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Here is an essay on ‘Contemporary International Security Scenario’ especially written for school and college students in Hindi language.
शीतयुद्धोत्तर विश्व में सुरक्षा के लिए उत्पन्न खतरों में गुणात्मक परिवर्तन हुए हैं । पारम्परिक रूप से, सुरक्षा के बाहरी खतरों पर राज्यों तथा विद्वानों दोनों के द्वारा ध्यान केन्द्रित किया जाता था । सुरक्षा को सदा ही सैनिक पक्ष से सम्बद्ध किया गया है ।
सभी राज्यों ने, चाहे वे शक्तिशाली हों या कमजोर, अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए शस्त्रास्त्र प्राप्त करने अथवा क्षेत्रीय खतरों के विरुद्ध सैनिक संधियां करने का मार्ग अपनाया ताकि वे विदेशी हस्तक्षेप से अपनी सुरक्षा कर सकें ।
20वीं शताब्दी के नौवें दशक के अन्त के दौरान शीतयुद्ध की समाप्ति ने एक बिल्कुल नए वैश्विक सुरक्षा परिवेश को जन्म दिया जिसमें अन्तःराज्यीय युद्धों के बजाय आन्तरिक युद्धों पर जोर था । 21वीं शताब्दी के प्रारम्भ में एक नया वैश्विक खतरा उभरा ।
संयुक्त राज्य अमेरिका में 11 सितम्बर, 2001 को हमलों ने अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद की नयी चुनौती को स्पष्ट रूप से दर्शा दिया, जबकि बाद की घटनाओं ने आणविक हथियारों के प्रसार और अन्य अपरम्परागत हथियारों से खतरों की चिन्ता को बढ़ा दिया । इसने समूचे विश्व के लोगों पर अपनी छाया डाली ।
आज अनेक देशों के भीतर विभिन्न वर्गों के मध्य गृहयुद्ध होते रहे हैं । शायद इनकी संख्या विभिन्न राष्ट्रों के बीच आपस में होने वाले युद्धों से अधिक है । लगभग 90 प्रतिशत हिंसात्मक संघर्ष गृहयुद्धों की श्रेणी में आते हैं । अफगानिस्तान, अंगोला, पूर्व-यूगोस्लाविया, केन्द्रीय अफ्रीकी गणराज्य, जॉर्जिया, हैटी, साइबेरिया, रुआंडा, सियरा सियोन, सोमालिया, ताजिकिस्तान आदि कुछ ऐसे देश हैं जहां गृहयुद्ध होते रहे हैं और इन संघर्षों में छोटे अस्त्र जैसे AK-47 राइफलें, हथगोले, भूमिगत सुरंगें आदि के प्रयोग से लाखों निर्दोष लोगों पर भीषण अत्याचार हुए और उनकी जानें गईं ।
नस्ली शुद्धता जो बोस्निया-हर्जेगोविना और रुआंडा में अपनायी गई, बालकों को सैनिकों के रूप में बलपूर्वक प्रयोग करना तथा महिलाओं पर सामूहिक बलात्कार कुछ ऐसे असभ्य एवं अभद्र आचरण हैं जो आधुनिक गृहयुद्धों में सामान्य बात बन गए हैं ।
एक अनुमान के अनुसार गृहयुद्धों में मरने वालों की संख्या लगभग 95 प्रतिशत है । हम कह सकते हैं कि शीतयुद्ध काल में राज्य केन्द्रित सुरक्षा की समस्या अब मानव सुरक्षा की समस्या में परिवर्तित हो गई है । पृथकतावाद एवं जातीय राष्ट्रवाद के अतिरिक्त कुछ अन्य तत्व हैं जो आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न करते हैं ।
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धार्मिक उग्रवाद, नशीली वस्तुओं के व्यापारी, अस्त्रों के व्यापारी आदि तत्वों ने भी अपने काले धन के साथ इस जाल को वृहद किया है । अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद ने तो राज्यों की सुरक्षा को संकट में डालते हुए राज्य व्यवस्था पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिए हैं । भारत तथा श्रीलंका दक्षिण एशिया में दशकों से आतंकवाद से पीड़ित हैं और अब यह रोग बांग्लादेश, नेपाल, मलेशिया, इंडोनेशिया, मिस्र, लेबनान, फिलिस्तीन, कीनिया, सोमालिया, सूडान आदि देशों में तेजी से फैल रहा है ।
आज के संघर्ष अनेक पेचीदगियों से भरे हैं- उनकी जड़ें मूलतः आन्तरिक हो सकती हैं तथापि सीमा पार की संलग्नता से वे पेचीदा हो जाते हैं । सीमा पार की यह संलग्नता देशों द्वारा या आर्थिक स्वार्थों एवं अन्य-गैर सरकारी तत्वों द्वारा हो सकती है ।
अफ्रीका के हाल के संघर्षों ने नागरिक संघर्ष और शस्त्रों की खरीद में वृद्धि के लिए प्राकृतिक संसाधनों, मुख्यत: हीरों के अवैध निर्यात के घातक सम्बन्ध को दर्शाया है । इसके अतिरिक्त अवैध हथियारों के प्रवाह आतंकवाद, मादक पदार्थों की तस्करी, शरणार्थियों की आवाजाही तथा पर्यावरणीय गिरावट के कारण संघर्षों के परिणाम शीघ्र ही अन्तर्राष्ट्रीय हो सकते हैं ।
अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए परिवेश:
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अशान्त क्षेत्र:
पिछले वर्षों में अफ्रीका, अमरीका महाद्वीप, एशिया-प्रशान्त, यूरोप अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से बारूद के ढेर पर बैठे देखे गए । दक्षिणी अफ्रीका में मोजाम्बिक (1992-94) एवं अंगोला (1975-2002) गृह-युद्ध से ग्रस्त रहे ।
अंगोला वर्ष 1975 में पुर्तगाल से देश की स्वाधीनता के समय से ही सरकारी एवं विरोधी सैन्य बल (यूनिटा) के बीच रुक-रुककर लेकिन विनाशकारी गृहयुद्ध को ग्रस्त किए रहा मध्य अफ्रीका रुआंडा एवं मध्य अफ्रीकी गणतन्त्र अशान्ति के केन्द्र रहे ।
रुआंडा में वर्ष 1990 में मुख्यत: हुतू सरकार एवं युगांडा से कार्यवाही कर रहे तुत्सी नेतृत्व वाले रुआंडी देशभक्त मोर्चा (आर.पी.एफ.) में लड़ाई छिड़ गई थी । 79 लाख की जनसंख्या वाले रुआंडा में 8 लाख लोग मारे गए, 20 लाख लोग दूसरे देशों में पलायन कर गए और 20 लाख लोग आन्तरिक रूप से विस्थापित हो गए ।
बरुंडी में लम्बे समय से चले आ रहे आन्तरिक संकट के फलस्वरूप वर्ष 1993 में सत्तापहरण का प्रयत्न किया गया जिसमें लोकतान्त्रिक ढंग से पहली बार निर्वाचित प्रेसिडेन्ट जो हुतू थे एवं छ: मन्त्री मारे गए । इसने गुटों की लड़ाई भड़का दी जिसमें बाद के तीन वर्षों में 1,50,000 लोगों के प्राण गए ।
रुआंडा में वर्ष 1994 के नरसंहार तथा वहां एक नई सरकार की स्थापना के बाद लगभग 12 लाख रुआंडी हुतू जिनमें नरसंहार में भाग लेने वाले तत्व भी थे, पूर्वी जाइरे के किनू प्रान्तों में भाग गए । यहां वर्ष 1996 में एक विद्रोह शुरू हुआ ।
इसमें लारेंग बिजाइरे काबिला के नेतृत्व में विद्रोही सैन्य बल जाइरे के प्रेसिडेन्ट मोबुतू सेसे सेको की सेना के विरोध में खड़े हो गए । वर्ष 1997 में जाइरे-कांगो की मुक्ति के लिए काबिला की लोकतांत्रिक सेनाओं के गठबन्धन ने, रुआंडा और युगांडा की सहायता से राजधानी किन्हासा पर अधिकार कर लिया और देश का पुनर्नामकरण कर ‘कांगो लोकतान्त्रिक गणतन्त्र’ रख दिया ।
इस गृहयुद्ध के फलस्वरूप 4,50,000 से भी अधिक लोग शरणार्थी और आन्तरिक रूप से विस्थापित हो गए । मध्य अफ्रीकी गणतन्त्र में लड़ाई तब शुरू हुई जब नौवें दशक के मध्य में सैनिकों ने कई विद्रोह किए । सूडान और डारफर संकट, सीरिया में मारकाट आदि ने भी विश्वशान्ति के लिए खतरा उत्पन्न कर दिया ।
पश्चिमी अफ्रीका में कैमरून-नाइजीरिया, कोटे द् आइवरी, लाइबेरिया, गिनी-बिसाऊ, सियरा-लियोन इथियोपिया-इरिट्रिया अशान्त क्षेत्र रहे हैं । चाड झील से बाकासी पर्वत शृंखला तक फैली 1600 किमी भूमि सीमा तथा गिनी खाड़ी में एक समुद्री सीमा से सम्बन्धित विषयों को लेकर कैमरून और नाइजीरिया के बीच तनाव भड़का और वर्ष 1993 के अन्त में तनाव सैन्य मुकाबले में बदल गए ।
दिसम्बर 1999 में जनरल रॉबर्ट गुई के नेतृत्व में कुछ अधिकारियों और सैनिकों ने कोटे द आइवरी में सत्ता में आए प्रेसिडेन्ट कोनान बेदाई की संवैधानिक सरकार का तख्ता पलट दिया । आठ वर्षों के नागरिक संघर्ष के बाद वर्ष 1997 में लाइबेरिया में एक लोकतान्त्रिक रीति से निर्वाचित सरकार की स्थापना हुई लेकिन राजनीतिक अस्थिरता और सुरक्षा बरकरार रही और वर्ष 1999 में सरकारी दस्तों और विद्रोही गुट लाइबेरियन्स यूनाइटेड फार रिकंसिलियेशन एण्ड डेमोक्रेसी के बीच लड़ाई छिड़ गयी ।
