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Here is an essay on ‘Environmental Issues and International Politics’ especially written for school and college students in Hindi language.
Environmental Issues and International Politics
Essay Contents:
- अन्तर्राष्ट्रिय एजेण्डे पर पर्यावरणीय मुददे कि परिभाषा (Introduction to the Environmental Issues on International Agenda)
- वन (Forest)
- मरुस्थलीकरण (Desertification)
- जैव विविधता एवं प्रदूषण (Biodiversity and Pollution)
- समुद्री पर्यावरण को सुरक्षित रखना (Protecting the Marine Environment)
- मौसम विज्ञान, मौसम एवं जल (Meteorology, Weather and Water)
- प्राकृतिक संसाधन एवं ऊर्जा (Natural Resources and Energy)
- पर्यावरण संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय कानून निर्माण हेतु प्रयत्न (Efforts for Making International Law for Environment Protection)
Essay # 1. अन्तर्राष्ट्रिय एजेण्डे पर पर्यावरणीय मुददे कि परिभाषा (Introduction to the Environmental Issues):
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध का पारम्परिक अध्ययन सीमित था, उसके अध्ययन का क्षेत्र राज्यों के मध्य सम्बन्ध, सरकारों और सुरक्षा बलों की भूमिका तथा युद्ध एवं शांति के प्रश्नों तक सीमित था ।
द्वितीय महायुद्ध के बाद राष्ट्रों के मध्य सम्बन्धों में अनेक गैर-राज्य अभिकर्ता भी भाग लेने लगे और आज प्रमुख भूमिका निभाने वाले तत्वों में आतंकवादी तथा बहुराष्ट्रीय निगम भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं । बाद में यह भी अनुभव किया गया कि ‘नागरिक समाज’ की भूमिका की अनदेखी भी नहीं जा सकती ।
आगे चलकर नागरिक समाज का मुख्य सरोकार ‘टिकाऊ विकास’ से जुड़ गया । ‘टिकाऊ विकास’ की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए ब्रांट आयोग ने कहा कि- ”विकास… जो वर्तमान की आवश्यकताओं को पूरा करता है, परन्तु भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं को पूरा करने की योग्यता को कम नहीं करता ।”
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की नई दिशा मानव अर्थव्यवस्था को विनाश एवं विखंडन से बचाना है । अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय राजनीति का सीधा सम्बन्ध उस गम्भीर खाई से है जो कि उत्तर के अमीर राष्ट्रों द्वारा नियंत्रित एवं सुरक्षित रखी गई है ताकि दक्षिण के निर्धन देशों के संसाधनों को छीनकर उन पर भी नियंत्रण स्थापित किया जा सके ।
आज के युग की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को हरित अर्थव्यवस्था की राजनीति कहा जा सकता है जिसके इर्द-गिर्द अनेक पर्यावरणीय उपागम चक्कर लगाते हैं । पर्यावरणीय उपागमों का उद्देश्य मात्र पर्यावरण की क्षति को रोकना ही नहीं परन्तु इस विचारधारा में आमूल परिवर्तन करना भी है जोकि संसाधनों पर सामाजिक नियंत्रण के मार्ग में बाधा है ।
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विश्व राजनीति के नवीन पर्यावरण उपागमों ने, लोगों के उनकी अर्थव्यवस्था के साथ, संस्कृति के कानून के साथ तथा उत्पादन तत्वों के प्राकृतिक संसाधनों के साथ नए सम्बन्ध स्थापित किए हैं । ”अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध के उपागम अब केवल रणनीतिक प्रतिरक्षा क्षमता की व्याख्या तक सीमित नहीं हैं…अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध को आज विश्वव्यापी पारिस्थितिकी के चक्र के अनुसार अध्ययन करना है, न कि विश्व बाजार के लाभ-हानि की दृष्टि से ।”
पर्यावरण का क्षय या ह्रास एक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या है । जनसंख्या विस्फोट, नगरीकरण जल प्रदूषण, धुआं, शोरगुल, रासायनिक प्रवाह, विज्ञान और तकनीक का अप्रत्याशित प्रसार, आदि वे कारण हैं जिनकी वजह से पर्यावरण का ह्रास हो रहा है ।
विश्व के अधिकांश भागों में पर्यावरण की समस्याएं अब भी निर्धनता और अज्ञान से सम्बन्धित हैं । परम्परागत अन्तर्राष्ट्रीय कानून में प्रदूषण और पर्यावरण ह्रास की समस्याओं पर बहुत ज्यादा चिन्तन नहीं किया गया था ।
फिर भी यह माना जाता था कि किसी राज्य के कार्य-कलापों की एक सीमा यह है कि उससे अन्य राज्यों के क्षेत्र पर कोई क्षति नहीं पहुंचनी चाहिए । इसका मतलब यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अन्तर्गत प्रत्येक राज्य का यह कर्तव्य है कि वह अपने राज्य क्षेत्र में ऐसा कोई कार्य न करे जिससे उस क्षेत्र के बाहर पर्यावरण सम्बन्धी क्षति पहुंचे ।
