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Read this essay in Hindi to learn about the ten main causes of second world war.
Essay # 1. वर्साय की सन्धि की शर्तो की कठोरता:
ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि द्वितीय विश्व-युद्ध के कारणों के बीज पेरिस में हुई सन्धियों में थे । पेरिस सम्मेलन में प्रथम विश्व-युद्ध की विभीषिका से आतंकित देशों के प्रतिनिधियों ने विश्व-शान्ति की स्थापना के लिए प्रयत्न किया, परन्तु उनके प्रयत्नों में ईमानदारी नहीं थी । फ्रांस ने जर्मनी से 1871 की पराजय का प्रतिशोध लिया । उसे राजनीतिक, आर्थिक एवं सैनिक रूप से पंगु बना दिया, उसे उपनिवेशों से वंचित किया एवं उसके व्यापार तथा वाणिज्य को बड़ी हानि पहुंचायी ।
वर्साय की सन्धि का जर्मनी पर जो विनाशकारी प्रभाव हुआ उसका वर्णन करते हुए लैंगसम ने लिखा है, ”इससे यूरोप में जर्मन प्रदेश का आठवां भाग और 70 लाख व्यक्ति कम हो गये, उसके सारे उपनिवेश 15% कृषि योग्य भूमि, 12% पशु, 10% कारखाने छीन लिये गये, उसके व्यापारिक जहाज 57 लाख टन से घटाकर केवल 5 लाख टन तक सीमित कर दिये गये, ब्रिटेन की नौ-सैनिक शक्ति से प्रतिस्पर्द्धा करने वाली उसकी नौ-सैनिक शक्ति को नष्ट कर दिया गया और स्थल सेना की संख्या एक लाख निश्चित कर दी गयी ।
उसे अपने कोयले के 2/3 भाग से, लोहे के 2/3 भाग से और जस्ते के 7/10 भाग से तथा आधे से भी अधिक सीसे के क्षेत्र से हाथ धोना पड़ा । उपनिवेशों के इस प्रकार छीन लिये जाने से उसे रबड़ और तेल की कमी का सामना करना पड़ा । वर्साय की प्रादेशिक व्यवस्थाओं ने उसके उद्योग-धन्धों और व्यापार को एकदम चौपट कर दिया । इसी प्रकार क्षतिपूर्ति के नाम पर उसे कोरे चैक पर हस्ताक्षर करने को बाध्य किया गया ।”
वर्साय की सन्धि ने जर्मन जनता में मित्र-राष्ट्रों के विरुद्ध उग्र प्रतिरोध की भावना उत्पन्न कर दी थी । प्रतिशोध धृणा, शस्त्र-बल, आदि पर आधारित शान्ति चिरस्थायी नहीं होती । जैसे फ्रांस 1871 की पराजय एवं अपमान को नहीं भूल सका था उसी प्रकार जर्मनी वर्साय की सन्धि को नहीं भूल पाया था । कुछ समय तक जर्मनी सन्धि से उत्पन्न कठिनाइयों को सहता रहा परन्तु निराशा, कष्ट, घोर अपमान आदि से उत्पन्न प्रतिक्रिया के कारण नाजियों का अभ्युदय हुआ ।
उन्होंने जर्मनी को याद दिलाया कि उन्हें वर्साय की अपमानजनक सन्धि की शर्तों को तोड़ना है एवं अन्यायपूर्ण सन्धि का प्रतिशोध लेना है । प्रतिशोध की भावना ने जर्मनी को युद्धोन्मादी बना दिया । सिरिल फ्रांस के शब्दों में, “द्वितीय विश्व-युद्ध सार रूप से जर्मनी द्वारा प्रारम्भ किया गया एक प्रतिशोधात्मक युद्ध था ।”
Essay # 2. सामूहिक सुरक्षा का पतन:
