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Here is an essay on the ‘Balance of Power’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Balance of Power’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on the Balance of Power
Essay Contents:
- शक्ति सन्तुलन का अर्थ (Balance of Power: Meaning)
- शक्ति सन्तुलन: विशेषताएं (Characteristics of Balance of Power)
- शक्ति सन्तुलन: अन्तनिर्हित मान्यताएं (Balance of Power: Theoretical Postulates)
- विचारधारा के रूप में शक्ति सन्तुलन (Balance of Power as an Ideology)
- सन्तुलनकर्ता की अवधारणा (The Concept of Balancer)
- शक्ति सन्तुलन के सिद्धान्त का ऐतिहासिक विकास (The History of the Balance of Power: Historical Evolution)
- शक्ति सन्तुलन; मूल्यांकन (The Balance of Power: An Estimate)
Essay # 1. शक्ति सन्तुलन का अर्थ (Balance of Power: Meaning):
शक्ति सन्तुलन अवधारणा का अर्थ स्पष्ट करना बड़ा कठिन है ।
रिचार्ड कॉब्डेन के शब्दों में- “शक्ति सन्तुलन एक विचित्र उलझन भरा शब्द है, जो केवल भ्रमात्मक, मिथ्या सत्य ही नहीं वरन् ऐसी अव्यक्त व्यवस्था का परिचायक है जिसकी कभी स्थापना नहीं की जा सकती ।” अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में शक्ति सन्तुलन से अभिप्राय है कि, विभिन्न राष्ट्रों के बीच कम-से-कम स्कूल सन्तुलन कायम होना ।
श्लीचर के शब्दों में- ”शक्ति सन्तुलन व्यक्तियों तथा समुदायों की सापेक्ष शक्ति की ओर संकेत करता है ।”
क्लॉंड के अनुसार- ”शक्ति सन्तुलन एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें विभिन्न स्वतन्त्र राष्ट्र अपने आपसी शक्ति सम्बन्धों को बिना किसी बड़ी शक्ति के हस्तक्षेप के स्वतन्त्रतापूर्वक संचालित करते हैं । इस प्रकार यह एक विकेन्द्रित व्यवस्था है जिसमें शक्ति व नीति निर्णायक इकाइयों के हाथों में ही रहती है ।”
कॉल्डेन के अनुसार- ”एक राष्ट्र को स्वयं अपनी तथा अपने पड़ोसी राष्ट्रों की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए शक्ति सन्तुलन की स्थापना करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए । स्वतन्त्रता, शान्ति, स्थिरता तथा सार्वजनिक सुरक्षा के लिए शक्ति सन्तुलन आवश्यक है, क्योंकि एक निश्चित सीमा के बाद एक राज्य की बढ़ती हुई शक्ति अन्य सभी राज्यों को प्रभावित करने लगती है । इतना ही नहीं एक राज्य का अत्यधिक शक्तिशाली होने का अर्थ है अन्य राज्यों का विनाश और पराजय । पड़ोसी राष्ट्रों में स्थिरता तथा शान्ति स्थापित करने का केवल एक ही उपाय है कि, सब राष्ट्रों की शक्ति करीब-करीब समान और तुल्य ही रहे ।”
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फे के शब्दों में- “शक्ति सन्तुलन का अर्थ है राष्ट्रों के परिवार के सदस्यों की शक्ति न्यायपूर्ण तुल्यभारिता जो किसी राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र पर अपनी इच्छा लादने से रोक सके ।” डिकिंसन के मतानुसार सन्तुलन शब्द का प्रयोग समानता और असमानता दोनों ही अर्थों में किया जाता है ।
लेखा सन्तुलन का अर्थ होता है समानता लेकिन जब सन्तुलन किसी एक के हित में हो तो इसका अर्थ होता है असमानता । शक्ति सन्तुलन का सिद्धान्त प्रथम अर्थ का दावा करता है किन्तु दूसरे के लिए प्रयत्नशील रहता है ।
फेनेलॉंन के अनुसार– शक्ति सन्तुलन का एक अत्यन्त स्पष्ट सिद्धान्त है, कि अपने पड़ोसी राष्ट्र को इतना शक्तिशाली कभी न बनने दो कि वह भय का कारण बन जाए ।
कैसलरे ने शक्ति सन्तुलन का वर्णन इन शब्दों में किया- ”राष्ट्र परिवार के सदस्यों के बीच ऐसी उचित साम्यवस्था बनाए रखना जिससे उनमें से कोई भी इतना ताकतवर न हो सके कि वह अपनी इच्छा दूसरों पर लाद सके ।”
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एक अन्य लेखक निकोलस जॉन स्पिकमैन ने इसका सुन्दर विश्लेषण करते हुए कहा है कि– ”राज्यों को केवल इस बात में दिलचस्पी होती है कि तुला का पकड़ा उनके पक्ष में झुका हुआ हो क्योंकि अपने सम्भावित शत्रु के मुकाबले उस जैसा शक्तिशाली होने में कोई वास्तविक सुरक्षा नहीं है । सुरक्षा केवल इस बात में निहित है कि आप अपने शत्रु से अधिक शक्तिशाली हों ।”
यह तथ्य इस बात से स्पष्ट हो जाएगा कि 1914 के प्रथम विश्वयुद्ध से पहले यूरोप के राज्य दो गुटों में बंटे हुए थे, एक गुट फ्रांस, ब्रिटेन और रूस का था और दूसरा गुट जर्मनी आस्ट्रिया हंगरी तथा टर्की के राज्य का । इन दोनों की शक्ति लगभग सन्तुलित थी और दोनों पक्ष इस प्रयत्न में थे कि वे इस सन्तुलन को किस प्रकार अपने पक्ष में करें ।
इटली युद्ध छिड़ने पर काफी समय तक किसी पक्ष के साथ खुल्लमखुल्ला सम्मिलित होने में हिचकिचाता रहा यद्यपि उसने जर्मनी के साथ गुप्त सन्धि की हुई थी । युद्ध में मित्र-राष्ट्रों का पलड़ा भारी होने पर वह उनकी ओर से लड़ाई में सम्मिलित हुआ । उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने से हम पाते हैं कि शक्ति सन्तुलन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की एक स्थिति एक प्रक्रिया एक नीति और व्यवस्था के रूप में चित्रित किया जा सकता है ।
शक्ति सन्तुलन विशिष्ट स्थिति का द्योतक हैं:
शक्ति सन्तुलन शब्द एक ऐसी स्थिति का द्योतक है जिसमें शक्ति सम्बन्ध लगभग बराबरी के आधार पर होता है । शक्ति सन्तुलन का अर्थ है शक्ति का समान वितरण । शक्ति सन्तुलन शब्द हमारे सामने उस तुला का चित्र प्रस्तुत करता है जिसके दोनों पलड़े एक आलम्ब से लटके हुए हैं और जिनमें बराबर बांट रखे हुए हैं ।
शक्ति सन्तुलन विदेश नीति के रूप में:
कैनेथ टॉमसन, मॉरगेन्थाऊ, चर्चिल आदि ने शक्ति सन्तुलन के सिद्धान्त को विदेश नीति के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित किया है । वे यह मानते हैं कि सन्तुलन शक्ति खतरनाक होती है । विदेश नीति की दृष्टि से राष्ट्र उसी समय शक्ति सन्तुलन की अवधारणा स्वीकार करते हैं जबकि वे अन्य राज्यों की तुलना में प्रबल हों । चर्चिल ने शक्ति सन्तुलन को ब्रिटिश विदेश नीति की अद्भुत परम्परा बताया था ।
शक्ति सन्तुलन एक पद्धति के रूप में:
मार्टिन वाइट, ए. जे. पी. टेलर, चार्ल्स लर्च, आदि शक्ति सन्तुलन को एक पद्धति मानते हैं । आधुनिक विश्व में जहां बहुत सारे राज्य हैं शक्ति सन्तुलन द्वारा एक व्यवस्था स्थापित की जा सकती है ।
अर्नेस्ट हॉस ने शक्ति सन्तुलन अवधारणा के आठ अर्थ बताए हैं, जो इस प्रकार हैं:
(1) शक्ति सन्तुलन से अभिप्राय है ‘शक्ति का वितरण’ (Balance Meaning ‘Distribution of Power’):
सामान्य अर्थ में शक्ति सन्तुलन का अर्थ है शक्ति का वितरण (Distribution of Power) । जब कोई राजनीतिज्ञ यह कहता है कि शक्ति का सन्तुलन परिवर्तित हो गया तो उसका तात्पर्य होता है कि उसका विरोधी पहले की तुलना में उससे अधिक शक्तिशाली हो गया है।
(2) शक्ति सन्तुलन से अभिप्राय है ‘शक्ति की साम्यावस्था’ (Balance Meaning ‘Equilibrium’):
शक्ति सन्तुलन से अभिप्राय है दो प्रतियोगी राष्ट्रों, गुटों, राष्ट्रों के समूहों अथवा प्रतिस्पर्द्धी दलों में शक्ति की तुल्यभारिता या समानता ।
(3) शक्ति सन्तुलन से अभिप्राय है ‘शक्ति की प्रबलता’ (Balance Meaning ‘Hegemoney’):
सन्तुलन से अभिप्राय होता है शक्ति की प्रबलता । सन्तुलन शक्ति के वितरण का वह तन्त्र है जिसमें प्रत्येक राज्य और उसके मित्र राज्य शक्ति की अति अधिकता हासिल करना चाहते हैं ।
(4) शक्ति सन्तुलन से अभिप्राय है ‘स्थिरता’ तथा ‘शान्ति’ (Balance Meaning ‘Stability’ and ‘Peace’):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शान्ति और स्थिरता लाने वाला सिद्धान्त ‘सन्तुलन’ का सिद्धान्त है । सन्तुलन यथास्थिति की नीति का समर्थन करता है और यथास्थिति से स्थिरता आती है । शक्ति सन्तुलन से आक्रमण रोकने में मदद मिलने की बात कही जाती है और इसका पक्षपोषण इस आधार पर किया जाता है कि इसमें शान्ति लाने की क्षमता है ।
(5) शक्ति सन्तुलन से अभिप्राय है ‘अस्थिरता’ तथा ‘युद्ध’ (Balance Meaning ‘Instability’ and ‘War’):
ऐसा भी कहा जाता है कि सन्तुलन से ‘अस्थिरता’ तथा ‘युद्ध’ की स्थिति का निर्माण होता है । प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने का कारण यह था कि जर्मनी को यह गलतफहमी थी कि उसकी शक्ति उसके विरोधियों की शक्ति को सन्तुलित कर सकती है । शक्ति के सन्तुलन से भय और अविश्वास बढ़ता है जिसका परिणाम युद्ध होता है ।
(6) शक्ति सन्तुलन से अभिप्राय ‘शक्ति की राजनीति’ (Balance Meaning ‘Power Politics’):
ऐसा भी कहा जाता है कि, ‘शक्ति सन्तुलन के लिए संघर्ष वस्तुत: शक्ति का संघर्ष है ।’ (The struggle for the balance of power, in effect, is the ‘Struggle for Power’ ) शक्ति सन्तुलन और शक्ति संघर्ष पर्यायवाची हैं (Power, Politics of pure power, and the balance of power are here merged into one concept.)