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संयुक्त राष्ट्र के आरम्भिक दशकों में पर्यावरणीय चिन्ताएं यदा-कदा ही अन्तर्राष्ट्रीय एजेण्डा सूची पर आती थीं । इस संगठन के तत्सम्बन्धी कार्य ने प्राकृतिक संसाधनों की खोज एवं उनके उपयोग पर जोर दिया, साथ ही यह भी सुनिश्चित करना चाहा कि खास तौर पर विकासशील देश, अपने स्वयं के प्राकृतिक संसाधनों पर नियन्त्रण बनाए रखने में समर्थ हों ।
1960 के दशक में समुद्री प्रदूषण, विशेषकर तेल के बिखराव, से सम्बन्धित कुछ समझौते हुए थे, लेकिन वैश्विक स्तर पर पर्यावरण के क्षय के बढ़ते प्रमाण के कारण 1970 के दशक से अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय ने इस ग्रह की पारिस्थितिकी एवं मनुष्य समाज पर विकास के प्रभाव पर उत्तरोत्तर चिन्ता व्यक्त की । संयुक्त राष्ट्र पर्यावरणीय चिन्ताओं का एक प्रमुख पैरवीकार और ‘टिकाऊ विकास’ का मुख्य प्रतिपादक रहा है ।
आर्थिक विकास एवं पर्यावरणीय क्षय के बीच सम्बन्ध को सर्वप्रथम 1972 में स्टॉकहोम में आयोजित मानव पर्यावरण पर संयुत्ह राष्ट्र सम्मेलन के एजेण्डा में रखा गया था । सम्मेलन के बाद सरकारों ने संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूनाइटेड नेशन्स एनवायरनमेन्ट प्रोग्रैम-यू.एन.ई.पी) स्थापित किया, जो एक प्रमुख वैश्विक पर्यावरणीय एजेन्सी के रूप में कार्य कर रहा है ।
वर्ष 1973 में संयुक्त राष्ट्र ने पश्चिमी अफ्रीका में मरुस्थलीकरण के विस्तार को घटाने के प्रयासों को बढ़ाने के लिए सूडानो-सहेलियन ऑफिस (यूएनएसओ) की स्थापना की तथापि राष्ट्रीय आर्थिक नियोजन एवं निर्णय प्रक्रिया में पर्यावरणीय चिन्ताओं को शामिल करने का कार्य धीमा रहा ।
कुल मिलाकर पर्यावरण में क्षय होना जारी रहा और वैश्विक ताप, ओजोन क्षय एवं जल प्रदूषण जैसी समस्याएं और गम्भीर हो गयीं । दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों का विनाश भी चिन्ताजनक रूप से बढ़ गया । वर्ष 1980 का दशक पर्यावरणीय विषयों पर सदस्य-राज्यों के मध्य उल्लेखनीय वार्ताओं का साक्षी रहा ।
इनमें ओजोन परत को सुरक्षित रखने एवं विषैले उत्सर्जन की गति को नियन्त्रित करने वाली सन्धियों का समावेश था । 1983 में महासभा द्वारा स्थापित पर्यावरण एवं विकास पर विश्व आयोग ने, एक नए प्रकार की समझबूझ और एक नए प्रकार के विकास की जरूरत के प्रति तात्कालिता की भावना पैदा की ।
ऐसा विकास जो वर्तमान एवं भावी पीढ़ियों के आर्थिक कल्याण को सुनिश्चित करने के साथ-साथ पर्यावरणीय संसाधनों को, जिन पर सारा विकास अवलम्बित है, को संरक्षित रखेगा । महासभा को प्रस्तुत आयोग की 1987 की रिपोर्ट में टिकाऊ विकास की अवधारणा सामने रखी गयी । ऐसा टिकाऊ विकास अनियन्त्रित आर्थिक वृद्धि पर आधारित विकास का एक वैकल्पिक तरीका होता ।
आज पर्यावरण को समर्थन देने तथा टिकाऊ रखने की जरूरत संयुक्त राष्ट्र कार्य के वस्तुत: सभी क्षेत्रों में महसूस की जा रही है । 1972 से किए गए नए बुनियादी कार्य को इस बात का श्रेय है कि नई कार्य प्रणालियों की रचना की गयी है ।
संयुक्त राष्ट्र एवं सरकारों; गैर सरकारी संगठनों; वैज्ञानिक समुदाय और निजी क्षेत्र के बीच गतिशील भागीदारी पर्यावरणीय समस्याओं के लिए, जो सभी देशों के लिए समान हैं, नये ज्ञान एवं ठोस कार्य को जन्म दे रही है ।
संयुक्त राष्ट्र की मान्यता है कि पर्यावरण को संरक्षित रखने की जरूरत का सभी आर्थिक एवं सामाजिक विकास गतिविधियों का अभिन्न हिस्सा होना आवश्यक है । जब तक पर्यावरण को सुरक्षित नहीं किया जाता और उसकी रेखाएं संरक्षित नहीं रखी जातीं तब तक आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लक्ष्य कदापि प्राप्त नहीं किए जा सकते ।
पृथ्वी शिखर सम्मेलन में यह सहमति हुई कि एजेण्डा 21 के लिए अधिकांश धन प्रत्येक देश के सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र से आएगा । तथापि, विकासशील देशों के टिकाऊ विकास पर अमल और वैश्विक पर्यावरण को सुरक्षित रखने के प्रयासों के लिए धन के कुछ नए एवं अतिरिक्त साधन आवश्यक समझे गए ।
1991 में प्रारम्भ एवं 1994 में पुनर्गठित वैश्विक पर्यावरण सुविधा (ग्लोबल एनवायरनमेन्ट फेसिलिटी-जीईएफ, ‘जेफ’ ) को इन निधियों को व्यवस्थित ढंग से देने का कार्य दो बार सौंपा गया । 1994 में 34 राष्ट्रों ने ‘जेफ’ (जीईएफ) को 2 अरब डॉलर देने का वचन दिया, और 1998 में 36 राष्ट्रों ने दो अरब 75 करोड़ डॉलर दिए । ‘जेफ’ निधियां वे प्राथमिक साधन हैं, जिनके जरिए जैविक विविधता एवं मौसम परिवर्तन सन्धियों के लक्ष्य साकार किए जाते हैं ।
