ADVERTISEMENTS:
Read this essay in Hindi to learn about the major causes of the cold war.
1. ऐतिहासिक कारण:
कतिपय पर्यवेक्षक शीत-युद्ध का कारण 1917 की बोल्शेविक क्रान्ति में छूते हैं । सन् 1917 की बोल्शेविक क्रान्ति के समय से ही पश्चिमी राष्ट्र सोवियत संघ को समाप्त करने का प्रयत्न कर रहे थे क्योंकि साम्यवाद एक विश्वव्यापी आन्दोलन था जिसका अन्तिम उद्देश्य पूंजीवाद को समाप्त करके पूरे विश्व में साम्यवाद का प्रसार करना था ।
ब्रिटेन ने सोवियत संघ को 1924 और अमरीका ने उसे 1933 में ही मान्यता दी थी । पश्चिमी देश साम्यवादी रूस को नाजी जर्मनी की अपेक्षा अधिक आशंका की दृष्टि से देखते रहे । पश्चिमी देश हिटलर को सोवियत संघ पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित करते रहे ।
2. द्वितीय मोर्चे का प्रश्न:
द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान जब हिटलर ने सोवियत संघ को भारी जन-धन की क्षति पहुंचायी तो सोवियत नेता स्टालिन ने मित्र-राष्ट्रों से यूरोप में नाजी फौजों के विरुद्ध दूसरा मोर्चा खोल देने का अनुरोध किया ताकि नाजी सेना का रूसी सीमा पर पड़ा दबाव कम हो सके । परन्तु रूजवेल्ट और चर्चिल महीनों तक इस अनुरोध को टालते रहे ।
सोवियत इतिहासकारों के मत में यह देरी अमरीका और ब्रिटेन की योजनाबद्ध नीति का परिणाम थी जिससे नाजी जर्मनी साम्यवादी रूस को पूर्णतया ध्वस्त कर दे । इससे-स्टालिन को यह समझने में देर नहीं लगी कि पश्चिमी देशों की आन्तरिक भावना सोवियत संघ को विनष्ट हुआ देखने की है ।
3. युद्धोत्तर उद्देश्यों में अन्तर:
अमरीका और सोवियत संघ के युद्धोतर उद्देश्यों में भी स्पष्ट भिन्नता थी । भविष्य में जर्मनी के विरुद्ध सुरक्षित रहने के लिए सोवियत संघ, यूरोप के देशों को सोवियत प्रभाव-क्षेत्र में लाना चाहता था तो पश्चिमी देशों के मत में जर्मनी की पराजय से सोवियत संघ के अत्यन्त शक्तिशाली हो जाने का भय था ।
यह देश सोवियत संघ के बढ़ते प्रभाव-क्षेत्र को सीमित रखने के लिए कटिबद्ध थे । इसके लिए आवश्यक था कि पूर्वी यूरोप के देशों में लोकतान्त्रिक शासनों की स्थापना हो जिसके लिए स्वतन्त्र निर्वाचन कराने आवश्यक थे । स्टालिन के मत में इन देशों में स्थापित साम्यवादी सरकारें ही वास्तविक जनतान्त्रिक सरकारें थीं ।
4. सोवियत संघ द्वारा याल्टा समझौते की अवहेलना:
याल्टा सम्मेलन (1945) में रूजवेल्ट, स्टालिन और चर्चिल ने कुछ समझौते किये थे । पोलैण्ड में सोवियत संघ द्वारा संरक्षित ‘लुबनिन शासन’ और पश्चिमी देशों द्वारा संरक्षित ‘लन्दन शासन’ के स्थान पर स्वतन्त्र और निष्पक्ष निर्वाचन पर आधारित एक प्रतिनिध्यात्मक शासन स्थापित करने का निर्णय लिया । लेकिन जैसे ही युद्ध का अन्त निकट दिखायी देने लगा स्टालिन ने अपने वचनों से मुकरना प्रारम्भ कर दिया ।
ADVERTISEMENTS:
उसने अमरीकी और ब्रिटिश प्रेक्षकों को पोलैण्ड में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी तथा पोलैण्ड की जनतन्त्रवादी पार्टियों को मिलाने की कार्यवाही प्रारम्भ कर दी । उसने पोलैण्ड में अपनी संरक्षित लुबनिन सरकार को लादने का प्रयत्न किया ।
