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Here is an essay on ‘Detente and Its Impact on World Politics’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Detente and Its Impact on World Politics’ especially written for school and college students.
Essay # 1. दितान्त अर्थ एवं परिभाषा (Detente: Meaning and Definition):
‘दितान्त’ फेन्च भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘तनाव में शिथिलता’ (Relaxation of Tensions) । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में ‘दितान्त’ से अभिप्राय सोवियत-अमरीकी तनाव में कमी और उनमें दिन-प्रतिदिन बढ़ती हुई मित्रता, सहयोग और शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना से है । ऑक्सफोर्ड इंगलिश शब्दकोश के अनुसार, दितान्त दो राज्यों के तनावपूर्ण सम्बन्धों की समाप्ति (Cessation of strained relations between two states) है ।
डॉ. बी. के. श्रीवास्तव के अनुसार – “संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ ने अब शीत-युद्ध के संघर्षपूर्ण सम्बन्धों का अवसान करने का निश्चय किया जिसे प्राय: दितान्त के नाम से जाना जाता है ।”
डॉ. जफर इमाम के अनुसार – “पश्चिमी विश्व में जो अर्थ दितान्त का है, उसे ‘शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व’ शब्द में अभिव्यक्त किया जा सकता है ।”
डॉ. ए. पी. राणा के अनुसार – “दितान्त ऐसी प्रक्रिया या प्रवृति है जिसमें एक समय पर दो परस्पर विरोधी प्रवृतियां-सहयोग और प्रतिद्वन्द्विता-पायी जाती हैं । महाशक्तियों की इस सहयोगी-प्रतिद्वद्धी (Collaborative-Competitive) व्यवहार को उन्होंने ‘कालूपीटिव’ (Collupetive) शब्दावली में अभिव्यक्त किया है ।
डॉ. राणा के अभिमत में इस सहयोगी-प्रतिद्वन्द्वी व्यवहार को चार प्रकार की परिस्थितियों में अभिव्यक्त किया जा सकता है-किसी संकट की घड़ी में (Crisis Management); विश्व में यथास्थिति बनाये रखने की आवश्यकत (Management of the overall international status quo), आर्थिक सहयोग (Economic Management) और परमाणु अस्त्रों के परिसीमन की आवश्यकता के समय (Management of arms control) ।
जार्ज ऐराबाटोव मानते हैं कि दितान्त अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियों की नयी वास्तविकताओं से समझौता है । दितान्त का अर्थ स्पष्ट करते का प्रो. हरीश कपूर लिखते हैं कि दितान्त सम्बन्धों की व्यवस्था में दोनों महाशक्तियों के आपसी व्यवहार में समझौतावादी रुझान का दायरा बढ़ना (Phenomenon of increasing accommodation); यूरोपीय महाद्वीप का अब विभाजित न होना अपितु यूरोपीय देशों में व्यापारिक एवं सांस्कृतिक आदान-प्रदान का विस्तार होना (There have been more and more cultural contacts- ranging from sports to politics) तथा संघर्षपूर्ण एवं विवादास्पद समस्या को द्वि-पक्षीय एवं बहु-पक्षीय वार्ताओं से निपटाना शामिल है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अधुनातन परिप्रेक्ष्य में दितान्त का अर्थ इस प्रकार से किया जा सकता है:
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(i) अमरीका तथा पूर्व सोवियत संघ के मध्य शीत-युद्ध के बजाय सामंजस्यपूर्ण (Reapproachment) सम्बन्धों को दितान्त कहते हैं ।
(ii) अमरीका तथा पूर्व सोवियत संघ के मध्य मतभेद के बजाय शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व (Peace co-existence) के सम्बन्धों को दितान्त कहते हैं ।
(iii) दितान्त का यह अर्थ कदापि नहीं कि दोनों महाशक्तियों के मतभेद पूर्णत: समाप्त हो गये या उनमें वैचारिक मतभेद नहीं पाये जाते थे या उनमें कोई राजनीतिक आर्थिक व सैनिक प्रतियोगिता नहीं थी ।
दितान्त की विशेषता यह थी कि सैद्धान्तिक मतभेदों एवं प्रतियोगिता के बावजूद इसने महाशक्तियों में आर्थिक वैज्ञानिक एवं तकनीकी सहयोग में बाधा प्रस्तुत नहीं होने दी । वस्तुत: दितान्त का अर्थ शीत-युद्ध की समाप्ति नहीं है ।