(7) शक्ति सन्तुलन एक सार्वभौमिक सिद्धान्त के रूप में (Balance as Implying Universal Law of History):
सन्तुलन एक सार्वभौमिक नियम है । जहां राष्ट्र राज्य व्यवस्था होगी वहां किसी-न-किसी प्रकार का सन्तुलन अवश्य रहेगा । चाहे यूनान के नगर राज्य हों या इटली के राज्य अथवा द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की विश्व राजनीति, सन्तुलन के नियम को अवश्य ध्यान में रखा जाता है ।
(8) शक्ति सन्तुलन एक ‘व्यवस्था’ के रूप में तथा ‘नीति-निर्माताओं के लिए मार्गदर्शक’ (Balance as a ‘System’ and ‘Guide to Policy Making’):
सन्तुलन को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की एक व्यवस्था या तन्त्र के रूप में भी देखा जाता है । इस अर्थ में ‘शक्ति सन्तुलन’ एक बहुराज्य विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के कार्य करने की एक विशेष प्रकार की व्यवस्था का वाचक होतां है । शक्ति सन्तुलन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्तिकारक के महत्व को प्रतिपादित करता है तथा विदेश नीति के निर्माण में शक्ति सन्तुलन को ध्यान में रखे जाने पर जोर देता है ।
हॉन्स जे. मॉरकेन्थाऊ ने शक्ति के चार अर्थ बताए हैं:
(i) राज्यों में शक्ति के वितरण पर जोर देने वाली नीति (a policy aimed at bringing about a certain power distribution),
(ii) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के यथार्थवादी स्वरूप का चित्रण करने वाला सिद्धान्त (a description of any actual state of affairs in international politics),
(iii) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति का समान वितरण (an approximately equal distribution of power internationally), तथा
(iv) अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में राजनीतिक शक्ति वितरण को प्रकट करने वाली शब्दावली (a term describing any distribution of political power in international relations)
संक्षेप में, इसे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का यथार्थवादी सिद्धान्त कहा जा सका है । यह इस मान्यता पर आधारित है कि शक्ति सन्तुलन की उपेक्षा से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति के तत्व की उपेक्षा प्रकट होती है ।
सरल सन्तुलन तथा बहुमुखी सन्तुलन (Simple Balance and Multiple Balance):
शक्ति सन्तुलन दो प्रकार का होता है: सरल सन्तुलन तथा बहुमुखी सन्तुलन । सरल सन्तुलन उस समय पाया जाता है जबकि शक्ति मुख्यत: दो राज्यों अथवा दो विरोधी गुटों में केन्द्रित हो । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमरीका और सोवियत संघ के मध्य कुछ इसी प्रकार का सन्तुलन उभरा ।
बहुमुखी या जटिल सन्तुलन में राष्ट्र या राष्ट्र समूह एक-दूसरे को सन्तुलित करते हैं और फिर सन्तुलनों के भीतर सन्तुलन होता है । इस प्रकार के सन्तुलन में अनेक राष्ट्र अथवा राष्ट्रों के समूह एक-दूसरे को सन्तुलित करते रहते हैं ।
इसमें कभी-कभी सन्तुलनकर्ता भी पाया जाता है । युद्ध अथवा संकट के समय बहुमुखी सन्तुलन के बजाय सरल सन्तुलन उभरकर सामने आ जाता है । सभी राष्ट्र किसी-न-किसी गुट या पक्ष में शामिल हो जाते हैं और बहुमुखी सन्तुलन भी सरल सन्तुलन में बदल जाता है ।
Essay # 2. शक्ति सन्तुलन: विशेषताएं (Characteristics of Balance of Power):
शक्ति सन्तुलन की कई विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं कि यह वर्तमान स्थिति (Status quo) को बनाए रखने का प्रयत्न करता है । प्रथम विश्वयुद्ध के बाद पेरिस के समझौते और शान्ति सन्धियों द्वारा स्थापित की गयी व्यवस्था को फ्रांस और उसके मित्र राज्यों ने बनाए रखने का प्रयल किया ।
इसकी दूसरी विशेषता यह है कि, शक्ति सन्तुलन महाशक्तियों का खेल हैं । इसमें प्रधान रूप से बड़ी शक्तियां ही भाग लेती हैं छोटी शक्तियाँ तो तुला के हल्के बांटों की तरह होती हैं । तीसरी विशेषता यह है कि शक्ति सन्तुलन कभी वास्तविक रूप में नहीं होता है यह निरन्तर बदलता रहता है और इसकी असली परीक्षा लड़ाई से होती है ।
पामर एवं पर्किन्स ने शक्ति सन्तुलन सिद्धान्त की निम्न सात विशेषताओं का उल्लेख किया है:
(1) शक्ति सन्तुलन से अभिप्राय है तुल्यभारिता अथवा सन्तुलन, परन्तु इतिहास का प्रत्येक विद्यार्थी जानता है कि शक्ति इतना अस्थिर तत्व है कि शक्ति सम्बन्ध सदैव परिवर्तित और चलायमान होते हैं । इतिहास में तो सबसे स्थायी रूप से कार्य करने वाला तत्व असन्तुलन है ।
(2) शक्ति सन्तुलन स्थापित करने के लिए राज्यों को सदैव प्रयलशील रहना पड़ता है । स्पाइकमैन के शब्दों में, ‘शक्ति सन्तुलन कोई दैवीय वरदान नहीं है वरन् मानव द्वारा निरन्तर हस्तक्षेप करके स्थापित की जाने वाली एक स्थिति है ।’
(3) शक्ति सन्तुलन की नीति यथापूर्व स्थिति को ज्यों-का-त्यों बनाए रखने की नीति है किन्तु जो नीतियां यथापूर्व स्थिति के पक्ष में होती हैं और नए परिवर्तनों को स्वीकार करने की विरोधी होती है वे प्राय: असफल होती हैं । शक्ति सन्तुलन की नीति तभी सफल हो सकती है जब वह केवल प्रतिगामी नीति न होकर गतिशील और अनिवार्य परिवर्तनों को स्वीकार करने की क्षमता रखती हो ।
(4) यह कहना अत्यन्त कठिन है कि पूर्ण शक्ति सन्तुलन स्थापित हो गया है क्योंकि शक्ति तत्व को मापना और स्थिर कर सकना असम्भव है । दो शक्ति गुटों की स्थिति बराबर है अथवा नहीं इसका परीक्षण केवल एक स्थिति में किया जा सकता है और वह है युद्ध । जिस शक्ति सन्तुलन की रक्षा के लिए युद्ध लड़ा जाता है युद्ध की समाप्ति पर उसकी स्थापना कर पाने का कोई प्रश्न ही नहीं रहता । युद्ध की समाप्ति के बाद एकदम नया शक्ति सन्तुलन स्थापित हो जाता है पुराने शक्तिशाली देश शक्तिहीन हो जाते हैं और नए देश युद्ध में शक्तिशाली होकर उभरते हैं ।
(5) इतिहासकार शक्ति सन्तुलन को वस्तुनिष्ठ (Objective) दृष्टि से देखता है और राजनीतिज्ञ उसे व्यक्तिनिष्ठ (Subjective) दृष्टि से देखता है । मार्टिन वाइट के शब्दों में ”इतिहासकार की दृष्टि में शक्ति सन्तुलन तब स्थापित होता है जब दो विरोधी गुटों की शक्ति लगभग समान-सी प्रतीत होती है, परन्तु एक राजनीतिज्ञ की दृष्टि में शक्ति सन्तुलन तब स्थापित होता है जब उसका पक्ष दूसरे पक्ष की अपेक्षा अधिक सशक्त हो जाता है ।”
(6) शक्ति सन्तुलन किसी विशिष्ट राजनीतिक व्यवस्था का आवश्यक लक्षण नहीं है लोकतान्त्रिक और सर्वाधिकारवादी दोनों प्रकार के राज्य इसका प्रयोग कर सकते हैं । लोकतान्त्रिक देश साधारणतया अपनी उदारवादी नीतियों के कारण शक्ति सन्तुलन स्थापित करने में विशेष उत्सुक नहीं होते और सर्वाधिकारवादी देश शक्ति सन्तुलन के हामी इसलिए नहीं होते कि उनका लक्ष्य केवल अपना प्रसार करके एक ही साम्राज्य का निर्माण करना होता है ।