प्रथम विश्व-युद्ध के बाद यूरोप के राजनीतिज्ञ इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि चिरस्थायी शान्ति के लिए सामूहिक सुरक्षा प्रणाली स्वीकार करना सर्वश्रेष्ठ है । राष्ट्र संघ की स्थापना से यूरोपवासियों को विश्वास हो गया था कि सामूहिक सुरक्षा प्रणाली द्वारा यूरोप में शान्ति स्थापित होगी एवं भविष्य में युद्ध नहीं होगा, परन्तु 1931 के बाद उनका सामूहिक सुरक्षा में विश्वास घटने लगा था । 1931-39 के बीच होने वाली घटनाओं से स्पष्ट हो गया था कि यूरोप में पुन: युद्ध छिड़ेगा ।
पेरिस सम्मेलन के पश्चात् फ्रांस ने सामूहिक सुरक्षा के लिए लघु मैत्री संगठन का निर्माण किया एवं इसका सम्बन्ध पोलैण्ड से स्थापित किया । फ्रांस का विश्वास था कि पराजय के बाद भी जर्मनी से सावधान रहने की आवश्यकता है ।
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अत: यूरोप की शान्ति के लिए उसके चारों ओर के पड़ोसियों का संगठन बनाया जाये जिससे जर्मनी चारों ओर से घिरा रहे । लघु मैत्री संगठन के पश्चात् यूरोप की शान्ति को चिरस्थायी बनाने के लिए सामूहिक प्रयत्न आरम्भ हुआ । जेनेवा, लोकार्नो तथा पेरिस में यूरोप की महाशक्तियों ने युद्ध न करने एवं आपसी झगड़ों को बिना शक्ति प्रयोग के सुलझाने के लिए जो समझौते किये, वे सामूहिक सुरक्षा को शक्तिशाली बनाने वाले थे ।
यूरोपवासियों को विश्वास हो गया था कि भविष्य में युद्ध नहीं होगा परन्तु 1931 के बाद की घटनाओं ने उन्हें बड़ा निराश किया । 1931 में जापान ने मंचूरिया पर आक्रमण किया और चीन ने जापान के आक्रमण के विरुद्ध राष्ट्र संघ से शिकायत की, किन्तु राष्ट्र संघ मंचूरिया से जापान को नहीं निकाल सका ।
1935 में इटली ने इथियोपिया पर आक्रमण करने की पूरी तैयारी की । इथियोपिया के सम्राट ने राष्ट्र संघ से अपील की कि उसकी आक्रमण से रक्षा की जाये, परन्तु राष्ट्र संघ ने उस पर विशेष ध्यान नहीं दिया । राष्ट्र संघ की उदासीनता से प्रोत्साहित हो इटली ने इथियोपिया पर आक्रमण किया एवं इससे पहले कि राष्ट्र संघ के सदस्य उसके विरुद्ध कोई कदम उठायें उसने इथियोपिया पर अधिकार स्थापित कर लिया ।
राष्ट्र संघ के सदस्यों ने अपनी असफलता की झेंप मिटाने के लिए इटली के विरुद्ध आर्थिक एवं वित्तीय प्रतिबन्ध लागू किये जिनका किसी भी देश ने पूरी निप्ता के साथ पालन नहीं किया । इटली की इथियोपिया पर विजय से सामूहिक सुरक्षा प्रणाली का खोखलापन स्पष्ट हो गया । राष्ट्र संघ की विफलता के कारण बड़े और छोटे राज्यों को इस पर कोई भरोसा नहीं रहा ।
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राष्ट्र संघ की कमजोरी यह थी कि यह एक सार्वभौमिक संगठन नहीं था । संयुक्त राज्य अमरीका जैसे शक्तिशाली देश का सहयोग इसे नहीं मिला जबकि राष्ट्र संघ के निर्माण का श्रेय संयुक्त राज्य अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति वुडरो विल्सन को था ।