हंगरी, बुल्गारिया, रोमानिया और चेकोस्लोवाकिया में भी सोवियत संघ द्वारा युद्ध-विराम समझौतों तथा याल्टा व पोट्सडाम सन्धियों का उल्लंघन किया गया । सोवियत संघ ने इन सभी देशों में लोकतन्त्र की पुनर्स्थापना में मित्र-राष्ट्रों के साथ सहयोग करने से इन्कार कर दिया और सोवियत संघ समर्थक सरकारें स्थापित कर दीं ।
सोवियत संघ की जापान के विरुद्ध युद्ध में सम्मिलित होने की अनिच्छा और उसके द्वारा मित्र-राष्ट्रों को साइबेरिया में अड्डों की सुविधा प्रदान करने में हिचकिचाहट ने भी पश्चिमी राष्ट्रों के रूस के प्रति सन्देह को बढ़ाया ।
मंचूरिया स्थित सोवियत फौजों ने 1946 के प्रारम्भ में राष्ट्रवादी सेनाओं को तो वहां प्रवेश तक नहीं करने दिया जबकि साम्यवादी सेनाओं को प्रवेश सम्बन्धी सुविधाएं प्रदान कीं और उनको सपूर्ण युद्ध सामग्री सौंप दी, जो जापानी सेना भागते समय छोड़ गयी थी । याल्टा समझौतों के विरुद्ध की गयी सोवियत कार्यवाहियों से पश्चिमी राष्ट्रों के हृदय में सोवियत संघ के प्रति सन्देह उत्पन्न होने लगा ।
5. सोवियत संघ द्वारा बाल्कन समझौते का अतिक्रमण:
ADVERTISEMENTS:
सोवियत संघ ने अक्टूबर 1944 में चर्चिल के पूर्वी यूरोप के विभाजन के सुझाव को स्वीकार कर लिया था । इसके अन्तर्गत यह निश्चित हुआ था कि सोवियत संघ का बुल्गारिया तथा रूमानिया में प्रभाव स्वीकार किया जाय और यही स्थिति यूनान में ब्रिटेन की स्वीकार की जाये ।
हंगरी तथा यूगोस्लाविया में दोनों का बराबर प्रभाव माना जाय किन्तु युद्ध की समाप्ति के बाद इन देशों में बाल्कन समझौते की उपेक्षा करते हुए सोवियत संघ ने साम्यवादी दलों को खुलकर सहायता दी और वहां ‘सर्वहारा की तानाशाही’ स्थापित करा दी गयी । इससे पश्चिमी देशों का नाराज हो जाना स्वाभाविक था ।
6. ईरान से सोवियत सेना का न हटाया जाना:
द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान सोवियत सेना ने ब्रिटेन की सहमति से उत्तरी ईरान पर अधिकार जमा लिया था । यद्यपि युद्ध की समाप्ति के बाद आंग्ल-अमरीकी सेना तो दक्षिणी ईरान से हटा ली गयी पर सोवियत संघ ने अपनी सेना हटाने से इकार कर दिया । संयुक्त राष्ट्र संघ के दबाव के फलस्वरूप ही सोवियत संघ ने बाद में वहां से अपनी सेनाएं हटायीं । इससे भी पश्चिमी देश सोवियत संघ से नाराज हो गये ।
7. यूनान में सोवियत संघ का हस्तक्षेप:
1944 में एक समझौते के द्वारा यूनान ब्रिटेन के अधिकार-क्षेत्र में स्वीकार कर लिया गया था । द्वितीय महायुद्ध में ब्रिटेन की स्थिति बहुत कमजोर हो गयी थी जिससे ब्रिटेन ने यूनान के अपने सैनिक-अड्डे समाप्त करने की घोषणा कर दी ।
यूनान के शक्ति-शून्य प्रदेश को भरने के लिए पड़ोसी साम्यवादी देशों-अल्बानिया, यूगोस्लाविया, बुल्गारिया आदि द्वारा सोवियत संघ की प्रेरणा से यूनानी कम्युनिस्ट छापामारों को परम्परागत राजतन्त्री शासन उखाड़ फेंकने के लिए सहायता दी जाने लगी ।
परिणामस्वरूप ट्रूमैन सिद्धान्त और मार्शल योजना के तत्वावधान में अमरीका का हस्तक्षेप किया जाना अपरिहार्य हो गया अन्यथा यूनान का साम्यवादी खेमे में जाना निश्चित-सा ही हो गया था ।
8. टर्की पर सोवियत संघ का दबाव:
युद्ध के तुरन्त बाद सोवियत संघ ने टर्की पर कुछ भू-प्रदेश और वास्फोरस में नाविक अड्डा बनाने का अधिकार देने के लिए दबाव डालना शुरू किया । परन्तु पश्चिमी राष्ट्र इसके विरुद्ध थे । जब टर्की पर सोवियत संघ का हस्तक्षेप बढ़ने लगा तो अमरीका ने उसे चेतावनी दी कि टर्की पर किसी भी आक्रमण को सहन नहीं किया जायेगा और मामला सुरक्षा परिषद् में रखा जायेगा ।