मई 2003 तक विद्रोही दस्ते देश के 60 प्रतिशत हिस्से पर नियन्त्रण कर रहे थे और हजारों लोगों के विस्थापन के साथ मानवीय स्थिति गम्भीर थी । गिनी-बिसाऊ और सियरा लियोन भी गृहयुद्ध के शिकार रहे । वर्ष 1991 में सियरा लियोन में क्रान्तिकारी संयुक्त मोर्चों के लड़ाकुओं ने सरकार उलटने के लिए देश के पूर्वी भाग से लड़ाई छेड़ दी । मई, 1998 में सीमावर्ती विवादग्रस्त क्षेत्रों को लेकर इथियोपिया तथा इरिट्रिया में लड़ाई छिड़ गयी ।
पिछले डेढ़ दशक में मध्य अमेरिका क्षेत्र भी अशान्त और असुरक्षित रहा है । निकारागुआ, एल साल्वाडोर, ग्वाटेमाला, हैती तथा कोलम्बिया जैसे देश गृहयुद्ध एवं विदेशी हस्तक्षेप के शिकार रहे हैं । ग्वाटेमाला में तीन दशकों तक गृहयुद्ध चलता रहा तथा 1996 में युद्ध विराम हुआ और लगभग 2 लाख लोग मारे गए । 1991 में एक सैन्य सत्तापहरण ने हैती में लोकतान्त्रिक शासन को समाप्त कर उसे अस्थिरता की ओर धकेल दिया ।
एशिया एवं प्रशान्त क्षेत्र में मध्यपूर्व का अरब-इजरायल संघर्ष, अफगानिस्तान, इराक, ईरान, भारत-पाकिस्तान, ताजिकिस्तान, कम्बोडिया, पापुआ न्यूगिनी अशान्त क्षेत्र रहे हैं । अरब-इजरायल संघर्ष का अब तक समाधान नहीं हो पाया । इनके कारण वर्ष 1956,1967 और 1973 में युद्ध हुए । वर्ष 1982 में दक्षिणी लेबनान एवं इजरायल-लेबनान सीमा पर गहन गोलाबारी के बाद इजरायली सेनाओं ने लेबनान में प्रवेश किया और बेरूत तक पहुंच कर उसे घेर लिया ।
अफगानिस्तान के गृहयुद्ध में 1995 में तालिबान गुट ने अधिकांश देश पर कब्जा जमाने के बाद देश को आतंकवाद एवं मादक पदार्थों की तस्करी के लिए उर्वर भूमि बना दिया । 11 सितम्बर, 2001 को बिन लादेन के अल कायदा गुट ने संयुक्त राज्य अमरीका में चार कॉमर्शियल जेट विमानों का अपहरण कर दो को न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर से टकरा दिया तथा एक पेंटागन से टकराया और लगभग 3000 लोग मारे गए ।
7 अक्टूबर, 2001 को अमरीका और ब्रिटेन की सेनाओं ने अफगानिस्तान में तालिबान के सैनिक ठिकानों और लादेन के प्रशिक्षण शिविरों पर मिसाइलों से हमले किए । तालिबान के पतन के पूर्व संयुक्त राष्ट्र बारूदी सुरंग सफाई कार्यक्रम ने अफगानिस्तान को विश्व में सर्वाधिक बारूदी सुरंगों वाला देश निरूपित किया ।
वहां आश्चर्यजनक रूप से 90 लाख 70 हजार बारूदी सुरंगें थीं । 2 अगस्त, 1990 को इराकी सैनिक शासक सद्दाम हुसैन की सेनाओं ने पड़ोसी राज्य कुवैत पर आक्रमण कर दिया । 17 जनवरी, 1991 को अमरीका के नेतृत्व में बहुराष्ट्रीय सेना ने इराक के विरुद्ध भीषण बमबारी आरम्भ कर दी । लगभग 40 दिन के धुआंधार बमबारी के बाद 24 फरवरी, 1991 को अमरीकी नेतृत्व में बहुराष्ट्रीय सेना ने जमीनी युद्ध आरम्भ कर दिया । 20 मार्च, 2003 को अमरीका ने इराक पर फिर हमला कर दिया ।
अमेरिका ने इस युद्ध को ‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ नाम दिया । अमरीका-ब्रिटेन गठबन्धन ने युद्ध के मुख्य कारण के रूप में तर्क दिया कि सद्दाम के (इराक के) पास नरसंहार के जैविक एवं रासायनिक हथियार थे, अत: मानवता के हित में उन हथियारों को नष्ट करने के लिए इराक पर हमला करना जरूरी हो गया था ।
मई 1999 में जभू-कश्मीर के करगिल क्षेत्र में घुसपैठिए भेजकर पाकिस्तान ने नियन्त्रण रेखा का उल्लंघन किया । श्रीलंका विगत 15 वर्षों तक गृहयुद्ध की मार झेलता रहा और 35 हजार से अधिक लोग मारे गये । सोवियत संघ के विघटन के बाद (1991) ताजिकिस्तान गृहयुद्ध की चपेट में आ गया ।
1991 के पेरिस समझौते के कार्यान्वयन से पूर्व कम्बोडिया एक गहरे आन्तरिक संघर्ष एवं अलगाव की स्थिति में था । बोगनविले द्वीप की स्वतन्त्रता के लिए एक दशक तक सशस्त्र संघर्ष चलता रहा और 30 अगस्त, 2001 को सम्बद्ध पक्षों ने बोगनविले शान्ति समझौते पर हस्ताक्षर किए ।
यूरोप में साइप्रास, जार्जिया, बाल्कन, कोसोवो, यूक्रेन और चैचेन्या आदि क्षेत्र अशान्त बने रहे हैं । वर्ष 1991 में स्वतन्त्र हुए जार्जिया गणतन्त्र से अबरवाजिया को पृथक् करने के प्रयत्न वर्ष 1992 में सशस्त्र मुकाबले में बदल गए, सैकड़ों लोग मारे गए तथा लगभग 30,000 लोग रूसी संघ में पलायन कर गए ।
वर्ष 1991 में पूर्व यूगोस्लाविया के दो गणतन्त्रों-स्लोवेकिया और क्रोशिया ने स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी । राष्ट्रीय सेना समर्पित क्रोशियाई सर्बों ने इस कदम का विरोध किया और सर्बिया तथा क्रोशिया के बीच लड़ाई छिड़ गई ।
लड़ाई तेज हो गई जिसने यूरोप में द्वितीय महायुद्ध के बाद सबसे बड़े शरणार्थी संकट को जन्म दिया । 1995 में क्रोशिया ने सर्ब जनसंख्या वाले क्षेत्रों में बड़े हमले किए । बोस्नाई सर्बों द्वारा सराजेवो की निरन्तर बमबारी के खिलाफ नाटो ने जबर्दस्त हवाई हमले शुरू किए ।
बोस्नाई सर्ब सेनाओं ने सेब्रेनिका तथा जेपा के सुरक्षित क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया और उन्होंने सेब्रेनिका में लगभग 7 हजार निहत्थे पुरुषों और लड़कों की हत्या कर दी । यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह सर्वाधिक बदतर नरसंहार था ।
वर्ष 1989 में यूगोस्लाविया संघीय गणतन्त्र ने कोसोवो में स्थानीय स्वशासन को समाप्त कर दिया जहां नब्बे प्रतिशत से अधिक नस्ली अल्बानियाई रहते थे । कोसोवो अल्बानियों ने असहमति व्यक्त की जिससे तनाव बढ़ गया ।
कोसोवो मुक्ति सेना ने सर्ब अधिकारियों एवं सर्ब प्रशासन का साथ देने वाले अल्बानियों पर हमले शुरू किए । मार्च 1999 में यूगोस्लाविया को चेतावनियों के बाद तथा कोसोवो में सर्बों के आक्रमण की पृष्ठभूमि में नाटों ने यूगोस्लाविया के खिलाफ हवाई हमले शुरू कर दिए ।
यूगोस्लाव सेनाओं ने कोसोवो मुक्ति सेना के खिलाफ हमले शुरू किए और कोसोवो से नस्ली अल्बानियाइयों के सामूहिक निष्कासन में जुट गया । इससे लगभग 8,50,000 शरणार्थियों के अभूतपूर्व प्रस्थान की स्थिति पैदा हो गई ।
सीरिया आज दुनिया का सबसे अशान्त देश बनकर उभरा है । आईएस का बढ़ता दबदबा और गृह युद्ध में मृतकों की लगातार बढ़ती संख्या इसका मुख्य कारण है । शरणार्थियों की समस्या बढ़ती ही जा रही है । एक अनुमान के अनुसार, इस समय इस क्षेत्र में लगभग 40 लाख से अधिक शरणार्थी हैं, ये शरणार्थी कई पड़ोसी देशों जैसे – लेबनान, तुर्की, मिस्र, जॉर्डन और इराक की ओर जा रहे हैं । सीरियाई शरणार्थियों के लिए यूरोप ने भी फिलहाल अपने द्वार खोल दिए हैं ।
इनमें जर्मनी सबसे आगे है जबकि फ्रांस, ब्रिटेन, हंगरी और रोमानिया ने शरणार्थियों के प्रति सकारात्मक रवैया नहीं अपनाया है । ग्लोबल पीस इंडेक्स में दर्ज टुनिया के दस सबसे अशान्त देशों में तीन एशियाई देश भी हैं, इनमें से अफगानिस्तान तीसरे, पाकिस्तान नौवें और दक्षिण कोरिया दसवें पायदान पर काबिज हैं ।
परम्परागत हथियार:
शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के समक्ष विश्व के अनेक भागों में राज्यों के भीतर संघर्षों के जन्म का सामना करना पड़ा जिनमें छोटे हथियार और हल्के हथियार पसन्दीदा हथियार थे । यद्यपि वे संघर्षों के मूल कारण नहीं थे तथापि इन हथियारों ने हिंसा को उत्तेजित कर दिया । उन्होंने बच्चों/नवयुवकों को लड़ाकुओं के रूप में इस्तेमाल को आसान बना दिया । छोटे हथियारों के विश्व व्यापार का 40 से 60 प्रतिशत अनुमानित भाग अवैध है ।
बारूदी सुरंगें:
आज समूचे विश्व में बारूदी सुरंगों का प्रसार एवं अनियन्त्रित उपयोग सुरक्षा को खतरे में डाल रहा है । प्रत्येक वर्ष हजारों लोग जिनमें अधिकांश बच्चे, स्त्रियां एवं वृद्धजन होते हैं इन ‘मौन हत्यारों’ द्वारा अपंग कर दिए जाते हैं या मार दिए जाते हैं । अफगानिस्तान, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो, इथियोपिया-इरिट्रिया, कोसोवो, दक्षिण लेबनान, सूडान, पूर्व यूगोस्लाव आदि क्षेत्र बारूदी सुरंगों से सर्वाधिक त्रस्त रहे हैं ।
