ADVERTISEMENTS:
Read this essay in Hindi to learn about the collective security measures under the league of nations.
सामूहिक सुरक्षा की अवधारणा ने राष्ट्रसंघ के रूप में पहली बार संगठनात्मक रूप धारण किया । राष्ट्रसंघ के विधान की धारा 10 से 16 तक सामूहिक सुरक्षा से सम्बन्धित प्रावधानों की चर्चा की गयी है ।
विधान की धारा 10 में कहा गया है कि- “संघ के सदस्य उसके सभी सदस्यों की प्रादेशिक एकता एवं राजनीतिक स्वतन्त्रता का सम्मान करने तथा उन्हें बाह्य आक्रमण के विरुद्ध धमकी अथवा भय उत्पन्न होने की अवस्था में परिषद् उन साधनों के विषय में परामर्श देगी जिनसे इस उत्तरदायित्व को पूरा किया जा सकेगा ।”
धारा 16 के अन्तर्गत सदस्य राष्ट्र आवश्यकता पड़ने पर सामूहिक सुरक्षा के लिए उपयुक्त कदम उठाने को वचनबद्ध थे । इन प्रावधानों के बावजूद राष्ट्रसंघ के अन्तर्गत सामूहिक सुरक्षा पद्धति सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर सकी । संयुक्त राज्य अमरीका ने राष्ट्रसंघ की सदस्यता स्वीकार नहीं की सोवियत संघ राष्ट्रसंघ से बाहर रहकर अपनी शक्ति बढ़ाता रहा इंग्लैण्ड ने इसके अनुग्रह का उचित सम्मान नहीं किया और बाद के वर्षों में जापान जर्मनी और इटली ने खुलेआम इसकी अवहेलना की ।
प्रारम्भ से ही महाशक्तियां इसकी सदस्य नहीं बनीं और जिन देशों ने इसकी सदस्यता स्वीकार की वे सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था की विशेष समर्थक नहीं थीं । फ्रांस, जर्मनी के विरुद्ध सुरक्षा चाहता था और सोवियत संघ फासीवाद के प्रसार के विरुद्ध सुरक्षा के लिए चिन्तित था । सामूहिक सुरक्षा से सम्बन्धित राष्ट्रसंघ के विधान की धारा 10 से 16 को कभी क्रियान्वित ही नहीं किया गया ।
राष्ट्रसंघ के अन्तर्गत किए गए सामूहिक सुरक्षा के कतिपय कार्यों का विश्लेषण करने से इस व्यवस्था की बुनियादी कमजोरियां उभरकर सामने आ जाती हैं :
(i) कोर्फ़ू टापू का मामला:
सन् 1923 में जब इटली ने यूनान के कोई टापू पर बमबारी करके उस पर अपना अधिकार कर लिया तब यूनान ने राष्ट्रसंघ विधान के अनुच्छेद 16 के अन्तर्गत इटली के विरुद्ध राष्ट्रसंघ में अपील की । इटली ने इसके जवाब में यह तर्क दिया कि उसने कोई आक्रमणकारी कार्य नहीं किया है, अत: अनुच्छेद 16 उस पर लागू ही नहीं होता है ।
ADVERTISEMENTS:
राष्ट्रसंघ की परिषद ने इस समस्या को सुलझाने के लिए राजदूतों की एक सभा बुलाने का आदेश दिया । जिन शर्तों पर इस समस्या का समाधान हुआ वे स्पष्ट रूप से इटली के पक्ष में थीं । इस प्रकार राष्ट्रसंघ आक्रान्त की रक्षा करने और सुरक्षा एवं शान्ति भंग करने को मर्यादित करने में असमर्थ रहा ।
(ii) मंचूरिया काण्ड:
18 सितम्बर, 1931 को जापान ने मध्य मंचूरिया पर अधिकार कर लिया । चीन ने राष्ट्रसंघ के विधान की धारा 10,11,15 व 16 के अन्तर्गत जापानी आक्रमण से रक्षा के लिए राष्ट्रसंघ से प्रार्थना की । पर ब्रिटेन इस पक्ष में नहीं था कि राष्ट्रसंघ जापान के विरुद्ध कोई कारगर कार्यवाही करे ।
परिणाम यह हुआ कि 21 सितम्बर, 1931 को जब राष्ट्रसंघ परिषद ने एक प्रस्ताव द्वारा विवादग्रस्त पक्षों से अपनी-अपनी सेनाएं पीछे हटाने को कहा तो जापान ने इसकी कोई परवाह नहीं की । 9 अक्टूबर को चीन ने पुन: राष्ट्रसंघ से सुरक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की ।
