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Read this essay in Hindi to learn about the reasons responsible for the collapse of communist bloc.
द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् क्षतिग्रस्त विश्व में सोवियत संघ ही एक ऐसा देश बचा था जो संयुक्त राज्य अमरीका (पश्चिमी गुट) को चुनौती देने में सक्षम था । यद्यपि महायुद्ध के कारण सोवियत संघ को महान् क्षति का सामना करना पड़ा लाखों रूसी सैनिक एवं नागरिक मारे गए थे दो करोड़ रूसी गृहहीन हो गए थे तथापि ये सभी बलिदान सोवियत रूस के लिए वरदान सिद्ध हुए ।
युद्ध में विजय के परिणामस्वरूप सोवियत रूस को विशाल प्रदेशों की प्राप्ति हुई और अनेक पडोसी देशों पर उसकी राजनीतिक आर्थिक और सैनिक नीतियों का प्रभाव पड़ा । युद्ध समाप्त होने पर सोवियत संघ की स्थिति कई दृष्टियों से पहले की अपेक्षा अधिक अच्छी थी । पश्चिम में उसकी लाल सेनाएं मध्य यूरोप तक के प्रदेश पर अधिकार किए बैठी थीं ।
पश्चिम और पूरब में उसके दो बड़े शत्रु जर्मनी व जापान नष्ट हो गए थे । पूर्वी यूरोप के अधिकांश देशों में साम्यवादी शासन की स्थापना हुई और 1955 में इन देशों को वारसा पैक्ट के अंग के रूप में एक सुदृढ़ साम्यवादी गुट के रूप में अवतरित होने का अवसर मिला । बर्लिन की नाकेबन्दी कोरिया युद्ध तथा चीन में साम्यवादी शासन की स्थापना ने सोवियत गुट को और अधिक सुदृढ़ कर दिया ।
सोवियत संघ के नेतृत्व में साम्यवादी गुट का निर्माण:
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद सोवियत संघ के नेतृत्व में साम्यवादी गुट के निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई जिसमें एक-एक कर पूर्वी यूरोप के राज्यों को साम्यवादी शासन के सांचे में ढाला गया । पूर्वी यूरोप से अभिप्राय सामान्यत: उस क्षेत्र से है जो उत्तर में स्टेटिन से लेकर दक्षिण में ट्रीस्टे तक फैला हुआ है । इस क्षेत्र के सीमान्त फिनलैण्ड, सोवियत संघ और तुर्की के सीमान्तों से मिलते हैं ।
इस क्षेत्र के अन्तर्गत पूर्वी जर्मनी, पोलैण्ड, चेकोस्लोवाकिया, रोमानिया, बुल्गारिया और अल्बानिया के राज्य शामिल किए जाते हैं । पूर्वी यूरोप के इन समाजवादी राज्यों का क्षेत्रफल 8 लाख वर्ग किलोमीटर है और उसमें लगभग 12 करोड़ लोग निवास करते हैं ।
पूर्वी यूरोप के देशों को साधारणत: सोवियत संघ के पिछलग्गू (Satellite) देशों के नाम से पुकारा जाता है । द्वितीय महायुद्ध के बाद इन देशों में साम्यवादी शासन की स्थापना में सोवियत संघ ने उल्लेखनीय सहायता दी थी ।
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स्टालिन का यह विश्वास था कि सोवियत संघ की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि उसकी पश्चिमी सीमा पर स्थित पूर्व-यूरोपीय राज्यों में सोवियत रूस के प्रति सद्भाव व मैत्री रखने वाली सरकारें स्थापित की जाएं । सौभाग्यवश युद्धोत्तर परिस्थितियां उसे अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल मिलीं ।
जिस समय युद्ध बन्द हुआ रूसी लाल सेनाएं मध्य यूरोप तक अपना अधिकार किए बैठी थीं । पूर्वी यूरोप के सभी देशों को जर्मनी की दासता से उन्होंने ही मुक्ति दिलायी थी । इन देशों की साम्यवादी पार्टियों ने ही जर्मनी के विरुद्ध लड़े जाने वाले छापामार संघर्षों का नेतृत्व किया था ।
साम्यवादी रूस के प्रति इन राज्यों में अपार सहानुभूति थी । अत: स्टालिन ने इस सद्भावना का लाभ उठाकर चतुराई से इन राज्यों में साम्यवादी शासन की स्थापना के सफल प्रयास किए । द्वितीय महायुद्ध के बाद पूर्वी यूरोप के देशों में ‘सोवियतीकरण’ की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई ।
सोवियत सेनाओं ने जिन क्षेत्रों को मुक्त कराया था वहां उन्होंने मजदूर वर्ग को सत्ता पर अधिकार स्थापित करने में सहायता की थी ताकि स्थिति के सामान्य होने पर वहां क्रान्तिकारी परिवर्तन लाए जा सकें । पूर्वी यूरोप में सोवियतीकरण की प्रक्रिया विभिन्न प्रकारों से व्यक्त हुई ।
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1945 में पोलैण्ड में स्टालिन के प्रयासों के फलस्वरूप एक मिली-जुली स्थायी सरकार संगठित की गयी जिसमें पांच राजनीतिक दलों ने भाग लिया । इस सरकार में सभी महत्वपूर्ण पद साम्यवादियों के नियन्त्रण में रखे गए । ब्रिटेन और अमरीका ने इस शर्त पर मान्यता दी कि शीघ्र ही वहां स्वतन्त्र आम चुनाव कराए जाएंगे ।
जनवरी, 1947 में पोलैण्ड में आम चुनाव हुए जिनमें साम्यवादी भारी बहुमत से विजयी हुए । चुनाव के उपरान्त पोलैण्ड का झुकाव सोवियत संघ की तरफ हो गया और वहां सोवियत संविधान के नमूने का पोलिश संविधान लागू किया गया तथा राष्ट्रीयकरण का कार्य तेजी से शुरू किया गया । वैदेशिक व्यापार और विदेश नीति के मामले में पोलैण्ड ने सोवियत रूस की अधीनता स्वीकार की । वस्तुत: समग्र दृष्टि से पोलैण्ड सोवियत रूस के प्रभाव-क्षेत्र में आ गया ।
6 मार्च, 1945 को सोवियत निर्देश पर रोमानिया में साम्यवादी सरकार का निर्माण किया गया । 8 मई को सोवियत संघ ने, मित्र राष्ट्रों से परामर्श किए बिना, रोमानिया की नयी सरकार के साथ एक पांचवर्षीय समझौता किया जिससे रोमानिया के आर्थिक जीवन पर सोवियत रूस का प्रभाव पड़ने लगा ।
नवम्बर, 1946 के चुनावों में साम्यवादी दल भारी बहुमत से विजयी हुआ । इसके बाद अन्य दलों को कुचल डाला गया । 13 अप्रैल, 1948 को रोमानिया ने सोवियत नमूने के नए संविधान को अपना लिया । याल्टा में स्टालिन द्वारा दिए गए आश्वासनों के फलस्वरूप नवम्बर 1945 में बुल्गारिया में आम चुनाव हुए ।