मादक पदार्थ तस्करी:
मादक पदार्थों की तस्करी ने अनेक देशों को असुरक्षित कर दिया है । नौवें दशक के अन्त तक अफगानिस्तान विश्व की 80 प्रतिशत अवैध अफीम के स्रोत के रूप में बदनाम हो चुका था । अफीम हेरोइन का स्रोत है । उसकी कुल कृषि योग्य भूमि का का एक प्रतिशत भाग, लगभग 640 वर्ग किलोमीटर, अफीम की खेती के लिए उपयोग होता था ।
अक्टूबर, 2003 को संयुक्त राष्ट्र मादक पदार्थ अपराध कार्यालय ने सूचना दी कि अफगानिस्तान विश्व की अफीम के दो-तिहाई भाग की पूर्ति कर रहा है । लगभग 10 लाख 70 हजार अफगान, राष्ट्रीय जनसंख्या का लगभग 7 प्रतिशत भाग, इस उद्योग में लगे हुए हैं । वर्ष 2008-09 में वहां लगभग 9 हजार टन अफीम पैदा हुई ।
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत और उसके तीन पड़ोसी देशों पाकिस्तान, अफगानिस्तान और म्यांमार को उन 22 देशों की सूची में शामिल किया है, जो सबसे अधिक मात्रा में अवैध मादक पदार्थ का उत्पादन करते हैं या उनकी सर्वाधिक अवैध तस्करी में शामिल हैं ।
इस सूची में इन देशों के अतिरिक्त बहामास, बेलिज, बोलीविया, कोलंबिया, कोस्टा रीका, डोमिनिकन गणराज्य, इक्वाडोर, एल-सल्वाडोर, ग्वाटेमाला, हैती, होंडुरास, जमैका, लाओस, मैक्सिको, निकारागुआ, पनामा, पेरू और वेनेजुएला शामिल हैं ।
ओबामा ने कांग्रेस को दी गई एक अधिसूचना में कहा कि बोलीविया, म्यांमार और वेनेजुएला मादक पदार्थों की रोकथाम के लिए अन्तराष्ट्रीय समझौतों के अन्तर्गत अपनी प्रतिबद्धताओं का पालन करने के लिए पर्याप्त या अर्थपूर्ण प्रयास करने में पिछले 12 महीनों में स्पष्ट रूप से असफल रहे हैं ।
सबसे असफल देशों की सूची:
विश्व की एक प्रतिष्ठित पत्रिका फॉरेन पॉलिसी ने अपनी ताजा वार्षिक रैंकिंग (2014) में भारत के पड़ोसी देशों, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका को सबसे असफल देशों की सूची में शामिल किया है । इस सूची में शामिल 60 देशों में पाकिस्तान को 12वें, म्यांमार को 18वें, बांग्लादेश को 25वें, नेपाल को 27वें, श्रीलंका को 29वें, और भूटान को 50वें स्थान पर रखा गया है ।
इस सूची में अफ्रीकी देश प्रमुखता से शामिल हैं । सूची में सबसे ऊपर स्थित 10 देशों में चाड, सूडान, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो, हैती, जिम्बाब्वे, अफगानिस्तान और इराक शामिल हैं । पाकिस्तान के बारे में रिपोर्ट में कहा गया है पाकिस्तान को वाशिंगटन के नीति नियामक धडों में लम्बे समय से विश्व का सबसे खतरनाक देश माना जाता है ।
अब पाकिस्तान न केवल पश्चिम के लिए बहुत खतरनाक है, बल्कि यह अपने लोगों के लिए भी बहुत बड़ा खतरा है । बांग्लादेश के बारे में रिपोर्ट कहती है कि हर पांच में से दो बांग्लादेशी गरीबी में जीवन बिता रहे हैं । किसी भी सुधार के अन्तर्गत यहां के पर्यावरण से भी लड़ना होगा । वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि समुद्र का स्तर अगर एक मीटर भी बढ़ जाएगा, तो देश का 17 प्रतिशत हिस्सा डूब जाएगा ।
रिपोर्ट में नेपाल के बारे में कहा गया है, संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, नेपाल दक्षिण एशिया का सबसे गरीब देश है और जब तक वहां शान्ति प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती, तब तक वहां बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं है । ऐसे भी संकेत हैं कि माओवादी अपना धैर्य खो रहे हैं और संघर्ष की ओर लौटने के बारे में सोच रहे हैं । श्रीलंका के बारे में रिपोर्ट कहती है, ताजा आंकड़ों में कहा गया है कि देश में संघर्ष के बाद से अब तक लगभग 3,27,000 लोग विस्थापित हुए हैं ।
आणविक शस्त्र:
विश्व की पांच परमाणु शक्तियां जहां विश्व को परमाणु अप्रसार की सीख देती हैं वहां दूसरी ओर सन् 1945 के बाद से उन्होंने हर नौ दिन में एक के औसत से परमाणु परीक्षण किए हैं । अगस्त, 1945 के आरम्भ में अमरीका के पास केवल दो परमाणु बम थे और हिरोशिमा तथा नागासाकी में उनके इस्तेमाल के साथ ही अमरीका का परमाणु बमों का भण्डार खाली हो गया था, लेकिन 29 अगस्त, 1949 को परमाणु बम की जानकारी और भण्डारण के क्षेत्र में अमरीकी एकाधिकार समाप्त हुआ, जब सोवियत संघ ने अपना पहला सफल परमाणु बम परीक्षण किया ।
इस तरह परमाणु शस्त्रों की दौड़ या प्रतियोगिता चल पड़ी । मई 1951 में अमरीका ने और नवम्बर 1952 में सोवियत संघ ने अपने प्रथम हाइड्रोजन शक्ति परीक्षण किए । 1952 में ब्रिटेन, 1960 में फ्रांस और 1964 में चीन भी परमाणु शस्त्रों की दौड़ में शामिल हुए ।
1974 में भारत ने भी पोखरण में आणविक विस्फोट कर दिखाया । अक्टूबर 1957 में रूसी स्पुतनिक के सफल परीक्षण के बाद अन्तर्महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्रों के युग का सूत्रपात हुआ । हथियारों की होड़ का ताजा उदाहरण है अमरीका का ‘न्यूट्रॉन बम’ ।
न्यूट्रॉन बम एक ऐसा बम है, जिसमें तीव्र विस्फोट नहीं होता और इसलिए सम्पत्ति का नाश भी कम-से-कम होता है, इसके विपरीत इसमें से मुक्त होने वाली न्यूट्रॉन गोलियों से मनुष्य और अन्य जीव-जन्तुओं के लिए तुरन्त और विलम्बित मृत्यु निश्चित है । न्यूट्रॉन पैशाचिक परमाणु हथियार है । इससे प्राणियों का संहार होगा तथा कारखानों व बैंक की रक्षा की जाएगी क्योंकि उनका सम्बन्ध मात्र लाभ से है, मानव मूल्यों से नहीं ।
अभी तक कुल आठ देश आणविक परीक्षण कर चुके हैं- अमरीका, सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, भारत, पाकिस्तान और उत्तरी कोरिया । सर्वाधिक आणविक हथियार भी अमरीका और रूस के पास ही हैं । इस दिशा में तीसरा देश जो तीव्रता से वृद्धि कर रहा है, चीन है ।
इन सात देशों के अतिरिक्त आठ देश ऐसे हैं जिनके पास परमाणु हथियार बनाने की क्षमता है, वे हैं – कनाडा, जर्मनी, इजरायल, इटली, जापान, दक्षिण अफ्रीका, स्वीडन व स्विट्जरलैण्ड । लगभग एक दर्जन देश ऐसे हैं जो अगले पांच-छ: वर्षों में ही अपना परमाणु बम बना सकते हैं ।
आज परमाणु विज्ञान के बारे में इतना अधिक साहित्य बाजार में आ गया है कि साधन और सुविधा मिलने पर कोई प्रतिभाशाली वैज्ञानिक बम बना सकता है । इनकी क्षमता का यदि अध्ययन करें तो यह जान कर आश्चर्य होता है कि इन हथियारों से वर्तमान विश्व को एक-दो बार नहीं, वरन् पूरे एक दर्जन बार नष्ट किया जा सकता है ।
अनेक वैज्ञानिकों का मत है कि अब तक जितने भी नाभिकीय परीक्षण हो चुके हैं और उनसे जितनी भी रेडियोधर्मिता फैल चुकी है वही अन्ततोगत्वा मानव जाति के लिए घातक सिद्ध होगी । परमाणु हथियारों के रूप में ऐसा सर्वव्यापी संकट उत्पन्न हो गया है कि जिसने समूची मानव जाति को महाविनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है ।
एक तरफ तो परमाणु राष्ट्र, परमाणु अप्रसार सन्धि का प्रचार करते रहे और दूसरी तरफ अपने परमाणु शस्त्रों के जखीरे में वृद्धि करते रहे । मई 1998 तक अमरीका ने 1,032, रूस ने 715, फ्रांस ने 210, ब्रिटेन ने 45, चीन ने 45, भारत ने 6 और पाकिस्तान ने 6 परमाणु परीक्षण किए ।
उत्तरी कोरिया ने भी 8 सितम्बर, 2006 को अपना पहला आणविक परीक्षण करके शान्ति प्रेमी राष्ट्रों को चिंतित कर दिया । 25 मई, 2009 को 2-5 किलो टन क्षमता का दूसरा भूमिगत परीक्षण करके उत्तरी कोरिया ने सारे विश्व को स्पष्ट संकेत दे दिए कि वह नाभिकीय हथियारों को बनाने की ओर अग्रसर है ।
रासायनिक एवं जैविक शस्त्रों के खतरे:
आज अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा को सर्वाधिक खतरा रासायनिक एवं जैविक शस्त्रों से है । एंथ्रेक्स की पुष्टि के बाद विश्व में जैव आतंकवाद का खतरा व्याप्त होता जा रहा है । रासायनिक एवं जैविक तत्वों के प्रयोग से ऐसी महामारियां फैल सकती हैं कि उनका उपचार सम्भव नहीं है ।