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इसका यह अर्थ भी नहीं कि महाशक्तियां अपना वर्चस्व अथवा सर्वोपरिता बनाये रखने में अभिरुचि नहीं रखतीं । दितान्त का सीधा-सादा अर्थ यह है कि महाशक्तियों (अमरीका और पूर्व सोवियत संघ) ने न्यूनाधिक रूप से आपसी प्रतिस्पर्द्धा के मानदण्डों को आंशिक रूप से संहिताबद्ध करने का प्रयत्न किया था ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के बदलते समीकरण में सोवियत संघ-अमरीकी सम्बन्धों में 1962 के क्यूबा संकट के उपरान्त एक नया मोड़ आया; शीत-युद्ध के वैमनस्यपूर्ण सम्बन्ध सौहार्द और मधुर-मिलन (Honeymoon) की दिशा में बढ़ने लगे ।
परिवर्तित अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों में तनाव, वैमनस्य, मनोमालिन्य, प्रतिस्पर्धा और अविश्वास के सम्बन्ध तनाव-शैथिल्य मित्रता सामंजस्य शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व और परस्पर विश्वास में परिवर्तित होने लगे । शीत-युद्ध के नकारात्मक सम्बन्ध आपसी विचार-विमर्श की उत्कण्ठा, समझौतावादी दृष्टिकोण एवं मैत्रीपूर्ण सहयोग की ओर उन्मुख होने लगे ।
अमरीका और सोवियत संघ के सम्बन्धों में इस नवीन परिवर्तन को तनाव-शैथिल्य या दितान्त (Detente) के नाम से जाना जाता है । 1962 के बाद अमरीका और सोवियत संघ के नेताओं के दृष्टिकोणों में व्यापक परिवर्तन आया ।
ख्रुश्चेव और जॉन कैनेडी जैसे नेताओं ने अपने-अपने देश के लोगों को मानसिक रूप से यह समझाने की प्रक्रिया प्रारम्भ की कि शीत-युद्ध से कोई लाभ नहीं होता और शीत-युद्ध को जारी रखना उनके राष्ट्रीय हितों के लिए घातक है; शीत-युद्ध में कमी लाना और महाशक्तियों में मधुर सम्बन्ध स्थापित करना उनके राष्ट्रीय हितों के संरक्षण के लिए अपरिहार्य है ।
1955 में दो ऐसी समझौतावादी उपलब्धियां उनके लिए ऐसा आदर्श थीं जिन्होंने तनाव-शैथिल्य का सूत्रपात किया था-एक थी आस्ट्रिया के साथ शान्ति सन्धि करने में सोवियत संघ-अमरीका ने आपसी विचार-विमर्श से कार्य किया और दूसरा, संयुक्त राष्ट्र संघ में नये सदस्यों के प्रवेश के सम्बन्ध में ‘पैकेज डील’ (Package Deal) समझौता । ये दो ऐसे मामले थे जिससे दोनों महाशक्तियों को यह बात समझते देर न लगी कि ‘तनाव-शैथिल्य के आपसी सम्बन्ध’ ही उनके लिए लाभपूर्ण हैं ।
Essay # 2. महाशक्तियों का व्यवहार : दितान्त की प्रगति (Super Power Behaviour: The Progress of Detente):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विद्वानों का मत है कि शीत-युद्ध के उन्नायकों में स्टालिन और ट्रूमैन प्रधान थे तो दितान्त या सोवियत-अमरीकी मैत्री के सूत्रधार कैनेडी और ख्रुश्चेव थे । लेकिन उनके अचानक सत्ता से हटने के कारण दितान्त की प्रगति धीमी हो गयी ।
अत: दितान्त सम्बन्धों को नये सिरे से प्रारम्भ करके अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में मोड़ लाने का श्रेय अमरीकी राष्ट्रपति रिचार्ड निक्सन तथा सोवियत राष्ट्रपति लियोनिद ब्रेझनेव को है । आगे चलकर सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाच्योव ‘ग्लेस्नोट’ और ‘पेरेस्ट्राइका’ की नीति के माध्यम से ‘दितान्त’ के सम्बन्धों को एक नया मोड़ देने में सफल हुए जिसकी परिणति शीत-युद्ध के अन्त में हुई ।
महाशक्तियों के दितान्त व्यवहार की प्रगति को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है:
(i) दितान्त का निष्क्रिय काल (1953-1969);
(ii) दितान्त का सक्रिय काल (1970-1989)
दितान्त का निष्क्रिय काल (1953-69):
शीत-युद्ध के साथ-साथ महाशक्तियों का व्यवहार अदृश्य रूप से स्टालिन की मृत्यु के बाद ही परिवर्तित दिखायी देने लगा था । सर्वप्रथम 1953 में कोरिया युद्ध की समाप्ति हुई जबकि इससे पूर्व कोरिया में शान्ति स्थापित करने के भारतीय सुझाव को स्टालिन के रूस ने ठुकरा दिया ।
“वास्तविकता यह थी कि कोरिया की स्थिति से स्टालिन पूर्णतया सन्तुष्ट था । यह उस प्रकार की स्थिति थी जिसमें वह आनन्द लेता था । हजारों अमरीकी चीनी और कोरियाई मर रहे थे लेकिन किसी रूसी पर संकट नहीं आया था ।”