जब अमरीका जैसा प्रभावशाली देश राष्ट्र संघ का सदस्य नहीं बना, तब अन्य देश भी इससे प्रोत्साहित हुए और जब राष्ट्र संघ उनके मार्ग में बाधक बना तो असन्तुष्ट होकर उन्होंने इसकी सदस्यता का परित्याग कर दिया । जापान, जर्मनी, इटली ऐसे असन्तुष्ट देशों की श्रेणी में मुख्य थे ।
राष्ट्र संघ अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को बिगड़ने से इसलिए नहीं रोक सका कि:
i. प्रथम, तो वह संवैधानिक निर्बलता का शिकार था और उसके पास आर्थिक एवं सैनिक शक्ति का अभाव था;
ii. द्वितीय, महाशक्तियों का असहयोग था;
iii. तृतीय, राष्ट्र संघ के सिद्धान्तों के प्रति भी सदस्यों में निष्ठा की कमी थी;
iv. चतुर्थ, संघ के प्रति सदस्य राज्यों के विरोधी दृष्टिकोण थे और वे संघ को अपनी स्वार्थ-पूर्ति का साधन बनाने पर तुले थे;
v. पंचम्, सन् 1930 के आर्थिक संकट ने राष्ट्रवादी शक्तियों को इतना प्रबल कर दिया था कि वे सामूहिक सुरक्षा और सामूहिक प्रतिरोध के अन्तर्राष्ट्रीय सिद्धान्तों की उपेक्षा करने लगीं और अन्त में अधिनायकवाद के विकास ने और ‘लहू और लोहे की नीति’ में विश्वास रखने वाले हिटलर और मुसोलिनी के कार्यों ने ‘शान्ति के सभी प्रयासों’ को ठप्प कर दिया ।
शूमां के शब्दों में, ”संघ की सफलता के लिए यह आवश्यक था कि सदस्य राज्यों में इसके सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा होती और वे बुद्धिमत्ता और साहस से काम लेते, किन्तु उनमें इसका सर्वथा अभाव था अतएव जेनेवा की झील के तट पर परियाना पार्क में निर्मित उसका भव्य प्रासाद शीघ्र ही उसका सुन्दर समाधि-स्थल बना गया ।”
Essay # 3. तुष्टीकरण की नीति:
ब्रिटेन और फ्रांस ने तुष्टीकरण की नीति अपनायी । प्रथम विश्व-युद्ध के बाद ब्रिटेन और फ्रांस की विदेश नीति में बहुत अन्तर आ गया । ब्रिटेन शक्ति-सन्तुलन की नीति में विश्वास करने लगा और वह नहीं चाहता था कि फ्रांस एक शक्तिशाली देश बन जाये, क्योंकि इससे यूरोप का शक्ति-सन्तुलन बिगड़ने का भय था ।
ब्रिटेन साम्यवाद के बढ़ते प्रभाव से चिन्तित था । इसलिए उसने जर्मनी के प्रति तुष्टीकरण की नीति अपनायी ताकि आवश्यकता पड़ने पर शक्तिशाली जर्मनी साम्यवादी रूस का मुकाबला कर सके । शूमां के शब्दों में, तुष्टीकरण आरम्भ से ही एक आत्मघाती मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ नहीं थी । ब्रिटेन की आन्तरिक इच्छा यह थी कि जर्मनी को कुछ सुविधाएं प्रदान करके अपने व्यापारिक व आर्थिक हितों को सुरक्षित करे । इसके विपरीत जर्मनी के प्रति फ्रांसीसी दृष्टिकोण ब्रिटिश दृष्टिकोण से एकदम विपरीत था ।
फ्रांस चाहता था कि वर्साय की सन्धि का दृढ़ता के साथ पालन करने के लिए जर्मनी को बाध्य किया जाय । शूमां के शब्दों में, ”वर्साय की सन्धि के पश्चात् फ्रांस ने जर्मनी के प्रति कठोर नीति अपनायी परन्तु ब्रिटेन ने उसके प्रति उदार नीति अपनायी क्योंकि वह उसे पुन: शक्तिशाली बनाना चाहता था जिससे वह सोवियत संघ की विस्तारवादी नीति से पश्चिमी यूरोप की रक्षा कर सके ।”