आतंकवाद:
आज सपूर्ण मानवता आतंकवाद से त्रस्त है । आतंकवाद ने सभी देशों की सुरक्षा को खतरे में डाल दिया है । आतंकवाद की अभिव्यक्ति कई रूपों में दिखायी देती है – आतंकवाद का पहला रूप मानव बम है – मानव बम एक ऐसा हथियार है, जिसकी काट अब तक विश्व की किसी भी सुरक्षा एजेन्सी, सरकार और सेना के पास नहीं है । आतंकवाद का दूसरा रूप सुगठित और समुचित रूप से वित्त पोषित संगठन के रूप में दिखायी देता है जो अपनी हिंसक और बलकारी गतिविधियों द्वारा सम्पूर्ण जनमानस को आतंकित करते हैं ।
आतंकवाद का तीसरा रूप राज्य प्रायोजित आतंकवाद है और चौथा रूप इस्लामिक आतंकवाद है । आज आतंकी संगठनों के पास विभिन्न प्रकार के घातक हथियार एवं विस्फोटक उपलब्ध हैं । नाभिकीय हथियार, रासायनिक हथियार और जैविक हथियार भी उनकी पहुंच की परिधि में हैं ।
11 सितम्बर, 2001 की घटना (वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर हुए हमले) के बाद विश्व पहले से ज्यादा असुरक्षित हो गया है । तब से आतंकवाद तेजी से बढ़ रहा है । अब तो यह दक्षिण-पूर्व एशिया, यूरोप, ब्रिटेन और अमरीका तक फैल गया है ।
अब यह माना जा रहा है कि विश्व चौथे विश्वयुद्ध की राह पर है, तीसरा विश्वयुद्ध ‘शीत युद्ध’ को माना गया । बर्लिन की दीवार गिरने (1989) और 9/11 के बीच का समय याद कीजिए । अमरीका एकमात्र महाशक्ति था, किन्तु अब ऐसा नहीं है ।
अमरीका के सामने अब सशक्त शत्रु हैं और वे हैं- अल कायदा और इस्लामी उग्रवाद । अल कायदा के खिलाफ शुरू किया गया अमरीकी अभियान एक लम्बे युद्ध में बदलता नजर आ रहा है । पूरा विश्व इस युद्ध की चपेट में है और भारत इसमें अग्रिम मोर्चे पर है ।
आतंक के जिस दर्द को भारत ने 2008 में 26/11 मुम्बई हमले के दौरान झेला था, अब उसी दर्द से पेरिस 13/11/2015 को कराह उठा । आतंकी नरसंहार में 129 लोग मरे, 352 घायल और 80 गम्भीर अवस्था में देखे गए । आईएस ने हमले की जिम्मेदारी लेते हुए कहा कि फ्रांस आगे भी उसका मुख्य निशाना रहेगा ।
पाकिस्तान के बारे में आज यह कहा जाने लगा है कि वह एएक असफल राज्य (The Failed State) है, अर्थात् वह विघटन और विखण्डन के कगार पर खड़ा है और वह कभी भी गर्त तक पहुंच सकता है । पहली बार पाकिस्तान स्वीकार कर रहा है कि इस घर को आग लग गई घर के चिराग से ।
पाकिस्तान में सक्रिय तालिबान का तीन सूत्री कार्यक्रम है- पाकिस्तान में इस्लामी राज्य व समाज व्यवस्था को लागू करना, भारत के साथ मैत्री का विरोध तथा अमरीका के प्रति दुश्मनी । आज स्वात घाटी में पाकिस्तान की हुकूमत कागज पर रह गयी है ।
अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए तन्त्र एवं प्रयत्न:
अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा को बरकरार रखना संयुक्त राष्ट्र के प्राथमिक उद्देश्यों में से एक है और इसके समादेश का केन्द्रीय भाग भी यही है । आपसी विवादों को युद्ध का रूप लेने से बचाने के लिए संयुक्त राष्ट्र कृत संकल्प है ।
अपने विवादों के समाधान के लिए बल का प्रयोग करने के बजाय विरोधी पक्षों को बात करने के लिए मनाने या अगर संघर्ष शुरू ही हो जाए तो उसे समाप्त कराने के लिए भी संयुक्त राष्ट्र से अपेक्षा की जाती रही है । संयुक्त राष्ट्र ने विगत कई दशकों में अनेक संघर्षों का अन्त कराया है । यह कार्य अक्सर सुरक्षा परिषद् की कार्यवाहियों से हुआ है जो अन्तराष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा के मुद्दों को निपटाने वाला प्राथमिक निकाय है ।
शान्ति और सुरक्षा को सुदृढ़ करने में सुरक्षा परिषद्, महासभा और महासचिव परस्पर पूरक भूमिकाएं अदा करते हैं । संयुक्त राष्ट्र कार्यवाहियों के अन्तर्गत संघर्ष निरोध, शान्ति स्थापना, शान्ति अनुरक्षण और शान्ति निर्माण जैसे मुख्य क्षेत्रों का समावेश है ।
सुरक्षा परिषद्:
संयुक्त राष्ट्र चार्टर – एक अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि-सदस्य देशों को अपने विवादों को शान्तिपूर्ण साधनों से इस तरह हल करने के लिए वचनबद्ध करता है जिससे अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा और न्याय को खतरा न पहुंचे । सदस्य राज्यों को किसी भी राज्य के खिलाफ बल प्रयोग या बल प्रयोग की धमकी से विलग रहना है । वे सुरक्षा परिषद् के सामने कोई भी विवाद पेश कर सकते हैं ।
सुरक्षा परिषद् संयुक्त राष्ट्र का अंग है । इसकी प्राथमिक जिम्मेदारी शान्ति एवं सुरक्षा को बनाए रखना है । इस चार्टर के अन्तर्गत सदस्य राज्य सुरक्षा परिषद् के निर्णयों को मानने और कार्यान्वित करने के लिए वचनबद्ध हैं । संयुक्त राष्ट्र के अन्य निकायों की सिफारिशों में सुरक्षा परिषद् के निर्णय जैसी समादेश शक्ति नहीं है, तथापि चूंकि ये रायें अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय की राय अभिव्यक्त करती हैं, वे स्थितियों पर असर डाल सकती हैं ।
सुरक्षा परिषद् के ध्यान में जब कोई विवाद लाया जाता है तो वह सामान्यत: सम्बन्धित पक्षों से अनुरोध करती है कि वे अपने विवाद को शान्तिपूर्ण उपायों से हल करें । यह शान्तिपूर्ण समाधान के लिए सम्बन्धित पक्षों से सिफारिशें कर सकती है और विशेष प्रतिनिधि नियुक्त कर सकती है या महासचिव से अपने सद्प्रभावों के उपयोग के लिए कह सकती है । कुछ मामलों में सुरक्षा परिषद् स्वयं जांच-पड़ताल एवं मध्यस्थता का कार्य हाथ में ले सकती है ।
जब किसी विवाद के कारण लड़ाई होती है तो सुरक्षा परिषद् उसके शीघ्रातिशीघ्र समाप्त होने की कोशिश करती है । अक्सर सुरक्षा परिषद् ने युद्ध विराम निर्देशों को जारी किया है और, वे व्यापक लड़ाइयों को रोकने में कारगर सिद्ध हुए हैं । शान्ति प्रक्रिया की सहायता करने के लिए सुरक्षा परिषद् संघर्ष क्षेत्र में सैन्य पर्यवेक्षकों या शान्ति स्थापना बल को तैनात कर सकती है ।
चार्टर के सप्तम अध्याय के अन्तर्गत सुरक्षा परिषद् को अपने निर्णयों को लागू करने के लिए उपाय करने के अधिकार हैं । यह निषेधों या प्रतिबन्धों को लागू कर सकती है अथवा समादेशों पर अमल को सुनिश्चित करने हेतु बल प्रयोग का अधिकार दे सकती है ।
कुछ मामलों में परिषद् ने सदस्य राज्यों के एक गठबन्धन या एक क्षेत्रीय संगठन अथवा व्यवस्था द्वारा सैन्य बल के प्रयोग को प्राधिकृत किया है । लेकिन सुरक्षा परिषद् ऐसी कार्यवाही केवल तब अन्तिम उपाय के रूप में करती है, जब विवाद के समाधान के शान्तिपूर्ण उपाय निष्फल हो जाते हैं ।
परिषद् ऐसी कार्यवाही यह तय कर लेने के बाद करती है कि शान्ति के लिए एक खतरा है, शान्ति का उल्लंघन किया जा रहा है या हमले की कार्यवाही मौजूद है । सुरक्षा परिषद् ने नरसंहार सहित अन्तर्राष्ट्रीय मानवीय एवं मानवाधिकार कानून के गम्भीर उल्लंघनों के दोषी लोगों को दण्ड देने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय ट्रिब्यूनलों का भी गठन किया है ।
महासभा:
संयुक्त राष्ट्र चार्टर (अनुच्छेद 11) महासभा को ”अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा को बनाये रखने के लिए सहयोग के सामान्य सिद्धान्तों पर विचार करने” का अधिकार देता है । यह महासभा को सदस्यों या सुरक्षा परिषद् अथवा दोनों को सिफारिशें देने का अधिकार भी प्रदान करता है ।
महासभा शिकायतों की अभिव्यक्ति और राजनयिक आदान-प्रदान हेतु एक फोरम उपलब्ध कराती है तथा कठिनाईपूर्ण विषयों पर सहमति ढूंढ़ने के उपायों को प्रस्तुत करती है । शान्ति संवर्धन को मजबूत बनाने के लिए उसने नि:शस्त्रीकरण, फिलिस्तीन के प्रश्न या अफगानिस्तान की स्थिति पर विशेष या आपात् विशेष अधिवेशन आयोजित किए ।