स्टालिन की मृत्यु के बाद सोवियत नेताओं ने विशाल हृदयता दिखाकर भारतीय सुझावों को स्वीकार कर लिया जिससे जून 1953 में कोरिया युद्ध बन्द हुआ । 1955 में दोनों महाशक्तियों ने आस्ट्रिया के साथ सन्धि की । आस्ट्रिया के साथ शान्ति सन्धि करने में कई बाधाएं सामने आयीं ।
13 मार्च, 1952 को पश्चिमी शक्तियों ने आस्ट्रिया के भविष्य के सम्बन्ध में आठ-धाराओं वाला एक सन्धि प्रस्ताव रखा जिसे सोवियत संघ ने अस्वीकार कर दिया । लेकिन एक वर्ष बाद स्टालिन की मृत्यु हो जाने पर आस्ट्रिया के प्रति सोवियत दृष्टिकोण में कुछ नरमी आयी । फलस्वरूप 15 मई 1955 को आस्ट्रिया सन्धि पर हस्ताक्षर हुए ।
आस्ट्रिया सन्धि का सबसे बड़ा महत्व यह है कि शीत-युद्ध छिड़ने के बाद पूरब और पश्चिम के बीच यह पहला शान्ति समझौता था । इसके बाद 1955 के पैकेज डील (Package Deal) समझौते के फलस्वरूप एक साथ 16 राष्ट्रों को संयुक्ता राष्ट्र संघ की सदस्यता प्रदान की गयी । इनमें से चार राष्ट्र सोवियत गुट के समर्थक और आठ गुटनिरपेक्ष देश थे ।
1959 में ख्रुश्चेव ने अमरीका की सदभावना यात्रा की और कैम्प डेविड में राष्ट्रपति आइजनहॉवर से ‘विश्व-शान्ति’ के मामलों पर खुलकर विचार-विमर्श किया । 1960 में पेरिस में शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया; 1963 में क्रेमलिन और ह्वाइट हाउस के मध्य हॉट लाइन का निर्माण किया गया; 25 जुलाई, 1963 को ब्रिटेन सहित दोनों महाशक्तियों ने मास्को में वायुमण्डल बाह्य अन्तरिक्ष और समुद्र में अणु परीक्षण पर प्रतिबन्ध लगाने वाली एक सन्धि पर हस्ताक्षर किये ।
1968 में रूस अमरीका और ब्रिटेन ने मिलकर अन्य देशों के साथ ‘परमाणु अप्रसार सन्धि’ पर हस्ताक्षर किये । फिर भी यह काल दितान्त सम्बन्धों की दृष्टि से निष्क्रिय काल ही कहा जा सकता है । फिर भी इस काल में यू-2 विमान (1960), क्यूबा संकट (1962) जैसी घटनाओं ने शीत-युद्ध की चिनगारी में घी देने का काम किया ।
क्यूबा संकट के बाद दोनों ही महाशक्तियों के नेताओं को महसूस हो गया था कि बिना एक निर्णायक महायुद्ध के दूसरे गुट का दमन सम्भव नहीं है और यदि ऐसा कोई युद्ध हुआ तो विश्व का सर्वनाश निश्चित है । इस अनुभूति ने दोनों ही पक्षों को सह-अस्तित्व की अनिवार्यता में विश्वास दिला दिया ।
दितान्त का सक्रिय काल (1970-89):
20 जनवरी, 1969 को रिचर्ड निक्सन अमरीका के राष्ट्रपति बने । राष्ट्रपति बनने के बाद निक्सन ने अपने उद्घाटन भाषण में विश्व-शान्ति की स्थापना के लिए अन्य देशों के साथ सहयोग करने की इच्छा प्रकट की । उन्होंने स्पष्ट किया कि ”हम प्रत्येक को अपना मित्र बनाने की आशा नहीं कर सकते, किन्तु यह प्रयत्न कर सकते हैं कि कोई हमारा शत्रु न बने ।”
निक्सन ने शान्तिपूर्ण प्रतियोगिता और साझेदारी के सिद्धान्त पर जोर देते हुए कहा कि ”हम साम्यवादी विश्व का अमरीका के साथ एक शान्तिपूर्ण प्रतियोगिता के लिए आह्वान करते हैं: यह प्रतियोगिता प्रदेशों की विजय अथवा स्वामित्व के विस्तार के लिए नहीं अपितु मनुष्य के जीवन को अधिक सम्पन्न बनाने के लिए होगी ।”
निक्सन प्रशासन ने साम्यवादी विश्व के प्रति अमरीका की नीति को एक नयी दिशा प्रदान की । इसी का परिणाम था कि सोवियत संघ-अमरीकी दितान्त सम्बन्धों में सक्रियता आ गयी ।
1970 के बाद दितान्त व्यवहार में तीव्र प्रगति हुई, जिसके प्रमुख उदाहरण इस प्रकार हैं:
1. मॉस्को-बोन समझौता, 1970:
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद से यूरोप में शीत-युद्ध के मूल में जर्मनी की समस्या रही है । पश्चिमी जर्मनी और सोवियत संघ के सम्बन्ध सदैव कटु रहे और अमरीका हमेशा पश्चिमी जर्मनी का समर्थन करता रहा । इस तनावपूर्ण परिस्थिति का अन्त करने के लिए 10 अगस्त, 1970 को पश्चिमी जर्मनी और सोवियत संघ के बीच एक सन्धि हुई ।
इस सन्धि में कहा गया कि:
i. सोवियत संघ और पश्चिमी जर्मनी एक-दूसरे के खिलाफ शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे;
ii. पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी की सीमाओं सहित यूरोप में जो वर्तमान राष्ट्रीय सीमाएं हैं उन्हें दोनों देशों ने स्वीकार कर लिया ।
