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Here is an essay on the ‘Changing World Scenario’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Changing World Scenario’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on the Changing World Scenario
Essay Contents:
- भूमण्डलीकरण (Globalisation)
- उदारीकरण (Liberalisation)
- बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था (Market Economy)
- सूचना प्रौद्योगिकी (Information Technology)
- एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था (Uni-Polar World System)
- एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था (Multi-Polar World System)
- सांस्कृतिक पहचान के आधार पर विश्व व्यवस्था की पुनर्रचना (Global Politics Reconfigured along Cultural Lines)
- विश्व व्यापार संगठन की उदीयमान भूमिका (Emerging Role of the World Trade Organisation)
- नई विश्व व्यवस्था: नए मुद्दे (New World Order: New Issues)
- आर्थिक कारकों की निर्धारक भूमिका (Economic Factors as Key Determinants)
- आर्थिक राजनय का बढ़ता महत्व (Increasing Importance of Economic Diplomacy)
- संयुक्त राष्ट्र की अनदेखी (The Hidden Side of United Nations)
Essay # 1. भूमण्डलीकरण (Globalisation):
भूमण्डलीकरण अथवा वैश्वीकरण एकरूपता एवं समरूपता की वह प्रक्रिया है जिसमें सम्पूर्ण विश्व सिमट कर एक हो जाता है । एक देश की सीमा से बाहर अन्य देशों में वस्तुओं एवं सेवाओं का लेन-देन करने वाले अन्तर्राष्ट्रीय निगमों अथवा बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ देश के उद्योगों की सम्बद्धता भूमण्डलीकरण है ।
भूमण्डलीकरण राष्ट्रों की राजनीतिक सीमाओं के आर-पार आर्थिक लेन-देन की प्रक्रियाओं और उनके प्रबन्धन का प्रवाह है । भूमण्डलीकरण की यह प्रक्रिया अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक लेन-देन पर लगी रोक के हटने से शुरू हुई व्यापार के क्षेत्र में खुलापन आया और विदेशी निवेश के प्रति उदारता बड़ी ।
अब राष्ट्रों के बीच भौगोलिक दूरी बेमानी हो चुकी है । दुनिया काफी छोटी हो चुकी है और कोई भी देश अपना नुकसान करके ही शेष विश्व से खुद को अलग-थलग रख सकता है । राष्ट्रीय सम्प्रभुताएं एक तरह से सीमाविहीन होने लगी हैं विभिन्न देशों की सीमाओं का अब सिर्फ भौगोलिक महत्व रह गया है । ऐसा लगता है कि मानो आज हम भूमण्डलीय गांव (Global Village) में रह रहे हैं ।
Essay # 2. उदारीकरण (Liberalisation):
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आज भूमण्डलीकरण के साथ-साथ विश्व के सभी भागों में कहीं तेज कहीं मन्द रफ्तार से आर्थिक उदारीकरण की लहर चल रही है । आर्थिक उदारीकरण की यह लहर वर्ष 1980-81 से विश्व की प्रमुख मानी जाने वाली समाजवादी अर्थव्यवस्थाओं के भ्रमजाल के टूटने के फलस्वरूप प्रारम्भ हुई और सोवियत रूस सहित पूर्वी यूरोप एवं चीन जैसे साम्यवादी देश में आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया तेजी से फूलती गई ।
उदारीकरण का अर्थ व्यापार हेतु कानूनी प्रतिबन्धों में ढील देते हुए आयात व निर्यात को आसान बनाने से होता है । उदारीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें देश के शासन तन्त्र द्वारा अपनाए जा रहे लाइसेन्स, नियन्त्रण, कोटा, प्रशुल्क आदि प्रशासकीय अवरोधों को कम किया जाता है ताकि देश को आर्थिक विकास के मार्ग पर ले जाया जा सके ।
उदारीकरण के प्रमुख आयाम हैं:
(a) औद्योगिक लाइसेन्सिंग प्रणाली का अन्त करना;
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(b) आयात पर लगाए गए बाह्य प्रतिबन्धों को हटाना;
(c) आयातों पर ड्यूटी में कमी लाना;
(d) वित्तीय व्यवस्था में सुधार लाना; विदेशी निवेश पर लगे प्रतिबन्धों में ढील देना;
(e) सार्वजनिक क्षेत्र के लिए रेखांकित क्षेत्रों को निजी क्षेत्र के लिए खोलना और अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को प्रतिस्पर्द्धी बनाना ।
1991 के बाद लागू किए गए आर्थिक सुधार धीरे-धीरे एक नए दृष्टिकोण तथा विचारधारा के अंग बन गए जिसमें नियन्त्रणों एवं नियमनों के स्थान पर बाजारीकरण, निजीकरण व भूमण्डलीकरण पर बल दिया गया और लाइसेन्स, परमिट, नौकरशाही सब्सिडी आदि को जारी रखने के बजाय इनको यथासम्भव कम करने पर जोर दिया जाने लगा ।