चुनाव में केवल सरकार से मिले-जुले दलों के प्रतिनिधियों ने ही भाग लिया । विरोधी दलों के उम्मीदवारों को आतंकित किया गया । 1946 में बुल्गारिया का एक नया संविधान बनाए जाने के उद्देश्य से आम चुनाव हुए । साम्यवादी दल इस चुनाव में भारी बहुमत से विजयी हुआ और बुल्गारिया में साम्यवादी शासन की स्थापना कर दी गयी । 1948 तक उसने मास्को के साथ घनिष्ठतम सम्बन्ध स्थापित कर लिए ।
1 फरवरी, 1946 को हंगरी में राजतन्त्र समाप्त करके गणतन्त्र की स्थापना की गयी । अगस्त, 1947 में हंगरी में संसद के लिए चुनाव हुए जिसमें साम्यवादी दल को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ । नयी सरकार में साम्यवादी दल के सदस्य राकोसी को उप-प्रधानमन्त्री बनाया गया ।
जून, 1947 में प्रजातंत्रीय समाजतादी दल और साम्यवादी दल का आपस में विलीनीकरण हो गया और हंगेरियन वर्कर्स पार्टी के नाम से एक साम्यवादी विचारधारा वाले दल का जन्म हुआ । 1949 में हंगरी गणतन्त्र का नाम बदलकर ‘हंगरी का पीपुल्स गणतन्त्र’ रख दिया गया । इस तरह हंगरी पूरी तरह साम्यवादियों के नियन्त्रण में आ गया ।
द्वितीय महायुद्ध के बाद यूगोस्लाविया में साम्यवादी शासन की स्थापना हुई । परन्तु पूर्वी यूरोप के अन्य देशों की भांति यूगोस्लाविया को मुक्त कराने में लाल सेना की कोई भूमिका नहीं रही थी । वस्तुत: यूगोस्लाविया का मुक्ति संग्राम वहां के लोगों ने स्वयं लड़ा था और उसे मार्शल टीटो ने अपना नेतृत्व दिया था ।
चेकोस्लोवाकिया में मई 1946 के चुनावों में 310 में से 114 सीटें स्लोवाक व चेक साम्यवादी दलों ने प्राप्त कीं । वेनेश को राष्ट्रपति तथा गॉटवाल्ड को प्रधानमन्त्री बनाया गया । यह समय चेकोस्लोवाकिया में पूर्वी समाजवाद और पश्चिम जनतन्त्र के समन्वय का काल कहा जा सकता है ।
1947 में जब मार्शल योजना सामने आयी तो चेकोस्लोवाकिया ने अपने राष्ट्रीय हित की दृष्टि से उसमें सम्मिलित होना स्वीकार नहीं किया । अपनी सुरक्षा की दृष्टि से उसने सोवियत संघ की मैत्री आवश्यक समझी । सितम्बर, 1947 के बाद भूमि उद्योगों वैदेशिक व्यापार तथा बैंकिंग का राष्ट्रीयकरण करके चेकोस्लोवाकिया को खुले रूप में सोवियत संघ का अनुसरण करने वाला एक समाजवादी राष्ट्र बना दिया गया ।
जनवरी, 1946 में अल्बानिया में चुनाव हुए जिनमें कम्युनिस्टों के नेतृत्व में अल्वानिया लोकतान्त्रिक मोर्चे को सफलता प्राप्त हुई । अल्वानिया को ‘जनता का लोकतान्त्रिक गणतन्त्र’ घोषित कर दिया गया । पोट्सडाम समझौते के अन्तर्गत जर्मनी को चार क्षेत्रों में विभाजित कर दिया गया था, इसी प्रकार इसी समझौते के द्वारा राजधानी बर्लिन को भी चार भागों में बांट दिया गया था ।
पूर्वी क्षेत्र सोवियत संघ के हिस्से में आया । 7 अक्टूबर, 1949 को वहां सोवियत प्रणाली का संविधान लागू कर दिया गया जिससे समाजवाद की सीमाओं का मध्य यूरोप तक विस्तार हो गया । संक्षेप में, द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् पूर्वी यूरोप में जिस प्रकार शासनतन्त्र स्थापित हुए, वे निश्चय ही सोवियत संघ के समर्थक थे ।
साम्यवादी गुट की सुदृढ़ता: सैनिक और आर्थिक एकीकरण:
सोवियत संघ ने साम्यवादी गुट को सुदृढ़ करने के लिए सैनिक और आर्थिक एकीकरण पर बल दिया ।
इसके लिए निम्नांकित प्रयास उल्लेखनीय हैं:
(1) वारसा पैक्ट या पूर्वी यूरोपीय सन्धि संगठन (Warsaw Pact or East European Security Pact):
जब पश्चिमी जर्मनी को 9 मई 1955 को नाटो का सदस्य बना लिया गया और पश्चिमी राष्ट्रों ने जर्मनी का पुन: शस्त्रीकरण कर दिया तो इससे सोवियत संघ तथा अन्य पूर्वी यूरोप के राष्ट्रों के लिए चिन्तित होना स्वाभाविक था । पश्चिमी शक्तियों ने नाटो सीटो सेण्टो द्वारा सोवियत संघ के इर्द-गिर्द घेरे की स्थिति पैदा कर दी थी । अत: यह स्वाभाविक था, फि सोवियत संघ सैनिक गठबन्धनों का उत्तर सैनिक गठबन्धन से देता ।
साम्यवादी राष्ट्रों का एक सम्मेलन 11 से 14 मई, 1955 को वारसा में बुलाया गया । इस सम्मेलन में सोवियत रूस और पूर्वी यूरोप के सात राष्ट्रों-अल्वानिया बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, पूर्वी जर्मनी, हंगरी, पोलैण्ड तथा रोमानिया ने भाग लिया । यूगोस्लाविया ने इसमें भाग नहीं लिया; चीन के प्रतिनिधि ने इस सम्मेलन में एक प्रेक्षक के रूप में भाग लिया ।
14 मई, 1955 को सम्मेलन में भाग लेने वाले राष्ट्रों ने मित्रता एवं पारस्परिक सहयोग की एक 20-वर्षीय सन्धि पर हस्ताक्षर किए जिसे ‘पूर्वी पूरोपीय सन्धि संगठन’ अथवा ‘वारसा सन्धि’ कहते हैं । इस सन्धि की भूमिका में यूरोप में सामूहिक सुरक्षा की पद्धति के स्थापित करने पर बल दिया गया और यह कहा गया कि पश्चिमी यूरोप के सन्धि के निर्माण से तथा पश्चिमी जर्मनी के पुन: शस्त्रीकरण से यह आवश्यक हो गया है कि वे अपनी सुरक्षा सुदृढ़ करें और यूरोप में शान्ति स्थापित रखें ।
इस पैक्ट की मुख्य व्यवस्था धारा 3 में है । इसके अनुसार यदि किसी सदस्य पर सशस सैनिक आक्रमण होता है तो अन्य देश उसकी सैनिक सहायता करेंगे । इसके लिए धारा 5 में एक ‘संयुक्त सैनिक कमान’ बनायी गयी । इसका एक सर्वोच्च सेनापति था जो महासचिव और सोवियत जनरल स्टाफ के साथ परामर्श करके सेनाओं का संगठन करता था तथा विभिन्न प्रदेशों में उनका वितरण करता था ।
संयुक्त कमान की सहायता के लिए सहायक कमानें थीं-उत्तर मध्य और दक्षिण यूरोप की कमान तथा सुदूर-पूर्व की एक कमान । वारसा सन्धि की सैनिक शक्ति-इसके भंग होने से पूर्व इस प्रकार थी-थल सैनिक 26 लाख, नौ-सैनिक 5 लाख, वायु सैनिक 6-9 लाख, टैंक 15,000, विमान 2,500, हैलीकॉप्टर 625, युद्धपोत 456, पनडुब्बियां 8 और प्रक्षेपास्त्र 960 ।