‘जेफ’ परियोजनाएं- मुख्यत: यूएनडीपी, यू.एन.ई.पी और विश्व बैंक द्वारा संचालित- वे जैविक विविधता को संरक्षित रखतीं और उनका टिकाऊ उपयोग करती हैं । वे वैश्विक मौसम परिवर्तन पर ध्यान देती हैं तथा अन्तर्राष्ट्रीय जल के क्षय को दूर करती हैं । वे ओजोन परत को क्षीण करने वाले तत्वों को क्रमश: दूर करती हैं । भूमि क्षय की व्यापक समस्या के निराकरण के लिए कार्य को भी धन की जरूरत है ।
‘जेफ’ इस समय 140 विकासशील राष्ट्रों एवं संक्रमण से गुजरती अर्थव्यवस्था वाले देशों में लगभग 700 परियोजनाओं को वित्तीय सहायता दे रहा है । इसने तीन अरब डॉलर का आबंटन किया है तथा प्राप्तकर्ता सरकारों, अन्तर्राष्ट्रीय विकास एजेन्सियों, निजी उद्योग एवं गैर-सरकारी संगठनों के साथ सह-वित्त व्यवस्था द्वारा अतिरिक्त 8 अरब डॉलर एकत्र किए हैं ।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP):
यद्यपि सम्पूर्ण संयुक्त राष्ट्र प्रणाली विविध तरीकों से पर्यावरण की सुरक्षा में लगी हुई है, तथापि इस क्षेत्र में उसकी मुख्य एजेन्सी संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूनाइटेड नेशन्स एनबायरनमेन्ट प्रोग्रेम-यू.एन.ई.पी) है ।
संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के पर्यावरणीय विवेक के बतौर गठित यू.एन.ई.पी विश्व की स्थिति का आकलन और अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की जरूरत वाले विषयों की पहचान करती है । यह अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय कानून तैयार करने और संयुक्त राष्ट्र प्रणाली को सामाजिक एवं आर्थिक नीतियों एवं कार्यक्रमों में पर्यावरणीय विचारों को शामिल करने में सहायता देती है ।
यू.एन.ई.पी ऐसी समस्याओं के समाधान में सहायता करती है, जिन्हें देश अकेले नहीं संभाल सकते । यह सहमति निर्माण और अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों को पुष्ट बनाने के लिए एक फोरम प्रस्तुत करती है । ऐसा करते समय यह टिकाऊ विकास की उपलब्धि में व्यवसाय और उद्योग, वैज्ञानिक एवं एकेडेमिक समुदाय, गैर-सरकारी संगठनों, सामुदायिक समूहों की भागीदारी का विस्तार करने का प्रयत्न करती है ।
यू.एन.ई.पी का एक कार्य पर्यावरण पर वैज्ञानिक ज्ञान एवं सूचना को बढ़ावा देना है । यू.एन.ई.पी द्वारा प्रादेशिक तथा वैश्विक स्तरों पर प्रोत्साहित और समन्वित पर्यावरणीय सूचना के शोध तथा विश्लेषण ने कई प्रकार की पर्यावरण की स्थिति (स्टेट ऑफ द एनवायरनमेन्ट) रिपोर्टों को जन्म दिया और उभरती पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति एक विश्वव्यापी जागरूकता पैदा की, इनमें से कुछ समस्याओं ने अनेक पर्यावरणीय सन्धियों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय वार्ताओं की शुरुआत की ।
एक विश्वव्यापी नेटवर्क वैश्विक संसाधन सामग्री आधार (ग्लोबल रिसोर्स इनफर्मेशन डेटाबेस– जी.आर.आई.डी-ग्रिड) की रचना करते हुए इसके माध्यम से यू.एन.ई.पी क्षेत्रीय स्तर पर यथासम्भव बेहतर सामग्री एवं सूचना के संकलन और वितरण के कार्य को सुविधाजनक बनाती तथा समन्वित करती है ।
यू.एन.ई.पी- आई.एन.एफ.ओ.टी.ई.आर.आर.ए. पर्यावरणीय सूचना के विनिमय तथा वैज्ञानिक एवं तकनीकी जिज्ञासाओं का उत्तर देने वाली सेवाओं के राष्ट्रीय संकायों का एक समूह है जो 175 से अधिक देशों में एकीकृत पर्यावरणीय सूचना सेवा प्रदान कर रहा है ।
यू.एन.ई.पी महासागरों तथा सागरों के बचाव के लिए कार्य करता है तथा 140 देशों को अपने प्रादेशिक सागर कार्यक्रम के अन्तर्गत समुद्री साधनों के पर्यावरणीय दृष्टि से ठोस उपयोग को प्रोत्साहन देता है । यह कार्यक्रम 13 कन्वेंशनों या कार्य योजनाओं के द्वारा सहभागिता वाले समुद्री एवं जल-संसाधनों के बचाव के लिए कार्य करता है तथा यह यू.एन.ई.पी की बड़ी सफलताओं में से एक है ।
जिन प्रादेशिक कन्वेंशनों और कार्य योजनाओं के लिए यू.एन.ई.पी सचिवालय की व्यवस्था करता है, उनमें पूर्वी अफ्रीका, पश्चिमी एवं मध्य अफ्रीका, भूमध्यसागरीय, कैरेबियन और पूर्व एशियाई समुद्रों तथा उत्तर-पश्चिमी प्रशान्त शामिल हैं ।
तटवर्ती एवं समुद्री क्षेत्रों में पृथ्वी की 70 प्रतिशत सतह शामिल है और वे इस ग्रह की जीवन समर्थक प्रणाली के लिए महत्वपूर्ण हैं । अधिकांश प्रदूषण औद्योगिक उत्सर्जन, खानों, कृषि गतिविधियों और मोटरगाड़ियों के उत्सर्जन से होता है, जिनमें से कुछ हजारों मील भीतरी हिस्से में होता है ।
यू.एन.ई.पी. द्वारा प्रायोजित वार्ताओं के फलस्वरूप 1995 में 110 सरकारों द्वारा एक वैश्विक कार्यक्रम की स्वीकृति सम्भव हुई । यह है ‘धरती आधारित गतिविधियों से समुद्री पर्यावरण को बचाने के लिए वैश्विक कार्य योजना’, (ग्लोबल प्रोग्रैम ऑव एक्शन फार द् प्रोटेक्शन ऑव मेरीन एनवायरनमेन्ट फ्रॉम द् लैण्ड बेस्ड ऐक्टीविटीज) जो महासागरों, खाड़ियों और तटवर्ती जलों को धरती पर मानव गतिविधियों से उत्पन्न प्रदूषण से बचाने के अन्तर्राष्ट्रीय प्रयासों में एक महत्वपूर्ण घटना है ।