कुल मिलाकर नए आर्थिक सुधारों को बाजार-मैत्रीपूर्ण (Market-Friendly) कहा जा सकता है । इसमें प्रमुख आर्थिक निर्णय उद्यमकर्ताओं व बाजार पर छोड़े जाते हैं । आर्थिक जीवन में राज्य एवं सरकार की भूमिका पुन: परिभाषित करनी होती है, यथासम्भव सीमित किया जाता है ।
अर्थव्यवस्था में खुलापन लाया जाता है देश में विदेशी निजी कम्पनियों का विनियोग बढ़ाया जाता है और देशी कम्पनियां विदेशी बाजारों से अधिक मात्रा में कर्ज ले सकती हैं । अन्तर्राष्ट्रीय अनुभव से पता चलता है कि, उदारीकरण और बाजार मैत्रीपूर्ण अर्थव्यवस्था के इस दौर में निजीकरण करना और संविदा पर निजी क्षेत्र को कार्य सौंपना बहुत ही उत्पादक और लाभदायक माना गया है क्योंकि इससे एक नागरिक के जीवन में राज्य एवं सरकार का दखल कम हो जाता है । रुग्ण सार्वजनिक उद्यमों को सहारा देने के व्यर्थ प्रयासों में सार्वजनिक धन की कम बर्बादी होती है ग्राहकों को कम लागत पर बेहतर सुविधाएं और धन का बेहतर मूल्य मिलता है ।
Essay # 3. बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था (Market Economy):
मुक्त अर्थव्यवस्था ने अपनी क्षमता को पिछली दो शताब्दियों से सिद्ध किया हुआ है । अतीत और वर्तमान में अनेक प्रतिस्पर्द्धात्मक प्रणालियां पूंजीवाद की इस प्रणाली को समाप्त कर इसकी जगह लेने आती रही, किन्तु कोई भी प्रणाली इतनी उत्पादनशील सिद्ध नहीं हुई जितना कि मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था का सिद्धान्त और उसकी कार्यप्रणाली रही ।
सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों ने पूंजीवाद के विरुद्ध एक बेहतर आर्थिक तन्त्र के आधार पर साम्यवादी व्यवस्था के निर्माण का प्रयास किया किन्तु उनका प्रयत्न अत्यन्त निराशाजनक रूप में असफल रहा । 1989-91 के वर्षों में अनेक देशों का साम्यवादी तन्त्र ताश के महल की भांति धराशायी हो गया ।
सोवियत संघ से अलग हुए गणराज्यों तथा पूर्वी यूरोप के देशों ने लोकतन्त्र और मुक्त अर्थव्यवस्था की ओर अपने कदम बढ़ाने का निर्णय लिया । आज त्वरित आर्थिक विकास के लिए दुनिया के अधिकांश देशों ने पूंजीवादी मॉडल या बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था का सिद्धान्त अपना लिया है ।
बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था की विशेषताएं हैं:
मुक्त व्यापार, खुली प्रतियोगिता, स्वतन्त्र समझौते, बाजार तथा उपभोक्तावाद, आर्थिक क्षेत्र में राज्य का कम-से-कम नियन्त्रण और आदेशित अर्थव्यवस्था के स्थान पर निजीकरण का बढ़ता महत्व ।
Essay # 4. सूचना प्रौद्योगिकी (Information Technology):
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हाल ही के वर्षों में युगान्तरकारी परिवर्तन आए हैं । विश्व में सूचना और प्रौद्योगिकी क्रान्ति आ चुकी है । सूचना युग आ गया है । सूचना के क्षेत्र में इस नई क्रान्ति का सूत्रपात 19वीं शताब्दी में टेलिग्राफ के आविष्कार के साथ ही हो गया था ।
बाद में रेडियो, ट्रांजिस्टर, टेलिफोन, सेल्यूलर फोन, कम्प्यूटर, दूरसंचार उपग्रह, टेलीविजन इन्टरनेट, वीडियोफोन, प्रिन्टर, मल्टीमीडिया, इत्यादि ने इस प्रौद्योगिकी को वर्तमान क्रान्तिकारी स्वरूप प्रदान किया । इन सब में कम्प्यूटर की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । आज समूचे विश्व में औद्योगिक रूप से विकसित समाज ऐसे सूचना समाज में परिवर्तित होता जा रहा है जो कम्प्यूटर के बिना एक सेकण्ड भी जीवित नहीं रह सकता ।
सूचना युग ने दूरसंचार उपग्रह और कम्प्यूटर विज्ञान के क्षेत्र में बेमिसाल प्रगति की है । आज एक छोटे से कम्प्यूटर का पुश बटन दबाकर विश्व के किसी भी कोने से सम्पर्क कायम किया जा सकता है । एक छोटे से मोबाइल फोन से आप न केवल सन्देश बल्कि चाहें तो अपने अतिगोपनीय दस्तावेज की फोटो कॉपी इच्छित व्यक्ति तक पहुंचा सकते हैं ।
इन प्रौद्योगिकियों ने सूचना हाईवेज और सूचना सुपर हाईवेज को जन्म दिया है । इन्टरनेट भी एक ऐसा ही सुपर हाईवेज है । इस प्रकार सूचनाओं का प्रसार एक गांव से दूसरे गांव एक जगह से दूसरी जगह तक होते-होते धीरे-धीरे अब सम्पूर्ण विश्व तक होने लग गया है ।
आज भूमण्डल का प्रत्येक व्यक्ति सूचना के बड़े मार्गों (Super Highways) से जुड़ गया है । इन महामार्गों पर सूचना और आकड़ों के यातायात ने विश्व को एक सूत्र में बांध दिया है । सूचना क्रान्ति ने वाणिज्य उद्योग प्रशासन अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध राजनय आदि की कार्य प्रणाली और भूमिका में बदलाव लाकर सम्पूर्ण विश्व को एक-दूसरे के इतना नजदीक रूप से प्रस्तुत कर दिया है कि ‘भूमण्डलीय गांव’ की अवधारणा साकार रूप ले चुकी है ।