सैनिक सहयोग के अतिरिक्त वारसा सन्धि हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्रों में आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सहयोग की व्यवस्था भी करती थी । इसमें इस बात की भी व्यवस्था थी कि सन्धिकर्ता राष्ट्र पारस्परिक सम्बन्धों में शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे और अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिमय साधनों से सुलझाने का प्रयास करेंगे ।
अपने मूल रूप में वारसा पैक्ट नाटो सन्धि का ही प्रतिरूप कहा जा सकता है । वारसा पैक्ट नाटो के विरुद्ध साम्यवादी देशों का सैन्य संगठन था । इसमें सभी देशों को समानता के अधिकार प्राप्त थे तथापि यह स्पष्ट है कि सोवियत संघ ही मुख्य शक्ति केन्द्र था तथा अन्य राज्यों की स्थिति उपग्रही राज्यों की स्थिति जैसी थी ।
(2) पारस्परिक आर्थिक सहायता की परिषद (Council for Mutual Economic Assistance-CMEA):
इस संगठन की स्थापना अप्रैल, 1949 में की गयी । इसके संस्थापक सदस्य थे- बुल्गारिया, पोलैण्ड, हंगरी, रोमानिया, चेकोस्लोवाकिया तथा सोवियत संघ । 1950 में अल्वानिया और पूर्वी जर्मनी ने भी इस संगठन की सदस्यता ग्रहण कर ली । 1962 में मंगोलियाई गणराज्य तथा 1964 में यूगोस्लाविया के साथ सी. एम. ई. ए. के सम्बन्ध स्थापित हो गए ।
इस संगठन में सभी सदस्य राष्ट्रों को समान प्रतिनिधित्व दिया गया । इसकी सदस्यता ऐसे प्रत्येक देश के लिए खुली हुई थी जो उसके मूलभूत सिद्धान्तों में आस्था रखता हो तथा जो सदस्यता में निहित उत्तरदायित्वों को पूरा करने को तैयार हो ।
पिछले तीस वर्षों में इस संगठन के माध्यम से पूर्वी यूरोप के देशों तथा मंगोलिया और सोवियत संघ के बीच आर्थिक क्षेत्र में बहुत सहयोग हुआ और इस सहयोग से सभी सदस्य लाभान्वित हुए । यह एक ऐसा अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संगठन था जिसमें आठ समाजवादी देश सम्मिलित थे और जिनकी जनसंख्या लगभग 34 करोड़ थी जो कि कुल विश्व की जनसंख्या का 10% थी ।
1970 के बाद सी. एम. ई. ए के सदस्य राज्यों के आर्थिक एकीकरण की प्रक्रिया बहुत अधिक तेज हुई । 1971 में इन देशों की राष्ट्रीय आय में 3% की वृद्धि हुई जबकि इसी काल में पश्चिम के सबसे अधिक औद्योगीकृत देश में यह वृद्धि 6.3% से अधिक नहीं थी । जनसंख्या की दृष्टि से इन देशों में विश्व की कुल जनसंख्या का दसवां भाग निवास करता था परन्तु ये देश विश्व के कुल औद्योगिक उत्पादन का एक-तिहाई पैदा करते थे ।
कॉमिनफॉर्म (Communist Information Bureau):
सितम्बर, 1947 में सोवियत संघ, बुल्गारिया, हंगरी, रोमानिया, पोलैण्ड, चेकोस्लोवाकिया, फ्रांस और इटली के साम्यवादी दलों के प्रतिनिधि पोलैण्ड की राजधानी वारसा में एकत्रित हुए जहां उन्होंने बेलग्रेड में एक ‘साम्यवादी सूचना कार्यालय’ खोलने का निश्चय किया ।
कॉमिनफॉर्म का उद्देश्य यूरोप में सामान्य साम्यवादी नीतियों को क्रियान्वित व समायोजित करना था । यह पूरी तरह सोवियत संघ के नियन्त्रण में था । कॉमिनफॉर्म के माध्यम से पूर्व-यूरोपीय राज्यों की साम्यवादी सरकारों को संगठित करने और उन्हें साम्यवादी कार्य-पद्धति में दीक्षित करने में स्टालिन को पर्याप्त सफलता मिली । काफी बड़ी संख्या में रूसी इंजीनियर तकनीकी कर्मचारी और सेना प्रशिक्षक उन देशों के पुनर्निर्माण में सहायता देने के लिए भेजे गए ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में साम्यवादी गुट:
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद सोवियत संघ के नेतृत्व में सुदृढ़ साम्यवादी राष्ट्रों का गुट उदित हुआ । पूर्वी यूरोप के सभी देश इस गुट से सम्बद्ध हो गए । पश्चिमी गुट के देशों के साथ उग्र शीतयुद्ध प्रारम्भ हुआ । संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में ये देश एकजुट होकर मतदान करते ।
सुरक्षा परिषद् में सोवियत संघ बार-बार वीटो का प्रयोग करने लगा । पूर्वी जर्मनी के साम्यवादी गुट में शामिल होने से पश्चिमी देश सशंकित हो गए । वारसा पैक्ट के निर्माण से पूर्वी यूरोप के राष्ट्र सोवियत संघ के पिछलग्गू बन गए ।
साम्यवादी गुट ने तीसरी दुनिया के देशों को अपना प्रभाव क्षेत्र बनाना प्रारम्भ किया और तीसरी दुनिया में महाशक्तियों की प्रतिस्पर्द्धा प्रारम्भ हुई । शस्त्रीकरण की होड़ बढ़ी और दुनिया में शान्ति स्थापना के समर्थक लोग चिन्तित होने लगे ।
साम्यवादी गुट का अवसान:
यूरोप साम्यवाद का मजबूत गढ़ रहा है । सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोप के देश साम्यवादी तानाशाही के सुदृढ़ दुर्ग माने जाते थे । द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद पूर्वी यूरोप के देशों पर स्टालिन द्वारा साम्यवादी तानाशाही थोप दी गयी थी । किन्तु 1989-91 के वर्षों में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देश साम्यवादी निरंकुशता से एक-एक कर मुक्त हो गए । सम्पूर्ण कम्युनिज्म अर्थात् सारे का सारा मार्क्सवाद-लेनिनवाद अब इतिहास के कब्रिस्तान में गहरा दफना दिया गया ।
इस भयावह विचारधारा की नाजीवाद जैसी ही दुर्गति हुई । सर्वहारा की तानाशाही जन लोकतन्त्र अनन्त क्रान्ति में राज्य की शाश्वत भूमिका जैसे लैनिन के ‘मौलिक’ सिद्धान्तों को ‘पेरेस्त्रोइका’ (पुनर्गठन) ने धराशायी कर दिया । अब यूरोप में लेनिन का केवल नाम भर सम्भवत: एक राष्ट्रीय नायक के रूप में रह गया है ।
सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में बहुदलीय लोकतन्त्र अन्य पद्धतियों के साथ सह-अस्तित्व और धार्मिक स्वतन्त्रता के आगमन से मार्क्सवाद मिट्टी में मिल गया । अल्वानिया को छोड्कर पूर्वी यूरोप की कम्युनिस्ट तानाशाहियां 1989 में केवल छ: मास की अवधि के भीतर धराशायी हो गयीं । हंगरी पोलैण्ड और इटली की कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने निधन का उल्लेख स्वयं किया ।
राष्ट्रपति गोर्बाचोव ने स्वयं सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबन्ध लगाकर उसे भंग कर दिया । 1989-91 की क्रान्ति इस दृष्टि से अनोखी है कि उसके पीछे कोई सुसंगठित शक्ति नहीं थी । कम्युनिस्ट कुल तन्त्रों ने कभी भी सर्वहारा को उसकी आवाज नहीं उठाने दी । फिर भी क्रान्ति हुई और मुख्यत: उसका श्रेय मानव की अदम्य भावना को है ।
रोमानिया के अतिरिक्त अन्य सब देशों में यह क्रान्ति पूर्णत: शान्तिपूर्ण रही । राजनीतिक दर्शन के रूप में मार्क्सवाद इस शती की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत नहीं कर सका । संक्षेप में आज सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देश साम्यवादी भीमाकार दैत्य के बन्धन से मुक्त होकर स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र की बहार का आनन्द ले रहे हैं ।
पूर्वी यूरोप में साम्यवाद का अवसान:
सोवियत संघ के राजनीतिक रंगमंच पर गोर्बाच्योव के उदय से पूर्व भी संसार में ऐसे विचारशील लोग थे जिनका अनुमान था कि एक-न-एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब कम्युनिज्म के जुए में जुते लोग उसे उतार फेंकेंगे और कम्युनिज्म ध्वस्त हो जाएगा, परन्तु उनमें से भी कोई इस बात की आशा तो क्या कल्पना भी नहीं कर सकता था कि यह सब अचानक इतने शीघ्र, इतनी सरलता से (केवल एक रोमानिया को छोड्कर) बिना रक्तपात के और बिना बाहरी सहायता के आप-से-आप हो जाएगा ।
लेनिन, स्टालिन और ब्रेझनेव जैसे सोवियत नेताओं द्वारा लौह आवरण में बन्द करके रखे गए इन देशों की आर्थिक दुर्दशा से घबराकर गोर्बाव्योव ने सोवियत संघ में पुनर्गठन (पेरेस्त्रोइका) के संकल्प के साथ ‘ग्लासनोस्त’ का द्वार जो खोला तो स्वतन्त्रता की स्वच्छ वायु के एक ही झोंके से पूर्वी यूरोप के देशों पर थोपे हुए कम्युनिस्ट तानाशाह सड़े फलों की भांति एक के पश्चात् एक टपाटप भूलुण्ठित होते दिखाई दिए ।
हंगरी:
हंगरी में 1956 में सोवियत कठपुतली सरकार की अवज्ञा करते हुए लाखों लोग बुडापेस्ट की सड़कों पर निकल आए और मांग की कि हंगरी से सभी सोवियत सैनिकों को हटा लिया जाए हंगरी के आन्तरिक विषयों में कोई हस्तक्षेप न किया जाए और उसे सोवियत संघ के साथ पूर्ण आर्थिक एवं राजनीतिक समता प्रदान की जाए । विद्रोह के प्रति खुश्चेव की प्रतिक्रिया यह थी कि अविलम्ब लाल सेना की टुकड़ियां वहां भेज दी जाएं ।
विद्रोह को कुचल दिया गया और इमरे नज को बन्दी बना लिया गया । 1956 में ख्रुश्चेव द्वारा सिंहासन पर बिठाए गए यानोस कादार मई 1988 तक सत्ता में रहे । 32 वर्ष की उनकी तानाशाही में विदेशी ऋण बढ्कर 17 अरब डॉलर तक पहुंच गया । पूर्वी यूरोप के देशों में यह सबसे अधिक ऋण था । मुद्रा-स्फीति 30 प्रतिशत की दर से चौकड़ी भर रही थी ।
जनवरी, 1989 में हंगरी में नवयुग का उदय हुआ । एक ऐतिहासिक कदम उठाकर हंगरी की संसद ने ‘स्वतन्त्र राजनीतिक आन्दोलनों’ के गठन की अनुमति देने वाला विधान पारित कर दिया । नए विधान में विभिन्न राजनीतिक दलों के गठन के अधिकार को सिद्धान्त रूप में मान्यता दी गयी ।
संसद ने प्रदर्शन के अधिकार को भी मान्यता दी । फरवरी 1980 में हंगरी की कम्युनिस्ट पार्टी ने स्वीकार कर लिया कि एकदलीय समाजवाद का प्रयोग विफल रहा है और बहुदलीय पद्धति में परिणति की तैयारी के लिए एक समिति का गठन किया गया ।
हंगरी की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी ने 7 नवम्बर, 1989 को मतदान द्वारा संकल्प पारित कर स्वयं अपना अस्तित्व समाप्त कर लिया । संसद ने पार्टी के भीतर तथा बाहर मिश्रित अर्थव्यवस्था तथा लोकतन्त्र के पक्ष में भी मतदान किया ।
पोलैण्ड:
कम्युनिज्म को थोपे जाने के बाद तीन बार 1956, 1970 और 1976 में पोलैण्ड के सर्वहारा-वर्ग ने सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी को चुनौती दी किन्तु उन्हें सोवियत सैनिकों की मदद से दबा दिया गया । दिसम्बर 1970 में गेर्येक ने गोमुल्का का स्थान ग्रहण किया ।
गेर्येक के शासनकाल में पोलैण्ड के विदेशी ऋण बढ्कर 27 अरब डॉलर हो गए । निर्यातों से ब्याज भी नहीं चुकाया जा सकता था । निवेश पूंजी जुटाने के लिए उन्होंने पश्चिम से भारी ऋण लिए किन्तु उनमें से अधिकांश पैसा कार, टेलीविजन, आदि उपभोग्य सामग्री के उत्पादन पर व्यय किया गया ।
लेख वालेसा ने कम्युनिस्ट तानाशाही पर पोलैण्डवासियों को ‘यूरोप और विश्व का भिखारी’ बनाने का आरोप लगाया । 1989 में पोलैण्ड पर विदेशों का ऋण 39 अरब डॉलर था । जून, 1989 में हुए चुनावों ने तथाकथित साम्यवादी लोकतन्त्र के खोखलेपन को नंगा कर दिया ।
सॉलिडेरिटी को संसद के केवल एक-तिहाई (162) स्थानों के लिए चुनाव लड़ने की अनुमति दी गयी, उसने 161 स्थानों के लिए चुनाव लड़ा और उन सब पर विजय प्राप्त की ? सीनेट में भी सॉलिडेरिटी ने 100 में से 90 स्थानों पर अधिकार कर लिया ।
प्रधानमन्त्री तथा उसके समूचे मन्त्रिमण्डल को अस्वीकार कर दिया गया । कम्युनिस्टों और उनके विरोधियों के पक्ष में मतों का अनुपात 1 और 20 का रहा । 24 अक्टूबर, 1989 को पोलैण्ड में सॉलिडेरिटी के नेतृत्व में सरकार की स्थापना हुई ।