(7) शक्ति सन्तुलन के खेल में केवल बड़े राष्ट्र ही खिलाड़ी होते हैं छोटे राष्ट्र तो इसका शिकार बनते हैं अथवा दर्शक के रूप में रहते हैं । स्पाइकमैन के अनुसार, जब तक वे (छोटे राज्य) स्वयं आपस में सफलतापूर्वक संगठित नहीं हो जाते वे शक्ति सन्तुलन की तुला के पलड़ों में रखे जाने वाले बांटों से कुछ अधिक नहीं होते हैं ।”
Essay # 3. शक्ति सन्तुलन: अन्तनिर्हित मान्यताएं (Balance of Power: Theoretical Postulates):
क्विन्सी राइट ने सन्तुलन सिद्धान्त में निहित पांच मान्यताओं (assumption) का उल्लेख किया है:
पहली:
मान्यता है कि प्रत्येक राज्य उपलब्ध शक्ति एवं साधनों के द्वारा जिनमें युद्ध भी शामिल है अपने महत्वपूर्ण हितों एवं अधिकारों की रक्षा करता है । यह निश्चित करना प्रत्येक राज्य का काम है कि वह अपने किन हितों को महत्वपूर्ण मानता है परन्तु सामान्यत: स्वतन्त्रता प्रादेशिक अखण्डता सुरक्षा घरेलू राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था की स्थिरता तथा समुद्र की स्वतन्त्रता जैसे किन्हीं कानूनी अधिकारों की रक्षा को महत्वपूर्ण राष्ट्रीय हित माना जाता है ।
दूसरी:
मान्यता है कि राज्यों के महत्वपूर्ण हितों को या तो खतरा उपस्थित होता है या उनके लिए संकट की सम्भावना हमेशा बनी रहती है । यदि ऐसा न होता तो राज्यों को उनकी रक्षा के लिए प्रयत्न करने की कोई आवश्यकता नहीं होती ।
तीसरी:
मान्यता है कि शक्ति सन्तुलन या तो अन्य राज्यों को आक्रमण का भय दिखाकर महत्वपूर्ण हितों की रक्षा में सहायक होता है या आक्रमण होने पर आक्रमणकारी पक्ष पर विजय प्राप्त करके मार्मिक हितों की रक्षा करता है ।
दूसरे शब्दों में राज्य किसी अन्य राज्य पर आक्रमण उस समय तक नहीं करेंगे जब तक कि उनके पास शक्ति की प्रचुरता न हो और वे अपनी विजय के सम्बन्ध में पूर्णरूपेण आश्वस्त न हों । यह हो सकता है कि कोई राज्य यह समझता हो कि उसकी शक्ति दूसरे देश की शक्ति से अधिक है जबकि वह सचमुच अधिक न हो ।
चौथी:
मान्यता है कि राज्यों की शक्ति का ठीक-ठीक मूल्यांकन किया जा सकता है और भविष्य में उनकी शक्ति क्या होगी इसका भी अनुमान लगाया जा सकता है ।
पांचवीं:
मान्यता है कि राजमर्मज्ञ अपनी विदेश नीति के निर्णय शक्ति सम्बन्धी तथ्यों की सूझ-बूझ के साथ और सोच-समझकर करते हैं ।
क्विन्सी राइट, द्वारा प्रतिपादित शक्ति सन्तुलन सम्बन्धी सैद्धान्तिक मान्यताओं में से पहली चार मान्यताएं कुल मिलाकर तर्कसंगत है, किन्तु पांचवीं मान्यता के सम्बन्ध में निम्न आपत्तियां उठायी जा सकती हैं:
प्रथम:
यदि शक्ति सन्तुलन के द्वारा किसी राज्य को अपने महत्वपूर्ण हितों की रक्षा करनी है तो उन हितों का स्पष्टीकरण होना आवश्यक है । जबकि यथार्थ में राज्य के भीतर नीति निर्धारकों में राष्ट्रीय हितों के सम्बन्ध में सहमति नहीं पायी जाती ।
द्वितीय:
नीति निर्धारक जब अपने राष्ट्रीय हितों को ठीक प्रकार से नहीं जान सकते तो वे उन राज्यों की क्षमता और शक्ति का सही अनुमान कैसे लगा सकते हैं, जिनसे उनके हितों को आच पहुंच रही है या आच पहुंचने की आशंका है।
तृतीय:
शक्ति सन्तुलन की नीति को विवेकपूर्ण ढंग से संचालित करने के लिए यह आवश्यक है कि नीति निर्धारक शत्रु राज्यों की भविष्य में होने वाली क्षमता और नीयत के बारे में भविष्यवाणी कर सकें और यह काम अत्यन्त कठिन है ।
चतुर्थ:
शक्ति सन्तुलन का अनुगमन करते समय कानून, नैतिकता और न्याय की परवाह नहीं की जा सकती, परन्तु क्या आधुनिक युग में इन मूल्यों की उपेक्षा सम्भव है ।
पंचम:
शक्ति सन्तुलन की स्थापना के लिए घरेलू राजनीतिक परिस्थितियां अनुकूल हों और लोकमत उन नीतियों का समर्थक हो, परन्तु ऐसी स्थिति लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणालियों में सदैव नहीं रह सकती । ब्रिटिश सरकार ने हिटलर के अभुदय से उत्पन्न खतरे को भांप लिया था, किन्तु लोकमत के विरोध के भय से शलीकरण का आश्रय नहीं लिया ।
Essay # 4. विचारधारा के रूप में शक्ति सन्तुलन (Balance of Power as an Ideology):
मॉरगेन्थाऊ ने शक्ति सन्तुलन की अवधारणा को एक ‘विचारधारा’ (Ideology) के रूप में प्रस्तुत किया है । मॉरगेन्थाऊ के अनुसार शक्ति सन्तुलन उन राष्ट्रों की आत्मरक्षा की युक्ति है जिनकी स्वतन्त्रता एवं अस्तित्व को दूसरे राष्ट्रों की शक्ति में असंगत वृद्धि से भय है । शक्ति सन्तुलन का प्रयोग विशुद्ध रूप में आत्मरक्षण के स्पष्ट प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होता है ।
राष्ट्रों में व्याप्त शक्ति की प्रतिस्पर्द्धा सिद्धान्तों पर हावी हो जाती है । वे उन सिद्धान्तों को छिपाने, उनको युक्तियुक्त सिद्ध करने एवं स्वयं को न्यायसंगत सिद्ध करने के लिए उनको विचारधाराओं में रूपान्तरित कर देते हैं । उन्होंने ऐसा शक्ति सन्तुलन के द्वारा किया है ।
साम्राज्य स्थापित करने के लिए उलूक राष्ट्र ने बहुधा यही दावा किया है कि वह केवल साम्यावस्था (Equilibrium) चाहता है । केवल यथापूर्व स्थिति को बनाए रखने के लिए उत्सुक राष्ट्र ने बहुधा यथापूर्व स्थिति में परिवर्तन को शक्ति सन्तुलन पर आक्रमण ठहराया है ।
जब 1756 में सप्तवर्षीय युद्ध के प्रारम्भ में इंग्लैण्ड तथा फ्रांस ने अपने आपको युद्धरत पाया, तो ब्रिटिश लेखकों ने अपने देश की नीति को यूरोपीय शक्ति सन्तुलन की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए न्यायसंगत ठहराया । उसी समय फ्रांसीसी अधिवेत्ताओं ने दावा किया कि फ्रांस, वाणिज्य सन्तुलन की पुन: स्थापना के लिए समुद्र तथा उत्तरी अमरीका पर इंग्लैण्ड की सर्वोच्चता का विरोध करने के लिए युद्ध के लिए विवश हुआ था ।
जब 1813 में संश्रित शक्तियों (Allied powers) ने नैपोलियन के सम्मुख अपनी शान्ति की शर्तें रखीं तो उन्होंने शक्ति सन्तुलन के सिद्धान्त को स्मरण किया । जब नैपोलियन ने इन शर्तों को ठुकराया तो उसने भी अधिकारों एवं हितों की साम्यावस्था की ओर ध्यान दिलाया ।
जब 1814 के प्रारम्भ में संश्रित राष्ट्रों ने नैपोलियन के प्रतिनिधि का अन्तिम चेतावनी के साथ यह मांग करते हुए सामना किया कि फ्रांस शक्ति सन्तुलन के नाम पर 1792 में हुई सभी विजयों को त्याग दे, तो फ्रांसीसी प्रतिनिधि ने उत्तर दिया था, “क्या संश्रित राष्ट्र यूरोप में न्यायसंगत सन्तुलन की स्थापना नहीं चाहते ? क्या वे यह घोषणा नहीं करते कि आज भी शक्ति सन्तुलन चाहते हैं ? फ्रांस की भी एकमात्र वास्तविक इच्छा यह है कि वह पहले से चली आयी सापेक्ष शक्ति को बनाए रखे, परन्तु यूरोप अब वह नहीं है जो बीस वर्ष पूर्व था ।”
और वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि भूगोल एवं युद्ध नीति को दृष्टिगत रखते हुए फ्रांस द्वारा राइन के बाएं किनारे पर अधिकार भी यूरोप में शक्ति सन्तुलन की पुन: स्थापना के लिए मुश्किल से पर्याप्त होगा । संश्रित प्रतिनिधियों ने उत्तर घोषित किया, “1792 की सीमाओं को प्राप्त करके भी फ्रांस अपनी केन्द्रीय स्थिति अपनी जनसंख्या अपनी भूमि की सम्पन्नता अपनी सीमाओं की प्रकृति अपनी सफलताओं एवं वितरण के कारण महाद्वीप पर सबसे सबल शक्तियों में से एक बना हुआ है । इस प्रकार दोनों पक्षों ने शक्ति सन्तुलन के सिद्धान्त का उसी स्थिति में प्रयोग करने का प्रयत्न किया तथा असंगत परिणामों पर पहुंचे ।
चालीस वर्ष के उपरान्त इसी प्रकार के कारणों से एक ऐसी स्थिति उठ खड़ी हुई । वियेना सम्मेलन में जिसने 1855 में क्रीमियन युद्ध को समाप्त करने का प्रयत्न किया रूस अपने विरोधियों के साथ काला सागर में शक्ति सन्तुलन बनाए रखने को निपटारे का आधार बनाने पर सहमत हो गया ।
तथापि रूस ने यह घोषणा की कि, “काला सागर में रूस का अधिक प्रभाव यूरोपीय साम्यावस्था के लिए पूर्णतया आवश्यक है ।” उसके विरोधियों ने उस अधिक प्रभाव को समाप्त करने का प्रयत्न किया । उसका कहना था कि रूसी जल सेना ”तुर्की बेड़े की तुलना में अब भी अत्यधिक शक्तिशाली है ।”
राष्ट्रों की सापेक्ष शक्ति स्थितियों के सही मूल्यांकन की कठिनाइयों ने शक्ति सन्तुलन की दुहाई को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की विचारधाराओं में से एक बना दिया है । इस प्रकार यह सिद्ध हो गया है कि इस शब्द का प्रयोग अत्यधिक अस्पष्ट और अव्यवस्थित ढंग से हो रहा है ।
जब कोई राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर अपने कार्यों में से किसी को न्यायसंगत ठहराना चाहेगा तो वह इसका संकेत शक्ति सन्तुलन को बनाए रखने अथवा उसकी पुनर्स्थापना के लिए उपयोगी होने के अर्थ में करेगा । जब कोई राष्ट्र किसी राष्ट्र के द्वारा अनुसरण की गयी किसी नीति को अविश्वसनीय सिद्ध करना चाहेगा तो वह उसे ‘शक्ति सन्तुलन के लिए खतरा’ कहकर घोषित करेगा ।
शब्द के सही अर्थ के रूप में यथापूर्व स्थिति को बनाए रखना, शक्ति सन्तुलन की अन्तर्निहित प्रवृत्ति है । इसीलिए यह शब्द यथापूर्व वाली राष्ट्रों की शब्दावली में यथापूर्व स्थिति तथा किसी विशेष क्षणिक स्थिति में किसी शक्ति वितरण का पर्याय हो गया है ।
उपर्युक्त बातों का उदाहरण इस प्रकार देखा जा सकता है । पाश्चात्य गोलार्द्ध में शक्ति सन्तुलन की बात वह कहता है जोकि गैर-अमरीकी राष्ट्रों की नीतियों द्वारा विक्षुब्ध हो सकता है । इसी प्रकार भूमध्य सागर में सन्तुलन की बात वह करता है जिसकी रूसी घुसपैठ से रक्षा होनी चाहिए ।
तथापि इन दोनों में से जो जिस बात को चाहता है अथवा जिस बात की पुष्टि करता है वह शक्ति सन्तुलन नहीं है । वरन् वह शक्ति का एक विशेष वितरण है जो कि किसी विशेष राष्ट्र अथवा राष्ट्रों के समूह के लिए अनुकूल समझा जाता है ।
न्यूयार्क टाइस ने 1947 में मास्को में विदेश मन्त्रियों के सम्मेलन के अवसर पर अपनी सूचनाओं में से एक में लिखा था- ”फ्रांस ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य की नयी एकता भले ही अस्थायी हो परन्तु यह शक्ति सन्तुलन को प्रत्यक्ष रूप से उलझा देती है ।”
बात वास्तव में यह थी कि, शक्ति सन्तुलन अपने सच्चे अर्थों में नहीं उल्टा गया था, बल्कि पहले की अपेक्षा सम्मेलन के बाद का शक्ति वितरण पाश्चात्य शक्तियों के अधिक अनुकूल हो गया था । एक विचारधारा के रूप में शक्ति सन्तुलन का प्रयोग शक्ति सन्तुलन की यान्त्रिकी में अन्तर्निहित कठिनाई पर जोर देता है । दिखावटी स्पष्टता के वास्तविक अभाव सन्तुलन के लिए बनावटी इच्छा तथा प्राबल्य की प्राप्ति के वास्तविक लक्ष्य में आकाश-पाताल का अन्तर है और यह अन्तर शक्ति सन्तुलन के मूल स्वरूप में निहित है ।
शुरू-शुरू में यही अन्तर शक्ति सन्तुलन को एक विचारधारा का रूप प्रदान करता है । इस प्रकार शक्ति सन्तुलन ऐसी वास्तविकता और क्रिया का प्रदर्शन करता है जो वास्तव में उसमें नहीं है । इसीलिए इसमें वास्तविक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को बनावटी रूप देने, युक्तिसंगत सिद्ध करने तथा न्यायसंगत ठहराने की प्रवृत्ति रहती है ।
Essay # 5. सन्तुलनकर्ता की अवधारणा (The Concept of Balancer):
तुला के रूपक का प्रयोग करते हुए यह कहा जाता है कि शक्ति सन्तुलन की व्यवस्था दो पलड़ों से मिलकर बनती है । इनमें से प्रत्येक में यथापूर्व स्थिति अथवा साम्राज्यवाद की समान नीति से पहचाने जा सकने वाले राष्ट्र मिलेंगे । यूरोपीय महाद्वीप के राष्ट्रों ने सामान्यत: इस ढंग से ही शक्ति सन्तुलन को परिचालित किया है ।
यह व्यवस्था दो पलड़ों तथा एक तीसरे तत्व सन्तुलन के धारक अथवा सन्तुलनकर्ता (Balancer) से मिलकर बन सकती है । सन्तुलनकर्ता वह राष्ट्र या उन राष्ट्रों का समूह होता है जो दूसरों की प्रतिस्पर्द्धाओं से अलग रहते हैं और दोनों बराबरी के पक्षों के लिए प्रलोभन पैदा करने वाले तीसरे पक्ष की भूमिका निभाते हैं जिसमें प्रत्येक प्रतिस्पर्द्धी पक्ष तीसरे पक्ष या सन्तुलनकर्ता का समर्थन पाने का यत्न करता रहे ।
सन्तुलनकर्ता का किसी एक राष्ट्र अथवा राष्ट्रों के समूह की नीति से स्थायी रूप से तादात्म्य नहीं होता है । उन ठोस नीतियों का विचार किए बिना जिनको सन्तुलन लाभ पहुंचाएगा, इसका एकमात्र ध्येय इस व्यवस्था में सन्तुलन बनाए रखना है ।
परिणामत: सन्तुलन का धारक केवल पलड़ों की सापेक्ष स्थिति के विचार से निर्दिष्ट होकर एक समय अपना भार इस पलड़े में डालेगा और दूसरे समय दूसरे पलड़े में । इस प्रकार वह सदैव अपना भार उस पलड़े में डालेगा जो दूसरे से ऊंचा प्रतीत होता है, क्योंकि वह हल्का है ।
डॉ. महेन्द्रकुमार के शब्दों में, ”सामान्यतया सन्तुलनकर्ता अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति में हस्तक्षेप नहीं करता । पर यदि एक पक्ष को दूसरे पक्ष के मुकाबले बहुत अधिक शक्ति प्राप्त होने लगे तो सन्तुलनकर्ता कमजोर पक्ष के साथ होकर फिर से सामान्य सन्तुलन कायम कर देता है ।”
इतिहास के सापेक्षतया आंशिक विस्तार में सन्तुलनकर्ता सभी बड़ी शक्तियों का क्रमागत रूप से मित्र अथवा शत्रु बन सकता है । वे सब क्रमागत रूप से दूसरे पर प्राधान्य प्राप्त करके सन्तुलन का भय पैदा कर देते हैं और समय पड़ने पर अपनी बारी में ऐसे आधिपत्य को प्राप्त करने वाले राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों से डर जाते हैं ।