आज जिस विश्व में हम पहुंच गए हैं वह सूचना समाज के नाम से जाना जाता है । आज की इस ”नई विश्व व्यवस्था” में सूचना ही शक्ति है सूचना पर जिसका नियन्त्रण है वही शक्तिशाली है । आज विश्व में सूचना और समाचारों का वितरण सम्पन्न देशों की बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथ में है । चार पश्चिमी समाचार एजेन्सियां ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर 90 प्रतिशत समाचारों के प्रवाह पर नियन्त्रण रखती हैं ।
सूचना और समाचारों पर नियन्त्रण का मतलब विचारों और सोच की प्रक्रिया को भी नियन्त्रित करना है । इन्टरनेट ने विश्व को डिजिटल धनी एवं डिजिटल निर्धन के रूप में बाट दिया है । वे ही देश वे ही समाज वे ही व्यक्ति 21वीं शताब्दी की नई विश्व व्यवस्था में प्रतिस्पर्द्धा कर पाएंगे जो डिजिटल धनी होंगे ।
सूचना क्रान्ति के फलस्वरूप विकसित देश विश्व में एक ऐसी सूचना और संचार व्यवस्था कायम करने में सफल रहे हैं जो विकासशील देशों की आवश्यकता के प्रतिरूप ही नहीं है बल्कि जिसने एक तरफा मुक्त प्रवाह को और भी तेज कर दिया है और आर्थिक उपनिवेशवाद के साथ-साथ सूचना और सांस्कृतिक उपनिवेशवाद को भी जन्म दिया है ।
ऐसा कहा जाता है कि आज की सूचना प्रौद्योगिकी की क्षमता इतनी घातक है कि यह संस्कृतियों के बीच कमजोर संस्कृतियों के लिए खतरा पैदा कर रही है; लोगों की प्राथमिकताओं को तोड़-मरोड़ रही है ताकि वे मुक्त बाजार की आवश्यकता के अनुसार अपने को ढाल सकें । इस पूरी प्रक्रिया में मजबूत संस्कृतियां अपने मूल्यों और जीवन शैली को कमजोर संस्कृतियों पर थोप रही हैं ।
Essay # 5. एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था (Uni-Polar World System):
हण्टिंग्टन ने तो यहां तक कहा कि- “इतिहास में पहली बार शीतयुद्धोत्तर काल में विश्व राजनीति बहुध्रुवीय और बहुसभ्यतावादी परिलक्षित होती है ।” तथापि 1990-91 के बाद के दो दशकों में विश्व राजनीति का प्रवाह एकध्रुवीयता की ओर उन्मुख हो गया जिसके केन्द्र में संयुक्त राज्य अमरीका का वर्चस्व शक्ति प्रभाव एवं दादागिरी रही ।
इस अवधि में जहां यूरोप आर्थिक पुनर्संरचना और क्षेत्रीय आर्थिक संगठनों में व्यस्त रहा वहीं इसके विपरीत अमरीका ने सैनिक मामलों में नवाचार एवं श्रेष्ठता को अपना उद्देश्य बनाया । वर्ष 1995-2000 के मध्य अमरीका ने सेना पर 1,691 अरब अमरीकी डॉलर खर्च किए जबकि ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी, रूस, चीन और जापान का संयुक्त सैनिक खर्च 1,225 अरब डॉलर था, जो अमरीकी खर्च से लगभग 440 अरब डॉलर कम था ।
सियरी (स्टाकहोम इण्टरनेशनल पीस रिसर्च इन्स्टीट्यूट) के अनुसार वर्ष 2000 के बाद तो अमरीका का सैनिक खर्च आकाश भेदने लगा । प्रसिद्ध इतिहासविद् पॉल कैनेडी ने लिखा है कि प्रतिवर्ष अमरीका का सैनिक व्यय विश्व के बाकी नौ सबसे ज्यादा सैनिक व्यय करने वाले देशों के कुल खर्च से भी ज्यादा होता है ।
अमरीका की यह अविश्वसनीय सैनिक क्षमता बेहद अहम आर्थिक क्षमता के साथ जुड़ी हुई है । विश्व को जो चीजें चाहिए वह अमरीका देता है और दूसरे देशों के उत्पादों के लिए ऐसा बाजार प्रस्तुत करता है जिसका कोई सानी नहीं है । अमरीका उच्च तकनीक के क्षेत्र में सबसे आगे है जिसका एक आयाम सूचना क्रान्ति है ।
फ्रान्स के पूर्व विदेश मन्त्री ह्यूबर्ट वेड्राइन के शब्दों में- “अमरीका की श्रेष्ठता अब अर्थव्यवस्था मुद्रा सैनिक मामले जीवन शैली, भाषा और जनसंस्कृति के उन उत्पादों तक फैली हुई है जो विश्व भर में छाए हुए हैं विचारों का सृजन करते हैं और जो अमरीका के विरोधियों तक को मुग्ध कर देते हैं ।”
विगत दो दशकों में संयुक्त राज्य अमरीका विश्व की एकमात्र आर्थिक और सैनिक शक्ति के रूप में उभरा । वह विश्व का एक मात्र पुलिसमैन बन गया, उसका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं रहा उसे चुनौती देने वाला कोई नहीं था ।
वह राष्ट्रों पर दबाव डालकर उन्हें अपनी नीतियां बदलने के लिए मजबूर करने लगा । संयुक्त राष्ट्र संघ ही नहीं, अपितु अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक जैसी वित्तीय संस्थाएं भी उसकी मुट्ठी में आ गयीं । अमरीका ने अफगानिस्तान में तालिबान पर हमला (अक्टूबर 2001) किया, इराक के खिलाफ युद्ध (मार्च, 2003) को चरम सीमा पर ले जाया गया जहां नरसंहार का कोई हथियार नहीं मिला ।