महासभा शान्ति एवं सुरक्षा विषयों पर अपनी प्रथम (निशस्त्रीकरण एवं अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा) समिति और अपनी चतुर्थ (विशेष राजनीतिक एवं औपनिवेशीकरण) समिति में विचार करती है । गत वर्षों में महासभा ने विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान एवं अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग पर घोषणाएं स्वीकार करके राष्ट्रों के मध्य शान्तिपूर्ण सम्बन्धों को बढ़ाने में सहायता पहुंचायी है ।
संघर्ष-निरोध:
विवादों को संघर्ष के रूप में परिवर्तित न होने देने तथा संघर्ष की आवृत्ति को रोकने की मुख्य रणनीतियां हैं:
(i) निरोधक कूटनीति:
निरोधक कूटनीति से तात्पर्य है, विवादों को उत्पन्न होने से रोकने के लिए कार्यवाही । विवाद संघर्षों का रूप धारण कर लें, उसके पूर्व ही उनका समाधान या जब संघर्ष शुरू हो तो उसके प्रसार की सीमाबन्दी । यह कार्यवाही मध्यस्थता, सुलह या समझौता वार्ता का रूप ले सकती है ।
पूर्व चेतावनी, निरोध का एक अनिवार्य हिस्सा है और संयुक्त राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा के लिए खतरों का पता लगाने हेतु समूचे विश्व में राजनीतिक एवं अन्य घटनाक्रमों की सावधानी से निगरानी करता है । इस तरह वह सुरक्षा परिषद् तथा महासचिव को निरोधक कार्यवाही के लिए सक्षम बनाता है ।
महासचिव के दूत एवं विशेष प्रतिनिधि समूचे विश्व में मध्यस्थता एवं निरोधक कूटनीति में संलग्न हैं । कुछ अशान्त क्षेत्रों में एक कुशल विशेष प्रतिनिधि की उपस्थिति मात्र तनाव को बढ़ने से रोक सकती है । यह कार्य अक्सर क्षेत्रीय संगठनों के घनिष्ठ सहयोग से किया जाता है । निरोधक कूटनीति के सम्पूरक हैं, निरोधक तैनाती एवं निरोधक निशस्त्रीकरण ।
(ii) निरोधक तैनाती:
निरोधक तैनाती से तात्पर्य है, सम्भावित संघर्ष को रोकने के लिए शान्ति अनुरक्षकों की तैनाती । इसका उद्देश्य है तनाव के क्षेत्रों में विश्वास का निर्माण कर, संघर्षों को सीमित रखने में सहायता के लिए एक ‘महीन नील रेखा’ स्थापित करना ।
अभी तक मात्र विशेष उदाहरण ये हैं – पूर्व यूगोस्लाव, मैसिडोनिया गणतन्त्र (यूगोस्लाव रिपब्लिक ऑफ मैसिडोनिया) एवं मध्य अफ्रीकी गणतन्त्र (सेन्ट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक) में संयुक्त राष्ट्र मिशन । अन्य संघर्षों में भी निरोधक तैनाती पर विचार किया गया और वह एक मूल्यवान विकल्प बना हुआ है ।
(iii) निरोधक नि:शस्त्रीकरण:
निरोधक नि:शस्त्रीकरण का उद्देश्य संघर्ष के मामले में संवेदनशील क्षेत्रों में छोटे हथियारों की संख्या कम करना है । एल सल्वाडोर, मोजाम्बिक तथा अन्यत्र इसने समूचे शान्ति समझौते के एक हिस्से के रूप में लडाकू बलों के विघटन, साथ ही उनके हथियारों को एकत्र एवं नष्ट करने का कार्य किया है । बीते कल के हथियारों को नष्ट करने का अर्थ यह है कि आने वाले कल के युद्धों में उनका प्रयोग नहीं हो सकेगा ।
शान्ति-निर्माण:
शान्ति-निर्माण से तात्पर्य है कूटनीतिक माध्यमों का उपयोग कर संघर्ष से सम्बद्ध पक्षों को लड़ाइयां बन्द करने एवं अपने विवाद के शान्तिपूर्ण समाधान के लिए बात करने के लिए राजी करना । संघर्षों को सीमित रखने, उनका समाधान करने तथा उनके मूल कारणों पर ध्यान देने के लिए संयुक्त राष्ट्र अनेक साधन प्रस्तुत करता है ।
सुरक्षा परिषद् किसी विवाद के समाधान के लिए रास्ते सुझा सकती है या महासचिव की मध्यस्थता का अनुरोध कर सकती है । महासचिव वार्ताओं की गति को प्रोत्साहित करने एवं उसे बरकरार रखने के लिए राजनयिक पहल कर सकते हैं ।
महासचिव शान्ति-निर्माण में एक केन्द्रीय भूमिका निभाते हैं, स्वयं व्यक्तिगत रूप से और विशिष्ट कार्यों, जैसे वार्ताओं या तथ्यान्वेषण कार्यों के लिए विशेष दूत या मिशन भेजकर । चार्टर के अनुसार- महासचिव अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा को खतरा पहुंचा सकने वाले किसी भी विषय को सुरक्षा परिषद् के ध्यान में ला सकते हैं ।
विवादों के समाधान में सहायता हेतु महासचिव मध्यस्थता या निरोधक कूटनीति अपनाने के लिए अपने ‘सद्प्रभावों’ का उपयोग कर सकते हैं । महासचिव की निष्पक्षता संयुक्त राष्ट्र की महान सम्पदाओं में से एक है । कई प्रसंगों में महासचिव शान्ति के लिए किसी खतरे को टालने या शान्ति समझौता उपलब्ध करने में कारगर सिद्ध हुए हैं ।
उदाहरण के लिए, ईरान-इराक के बीच 1980 से जारी युद्ध को 1988 में महासचिव के नेतृत्व में की गयी कार्यवाही ने समाप्त किया । अफगानिस्तान में महासचिव और उनके दूत की मध्यस्थता ने 1988 के समझौते का नेतृत्व किया जिसके फलस्वरूप देश से सोवियत सैनिकों की वापसी हुई । कम्बोडिया, मध्य अफ्रीका, साइप्रस, मध्यपूर्व, मोजाम्बिक और नामीबिया जैसे मामले दर्शाते हैं कि एक शान्ति-निर्माता के रूप में महासचिव कितने भिन्न तरीकों से शामिल होते हैं ।
शान्ति अनुरक्षण:
अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा के संवर्धन हेतु अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के पास संयुक्त राष्ट्र की शान्ति अनुरक्षण कार्यवाहियां एक महत्वपूर्ण उपकरण हैं । 1988 में संयुक्त राष्ट्र शान्ति अनुरक्षण बलों को नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया और इस तरह संयुक्त राष्ट्र की शान्ति अनुरक्षण की भूमिका को अन्तर्राष्ट्रीय रूप में स्वीकार किया गया ।
यद्यपि चार्टर में यह विशेष रूप में उल्लिखित नहीं है, तथापि संयुक्त राष्ट्र ने 1948 में मध्यपूर्व में संयुक्त राष्ट्र सन्धि पर्यवेक्षण संगठन की स्थापना के साथ शान्ति अनुरक्षण का नेतृत्व किया । शान्ति अनुरक्षण कार्यवाहियों एवं उनका उपयोग मेजबान देश एवं सामान्यत: अन्य शामिल पक्षों की सहमति से सुरक्षा परिषद् द्वारा प्राधिकृत किया जाता है । उनमें सैन्य एवं पुलिस कर्मियों के साथ नागर कर्मचारियों को शामिल किया जा सकता है ।
कार्यवाहियों में सैन्य पर्यवेक्षक मिशनों, शान्ति अनुरक्षण बलों अथवा दोनों का सम्मिश्रण हो सकता है । सैन्य पर्यवेक्षक मिशन शस्त्ररहित अधिकारियों से गठित होता है और जैसा कि दस्तूर है, यह किसी समझौते या युद्ध विराम के पालक की निगरानी करता है । शान्ति अनुरक्षण बलों के सैनकों के पास हथियार होते हैं, पर अधिकांश स्थितियों में वे केवल आत्म रक्षार्थ उनका उपयोग कर सकते हैं ।
शान्ति अनुरक्षण कार्यवाहियों के लिए सैन्यकर्मी सदस्य राज्यों द्वारा स्वेच्छा से उपलब्ध कराये जाते हैं । अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा उनकी वित्त-व्यवस्था की जाती है । भाग लेने वाले राज्यों को एक विशेष शान्ति अनुरक्षण बजट में मानक दर पर मुआवजा प्रदान किया जाता है ।
वर्ष 1948 से लगभग 130 देशों के 7,50,000 सैन्य, पुलिस तथा नागरिक कर्मियों ने इन कार्यवाहियों में भाग लिया, जिनमें से 1,910 से अधिक लोगों ने अपनी जानें गंवायीं । आज के संघर्ष अनेक पेचीदगियों से भरे हैं – उनकी जड़ें मूलत: आन्तरिक हो सकती हैं, तथापि सीमा-पार की संलग्नता से वे पेचीदा हो जाते हैं । सीमा-पार की यह संलग्नता देशों या आर्थिक हितों एवं अन्य गैर-सरकारी तत्वों की हो सकती हैं ।
अफ्रीका के हाल के संघर्षों ने नागरिक संघर्ष और शस्त्रों की खरीद में वृद्धि के लिए प्राकृतिक संसाधनों मुख्यत: हीरों के अवैध निर्यात के घातक सम्बन्ध को दर्शाया है । इसके अतिरिक्त अवैध हथियारों के प्रवाह, आतंकवाद, मादक पदार्थों की तस्करी, शरणार्थियों की आवाजाही तथा पर्यावरणीय गिरावट के कारण संघर्षों के परिणाम शीघ्र ही अन्तर्राष्ट्रीय हो सकते हैं ।
अपनी सार्वत्रिकता के कारण संयुक्त राष्ट्र कार्यवाहियां संघर्षों को निपटाने के साधनों के रूप में अनोखे लाभ पेश करती हैं । उनकी सार्वत्रिकता उनकी वैधता को बढ़ाती है तथा मेजबान देश की सार्वभौमिकता के निमित्त निहितार्थों को सीमित करती है । संघर्ष से बाहर के शान्तिपालक स्थानीय चिन्ताओं पर वैश्विक ध्यान केन्द्रित करने के साथ-साथ संघर्षरत पक्षों में वार्ता शुरू करा सकते हैं, ऐसे द्वार खोल सकते हैं, जो अन्यथा सामूहिक शान्ति प्रयासों के लिए बन्द ही रहते ।