इस कार्यक्रम का समन्वय कार्यालय द् हेग में है तथा वह समुद्री पर्यावरण के लिए सम्भवत: सर्वाधिक गम्भीर खतरों से निपटने वाली योजनाओं के लिए सेवाएं प्रदान करता है । सम्भवतः सर्वाधिक गम्भीर खतरा सागर में रसायनों, प्रदूषक तत्वों और जल-मल (सुएज) के प्रवाहों से है ।
यू.एन.ई.पी का पेरिस स्थित टेक्नोलॉजी, उद्योग एवं आर्थिक व्यवस्था खण्ड (डिवीजन ऑव टेक्नोलॉजी, इण्डस्ट्री एण्ड इकनोमिक्स) का संयुक्त राष्ट्र के उन प्रयासों के लिए एक केन्द्रीय महत्व है, जिनके द्वारा सरकारों, उद्योग एवं व्यवसाय के नीति-निर्माताओं को ऐसी नीतियां, रणनीतियां तथा अभ्यास अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, जो स्वच्छ तथा सुरक्षित हों तथा जो प्राकृतिक संसाधनों का अधिक दक्षता से उपयोग करती हों और लोगों एवं पर्यावरण के लिए प्रदूषण खतरों को घटाती हों ।
यह खण्ड हरित प्रौद्योगिकियों के हस्तान्तरण में सहायता करता है । देशों को रसायनों के ठोस प्रबन्धन में क्षमता निर्माण तथा समूचे विश्व में रासायनिक सुरक्षा में सुधार के लिए मदद देता है । यह विकासशील देशों तथा संक्रमण से गुजरती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों को ओजोन क्षयकारी तत्वों को क्रमश: अलग करने में समर्थन देता है तथा कम्पनी गतिविधियों, व्यवहारों और उत्पादनों में पर्यावरणीय विचारों को शामिल करने के लिए निजी क्षेत्र के साथ कार्य करता है ।
यू.एन.ई.पी केमिकल्स अपने ‘सम्भावित विषैले रसायनों के अन्तर्राष्ट्रीय रजिस्टर’ (इन्टरनेशनल रजिस्टर ऑव पोटेंशियेली टॉक्सिक केमिकल्स – आई.आर.पी.टी.सी) की सूचना को उनके उपयोग की जरूरत वाले लोगों को उपलब्ध कराता है ।
आज लगभग 70,000 रसायनों का उपयोग किया जा रहा है तथा आई.आर.पी.टी.सी रासायनिक सुरक्षा पर निर्णयों के लिए महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है । 8,000 से अधिक रसायनों पर 100 से ज्यादा देशों को नि:शुल्क सूचना उपलब्ध कराई जा रही है । जिज्ञासाओं का उत्तर देने वाली एक सेवा प्रतिवर्ष हजारों अनुरोधों का निपटारा करती है ।
‘फाओ’ के सहयोग के साथ यू.एन.ई.पी ने ‘अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में कतिपय संकटास्पद रसायनों एवं कीटाणुनाशकों के लिए पूर्व सूचित सहमति प्रक्रिया पर रॉटरडम कन्वेंशन’ 1998 (रॉटरडम कन्वेंशन ऑव प्रायर इन्फार्म्ड कन्सेन्ट प्रोसिजर फॉर सर्टेन हेजारडस केमिकल्स एण्ड पेस्टिसाइड्स इन इन्टरनेशनल ट्रेड) के लिए वार्ताओं को सम्पन्न किया ।
यह कन्वेन्शन आयातकर्ता देशों को यह निर्णय लेने का अधिकार देता है कि वे किन रसायनों को पाना चाहते हैं और किन उन रसायनों को अलग रखना चाहते हैं, जिनका कि वे सुरक्षित तौर पर प्रबन्धन नहीं कर सकते ।
यू.एन.ई.पी अनेक वर्षों से उन अन्य अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों के लिए वार्ताओं का उत्प्रेरक रहा है, जो इस ग्रह को होने वाली क्षति को रोकने ओर उसे समाप्त करने वाले संयुक्त राष्ट्र प्रयासों की आधारशिला हैं । ऐतिहासिक माण्ट्रियल प्रोटोकोल (1987) एवं बाद में उसके संशोधन ऊपरी वायुमण्डल में ओजोन परत को बचाने के लिए हैं ।
संकटास्पद उत्सर्जन एवं उनके निपटान पर नियन्त्रण के लिए बेसल कन्वेन्शन (1989) (बेसल कन्वेन्शन ऑन द् कन्ट्रोल ऑफ हेजारडस वेस्ट एण्ड देयर डिसपोजल) ने विषैले उत्सर्जन से प्रदूषण के खतरे को घटाया है । जोखिम में पड़े जीवों के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेन्शन (1973) (इन्टरनेशनल कन्वेन्शन ऑन इन्टरनेशनल ट्रेड इन एनडेंजर्ड स्पेसीज 1973) ने वन्य जीवों के व्यापार को नियन्त्रित करने में जबर्दस्त सफलताएं पाई हैं, जिन्हें समूची दुनिया में प्रशंसा प्राप्त हुई है ।
यू.एन.ई.पी ने अफ्रीकी सरकारों को ‘वन्य जीव-जन्तु एवं पादप-पुष्प के अवैध व्यापार की दिशा में सहकारी प्रवर्तन कार्यवाहियों पर लुसाका समझौता’ 1994 विकसित करने में सहायता की तथा उसके लिए अन्तरिम आधार पर अपना सचिवालय दिया । यू.एन.ई.पी ने जैविक विविधता, मरुस्थलीकरण एवं मौसम परिवर्तन पर सन्धियों हेतु वार्ता एवं उन्हें कार्यान्वित करने में भी मदद दी और अब यह इन सन्धियों के लिए प्रशासन एवं सचिवालयीन कार्य कर रहा है ।
यू.एन.ई.पी इस समय कतिपय निरन्तर बने रहने वाले जैव (आर्गेनिक) प्रदूषकों के विसर्जन को घटाने और समाप्त करने के लिए कानूनी रूप से बन्धनकारी सन्धि के निमित्त वार्ताओं में सहायता दे रहा है । जैव प्रदूषक वे बेहद विषैले कीटाणुनाशक और औद्योगिक रसायन हैं, जो बहुत ज्यादा गतिशील हैं और खाद्य शृंखला में एकत्र होते हैं ।
यू.एन.ई.पी का शासी निकाय:
प्रबन्धक परिषद् 58 देशों से गठित है । यह वार्षिक बैठक करता है । कार्यक्रमों को वित्त पर्यावरण निधि एवं सरकारों के स्वैच्छिक अनुदानों से प्राप्त होता है । इसे न्यास निधियों एवं संयुक्त राष्ट्र के नियमित बजट से एक अल्प राशि से पूरा किया जाता है । 2000-2001 के लिए इसकी निधि का बजट 12 करोड़ डॉलर था । यू.एन.ई.पी के स्टाफ में 680 सदस्य हैं ।
तापमान का बढ़ता सिलसिला:
पृथ्वी के तापमान को रिकॉर्ड करने का सिलसिला 1860 से प्रारम्भ हुआ । पृथ्वी पर जितनी ऊर्जा और गर्मी पैदा हो रही है, वह अवशोषित नहीं हो पा रही है । इसका नतीजा यह है कि पृथ्वी गर्म होती जा रही है ।
2006 को इतिहास में छठे सबसे गरम वर्ष के रूप में दर्ज किया गया । इस वर्ष में कई इलाकों में लम्बे समय तक पड़े अकाल, अन्य क्षेत्रों में भारी वर्षा और बाढ़ का प्रकोप तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में आए खतरनाक तूफान भी शामिल हैं ।
औद्योगिक क्रांति के बाद जिस तरह से प्रकृति का दोहन किया गया है, उससे वायुमण्डल में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि हुई है । इसके अलावा अन्य ग्रीन हाउस गैसों जैसे मीथेन गैस का भी खूब उत्सर्जन हुआ है ।
तापमान में वृद्धि, ओजोनपरत में छेद:
बढ़ता तापमान और ओजोनपरत में छेद पृथ्वी के लिए दो अलग-अलग खतरे हैं, फिर भी आपस में जुड़े हैं । गरम होती धरती और ग्रीन हाउस प्रभाव का सम्बन्ध वातावरण की निचली सतह में गर्मी सोखने वाली गैसों की बढ़ती सघनता से है । इसके उलट ओजोनपरत का सम्बन्ध वातावरण की ऊपरी सतह से है । यह परत सूर्य से आने वाले उन पराबैंगनी विकिरणों को रोकती है, जिनमें कुछ वनस्पति, पशुओं और मानवों के लिए नुक्सानदेह हैं ।
बढ़ता तापमान : एक चेतावनी:
अगर पृथ्वी का तापमान इसी तरह बढ़ता रहा तो अटल होने के प्रतीक रहे ध्रुवीय हिमखंड अतीत की बात बन जाएंगे । हालात अगर ऐसे ही रहे तो हो सकता है, वर्ष 2050 की गर्मियों के बाद आर्कटिक में बर्फ ढूंढ़ने से भी न मिले ।
आर्कटिक की मीलों मोटी बर्फ की चादर विराट हिमखंडों की शक्त में चिथड़ा-चिथड़ा होकर समुद्र में समा रही है और उसके पिघलने से सालों-साल रत्ती-रत्ती चढ़ रहा समुद्र हॉलैंड और बांग्लादेश के निचले क्षेत्रों को ही नहीं बल्कि लक्षद्वीप क्षेत्र का अच्छा-खासा भूक्षेत्र हजम करता जा रहा है ।
पृथ्वी का तापमान जिस तेजी से बढ़ रहा है अगर उस पर समय रहते काबू नहीं किया गया तो अगली सदी में तापमान 60 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाएगा । आज जब 48 डिग्री सेल्सियस की गर्मी में इंसान तड़प उठता है तो 60 डिग्री सेल्सियस की गर्मी के कुप्रभाव की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।
पिघलती बर्फ : एक ज्वलंत विषय:
विश्व पर्यावरण दिवस, 5 जून, 2007 के लिए इस बार का सबसे ज्वलंत विषय ‘पिघलती बर्फ’ था । अन्तर्राष्ट्रीय ध्रुव वर्ष 2007-08 के समर्थन में यह विषय उन प्रभावों पर केन्द्रित था जो जलवायु परिवर्तन के कारण ध्रुव क्षेत्र की पर्यावरण प्रणालियां और समुदायों तथा विश्वभर में होने वाले उसके परिणामों पर पड़ रहे हैं ।
इस पर मुख्य अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन नॉर्वे के ट्रामसे में सम्पन्न हुआ । विश्वभर में ”ग्लोबल आउटलुक फॉर आइस ऐंड स्नो” यानी बर्फ के प्रति अन्तर्राष्ट्रीय नजरिए की भी शुरुआत की गई है ताकि बर्फीले और हिमक्षेत्रों में वातावरण और रूख की स्थिति के बारे में अद्यतन लेखा-जोखा प्रदान किया जा सके ।
ग्रीन हाउस गैस:
पृथ्वी पूर्व औद्योगिक समय में लगभग 0.75 डिग्री सेल्सियस के अनुपात से गर्म हो रही है । पिछले 125 वर्षों में 1990 से 2005 में से 11 वर्ष इस दौरान सबसे गर्म वर्ष रहे हैं । इस पर एक आम सहमति रही है कि यह सब जीवाश्म ईंधन के जलने से उत्पन्न हुई कार्बन-डाइ-ऑक्साइड जैसी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण हुआ ।
ब्रिटिश भौतिक वैज्ञानिक जॉन टिनडाल ने 1963 में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की शक्ति और पृथ्वी का वातावरण बदलने में सक्षम भाप शक्ति की खोज की । मानवीय गतिविधियों की वजह से ग्रीन हाउस गैसों का बढ़ता उत्सर्जन ही धरती के गरम होने का कारण है ।
पिछले 0.6 मिलियन वर्षों की तुलना में वातावरण में आज कार्बन-डाइ-ऑक्साइड का स्तर उच्चतर है और इसमें लगातार वृद्धि हो रही है । 1960 से 2002 के बीच, प्रतिवर्ष मानव जाति कार्बन-डाइ-ऑक्साइड का अन्तर्राष्ट्रीय उत्सर्जन लगभग तिगुना हुआ है । यह 1987 के बाद से अब तक 33 प्रतिशत बढ़ चुका है ।
ध्रुवीय क्षेत्रों को खतरा:
जलवायु में हो रहे इस परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव ध्रुवीय क्षेत्रों पर दिखाई देता है । अन्तर्राष्ट्रीय अनुपात को देखते हुए उत्तरी ध्रुव क्षेत्र दोहरी तेजी से गरम हो रहा है । उत्तरी ध्रुव समुद्र में फैली स्थायी बर्फ की मोटी परत कम हो रही है, सदियों से बर्फ की मजबूत चादर में ढके क्षेत्र पिघल रहे हैं ।
ग्रीनलैंड और अंटार्कटिक में बर्फ की परत किसी भी अन्य क्षेत्र की तुलना में तेजी से पिघल रही है । वर्तमान महासागरों में होती कमी, गल्फस्ट्रीम से यूरोप में हुई गर्मी, मानसून ऋतुओं के बदलाव से वर्षा समय में हो रहे परिवर्तन से करोड़ों लोगों की खाद्य सुरक्षा पर पड़ने वाले प्रभावों सहित आकस्मिक जलवायु परिवर्तन की सम्भावनाओं को लेकर वैज्ञानिकों की चिंता लगातार बढ़ रही है ।
समुद्र जल स्तर में तेजी से वृद्धि:
समुद्र का जल स्तर बढ़ने से, कम ऊंचाई वाले द्वीपों और विश्वभर के तटीय शहरों में रहने वाले लोगों के लिए पानी में डूबने का खतरा पैदा हो गया है । दिसम्बर 2005 में, पहली बार जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप वनुआतू के पैसेफिक द्वीपों में रहने वाले एक छोटे समुदाय को वहां से औपचारिक रूप से हटना पड़ा ।
जलवायु परिवर्तन के कारण तटों पर बसने वाले लोगों और समुद्र पर निर्भर उनकी आजीविका को भी खतरा हो गया है । पिछले 200 वर्षों में, लगभग आधी कार्बन-डाइऑक्साइड को महासागर सोख चुके हैं जिससे कार्बोनिक एसिड पैदा होने के साथ-साथ समुद्र जल की सतह का pH स्तर कम हो रहा है । इससे कैल्सियम बनने की प्रक्रिया प्रभावित हो रही है, इसी प्रक्रिया के द्वारा मूंगा और मुलुसस जैसे समुद्री जीव कैल्सियम कार्बोनेट से अपने शैवाल बनाते हैं ।
निरन्तर बढ़ती वैश्विक गर्मी से भौगोलिक दूरियों अर्थात् अक्षांश और देशांतर तथा गर्मी के महीनों में पनपने वाली मलेरिया एवं डेंगू बुखार जैसी कुछ संक्रामक बीमारियों एवं सैलमोनेलोसिस जैसे खाद्य जनित संक्रमणों के समय में परिवर्तन हो सकता है ।
सिकुड़ते ग्लेशियर:
पृथ्वी का बर्फीला क्षेत्र अर्थात् जहां बर्फ जमी रहती है, तेजी से पिघल रहा है । जलवायु परिवर्तन पर अन्तर्सरकारी पैनल (इंटरगवर्नमेंटल पैनल) की वर्ष 2007 की रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर के लगभग 30 पर्वतीय ग्लेशियरों की मोटाई वर्ष 2005 में आधे मीटर से ज्यादा कम हो गई जिसके परिणामस्वरूप तापमान में 0.6 डिग्री से. की वृद्धि हो गई ।
अधिकांश वैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि यह अधिकांश रूप से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण है । ग्लेशियर पिघलने के कुछ और प्रतिकूल परिणाम भी अब इस प्रक्रिया को तेजी दे रहे हैं । उदाहरण के लिए, जब स्थायी तुषार भूमि की परत पिघलती है तो यह मिट्टी से मीथेन गैस उत्सर्जित करती है जोकि दीर्घकालीन ग्रीन हाउस गैस है और आर्कटिक समुद्र की बर्फ के पिघलने का अर्थ भी इसकी खास विशेषताओं का नुक्सान है, क्योंकि पानी, बर्फ या हिम की तुलना में सूर्य की ज्यादा ऊर्जा अवशोषित करता है ।
हिमालय क्षेत्र में, पिछले पांच दशकों में माउण्ट एवरेस्ट के ग्लेशियर 2 से 5 किलोमीटर सिकुड़ गए हैं । इससे ग्लेशियर की झीलों और आसपास के रिहाइशी स्थानों में जलभराव हुआ है । हिमालय के 76 प्रतिशत ग्लेशियर चिंताजनक गति से सिकुड़ रहे हैं और इनका प्रमुख आकस्मिक कारक जलवायु परिवर्तन के रूप में देखा गया है । कश्मीर और नेपाल के बीच गंगोत्री ग्लेशियर तेजी से सिकुड़ते ग्लेशियर का एक अन्य उदाहरण है ।
जहरीले रसायनों के लिए ध्रुवीय क्षेत्र वह नैसर्गिक स्थान है, जहां इन्हें फेंका जाता है । आर्कटिक में, लगातार बन रहे जैविक प्रदूषक पदार्थ वायु और समुद्री लहरों द्वारा अन्य स्थानों तक ले जाए जाते हैं । वे समुद्री स्तनधारी जीवों और समुद्री पक्षियों जैसी खाद्य शृंखलाओं के ऊपर जमा हो जाते हैं, जो कि न केवल स्वयं इन जीवों के लिए बल्कि वातावरण के लिए, जो उनका भोजन के रूप में प्रयोग करते हैं, खतरा बन गए हैं । पिघलते ग्लेशियर्स का ड्रैकुला मुंह फाड़े मालदीव को निगलने के लिए बढ़ रहा है ।
हालात इसी तरह रहे तो मालदीव जल प्रलय का पहला शिकार बन सकता है । हिन्द महासागर में स्थित छोटे से देश मालदीव में ग्लेशियर पिघलने के चलते जल प्रलय का खतरा सबसे ज्यादा है । पिछले दिनों मालदीव के कैबिनेट की एक अनोखी बैठक समुद्र गहराइयों में हुई । सन्देश यही था कि अगर नहीं चेते तो डूब जाएंगे ।
मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद नाशीद ने इस बैठक में साफ कहा- हम डूब रहे हैं । ग्लोबल वार्मिंग के चलते पिघलते ग्लेशियर मालदीव और बांग्लादेश के लिए सबसे बड़ा खतरा बने हुए हैं । वैज्ञानिकों ने साफ कह दिया है कि ग्लोबल वार्मिंग का पहला शिकार मालदीव ही बनेगा ।