इससे पूर्व 30 जनवरी, 2002 को अमरीकी कांग्रेस के एक संयुक्त अधिवेशन में आतंकवाद पर चर्चा करते हुए राष्ट्रपति बुश ने ईरान, इराक व उत्तरी कोरिया को ‘शैतानियत की धुरी’ बताते हुए चेतावनी के स्वर में कहा कि आतंकवाद के विरुद्ध अमरीकी अभियान का अगला निशाना ये तीनों देश हो सकते हैं ।
अफगानिस्तान युद्ध के बूते पहले ही मध्य एशिया में अमेरिका की मौजूदगी और पश्चिमी एशियाई देशों पर उसकी पकड़ बढ़ चुकी थी और इराक युद्ध इस पकडू को और मजबूत करने के लिए था । तेल अमरीकी वैदेशिक नीति का एक बेहद महत्वपूर्ण लक्ष्य है तथापि अमरीकी नीति तेल से कहीं आगे जाती है और यह विश्व व्यवस्था पर प्रभुत्व स्थापित करने की दिशा में है ।
आज करीब-करीब पूरी दुनिया अमरीकी सैनिक अड्डों से भिदी पड़ी है । जहां तक एशिया का सम्बन्ध है इस समय अमरीकियों की सैन्य उपस्थिति अफगानिस्तान, पाकिस्तान, फिलीपीन्स, जापान, दक्षिण कोरिया, मध्य एशिया, सउदी अरब, कुवैत ओमान और कतर में है, इन अड्डों में कुल मिलाकर से अधिक अमरीकी सैनिक मौजूद हैं ।
पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह लिखते हैं:
”सोवियत संघ सहित वारसा सन्धि के देशों के पतन तथा कुवैत-इराक युद्ध में कुवैत की ओर से निर्णायक भूमिका निभाने के बाद अमेरिका ने उस विश्व संरचना को पूरी तरह से बदल डाला है । अमेरिका न केवल अपने को विश्व का एकमात्र सूबेदार मान रहा है बल्कि सचमुच एक सूबेदार के रूप में उभरा भी है ।”
आज अमेरिका चाहता है कि प्रत्येक देश उसके समक्ष नतमस्तक हो । इस मानसिकता का सर्वप्रथम नजारा देखा गया इराक में, जब कुवैत के मसले पर उसने इराक के खिलाफ द्वितीय महायुद्ध से भी बड़े स्तर का अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध छेड़ दिया ।
उसके बाद हैती, रवांडा बोस्निया कोसोवो और अफगानिस्तान में हम अमेरिकी ताकत आजमाइश देख चुके हैं । जब भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किए तो अमेरिका ने भारत पर अनेक आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिए थे ।
Essay # 6. एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था (Multi-Polar World System):
पिछले कुछ वर्षों से ऐसे संकेत हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक-दूसरे ही मार्ग पर चल पड़ी है और 21वीं सदी का दूसरा दशक (2010-2019) विश्व राजनीति की एक अलग ही तस्वीर प्रस्तुत करने जा रहा है । अब संयुक्त राज्य अमरीका के वर्चस्ववाद के विरुद्ध स्वर तेज व मुखर होने लगे हैं-एकध्रुवीय विश्व अवधारणा को प्रतिस्थापित करने के लिए बहुध्रुवीय विश्व की अवधारणा जोर पकड़ने-लगी है ।
अमरीकी वर्चस्व को चुनौती देने का कार्य उसके पुराने प्रतिद्वन्द्वी रूस के द्वारा ही प्रारम्भ किया गया है । पुतिन के नेतृत्व में एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में रूस का पुनरोदय हुआ है पुनर्जीवित शक्तिशाली रूस बहुध्रुवीय विश्व की स्थापना के अभियान में सक्रिय है ।
रूस की पहल पर वर्ष 2002 में न्यूयार्क में रूस, चीन तथा भारत के विदेश मन्त्रियों की पहली बैठक हुई और 2005 में व्हाडीवोस्टक में तीनों देशों के विदेश मन्त्री अलग से मिले तथा 2006 में तीनों राष्ट्रों के शीर्ष नेतृत्व का शिखर सम्मेलन सेन्ट पीर्ट्सबर्ग में हुआ ।
इसी दौर में बहुध्रुवीयता को बढ़ाने तथा अमरीकी वर्चस्ववाद पर विराम लगाने के लिए रूस ने शंघाई सहयोग संगठन एवं कैस्पियन सागरीय राष्ट्रों का मंच भी स्थापित कर लिया । बहुध्रुवीयता दिशा में सबसे कारगर कदम 16 मई, 2008 को येकटरिनबुर्ग में उठाया गया क्योंकि उस दिन रूस के इस शहर में रूस चीन तथा भारत के साथ ब्राजील भी बैठक में सम्मिलित हुआ और इस तरह एक चतुर्गण मित्रता की नींव पड़ी ।
बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की दिशा में चतुर्गण मित्रता एक ऐतिहासिक सीमा चिह्न सिद्ध हो सकती है क्योंकि विश्व की जनसंख्या का 40 प्रतिशत इन चार देशों में ही निवास करता है तथा वर्ष 2020 तक इनके सकल घरेलू उत्पाद का योग विश्व के सर्वाधिक विकसित समूह-8 के सकल घरेलू उत्पाद से अधिक हो जाना तय है ।
21वीं शताब्दी के पहले दशक ने तथाकथित एकध्रुवीय शिखर को हिलाकर रख दिया । अमरीका के रियल एस्टेट गुब्बारे के फूटने और उसके फलस्वरूप सामने आई दोषपूर्ण जोखिम भरी व्यवस्था तथा विचारहीन निवेश ने जिसने इस गुब्बारे को और उससे पहले के सात वर्षों में बाकी दुनिया की अर्थव्यवस्था को इतना फुला दिया समग्र तौर पर एक ऐसी मन्दी ला दी जो ‘महामन्दी’ के बाद की किसी भी दूसरी ऐसी घटना से ज्यादा गम्भीर थी ।
