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Read this essay in Hindi to learn about the various reasons that led to the end of cold war.
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद दुनिया दो गुटों में विभाजित हो गयी । एक गुट का नेता संयुक्त राज्य अमरीका था तो दूसरे गुट का नेता सोवियत संघ । दोनों महाशक्तियों के आपसी सम्बन्धों को ‘शीत-युद्ध’ के रूप में सम्बोधित किया जाने लगा । शीत-युद्ध एक ऐसी स्थिति थी जिसे ‘उष्ण शान्ति’ के रूप में जाना जाने लगा ।
ऐसी स्थिति में न तो ‘पूर्ण रूप से शान्ति’ रहती है और न ही ‘वास्तविक युद्ध’ होता है, बल्कि शान्ति एवं युद्ध के बीच की अस्थिर स्थिति बनी रहती है । यह ऐसी स्थिति है जिसमें दोनों पक्ष परस्पर शान्तिकालीन कूटनीतिक सम्बन्ध बनाए रखते हुए भी परस्पर शत्रुभाव रखते हैं और सशस्त्र युद्ध को छोड्कर अन्य समस्त उपायों का सहारा लेकर एक-दूसरे की स्थिति दुर्बल बनाने का प्रयत्न करते हैं । यह कूटनीतिक दांवपेचों से लड़ा जाने वाला युद्ध था जिसमें महाशक्तियां एक-दूसरे से भयभीत रहती थीं ।
द्वितीय विश्व-युद्धोत्तर सोवियत संघ-अमरीकी सम्बन्धों को चार युगों में विभाजित किया जा सकता है:
(i) शीत-युद्ध (1946-1962),
(ii) दितान्त (1963-1979),
(iii) दूसरा शीत-युद्ध (1979-1984), तथा
(iv) शीत-युद्ध का अन्त (1985- 1991)।
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वस्तुत: यह ‘शीत-युद्ध’ के विकास के ही विभिन्न चरण (Stages) हैं जिनमें उतार-बढ़ाव आते रहे । दो महाशक्तियों-अमरीका और सोवियत संघ के बीच 1962 के अन्त में क्यूबा प्रक्षेपास्त्र संकट के भयावह अनुभव के बाद सम्बन्धों के तनाव में कमी आई और आपसी सद्भाव तथा सहयोग में वृद्धि हुई । इसे अधिक व्यापक तौर पर ‘दितान्त’ या तनाव-शिथिलता कहा गया ।
सुधरे और उदार सम्बन्धों के इस चरण में अमरीका और सोवियत संघ की तीन शिखर बैठकें हुईं और दोनों महाशक्तियों के बीच या उनके समर्थन से अनेक महत्वपूर्ण समझौते हुए जिनमें आंशिक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (1963), परमाणु अप्रसार सन्धि (1968), साल्ट प्रथम तथा साल्ट द्वितीय समझौता प्रमुख हैं ।
परन्तु 1978 के उत्तरार्द्ध में यह प्रक्रिया उलटने लगी और जल्दी ही इसने ‘दूसरे शीत-युद्ध’ (Second Cold War) का रूप ग्रहण कर लिया जिससे दोनों महाशक्तियों के आपसी सम्बन्ध एकदम ठंडे (बाद में कटु) हो गए और एक ‘लोहे का पर्दा’ उनके बीच खिंच गया ।
वास्तव में, तनावों में उदारता की प्रक्रिया की टूटन तो 1975 में ही दिखाई देने लगी थी जबकि सोवियत समर्थित वियतनाम में अमरीका ने पुन: प्रभुत्व जमा लिया और अंगोला में सोवियत समर्थन से क्यूबाई सैनिक सहायता पहुंचायी गयी ।
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इन आघातों का विपरीत प्रभाव बेअसर करने के उद्देश्य से अमरीकी राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर ने 1976 में सैनिक खर्च में 3 प्रतिशत की वास्तविक वृद्धि की घोषणा की । यही विचार दितान्त अथवा सम्बन्धों में सुधार की भावना के प्रतिकूल हो गया । दिसम्बर 1979 में अफगानिस्तान में सोवियत सैनिक हस्तक्षेप ने तो जैसे पूर्णाहुति का कार्य किया और दोनों महाशक्तियों के बीच आपसी सद्भाव बिल्कुल छिन्न-भिन्न हो गये ।
राष्ट्रपति कार्टर ने, जिन्होंने साल्ट-2 सन्धि पर हस्ताक्षर किये थे, स्वयं ही सीनेट से अनुरोध किया कि वह साल्ट-2 को अपनी स्वीकृति न दे । इस प्रकार 1980 के आरम्भ के साथ ही आपसी मोर्चे बंध चुके थे और दूसरा शीत-युद्ध घोषित हो चुका था । जनवरी 1981 में रोनाल्ड रीगन ने अमरीका के राष्ट्रपति का पद ग्रहण किया । वह तो पहले से ही सोवियत संघ विरोधी थे ।
उन्होंने अंगोला, मध्य अमरीका, क्यूबा और अफगानिस्तान में सोवियत कार्यवाही का कड़ा विरोध किया । 1981 का वर्ष समाप्त होते-होते (बढ़ते हुए संदेह तथा अविश्वास के कारण) महाशक्तियों और उनके सहयोगी देशों ने निश्चित ही टकराव का रास्ता अपना लिया था ।
अमरीका की धारणा थी कि सोवियत संघ ने अफ्रीका मध्य अमरीका दक्षिण-पूर्वी एशिया और अफगानिस्तान में अपने अड्डे जमा लिये थे जो अमरीका की अन्तर्राष्ट्रीय रणनीति में अड़चन डालते थे । सोवियत संघ भी राष्ट्रपति रीगन की ‘स्टारवार्स’ योजना से बहुत चिन्तित था क्योंकि इस योजना के लागू हो जाने पर सामरिक सन्तुलन में अमरीका का पलड़ा निश्चित रूप से भारी हो जाता ।