पामर्स्टन के एक कथन का उल्लेख करते हुए कहा जा सकता है कि यदि सन्तुलन के धारक के स्थायी मित्र नहीं होते तो इसके स्थायी शत्रु भी नहीं होते । इसकी एकमात्र रुचि केवल शक्ति सन्तुलन बनाए रखने की होती है ।
सन्तुलनकर्ता ‘भव्य तटस्थता’ (Splendid isolation) की स्थिति में होता है । वह स्वेच्छा से असम्बद्ध (Detached) रहता है । जब तुला के दोनों पलड़े सफलता के लिए आवश्यक अतिरिक्त भार प्राप्त करने के लिए अपने भार के साथ इसके भार को मिलाने के लिए परस्पर प्रतिस्पर्द्धा करें तो इसे दोनों में से किसी पक्ष के साथ स्थायी गठबन्धन नहीं करना चाहिए ।
सन्तुलन का धारक जागरूक तटस्थता की दिशा में प्रतीक्षा करते हुए यह अवलोकन करता रहता है कि कौन-सा पलड़ा डूबने वाला है । इसका पार्थक्य ‘भव्य’ है क्योंकि इसकी सहायता अथवा सहायता का अभाव शक्ति के संघर्ष में निर्णायक का काम करता है ।
यदि इसकी विदेश नीति दक्षतापूर्वक संचालित हो तो, जिनका यह समर्थन करती है उनसे उच्चतम प्रतिफल प्राप्त कर सकती है, किन्तु चूंकि प्रतिफल की परवाह किए बिना यह सदैव अनिश्चित होता है तथा एक पक्ष से दूसरे पक्ष की ओर तुला के संचालन के साथ बदलता रहता है इसलिए इसकी नीतियों पर रोष होता है तथा वे नैतिक आधारों पर निन्दा का विषय बनती हैं ।
आधुनिक युग के प्रमुख सन्तुलनकर्ता ब्रिटेन के लिए कहा गया है कि, ‘यह अपने युद्ध दूसरों को करने देता है’, ‘यह यूरोप को विभाजित रखता है’, ‘ग्रेट ब्रिटेन की नीतियों की अस्थिरता ऐसी है कि इसके साथ संश्रय करना असम्भव है ।’ सन्तुलनकर्ता शक्ति सन्तुलन व्यवस्था में मुख्य स्थिति ग्रहण करता है ।
इसकी स्थिति शक्ति के लिए संघर्ष के परिणाम का निर्धारण करती है । इसीलिए यह इस व्यवस्था का कि कौन जीतेगा तथा कौन हारेगा, निर्णय करने वाला मध्यस्थ ठहराया गया है । किसी राष्ट्र अथवा राष्ट्रों के सम्मिलन के लिए दूसरों का प्राधान्य प्राप्त करना असम्भव बनाकर यह अपनी स्वतन्त्रता तथा अन्य सभी हमारे राष्ट्रों का परिरक्षण करता है । इस प्रकार यह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अधिकतम शक्तिशाली तत्व है ।
तुला का धारक तीन विभिन्न तरीकों से इस शक्ति का प्रयोग कर सकता है:
प्रथम:
यह एक या दूसरे राष्ट्र अथवा संश्रय के साथ अपने संयोग को सन्तुलन बनाए रखने अथवा पुन: स्थापना के लिए अनुकूल निश्चित शर्तों पर आधारित कर सकता है ।
द्वितीय:
यह शान्ति समझौते के अपने समर्थन को समरूप शर्तों पर निर्भर बना सकता है ।
तृतीय:
अन्त में, दोनों में से प्रत्येक स्थिति में यह देख सकता है कि शक्ति सन्तुलन को बनाए रखने के अतिरिक्त दूसरों की शक्ति सन्तुलन करने की प्रक्रिया में इसकी राष्ट्रीय नीति के उद्देश्य भी सफल हो जाते हैं ।
लुई चौदहवें के राज्यकाल में फ्रांस ने तथा प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व के दस वर्षों में इटली ने यूरोपीय शक्ति सन्तुलन में सन्तुलनकर्ता की इस भूमिका को निभाने का प्रयत्न किया, परन्तु फ्रांस यूरोपीय महाद्वीप पर होने वाले शक्ति संघर्ष में इतनी अधिक गहराई तक निर्लिप्त था कि वह अपनी भूमिका का सफल निर्वाह करने में असमर्थ था ।
दूसरी ओर, इटली उस पर्याप्त प्रभाव-क्षमता से हीन था जो उसे शक्ति सन्तुलन में मुख्य स्थान दे देता । सन्तुलनकर्ता का विशुद्ध एवं श्रेष्ठ उदाहरण ब्रिटेन द्वारा प्रस्तुत किया गया है । यह सूत्र हेनरी अष्टम का माना जाता है ‘वही अधिभावी होगा जिसका मैं समर्थन करूंगा ।’
(He whom I support will prevail) उसने अपना एक ऐसा चित्र तैयार करवाया था जिसमें उसने अपने दाएं हाथ में एक तराजू बिल्कुल सन्तुलित दशा में थामी हुई थी । इसके एक पकड़े में फ्रांस और दूसरे पलड़े में आस्ट्रिया था । उसके दाएं हाथ में बांट था जिसे वह हल्के होने वाले किसी भी पकड़े में डालने को तैयार था ।
उसने अपने जीवनकाल में इस चित्र के अनुसार आस्ट्रिया और फ्रांस में शक्ति सन्तुलन बनाए रखा । एलिजाबेथ प्रथम ने अपने शासनकाल (1558-1603) में अपने पिता की नीति का अनुसरण किया और उसके बारे में यह कहा जाता है कि, उसके समय में फ्रांस और स्पेन यूरोप की शक्तितुला के दो पलड़े थे और इंग्लैण्ड इस सन्तुलन को स्थापित करने वाला कांटा था ।
इंग्लैण्ड ने यही भूमिका फ्रांस के राजा लुई चौदहवें, नैपोलियन बोनापार्ट तथा हिटलर के समय में अदा की । सर विन्स्टन चर्चिल ने 1936 में ब्रिटिश कूटनीति पर टिपणी करते हुए अपने एक भाषण में बड़े प्रभावशाली शब्दों में कहा था- “चार सौ वर्षों से इंग्लैण्ड की विदेश नीति यह रही है कि वह यूरोप के महाद्वीप से सबसे शक्तिशाली और आधिपत्य जमाने वाली शक्ति का विरोध करे और विशेष रूप से हालैण्ड और बेल्जियम के निम्न प्रदेशों को ऐसी शक्ति के हाथ में पड़ने से रोके । इस मामले में इंग्लैण्ड ने सदैव इस मार्ग का अवलम्बन किया है । स्पेन के फिलिप द्वितीय, फ्रांस के लुई चतुर्दश, नैपोलियन बोनापार्ट तथा जर्मनी के विलियम द्वितीय के साथ मुकाबला होने पर इंग्लैण्ड के लिए यह बड़ा आसान था कि वह शक्तिशाली के साथ मिल जाता है और उसकी विजयों में भी अपना हिस्सा ग्रहण करता, किन्तु हमने सदैव कठिन मार्ग का अवलम्बन किया है । निर्बल शक्ति का साथ दिया है और इस प्रकार यूरोप पर सैनिक-प्रभुता स्थापित करने वाले अत्याचारी शासक के उद्देश्यों को विफल बनाया है । इस प्रकार हमने यूरोप की स्वतन्त्रता की रक्षा की है । यह ब्रिटिश विदेश नीति की अचेतन परम्परा है ।”
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् कोई भी राज्य या राज्यों का कोई भी समूह वास्तविक सन्तुलनकर्ता की भूमिका का निर्वाह करने की स्थिति में नहीं था । अमरीका और सोवियत संघ की शक्ति लगभग बराबर थी, विचारधाराओं के संघर्ष में किसी भी राष्ट्र के लिए अपना मैत्री सम्बन्ध (गुट) बदलना बहुत कठिन है । आणविक युग में सन्तुलन की भूमिका का निर्वाह करना अत्यन्त दुष्कर है ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व का प्रत्येक राष्ट्र एक या दूसरे गुट के साथ कसकर बंधा हुआ था और इसलिए कोई भी राष्ट्र इतना शक्तिशाली नहीं था कि दोनों पक्षों के बीच सन्तुलन को एक ओर झुका सके । क्या 1945 के बाद के काल में गुटनिरपेक्ष राज्यों के उदय से एक नए प्रकार के सन्तुलनकर्ता का आगमन माना जा सकता है ? किन्तु सवाल यह है कि, क्या गुटनिरपेक्ष राष्ट्र ‘सन्तुलनकर्ता’ की शर्तें पूरी करते हैं ? क्या वे पर्याप्त शक्तिशाली, भव्य तटस्थता तथा शक्ति स्पर्द्धा से विमुख रहने की स्थिति में रहे हैं ?