9. अणु बम का आविष्कार:
शीत-युद्ध के सूत्रपात का एक अन्य कारण अणु बम का आविष्कार था । यह कहा जाता हे कि अणु बम ने हिरोशिमा का ही विध्वंस नहीं किया अपितु युद्धकालीन मित्र-राष्ट्रों की मित्रता का भी अन्त कर दिया ।
संयुक्त राज्य अमरीका में अणु बम पर अनुसन्धान कार्य और उसका परीक्षण बहुत पहले से चल रहा था । अमरीका ने इस अनुसन्धान की प्रगति से ब्रिटेन को तो पूरा परिचित रखा लेकिन सोवियत संघ से इसका रहस्य जान-बूझकर गुप्त रखा गया ।
सोवियत संघ को इससे जबर्दस्त सदमा पहुंचा और उसने इसे एक घोर विश्वासघात माना । उधर अमरीका और ब्रिटेन को अणु बम के कारण यह अभिमान हो गया कि अब उन्हें सोवियत सहायता की कोई आवश्यकता नहीं है । अतएव इस कारण भी दोनों पक्षों में मन-मुटाव बढ़ा ।
10. सोवियत संघ द्वारा अमरीका विरोधी प्रचार अभियान:
द्वितीय महायुद्ध समाप्त होने के कुछ समय पूर्व से ही प्रमुख सोवियत पत्रों में अमरीका की नीतियों के विरुद्ध घोर आलोचनात्मक लेख प्रकाशित होने लगे । इस ‘प्रचार अभियान’ से अमरीका के सरकारी और गैर-सरकारी क्षेत्रों में बड़ा विक्षोभ फैला और अमरीका ने अपने यहां बढ़ती हुई साम्यवादी गतिविधियों पर अंकुश लगाना प्रारम्भ कर दिया ताकि अमरीका में साम्यवाद के प्रभाव को बढ़ने से रोका जा सके ।
सोवियत संघ ने अमरीका में भी साम्यवादी गतिविधियों को प्रेरित किया । 1945 के प्रारम्भ में ‘स्ट्रेटजिक सर्विस’ के अधिकारियों को यह ज्ञात हुआ कि उनकी संस्था के गुप्त दस्तावेज साम्यवादी संरक्षण में चलने वाले पत्र अमेरेशिया के हाथों में पहुंच गये हैं । 1946 में ‘कैनेडियन रॉयल कमीशन’ की रिपोर्ट में कहा गया कि कनाडा का साम्यवादी दल ‘सोवियत संघ की एक भुजा’ है ।
ऐसी स्थिति में अमरीकी प्रशासन साम्यवादी सोवियत संघ के प्रति जागरूक हो गया और उन्होंने साम्यवाद का हौवा खड़ा कर दिया । सोवियत संघ ने अमरीका की इस कार्यवाही को अपने विरुद्ध समझा और उसने भी अमरीका की कटु आलोचना करने का अभियान प्रारम्भ कर दिया परिणामस्वरूप शीत-युद्ध में वृद्धि हुई ।
11. पश्चिम की सोवियत विरोधी नीति और प्रचार अभियान:
पश्चिम की सोवियत विरोधी नीति और प्रचार अभियान ने जलती आहुति में घी का काम किया । 18 अगस्त, 1945 को बर्नेज (अमरीकी राज्य सचिव) तथा बेविन (ब्रिटिश विदेश मन्त्री) ने अपनी विज्ञप्ति में सोवियत नीति के सन्दर्भ में कहा कि ”हमें तानाशाही के एक स्वरूप के स्थान पर उसके दूसरे स्वरूप के संस्थापन को रोकना चाहिए ।”
5 मार्च, 1946 को अपने फुल्टन भाषण में चर्चिल ने कहा कि ”बाल्टिक में स्टेटिन से लेकर एड्रियाटिक में ट्रीस्टे तक, महाद्वीप (यूरोप) में एक ‘लौह आवरण’ छा गया है । ये सभी प्रसिद्ध नगर और सोवियत क्षेत्र में बसने वाली जनता न केवल सोवियत प्रभाव में है वरन् सोवियत नियन्त्रण में है ।”
उसने आगे कहा कि ”स्वतन्त्रता की दीप-शिखा प्रज्वलित रखने एवं ईसाई सभ्यता की सुरक्षा के लिए” एक आंग्ल-अमरीकी गठबन्धन की आवश्यकता है । चर्चिल के फुल्टन भाषण के दूरगामी परिणाम हुए । अप्रैल 1946 के उपरान्त दोनों पक्षों ने अपने मतभेदों को खुले आम प्रकट करना शुरू कर दिया जिसमें दोनों पक्षों का एक-दूसरे के प्रति शत्रुतापूर्ण दृष्टिकोण एक नग्न सत्य बन गया ।