आर्थिक मन्दी के इस दौर में भारत और चीन की अर्थव्यवस्थाओं ने तमाम आशंकाओं को झुठलाते हुए विकास की तेज गति कायम रखी । जब विश्व में तमाम सुदृढ़ आर्थिक व्यवस्था वाले देश अपनी विकास की दर को बनाए रखने के लिए संघर्ष करते दिखे वहीं भारत और चीन की अर्थव्यवस्था की विकास दर क्रमश: 7 और 9 से ज्यादा बनी रही ।
अत: आने वाले दशक में भारत और चीन उदीयमान शक्तियां हैं । सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत और चीन के दबदबे को अब विशेषज्ञ ही नहीं बल्कि आम अमरीकी भी मान रहे हैं । एक सर्वे में यह बात साफ उभरकर आई है कि विश्व का अगला बिल गेट्स भारत या चीन से होगा । आज अपनी मजबूत आर्थिक ओर सैन्य छवि के बावजूद अमरीका एक कर्जदार राष्ट्र है और भारत एवं चीन की ओर देख रहा है ।
संक्षेप में 21वीं शताब्दी का दूसरा दशक विश्व व्यवस्था के अनुक्रम में बदलाव का संकेत देता है एक ध्रुवीयता को दरकिनार कर बहुध्रुवीयता के वरण का शंखनाद करता है विश्व अर्थव्यवस्था में अमरीका के लम्बे एकाधिकार को चुनौती देते हुए चीन, भारत और ब्राजील जैसे तीसरी दुनिया के राष्ट्रों की महाशक्ति की दावेदारी प्रस्तुत करता है ।
एशिया के दो दिग्गज देशों की बढ़ती आर्थिक और राजनीतिक ताकत का अन्दाजा अन्तर्राष्ट्रीय बैठकों में उनकी मौजूदगी से स्पष्ट होता है इससे अन्तर्राष्ट्रीय सत्ता के पारम्परिक समीकरण बदल रहे हैं और यह विश्व इतिहास में एक निर्णायक मोड़ साबित हो सकता है ।
पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह लिखते हैं:
”सोवियत संघ सहित वारसा सन्धि के देशों के पतन तथा कुवैत-इराक युद्ध में कुवैत की ओर से निर्णायक भूमिका निभाने के बाद अमेरिका ने उस विश्व संरचना को पूरी तरह से बदल डाला है । अमेरिका न केवल अपने को विश्व का एकमात्र सूबेदार मान रहा है बल्कि सचमुच एक सूबेदार के रूप में उभरा भी है ।”
आज अमेरिका चाहता है कि प्रत्येक देश उसके समक्ष नतमस्तक हो । इस मानसिकता का सर्वप्रथम नजारा देखा गया इराक में, जब कुवैत के मसले पर उसने इराक के खिलाफ द्वितीय महायुद्ध से भी बड़े स्तर का अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध छेड़ दिया ।
उसके बाद हैती, रवांडा बोस्निया, कोसोवो और अफगानिस्तान में हम अमेरिकी ताकत आजमाइश देख चुके हैं । जब भारत ने पोकरण में परमाणु परीक्षण किए तो अमेरिका ने भारत पर अनेक आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिए थे ।
डॉ. हेनरी किसिंजर के अभिमत में- “विश्व बहुध्रुवीय है न कि एकध्रुवीय” (The World is Polycentric, not Unipolar) । किसिंजर के शब्दों में- ”21वीं शताब्दी की अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में कम-से-कम छ: प्रमुख शक्तियां हैं: संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप, चीन, जापान, रूस और सम्भवतया भारत…..।”
किसिंजर की छ: प्रमुख शक्तियां पांच भिन्नता वाली सभ्यताओं से जुड़ी हुई हैं और इनके अतिरिक्त महत्वपूर्ण इस्लामिक राज्य हैं जिनका महत्व सामरिक स्थिति विशाल जनसंख्या या तेल हथियार के कारण प्रभावी है ।
विश्लेषकों के अनुसार सोवियत संघ के धराशायी होने में अमेरिका को अपनी विजय दिखाई देती थी । भूमण्डलीकरण के माध्यम से शायद अमेरिका राष्ट्र-राज्य की दीवारों से मुक्त विश्व का नायक बनने के सपने देख रहा था लेकिन एक ही दशक में एकध्रुवीय विश्व बहुध्रुवीय बनता जा रहा है ।
यूरोपीय समुदाय आजकल अमेरिकी ध्रुव का वैसा साथी नहीं रहा है जैसा किसी जमाने में हुआ करता था । यूरो मुद्रा ने अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा बाजार में डॉलर को चुनौती दे दी है । एशिया में चीन का उदय भी अमेरिका के एकध्रुवीय विश्व के स्वप्न को ध्वस्त करता है । सोवियत संघ के विघटन के बावजूद रूस एक बड़ी ताकत के रूप में, वह भी क्रमश: अपनी स्वतन्त्र कूटनीति से, आगे बढ़ रहा है…।
अमरीकी अर्थव्यवस्था की गड़बड़ाती स्थिति इस समय चिन्ता का विषय बन रही है । डॉलर का मूल्य गिरता जा रहा है । अभी तक डॉलर सुदृढ़ था और दूसरे देश डॉलर खरीदने को उत्सुक थे । अमरीका भारी मात्रा में दूसरे देशों से ऋण ले रहा था और उस रकम से उन्हीं देशों से माल खरीद कर खपत कर रहा था । वर्तमान में चीन जैसे देशों की अर्थव्यवस्था इन निर्यातों पर आश्रित है । समस्या यह है कि अमरीका ऋण से दबता जा रहा है ।
दूसरे देशों को भरोसा नहीं रह गया है कि उनके द्वारा खरीदे गए डॉलर टिकाऊ होंगे । उन्हें भय हो रहा है कि जिस प्रकार नब्बे के दशक में पूर्वी एशिया के देशों की मुद्राओं का भारी अवमूल्यन हो गया था उसी प्रकार कहीं डॉलर का न हो जाए । इसलिए उनकी डॉलर खरीदने के प्रति रुचि कम हो रही है ।