Essay # 6. शक्ति सन्तुलन के सिद्धान्त का ऐतिहासिक विकास (The History of the Balance of Power: Historical Evolution):
जहां कहीं राज्य व्यवस्था की बहुल प्रणाली (Multiple State System) विद्यमान रहती है, शक्ति सन्तुलन की अवधारणा का अस्तित्व रहता है । प्राचीन समय में भी इस सिद्धान्त का प्रयोग होता था, विशेष रूप से यूनान के नगर राज्यों की व्यवस्था में तथा मिस्र, बेबीलोन, भारत तथा चीन की राज्य प्रणाली में । डेविड ह्यूम ने अपने एक निबन्ध दल: ‘Of the Balance of Power’ में इसे ‘a prevailing notion of ancient times’ कहा है ।
भारत के हिन्दू शासक शक्ति सन्तुलन सिद्धान्त का व्यवहार करते रहते थे । जिमने ने तो ‘विदेश नीति के संचालन में इसे प्रधान हिन्दू अवधारणा’ तक कह डाला है । कौटिल्य के मण्डल सिद्धान्त में ‘शक्ति सन्तुलन की धारणा’ के बीज निहित हैं । रोमन साम्राज्य के युग में इस धारणा का हास दिखाई देता है ।
शक्ति सन्तुलन सिद्धान्त की वास्तविक शुरुआत 15वीं शताब्दी से होती है । इटली के राज्यों की राजनीति के परिचालन में इस सिद्धान्त का प्रयोग होता रहा है । मैकियावेली के ‘प्रिंस’ में इस ओर संकेत किया गया है । वेनिस नाम का नगर राज्य तो ‘सन्तुलनकर्ता’ की भूमिका का निर्वाह भी करने लगा था ।
सोलहवीं शताब्दी में फ्रांस और हैप्तबर्ग के बीच अधिभावी शक्ति सन्तुलन चलता था । इसी समय एक स्वायत्तशासी प्रणाली ने इटली के राज्यों को साम्यावस्था में रखा । इंग्लैण्ड ने शक्ति सन्तुलन की कूटनीति का आश्रय लिया और उसने फ्रांस एवं पवित्र रोमन साम्राज्य के मध्य सन्तुलन बनाए रखने का प्रयत्न किया किन्तु मूलत: इंग्लैण्ड ने इस कालावधि में कमजोर पक्ष की तुलना में शक्तिशाली पक्ष का समर्थन किया ।
सन् 1648 की वेस्टफेलिया की सन्धि ने राष्ट्रीय-राज्य व्यवस्था की स्थापना की और शक्ति सन्तुलन सिद्धान्त की भूमिका और अधिक सार्थक दिखाई देने लगी । जब फ्रांस के लुई चौदहवें (1643-1715) ने सन्तुलन के अस्तित्व को चुनौती दी तो उसे अनेक युद्धों का सामना करना पड़ा ।
जब उसने स्थलीय और नौ-सैनिक शक्ति का विस्तार करके प्रबल शक्ति बनने के सपने देखना प्रारम्भ किया तो उसे इंग्लैण्ड और नीदरलैण्ड की मिली-जुली शक्ति का सामना करना पड़ा । 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उत्तरी यूरोप में एक पृथक शक्ति सन्तुलन का विकास स्वीडन की शक्ति के द्वारा बाल्टिक सागर के निकटवर्ती राष्ट्रों को दी गयी एक चुनौती से हुआ ।
18वीं शताब्दी का काल खासतौर से 1713 की यूट्रैक्ट की सन्धि से पोलैण्ड के प्रथम विभाजन (1772) तक का समय शक्ति सन्तुलन अवधारणा के विकास का स्वर्ण युग माना जाता है । इस युग में शक्ति सन्तुलन सिद्धान्त से सम्बन्धित काफी साहित्यिक सामग्री उपलब्ध करायी गयी और यूरोप के राजाओं ने अपनी विदेश नीति के संचालन में शक्ति सन्तुलन अवधारणा को मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में मान्यता दी ।
इस शताब्दी में अनेक सन्धियों एवं प्रतिसन्धियों के माध्यम से राज्यों के बीच शक्ति सन्तुलन स्थापित करने के प्रयत्न किए गए । प्रशा के राजा फ्रेडरिक महान् (1740 से 1786) को शक्ति सन्तुलन सिद्धान्त का प्रमुख निष्णात कलाकार माना जाता है ।
पोलैण्ड के तीनों विभाजन जिसमें रूस, आस्ट्रिया तथा फ्रांस का मुख्य दावा था कि तीनों राष्ट्रों के भाग एकदम समान और तुल्य होने चाहिए क्षतिपूर्ति एवं भू-भागों के विभाजन के तरीके से शक्ति सन्तुलन स्थापित करने का उदाहरण प्रस्तुत करता है ।
आस्ट्रिया तथा रूस के बीच होने वाली 1772 की सन्धि में स्पष्ट कहा गया है कि क्षतिपूर्ति का बंटवारा दोनों में लगभग समान होगा । इस युद्ध में इंग्लैण्ड फ्रांस प्रशा आस्ट्रिया तथा रूस में बहुल शक्ति सन्तुलन स्थापित हो चुका था ।
प्रशा के एक प्रथम श्रेणी की शक्ति में रूपान्तरित होने से एक विशेष जर्मन शक्ति सन्तुलन का जन्म हुआ जिसके दूसरे पलड़े में मुख्य बांट के रूप में आस्ट्रिया था । अठारहवीं शताब्दी में रूस की शक्ति के समुन्नत होने के कारण एक पूर्वी शक्ति सन्तुलन का विकास दिखायी पड़ा ।
19वीं शताब्दी में नैपोलियन बोनापार्ट की अति प्रबल शक्ति ने यूरोप के सन्तुलन को बिगाड़ने का प्रयत्न किया । इंग्लैण्ड ने उसकी चुनौती का सामना किया और 1815 की वियना कांग्रेस ने नए शक्ति सन्तुलन की स्थापना की । जब रूस ने टर्की की कमजोरी का लाभ उठाते हुए बाल्कान प्रायद्वीप में हस्तक्षेप करना प्रारम्भ किया तो आस्ट्रिया फ्रांस और ब्रिटेन ने स्पष्ट घोषणा की कि शक्ति सन्तुलन की दृष्टि से तुर्की साम्राज्य का बना रहना अनिवार्य है ।
1914 में प्रथम विश्वयुद्ध के आरम्भ में सन्तुलन तुला के एक पलड़े के मुख्य देश ब्रिटेन फ्रांस तथा रूस थे और दूसरे पकड़े में मुख्य राज्य जर्मनी तथा आस्ट्रिया थे । द्वितीय विश्वयुद्ध के अन्त में प्रत्येक पलड़े में प्रमुख बांट गैर-यूरोपीय थे-संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ । शक्ति सन्तुलन का ढांचा ही बदल गया । अफ्रीका एशिया और लैटिन अमरीका के देशों का उपयोग वर्तमान सन्तुलन को स्थिर रखने के लिए किया जा रहा है ।
यूरोप का शक्ति सन्तुलन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विस्तार का कारण विश्वव्यापी सन्तुलन का एक घटक बनकर रह गया । 1970-80 के दशक में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति उस मोड़ पर थी जहां अमरीका और सोवियत संघ की प्रमुख शक्ति सन्तुलन की व्यवस्था में नए शक्ति केन्द्रों का उदय होने लगा जैसे जापान और साम्यवादी चीन का उदय ।
ऐसा कहा जाता है कि, द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् शक्ति सन्तुलन का सिद्धान्त पुराना पड़ चुका है । चूंकि शक्ति सन्तुलन के लिए लगभग बराबर शक्ति वाले तीन या अधिक राज्यों का होना जरूरी है जबकि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद द्विध्रुवीय निकाय (Bipolar System) की स्थापना हुई इसलिए शक्ति सन्तुलन अब अर्थहीन धारणा बन चुका है ।
सन् 1945 के बाद दस वर्षों तक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का स्वरूप समाजवाद और पूंजीवाद के आपसी संघर्ष के प्रतीक दो सुपर पावर्स के बीच संघर्ष की कहानी बन गया । इसे शीत युद्ध की संज्ञा मिली और क्योंकि अब महाशक्ति की संज्ञा के साथ ही एक और शक्ति-विशिष्ट महाशक्ति (Dominant Power) का जन्म हुआ इसलिए बहुत-से राजनीतिक विवेचकों और विद्वानों को शक्ति सन्तुलन की संरचना में अलोच नजर आने लगा ।