29 जनवरी, 1990 को पोलैण्ड की कम्यूनिस्ट पार्टी के विशेष और अन्तिम सम्मेलन में प्रतिनिधियों ने पार्टी को भंग करने का निश्चय किया । इससे पूर्व उन्होंने एक कार्यक्रम स्वीकार किया और उसमें स्वतन्त्र तथा लोकतान्त्रिक चुनावों, बहुदलीय पद्धति वाले संसदीय लोकतन्त्र और बाजार अर्थव्यवस्था की मांग की ।
रोमानिया:
रोमानिया में जिस दिसम्बर क्रान्ति ने अन्तत: मार्क्सवादी सरकार को उखाड़कर फेंक दिया हाल के इतिहास में उसकी कोई उपमा नहीं है । 17 दिसम्बर, 1989 को तिमिसोरा में एक पादरी के निष्कासन का जो विरोध प्रारम्भ हुआ उसने शीघ्र ही पूर्णत: कम्युनिस्ट विरोधी विद्रोह का रूप धारण कर लिया ।
पुलिस ने भीड़ पर हैलीकोप्टरों से गोलियां बरसायीं और पहले ही दिन 400 लोगों को भून डाला । अगले कुछ दिनों में पश्चिमी रोमानिया में हजारों लोगों की निर्मम हत्या कर दी गयी और उन्हें सामूहिक कब्रिस्तान में दफना दिया गया ।
चार दिनों में विद्रोह राजधानी बुखारेस्ट तक फैल गया । विद्रोही नेता लोनलिजू पीतर रोमन और माइकेल लपोई के नेतृत्व में छात्रों तथा कामगारों ने कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति के भवन पर धावा बोल दिया । कारखानों पर अधिकार कर लिया गया और राष्ट्रीय हड़ताल की घोषणा कर दी गयी । सेना ने आन्दोलनकारियों के आह्वान की ओर ध्यान दिया और उनका साथ दिया । 22 दिसम्बर को रेडियो तथा टेलीविजन केन्द्रों पर अधिकार कर लिया गया और राष्ट्रपति के प्रासाद को घेर लिया गया ।
चाडसेस्क्यू तथा उनकी पली एलिना ने लूट-खसोट के अरबों डॉलर लेकर भाग निकलने का प्रयत्न किया परन्तु बुखारेस्ट से 100 किलोमीटर पश्चिमोत्तर में तुर्गविस्ते नगर में वे पकड़े गए । उन पर सैनिक न्यायालय में मुकदमा चलाया गया । उन पर नरसंहार राज्य के विध्वंस, सार्वजनिक सम्पत्ति की चोरी तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विनाश के आरोप थे । न्यायालय ने उन्हें मृत्यु-दण्ड दिया ।
तानाशाह के पतन के पश्चात् भी बुखारेस्ट में लड़ाई एक सप्ताह और चलती रही । सत्ता की बागडोर संभालने वाली राष्ट्रीय मुक्ति समिति ने घोषणा की कि क्रान्ति के इस महायज्ञ में 60,000 से भी अधिक लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी और तीन लाख से अधिक आहत हुए ।
चाडसेस्क्यू 22 मार्च, 1965 को सर्वोच्च पद पर आसीन हुआ और 24 वर्ष से भी अधिक समय तक बागडोर संभाले रहा । इस चौथाई शती में उसके परिवार के सदस्य सभी महत्वपूर्ण पदों को हथियाये रहे और उन्होंने समाजवाद को भाई-भतीजावाद का पर्याय बना दिया । उसकी पत्नी एलिना पोलिट ब्यूरो की सदस्या और प्रथम उपप्रधानमन्त्री थी ।
मार्क्सवादी तानाशाह संगमरमर के महलों में रहता था । रोमन सम्राटों की तरह विलासिता का जीवन व्यतीत करता था । उसने स्विस बैंकों में 40 करोड़ डॉलर मूल्य का सोना जमा कर रखा था । 23 मई, 1990 को शासनारूढ़ नेशनल साल्वेशन फ्रण्ट ने रोमानिया के प्रथम स्वतन्त्र चुनावों में भारी विजय प्राप्त की तथा इयान इलिएस्क्यू 86 प्रतिशत के भारी बहुमत से राष्ट्रपति चुने गए ।
पूर्वी जर्मनी:
अक्टूबर, 1989 में प्राग ने पश्चिमी जर्मनी के साथ लगी अपनी सीमाएं खोल दीं तो पूर्वी जर्मनी से लोगों का निष्क्रमण बढ़ गया । एरिक होनेकर के राज्य में हजारों लोग सड़कों पर निकल आए और उन्होंने सुधारों की मांग की । लाइपिंग में 3 अक्टूबर, 1989 के दिन पिछले 36 वर्षों के इतिहास में हुए सबसे विशाल ऐतिहासिक प्रदर्शन ने लोकतन्त्र की ज्वाला को प्रज्वलित कर दिया ।
18 अक्टूबर 1989 को इस स्टालिनवादी नेता का तख्ता उलट गया । उन्हें तथा पोलिट ब्यूरो के उनके तीन साथियों को बन्दी बना लिया गया और उन पर देशद्रोह, भ्रष्टाचार तथा कुशासन के आरोप लगाए गए ।
7 नवम्बर, 1989 को लाइपजिंग, ड्रेसडन तथा शेरिन में विरोध की बाढ़ के बाद क्रेज की कम्युनिस्ट सरकार ने त्यागपत्र दे दिया । लगभग 8 लाख विरोधकर्ताओं ने सडकों पर पदयात्रा की और स्वतन्त्र चुनावों तथा कम्युनिस्ट तानाशाही की समाप्ति की मांग की ।
18 मार्च, 1990 को पूर्वी जर्मनी में स्वतन्त्र चुनाव कराए गए । क्रिश्चियन डेमोक्रेट तथा सम्बद्ध दलों ने 80.17 प्रतिशत मत बटोरकर 193 स्थान प्राप्त किए । कम्यूनिस्टों को मात्र 65 स्थान तथा 16.33 प्रतिशत मत मिले । अप्रैल 1990 में क्रिश्चियन डेमोक्रेटों और सोशल डेमोक्रेटों की मिली-जुली सरकार ने पदभार ग्रहण किया । इस प्रकार पूर्वी जर्मनी से साम्यवाद को विदाई दे दी गयी ।
चेकोस्लोवाकिया:
1948 में चेकोस्लोवाकिया की इच्छा के विरुद्ध उस पर कम्युनिज्म थोप दिया गया । चेकोस्लोवाकिया की अर्थव्यवस्था को सोवियत संघ मूलत: अपनी अर्थव्यवस्था की जागीरदारी समझता था । कम्युनिस्ट व्यवस्था में वहां खाद्यान्न का अभाव हो गया अंधाधुंध मुद्रा-स्फीति हुई और वस्तु भण्डारों पर लम्बी-लम्बी पंक्तियां लगने लगीं । जैसे नेता 1968 में ही यह मानने लगे थे कि कम्युनिस्ट की विचारधारा लोगों की दशा सुधारने में असफल रही ।
दुब्चेक के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर सुधार का आन्दोलन एक नए सिद्धान्त की स्थापना के लिए अग्रसर हुआ जिसमें लेनिनवाद का लगभग पूरा ही खण्डन कर दिया गया । सुधारकों ने मानवीयतापूर्ण कम्युनिज्म का आग्रह किया ।
सोवियत भड़कावे में आकर रूढ़िवादी कम्युनिस्ट शत्रुवत् हो गए । 21 अगस्त, 1968 को लाल सेना के टैंक प्राग में घुस आए । दुब्चेक तथा उनकी सरकार के सदस्यों को बन्दी बना लिया गया । जून 1977 में बर्लिन में 27 कम्यूनिस्ट पार्टियों के सम्मेलन में चेकोस्लोवाकिया के कुछ नेताओं द्वारा प्रारूपित एक पत्र परिचालित किया गया । उसमें दमन की समाप्ति और लोकतन्त्रीय अधिकारों की पुन: स्थापना का आह्वान किया गया ।