ADVERTISEMENTS:
जब लड़ाई ज्यादा फैल गयी तब अमरीका ने अपने एक प्रतिनिधि को ही पेरिस की सन्धि के अनुसार कार्यवाही करने के लिए परिषद् के साथ बैठने का अधिकार दिया । जापानी प्रतिनिधि ने इसका घोर विरोध किया । राष्ट्रसंघ को अमरीका के इस सहयोग से राजनयिक क्षेत्रों में काफी उत्साह बढ़ गया ।
ऐसा समझा गया कि राष्ट्रसंघ ने जापान को खो दिया तो उसकी जगह पर अमरीका जैसा राष्ट्र उसे प्राप्त हो गया, किन्तु इस आशा पर तुरन्त पानी फिर गया । अमरीकी प्रतिनिधि ने यह घोषणा की कि कौंसिल की कार्यवाही में उसी सीमा तक भाग लेगा जिसका सम्बन्ध पेरिस पैक्ट से होगा ।
वास्तव में अमरीकी सरकार राष्ट्रसंघ में कोई सक्रिय भाग लेने के लिए अभी तैयार नहीं थी । राष्ट्रसंघ परिषद ने जापान से आग्रह किया कि वह मंचूरिया से अपनी सेनाएं हटा ले, परन्तु जापान ने अपने निषेधाधिकार से इसे रह कर दिया ।
19 नवम्बर, 1931 को जापान ने परिषद् के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया कि संघ का एक जांच कमीशन सुदूर-पूर्व भेजा जाए जिसमें ब्रिटेन अमरीका, फ्रांस तथा जर्मनी के प्रतिनिधि हों । बाद में 8 जनवरी, 1932 को जापान ने शंघाई पर अपना अधिकार कर लिया और चीन ने पुन: राष्ट्रसंघ का दरवाजा खटखटाया । 4 मार्च, 1932 को संघ की महासभा ने जापान को शंघाई खाली करने का आदेश दिया ।
जापान ने शंघाई तो खाली कर दिया पर मंचूरिया पर अपना कब्जा फिर भी जारी रखा । 18 फरवरी, 1932 को जापान ने मंचूरिया में मंचुकुओं नामक स्थान पर एक कठपुतली सरकार स्थापित कर दी । 21 फरवरी, 1933 को राष्ट्रसंघ महासभा ने एक और प्रस्ताव पास कुरके जापान की निन्दा की । पर जापान ने इस प्रस्ताव की भी उपेक्षा कर दी । राष्ट्रसंघ के अन्य सदस्य देशों ने जापान को सीधे रास्ते पर लाने के लिए मंचुकुओं सरकार की मान्यता देने से इन्कार तो कर दिया पर इसके अतिरिक्त और कुछ भी कार्यवाही नहीं की ।
चीन और जापान दोनों राष्ट्रसंघ के सदस्य थे और इस हैसियत से दोनों ने वायदा किया था कि वे किसी भी देश की प्रादेशिक अखण्डता का अतिक्रमण नहीं करेंगे । पर जापान राष्ट्रसंघ के एक सदस्य राष्ट्र पर खुले तौर पर आक्रमण कर उसके प्रदेशों पर अपना आधिपत्य जमा रहा था ।
राष्ट्रसंघ के विधान के अनुसार जापान को आक्रमणकारी घोषित किया जाना चाहिए था और आक्रमणकारी के विरुद्ध सैनिक तथा आर्थिक पाबन्दियां लागू करनी चाहिए थीं । जापान के नग्न और लज्जाहीन आक्रमण को केवल इसलिए भुला दिया गया कि पश्चिम के साम्राज्यवादी बड़े राष्ट्रों को उम्मीद थी कि जापान अन्तत: सोवियत संघ पर चढ़ाई करेगा । चीन और सामूहिक सुरक्षा के लिए उन्हें कोई परवाह नहीं थी ।
राष्ट्रसंघ के एक सदस्य पर बलात्कार होता रहा उसके विधान का उल्लंघन होता रहा लेकिन किसी ने इसको रोकने के लिए कोई सक्रिय या व्यावहारिक कदम नहीं उठाया । सामूहिक सुरक्षा का सारा सिद्धान्त एक कोरी कल्पना बन गया 1 इस कारण राष्ट्रसंघ पर से लोगों का विश्वास जाता रहा ।
(iii) अबीसीनिया पर आक्रमण:
सामूहिक सुरक्षा सिद्धान्त की सबसे कठोर परीक्षा इटली-अबीसीनिया युद्ध के दौरान हुई । मुसोलिनी ने 1 अक्टूबर, 1935 को अबीसीनिया पर हमले का आदेश दिया । राष्ट्रसंघ ने इटली को आक्रामक घोषित करके विधान की 16वीं धारा के अनुसार उसके विरुद्ध आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने के लिए एक समिति का संगठन कर दिया । इसके विरुद्ध मुसोलिनी ने राष्ट्रसंघ को धमकी दी ।