इस सन्धि को फ्रांस के प्रसिद्ध समाचार-पत्र ‘लामो’ ने यूरोपीय इतिहास का एक नूतन मोड़ कहा । इस समझौते से यूरोप में आशा और उत्साह का नया वातावरण पैदा हुआ । सारी दुनिया में इस समझौते का स्वागत किया गया और यह आशा व्यक्त की गयी कि अब यूरोप में युद्ध नहीं होगा ।
2. बर्लिन समझौता, 1971:
शीत-युद्ध के काल में दूसरी ज्वलन्त समस्या बर्लिन की थी । 24 जून, 1948 को सोवियत संघ ने बर्लिन की नाकेबन्दी कर दी थी जिससे महाशक्तियों के सम्बन्ध तनावयुक्त हो गये थे । अठारह माह तक बातचीत करने के बाद अमरीका ब्रिटेन फ्रांस और सोवियत संघ के प्रतिनिधियों के बीच पश्चिम बर्लिन के बारे में अगस्त 1971 में एक समझौता हो गया ।
इस समझौते के अनुसार अब पश्चिम बर्लिन के लोग पूर्व बर्लिन जा सकेंगे । बर्लिन समझौता शान्ति की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था । द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद बर्लिन के प्रश्न ने सोवियत संघ तथा पश्चिमी राष्ट्रों के बीच सम्बन्ध सुधार में बड़ी रुकावट डाली । बर्लिन सम्बन्धी इस समझौते से अमरीका-सोवियत सम्बन्ध सामान्य होने लगे ।
3. पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी के बीच समझौता, 1972:
सितम्बर 1971 का बर्लिन समझौता पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के बीच सामान्य सम्बन्ध कायम करने की आधार-भूमि बन गया । 8 नवम्बर, 1972 को पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के मध्य एक सन्धि पर हस्ताक्षर हुए । इस सन्धि के फलस्वरूप इन दोनों जर्मन राज्यों के बीच द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद से चली आ रही तनातनी समाप्त हो गयी ।
दोनों जर्मन राज्यों ने एक-दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया और अनेक मानवीय क्षेत्रों में सहयोग करने का वादा किया । सन्धि की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि जर्मन समस्या के समाधान के लिए दोनों जर्मन राज्यों ने एक-दूसरे के विरुद्ध धमकी अथवा बल प्रयोग के उपायों को हमेशा के लिए तिलांजलि दे दी ।
इस सन्धि के फलस्वरूप दोनों जर्मन राज्यों के पिछले 22 वर्षों से चले आ रहे तनावपूर्ण सम्बन्धों की समाप्ति हो गयी । यह एक ऐतिहासिक सन्धि थी जिसने दोनों जर्मन राज्यों की शत्रुता को समाप्त कर शीत-युद्ध के प्रमुख कारण और यूरोपीय शान्ति के लिए एक स्थायी खतरे को दूर कर दिया ।
4. कोरिया का समझौता, 1972:
एशिया में उत्तरी कोरिया और दक्षिणी कोरिया के तनावपूर्ण सम्बन्धों ने भूतकाल में शीत-युद्ध को चरम सीमा पर पहुंचा दिया था । 20 अगस्त, 1971 को उत्तरी कोरिया और दक्षिणी कोरिया की रेड-क्रॉस सोसाइटी की एक बैठक हुई जिसमें तय हुआ कि कोरिया युद्ध के दौरान जो एक करोड़ कोरियाई रिश्तेदार सम्बन्धी और मित्र बिछुड़ गये थे, उनकी अदला-बदली की जाये ।
4 जुलाई, 1972 को दोनों कोरियाई देशों के बीच एक समझौता हुआ तद्नुसार दोनों ने वादा किया कि वे एक-दूसरे को कमजोर करने का कोई प्रयास नहीं करेंगे । एकीकरण को सम्पन्न करने के लिए एक समन्वय समिति भी गठित की गयी ।
5. मॉस्को शिखर वार्ता, 1972:
22 मई से 29 मई, 1972 में संयुक्त राज्य अमरीका के राष्ट्रपति निक्सन ने सोवियत संघ की सद्भावना यात्रा की । द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद निक्सन ऐसे पहले अमरीकी राष्ट्रपति थे जिन्होंने सोवियत संघ की सद्भावना यात्रा करने का निश्चय किया ।
मॉस्को में एक सप्ताह तक उन्होंने सोवियत संघ के प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति तथा साम्यवादी दल के महामन्त्री ब्रेझनेव से शिखर वार्ता की और यह घोषणा की कि वे अपने विवादास्पद प्रश्नों का निर्णय युद्ध से नहीं किन्तु शान्तिपूर्ण वार्ता के माध्यम से करेंगे । इस ऐतिहासिक वार्ता का सबसे महत्वपूर्ण भाग सम्भवत: सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमरीका के बीच सम्बन्धों के मौलिक सिद्धान्तों की घोषणा थी ।