यदि शक्ति सन्तुलन को तय करने वाले राष्ट्रों की संख्या में कमी हो जाए और यह दो तक ही सीमित हो जाए तो स्वाभाविक है कि शक्ति सन्तुलन की संरचना द्विधुरी आत्मक (Bipolar) होगी तो वह स्वभावत: विशेषकर राष्ट्रवादी विश्ववाद के युग में अपने आपको द्विगुटीय विश्व राजनीतिक व्यवस्था में परिणत करने का प्रयत्न करेगा ।
दूसरे महायुद्ध की भस्मों में केवल दो विशिष्ट महाशक्तियों का जन्म हुआ किन्तु उपनिवेशवाद के अन्त के साथ ही अनेक छोटे-बड़े राज्यों का जन्म हुआ । इन राज्यों में से अनेक राज्यों के राजनीतिज्ञ अपने पुराने औपनिवेशिक शोषक शासकों के स्वाभाविक द्रोही थे ।
अस्तु दोनों में से किसी भी सुपर पावर के आधिपत्य को स्वीकार करना असह्य था । शीतयुद्ध से और महाशक्तियों के शक्ति संघर्ष से दूर रहने की भावना और स्वराष्ट्र की स्वातच्च भावना ने गुटनिरपेक्षता की नीति को जन्म दिया किन्तु ये गुटनिरपेक्ष राष्ट्र किसी तीसरी सन्तुलन शक्ति के रूप में उदित न हो सके ।
गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों में राष्ट्रवाद और उपनिवेशवाद के प्रतिरोध की भावना के कारण द्विगुटीय शक्ति सन्तुलन से बाहर रखने की नीति को बल मिला । बाद में द्विगुटीय विश्व शक्ति में व्यवधान पड़ने लगे । साम्यवादी गुट में सोवियत संघ और चीन में दरारें पड़ने लगीं ।
फ्रांस और पाकिस्तान नाटो और सीटो से पृथकृ रहने की भूमिका अदा करने लगे । जर्मनी और जापान शक्तिसम्पन्न हो गए और इस प्रकार द्विधुरीपरक विश्व राजनीति का स्थान बहुधुरीय (Multi-Polarity) राजनीति ने ले लिया । समाजवाद और पूंजीवाद के बीच चल रहा शीतयुद्ध यद्यपि समाप्त नहीं हुआ था लेकिन विश्व शक्ति सन्तुलन की संरचना में अन्तर आ गया ।
विश्व की विध्रुवीय व्यवस्था को बहुकेन्द्रवाद में परिवर्तित होते हुए देखा जा रहा है । ब्रिटेन, फ्रांस और चीन भी अणुशक्ति के स्वामी बन चुके हैं, जापान और जर्मनी शक्तिशाली बनते ही जा रहे हैं । ऐसी स्थिति में चाहे सन्तुलन की ऐतिहासिक परम्परा का आज विशेष महत्व नहीं रह गया हो तथापि महाशक्तियों को इस पर विचार करके ही निर्णय लेने पड़ेंगे । खाड़ी युद्ध के बाद एक-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था का उदय होने लगा है । सोवियत संघ के विघटन के बाद शक्ति सन्तुलन की अवधारणा अप्रासंगिक लगने लगी है ।
Essay # 7. शक्ति सन्तुलन; मूल्यांकन (The Balance of Power: An Estimate):
आइनिस क्लाइड ने लिखा है कि, शक्ति सन्तुलन सिद्धान्त के सफल क्रियान्वयन के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं:
प्रथम:
शक्ति थोड़े से स्थानों पर केन्द्रित होकर व्यापक रूप से बहुत-से राज्यों के बीच विभाजित होनी चाहिए ।
द्वितीय:
नीति का नियन्त्रण उन लोगों के द्वारा होना चाहिए जो कूटनीतिक खेल के चातुर्यपूर्ण खिलाड़ी हैं और जो किसी विचारधारा के साथ बंधे हुए नहीं हैं ।
तृतीय:
शक्ति के तत्व सीधे-सादे स्थायी होने चाहिए । सीधे-सादे इसलिए ताकि उनका सही अनुमान लगाया जा सके और स्थायी इसलिए ताकि उनके आधार पर भविष्य की घटनाओं के सम्बन्ध में सही अनुमान लगाया जा सके ।
चतुर्थ:
युद्ध पर होने वाला खर्च इतना अधिक होना चाहिए कि राज्य आसानी से आश्रय न ले सके ।
पंचम:
यथापूर्व स्थिति की व्यवस्था को दी जाने वाली चुनौतियां क्रान्तिकारी नहीं होनी चाहिए ।
षष्ठ:
यथासम्भव एक सन्तुलनकर्ता होना चाहिए ।
आज शक्ति केवल थोड़े-से स्थानों पर केन्द्रित है नीति-निर्माता विचारधाराओं के साथ बंधे हुए हैं, शक्ति तत्व भी आज पहले जैसे बोधगम्य नहीं हैं वे दिन-प्रतिदिन दुरूह होते जा रहे हैं, राज्य युद्ध का सहारा लेते हुए नहीं हिचकिचाते हैं, स्थापित व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तनों की मांग की जा रही है और आज कोई सन्तुलनकर्ता भी नहीं है । इस प्रकार क्लॉड के मत में आधुनिक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में वे परिस्थितियां नहीं पायी जातीं जिनमें शक्ति का सिद्धान्त काम कर सके ।
कार्ल जे. फ्रेडरिक के मत में– ”अब यह सिद्धान्त बिकुल अर्थहीन हो गया है क्योंकि यह किसी समस्या का समाधान नहीं करता । न न्याय की स्थापना कर सकता है न अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का विश्लेषण करने में सहायक होता है और न ही सद्भावना बढ़ाने में ।”
क्विन्सी राइट के विचार में- ”यदि प्रजातन्त्र तथा मानव स्वतन्त्रता को जीवित रखना है तो राष्ट्र इन सिद्धान्तों की हामी भरते हैं उन्हें शक्ति सन्तुलन के स्थान पर कुछ अन्य आधार ढूंढने पड़ेंगे ताकि ये दोनों सुरक्षित रहें ।”
पामर तथा पर्किन्स के मत में शक्ति सन्तुलन के संचालन में प्रतिकूल परिस्थितियां निम्नलिखित हैं:
(1) अन्तर्राष्ट्रीय जगत का विरोधी गुटों में विभाजित होना,
(2) युद्ध में रक्षात्मक आक्रमणकारी शक्ति के लाभों का बहुत अधिक होना,
(3) परमाणु युद्ध की विनाश शक्ति का सहस्रों गुना बढ़ जाना,
(4)शक्ति तत्वों में विचारधारा जैसे अमूर्त तत्वों का अत्यधिक प्रभाव,
(5) राज्यों की आपसी शक्ति का अन्तर बहुत अधिक होना आदि ।
जी. कार्लटन ने लिखा है कि, ”यदि एक वाक्य में इस विवादास्पद प्रश्न का उत्तर देना पड़े कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति किन आधारों पर संचालित होती रही है तो सबसे सन्तोषजनक उत्तर है कि राष्ट्रीय राज्यों के उदय के उपरान्त से आज तक राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय शक्ति सन्तुलन ही मुख्य तत्व रहे हैं परन्तु इस ऐतिहासिक सत्य से अब भ्रमित नहीं होना चाहिए क्योंकि बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के मूल आधार ही परिवर्तित हो रहे हैं ।”
शक्ति सन्तुलन सिद्धान्त की निम्नलिखित तर्कों के आधार पर आलोचना की जाती है:
(i) राज्य को शक्ति संचय के लिए प्रेरित करना:
शक्ति संघर्ष में क्रियात्मक ढंग से संलग्न सभी राष्ट्रों को चाहिए कि वास्तव में उनका शक्ति का सन्तुलन अर्थात् समता न हो वरन् अपने लिए शक्ति की उकृष्टता हो । इसलिए सभी राष्ट्रों को मौजूदा परिस्थितियों में अधिक से अधिक शक्ति की खोज करनी चाहिए । राष्ट्रों के शक्ति संघर्ष की दौड़ में प्रत्येक राष्ट्र में शक्ति अर्जित करने की असीमित आकांक्षा विद्यमान रहती है । शक्ति सन्तुलन में यह आकांक्षा अपने को क्रियान्वयन रूप देने की प्रेरणा रखती है ।
(ii) शक्ति सन्तुलन व्यवस्था में राज्य भयग्रस्त रहते हैं:
चूंकि अधिकतम शक्ति को प्राप्त करने की इच्छा सार्वभौमिक है सभी राष्ट्रों को यह भय होना स्वाभाविक है कि उनकी अपनी मिथ्या गणनाएं तथा दूसरे राष्ट्रों की शक्ति में वृद्धियां उनको और भी कमजोर बनाती चली जाएंगी । इस कमजोरी को उन्हें सभी प्रकार दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
अतएव सभी राष्ट्र जिनकी स्थिति अपने प्रतिस्पर्द्धियों से प्रत्यक्ष रूप में लाभपूर्ण है उस लाभ को और भी सघन बनाने की चेष्टा करेंगे । वे शक्ति वितरण को स्थायी रूप से अपने पक्ष में बदलने के लिए प्रयलशील रहेंगे । इस लाभ का प्रयोग दूसरे राष्ट्रों पर राजनयिक दबाव डालकर उनकी रियायतें देने के लिए विवश करके किया जा सकता है जो कि उस अस्थायी लाभ को स्थायी उत्कृष्टता में घनीभूत कर देगा ।
यह युद्ध के द्वारा भी किया जा सकता है । शक्ति सन्तुलन व्यवस्था में सभी राष्ट्र निरन्तर भय-ग्रस्त रहते हैं । वह भय यह है कि प्रथम उपयुक्त क्षण में ही उनके विरोधी उनको शक्ति स्थिति से वंचित न कर दें ।
(iii) शक्ति सन्तुलन शक्ति का आदर्श वितरण नहीं हैं:
शक्ति सन्तुलन का अर्थ है शक्ति का आदर्श वितरण-साम्यावस्था, पर जब यह कहते हैं कि, अमुक राष्ट्र के हाथ में शक्ति का सन्तुलन है तब आमतौर से हमारा आशय होता है कि उनके पास शक्ति की अधिकता है । मॉरगेन्थाऊ के अनुसार, ”शक्ति सन्तुलन के पलड़े कभी भी यथावत् सन्तुलित नहीं होंगे । न समता का सही बिन्दु पहचानने योग्य ही होता है, न उसके पहचानने की आवश्यकता ही है ।”
(iv) शक्ति सन्तुलन युद्धों का कारण है:
शक्ति सन्तुलन की स्थितियों में एक यथापूर्व स्थिति वाले राज्य अथवा उनके संश्रय तथा एक साम्राज्यवादी शक्ति अथवा उनके समूह के विरोध से युद्ध होने की सम्भावना रहती है । चार्ल्स पंचम से हिटलर तथा हिरोहितो तक के बहुत-से उदाहरणों में शक्ति सन्तुलन वास्तव में युद्धों के कारण बने ।
कल का यथापूर्व स्थिति का समर्थक राष्ट्र विजय द्वारा आज के साम्राज्यवादी राज्य में परिणत हो जाता है । गत दिवस के पराजित राष्ट्र अगले दिन अपनी पराजय का बदला लेने की घात में रहेंगे । विजेता की महत्वाकांक्षा जिसने सन्तुलन को पुन: प्राप्त करने के लिए हथियार उठाए तथा हारने वाले का रोष जो इसे उलट नहीं पाया नए सन्तुलन को एक विक्षोभ से दूसरे विक्षोभ के लिए ऐसा संक्रमण बिन्दु बनाते प्रतीत होते हैं जोकि यथार्थ रूप में अदृश्य है ।
(v) शान्ति का संरक्षण शक्ति के असन्तुलन से होता है:
आर्गेन्सकी का विचार है कि एक पक्ष के पास शक्ति की विपुलता होने की स्थिति में कमजोर पक्ष विपुल शक्ति के आगे समर्पण कर देता है । इस प्रकार शान्ति का संरक्षण ‘शक्ति के असन्तुलन’ से होता है, न कि ‘शक्ति के सन्तुलन से’ ।
बराबर शक्ति होने पर दोनों पक्षों को संघर्ष आरम्भ करने का प्रलोभन बना रहेगा । जब धुरी राष्ट्रों की शक्ति यूरोपीय मित्रराष्ट्रों की शक्ति की बराबरी में आ गयी तो दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया । इसलिए शान्ति और शक्ति सन्तुलन का सम्बन्ध उससे ठीक उल्टा मालूम होता है ।
(vi) शक्ति सन्तुलन का विचार यान्त्रिकी रूपक है:
राष्ट्रों के समूह में सन्तुलन का विचार यान्त्रिकी के क्षेत्र से लिया गया रूपक है । अन्तर्राष्ट्रीय जगत में स्थायित्व तथा व्यवस्था बनाए रखने के लिए दोनों ओर बांटों के समान वितरण द्वारा दो पलड़ों में सन्तुलन बनाए रखने के रूपक का उद्गम यान्त्रिक दर्शन में है ।
यान्त्रिक विधि से कल्पित शक्ति सन्तुलन को एक सरलता से पहचानने योग्य परिमाणात्मक कसौटी की आवश्यकता है, जिसके द्वारा बहुत-से राष्ट्रों की सापेक्षिक शक्ति की माप तथा तुलना हो सकती है । किन्तु क्या राज्यों की सापेक्षिक शक्ति को नापा जा सकता है ? क्या एक राष्ट्र अधिक प्रदेश होने से अधिक शक्तिशाली बन जाता है ?
दो शासकों में कौन अधिक शक्तिशाली है: एक वह जिसके पास सैनिक शक्ति के तीन पौण्ड, राजमर्मज्ञता के चार पौण्ड उत्साह के पांच पौण्ड तथा महत्वाकांक्षा के दो पौण्ड हैं अथवा दूसरा वह जिसके पास सैनिक शक्ति के बारह पौण्ड तथा अन्य सब गुणों का केवल एक पौण्ड है ।
शक्ति की युक्तिसंगत परिगणना, जो कि शक्ति सन्तुलन का जीवन-रक्त है अटकलबाजियों की एक शृंखला मात्र है । जब राष्ट्रीय शक्ति को मापा नहीं जा सकता तो शक्ति सन्तुलन की यान्त्रिकी कल्पना केवल कल्पना बनकर रह जाती है सिद्धान्त नहीं । प्रो. हान्स जे. मॉरगेन्थाऊ ने शक्ति सन्तुलन सिद्धान्त की आलोचना करते हुए इसे एक अनिश्चित अवास्तविक और अपर्याप्त सिद्धान्त बताया है ।
ADVERTISEMENTS:
मॉरगेन्थाऊ लिखते हैं कि- ”अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति सन्तुलन के अस्थायित्व का कारण इस सिद्धान्त का त्रुटिपूर्ण होना नहीं है इसका कारण तो वे खास अवस्थाएं हैं जिनमें इस सिद्धान्त को प्रभुत्वसम्पन्न राज्यों के समाज में कार्य करना पड़ता है ।”
रिचार्ड कॉब्डन ने शक्ति सन्तुलन सिद्धान्त की कटु आलोचना की है, उनके अनुसार- ”शक्ति सन्तुलन का सिद्धान्त केवल एक असम्भव कल्पना मात्र हैं-राजनीतिज्ञों के मस्तिष्क की एक उपज है एक श्वास में बोले जाने वाले शब्दों का योग है इसके अक्षर हैं जो कुछ आवाज करते हैं किन्तु उनका कोई अर्थ नहीं होता है ।”
आर्गेन्स्की का कहना है कि– ”हमें शक्ति सन्तुलन के सिद्धान्त को अस्वीकार कर देना चाहिए । इसके विचार अस्पष्ट हैं ये तर्क के आधार पर सही नहीं उतरते हैं और उनमें विरोधाभास पाया जाता है, ऐतिहासिक घटनाओं के द्वारा इनकी पुष्टि नहीं होती है ।”
इन कमियों के बावजूद भी शक्ति सन्तुलन सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का सारभूत सिद्धान्त है । यह सच है कि अमरीका तथा सोवियत संघ के बीच शक्ति के एक नए द्विध्रुवीकरण के जन्म से तथा साथ ही किसी सन्तुलनकर्ता के अभाव के कारण वर्तमान में यह सिद्धान्त पुराना पड़ गया है । तथापि फ्रांस और चीन ने द्विध्रुवीय व्यवस्था को चुनौती देना प्रारम्भ कर दिया था ।
जर्मनी और जापान विश्व राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने की आकांक्षा रखते हैं, अत: निकट भविष्य में ‘शक्ति सन्तुलन’ सिद्धान्त का महत्व और भी अधिक बढ़ने वाला है । जब तक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति राष्ट्र-राज्य प्रणाली पर आधारित रहेगी शक्ति सन्तुलन उसका अनिवार्य तत्व रहेगा भले ही सैद्धान्तिक रूप से उसमें कितनी ही कमियां क्यों न रह जाएं । फ्रेडरिक के मत में- ”आज की अन्तर्राष्ट्रीय अराजकता की तुलना में शक्ति सन्तुलन कहीं अधिक वांछनीय है, यद्यपि शक्ति सन्तुलन भी मानव स्वभाव और विश्व राजनीति की अपूर्णता का ही द्योतक है ।”