अमरीकी राष्ट्रपति की मध्य अमरीका में ‘विद्रोह की जड़’ (सोवियत सहयोगी क्यूबा) पर आक्रमण करने की चेतावनी और खाड़ी एवं दक्षिण-पश्चिम एशिया में अमरीकी सैनिक जमाव बढ़ाने की उनकी योजना से भी घबराहट हुई क्योंकि यह क्षेत्र सोवियत और मध्य एशिया की सीमा में लगता था ।
यह स्पष्ट तौर पर दूसरे शीत-युद्ध की शुरुआत के संकेत थे । अगले दो-तीन वर्षों में सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप में इण्टरमीडिएट रेंज के एस. एस. 20 प्रक्षेपास्त्र तैनात कर दिये और उसकी दलील यह थी कि ऐसा उसने भूमध्य सागर में ब्रिटिश पनडुब्बियों पर तैनात पोलेरिस मिसाइलों फ्रांस की परमाणु पनडुब्बियों और इंग्लैण्ड व पश्चिम जर्मनी को अमरीकी हथियारों की सफाई से उत्पन्न खतरे से निपटने के लिए किया है ।
इसके फलस्वरूप अमरीका एवं नाटो सन्धि देशों ने पश्चिमी यूरोप में अमरीकी क्रूज मिसाइल रखने का समझौता किया । 1985 के प्रारम्भ तक यूरोप के दोनों भागों में मध्य रेंज के 2500 से ज्यादा प्रक्षेपास्त्र तैनात हो चुके थे जिनसे इन दोनों भागों की और सोवियत संघ की सुरक्षा के लिए खतरा पैदा हो गया ।
जैसे ही पश्चिमी जर्मनी इटली और ब्रिटेन में कुज और पर्शिंग मिसाइल रखे जाने लगे सोवियत संघ इण्टरमीडिएट परमाणु शक्ति वार्ता से बाहर हो गया और उसने सामरिक हथियारों में कमी की वार्ता का भी बहिष्कार कर दिया जो 1982 से जेनेवा में चल रही थी । यह दूसरे शीत-युद्ध का चरमबिन्दु था । इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के एक वर्ष बाद तक दोनों महाशक्तियों के आपसी सम्बन्ध तनावपूर्ण रहे और दोनों ही एक-दूसरे की सामरिक योजनाओं और इरादों पर ज्यादा-से-ज्यादा शक करते रहे ।
शीत-युद्ध का अन्त: प्रमुख समझौते एवं घटनाएं:
1985-91 की कालावधि शीत-युद्ध के अन्त (End of Cold War) की दृष्टि से सोवियत संघ-अमरीकी सम्बन्धों में ऐतिहासिक सीमाचिह्न मानी जाती है । दूसरे शीत-युद्ध काल में दोनों ही देश हथियारों के अनुसंधान और उत्पादन में लगे रहे पर यह भी महसूस करते रहे कि परमाणु शस्त्रों के बारे में कोई न कोई समझौता हो जाना चाहिए जिससे दोनों ही अपने रक्षा उत्पादन और अनुसंधान बजट में हो रही बेतहाशा वृद्धि को रोक सकें ।
इस उद्देश्य के लिए जनवरी 1985 में अमरीकी विदेश मन्त्री जॉर्ज शुल्ट्ज और सोवियत विदेश मन्त्री आन्द्रेई ग्रोमिको की मुलाकात एक शुभ संकेत सिद्ध हुई जिसने गोर्बाच्योव-रीगन शिखर बैठक (नवम्बर, 1985) का आधार तैयार कर दिया । यह पहली शिखर वार्ता ‘औपचारिक शुरुआत’ जैसी रही और दोनों नेताओं की इस बातचीत के लिए विचारणीय विषयों की कोई सूची नहीं थी ।
लेकिन इस शिखर वार्ता का ऐतिहासिक महत्व इस तथ्य में है कि पांच-छ: वर्ष के दूसरे शीत-युद्ध और जबर्दस्त तनाव तथा चुप्पी के बाद तनाव घटाने की दिशा में यह पहला बड़ा कदम था । इसके बाद एक के बाद एक शिखर वार्ता और समझौते होते गये और 1991 के अन्त तक शीत-युद्ध समाप्त हो गया ।
शीत-युद्ध समाप्ति की दिशा में निम्नलिखित समझौते, शिखर वार्ताएं और घटनाक्रम उल्लेखनीय:
जेनेवा बार्ता (नवम्बर 1985):
जेनेवा में दो महारथी रीगन और गोर्बाच्योव मिले । दो दिन (19 एवं 20 नवम्बर, 1985) तक उनके बीच निजी और गोपनीय बातचीत चली । दोनों महाशक्तियों के बीच छह साल बाद बातचीत हुई ।
जेनेवा शिखर वार्ता में दोनों महाशक्तियों के नेता जिन मुद्दों पर सहमत हुए वे इस् प्रकार हैं:
1. परमाणु युद्ध कभी नहीं बड़ा जाना चाहिए । कोई भी एक पक्ष अपना सैनिक वर्चस्व कायम करने की कोशिश नहीं करेगा ।
2. हथियारों की होड़ पर काबू पाने के लिए दोनों पक्ष वार्ता को और तेजी से आगे बढ़ाये तथा दोनों पक्ष अपने-अपने परमाणु हथियारों के जखीरे में 50 प्रतिशत कमी करें ।
3. दोनों पक्ष 1968 की परमाणु अप्रसार सन्धि की पुन: पुष्टि करें और अपील करें कि अधिकाधिक देश इस पर हस्ताक्षर कर दें ।
4. रासायनिक हथियारों पर पूर्ण प्रतिबन्ध हो ।
5. यूरोप में सेनाओं के मामले पर वियेना वार्ता को महत्व दिया जाय ।
6. बल प्रयोग को वर्जित घोषित करने के लिए दस्तावेज तैयार किया जाय ।
7. दोनों पक्ष सांस्कृतिक शैक्षिक वैज्ञानिक और आर्थिक सम्बन्धों को प्रगाढ़ करें ।
8. गोर्बाच्योव 1986 में अमरीका की और रीगन 1986 में सोवियत संघ की यात्रा करें ।