फिर भी, समिति ने राष्ट्रसंघ के सभी सदस्यों से अनुरोध किया कि वे इटली से अपने सब प्रकार के आर्थिक सम्बन्ध विच्छेद कर लें और उसे युद्धोपयोगी सामग्री देना बन्द कर दें । राष्ट्रसंघ के इतिहास में यह पहला अवसर था जब आक्रमणकारी के विरुद्ध आर्थिक पाबन्दियां लगाने का निर्णय किया गया ।
फ्रांस की स्थिति बड़ी विचित्र थी । उसे अपने ऐसे साथी के विरुद्ध पाबन्दियां लगानी पड़ीं जिसकी उसने हाल ही में अपना मित्र बनाया था । वह इटली पर अधिक दबाव नहीं डालना चाहता था । तेल पर पाबन्दी लगाने से मुसोलिनी के अबीसीनिया अभियान की अकाल मृत्यु हो सकती थी पर ब्रिटेन और फ्रांस इस पाबन्दी को लगाने नहीं देना चाहते थे ।
अबीसीनिया को लेकर ब्रिटेन इटली के साथ कोई युद्ध मोल नहीं लेना चाहता था । इस सम्बन्ध में होर-लावाल समझौता (ब्रिटिश विदेश सचिव तथा फ्रेंच विदेश सचिव) हो चुका था और इटली को आश्वस्त कर दिया गया कि उसे किसी खास कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ेगा ।
ADVERTISEMENTS:
फ्रेंच विदेश सचिव लावाल ने गुप्त रूप से मुसोलिनी को इस आशय का आश्वासन भी दे दिया । 1 मई 1936 को अबीसीनिया की राजधानी अदीसअबाबा पर इटली का अधिकार हो गया । 30 जून को अबीसीनिया के सम्राट हेल सिलासी ने सभा में स्वयं उपस्थित होकर राष्ट्रसंघ से सहायता की प्रार्थना की परन्तु राष्ट्रसंघ पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा ।
एक के बाद दूसरा देश प्रतिबन्ध उठा रहा था पश्चिमी राष्ट्र अबीसीनिया के प्रति अब किसी प्रकार की सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए उत्सुक नहीं थे । सोवियत प्रतिनिधि को छोड्कर सभा में किसी ने भी अबीसीनिया का समर्थन नहीं किया । इसके बाद ब्रिटेन और फ्रांस के प्रयास से अबीसीनिया राष्ट्रसंघ से निकाल दिया गया । नवम्बर, 1938 में ब्रिटेन और फ्रांस ने अबीसीनिया पर इटालियन आधिपत्य को मान्यता दे दी ।
प्रो. गेथोर्न हार्डी के अनुसार- “इटली की विजय राष्ट्रसंघ पर एक सांघातिक आघात था और इसके फलस्वरूप राष्ट्रसंघ का रहा-सहा प्रभाव भी जाता रहा; इस काण्ड से उसे ऐसा धक्का लगा जिससे वह कभी संभल नहीं सका । छोटे-छोटे राष्ट्र जो राष्ट्रसंघ और सामूहिक सुरक्षा के सिद्धान्त पर आश्रित थे, उनका विश्वास सदा के लिए राष्ट्रसंघ पर से उठ गया ।”
फ्रांस और ब्रिटेन के अपने राष्ट्रीय हित सामूहिक सुरक्षा की जरूरतों से टकराव में आ गए और इन दोनों राष्ट्रों ने अपने राष्ट्रीय हितों की सामूहिक सुरक्षा एवं शान्ति की जरूरतों से बढ्कर माना । वे सामूहिक सुरक्षा उपागम के माध्यम से अपने राष्ट्रीय हित आगे बढ़ाने को तत्पर न थे ।
डॉ. महेन्द्रमार के अनुसार- ”लेकिन यह निश्चय के साथ कहा जा सकता है कि, अबीसीनिया का मामला सामूहिक सुरक्षा के लिए अधिक कारगर कसौटी साबित हुआ, क्योंकि इस मामले में मंचूरिया के मामले की अपेक्षा अधिक जोर-शोर से सामूहिक सुरक्षा लागू करने की कोशिश की गयी थी ।” संक्षेप में, सप्तिहक सुरक्षा के विकास और लागू करने के साधन के रूप में राष्ट्रसंघ पूरी तरह दुविधाग्रस्त था तथा वास्तव में प्रारम्भ से ही शक्तिहीन था ।