जब हिटलर ने राष्ट्र संघ को ठुकराकर वर्साय की सन्धि के उपबन्धों की अवहेलना की तब फ्रांस ने इसका विरोध किया लेकिन ब्रिटेन ने किसी प्रकार का सहयोग नहीं किया । इंग्लैण्ड ने जर्मनी को सन्तुष्ट करने के लिए उससे एक सैनिक समझौता किया जिसके अनुसार उसे 20,000 टन के जहाज बनाने, पनडुब्बियां रखने एवं अपनी नौ-सेना की शक्ति बढ़ाने का अधिकार दिया गया ।
इंग्लैण्ड के राजनीतिज्ञों का विश्वास था कि जिस क्रोध के कारण जर्मनी ने निःशस्त्रीकरण सम्मेलन का परित्याग किया था इस समझौते से वह सन्तुष्ट हो जायेगा तथा उसका मित्र बना रहेगा, परन्तु हिटलर ने अपनी नौ-सैनिक तैयारियों से स्पष्ट कर दिया था कि इंग्लैण्ड ने उसकी नौ-सैनिक मांगों को सन्तुष्ट कर कितनी भयानक शुरु की थी ।
इसके पश्चात् हिटलर ने आस्ट्रिया हड़प लिया एवं विसैन्यीकृत राइनलैण्ड क्षेत्र पर सशस्त्र अधिकार कर लिया । इंग्लैण्ड ने राइनलैण्ड के अधिकार पर संतोष प्रकट किया । चेकोस्लोवाकिया के मामले में इंग्लैण्ड तथा फ्रांस तुष्टीकरण की चरम सीमा पर पहुंच गये थे । उन्होंने हिटलर को सन्तुष्ट करने के लिए चेकोस्लोवाकिया का बलिदान सहर्ष स्वीकार किया ।
तुष्टीकरण से हिटलर की महत्वाकांक्षाओं को बढ़ावा मिला । उसे विश्वास हो गया कि यूरोप की शक्तियों में उसके विरुद्ध खड़े होने की क्षमता नहीं है । ‘तुष्टीकरण नीति’ से युद्ध कुछ समय के लिए टल गया, परन्तु उसे रोका नहीं जा सका ।
कैनथ इनग्राम के शब्दों में, ”ब्रिटेन ने चेम्बरलेन के हाथों अपने समूचे इतिहास का सबसे बड़ा अपमान सहन किया । वह इस प्रकार अपमानित हुआ जैसा पहले कभी नहीं हुआ था । म्यूनिख में शान्ति की कीमत और अधिक शर्मनाक नहीं हो सकती थी ।”
Essay # 4. सर्वसत्तावादी शक्ति का उत्कर्ष एवं उनकी महत्वाकांक्षाएं:
पेरिस सम्मेलन के पश्चात् यूरोप की शान्ति के लिए लोकतान्त्रिक संस्थाओं का विकास आवश्यक समझा गया । यूरोप के कुछ देशों में वैधानिक शासन की स्थापना हुई परन्तु लोकतन्त्र की नींव मजबूत नहीं हुई ।
1917 की क्रान्ति के बाद सोवियत संघ में मजदूरों एवं कृषकों का शासन स्थापित हुआ किन्तु यह यूरोपीय लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों पर आधारित नहीं था । इसे ‘जनवादी लोकतन्त्र’ कहा गया जो वास्तव में सर्वहाराओं का अधिनायकवाद था । पेरिस की सन्धि से इटली को बड़ी निराशा हुई थी । इटली मित्र-राष्ट्रों की ओर से लड़ा था परन्तु उसे सन्धियों से कोई लाभ नहीं हुआ ।
आन्तरिक समस्याओं एवं राजनीतिक निराशा के कारण इटलीवासियों में असन्तोष बढ़ा । लोकतान्त्रिक शासन की अकर्मण्यता के कारण जनता उसमें विश्वास खो बैठी । ऐसे समय में मुसोलिनी ने फासी दल की सहायता से सर्वसत्तावादी शासन स्थापित किया ।