9. सोवियत संघ न्यूयार्क में और अमरीका कीव में साथ-साथ अपना वाणिज्य दूतावास खोलें ।
रगिन-गोर्बाच्योव शिखर वार्ता (11-12 अक्टूबर, 1986):
11-12 अक्टूबर 1986 को रिकजाविक (आइसलैण्ड) में अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन तथा सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाच्योव के बीच दो दिन की शिखर वार्ता सम्पन्न हुई । ‘स्टारवार्स’ पर रीगन के अड़े रहने से शिखर वार्ता विफल हो गयी ।
रिकजाविक से रवाना होने के पूर्व रीगन ने कहा कि स्टारवार्स कार्यक्रम को प्रायोगिक शोध एवं परीक्षण तक सीमित रखने का सोवियत प्रस्ताव उन्हें मान्य नहीं जबकि गोर्बाच्योव ने कहा कि यदि वे सोवियत संघ को सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण आणविक अस्त्रों से वंचित कर अमरीका को अन्तरिक्ष में हथियार तैनात करने की छूट दे देते तो वह ‘पागल’ ही कहलाते ।
गोर्बाच्याव के अनुसार सामरिक हथियारों में अगले पांच वर्ष में पचास प्रतिशत कटौती करने यूरोप में मध्यम दूरी के प्रक्षेपास्त्रों समाप्त करने तथा एशिया में सोवियत संघ के मध्यम दूरी के प्रक्षेपास्त्रों की संख्या घटाने सम्बन्धी एक योजना पर सहमति के वार्ता अत्यन्त निकट थी ।
इसके साथ ही गोर्बाच्योव की मांग थी कि इन सारी कटौतियों के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि अमरीका प्रयोगशाला से बाहर स्टारवार्स कार्यक्रम दस वर्ष रोक दे । रीगन ने इस प्रस्ताव को साफ नामंजूर कर दिया ।
गोर्बाच्योव ने कहा कि अमरीका को विश्वास है कि वह ‘स्टारवार्स’ के द्वारा सोवियत संघ पर सैनिक श्रेष्ठता प्राप्त करने के कगार पर है अत: रीगन ने उन समझौतों को भी मानने से इंकार कर दिया, जिन पर पूर्ण सहमति हो चुकी थी और सिर्फ सन्धि पत्र पर हस्ताक्षर करने बाकी थे । इस प्रकार नया इतिहास बनाने का एक अवसर गंवा दिया गया ।
अमरीका व सोवियत संघ सैन्य जानकारी देने को सहमत:
सितम्बर, 1987 को अमरीका व सोवियत रूस के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए । इसके अन्तर्गत दोनों देश अपनी सैनिक गतिविधियों के बारे में एक-दूसरे को जानकारी देने पर सहमत हुए । समझौते के अन्तर्गत मास्को और वाशिंगटन में परमाणु जोखिम निस्तारण केन्द्र खोले जाने पर सहमति हुई ।
सोवियत संघ-अमरीका शिखर वार्ता तथा आई. एन. एफ. सन्धि पर हस्ताक्षर (8-10 दिसम्बर 1987):
सोवियत संघ के नेता गोर्बाव्योव अमरीकी राष्ट्रपति रीगन के बीच 8-10 दिसम्बर, 1987 में वार्ता हुई । यह तीसरी शिखर वार्ता थी । दोनों नेताओं ने 9 दिसम्बर, 1987 को एक ऐतिहासिक सन्धि पर हस्ताक्षर किये । इसे आई. एन. एफ. सन्धि कहा जाता है ।
सन्धि का मूल पाठ दो सौ पूछो का: है । सन्धि में दोनों देश मध्यम व कम दूरी के प्रक्षेपास्त्र नष्ट करने को सहमत हो गये । इस सन्धि से कुल मिलाकर 1,139 परमाणु हथियार नष्ट किये जाने की बात तय हुई ।
सन्धि के अनुसार सोवियत संघ के एस.एस. 4, एस.एस.-12, एस.एस-20, एस. एस-23 प्रक्षेपास्त्रों और अमरीका के पर्शिग-1 ए. और पर्शिंग-2 और भू प्रक्षेपास्त्रों को नष्ट किया जाना तय हुआ । आई. एन. एफ. सन्धि एक ऐतिहासिक सन्धि है । यह एक ‘महत्वपूर्ण एवं अद्भुत विकास’ है । यह विश्व शान्ति की दिशा में एक रचनात्मक कदम है ।
इसका महत्व इस प्रकार है:
a. यह महाशक्तियों के सम्बन्ध में रचनात्मक सुधार का प्रतीक है ।
b. यह दोनों महाशक्तियों के युद्ध को रोकने का दृढ़ संकल्प है ।
c. यह निरस्त्रीकरण सम्बन्धी पहला समझौता है ।
d. यह परमाणु निरस्त्रीकरण की ओर पहला कदम है ।
इसके तहत् परमाणु प्रक्षेपास्त्रों की एक श्रेणी को पूर्णत: नष्ट कर दिया जाना तय हुआ । यद्यपि नष्ट किये जाने वाले परमाणु प्रेक्षपास्त्रों की मात्रा कुल अस्त्रों के 4 से 8 प्रतिशत है फिर भी यह पहली निरस्त्रीकरण सम्बन्धी सन्धि है जिसमें कट्टर शत्रुओं और प्रतिद्वन्द्वी महाशक्तियों ने अपने द्वारा निर्मित अस्त्रों को नष्ट करने का वचन दिया ।
e. इसने निरस्त्रीकरण के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट को दूर कर दिया । दोनों महाशक्तियां ‘जांच प्रक्रिया’ और मानीटरिंग पर राजी हो गईं । दोनों नेताओं में अन्य विषयों पर भी वार्ता हुई । दोनों देशों के बीच इसके परिणामस्वरूप कुछ समझौते हुए । एक समझौते के अनुसार अमरीका से सोवियत रूस तक सीधी वायु सेवा मई 1988 से आरम्भ होना तय हुआ ।