किसी भी कार्यवाही की सफलता के लिए कतिपय पूर्व शर्तें दिनों-दिन स्पष्ट हो गयी हैं । इनमें इन बातों का समावेश है – युद्धरत लोगों में अपने मतभेदों को शान्तिपूर्ण ढंग से तय करने की हार्दिक आकांक्षा; एक स्पष्ट समादेश; अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा प्रबल राजनीतिक समर्थन; और कार्यवाही के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक संसाधनों का प्रावधान ।
इस समर्थन के लिए गैर-सरकारी कर्ताधर्ताओं के सकारात्मक लगाव की जरूरत हो सकती है । अफ्रीका के हाल के संघर्षों ने दर्शाया है कि निजी स्वार्थों द्वारा आर्थिक लाभ के लिए किस तरह नागरिक संघर्ष का दुरुपयोग किया जा सकता है । लेकिन इसके साथ ही यदि शान्ति को बढ़ाने के अन्तर्राष्ट्रीय प्रयासों के साथ निजी पूंजी के आगमन को समन्वित किया जाए तो संघर्ष के बाद अर्थव्यवस्था के पुनर्जीवन में एक अत्यावश्यक योगदान दे सकता है ।
अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय ने पिछली कार्यवाहियों से कुछ पाठ सीखे हैं और वह अनेक क्षेत्रों में संयुक्त राष्ट्र की शान्ति अनुरक्षण क्षमता को मजबूत बनाने के लिए कार्यरत है । महासचिव के राजदूत लखदर ब्राहिमी की अध्यक्षता वाले शान्ति कार्यवाहियों के पैनल के सुधारों के लिए रूपरेखा प्रस्तुत की है । इस पैनल ने अगस्त 2000 में अपनी रिपोर्ट जारी की ।
सुरक्षा परिषद् एवं अन्य निकाय इस समय इन अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रमुख विषयों पर ध्यान दे रहे हैं:
(1) तैयारी को बढ़ाना,
(2) तैनाती में तेज गति लाना,
(3) शान्ति अनुरक्षकों की प्रतिरोधक क्षमताओं को मजबूत बनाना,
(4) सदस्य राज्यों के पूर्ण राजनीतिक एवं वित्तीय समर्थन को सुनिश्चित करना ।
शान्ति अनुरक्षण कार्यवाहियों के कई रूप हो सकते हैं । बदलती परिस्थितियों के सन्दर्भ में वे निरन्तर विकसित हो रही हैं ।
गत वर्षों में शान्ति अनुरक्षण कार्यवाहियों द्वारा सम्पन्न कार्यों में शामिल हैं:
(a) युद्धविराम एवं सैन्यबलों के पृथक्करण को बनाए रखना:
पक्षों के बीच सीमित समझौते पर आधारित एक कार्यवाही समझौते के लिए अनुकूल वातावरण बना सकती है । वह पक्षों को दम लेने का अवसर देती है ।
(b) निरोधक तैयारी:
संघर्ष शुरू होने के पूर्व आयोजित कार्यवाही एक आश्वासनकारी उपस्थिति प्रदान करती है । वह राजनीतिक प्रक्रिया के लिए कुछ अंशों तक अनुकूल पारदर्शिता भी पैदा करती है ।
(c) मानवीय कार्यवाहियों को संरक्षण:
अनेक संघर्षों में राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए नागरिक जनसंख्या को जानबूझ कर लक्ष्य बनाया जाता है । ऐसी स्थितियों में शान्ति अनुरक्षकों को मानवीय कार्यवाहियों को संरक्षण एवं समर्थन प्रदान करने के लिए कहा गया है । तथापि ऐसे कार्य शान्ति अनुरक्षकों को कठिन राजनीतिक स्थितियों में डाल सकते हैं और उनकी अपनी सुरक्षा के लिए खतरे पैदा कर सकते हैं ।
(d) एक व्यापक शान्ति समाधान का कार्यान्वयन:
व्यापक शान्ति समझौते के आधार पर आयोजित पेचीदा, बहुआयामी कार्यवाहियां विविध प्रकार के कार्यों में सहायता पहुंचा सकती हैं, जैसे – मानवीय सहायता प्रदान करना, मानवाधिकारों की निगरानी, चुनावों का अवलोकन एवं आर्थिक पुनर्निर्माण में सहायता का समन्वय ।
क्षेत्रीय संगठनों से सहयोग:
शान्ति की खोज में संयुक्त राष्ट्र क्षेत्रीय संगठनों एवं अन्य कर्ताधर्ताओं तथा चार्टर के अष्टम अध्याय में प्रदत्त प्रक्रियाओं से अधिकाधिक सहयोग कर रहा है । हैती में अमेरिकी राज्यों के संगठन (आर्गनाइजेशन ऑफ अमेरिकन स्टेट्स), पूर्व यूगोस्लाविया में यूरोपीय संघ (यूरोपीय यूनियन), लाइबीरिया एवं सियरा लियोन में पश्चिमी अफ्रीकी देशों के आर्थिक समुदाय (इकानामिक कम्यूनिटी ऑफ वेस्ट अफ्रीकन स्टेट्स) और पश्चिमी सहारा, ग्रेट लेक्स रीजन, सियरा लियोन तथा इथियोपिया एवं इरिट्रिया में अफ्रीकी एकता संगठन (आर्गनाइजेशन ऑफ अफ्रीकन यूनिटी-ओएयू) के साथ संयुक्ता राष्ट्र संघ ने निकट होकर कार्य किया है ।
संयुक्त राष्ट्र सैन्य पर्यवेक्षकों ने लाइबीरिया, सियरा लियोन, जॉर्जिया और ताजिकिस्तान में क्षेत्रीय संगठनों में शान्ति अनुरक्षक बलों के साथ सहयोग किया है । पूर्व यूगोस्लाविया में संयुक्त राष्ट्र ने मानवाधिकारों, चुनावी सहायता, शान्ति-निर्माण एवं आर्थिक विकास के क्षेत्रों में यूरोपीय परिषद् (कौंसिल ऑफ यूरोप), यूरोप में सुरक्षा तथा सहयोग के निमित्त संगठन (आर्गनाइजेशन फॉर सिक्यूरिटी एण्ड कोआपरेशन इन यूरोप-ओ.एस.सी.ई.) के साथ सहयोग किया है । कोसोवो में पेचीदगी भरे मिशन ने संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ एवं ओ.एस.सी.ई. को परस्पर साथ एकत्र किया ।
उपायों को लागू करना:
चार्टर के सप्तम अध्याय के अन्तर्गत सुरक्षा परिषद् अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा की पुनर्स्थापना के लिए लागू किए जाने वाले उपाय अपना सकती है । ऐसे उपायों में आर्थिक प्रतिबन्धों से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय सैन्य कार्यवाहियां तक शामिल हैं ।
प्रतिबन्ध:
शान्ति के लिए खतरा उत्पन्न हो जाने तथा राजनयिक प्रयासों की विफलता के बाद सुरक्षा परिषद् ने लागू किए जाने वाले उपायों के रूप में समादेशित प्रतिबन्धों को अपनाया । गत दशक में इराक, पूर्व यूगोस्लाविया, लीबिया, हैती, लाइबीरिया, रुआंडा, सोमालिया, अंगोला में यू.एन.आई.टी.ए. सेनाओं, सूडान, सियरा लियोन, यूगोस्लाविया गणतन्त्र (कोसोवो सहित), अफगानिस्तान एवं इथियोपिया तथा इरिट्रिया के खिलाफ प्रतिबन्ध लगाए गए ।
इन प्रतिबन्धों की परिधि में व्यापक आर्थिक एवं व्यापार प्रतिबन्धों या अधिक विशिष्ट उपायों; जैसे हथियारों पर रोक, यात्रा-प्रतिबन्ध और वित्तीय तथा राजनीतिक पाबन्दियों का समावेश है । प्रतिबन्धों के प्रयोग का उद्देश्य है बिना बल प्रयोग के सुरक्षा परिषद् द्वारा निर्धारित लक्ष्यों के अनुपालन हेतु देश या घटक पर दवाब डालना ।
इस तरह प्रतिबन्ध सुरक्षा परिषद् को अपने निर्णयों के परिपालन हेतु महत्वपूर्ण माध्यम प्रदान करते हैं । ऐसे प्रतिबन्धों को लगाने एवं उनकी निगरानी करने में संयुक्त राष्ट्र का सार्वत्रिक रूप उसे एक विशिष्ट उपयुक्त निकाय बना देता है ।
इसके साथ ही अनेक देशों एवं मानवीय संगठनों ने आबादी के सर्वाधिक कमजोर हिस्सों, जैसे स्त्रियों एवं बच्चों पर ऐसे प्रतिबन्धों के सम्भावित विपरीत प्रभाव के बारे में चिन्ताएं व्यक्त की हैं । ऐसे प्रतिबन्धों के अन्य तीसरे देशों की अर्थव्यवस्था पर पड़ सकने वाले नकारात्मक प्रभाव पर भी चिन्ता व्यक्त की गयी है । इन देशों को प्रतिबन्धित देश के साथ व्यापारिक एवं आर्थिक सम्बन्धों को रोकना पड़ सकता है ।
यह बात अधिकाधिक रूप से स्वीकार की जाने लगी है कि प्रतिबन्धों के स्वरूप एवं कार्यान्वयन में सुधार की जरूरत है । प्रतिबन्धों के नकारात्मक प्रभावों को कम किया जा सकता है । इसके लिए सुरक्षा परिषद् के प्रस्तावों में मानवीय अपवादों का सीधे समावेश या फिर उनकी ओर बेहतर ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है ।
तथाकथित ‘चुस्त प्रतिबन्धों’ को समर्थन प्राप्त हो रहा है । ऐसे प्रतिबन्ध आम जनता की बनिस्बत सत्तारूढ़ लोगों पर दवाब डालते हैं और इस तरह मानवीय लागतों को घटा देते हैं । उदाहरण के लिए, चुस्त प्रतिबन्धों में वित्तीय सम्पदाओं के स्थिरीकरण और ऐसे विशिष्ट लोगों या वर्गों के वित्तीय लेन-देन को रोक देने का समावेश है, जिनके व्यवहार के कारण इन प्रतिबन्धों की शुरुआत हुई ।