वर्साय की सन्धि के बाद जर्मनी में गणतन्त्र की स्थापना हुई परन्तु पराजय से उत्पन्न आर्थिक एवं राजनीतिक समस्याओं को सुलझाने में जनतत्रीय शासन असफल रहा । अत: जर्मन जनता का जनतान्त्रिक समस्याओं एवं प्रणाली में विश्वास नहीं रहा ।
दूसरी ओर हिटलर के नेतृत्व (नाजी दल) ने उन समस्त समस्याओं को सुलझाने का वचन दिया जो गणतन्त्र नहीं सुलझा सका था । 1933 में हिटलर चान्सलर बना एवं उसने जर्मनी में सर्वसत्तावादी राज्य स्थापित किया । इसी प्रकार यूरोप के अन्य देशों में वैधानिक एवं जनतन्त्रीय शासन के स्थान पर सर्वसत्तावादी शासन स्थापित होता गया ।
फ्रांस एवं इंग्लैण्ड के अतिरिक्त सारा यूरोप सर्वसत्तावादियों के अंकुश के नीचे आ गया । वास्तव में 1919-31 तक यूरोप में जनतन्त्र तथा अधिनायकवाद के बीच संघर्ष चला । इसी संघर्ष में अधिनायकवाद की विजय हुई एवं जनतन्त्र हार गया ।
मुसोलिनी ने जनतन्त्र तथा अधिनायकवाद के बीच होने वाले संघर्ष के विषय में कहा था, ”दो दुनिया के बीच होने वाले संघर्ष में समझौता नहीं हो सकता । दोनों में से एक ही जीवित रहेगा ।” सर्वसत्तावादी राज्य अत्यन्त महत्वाकांक्षी थे ।
रूस में अधिनायकवाद की स्थापना के बाद साम्यवादी विश्व-क्रान्ति की योजना बनाने लगे । इटली, अफ्रीका एवं भूमध्यसागर का सम्राट बनना चाहता था । मुसोलिनी प्राचीन रोमन साम्राज्य की पुन: स्थापना के स्वप्न देख रहा था । जर्मनी यूरोप में सर्वशक्तिशाली देश बनना चाहता था । इटली एवं जर्मनी ने धुरी संगठन स्थापित किया ।
कालान्तर में जापान ने इटली के साथ मैत्री संगठन स्थापित किया । जापान एशिया का, इटली अफ्रीका का एवं जर्मनी यूरोप का स्वामी बनना चाहता था । उपर्युक्त महत्वाकांक्षाओं से स्पष्ट था कि पुन: युद्ध की अग्नि भड़क उठेगी । संक्षेप में जनतन्त्र का पतन सर्वसत्तावादियों का उत्कर्ष एवं उनकी असीमित महत्वाकांक्षाओं ने विश्व को पुन: युद्धाग्नि में ढकेल दिया ।
Essay # 5. नि:शस्त्रीकरण की असफलता:
पेरिस सम्मेलन में सभी देशों के प्रतिनिधियों ने निश्चित किया था कि भविष्य में युद्ध की आशंका को दूर करने का सबसे अच्छा उपाय नि:शस्त्रीकरण है । यह प्रस्ताव पराजित देशों पर कठोर रूप से लागू किया गया परन्तु विजयी राष्ट्रों ने नि:शस्त्रीकरण की ओर ध्यान नहीं दिया ।
1932 में राष्ट्र संघ के तत्वावधान में जेनेवा में नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन आरम्भ हुआ । अन्य देशों के अतिरिक्त संयुक्त राज्य अमरीका तथा सोवियत रूस ने इसमें भाग लिया, किन्तु पारस्परिक अविश्वास, धृणा एवं स्वार्थ के कारण निःशस्त्रीकरण के किसी पहलू पर कोई सन्धि न हो सकी ।