चेकोस्लोवाकिया में ‘चार्टर-77’ नामक एक गुट खड़ा हो गया । चार्टर के 45 हस्ताक्षरकर्ताओं ने मांग की कि दो सैन्य गुटों के विघटन के बारे में नाटो तथा वारसा सन्धि वाले देशों के बीच सीधी वार्ता हो सोवियत तथा अमरीकी सेनाओं को उनके सहयोगी देशों के राज्य क्षेत्रों से हटा लिया जाए यूरोप में परमाणुरहित क्षेत्र की स्थापना की जाए, आर्थिक सहयोग के बारे में पूरब तथा पश्चिम के बीच समझौता हो और दोनों जर्मनियों का पुन: एकीकरण हो ।
कुछ ही वर्षों में चार्टर-77 पर हस्ताक्षरकर्ताओं की संख्या बढ्कर 1200 तक पहुंच गयी । ‘चार्टर-77’ उस नागरिक मंच का अग्रदूत बना जिसने 1989 में लोकतन्त्र के जनआन्दोलन को आगे बढ़ाया । 17 नवम्बर, 1989 को प्राग में 30 हजार से भी अधिक लोगों ने प्रदर्शन किया और कम्युनिस्ट सरकार के त्यागपत्र की मांग की ।
उनके उद्घोष वाक्य थे- ”स्वतन्त्रता दो-स्वतन्त्रता दो स्वतन्त्र चुनाव कराओ, हमें नहीं चाहिए कम्युनिस्ट पार्टी चालीस वर्ष बहुत होते हैं, याक्स अब तुम्हारे दिन लद चुके हैं ।” 29 नवम्बर, 1989 को चेकोस्लोवाक संसद ने अनुच्छेद 4 को निरस्त कर दिया जो सोवियत संविधान के अनुच्छेद 6 को भांति ही दल की मार्गदर्शी भूमिका को अनिवार्य ठहराता था । उसने अनुच्छेद 16 को भी निरस्त कर दिया जो विद्यालयों में मार्क्सवाद-लेनिनवाद का अध्ययन अनिवार्य बनाता था ।
‘चार्टर-77’ के एक संस्थापक वाक्ताव हावेल ने दिसम्बर 1989 में चेकोस्लोवाकिया के राष्ट्रपति का पदभार ग्रहण किया । 11 जून, 1990 को नागरिक मंच आन्दोलन (सिविक फोरम मूवमेण्ट) ने चेकोस्लोवाकिया के प्रथम स्वतन्त्र चुनाव में डाले गए कुल मतों के 46 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त करके जीत लिया ।
कम्युनिस्ट पार्टी उससे कहीं नीचे 13.6 प्रतिशत मत पाकर द्वितीय स्थान पर रही । जनवरी 1993 के प्रथम दिन चेकोस्लोवाकिया इतिहास के पृष्ठों में गुम हो गया और उसकी जगह स्वाधीन चेक तथा स्लोवाक गणराज्यों का उदय हुआ ।
बुल्गारिया:
बुल्गारिया में 78-वर्षीय जिव्कोव को कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष पद से और फिर राष्ट्रपति पद से हटा दिया गया । जिव्कोव ने वहां पर 35 वर्ष से भी अधिक समय तक शासन किया । 16 जनवरी 1990 को बुल्गारिया की संसद ने एक संविधान संशोधन का अनुमोदन करके सत्ता पर कम्युनिस्ट पार्टी के एकाधिकार को समाप्त कर दिया और स्वतन्त्र चुनावों का द्वार खोल दिया ।
चार दशकों के बाद देश में पहला स्वतन्त्र चुनाव सितम्बर 1990 में हुआ और 11-सदस्यीय कोर्पोरेट प्रेसीडेन्सी सत्ता के लिए निर्वाचित हुई । संक्षेप में, पूर्वी यूरोप में मार्क्सवाद असफल रहा । द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद से गोर्बाव्योव के शासन में आने तक के काल तक दरअसल पूर्वी यूरोप सोवियत संघ का अप्रत्यक्ष साम्राज्य था । 1989-90 में पूर्वी यूरोप में उथल-पुथल मच गयी साम्यवाद का दुर्ग बिना किसी रक्तपात के ढह गया । पूर्वी यूरोप में लोकतन्त्र की हवा बहने लगी ।
बर्लिन की दीवार का ढहना:
9 नवम्बर, 1989 को एक युगान्तकारी घटना हुई जब पूर्वी जर्मनी ने अपने नागरिकों को पश्चिम जर्मनी के साथ की अपनी सीमा पार करने की खुली छूट देकर अपने ही हाथों बनायी बर्लिन दीवार और जानलेवा सीमान्त बाड़ को अर्थहीन बना दिया । तब से न केवल एक विभाजित देश की अविभाज्य जनता का भावभीना पुनर्मिलन हो रहा है, मध्य यूरोप के चेहरे पर से शीत-युद्ध का सबसे कलुषित कलंक भी धुलने लगा ।
बर्लिन दीवार के निर्माता होनेकर को अक्टूबर 1989 में पूर्व जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी के नेता पद से अपदस्थ कर दिया गया था । होनेकर के पतन के तीन सप्ताह के अन्दर बर्लिन दीवार का भी पतन हो गया । बर्लिन दीवार जब बनी थी उस समय हर वर्ष लगभग दो लाख पूर्वी जर्मनवासी पश्चिम की तरफ भाग रहे थे ।
यह भी क्या संयोग है कि 1961 के बाद 1989 ऐसा पहला वर्ष है जब एक ही वर्ष में दो लाख से अधिक जर्मन नागरिक पश्चिमी जर्मनी चले गए । देश पलायन को रोकने के लिए बनी बर्लिन दीवार को 28 वर्ष बाद देश पलायन ही ले डूबा ।
इस दीवार को आठ जगहों पर तोड़कर सीमा पारगमन की नयी चौकियां बनायी गयीं । लगभग 5 लाख पूर्वी जर्मनवासियों ने 11 नवम्बर को सीमा पार करके पश्चिमी जर्मनी के नगरों की यात्रा की । जर्मनवासियों का यह पुनर्मिलन था । दोस्त मित्र और रिश्तेदार ही नहीं अपरिचित लोग भी गले मिले मिलकर रोने या गाने लगे ।
जर्मनी का एकीकरण:
द्वितीय महायुद्ध के बाद दो हिस्सों में विभाजित जर्मनी 45 वर्ष 4 माह पश्चात् 3 अक्टूबर, 1990 को पुन: एक राष्ट्र के रूप में अवतरित हुआ । बिना युद्ध और संघर्ष की त्रासदी को झेले दो राज्यों का ऐसा हर्षोल्लासपूर्ण एकीकरण आधुनिक इतिहास में विस्मयकारी घटना के रूप में याद किया जाएगा ।
जर्मनी का एकीकरण द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद यूरोप की सबसे अभूतपूर्व बड़ी घटना है । भाषा, संस्कृति और रक्त सम्बन्धों से जुड़ा जर्मनी अब एक है । एकीकृत जर्मनी को अब अधिकारिक तौर पर ‘जर्मन संघीय गणराज्य’ के नाम से जाना जा रहा है ।
जर्मन एकीकरण के प्रश्न पर एक जमाने में पूर्वी जर्मनी के नेता एरिक होनेकर ने कहा था कि आग और पानी का मेल हो ही नहीं सकता लेकिन जर्मनी के लोगों में देश के विभाजन का दु:ख कितना गहरा था इसका अनुमान केवल इस बात से लगाया जा सकता है कि विभाजन के बाद उन्होंने राष्ट्रीय दिवस इसलिए मनाना बन्द कर दिया था कि जब राष्ट्र ही एक नहीं रहा तो राष्ट्रीय दिवस कैसा ?