खतरा सिर्फ मालदीव पर ही नहीं है, भारत के समुद्रतटीय क्षेत्रों पर भी खतरा मंडरा रहा है । भारत के सुन्दरवन डेल्टा के लगभग सौ द्वीपों में से दो द्वीपों को समुद्र ने हाल ही में निगल लिया है और लगभग एक दर्जन द्वीपों पर डूबने का खतरा मंडरा रहा है । इन द्वीपों पर लगभग दस हजार आदिवासियों की जनसंख्या है । यदि ये द्वीप डूबते हैं तो यह आबादी भी डूब सकती है ।
वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फण्ड (डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ.) ने हिमालय के ग्लेशियर पिघलने पर खासी चिन्ता जताई है । संस्था के अनुसार ग्लेशियर पिघलने से आने वाले दिनों में करोड़ों लोगों को पानी की किल्लत का सामना करना पड़ सकता है ।
यही नहीं भारत, चीन और नेपाल में भयानक बाढ़ आ सकती है, लेकिन बाद में सूखे की स्थिति सामने आएगी । खतरा पूरी दुनिया पर है, लेकिन अभी भी विकसित देश भविष्य की इस प्राकृतिक प्रलय को गम्भीरता से नहीं ले रहे हैं । पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाली एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की रिपोर्ट के अनुसार सदी के आखिर तक ग्लोबल वार्मिंग के चलते अफ्रीका में 18 करोड़ 40 लाख लोगों की मौत हो सकती है ।
अफ्रीका में बाढ़, सूखा, अकाल और संघर्ष बढ़ रहे हैं जो लोगों की मौत का कारण बन सकते हैं । ग्लोबल वार्मिंग के चलते पिघलते ग्लेशियरों का खतरा रोकने के लिए पूरी दुनिया को एकजुट होना होगा । क्योंकि पिघलते ग्लेशियर के खतरे का सामना आज तो केवल मालदीव ही कर रहा है, लेकिन अब भी हम नहीं संभले तो हो सकता है आने वाले समय में पूरी दुनिया ही डूब जाए ।
बढ़ते तापमान के दुष्परिणाम:
पूथ्वी के निरंतर बढ़ते तापमान से होने वाले दुष्परिणामों पर हमें सहजता से यकीन नहीं होता क्योंकि अधिकतर परिणाम दूरगामी हैं ।
वैज्ञानिकों के अनुसार यदि हम समय रहते नहीं चेते तो इक्कीसवीं सदी के अन्त में हमें प्रलय का सामना करना पड़ सकता है । यूरोप में लू चलने और बाढ़ आने की बात लोगों को कपोल-कल्पना लगती थी, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में हुई ऐसी घटनाओं में फ्रांस, जर्मनी और कुछ अन्य मध्य यूरोपीय देशों में हजारों लोग अपनी जान गंवा चुके हैं । अमेरिका में समुद्रीय चक्रवात ने न्यू ऑर्लिएंस शहर का अस्तित्व तक मिटा दिया है ।
बढ़ते तापमान के दुष्परिणाम इस प्रकार दिखाई दे रहे हैं:
i. प्रवासी पक्षियों की आदतों के साथ-साथ स्थान परिवर्तन के समय में भी बदलाव आने लगा है ।
ii. ग्लोबल वार्मिंग के नए खतरों में पृथ्वी पर बढ़ता रेगिस्तान भी समस्या बनता जा रहा है । मरुस्थलीकरण का परिणाम यह है कि रेगिस्तान विश्व के 110 देशों में अपने पैर फैला चुका है ।
iii. वर्ल्ड वाच इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के अनुसार घास की चराई में वनों के अंधाधुंध कटान से पृथ्वी की ऊपरी परत की 24 अरब टन उपजाऊ मिट्टी हवा में उड़ जाती है ।
iv. पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले मेंढकों की 70 प्रजातियां लुप्त हो गई हैं ।
v. पेंग्विन व ध्रुवीय भालू समेत लगभग 200 प्रजातियों पर खतरा मंडरा रहा है ।
vi. कीड़े-मकोड़ों और परजीवियों की तादाद बढ़ रही है । बढ़ते तापमान से बचने के लिए प्राणी उत्तर की ओर जा रहे हैं ।
vii. वक्त से पहले ही वनस्पतियां फल-फूल रही हैं । चरी के समय से पहले फूल और अंगूर में फल आने के मामले सामने आए ।
viii. वर्ष 2010 तक मौसम शरणार्थियों की संख्या 5 करोड़ तक पहुंच गयी, जो इंग्लैण्ड की जनसंख्या के बराबर थी ।
ix. यूरोप के एल्पाइन ग्लेशियर पिघलने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय मानचित्र से गायब हो सकते हैं ।
Essay # 2. वन (Forest):
पृथ्वी शिखर सम्मेलन में अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय ने वन सम्बन्धी सिद्धान्तों पर एक अबन्धनकारी वक्तव्य स्वीकार किया था । 1995 तक अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय विश्व के वनों के टिकाऊ विकास को सुनिश्चित करने के लिए जरूरी अतिरिक्त उपायों पर विचार करने के लिए तैयार था ।
टिकाऊ विकास आयोग द्वारा गठित वनों पर अन्तःसरकारी पैनल के वनों के संरक्षण, प्रबन्धन एवं टिकाऊ विकास के निमित्त 100 कार्योन्मुख विशिष्ट प्रस्तावों को स्वीकार करते हुए 1997 में अपना कार्य समाप्त कर दिया ।
वनों के लिए एक केन्द्रीय फोरम की सतत मौजूद जरूरत का उत्तर देते हुए पृथ्वी शिखर सम्मेलन +5 में भाग लेने वाली सरकारों ने वनों के निमित्त अन्त:सरकारी फोरम का गठन किया, जिसका उद्देश्य इन प्रस्तावों को बढ़ावा देना तथा उनके अमल पर निगरानी रखना था एवं यह भी विचार करना था कि वनों के टिकाऊ विकास को सुनिश्चित करने के लिए, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कानूनी रूप से बन्धनकारी समझौते सहित, जरूरी कौन से अतिरिक्त उपाय किए जाने चाहिए ।