दोनों महाशक्तियों ने अपने संयुक्त वक्तव्य में 29 मई, 1972 को निम्नलिखित बातों पर बल दिया:
(i) आणविक आयुधों को सीमित करना:
दोनों देश आणविक युद्ध की विभीषिका को कम करने के लिए आणविक आयुधों की सीमा को मर्यादित करने वाला एक समझौता [A Treaty limiting the strategic defensive anti-ballistic missile (A.B.M.) system] करने के लिए सहमत हो गये, इस विषय पर दोनों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किये । यह सन्धि नि: शस्त्रीकरण की दिशा में उठाया गया एक ठोस कदम था ।
(ii) व्यापारिक और आर्थिक सम्बन्ध:
दोनों देशो ने इन सम्बन्धों को बढ़ाने और घनिष्ठ बनाने की बात स्वीकार की और इस विषय में स्थायी रूप से प्रगति करने के लिए संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ का एक संयुक्त व्यापारिक आयोग बनाने का निश्चय किया ।
(iii) समुद्री मामलों के सम्बन्ध में समझौता:
दोनों पक्षों ने समुद्र तथा आकाश में दोनों देशों के जहाजों और विमानों की भीषण दुर्घटनाएं रोकने का एक समझौता किया ।
(iv) विज्ञान और प्रौद्योगिकी में सहयोग:
दोनों देशों में इन क्षेत्रों में सहयोग के लिए अमरीका तथा सोवियत संघ का एक संयुक्त आयोग बनाने का निश्चय किया गया ।
(v) अन्तरिक्ष में सहयोग:
इस समय बाह्य अन्तरिक्ष में उड़ान करने वाले अन्तरिक्ष यानों में कई बार भीषण दुर्घटनाएं हो जाती थीं । इन्हें रोकने के लिए और इस क्षेत्र में शान्तिपूर्ण अनुसन्धान करने की दृष्टि से दोनों पक्षों ने यह समझौता किया कि वे अन्तरिक्ष में अमरीकी और सोवियत अन्तरिक्ष यानों के मिल-जुलकर कार्य करने की व्यवस्था करेंगे ।
(vi) स्वास्थ्य के क्षेत्र में सहयोग:
दोनों देशों में समूची मानव जाति के स्वास्थ्य की महत्वपूर्ण समस्याओं-कैन्सर, हृदय रोग तथा वातावरणीय स्वास्थ्य विज्ञान के सम्बन्ध में अनुसन्धान कार्य में सहयोग देने का निश्चय किया ।
मास्को शिखर वार्ता के इन समझौतों को राष्ट्रपति निक्सन ने ‘ऐतिहासिक’ एवं ‘अत्यन्त महत्वपूर्ण’ (Historic and ‘Enormously Important’) बताया । डॉ. हेनरी कीसिंजर ने सामरिक शस्त्रों को सीमित करने की दिशा में इस समझौते को एक अपरिहार्य उपलब्धि बताया ।
मास्को शिखर वार्ता के निम्नलिखित परिणाम उल्लेखनीय हैं:
प्रथम:
यह शीत-युद्ध की समाप्ति का संकेत करता था;
द्वितीय:
शस्त्रास्त्रों की होड़ को सीमित करने की सम्भावना बढ़ गयी;
तृतीय:
यूरोप में तनाव-शैथिल्य की स्थिति आने लगी तथा पूर्वी एवं पश्चिमी देशों में सौहार्द में वृद्धि होने लगी ।
6. सामरिक शस्त्र परिसीमन समझौता 1972 (SALT-1):
अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन की सोवियत संघ की यात्रा (1972) का सबसे महत्वपूर्ण समझौता हथियारों के परिसीमन से सम्बन्धित था । 26 मई, 1972 को सामरिक शस्त्र परिसीमन सन्धि (SALT-1) पर हस्ताक्षर हुए ।
7. सोवियत संघ-अमरीकी आर्थिक सहयोग:
मॉस्को शिखर सम्मेलन में समयाभाव के कारण आर्थिक सहयोग के क्षेत्र में कोई बुनियादी समझौता नहीं हो पाया था । इस बात पर सहमति जरूर हुई थी कि एक ‘रूस-अमरीकी आर्थिक आयोग’ (U.S.-U.S.S.R. Economic Commission) बनाया जायेगा जो MFN दर्जा (Most Favoured Nation Status) दिलाने और व्यापार के विस्तार के लिए सरकारी ऋण दिलाने का प्रयत्न करेगा ।
14 अक्टूबर, 1972 को दोनों देशों ने एक तीन-वर्षीय समुद्री समझौते (Three-Year Maritime Agreement) पर हस्ताक्षर किये जो अमरीकन जहाजों के लिए सस्ती दरों पर सोवियत संघ के लिए अनाज की दुलाई का प्रावधान करता है । 18 अक्टूबर, 1972 को दोनों देशों में एक समझौता हुआ जिसमें अमरीका ने सोवियत आयातों पर तटकर कम करने की बात मान ली जिसमें सोवियत संघ को एम. एफ. एन. दर्जा (MFN Status) मिल गया ।
संयुक्त राज्य अमरीका ने सोवियत संघ को वचन दिया कि वह उसे ‘संयुक्त राज्य आयात-निर्यात बैंक’ (Export-Import Bank of the United States) से अमरीका में व्यावसायिक माल की खरीद हेतु ऋण और उसकी गारण्टी दिलायेगा ।