एक अन्य समझौते के तहत दोनों देश अपने यहां परमाणु परीक्षणों की क्षमता की जांच के लिए एक-दूसरे को निरीक्षण की सुविधा देने पर सहमत हुए । रीगन व गोर्बाच्योव दोनों ने इस शिखर वार्ता को तनाव कम करने की दिशा में ऐतिहासिक बताया ।
रीगन-गोर्बाच्योव शिखर वार्ता (1 जून, 1988):
1 जून, 1988 को मास्को में रीगन व गोर्बाच्योव के बीच वार्ताओं के चार दौर हुए । दोनों देशों के विदेश मन्त्रियों ने भूमिगत परमाणु विस्फोटों पर पाबन्दी की साझा जांच से सम्बन्धित एक समझौते पर हस्ताक्षर किये । इसके अतिरिक्त, अन्तरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलों के प्रक्षेपण पर एक-दूसरे को सूचना देने सम्बन्धी समझौते पर भी हस्ताक्षर हुए ।
सोवियत सांस्कृतिक मन्त्री जखारोफ और अमरीकी सूचना एजेन्सी के निदेशक श्री विक ने 1989-91 के लिए आपसी सहयोग और विनिमय सम्बन्धी कार्यक्रम पर हस्ताक्षर किये । इसके तहत् दोनों देश एक-दूसरे के बीच सांस्कृतिक सम्बन्ध बढ़ाने हेतु कार्यवाही करने के लिए सहमत हुए ।
प. जर्मनी के चांसलर की मास्को यात्रा:
24-27 अक्टूबर 1988 को प. जर्मनी के चांसलर हेलमुट कोल ने मास्को की यात्रा की । इस यात्रा से यह प्रकट होता है कि पश्चिमी यूरोप के देश सोवियत संघ तथा व्यक्तिश: गोर्बाच्योव से अपना सम्बन्ध स्थापित करने को एक प्रकार की गौरव की भावना से देखने लगे ।
इसी यात्रा के दौरान प जर्मनी और सोवियत संघ की सरकारों के मध्य छ: समझौते हुए तथा तीस व्यावसायिक ठेके दिये गये । प. जर्मनी की तकनीकी प्रतिभा व साधन सोवियत संघ की आर्थिक ‘पेरेस्त्रोइका’ की सफलता के लिए क्रियाशील हो सकेंगे ।
संयुक्त राष्ट्र महासभा में गोर्बाच्योव की धोषणा:
8 दिसम्बर, 1988 को संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी विश्व संस्था के मंच से गोर्बाच्योव ने घोषणा की कि सोवियत संघ पूर्वी यूरोप के देशों से 5 लाख सैनिक हटा लेगा और परम्परागत हथियारों में काफी कटौती कर देगा । यह घोषणा सोवियत संघ की नीति में आ रहे जबर्दस्त परिवर्तन का संकेत था ।
गोर्बाच्योव की मुलाकात न्यूयार्क में राष्ट्रपति रीगन और निर्वाचित राष्ट्रपति बुश से भी हुई । इस मुलाकात के लिए धन्यवाद देते हुए गोर्बाच्योव ने कहा, ”हमारी बातचीत से जो नया वातावरण बन रहा है और उसमें जो नई लय उत्पन्न हुई है वह बराबर जारी रहेगी ।”
राष्ट्रपति रीगन ने गोर्बाच्योव की उक्त घोषणा का स्वागत किया क्योंकि रीगन ने ही सोवियत संघ को कभी ‘दुष्ट साम्राज्य’ कहा था । गोर्बाच्योव ने अमरीकियों को अपनी राय बदलने के लिए तो अब विवश कर ही दिया था ।
बुश-गोर्बाच्योव शिखर वार्ता (दिसम्बर 1989):
2-3 दिसम्बर, 1989 को भूमध्यसागर में अमरीकी व सोवियत युद्धपोतों पर राष्ट्रपति जॉर्ज बुश व गोर्बाच्योव के बीच शिखर वार्ता सम्पन्न हुई । राष्ट्रपति बुश ने जून में गोर्बाच्योव को अमरीका आने का निमन्त्रण दिया ।
राष्ट्रपति बुश ने सुझाव दिया कि अमरीका व सोवियत संघ सन् 2004 में ओलम्पिक खेल बर्लिन में कराने के लिए एक अपील जारी करें । यद्यपि किसी समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किये गये तथापि दोनों ने स्वीकार किया कि आपसी बातचीत का क्रम चलते रहना चाहिए ।
सोवियत संघ व यूरोपीय आर्थिक समुदाय में समझौता:
दिसम्बर, 1989 को सोवियत विदेश मन्त्री शेवर्दनात्से ब्रुसेल्स में नाटो मुख्यालय पर गये और राजदूतों की परिषद् से भेंट की । उन्होंने यूरोपीय आर्थिक समुदाय के साथ एक 10-वर्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किये । यूरोपीय आर्थिक समुदाय के साथ हुए समझौते के अन्तर्गत सोवियत संघ व समुदाय के देशों के बीच विभिन्न वस्तुओं में व्यापार बढ़ाने पर सहमति हो गयी ।
बर्लिन की दीवार का ध्वस्त होना:
यूरोप में बर्लिन की दीवार शीत-युद्ध का कलुषित प्रतीक थी । 9 नवम्बर, 1989 को बर्लिन को दो भागों में बांटने वाली दीवार ध्वस्त कर दी गयी । पूर्वी जर्मनी से लोग बिना किसी रोक-टोक के पश्चिमी जर्मनी जाने लगे । इस घटना का सोवियत संघ की ओर से कोई प्रतिरोध नहीं किया गया ।
जर्मनी का एकीकरण:
1 जुलाई, 1990 को दोनों जर्मनी का आर्थिक एकीकरण हो गया । 15-16 जुलाई 1990 को पश्चिमी जर्मनी के चांसलर हेल्मुट कोल ने सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाच्योव से भेंट की । बाद में एक पत्रकार सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए सोवियत राष्ट्रपति ने कहा कि जर्मनी का एकीकरण निश्चित है, सोवियत संघ जर्मनी से निकट सम्बन्ध चाहता है और यह जर्मनी की इच्छा पर है कि वह नाटो या वारसा पैक्ट में शामिल हो । इस प्रकार सोवियत संघ ने जर्मनी के एकीकरण को हरी झण्डी दिखा दी । 3 अक्टूबर, 1990 को जर्मनी का एकीकरण हो गया जिसके साथ ही यूरोप से शीत-युद्ध की गंदगी साफ हो गयी ।
नाटो द्वारा शीत-युद्ध समाप्ति की घोषणा:
5-6 जुलाई, 1990 को लन्दन में दो-दिवसीय नाटो शिखर सम्मेलन में राष्ट्रपति बुश ने ऐतिहासिक घोषणा करते हुए कहा कि नाटो व वारसा पैक्ट देशों के बीच शीत-युद्ध अब समाप्त हो चुका है । सोवियत संघ की आशंकाओं को दूर करने के लिए नाटो घोषणा में कहा गया कि जर्मनी से सैनिकों की तादाद कम कर दी जाएगी जैसे-जैसे सोवियत संघ पूर्वी यूरोप से अपनी सेनाएं हटाएगा नाटो भी पश्चिमी जर्मनी से परमाणु प्रक्षेपास्त्र हटा लेगा ।
पश्चिम जर्मनी ने सोवियत संघ को आश्वासन दिया कि वह एकीकरण के बाद अपनी सेना आधी कर देगा । नाटो देशों में वारसा पैक्ट के देशों के सामने एक अनाक्रमण घोषणा के साथ परमाणु शस्त्रों को खत्म करने का प्रस्ताव रखा ।
हेलसिंकी में गोर्बाच्योव-बुश वार्ता:
8-9 सितम्बर, 1990 को हेलसिंकी में राष्ट्रपति बुश व गोर्बाच्योव के बीच बातचीत हुई । दोनों नेताओं ने इराक द्वारा कुवैत पर आक्रमण की निन्दा की और कहा कि वे सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव का पूर्णत: समर्थन करते हैं । दोनों शासनाध्यक्षों ने विश्व समुदाय से संयुक्त राष्ट्र प्रतिबन्धों को कारगर बनाने में सहयोग करने की अपील की ।
इस शिखर वार्ता में यह तथ्य स्पष्ट हुआ कि दोनों सुपर पॉवर-अमरीका और सोवियत संघ इस बात पर एकमत हैं कि इराक बिना शर्त कुवैत से वापस हो जाये तथा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के सभी प्रस्तावों का अनुपालन करे । सोवियत संघ ने इराक को शस्त्रों की आपूर्ति बन्द कर दी तथा कुवैत की स्वतन्त्रता एवं सम्प्रभुता को बहाल करने की मांग की ।
जर्मनी व सोवियत संघ के बीच मैत्री सन्धि:
जर्मनी व सोवियत संघ के बीच 9 नवम्बर 1990 को बीन में एक ऐतिहासिक अनाक्रमण व मैत्री सन्धि पर हस्ताक्षर हुए । सोवियत संघ की ओर से इस सन्धि पर राष्ट्रपति गोर्बाच्योव ने व जर्मनी की ओर से चांसलर हेल्युट कोल ने हस्ताक्षर किये । सन्धि में कहा गया कि दोनों देश आपसी मैत्री को बढ़ावा देंगे और आपस में उत्पन्न किसी भी विवाद को केवल शान्ति से हल करेंगे ।
आपसी तनाव को कम करने के लिए सन्धि में कहा गया कि कोई भी पक्ष सैनिकवाद को बढ़ावा नहीं देगा । सन्धि पर हस्ताक्षर करने के बाद सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाच्योव ने कहा कि इस सन्धि के साथ यूरोप में एक नये युग की शुरुआत होगी । अब यूरोप में शीत-युद्ध समाप्त हो चुका है और सब देशों को शान्ति से रहने का पूरा अवसर प्राप्त है ।
वारसा ब नाटो में ऐतिहासिक सन्धि पर हस्ताक्षर:
19 नवम्बर 1990 को पेरिस में नाटो व वारसा सन्धि देशों के उपशासनाध्यक्षों ने एक ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किये । इस सन्धि के द्वारा यूरोप में शीत-युद्ध को समाप्त कर दिया गया । 200 पूछो की इस सन्धि को तैयार करने में नाटो व वारसा पैक्ट देशों को 21 माह का समय लगा ।
सन्धि में दोनों गुटों के लिए सैनिकों की संख्या निर्धारित नहीं की गयी लेकिन परम्परागत शस्त्रों की अधिकतम संख्या प्रत्येक के लिए इस प्रकार नियत की गयी: टैंक 20,000, आर्ड पर्सनल कैरियर्स 30,000, आर्टीलरी पीसेज 20,000, लड़ाकू विमान 6,800 लड़ाकू हैलीकॉप्टर 2,000 ।
सन्धि में जांच-पड़ताल की भी व्यापक व्यवस्था की गयी ताकि कोई भी पक्ष इसका उल्लंघन न कर सके । सन्धि पर हस्ताक्षर करने के बाद अमरीका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने कहा कि इस सन्धि से यूरोप में आपसी सद्भाव व मैत्री का एक नया युग आरम्भ होगा ।
21 नवम्बर, 1990 को शिखर बैठक सद्भावनापूर्ण विचार-विमर्श के बाद समाप्त हो गयी । यूरोपीय देशों ने दूसरे विश्व-युद्ध के बाद अपनी इस पहली शिखर बैठक में एक चार्टर को स्वीकार किया जिसमें उन्होंने लोकतन्त्र मानव अधिकारों व आर्थिक स्वतन्त्रता के प्रति वचनबद्धता को स्वीकार किया ।