सैन्य कार्यवाही को प्राधिकृत करना:
जब शान्ति-निर्माण के प्रयास असफल हो जाएं तब चार्टर के सप्तम अध्याय के तहत सदस्य राज्यों को कड़ी कार्यवाही का अधिकार दिया जा सकता है । सुरक्षा परिषद् ने सदस्य राज्यों के गठबन्धों को संघर्ष से निपटने के लिए सैन्य कार्यवाही सहित ‘सभी जरूरी साधनों’ के उपयोग का अधिकार दिया भी है ।
उदाहरण के लिए, इराक द्वारा कुवैत पर हमले के बाद कुवैत की प्रभुसत्ता की पुनःस्थापना के लिए (1991); सोमालिया में मानवीय राहत कार्यों के लिए सुरक्षित वातावरण की स्थापना हेतु (1992); रुआंडा में खतरे में पड़े नागरिकों की सुरक्षा में योगदान के निमित्त (1994); हैती में लोकतान्त्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार की पुनर्स्थापना के लिए (1994); अल्बानिया में मानवीय राहत कार्यों की सुरक्षा हेतु (1997); रऔर पूर्वी तिमोर में शान्ति एवं सुरक्षा की बहाली के लिए सैन्य कार्यवाही (1999) का अधिकार दिया गया ।
इन कार्यवाहियों के लिए यद्यपि सुरक्षा परिषद् ने स्वीकृति दी थी, तथापि इन पर पूरा नियन्त्रण भाग लेने वाले राज्यों का था । वे संयुक्त राष्ट्र की शान्ति अनुरक्षण कार्यवाही नहीं थीं – ऐसी कार्यवाही सुरक्षा परिषद् द्वारा आयोजित तथा महासचिव द्वारा निर्देशित की जाती है ।
शान्ति-निर्माण:
शान्ति की निर्मित करने वाली कार्यवाही में ऐसे उपाय शामिल हैं, जो संघर्षों को पुनःभड़कने से रोकते हैं । इसके अलावा उसमें शान्ति को मजबूत एवं स्थायी बनाने वाली संरचनाओं एवं व्यवहारों का समर्थन प्रदान करने का समावेश है ।
निरोधक शान्ति-निर्माण कार्यवाही में संघर्ष के मूल कारणों पर ध्यान देने के लिए व्यापक प्रकार की दीर्घकालिक राजनीतिक, संस्थानात्मक एवं विकासात्मक गतिविधियां शामिल हैं । संघर्ष के बाद शान्ति-निर्माण में संघर्ष को पुन: होने से रोकने तथा शान्ति-प्रक्रिया को मजबूत बनाने के सभी उपायों का समावेश है । इस तरह टिकाऊ शान्ति की नींव रखी जाती है ।
संयुक्त राष्ट्र शान्ति-निर्माण में पांच मुख्य गतिविधियां शामिल हैं । प्रथम, सैन्य एवं सुरक्षा क्षेत्रों के लिए – इसमें नि:शस्त्रीकरण, लड़ाकू दलों का विघटन एवं पुनरेकीकरण तथा हथियारों को नष्ट करना शामिल है । द्वितीय गतिविधि का सम्बन्ध मानवीय गतिविधियों से है, जैसे शरणार्थियों का प्रत्यर्पण एवं संघर्ष से प्रभावित बच्चों की देखभाल ।
राजनीतिक कार्यवाही एक अन्य क्षेत्र है । इसमें संस्था-निर्माण और बेहतर शासन की मजबूती, संवैधानिक सुधार एवं चुनाव का समावेश है । एक और क्षेत्र मानवाधिकारों का है । इसके अन्तर्गत मानवाधिकारों की निगरानी, न्यायपालिका एवं पुलिस में सुधार और मानवाधिकारों के उल्लंघनों की जांच-पड़ताल आती है । अन्त में आर्थिक तथा सामाजिक उपायों में संघर्ष में ध्वस्त संरचना का पुनर्निर्माण, आर्थिक एवं सामाजिक अन्याय का निराकरण, बेहतर शासन के लिए वातावरण की सृष्टि तथा आर्थिक विकास शामिल हैं ।
संघर्ष के मूल कारणों पर ध्यान देकर शान्ति-निर्माण प्रक्रिया संकटों के शान्तिपूर्ण समाधान को बढ़ाने वाले उपायों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाती है । हैती, गिनी-बिसाऊ और मध्य अफ्रीकी गणतन्त्र (सेन्ट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक) सहित कुछ मामलों में एक पूर्ण गृहयुद्ध नहीं हुआ, तथापि स्थिरता एवं संघर्ष की रोकथाम के लिए शान्ति-निर्माण गतिविधियां एक आवश्यक साधन हो सकती हैं ।
शान्ति-निर्माण में संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के विश्व बैंक सहित अनेक विभिन्न संगठनों, क्षेत्रीय आर्थिक एवं अन्य संगठनों, गैर-सरकारी संगठनों एवं स्थानीय नागरिकों के समूहों के कार्य शामिल हैं । कम्बोडिया, एल-साल्वाडोर, ग्वाटेमाला, मोजांबिक, लाइबेरिया, बोस्निया एवं हर्जेगोविना तथा सियरा लियोन, साथ ही अभी हाल में कोसोवो एवं पूर्वी तिमोर में सम्पन्न संयुक्त राष्ट्र कार्यवाहियों में शान्ति-निर्माण ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है ।
लोकतन्त्र के निर्माण एवं उसकी मजबूती के लिए संयुक्त राष्ट्र सहायता अक्सर एक माध्यम सिद्ध हुई है । इसमें कई बार सशस्त्र विपक्षी आन्दोलनों को स्वयं को राजनीतिक दलों में रूपान्तरित करने, राजनीतिक जीवन में पूर्णत: एकाकार होने में सहायता देना अनिवार्य हुआ है । मोजांबिक, एल साल्वाडोर तथा ग्वाटेमाला में ऐसा ही हुआ है ।
महासचिव के प्रतिनिधियों को बहुधा शान्ति-निर्माण गतिविधियों के समन्वय तथा शान्ति-निर्माण के लिए सहायता कार्यालयों के प्रमुख के पद पर नियुक्त किया गया है । उदाहरण के लिए, लाइबीरिया, गिनी-बिसाऊ एवं मध्य अफ्रीकी गणतन्त्र (सेन्ट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक) में ऐसे कार्यालय मौजूद हैं । इनका उद्देश्य संघर्षों की पुनरावृत्ति को रोकने में सहायता पहुंचाना तथा स्थायी शान्ति को बढ़ावा देना है ।
अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से सयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में सम्पन्न निम्नांकित सन्धियां महत्वपूर्ण हैं:
(i) आंशिक आणविक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (1963);
(ii) अणु अप्रसार सन्धि (1968);
(iii) जैविक हथियार अभिसमय (1972);
(iv) स्टार्ट-I (1991) तथा स्टार्ट-II (1993) सन्धि;
(v) रासायनिक हथियार अभिसमय (1997);
(vi) व्यापक आणविक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (सी.टी.बी.टी.), 1996;
(vii) आतंकवाद को वित्तपोषण बन्द करने हेतु अभिसमय, 2001;
(viii) अमरीका व रूस के मध्य नई ‘स्टार्ट सन्धि’, 9 दिसम्बर, 2009;
(ix) संयुक्त राष्ट्र हथियार व्यापार सन्धि, दिसम्बर 2014 ।
वैश्विक अर्थव्यवस्था पर युद्ध और हिंसा के प्रभावों का आकलन:
2014 के वैश्विक अर्थव्यवस्था पर युद्ध और हिंसा के आर्थिक प्रभावों का आकलन किया गया, जो कि आश्चर्यजनक रूप से 14.3 ट्रिलियन डॉलर है । दूसरे शब्दों में कहें तो, यह विश्व के सकल घरेलू उत्पाद जीडीपी का 13.4 प्रतिशत है । यह ब्राजील, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन और ब्रिटेन के संयुक्त आर्थिक उत्पाद के बराबर है ।
कह सकते हैं कि युद्ध और हिंसा ने राजनीतिक अस्थिरता को ही नहीं बढ़ाया है, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के सामने आर्थिक अनिश्चयता का संकट भी पैदा कर दिया है । यह ऐसा संकट है, जिसके बारे में निश्चित तौर पर कहा जा सकता है, कि विश्व समुदाय और वैश्विक ताकतें इसे हल कर सकती हैं, किन्तु पूंजीवादी व्यवस्था का संकट और विश्व अर्थव्यवस्था को अपने नियन्त्रण में रखने की लड़ाई ने, न सिर्फ समस्या के समाधान की मुश्किलें बढ़ाई हैं, बल्कि आज जो वैश्विक संकट है, उसकी वजह भी वे ही ताकतें हैं ।
जिसका परिणाम विश्व की आम जनता और युद्ध एवं हिंसा के चपेट में आये देशों की आम जनता को चुकाना पड़ रहा है । हम मुक्त व्यापार और नवउदारवादी वैश्वीकरण के उस दौर में हैं, जहां युद्ध, आतंक और हिंसा को साम्राज्यवाद के विस्तार का जरिया बना लिया गया है ।
‘ग्लोबल पीस इंडेक्स’ की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार- जिसे इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक्स एण्ड पीस थिंकटैंक ने संकलित किया है- “2008 से इस खर्च में 1.9 ट्रिलियन डॉलर की वृद्धि की गयी है, जो 15.3 प्रतिशत वृद्धि है ।”
इस रिपोर्ट में यह परिभाषित किया गया है, कि हिंसा का आर्थिक प्रभाव विश्व अर्थव्यवस्था के प्रवाह और विस्तार पर क्या पड़ रहा है ? और उसका प्रभाव आर्थिक संसाधन तथा संचालन खर्च पर, हिंसाग्रस्त उन क्षेत्रों के गैर उत्पादक क्षेत्र में बदलने से वैश्विक अर्थव्यवस्था पर कितना पड़ रहा है ?