अमरीकी अर्थव्यवस्था के टूटने से अमरीका का वैश्विक प्रभुत्व टूट जाएगा । इसलिए भ्रम फैलाया जा रहा है कि अमरीकी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाए रखना पूरे विश्व के लिए जरूरी है । वास्तव में अमरीकी अर्थव्यवस्था के टूटने से हम एकध्रुवीय विश्व के स्थान पर बहुयुवीय विश्व बना सकेंगे ।
17 जुलाई, 2006 को समूह आठ के सेंटपिट्सबर्ग शिखर सम्मेलन के तुरंत बाद पुतिन (रूस), मनमोहन (भारत) और जिंताओ (चीन) की बैठक हुई । शिखर बैठक के पूर्व तीनों देशों के विदेश सचिवों की बैठक हुई, एजेंडा तैयार हुआ और आपसी सहयोग के कार्यक्रमों को अंतिम रूप दिया गया ।
बहुध्रुवीय विश्व का विकास तीनों की चिंता रही । भारत-रूस-चीन का त्रिकोण रूसी प्रधानमंत्री प्रेमाकोव के दिमाग की उपज है । 1999 में उन्होंने इस त्रिकोण की बात उठायी थी । शंघाई सहयोग परिषद और आसियान में तीनों देशों के नेता मिलते रहे । समूह आठ ने भी उन्हें मिलने का अवसर दिया क्योंकि 1997 से रूस समूह आठ में शामिल हुआ, जबकि 2003 से भारत को भी विशेष आमंत्रित देश के रूप में बुलाया जाता रहा है । तीनों देशों के विदेश मंत्री 2 जून, 2005 को साइबेरिया के शहर व्लाडीवोस्टक में मिले और त्रिकोण के निर्माण की पहल हुई ।
सेमुअल पी. हन्टिंग्टन अपनी प्रसिद्ध कृति “दि क्लेश ऑफ सिविलाइजेशन्स एण्ड दि रिमेकिंग ऑफ बर्त्न ऑर्डर” (The Clash of Civilization and the Remaking of World Order) में लिखते हैं:
“इतिहास में पहली बार शीतयुद्धोतर काल में विश्व राजनीति बहुध्रुवीय और बहुल सभ्यतावादी परिलक्षित होती है ।” (In the post-Cold War World, for the First Time in History, Global Politics has become Multipolar and Multicivilizational.)
Essay # 7. सांस्कृतिक पहचान के आधार पर विश्व व्यवस्था की पुनर्रचना (Global Politics Reconfigured along Cultural Lines):
हन्टिंग्टन के अनुसार, शीतयुद्धोतर विश्व में राजनीतिक और आर्थिक विचारधारा लोगों को विभाजित नहीं करती । राष्ट्र राज्यों के आचरण को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले तत्व सांस्कृतिक हैं । विश्व व्यवस्था में भाग लेने वाले सक्रिय कर्ता विश्व की प्रमुख सात-आठ प्रमुख सभ्यताओं से नि:सृत हैं ।
इस नए विश्व में स्थानीय राजनीति नस्लवाद और जातीय संघर्षों की राजनीति है और विश्व राजनीति सभ्यताओं की राजनीति है । महाशक्तियों की पूर्व प्रतिस्पर्द्धा सभ्यताओं के टकराव का रूप लेती जा रही है । अन्तर्राष्ट्रीय कार्य सूची के प्रमुख मुद्दे सभ्यताओं के संघर्ष से जुड़े हैं । पश्चिमी और ईसाई सभ्यता का ह्रास हो रहा है और गैर-पश्चिमी और इस्लामिक सभ्यता का पुनरुत्थान हो रहा है ।
उदीयमान नई विश्व व्यवस्था में सभ्यताओं का संघर्ष विश्व शान्ति के लिए सबसे बड़ी चुनौती और सबसे बड़ा खतरा है । संक्षेप में, हटिंगटन के अनुसार- ”सभ्यताओं पर आधारित विश्व व्यवस्था का उदय हो रहा है” (A Civilization-based World Order is Emerging) ।
Essay # 8. विश्व व्यापार संगठन की उदीयमान भूमिका (Emerging Role of the World Trade Organisation):
विश्व व्यापार को नियमित करने के उद्देश्य से ‘विश्व व्यापार संगठन’ (WTO) की स्थापना 1 जनवरी, 1995 को की गई । पहले यह कार्य ‘गैट’ (GATT) द्वारा सम्पन्न किया जाता था किन्तु ‘गैट’ की तुलना में अधिक शक्ति सम्पन्न प्रभावी संगठन के रूप में विश्व व्यापार संगठन की स्थापना की गई है ।
विश्व व्यापार संगठन विभिन्न परिषदों और समितियों के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार सम्बन्धों से जुड़े उन 28 समझौतों को लागू करता है जिन्हें उरुग्वे दौर की वार्ता में शामिल किया गया और 1994 में मोरक्को में मर्राकेश में पारित किया गया था ।
साथ ही यह संगठन अनेक बहुपक्षीय समझौतों को भी लागू करता है जो मुख्यतया असैनिक विमानों की खरीद के बारे में हैं । यह संगठन ‘गैट’ से भी व्यापक है और यह बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली के लिए संस्थागत तथा कानूनी आधार उपलब्ध कराता है ।
विश्व व्यापार संगठन के आविर्भाव ने विश्व आर्थिक व्यवस्था को पहली बार एक औपचारिक सुसंगठित कानूनी सुरक्षा प्रदान की है । विश्व व्यापार संगठन के रूप में सदस्य देशों को ऐसा सामूहिक संस्थागत मंच प्राप्त हो गया है जो कि एक एकीकृत अधिक व्यवहार्य एवं स्थायी व मजबूत बहुपक्षीय प्रणाली विकसित करने के लिए सदस्य देशों के बीच पारस्परिक व्यापारिक सम्बन्धों को बढ़ाने में सहायक होगा ।