इसके बदले में सोवियत संघ इस बात के लिए सहमत हो गया कि अपने द्वितीय युद्धकालीन ऋणों के भुगतानों के एवज में (Repayment of its war time land-lease debt) कुल मिलाकर 722 मिलियन डॉलर का भुगतान करेगा ।
यह भुगतान किस्तों में 2001 ई. तक किया गया । सोवियत संघ द्वारा युद्ध ऋणों के भुगतान हेतु तुरन्त तैयार हो जाना सौहार्दपूर्ण वातावरण के निर्माण की मंशा प्रकट करता है । अप्रैल, 1973 में सोवियत संघ ने घोषणा की कि उसने 8 मिलियन डॉलर का एक समझौता अमरीका के आर्मण्ड हैमर ऑफ दी ऐक्सीडेण्टल पेट्रोलियम कर्पोरेशन (Armand Hammer of the Accidental Petroleum Corporation) से किया है जो सोवियत संघ में खाद कारखानों (Fertilizer Complex) के निर्माण में तकनीकी सहायता देगा ।
यह कार्पोरेशन सोवियत रूस से 200 मिलियन डॉलर के अमोनिया, यूरिया व पोटाश खरीदेगा और अपने क्तोरिडा राज्य में स्थित कारखाने से 200 मिलियन डॉलर के फॉस्फोरिक ऐसिड का विक्रय करेगा ।
इस समझौते की स्वीकृति अमरीकी शासन ने दी थी और संयुक्त राज्य आयात-निर्यात बैंक से 180 मिलियन डॉलर का ऋण दिलाने की भी अनुमति दी गयी । डॉ. कीसिंजर ने इस समझौते को ‘दितान्त की दिशा में हितों की सम्बद्धता’ (A certain inter-connection of interests in defining detente) बताया था ।
जून 1973 में सोवियत संघ तथा दो अमरीकी कम्पनियों के मध्य एक समझौता हुआ जिसमें साइबेरिया से प्राकृतिक गैस निकालकर अमरीका के पश्चिमी किनारे तक पाइप लाइन से पहुंचाने का प्रावधान था और इसकी लागत 10 मिलियन डॉलर आंकी गयी थी ।
8. ब्रेझनेव की अमरीका यात्रा, 1973:
17 जून, 1973 को सोवियत राष्ट्रपति ब्रेझनेव ने अमरीका की यात्रा प्रारम्भ की । इस यात्रा के दौरान सोवियत संघ और अमरीका में तकनीकी सहयोग से सम्बन्धित विचार-विमर्श हुए और अनेक व्यापारिक प्रश्नों पर भी आदान-प्रदान हेतु सहमति हुई । इसी दौरान सबसे महत्वपूर्ण निर्णय सोवियत संघ और अमरीका के बीच संयुक्त अन्तरिक्ष कार्यक्रम प्रारम्भ करने के बारे में हुआ । यह प्रस्तावित किया गया कि 1975 से इस कार्यक्रम को लागू किया जाये ।
9. प्रथम तथा द्वितीय यूरोपियन सुरक्षा सम्मेलन-हेलसिंकी 1973:
यूरोपीय सुरक्षा एवं सहयोग का सम्मेलन फिनलैण्ड की राजधानी हेलसिंकी में 3 जुलाई, 1973 को शुरू हुआ; जेनेवा में यह सम्मेलन 17 जुलाई, 1973 से 21 जुलाई, 1975 तक जारी रहा और 1 अगस्त 1975 को हेलसिंकी में समाप्त हुआ । इस सम्मेलन में यूरोप और अमरीका के 35 देशों ने भाग लिया । यूरोपीय राज्यों के इस सुरक्षा सम्मेलन का उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय तनाव को समाप्त करके शीत-युद्ध का अन्त करना तथा सुरक्षा की नयी भावना पैदा करना था ।
हेलसिंकी सम्मेलन की प्रमुख उपलब्धि थी: तीस हजार शब्दों का वह घोषणा-पत्र जो छ: भाषाओं में तैयार किया गया और जिस पर दोनों महाशक्तियों समेत, सम्मेलन में उपस्थिति पैंतीस देशों ने हस्ताक्षर किये । हेलसिंकी घोषणा-पत्र चार खण्डों में विभाजित है ।
पहला, खण्ड सुरक्षा से सम्बन्धित है । इसमें सभी राष्ट्रों की स्वतन्त्रता और समान प्रभुसत्ता के सम्बन्ध में दस सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये ।
द्वितीय, खण्ड में आर्थिक, वैज्ञानिक, प्राविधिक और पर्यावरण सम्बन्धी प्रश्न पर सहयोग का जिक्र है । घोषणा-पत्र में कहा गया कि हस्ताक्षरकर्ता देश परस्पर व्यापारिक सम्बन्धों के सुधार एवं प्रसार के लिए वचनबद्ध हैं और व्यापार में बाधक बनने वाले तत्वों को उत्तरोत्तर कम करने का प्रयास करेंगे ।
तृतीय, खण्ड मानव सम्पर्को के बारे में है । वस्तुत: जेनेवा में वार्ताकारों को सबसे अधिक कठिनाई इसी खण्ड पर सर्वसम्मति प्राप्त करने में हुई । सोवियत संघ ने पहले तो गैर-साम्यवादी देशों की इस मांग को ठुकरा ही दिया था कि साम्यवादी और गैर-साम्यवादी देशों के बीच सम्पर्क आसान रहें और दोनों ओर से सूचनाओं का आदान-प्रदान अबाधित हो ।