1933 में जर्मनी ने नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन एवं राष्ट्र संघ से निकल जाने की घोषणा की क्योंकि अन्य राष्ट्रों ने ‘समता अधिकार’ को स्वीकार करने में बड़ी ढील दिखायी थी । नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन दो वर्ष तक चला परन्तु राष्ट्र संघ का कोई भी देश एक भी सैनिक युद्धपोत अथवा हवाई जहाज कम न कर सका ।
नि:स्त्रीकरण सम्मेलन की असफलता के परिणामस्वरूप पुनर्शस्त्रीकरण आरम्भ हुआ । मार्च 1935 में हिटलर ने खुले तौर पर पुनर्शस्त्रीकरण की घोषणा की । उसने वर्साय सन्धि की शर्तों का खण्डन करते हुए अनिवार्य सैनिक सेवा एवं सैन्य वृद्धि की घोषणा की । इस घोषणा ने यूरोप में घबराहट उत्पन्न की ।
घोषणा के लगभग तीन महीने बाद इंग्लैण्ड तथा जर्मनी के बीच नौ-सेना की शक्ति-वृद्धि के विषय में समझौता हुआ । इस समझौते की कटु आलोचना हुई क्योंकि इंग्लैण्ड ने जर्मनी की सैनिक आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने के लिए वर्साय की सन्धि की शर्तों के खण्डन में स्वयं भाग लिया ।
इंग्लैण्ड की नीति जर्मनी के सन्तुष्टीकरण के लिए थी, परन्तु इससे पुनर्शस्त्रीकरण को प्रचुर बढ़ावा मिला । जर्मनी के पुनर्शस्त्रीकरण से उत्पन्न आतंक का सामना करने के लिए सोवियत रूस तथा फ्रांस ने पारस्परिक रक्षात्मक सन्धि पर हस्ताक्षर किये । फ्रांस ने जर्मनी के विरुद्ध पहले ही रक्षात्मक पंक्ति ‘मैजिनो लाइन’ का निर्माण किया ।
इस प्रकार जर्मनी एवं फ्रांस पुनर्शस्त्रीकरण में जुट गये । पुनर्शस्त्रीकरण के कारण यूरोप तीव्र गति से उस भयंकर विस्फोट की ओर अग्रसर हुआ जिसकी अन्तिम परिणति द्वितीय विश्व-युद्ध में हुई ।
Essay # 6. दो प्रतिद्वन्द्वी सैनिक गुटों का उदय:
जिस प्रकार प्रथम विश्व-युद्ध से पहले समूचा विश्व दो विरोधी सैनिक गुटों में विभाजित हो गया था उसी प्रकार द्वितीय विश्व-युद्ध से पूर्व भी सपूर्ण विश्व दो परस्पर शत्रु सैनिक खेमों में बंट गया । एक तरफ जर्मनी, इटली और जापान जैसे कभी सन्तुष्ट न होने वाले राष्ट्रों की ‘रोम-बर्लिन-टोक्यो धुरी’ थी तो दूसरी तरफ ब्रिटेन फ्रांस सोवियत संघ और अमरीका जैसे मित्र-राष्ट्रों ने मिलकर एक सुदृढ़ सन्धि संगठन स्थापित कर लिया । जब हिटलर के नेतृत्व में जर्मन सेना ने पोलैण्ड पर आक्रमण किया तो ब्रिटेन और फ्रांस ने पोलैण्ड को समर्थन दिया और द्वितीय महायुद्ध भड़क उठा ।
Essay # 7. अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संकट:
सन् 1930 में विश्व में एक महान् आर्थिक संकट आया, जिसका प्रत्येक देश की आर्थिक व्यवस्था पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से बुरा प्रभाव पड़ा । इस आर्थिक संकट के परिणामस्वरूप राष्ट्रों में नि:शस्त्रीकरण की भावना समाप्त हो गयी और वे शस्त्रों की होड़ में लग गये ।