बहुपक्षीय व्यापार समझौता एवं तत्सम्बन्धित कानूनी उपकरण ‘विश्व व्यापार संगठन’ का अभिन्न अंग है और इसका प्रत्येक सदस्य देश इन्हें मानने के लिए बाध्य है अर्थात् विश्व व्यापार संगठन के पास वे सभी शक्तियां हैं जिनके द्वारा वह सदस्य देशों को बहुपक्षीय समझौतों का पालन करने के लिए बाध्य कर सकता है ।
नई विश्व व्यवस्था में विश्व व्यापार संगठन एक असाधारण और अपूर्व संगठन है । अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों के तहत इसे यह अधिकार दिया गया है कि विश्व व्यापार के पुलिसमैन की भूमिका अदा करे । तथापि विश्व व्यापार संगठन के अन्तर्गत जिस अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का निर्माण हो रहा है उसमें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के अधिकार और कार्य क्षेत्र में असीमित बढ़ोतरी हो रही है । आलोचक तो यहां तक कहते हैं कि, ‘विश्व व्यापार संगठन का निर्माण बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए विश्व विजय’ का प्रतीक है ।
Essay # 9. नई विश्व व्यवस्था: नए मुद्दे (New World Order: New Issues):
पुरानी विश्व व्यवस्था में प्रमुख मुद्दे थे:
शीत युद्ध विचारधारागत मतभेद साम्यवाद सैनिक गुटों का निर्माण शस्त्रीकरण वीटो का बार-बार प्रयोग गुटनिरपेक्षता आदि । वस्तुत: राजनीतिक और सैनिक दृष्टि से सोचा जाता था किन्तु नई विश्व व्यवस्था में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विचारणीय विषयों और मुद्दों में भारी अन्तर आ गया है ।
नई विश्व व्यवस्था में नए मुद्दे मानवीय आर्थिक सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । ये वस्तुत सतत विकास से सम्बन्धित मुद्दे हैं । ऐसे मुद्दों में प्रमुख है: मानव अधिकार विकास का अधिकार विश्व व्यापार पर्यावरण संरक्षण जलवायु परिवर्तन उत्तर-दक्षिण संवाद नि:शस्त्रीकरण अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद यूरोपियन आर्थिक संकट नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की मांग गरीबी उन्मूलन टिकाऊ विकास संवर्द्धित बाजार व्यवस्था ज्यादा विदेशी निवेश प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण आर्थिक राजनय आदि ।
अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने 25 मार्च, 2000 को इस्लामाबाद (पाकिस्तान) में इसी ओर संकेत करते हुए जो कुछ कहा वह प्रासंगिक है । यह युग उन लोगों को पुरस्कृत नहीं करता जो खून से सरहदों की लकीर दुबारा खींचने का फिजूल का प्रयास करते हैं । यह युग उनका है जो सरहदों से आगे देखकर वाणिज्य और व्यापार में साझेदार बनना चाहते हैं ।
संक्षेप में आज आर्थिक और सामाजिक विकास को आगे बढ़ाने में लोकतन्त्र, मानवाधिकार, जनता की भागीदारी, उत्तम शासन और महिला सशक्तिकरण जो भूमिका निभा सकते हैं उस पर उत्तरोत्तर सहमति बढ़ रही है ।
Essay # 10. आर्थिक कारकों की निर्धारक भूमिका (Economic Factors as Key Determinants):
शीतयुद्धकालीन विश्व व्यवस्था के निर्धारक तत्व सैनिक कारक थे किन्तु शीतयुद्धोत्तर विश्व व्यवस्था में इनका स्थान आर्थिक कारकों ने के लिया है । आज दुनिया में अमरीकी एव रूसी हथियारों के टकराव के बजाय ‘डॉलर’, ‘पाउण्ड’ और ‘येन’ आपस में टकरा रहे हैं ।
आज शक्ति को ‘सैन्य’ सन्दर्भ में नहीं बल्कि आर्थिक सुदृढ़ता के सन्दर्भ में का जा रहा है । नाटो, वारसा पैक्ट, सीटो, सेन्टो जैसे सैन्य संगठन जो शीतयुद्ध की उपज हैं अब अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं । आज तो आर्थिक गुटबन्दी का बोलबाला है, जहां गैट आसियान एपेक आदि आर्थिक संगठनों को नया रूप दिया जा रहा है वहीं नाफ्टा, साफ्टा, बिम्स्टेक, जी-15, जी-24, जी-3 जैसे नए आर्थिक गुट उभरकर सामने आ रहे हैं ।
विश्व भर में इन दिनों मुक्त व्यापार समझौतों (Free Trade Agreements) का चलन तेज हो गया है । मुक्त व्यापार समझौते ऐसे समझौते हैं जिनमें दो या दो से ज्यादा देश आपसी व्यापार में एक-दूसरे को तरजीह देने पर सहमत होते हैं ।
व्यापार की यह तरजीह कस्टम की रियायती दरों और मानवाधिकार सम्बन्धी शर्तों जैसी गैर शुल्क बाधाओं को न्यूनतम करने के रूप में प्रकट होती है । मोटे तौर पर इन समझौतों के अन्तर्गत दोनों पक्ष एक-दूसरे को उत्पादों के आयात-निर्यात में रियायतें देते हैं ।