7 नवम्बर, 1989 को होनेकर का पूर्वी जर्मनी की सत्ता से अपदस्थ होना 9 नवम्बर, 1989 को बर्लिन की दीवार का पतन 18 मार्, 1990 में पूर्वी जर्मनी में पहली बार स्वतन्त्र चुनाव होना और 1 जुलाई, 1990 को दोनों जर्मनियों का आर्थिक एकीकरण ऐसी घटनाएं थीं जिन्होंने जर्मन एकीकरण का रास्ता साफ कर दिया ।
इसके बाद 12 सितम्बर, 1990 को विश्व-युद्ध के चारों साथी देशों-ब्रिटेन, अमरीका फ्रांस और सोवियत संघ-ने एक समझौते द्वारा बर्लिन पर अपने कब्जे के शेष अधिकारों को भी समाप्त कर दिया । एकीकरण के बाद पूर्वी जर्मनी संयुक्त राष्ट्र संघ या अन्य अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का सदस्य नहीं रहा और विभिन्न देशों में कार्यरत उसके दूतावासों ने भी तुरन्त काम करना बन्द कर दिया ।
जर्मनी के एकीकरण द्वारा चांसलर हेल्मुट कोल ने जर्मनी और विश्व इतिहास में हमेशा के लिए अपना स्थान बना लिया है । जर्मन जनता की नजरों में हेल्मुट कोल बिस्मार्क की तरह महान नेता हैं जिन्होंने जर्मनी को उसका लुप्त गौरव और आत्म-सम्मान प्रदान किया ।
सोवियत संघ का विघटन:
सोवियत संघ क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व का सबसे बड़ा देश था । यह एशिया और यूरोप महाद्वीपों में फैला हुआ था । इस देश का विस्तार बाल्टिक सागर से प्रशान्त महासागर तक 9,600 किमी से अधिक तथा उत्तर से दक्षिण 4,800 किमी से अधिक था । सोवियत संघ की सीमाओं में 15 संघीय गणतन्त्र 20 स्वायत्तशासी गणतन्त्र तथा 8 स्वायत्तशासी क्षेत्र सम्मिलित थे ।
सोवियत संघ और सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाच्योव के पतन का आरम्भ तो 19 अगस्त, 1991 के असफल षड़यन्त्र से ही हो गया था पर इसका ठोस प्रमाण दिसम्बर, 1991 में मिला जब गोर्बाच्योव और बोरिस येल्तसिन ने एक समझौते द्वारा सोवियत संघ के सभी केन्द्रीय संस्थानों को समाप्त करने का निर्णय लिया ।
गोर्बाच्योव ने पार्टी के महासचिव पद से त्यागपत्र दे दिया इसकी केन्द्रीय समिति को भंग कर दिया पार्टी की जायदाद का राष्ट्रीयकरण कर दिया और 25 दिसम्बर, 1991 को राष्ट्रपति पद से छुटकारा पा लिया । 26 दिसम्बर, 1991 को सोवियत संघ का औपचारिक रूप से विघटन कर दिया गया तथा उसके गणराज्य स्वतन्त्र हो गए ।
महाकाय सोवियत संघ के सरहदी क्षेत्रों में जब जातीयता के तूफान ने अंगडाई ली तो गोरे रूसियों के महान् साम्राज्य की चूलें हिलने लगीं । सोवियत संघ में अलगाववाद की खुली लहर की एक वजह गोर्बाच्योव की उदारवादी नीतियां तो थी हीं, इसका काफी श्रेय पूर्वी यूरोप में हुई राजनीतिक उथल-पुथल को भी है । सोवियत संघ की अल्पसंख्यक जातियां पूछती थीं कि यदि चेकोस्लोवाकिया, पूर्वी जर्मनी, पोलैण्ड और हंगरी के लोग रूसी जुए को उतार फेंक सकते हैं तो हम क्यों नहीं ?
वारसा सन्धि को भंग करना:
1955 में वारसा पैक्ट पर हस्ताक्षर हुए थे । यह सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के 7 साम्यवादी राष्ट्रों का सैनिक गठबन्धन था । इस सन्धि की भूमिका में यूरोप में सामूहिक सुरक्षा की पद्धति को स्थापित करने पर बल दिया गया था । शीत-युद्ध के अन्त के साथ वारसा पैक्ट भी समाप्ति की ओर अग्रसर हुआ । 1 जुलाई, 1991 को वारसा पैक्ट समाप्त करने का समझौता हो गया ।
यूगोस्लाविया का विघटन:
यूगोस्लाविया निर्गुट आन्दोलन के संस्थापक राज्यों में से एक है । यूगोस्लाविया के तत्कालीन राष्ट्रपति मार्शल टीटो ने भारत के प्रधानमन्त्री पं. नेहरू तथा मिस्र के राष्ट्रपति कर्नल नासिर के साथ मिलकर निर्गुट आन्दोलन को जन्म दिया था । 1989-92 में भी यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति इस आन्दोलन के अध्यक्ष थे । इस आन्दोलन के कारण यूगोस्लाविया की प्रतिष्ठा विश्व राजनीति में शिखर पर प्रतिष्टित हो चुकी थी ।
शीत-युद्ध के काल में पूर्वी यूरोप के राज्यों में यूगोस्लाविया एकमात्र उदारवादी राष्ट्र रहा है । वह सोवियत संघ के गुट से पृथक् रहकर स्वतन्त्र रूप से अपनी समाजवादी नीतियों को क्रियान्वित करता रहा । वही यूगोस्लाविया आन्तरिक संघर्षों झगड़ों दंगों तथा जातीय विवादों के चंगुल में फंसकर विघटन के कगार पर पहुंच गया ।
अपने पड़ोसी देशों में आयी लोकतान्त्रिक क्रान्तियों की आधी में यूगोस्लाविया पूर्णत: अलग-थलग पड़ गया और राष्ट्रवादी उफान से उत्पन्न जातीय धृणा का शिकार होकर विघटन की प्रक्रिया से जूझने लगा । 1946 में संविधान द्वारा 6 गणराज्यों-सर्बिया, क्रोशिया, स्लोवेनिया, मेसोडोनिया, मोण्टेनिग्रो व बोस्निया-हर्जेगोविना- को संघीय गणराज्य घोषित किया गया था । वस्तुत: यूगोस्लाविया एक ऐसा राष्ट्र है जहां कई राष्ट्रीयताओं के लोग निवास करते हैं कई धर्म मतावलम्बी भी यहां हैं ।
प्रारम्भ में लोगों में पारस्परिक सद्भावना थी किन्तु अब स्थिति में परिवर्तन आया पारस्परिक सद्भावना का स्थान विद्वेष धृणा व अविश्वास ने ले लिया । यूगोस्लाविया के विघटन की प्रक्रिया जुलाई 1990 में उस समय प्रारम्भ हुई जब इसके एक गणराज्य सर्बिया के स्वायत्तशासी प्रान्त कोसोवो की अल्बानियाई जाति ने सर्बिया से अपनी पृथक स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी ।
अगस्त 1990 में क्रोशिया के मात्र 12 प्रतिशत सर्बियों ने स्वशासन की मांग को लेकर हुए जनमत संग्रह में सफलता प्राप्त कर ली । सितम्बर में ही सर्बिया के सान्दजाक क्षेत्र में सर्दियों और मुसलमानों के दंगे भड़क उठे तथा जातीय राष्ट्रवादी धृणा अपनी चरम सीमा पर पहुंच गयी । बोस्निया के मुसलमानों ने भी घोषणा कर दी कि यदि स्लोवेनिया और क्रोशिया ने यूगोस्लाविया महासंघ से सम्बन्ध-विच्छेद किया तो वे भी महासंघ से पृथकृ हो जाएंगे ।
45-वर्षीय साम्यवादी शासन के बाद 1990-91 में यह देश लोकतन्त्र की ओर अग्रसर हुआ और यहां 1990 के विद्रोह के बाद संघीय गणराज्य बन गया । किन्तु राष्ट्रवाद की आधी ने साम्यवाद के ध्वस्त होने के साथ-साथ यूगोस्लाविया को भी विघटित कर दिया ।
