पर ही टिका रहेगा ।”
इससे पहले कई संकटों को मानव जाति ने पार किया है पर इतिहास इसका साक्षी है कि मानव जाति को जीवित और स्वतन्त्र रहने के लिए अधिकाधिक मूल्य चुकाना पड़ा है । आज केवल शोषण और रक्तपात से मुक्त, दु:ख-दारिद्रय से मुक्त, आत्मा और विश्वास की मुक्ति ही नहीं प्राप्त करनी है, वरन् अस्तित्व और विनाश के निरन्तर भय से मुक्ति प्राप्त करनी है ।
लिपमैन ने इसी को इस प्रकार व्यक्त किया है कि अणु युग में असफलता और असमर्थता का भाव और भी उग्र हो उठा है, न हम युद्ध को समाप्त कर सकते हैं, न आज युद्धों को संचालित करने की पूरी क्षमता हममें है और विजयी होकर पुनर्निर्माण का तो प्रश्न ही नहीं है ।
निराशा की व्याप्त भावना का कारण यह है कि अणुशक्ति पर हम नियन्त्रण न पा सके तो आगामी कल महाविनाश का कल होगा, यह वैज्ञानिक आविष्कार मानव मात्र की चरम तर्क शक्ति, बुद्धि, प्रज्ञा और चिन्तन का प्रतीक है परन्तु उस शक्ति का उपयोग अपने ही विनाश के लिए करके मानव जाति सबसे बड़ी भूल कर रही है ।
राजनीतिज्ञ, विचारक, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के विवेचक सभी इस संकट के आभास से भयभीत हैं तथा नियति मानो सारी मानव जाति को उस ओर ले जा रही है जहां वह जाना नहीं चाहती । अणु शक्ति पर नियन्त्रण पाने के लिए प्राय: विचार-विमर्श होता रहता है और अणु युग के अनुकूल राजनीतिक नीतियां अपनाने पर विशेष बल दिया जाता है ।
पामर व पर्किन्स ने आणविक युग के अनुकूल विदेश नीति अपनाने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये हैं:
i. युद्ध का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से पूर्ण उन्मूलन,
ii. सशक्त विश्व सरकार रूपी अन्तर्राष्ट्रीय संघ का गठन,
iii. सामान्य नि:शस्त्रीकरण,
iv. परमाणु शक्ति पर समुचित नियन्त्रण,
v. समस्त राष्ट्रों द्वारा कभी भी परमाणु अस्त्रों के प्रयोग न करने की वचनबद्धता,
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vi. व्यापक नर-संहार करने वाले शस्त्रों के परीक्षणों पर पूर्ण निषेध,
vii. जिन देशों के पास भी हों विशेषकर रूस और संयुक्त राज्य अमरीका द्वारा समस्त अणु आयुधों का समूल विनाश,
viii. आणविक शस्त्रों के प्रसार को निरोध करने वाले समझौते,
ix. आणविक शक्ति से सम्पन्न किसी राष्ट्र द्वारा आक्रमण किये जाने पर राष्ट्रों को सुरक्षा प्रदान करने की व्यवस्था ।
परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का यथार्थवादी विचारक जानता है कि इनमें से एक भी सुझाव राष्ट्रों को मान्य नहीं है । अत: अणु शक्ति पर नियन्त्रण आज की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की मूल समस्या है ।