सोवियत संघ का कहना था कि यह हमारे आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप का प्रयास है । परन्तु बाद में वह इस मामले में कई रियायतें देने को राजी हो गया विशेषत: विदेश यात्रा तथा विदेशी पत्र-पत्रिकाओं के बारे में । चतुर्थ, खण्ड इस धोषणा-पत्र के बाद उठाये जाने बाले कदमों से सम्बन्धित है । इसमें कहा गया कि हस्ताक्षर करने वाले देशों में हेलसिंकी सम्मेलन के बाद भी सम्वाद चलता रहेगा ।
राजनेताओं ने हेलसिंकी सम्मेलन को यूरोप के इतिहास का नया पथचिह्न बताया । कीसिंजर के शब्दों में, “हेलसिंकी शिखर सम्मेलन ने तनाव बिन्दुओं को शिथिल बनाकर शीत-युद्ध के प्रभाव को कम करने में योग दिया । इस सम्मेलन के माध्यम से राष्ट्रों के बीच सद्भाव और सहयोग की एक नूतन भावना ‘हेलसिंकी भावना’ का निर्माण हुआ ।
10. ब्लाडीबोस्टक शिखर सम्मेलन, 1974:
नवम्बर 1974 का ब्लाडीवोस्टक शिखर सम्मेलन अमरीका और सोवियत संघ द्वारा तनाव-शैथिल्य का एक और महत्वपूर्ण प्रयास था । अमरीकी राष्ट्रपति जेराल्ड फोर्ड और सोवियत नेता बेझनेव ने इस मुलाकात द्वारा सामरिक अस परिसीमन समझौते (SALT) की रूपरेखा तैयार की जो, शीत-युद्ध को समाप्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम था ।
11. अपोलो-सोयुज का अन्तरिक्ष में मिलन:
17 जुलाई, 1975 को अमरीका के अपोलो और सोवियत संघ के सोयुज अन्तरिक्ष-यान अपनी कक्षा में आकर एक-दूसरे से मिले और दोनों देशों के अन्तरिक्ष यात्रियों ने एक-दूसरे का अभिवादन किया । इस घटना का वैज्ञानिक महत्व तो था ही परन्तु इसका राजनीतिक महत्व भी बहुत अधिक था । इस तरह का वैज्ञानिक सहयोग इस बात का प्रबल प्रमाण था कि अमरीका और सोवियत संघ अब एक-दूसरे के अत्यन्त निकट आना चाहते हैं ।
12. तृतीय यूरोपीय सुरक्षा सम्मेलन, 1977:
जून 1977 में बेलग्रेड में तृतीय यूरोपीय सुरक्षा सम्मेलन का आयोजन किया गया । इस बात पर भी विचार किया गया कि ‘हेलसिंकी’ में स्वीकृत अन्तिम दस्तावेज पर कितना अमल किया गया है । अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस और पश्चिमी जर्मनी के नेताओं ने पश्चिमी देशों की ओर से यह आशा व्यक्त की कि पूरब-पश्चिम के देशों के बीच तनातनी कम करने और यूरोपीय देशों में शान्ति तथा सद्भाव बढ़ाने के प्रयत्नों का लाभ पश्चिम बर्लिन को भी मिलना चाहिए । सोवियत संघ ने दृष्टिकोण का अनुमोदन किया । इस सम्मेलन में लगभग 25 यूरोपीय देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया । दितान्त के परिप्रेक्ष्य में यूरोपीय, सुरक्षा और सहयोग का यह एक महत्वपूर्ण प्रयास था ।
13. साल्ट-2 समझौता:
प्रथम साल सन्धि (SALT-1) 1972 में सोवियत संघ और अमरीका के मध्य हुई थी । इस सन्धि की अवधि पांच वर्षों की थी जो 3 अक्टूबर, 1977 को समाप्त हो गयी । 1979 में दोनों देशों ने साल्ट-2 समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये । इसके बाद इस सन्धि पर दोनों देशों की संसद को अनुमोदन करना था ।
अमरीकी कांग्रेस इस पर विचार कर रही थी कि अफगानिस्तान में सोवियत संघ का सैनिक हस्तक्षेप हो गया । सोवियत हस्तक्षेप के विरोध में अमरीकी राष्ट्रपति कार्टर ने साल्ट-2 के अनुमोदन को स्थगित करादिया था ।
Essay # 3. दितान्त पर संकट और नया शीत-युद्ध (Detente under Stress and the New Cold War):
सन् 1979 से दितान्त पर संकट के बादल मंडराने लगे । दितान्त भावना को ऐसे झटके (Jerks) लगे कि दितान्त की प्रक्रिया क्षतिग्रस्त होती हुई दिखायी देने लगी । दितान्त युग में शीत-युद्ध जैसा व्यवहार दिखायी देने लगा ।
नाटो शक्तिशाली बनाया जाने लगा शस्त्रों की होड़ तीव्र गति से प्रारम्भ होने लगी और टकराव के विविध केन्द्र पुन: उभरने लगे । यदि पुर्तगाल, अंगोला, क्यूबा, अफगानिस्तान, नि:शस्त्रीकरण वार्ता आदि घटनाओं को लिया जाये तो सहज में ही कहा जा सकता है कि अभी शीत-युद्ध को पूर्णतया दफनाया नहीं जा सका ।
1975 में पुर्तगाल में एक बार ऐसी स्थिति आ गयी कि सोवियत समर्थित पुर्तगाली कम्युनिस्ट पार्टी कतिपय सैनिक अधिकारियों के साथ अपनी सांठ-गांठ द्वारा, व्यापक बहुमत वाले समाजवादी दल को दरकिनार कर, देश की सत्ता पर कब्जा करने को थी ।