फ्रांस के राष्ट्रपति मित्तरां ने सबसे पहले इस चार्टर पर हस्ताक्षर किये । इस अवसर पर अमरीका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश व सोवियत संघ के राष्ट्रपति गोर्बाच्योव ने कहा कि यूरोप में शीत-युद्ध का एक कटु अध्याय समाप्त हो गया है । अब हम शान्तिपूर्ण और स्थिर यूरोप की स्थापना कर सकेंगे ।
वारसा पैक्ट समाप्त:
शीत-युद्ध के दिनों में नाटो के प्रत्युत्तर में सोवियत संघ के नेतृत्व में वारसा पैक्ट का 9 मई 1955 को निर्माण किया गया । इस संगठन के जरिए सोवियत संघ पूर्वी यूरोपीय देशों में एकछत्र प्रभाव-क्षेत्र कायम कर सका था । वारसा सन्धि के अनुच्छेद 5 के अन्तर्गत एक संयुक्त सैनिक कमान बनायी गयी जिसका मुख्यालय मॉस्को में था । शीत-युद्ध की समाप्ति के माहौल में 1 जुलाई, 1991 को वारसा पैक्ट समाप्त कर दिया गया ।
मॉस्को शिखर सम्मेलन तथा स्टार्ट सन्धि पर हस्ताक्षर जुलाई 1991:
31 जुलाई, 1991 को मॉस्को में अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाच्योव के शिखर सम्मेलन में ‘सामरिक हथियारों में कटौती’ की ऐतिहासिक सन्धि (स्टार्ट सन्धि) पर हस्ताक्षर हुए ।
सन्धि की शर्तों के अनुसार दोनों महाशक्तियां अपने परमाणु शस्त्रों में स्वेच्छा से 30 प्रतिशत कटौती करने को सहमत हो गयीं । यह सन्धि पहला बड़ा औपचारिक समझौता था जिसके माध्यम से सर्वाधिक खतरनाक एवं विनाशकारी शस्त्रों में इतनी कटौती के लिए स्वेच्छा से सहमति हुई । ‘स्टार्ट सन्धि’ वास्तव में शीत-युद्ध के अन्त की दिशा में ऐतिहासिक उपलब्धि है ।
युद्ध निषेध के बारे में कोरियाई समझौता:
1950 में कोरिया युद्ध शीत-युद्ध की चरम सीमा थी । कोरिया समस्या के दिनों में संयुक्त राष्ट्र संघ शीत-युद्ध का अखाड़ा बन गया था, किन्तु 12 दिसम्बर 1991 को 45 वर्ष पुराने प्रतिद्वन्द्वी उत्तरी और दक्षिणी कोरिया ने सुलह-सफाई शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व और कोरियाई युद्ध की पूर्ण समाप्ति के बारे में एक ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किये । अब दोनों कोरिया संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य बन चुके हैं । आशा है दोनों कोरिया राजनीतिक एकीकरण की दिशा में शीघ्र आगे बढ़ेंगे ।
नाटो शस्त्र-भण्डारों में 80 प्रतिशत कटौती:
अक्टूबर 1991 में नाटो सदस्य देश यूरोप में अपने परमाणु हथियारों के भण्डार में 80 प्रतिशत की कटौती करने के बारे में सहमत हो गये । नाटो के 42 वर्षों के इतिहास में यह अब तक की सबसे बड़ी हथियार कटौती है ।
इस निर्णय के अन्तर्गत पश्चिम यूरोप में 2,000 कम दूरी के प्रक्षेपास्त्र और तोपें तथा 700 ग्रेविटी बम हटाने की बात कही गयी । उल्लेखनीय है कि 1950 के दशक से नाटो देशों ने शस्त्रों का जमाव करना आरम्भ किया था जो बाद में बढ़ता ही गया । नाटो के पास परमाणु अस्त्रों का विशाल जखीरा है जिसकी अब खासतौर से वारसा पैक्ट के भंग होने के बाद कोई आवश्यकता नहीं रही ।
अफगान समझौता:
अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप (1979) से दूसरे शीत-युद्ध की शुरूआत हुई थी । अफगान समस्या के समाधान के प्रयासों के अन्तर्गत ही अमरीका तथा पूर्व सोवियत संघ ने 1 जनवरी 1992 से इस देश को सैन्य सामग्रियों की आपूर्ति: पूर्णत बन्द कर दी ।
पहली बार किसी साम्यवादी शक्ति ने किसी दूसरे देश में पांव जमाने के बाद वहां से पांव हटाये । ज्ञातव्य है कि 12 सितम्बर, 1991 को मास्को में सोवियत संघ तथा संयुक्त राज्य अमरीका में इस आशय का समझौता हुआ था । वस्तुत: दोनों महाशक्तियों ने अफगानिस्तान में शान्ति बहाल करने की गारण्टी दी ।
किम दे जंग की प्योंगयांग यात्रा:
दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति किम दे जंग 180 लोगों का प्रतिनिधि मण्डल लेकर जब 13 जून 2000 को उत्तर कोरिया की राजधानी प्योंगयांग पहुंचे तो इस धुर पूर्वी प्रायद्वीप से भी शीतयुद्ध के अवशेष जीवाणु नष्ट होते नजर आए । इस यात्रा ने कोरिया के एकीकरण का मार्ग प्रशस्त कर दोनों देशों को सौहार्द, सहयोग एवं पुनरेकीकरण की ओर अग्रसर कर दिया ।
शीत-युद्ध की समाप्ति के कारण:
शीत-युद्ध के बाद ‘दूसरा शीत-युद्ध’ अपने परवान पर था और फिर एकदम 7 वर्षों (1985-91) में ‘दूसरे शीत-युद्ध’ का परवान उतरकर शीत-युद्ध की विदाई में कैसे और क्यों परिणत हो गया ?