यानी शुल्क मुक्त आयात की इजाजत दी जाती है । मुक्त व्यापार वाले प्रमुख गुट हैं, यूरोपीय मुक्त व्यापार संघ (EFTA), दक्षिण एशियाई वरीयता व्यापार समझौता (SAPTA), उत्तर अमेरिकी मुक्त व्यापार समझौता (NAFTA), मर्कोसुर, एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग (APEC), हिन्दमहासागर तट क्षेत्रीय सहयोग संघ (IORARC) तथा बिम्स्टेक (BIMSTEC) । विश्व में इस समय लगभग 400 एफटीए दिखाई दे रहे हैं । वर्तमान में भारत लगभग 20 मुक्त व्यापार समझौतों से जुड़ा हुआ है ।
Essay # 11. आर्थिक राजनय का बढ़ता महत्व (Increasing Importance of Economic Diplomacy):
नया आर्थिक राजनय वैश्वीकरण, निजीकरण व उदारीकरण के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आया । पूर्व में जहां आर्थिक राजनय राजनीतिक राजनय का अनुसरण करता था, वहां अब आर्थिक राजनय को प्रमुखता प्राप्त हो गई है ।
आज प्रत्येक राष्ट्र अपना व्यापार बढ़ाने निवेश के नए अवसर खोजने उचित तकनीकी के हस्तान्तरण ऊर्जा व खनिज संसाधनों को प्राप्त करने हेतु चिंतित व प्रयासरत है । इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए राष्ट्रों के मध्य आर्थिक प्रतियोगिता इस नए राजनय की प्रमुख विशेषता है ।
आर्थिक राजनय के प्रमुख साधन हैं:
(i) व्यापार,
(ii) निवेश,
(iii) विकास सहायता,
(iv) ऋण तथा क्रेडिट लाइन्स तथा
(v) तकनीकी स्थानन्तरण ।
Essay # 12. संयुक्त राष्ट्र की अनदेखी (The Hidden Side of United Nations):
अनेक नवरूढ़िवादी अमरीकी विचारकों का निष्कर्ष है कि आज अमरीका की शक्ति इतनी ज्यादा है कि उसे संयुक्त राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था जैसे पुराने संस्थानों पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है । मौजूदा अन्तर्राष्ट्रीय प्रणाली के अमेरिका के लिए घटते हुए महत्व पर सबसे बेबाक बयान रिचर्ड परले ने दिया है । उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय प्रणाली को ‘घिसी-पिटी’ करार दिया, क्योंकि यह अमेरिका के हित पूरे नहीं करती ।
परले ने वाशिंगटन पोस्ट से बातचीत में कहा था- “हमें कई बार उनके (आतंकवादियों के) खिलाफ युद्ध को दूसरे लोगों के क्षेत्रों में ले जाना होगा” और “हम पुरानी पड़ चुकी संस्थाओं अर्थात् परम्परागत अन्तर्राष्ट्रीय प्रणाली और संयुक्त राष्ट्र से अपने हाथ नहीं बांध सकते ।”
अमेरिका ने अफगानिस्तान में तालिबान पर हमला किया इराक के खिलाफ युद्ध को चरम सीमा पर ले जाया गया जहां नरसंहार का कोई हथियार नहीं मिला । अमरीकी विदेश विभाग के पूर्व अधिकारी और जानेमाने टिप्पणीकार रॉबर्ट कागन का कहना है- ”अमेरिका के पास ताकत है और इसलिए इसे इस्तेमाल किया जाना है यूरोप के पास ताकत नहीं है और इसलिए उसने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक और कानूनी संस्थाओं की आड़ ले रखी है । यूरोप शुक्र की तरह है और अमेरिका मंगल की तरह ।”
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निष्कर्ष:
भूमण्डलीकरण, उदारीकरण, सूचना क्रान्ति, विश्व व्यापार संगठन, एकध्रुवीय/बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था विचारधारा के अन्त दक्षिण का उदय उदीयमान सांस्कृतिक तत्वों नें 21वीं शताब्दी में बदलते विश्व परिदृश्य एवं नई विश्व व्यवस्था की आकृति को स्पष्ट रूप देने में सहयोग प्रदान किया है ।
नई विश्व व्यवस्था में मुद्दे भी नए-नए उभर कर आ रहे हैं जिनमें प्रमुख हैं, मानवाधिकार, सतत विकास, ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण संरक्षण, आतंकवाद आदि । विश्व व्यवस्था में 193 राज्यों के अतिरिक्त नित नए-नए प्रकार के कर्ता (Actors) भाग लेने लगे हैं, जिनमें अनेक का स्वरूप अन्तर-शासकीय संगठन (Inter-Governmental Organisations), बहुराष्ट्रीय निगमों (Multi National Corporations) तथा गैर-सरकारी संगठनों (Non–Governmental Organisations) का है । नई विश्व व्यवस्था में ऐसे संगठनों की भूमिका और गतिविधियां दबाव और प्रभाव में वृद्धि अपेक्षित है ।
सी.आई.ए. के प्रमुख जेम्स उल्जे ने ‘नई विश्व व्यवस्था’ की विसंगतियों एवं जटिलताओं को इंगित करते हुए कहा था- ”हमने अवश्य एक बड़े अजगर को मारा है लेकिन आज हम ऐसे जंगल में रह रहे हैं जिसमें चारों तरफ विषैले सांप भरे हुए हैं ।”
नई विश्व व्यवस्था के स्वप्नद्रष्टा राष्ट्रपति बुश कहते हैं- ”निश्चय ही हम एक नए युग में प्रवेश कर रहे हैं यह एक ऐसा युग है जिसमें बड़े अवसर हैं तो बड़े खतरे भी हैं । हमने स्थायी शान्ति को प्राप्त नहीं किया है यद्यपि एकीकरण शक्तियां पहले से अधिक शक्तिशाली हैं लेकिन कुछ बिखराव की सुषुप्त शक्तियां भी जाग गई हैं…।”