स्वाभाविक रूप से ऐसे क्षेत्रों में उनके कुल खर्च का ज्यादातर हिस्सा आन्तरिक संघर्षों की वजह से होने वाले विस्थापन (पलायन), सैन्य खर्च और आन्तरिक सुरक्षा के लिए पुलिस पर होता है । यह वह खर्च है, जिससे न तो उस देश की अर्थव्यवस्था को कोई लाभ मिलता है, न ही वैश्विक अर्थव्यवस्था में उनकी जो आर्थिक हिस्सेदारी थी, उस पर प्रभाव पड़ता है ।
उनकी हिस्सेदारी लगातार घटती जाती है और उनके साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था भी संकटग्रस्त हो जाती है । उनके आर्थिक संसाधान का सबसे बड़ा हिस्सा गैर-उत्पादक क्षेत्र में खर्च हो जाता है । आर्थिक विकास और लोगों के जीवन स्तर में सुधार की सम्भावनाएं भी युद्ध और आतंक की वजह से संकटग्रस्त हो जाती हैं ।
इस तरह सेना, आन्तरिक सुरक्षा और शरणार्थियों पर आने वाला खर्च वैश्विक वित्त व्यवस्था के न सिर्फ विकास को रोक रहा है, बल्कि उसे तेजी से खोखला भी करता जा रहा है । वर्ष 2014 में सेना पर किया गया खर्च 3 ट्रिलियन डॉलर से भी ज्यादा रहा है । जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका का खर्च 1.3 ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक है ।
इस अध्ययन से यह सच भी सामने आया है कि सैन्य अभियानों सहित सेना, आन्तरिक सुरक्षा के लिए पुलिस और लोगों की सुनियोजित राजनीतिक एवं आतंकियों के द्वारा किए जा रहे हत्या, तीनों का संयुक्त खर्च सबसे ज्यादा, कुल खर्च का 68.3 प्रतिशत है । शेष खर्च में ही शरणार्थियों पर किया जाने वाला खर्च है । शरणार्थी और हिंसा तथा युद्धग्रस्त देशों में, आन्तरिक पलायन के लिए विवश लोगों के सहयोग के लिए किया जाने वाला खर्च 2008 से 2014 में 267 प्रतिशत बढ़ गया है ।
यह खर्च लगभग 128 बिलियन डॉलर है । ऐसे विस्थापितों की कुल संख्या 2014 में 59.5 मिलियन हो गयी है, जोकि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का सबसे बड़ा पलायन और विस्थापन है और 2015 में भी इसके रुकने या घटने की तिल भर भी सम्भावनाएं नहीं हैं, क्योंकि यूरोपीय संघ के सदस्य देश और अमेरिकी सरकार एशिया और अफ्रीका में अपने सैन्य अभियानों में तेजी ला रहे हैं, आतंकवाद के खिलाफ जारी सैन्य अभियानों ने आतंकवाद को बढ़ाने का काम किया है ।
इन विपरीत परिस्थितियों में राष्ट्रसंघ के द्वारा किए जा रहे शान्ति प्रयासों पर आने वाला खर्च 0.17 प्रतिशत से भी कम है । शरणार्थियों के मामले में यूरोपीय संघ की नीतियां एशिया और अफ्रीका से हो रहे पलायन को रोकने के लिए सैन्य कार्यवाही की है और जो यूरोप में घुस आए हैं, उन्हें वापस अपने देश में खदेड़ने की है ।
जिसके लिए वह अमेरिकी सरकार सहित खुद जिम्मेदार हैं, उसके प्रति उनकी नीतियां पूरी तरह अमानवीय हैं; किसी भी देश को बूचड़खाने में डालना है । जिसके लिए यूरोपीय संघ ने दस सूत्रीय कार्यक्रम की घोषणा की है ।
अमेरिकी सरकार के साथ वह उन क्षेत्रों में विस्तृत सैन्य अभियान की नयी शुरुआत कर रहा है, जहां उन्हीं के दिए गए हथियारों, आर्थिक सहयोग एवं कूटनीतिक समर्थन से आतंकी गुट साम्राज्यवादी हितों के लिए आम लोगों की हत्याएं कर रहे हैं । पलायन और शरणार्थियों की समस्या भी इन्हीं यूरो-अमेरिकी हमले और उन्हीं के पाले-पोसे हुए आतंकी हत्यारों की वजह से है ।
हाल के समय में अमेरिकी साम्राज्य के निशाने पर सीरिया, अफगानिस्तान और इराक हैं । नाम लीबिया का भी लेना जरूरी है, जहां अब कोई भी केन्द्रीय सरकार नहीं है और हथियारों से लैस आतंकी और मिलिसियायी गुट आपस में लड़ते हुए लोगों को मार रहे हैं; जहां से लोगों का पलायन अपने चरम पर है ।
कर्नल गद्दाफी की हत्या के बाद से ही लीबिया के सुख, शान्ति एवं समृद्धि तथा केन्द्रीय सरकार की हत्या हो गयी । जिसकी अर्थव्यवस्था आज पूरी तरह से ध्वस्त हो गयी है । जिस पर अधिकार जमाने और जिसके प्राकृतिक गैस एवं तेल के भण्डार को अपने नियन्त्रण में लेने के लिए लीबिया पर हमले किए गए ।
जिसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ, कि लीबिया की अर्थव्यवस्था ही ध्वस्त नहीं हो गयी, बल्कि उसके सहयोग से अफ्रीकी देशों के आर्थिक विकास और वैश्विक अर्थव्यवस्था पर उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा । यही स्थिति आज सीरिया, अफगानिस्तान और इराक की है, जिनके प्राकृतिक संसाधन और उनकी बची हुई अर्थव्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा युद्ध और युद्ध के खर्च में बर्बाद हो रहा है ।
पिछले 4 वर्षों से भी ज्यादा समय से सीरिया, अमेरिका और उसके सहयोगी देशों- यूरोप और अरब जगत के द्वारा भड़काए गए गृहयुद्ध और अब अमेरिका के हवाई हमलों से बर्बाद हो रहा है । एक ठोस अनुमान के अनुसार- ”अमेरिका के द्वारा भड़काए गए गृहयुद्ध और थोपे गए युद्ध ने सीरिया के कुल जीडीपी के 42 प्रतिशत हिस्से को इन विपरीत स्थितियों के हवाले कर दिया है ।”
दूसरे शब्दों में कहें तो, सीरिया को अपने जीडीपी का 42 प्रतिशत गृहयुद्ध पर खर्च करना पड़ा है । अफगानिस्तान ने वर्ष 2014 में अपने जीडीपी का 31 प्रतिशत सेना और पुलिस पर खर्च किया और इराक ने अपने जीडीपी का 30 प्रतिशत सेना और पुलिस पर खर्च किया ।
यदि इन देशों में अमेरिकी हस्तक्षेप नहीं होता, या राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर के तख्तापलट या उसकी कोशिश नहीं की गयी होती, तो इन खर्चों की कोई जरूरत ही नहीं थी । ‘ग्लोबल पीस इण्डेक्स’ की रिपोर्ट में सीरिया को विश्व का सबसे अशान्त देश घोषित किया गया है । लीबिया इस गिरावट एवं पतन के सातवें नम्बर पर है और यूक्रेन इस पतन का अनुभव करने वाला दूसरे नम्बर का देश है ।
मध्य-पूर्व एशिया और उत्तरी अफ्रीकी क्षेत्र के देशों में पतन एवं गिरावट की स्थितियां सबसे अधिक हैं जहां संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय देशों के द्वारा लगातार सैन्य अभियान चलाया जा रहा है । इस गिरावट, पतन और विश्व के सबसे अशान्त एवं असुरक्षित पांच देश – सीरिया, इराक, अफगानिस्तान, दक्षिण सूडान और मध्य अफ्रीकी रिपब्लिक हैं । संयुक्त राज्य अमेरिका का नम्बर 94 है, पेरू और सऊदी अरब के बीच में । इस सूची में 162 देशों को शामिल किया गया है ।
इस सूची में संयुक्त रूप से यूरोपीय देशों को विश्व का सबसे शान्त एवं सुरक्षित क्षेत्र माना गया है । जिसके शीर्ष पर आइसलैण्ड है । डेनमार्क, आस्ट्रिया, न्यूजीलैण्ड, स्विट्जरलैण्ड, फिनलैण्ड, कनाडा, जापान, ऑस्ट्रेलिया और चेक रिपब्लिक सबसे ज्यादा सुरक्षित एवं शान्त देश हैं ।
वैसे यूरोप की शान्ति और सुरक्षा उसी आयातित समृद्धि के साथ ही आर्थिक संकट और आन्तरिक परिस्थितियों की वजह से बदलने लगी है । इसके बाद भी वह एशियायी और अफ्रीकी देशों के अनुपात में शान्त सुरक्षित है ।
रिपोर्ट में इस बात का विशेष उल्लेख किया गया है, कि वर्ष 2012-13 में आतंकवाद की वजह से होने वाले मृत्यु दर में 61 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है, जोकि वर्ष 2008 के आंकड़ों से दो गुना है । 2013 में आतंकी हमलों में 17,958 लोग मारे गए और इन मारे गए लोगों में 82 प्रतिशत लोग इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नाइजीरिया और सीरिया से हैं ।
इन आंकड़ों ने एक बार फिर से इस सच को खुलेआम कर दिया कि तथाकथित ‘आतंकवाद के खिलाफ युद्ध’ वास्तव में अमेरिकी साम्राज्यवाद के द्वारा निशाना बनाए गए देशों में आतंकी संगठनों को मजबूत करने का काम करता है । इन युद्धों के केन्द्र में भले ही ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ को रखा जाता है, मगर ज्यादातर आतंकी हमले विकसित पूंजीवादी देशों से बाहर ही होते हैं ।
रिपोर्ट में कहा गया है कि हाल के वर्षों में सैन्य संघर्षों में नाटकीय रूप से तीव्रता आयी है । वर्ष 2014 में 1,80,000 लोग ऐसे संघर्षों में मारे गए हैं । 2010 में यह आंकड़ा 49,000 था । चार वर्ष में यह चार गुना बढ़ा है ।
“जिसके लिए विश्व के वह साम्राज्यवादी देश जिम्मेदार हैं, जो अपने वर्चस्व को एकाधिकार में बदलना चाहते हैं और बाजारवादी अर्थव्यवस्था से अलग, किसी भी अर्थव्यवस्था को मिटा देना चाहते हैं । इराक, अफगानिस्तान, लीबिया और सीरिया की तबाही की वजह ही यही है । यही कारण है कि अमेरिकी साम्राज्य का सैन्य बजट लगातार बढ़ता जा रहा है ।”
ADVERTISEMENTS:
2014 का अमेरिकी सैन्य का खर्च आधिकारिक रूप से 610 बिलियन डॉलर था । जो कि दुनिया भर के देशों के सैनिक खर्च का 35 प्रतिशत है । यह चीन, रूस, सऊदी अरब, फ्रांस, ब्रिटेन, भारत और जर्मनी के संयुक्त खर्च, जोकि 610 बिलियन डॉलर था, से भी ज्यादा है ।
असल में अमेरिका का वार्षिक सैन्य बजट घोषित खच से कहीं ज्यादा है । यदि इस खर्च में परमाणु हथियारों के क्षेत्र में फंडिंग, विदेशों में जारी युद्धों के खर्चों पर होने वाले भुगतानों का ब्याज और पूर्व अमेरिकी सैनिकों को दिए जाने वाले सहयोग को भी शामिल कर दिया जाए तो यह बजट 1 ट्रिलियन डॉलर के लगभग पहुंच जाएगा ।
वास्तव में अमेरिकी अर्थव्यवस्था का संकट उसकी सेना का वैश्विक विस्तार और दुनिया भर में उसके द्वारा लड़ी जा रही लड़ाइयां हैं । 2000 से 2006 के बीच अमेरिका का सैनिक बजट 300 बिलियन डॉलर से बढ़कर 530 बिलियन डॉलर हो गया ।
जिस समय फेडरल बजट में कटौतियां हो रही थी, उस समय भी 530 बिलियन के खर्च को बना कर रखा गया । वर्ष 2016 के लिए 613 बिलियन डॉलर का सुरक्षा बजट प्रस्तावित है, जो अमेरिका शिक्षा बजट के 8 गुणा से भी ज्यादा है ।
अमेरिकी सरकार के द्वारा विश्व भर में युद्ध और आतंक के खतरों को बोने का पूरा लाभ हथियार उत्पादक अमेरिकी कम्पनियों को मिल रहा है । सितम्बर 2014 में, जब से अमेरिका ने इराक और सीरिया में ”इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एण्ड सीरिया” के खिलाफ हवाई हमलों की शुरुआत की है, 5 सबसे बड़ी हथियार उत्पादक निजी कम्पनियों में से 4 कम्पनियां – लॉकहेड मर्टन, नॉर्थअप ग्रुमन, जनरल डॉयनमिक्स और रेथिऑन के स्टॉक्स अपनी ऊंचाइयों पर पहुंच गए ।