अमरीकियों का कहना था कि यह सब सोवियत संघ के बढ़ाने से हो रहा था । सोवियत संघ पुर्तगाल में कम्युनिस्ट पार्टी को सत्ता में लाकर पुर्तगाल को ‘नाटो’ से अलग करना चाहता था । अंगोला के गृह-युद्ध (1975-76) में सोवियत संघ और क्यूबा ने राष्ट्रवादी एम. पी. एल. ए का साथ दिया; अमरीका ने साथ दिया एफ. एम. एल. ए और यूनिटा की कबायली टुकड़ियों का ।
सोवियत संघ, क्यूबा तथा समाजवादी देश चाहते थे कि सत्ता ‘अंगोला जन मुक्ति आन्दोलन’ (M.P.L.A.) के हाथों में आये । दूसरी ओर राष्ट्रीय मोर्चे (F.M.L.A.) और यूनिटा की सेनाओं को पश्चिमी शक्तियों से आर्थिक और सैनिक सहायता मिलने लगी ।
केवल अंगोला की समस्या ने ही दितान्त में गतिरोध उत्पन्न नहीं किया बल्कि ओगादान प्रदेश के लिए इथियोपिया और सोमालिया में संघर्ष और जायरे में रूस एवं क्यूबा के हस्तक्षेप ने तथा हिन्द महासागर में डियागो गार्शिया में अमरीकी नौसैनिक अड्डे की स्थापना ने दितान्त को गम्भीर धक्का पहुंचाया ।
मई 1978 में वाशिंगटन में हुए नाटो राष्ट्रों के शिखर सम्मेलन की वाणी शीत-युद्ध की याद ताजा कर देती है । राष्ट्रपति कार्टर ने तो स्पष्ट तौर से नाटो की शक्ति बढ़ाने पर जोर दिया । 1977 के मध्य क्यूबा में सोवियत संघ के सैनिकों की उपस्थिति को लेकर अमरीका और क्यूबा के बीच गम्भीर तनातनी हो गयी । राष्ट्रपति कार्टर ने कैरेबियन में एक अग्रिम सेना (Task Force) तैनात करने की घोषणा की ।
इस घोषणा में कहा गया कि क्यूबा में सोवियत सेनाओं की ठीक-ठीक संख्या पता लगाने के लिए क्यूबा पर निगाह रखने की अमरीकी उपग्रह व्यवस्था को पुनर्गठित किया जायेगा । कार्टर की इस घोषणा से क्यूबा और अमरीका के बीच 1962 जैसा ही गम्भीर संकट उत्पन्न हो गया और ऐसा प्रतीत हुआ कि यदि युद्ध का विस्फोट नहीं तो शीत-युद्ध का विस्फोट अवश्य हो जायेगा ।
दिसम्बर 1979 में अफगानिस्तान में एक क्रान्ति हो गयी जिसके फलस्वरूप राष्ट्रपति अमीन का तख्ता पलट गया और बबराक करमाल नये अफगान राष्ट्रपति बने । अफगानिस्तान के इस सत्ता परिवर्तन में सोवियत संघ की भूमिका थी और सत्ता परिवर्तन के तुरन्त बाद करमाल सरकार ने सोवियत संघ से सैनिक सहायता मांगी ।
ADVERTISEMENTS:
जैसे ही अफगानिस्तान में सोवियत सेना पहुंची राष्ट्रपति कार्टर ने इसका प्रबल विरोध किया और शीत-युद्ध ने उग्र रूप धारण कर लिया । अमरीका ने पाकिस्तान को सोवियत खतरे का मुकाबला करने के लिए बीस करोड़ डॉलर के हथियार देने की घोषणा की ।
राष्ट्रपति कार्टर ने अमरीकी कांग्रेस में ‘साल्ट-द्वितीय’ पर बहस रुकवा दी । उन्होंने सोवियत संघ को अनाज देने तथा आधुनिक तकनीकी की जानकारी देने के अपने फैसले को बदल दिया । शीत-युद्ध की पुन: प्रबलता का वास्तविक परिचय जुलाई 1980 में उस समय मिला जबकि मॉस्को में आयोजित ओलम्पिक खेलों (Olympic Games) का अमरीका और पश्चिमी यूरोप के अनेक देशों द्वारा वास्तविक रूप में बहिष्कार किया गया ।
डॉ. वेद प्रताप वैदिक लिखते हैं, “अफगान संकट ने एक नये शीत-युद्ध को जन्म दिया । दोनों महाशक्तियों के बीच चल रही शस्त्र परिसीमन (साल्ट-2) वार्ता भंग हो गयी पश्चिमी राष्ट्रों ने सोवियत संघ पर अनेक आर्थिक और राजनीतिक प्रतिबन्ध लगाने की कोशिश की अमरीका ने खाड़ी के देशों हिन्द महासागर तथा पाकिस्तान में अपनी सैनिक उपस्थिति को बढ़ाना शुरू कर दिया, तीव्रगामी सेना के पहले से तैयार कार्यक्रम में तेजी आ गयी यूरोपीय सरकारें अपने राष्ट्रों की सुरक्षा के लिए अधुनातन परमाणु प्रक्षेपास्त्रों को नये पैमाने पर लगवाने के लिए अधीर हो उठीं ।”
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि दितान्त की भावना संकट में थी सोवियत-अमरीकी दितान्त मनोवृत्ति को गम्भीर झटके लगे, हेलसिंकी भावना लुप्त होने लगी और शस्त्रों की होड़ भी शुरू हो गयी ।
किन्तु फिर भी यह तो कहना ही पड़ेगा कि दोनों महाशक्तियों ने धैर्य और संयम से काम लिया । ईरान-इराक युद्ध में भी किसी ने प्रत्यक्षत: भाग नहीं लिया । 40 राष्ट्रों के जेनेवा नि:शस्त्रकरण सम्मेलन में मतभेदों के बावजूद दोनों में संवाद जारी रहा । इस तरह दोनों पक्षों के बीच युद्ध की सम्भावनाएं समाप्त हो चुकी थीं ।