यह शायद चर्चिल के व्याख्यान का ही प्रभाव था जिसने ‘मुनरो सिद्धान्त’ को एक निश्चित स्वरूप प्रदान किया और जिसने ‘मार्शल योजना’ को जन्म दिया । चर्चिल के फुल्टन भाषण के सम्बन्ध में कहा गया कि ”ब्रिटेन के युद्धकालीन नेता के फुल्टन भाषण ने शीत-युद्ध का वास्तव में प्रारम्भ न ही किया हो तो भी वह प्रथम बुलन्द उद्घोषणा थी ।”
12. बर्लिन की नाकेबन्दी:
सोवियत संघ द्वारा लन्दन प्रोटोकोल (जून 1948) का उल्लंघन करते हुए बर्लिन की नाकेबन्दी कर दी गयी । इससे पश्चिमी देशों ने सुरक्षा परिषद् में सोवियत संघ की नाकेबन्दी के विरुद्ध शिकायत की और इस कार्यवाही को शान्ति के लिए घातक बताया ।
13. सोवियत संघ द्वारा ‘वीटो’ का बार-बार प्रयोग:
सोवियत संघ ने अपने ‘वीटो’ के अनियन्त्रित प्रयोगों द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्यों में बाधाएं डालना प्रारम्भ कर दिया क्योंकि वह संयुक्त राष्ट्र संघ को विश्व-शान्ति और सुरक्षा स्थापित करने वाली एक विश्व-संस्था न मानकर अमरीका के विदेश विभाग का एक अंग समझता था । इसलिए ‘वीटो’ के बल पर उसने अमरीका और पश्चिमी देशों के लगभग प्रत्येक प्रस्ताव को निरस्त करने की नीति अपना ली ।
ADVERTISEMENTS:
सोवियत संघ द्वारा वीटो के इस प्रकार दुरुपयोग करने से पश्चिमी राष्ट्रों की यह मान्यता बन गयी कि वह इस संगठन को समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील है । इस कारण पश्चिमी राष्ट्र सोवियत संघ की कटु आलोचना करने लगे जिसके परिणामस्वरूप उनमें परस्पर विरोध और तनाव का वातावरण और अधिक विकसित हो गया ।
14. सोवियत संघ की लैण्ड-लीज सहायता बन्द किया जाना:
लैण्ड-लीज ऐक्ट के अन्तर्गत अमरीका द्वारा सोवियत संघ को जो आशिक आर्थिक सहायता दी जा रही थी उससे वह असन्तुष्ट तो था ही क्योंकि यह सहायता अत्यन्त अल्प थी किन्तु इस अल्प सहायता को भी राष्ट्रपति ट्रूमैन ने द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद एकाएक बन्द कर दिया जिससे सोवियत संघ का नाराज होना स्वाभाविक था ।
15. शक्ति संघ:
मॉरगेन्थाऊ के अनुसार, ”अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति शक्ति-संघर्ष की राजनीति है ।” विश्व में जो भी परम शक्तिशाली राष्ट्र होते हैं उनमें प्रधानता के लिए संघर्ष होना अनिवार्य होता है । द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद सोवियत संघ तथा अमरीका ही दो शक्तिशाली राज्यों के रूप में उदय हुए अत: इनमें विश्व-प्रभुत्व स्थापित करने के लिए आपसी संघर्ष होना अनिवार्य था ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का यह माना हुआ सिद्धान्त है कि शक्ति-राजनीति को सैद्धान्तिक आदर्शों का जामा पहनाया जाता है । अत: कई विचारक तो शीत-युद्ध को पुरानी शक्ति-सन्तुलन की राजनीति का नया संस्करण मानते हैं जिसमें दोनों महाशक्तियां अपना प्रभुत्व बढ़ाने में जी-जान से लगी हुई थीं । धीरे-धीरे इसे सैद्धान्तिक आधार दे दिया गया ।
16. हित-संघर्ष:
शीत-युद्ध वस्तुत राष्ट्रीय हितों का संघर्ष था । द्वितीय महायुद्ध के उपरान्त अनेक मुद्दों पर सोवियत संघ और अमरीका के स्वार्थ आपस में टकराते थे । ये विवादास्पद मुद्दे दो-जर्मनी का प्रश्न, बर्लिन का प्रश्न, पूर्वी यूरोप में साम्यवादी शासन की स्थापना करना, आदि ।