इसके निम्नलिखित कारण हैं:
1. मिखाइल गोर्बाच्योव का व्यक्तित्व एवं नीतियां:
मार्च 1985 में सोवियत संघ की बागडोर मिखाइल गोर्बाच्योव के हाथों में आयी । जिस प्रकार स्टालिन को शीत-युद्ध के जनक के रूप में याद किया जाता है उसी प्रकार दुनिया गोर्बाच्योव को शीत-युद्ध का अन्त करने वाले नेता के रूप में याद करेगी । गोर्बाच्योव ने लौह आवरण की दीवार तोड़ डाली और बन्द दरवाजे तथा खिड़कियां खोल दीं ।
उन्होंने विश्व में शान्ति स्थापित करने के लिए परमाणुविहीन हिंसामुक्त, समस्यारहित विश्व की एक नई दृष्टि दी । उन्होंने दिसम्बर, 1987 में कम और मध्यम दूरी तक मार करने वाले प्रक्षेपास्त्रों को नष्ट करने वाली सन्धि (आई. एन. एफ. सन्धि) पर हस्ताक्षर किए । उन्होंने अस्त्रों और सेनाओं की एकतरफा कटौती की घोषणा की ।
उनकी ‘ग्लास्नोस्त’ और ‘पेरेस्त्रोइका’ नीतियों ने राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में नई व्यवस्था का सूत्रपात किया । सोवियत संघ ने गोर्बाच्योव के नेतृत्व में जिस उदार सौम्य और समझौतावादी राजनय का आश्रय लिया उसने विश्व राजनीति में आमूल-चूल परिवर्तन ला दिया ।
पूर्वी यूरोप के देशों की स्वतन्त्रता एवं लोकतन्त्र का समर्थन कर संयुक्त जर्मनी को नाटो की सदस्यता जारी रखने वारसा पैक्ट को भंग करने का निर्णय लेकर गोर्बाच्योव ने यूरोपीय लोगों का दिल जीत लिया । इन रियायतों से जर्मन लोग अभिभूत हो गये । गोर्बाच्योव की इन्हीं राजनयिक उपलब्धियों के कारण उन्हें नोबल शान्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।
2. सोवियत संघ की आर्थिक मजबूरियां:
1980 के बाद सोवियत संघ आर्थिक संकट से गुजर रहा था । अन्तरिक्ष अनुसंधान की प्रतिस्पर्द्धा और शस्त्र निर्माण पर बेतहाशा खर्च करने के बाद उसकी अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी । अब उसमें सामर्थ्य नहीं थी कि वह पश्चिमी देशों से शीत-युद्ध की प्रतिस्पर्द्धा कर सके ।
मिखाइल गोर्बाच्योव ने दो टूक शब्दों में सोवियत अर्थव्यवस्था की दुर्दशा का वर्णन किया- ”स्थिति का विश्लेषण करने पर हमें यह पता चला कि आर्थिक प्रगति मन्द होती जा रही है । पिछले 15 वर्षों में राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर आधे से भी अधिक घट गयी और 1980 के दशक के प्रारम्भ तक वह घटकर आर्थिक गतिरोध के निकटवर्ती स्तर पर पहुंच गयी थी । जो देश कभी विश्व के उन्नत देशों की बराबरी के बहुत निकट पहुंच गया था वह निरन्तर एक के बाद दूसरा स्तर गंवाने लगा ।”
गोर्बाच्योव के अनुसार 1970-85 की अवधि में वृद्धि दर 10 प्रतिशत घट गयी । यन्त्रों तथा साज-सामान के निर्यात का अंश निरन्तर घटता गया । 1970 में 22 प्रतिशत से घटता हुआ वह 1985 में 14 प्रतिशत से भी कम हो गया । कृषि उत्पादन भी चौपट हो गया ।
नवीनतम वैज्ञानिक कार्य-पद्धतियों को अपनाने वाले सोवियत संघ का खेत प्रति हेक्टेअर केवल 15 क्विंटल गेहूं या दो-तीन मीट्रिक टन अंगूर का उत्पादन कर रहा था जो भारतीय उत्पादन का एक-तिहाई भी नहीं था । उपभोक्ता क्षेत्र में प्रौद्योगिक प्रगति मन्द होने के कारण सोवियत संघ में जीवन का स्तर बहुत घटिया था ।
कोयला खान श्रमिकों की हड़ताल से आर्थिक स्थिति और भी जटिल हो गयी । मार्च 1991 की हड़ताल से 580 कोयला खानों में से 200 प्रभावित हुई । सोवियत अर्थव्यवस्था को खाड़ी युद्ध से भी बहुत बड़ा धक्का लगा क्योंकि वह सोवियत शस्त्र भण्डार की बिक्री के लिए घातक सिद्ध हुआ ।