1991 में विघटित यूगोस्लाविया में पांच अन्तर्राष्ट्रीय इकाइयां अस्तित्व में आयीं । नए यूगोस्लाविया संघीय गणराज्य में सर्बिया और मोण्टेनिग्रो बने रहे । चार अन्य राज्यों ने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया और स्लोवेनिया, क्रोशिया, बोस्निया-हर्जेगोविना और मेसोडोनिया के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता ग्रहण करली ।
यूगोस्लाविया की संसद ने 4 फरवरी, 2003 को एक नया संविधान स्वीकार किया । इसके अन्तर्गत यूगोस्लाविया नाम को त्यागते हुए देश को ‘सर्बिया एवं मोटेनिग्रो’ के संघ के रूप में नया नाम दिया गया । नए संविधान के अन्तर्गत सर्बिया व मोंटेनिग्रो को एक संघ के रूप में बंधे रहने की बाध्यता तीन वर्षों के लिए रखी गई उसके बाद ये अलग-अलग दो स्वतन्त्र राष्ट्रों के रूप में विघटित हो सकते थे ।
सर्बिया के साथ जुड़े रहने या उससे अलग होकर स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आने के मुद्दे पर मोंटेनेग्रो में 21 मई 2006 को जनमत संग्रह कराया गया जिसमें 55.4 प्रतिशत मतदाताओं ने स्वतन्त्र राष्ट्र के पक्ष में मत दिया । इस आशय के जनमत संग्रह के पश्चात् मोंटेनेग्रो की संसद ने 3 जून, 2006 को स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी ।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने 22 जून, 2006 को मोंटेनेग्रो को संयुक्त राष्ट्र संघ का 192वां सदस्य बनाए जाने की संस्तुति की जिसके आधार पर महासभा ने 28 जून, 2006 को इसे 192वां सदस्य स्वीकार कर लिया । 17 फरवरी, 2008 को सर्बियाई प्रान्त कोसोवो (Kosovo) ने सर्बिया से अलग होकर स्वयं को एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया ।
स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में मान्यता के लिए कोसोवो ने सर्बिया सहित संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी सदस्यों को पत्र प्रेषित किये तथा संयुक्त राष्ट्र संघ में भी इसके लिए अनुरोध उसके द्वारा किया गया । कोसोवो की इस घोषणा को अमरीका व यूरोप ने जहां समर्थन प्रदान किया वहीं रूस, चीन, स्पेन व श्रीलंका सहित अनेक देशों ने उसके इस निर्णय की कड़ी आलोचना की ।
रूस ने कहा कि इससे विश्व के कई देशों में क्षेत्रीय अलगाववाद को बल मिलेगा जबकि अमरीका ऐसा पहला देश था जिसने 17 फरवरी को ही कोसोवो को मान्यता प्रदान कर दी । लगभग 20 लाख जनसंख्या वाले कोसोवो में 88 प्रतिशत जनसंख्या अल्वानियाई मूल की है तथा शेष 7 प्रतिशत जनसंख्या सर्बियाई ओर 5 प्रतिशत अन्य हैं ।
साम्यवादी गुट के विघटन के प्रभाव:
साम्यवादी गुट के विघटन से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर अनेक दूरगामी प्रभाव पड़े उनमें से कतिपय निम्न प्रकार हैं:
1. शीत युद्ध का अन्त:
साम्यवादी खेमे के विघटन ने शीत युद्ध को समाप्त कर दिया और तनाव रहित नई विश्व व्यवस्था का उदय हुआ । इसने विश्व में विशेषकर यूरोप में, लगभग आधी शताब्दी बाद शांति की स्थापना की है ।
2. रूस की भूमिका में परिवर्तन:
साम्यवादी गुट के बिखराव से रूस का अन्तर्राष्ट्रीय वजन कम हुआ, उसकी महाशक्ति की पदवी का पराभव हुआ, इसने रूस की बीमार और जर्जर होती अर्थव्यवस्था को उजागर कर दिया ।
3. साम्यवाद का पराभव:
साम्यवादी गुट के बिखराव से साम्यवाद का पराभव प्रारंभ हुआ; इसने लोकतांत्रिक केन्द्रीकरण, सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद और अन्तर्राष्ट्रीय समाजवाद के सिद्धांतों को दफनाया है । इसने यूरोप की साम्यवादी पार्टियों को समाजवादी पार्टियां और पीपुल्स डेमोक्रेसी को डेमोक्रेसी में बदल दिया है ।
4. विचारधारा के आधार पर राष्ट्रों का विभाजन अप्रासंगिक:
साम्यवादी गुट के विघटन ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा को अप्रासंगिक बना दिया है । आज राष्ट्रों को विचारधारा के आधार पर बांटा नहीं जाता और पूर्व-साम्यवादी देश अछूत नहीं कहलाते । रूस-अमरीका, अमरीका-चीन आर्थिक सम्बन्धों के आधार पर एक-दूसरे के निकट आ रहे हैं । साम्यवादी देश बाजार आधारित अर्थव्यवस्था को अपना रहे हैं ।
5. लोकतंत्र की सर्वव्यापकता:
साम्यवादी गुट के विघटन ने लोकतन्त्र को एक सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली ही प्रमाणित नहीं किया बल्कि उसकी सर्वव्यापकता को भी स्थापित कर दिया है । पूर्वी यूरोप में बही लोकतंत्र की बयार ने उन देशों की सर्वाधिकारवादी सरकारों को उखाड़कर वहां लोकतांत्रिक सरकारें ही स्थापित नहीं कीं बल्कि उसके प्रथम झटके जून 1989 की थियान-अन-मन की घटना द्वारा चीन में भी महसूस किये गये ।
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6. एक ध्रुवीय विश्व:
साम्यवादी गुट के बिखराव के बाद अमरीका विश्व की एकमात्र महाशक्ति है । वह विश्व का एकमात्र पुलिसमैन या महानायक है । उसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता उसका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं उसे कोई चुनौती नहीं दे सकता ।
वह प्रत्यक्ष या परोक्ष हस्तक्षेप द्वारा किसी क्षेत्र के संतुलन को बना या बिगाड़ सकता है । उसके पास परमाणु अस्त्रों की प्रचण्ड शक्ति ही नहीं अपितु आर्थिक क्षमता भी अत्यधिक है । वह राष्ट्रों पर दबाव डालने की स्थिति में है । संयुक्त राष्ट्र संघ ही नहीं विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी वित्त संस्थाएं भी उसकी मुट्ठी में हैं ।
7. परमाणु हथियारों से संबंधित चिंता:
सोवियत संघ के बिखराव के बाद चार गणराज्य-रूस, यूक्रेन, बेलारूस तथा कजाकिस्तान के हाथों में परमाणु हथियार आ गये, जिससे यह चिंता उत्पन्न हुई कि बदले परिप्रेक्ष्य में क्या ये गणराज्य परमाणु हथियारों की समुचित सुरक्षा कर पाएंगे या नहीं ।