जर्मनी में घोर आर्थिक संकट छा गया, जिसके कारण लगभग 7 लाख व्यक्ति बेकार हो गये । इस आर्थिक संकट ने जर्मनी में नाजीवाद के उत्कर्ष में सहायता प्रदान की । इस आर्थिक संकट का लाभ उठाकर ही जापान ने सन् 1931 में मंचूरिया पर चढ़ाई कर दी और सन् 1935 में अबीसीनिया पर इटली का हमला भी इसी आर्थिक संकट का एक अप्रत्यक्ष परिणाम था ।
Essay # 8. साम्राज्यवादी भावना:
एशिया में जापान अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था । 1930 तक जापान की शक्ति में बहुत वृद्धि हुई और 1931 में उसने मंचूरिया पर चढ़ाई की । जुलाई 1937 में उसने युद्ध की घोषणा किये बिना चीन के साथ युद्ध शुरू कर दिया ।
फ्रांस और इंग्लैण्ड हिटलर के साथ युद्ध में व्यस्त थे अत: जापान ने दक्षिणी-पूर्वी एशिया में इनके विशाल साम्राज्यों को जीतने की योजना बनायी । इसमें अमरीका उसके मार्ग में बड़ा बाधक था अत: 1941 में उसने प्रशान्त महासागर में अमरीका के सबसे बड़े नौ-सैनिक अड्डे पर्लहार्बर पर हमला किया और अमरीकी बेड़े को गहरी क्षति पहुंचाई ।
यूरोप में हिटलर जर्मनी से प्रथम विश्व-युद्ध के बाद छीने गये उपनिवेशों को न केवल वापस लेना चाहता था, अपितु अपने देश में ऐसे अनेक देश सम्मिलित करना चाहता था जिससे जर्मनी का साम्राज्य ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस जैसा हो जाय ।
इस समय जर्मन लोगों को यह बात समझ में नहीं आती थी कि यदि ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस के पास विशाल साम्राज्य है तो उनके पास साम्राज्य क्यों नहीं है ? वे विश्व में अपनी जाति को सबसे बड़ा और दूसरों पर शासन करने वाला समझते थे संसार में अपनी प्रभुता और साम्राज्य का विस्तार करने के लिए कोई भी लड़ाई मोल लेने को तैयार थे ।
Essay # 9. विभित्र अल्पसंख्यक जातियों का असन्तोष:
वर्साय की सन्धि और उसके साथ ही बाद में होने वाली अन्य सन्धियों के द्वारा विभिन्न अल्पसंख्यक जातियां अस्तित्व में आयीं । राष्ट्रपति विल्सन ने शान्ति सन्धियों का आधार ‘राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के सिद्धान्त’ को बनाना चाहा किन्तु सैनिक, धार्मिक एवं अन्य कारणों से इस सिद्धान्त का कठोरतापूर्वक क्रियान्वयन सम्भव नहीं हो पाया ।
अत: कई अल्पसंख्यक जातियां विदेशी शासन के अन्तर्गत रह गयीं जिसके कारण उनमें असन्तोष व भय की भावना उत्पन्न हो गयी । उल्लेखनीय है कि पेरिस की शान्ति-व्यवस्था के बाद भी यूरोप में एक करोड़ सत्तर लाख राष्ट्रीय अल्पसंख्यक जिनमें 75 लाख जर्मन थे अन्य देशों में रह गये ।
इन अल्पसंख्यक जातियों ने यह मांग रखी कि या तो उन्हें अपने देश के साथ मिला दिया जाये अथवा स्वशासन प्रदान किया जाय । हिटलर ने इस असन्तोष का लाभ उठाया । उसने पश्चिमी शक्तियों से सौदेबाजी की और ‘अल्पसंख्यकों पर कुशासन’ के बहाने से आस्ट्रिया तथा सुडेटनलैण्ड प्रदेश पर कब्जा कर लिया और पोलैण्ड पर भी आक्रमण कर दिया जिससे द्वितीय विश्व-युद्ध की शुरुआत हो गयी ।
Essay # 10. पोलैण्ड पर जर्मनी का आक्रमण:
मार्च 1939 में हिटकर ने बोहीमिया तथा मोरेविया पर संरक्षण स्थापित करने की घोषणा की । यह कार्य उसने आत्म-निर्णय के सिद्धान्त पर नहीं और न जिस आधार पर उसने आस्ट्रिया तथा सुडेटनलैण्ड पर अधिकार किया था वरन् प्रवास क्षेत्र (Libensraum) थीं आधार पर किया था ।
इससे स्पष्ट हो गया था कि हिटलर जर्मनी के निकटवर्ती क्षेत्रों पर अधिकार कर एक साम्राज्य का निर्माण करना चाहता है । उसने बोहीमिया तथा मोरेविया पर संरक्षण स्थापित कर यह सिद्ध कर दिया था कि उसने म्यूनिख में चैम्बरलेन को जो वचन दिये थे उसका कोई मूल्य नहीं था । उसकी नीति से स्पष्ट था कि वह यूरोप पर प्रभुता स्थापित करना चाहता था एवं मित्र-राष्ट्रों की तुष्टीकरण नीति से उसे प्रचुर प्रोत्साहन मिल चुका था ।
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इंग्लैण्ड एवं फ्रांस ने हिटलर की बढ़ती हुई मांगों एवं विस्तार नीति का विरोध करने का निश्चय किया । 31 मार्च, 1939 को इंग्लैण्ड तथा फ्रांस ने घोषणा की कि यदि जर्मनी ने आक्रमण द्वारा पोलैण्ड की स्वतन्त्रता नष्ट करने की चेष्टा की तो वे उसकी रक्षा करेंगे । इस घोषणा के पांच दिन बाद पोलैण्ड, फ्रांस तथा इंगलैण्ड के बीच एक सन्धि हुई ।
इस सन्धि के पश्चात् इंग्लैण्ड ने अन्य देशों से परस्पर सुरक्षा सन्धियां कीं । 1939 की अप्रैल में हिटलर ने जर्मन-पोलैण्ड सन्धि को रह करते हुए घोषणा की कि डेन्जिंग जर्मनी को लौटाया जाये एवं उसे पोलिश गलियारे में होकर सड़क और रेल लाइन निकालने का अधिकार दिया जाये । पोलैण्ड ने जर्मन मांगों को अस्वीकार कर दिया । हिटलर पोलैण्ड के उत्तर से सन्तुष्ट नहीं था, परन्तु उसने उस समय उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की ।
हिटलर ने कूटनीतिक तैयारियों के पश्चात् पोलैण्ड से मांग की कि वह डेन्जिंग तथा गलियारे की समस्या शीघ्रातिशीघ्र सुलझाये । इंग्लैण्ड तथा फ्रांस ने दोनों समस्याओं को सुलझाने के लिए समझौते एवं शान्ति से काम करने का सुझाव दिया । हिटलर ने इंग्लैण्ड का सुझाव स्वीकार किया ।
दोनों देशों के राजदूतों के बीच बातचीत के लिए समय एवं स्थान निश्चित किया गया । जर्मनी ने इंग्लैण्ड को सूचित किया कि उसने दो दिन तक पोलैण्ड के राजदूत के लिए इन्तजार किया, परन्तु वह नहीं आया अतएव पोलैण्ड ने उसके प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया है ।
इससे पूर्व कि दोनों के बीच समझौते की बातचीत पुन: आरम्भ हो जर्मनी के हवाई जहाजों ने 1 सितम्बर, 1939 को पोलैण्ड के नगरों पर बमबारी की । इंग्लैण्ड तथा फ्रांस ने हिटलर को अन्तिम चेतावनी दी और जर्मनी से कोई उत्तर न मिलने पर दो दिन बाद 3 सितम्बर, 1939 को दोनों देशों ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की । इस घोषणा के साथ द्वितीय विश्व-युद्ध आरम्भ हुआ ।