संक्षेप में, सोवियत संघ जैसी महाशक्ति आर्थिक संकट के कगार पर थी । सन् 1988 में आर्थिक वृद्धि दर 44 प्रतिशत थी निर्यात 2 प्रतिशत घट गया और आयात 6.5 प्रतिशत बढ़ गया । जिस देश में उत्पादन दक्षता और लोगों के जीवन-निर्वाह स्तर में वृद्धि रुक गयी हो उपभोक्ता वस्तुओं के लिए लम्बी-लम्बी क्यू (पंक्तियां) लगती हों वह शीत-युद्ध की समाप्ति में ही अपना राष्ट्रीय हित समझने लगा ।
सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के 28वें सम्मेलन में तत्कालीन सोवियत विदेश मन्त्री शेवरनाद्जे ने रहस्योद्घाटन किया कि पश्चिम के साथ वैचारिक संघर्ष में सोवियत संघ को 7 अरब रूबल तो सैनिक उपायों पर ही व्यय करने पड़े जबकि राजनीतिक समतुल्यता बनाये रखने के लिए आवश्यकता इससे भी अधिक थी दूसरी ओर चीन के साथ लगे झमेले में 2 खरब रूबल का व्यय और हुआ । अफगानिस्तान में उलझने की लागत आयी-प्राणहानियों के अतिरिक्त 60 अरब रूबल ।
3. सोवियत संघ का बिखराव:
1990-91 के वर्ष सोवियत संघ में उथल-पुथल के वर्ष रहे । 9 अगस्त, 1991 की तख्ता पलट घटना से गोर्बाच्योव की लोकप्रियता को जबर्दस्त धक्का लगा । विश्व-शक्ति के रूप में अब सोवियत संघ की प्रतिष्ठा गुजरे जमाने की चीज होकर रह गयी ।
सोवियत संघ की स्थिति में आयी यह गिरावट खाड़ी संकट के दौरान उसके द्वारा अमरीका को दिये गये निकिय समर्थन से ही स्पष्ट हो चुकी थी लेकिन इसकी चरम परिणति तब हुई जब गोर्बाच्योव ग्रुप-7 की लंदन बैठक में जाकर पश्चिमी आर्थिक मदद जुटाने में विफल रहे और उनके अपने देश में अपने गणराज्यों ने जोर-शोर से अपनी स्वायत्तता की मांगें रखनी शुरू कर दीं ।
किसी समय विश्व-शक्ति कहलाने वाले सोवियत संघ का यह राजनीतिक बिखराव वर्तमान समय की कुरूप वास्तविकता है । कल तक श्रमिकों के हितों की रक्षक समझी जाने वाली सोवियत कम्यूनिस्ट पार्टी निधन के कगार पर थी और के. जी. बी. जैसी सर्वसमर्थ मानी जाने वाली संस्था भी बालू की भीत सी ध्वस्त हो चुकी थी ।
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इसी प्रकार सोवियत सरकार का केन्द्रीकृत ढांचा भी नागरिक, सैनिक और अफसरशाही के क्षेत्रों में हो रहे नित नये परिवर्तनों के कारण चरमरा उठा । इसी घटनाक्रम का परिणाम था कि धीरे-धीरे कुछ ही महीनों में भीमाकार सोवियत संघ ध्वस्त हो गया ।
4. साम्यवादी देशों में लोकतन्त्र और बाजार अर्थव्यवस्था:
शीत-युद्ध एक वैचारिक संघर्ष था । सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों ने विकास का ‘कम्युनिस्ट मॉडल’ अपनाया था जिसकी विशेषता थी-एक सर्वाधिकारवादी दल तथा केन्द्रीकृत आदेशित अर्थव्यवस्था, किन्तु 1989-90 के वर्षों में पूर्वी यूरोप के देशों ने स्वतन्त्र निर्वाचन वाली बहुदलीय लोकतंत्रीय राजनीतिक व्यवस्था के साथ-साथ बाजार अर्थव्यवस्था अपना ली ।
1990 में सोवियत संघ में भी साम्यवादी पार्टी पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया तथा मुक्त बाजार व्यवस्था स्वीकार कर ली गयी । अब पश्चिमी देशों और पूर्वी यूरोप के देशों में कोई अन्तर नहीं रह गया । अब तो सोवियत संघ को जी-7 देशों से आर्थिक सहायता मिलने की सम्भावना बढ़ गयी । ऐसे परिवर्तन के दौर में शीत-युद्ध का अन्त एक स्वाभाविक घटना थी ।
नवम्बर-दिसम्बर 1991 में अमरीका ने खाद्य राहत के रूप में सोवियत संघ को 1.5 अरब डॉलर की राशि स्वीकृत की जिसे मिलाकर वर्ष 1991 में दी गयी अमरीकी मदद की राशि 4 अरब डॉलर तक पहुंच गयी । इन्हीं दिनों अकेले जर्मनी ने ही सोवियत संघ को 40 अरब डालर की मदद दी थी ।