वर्ष 2000 में इस फोरम ने वनों के निमित्त एक संयुक्त राष्ट्र फोरम की स्थापना की सिफारिश की, जिसका उद्देश्य पांच वर्षीय अन्तःसरकारी विचार-विमर्श के फलस्वरूप जन्मे कार्यवाही सम्बन्धी प्रस्तावों के अमल को प्रोत्साहित करना था ।
Essay # 3. मरुस्थलीकरण (Desertification):
यू.एन.ई.पी के अनुमानों के अनुसार धरती की एक-चौथाई भूमि पर मरुस्थलीकरण का खतरा है । 25 करोड़ लोग इससे प्रत्यक्षत: प्रभावित हैं तथा 100 देशों में एक अरब से अधिक लोगों की आजीविका खतरे में है, क्योंकि कृषि एवं चरागाह भूमि कम उत्पादक हो गई है । सूखे से मरुस्थलीकरण को बढ़ावा मिल सकता है, लेकिन मानव गतिविधियां, जैसे – जरूरत से ज्यादा खेती, अधिक चराई, निर्वनीकरण, कम सिंचाई, सामान्यत: मुख्य कारण हैं ।
इस समस्या के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र की एक सन्धि प्रयासरत है : गम्भीर सूखे और/या मरुस्थलीकरण का अनुभव कर रहे देशों, विशेषतया अफ्रीकी देशों में, मरुस्थलीकरण के विरुद्ध संघर्ष सम्बन्धी कन्वेंशन इसके लिए सजग है ।
इस सन्धि, जिसमें 172 देश शामिल हैं, ने मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए इससे सम्बन्धित समस्त क्रियाकलाप का एक ढांचा प्रस्तुत किया है । यह भूमि की उत्पादकता सुधारने, भूमि पुनर्वास, भूमि एवं जल संसाधनों के संरक्षण एवं प्रबन्धन पर ध्यान केन्द्रित करती है ।
यह भूमि क्षय की दिशा की गति उलटने के लिए जनता की भागीदारी और इस कार्य में स्वयं की सहायता के लिए स्थानीय लोगों के निमित्त एक ‘योग्य बनाने वाले वातावरण’ पर जोर देता है । प्रभावित देशों द्वारा राष्ट्रीय कार्यवाही कार्यक्रम बनाने के लिए इसमें एक मानदण्ड भी है । यह कार्यवाही कार्यक्रमों को तेयार करने और अमल में लाने के लिए गैर-सरकारी संगठनों को अभूतपूर्व भूमिका अदा करती है ।
मरुस्थलीकरण से लड़ाई में विभिन्न संयुक्त राष्ट्र एजेंसियां सहायता देती हैं । यू.एन.डी.पी सूडानी-सहेलियन कार्यालय (यू.ए.एस.ओ) के माध्यम से मरुस्थलीकरण से लड़ाई की गतिविधियों को धन देता है । यह कार्यालय नीतियां विकसित करने में सहायता, तकनीकी परामर्श तथा मरुस्थलीकरण नियन्त्रण एवं शुष्क भूमि प्रबन्धन कार्यक्रमों को समर्थन देता है ।
एक विशेष ‘ ईफाड’ कार्यक्रम ने मरुस्थलीकरण के खतरे के शिकार 25 अफ्रीकी देशों को इस परियोजना के लिए 40 करोड़ डॉलर एकत्र किए हैं । अन्य 35 करोड़ डॉलर सह-वित्तपोषण के जरिए जुटाए गए हैं । इसी प्रकार विश्व बैंक दुर्बल शुष्क भूमि को बचाने और टिकाऊ आधार पर उनकी कृषि उत्पादकता को बढ़ाने वाले कार्यक्रम तैयार करता एवं उन्हें धन देता है । दूसरी ओर ‘फाओ’ भी सरकारों को व्यापक प्रकार की व्यावहारिक सहायता प्रदान कर टिकाऊ कृषि विकास को बढ़ावा देता है ।
Essay # 4. जैव विविधता एवं प्रदूषण (Biodiversity and Pollution):
जैव विविधता अर्थात् बनस्पति एवं पशु प्रजातियों की विविधता मानव के अस्तित्व के लिए अत्यावश्यक है । जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (1992), जिसमें 180 राज्य शामिल हैं, का उद्देश्य विविध प्रकार की प्रजातियों के पशुओं तथा वनस्पति जीवन एवं उनके पर्यावास की सुरक्षा और संरक्षण है ।
यह कन्वेंशन राज्यों पर यह दायित्व सौंपता है कि वे जैव विविधता संरक्षित रखें, इसके टिकाऊ विकास को सुनिश्चित करें और जेनेटिक शोध के उपयोग के लाभों में उचित एवं समान सहभागिता प्रदान करें । जेनेटिक पद्धति से परिष्कृत जीवों के सुरक्षित उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए वर्ष 2000 में एक प्रोटोकोल स्वीकार किया गया ।
यू.एन.ई.पी द्वारा प्रशासित 1973 के संकटग्रस्त प्रजातियों के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन के अन्तर्गत संकट में पड़ी प्रजातियों की सुरक्षा को भी लागू किया गया । इस कन्वेंशन के 151 पक्ष राज्य समय-समय पर बैठक करते हैं । इन बैठकों का उद्देश्य उस सूची को ताजा-तरीन बनाना है, जिसमें यह तय किया जाता है कि किस वनस्पति या पशु प्रजाति या उत्पादों को, जैसे हाथी दांत, कोटे द्वारा सुरक्षित किया जाना है या पूरी तरह प्रतिबन्ध लगा दिया जाना है ।
ऐसिड (तेजाबी) वर्षा:
औद्योगिक निर्माण प्रक्रियाओं से उत्सर्जित सल्फर डाइ-ऑक्साइड द्वारा उत्पन्न ‘ऐसिड वर्षा’ यूरोप एवं अमेरिका में उल्लेखनीय रूप से कम हो गई है और इसका श्रेय 1979 के दीर्घक्षेत्रीय सीमापार वायु प्रदूषण पर कन्वेंशन (कन्वेंशन ऑन लांग रेंज ट्रांस बाउण्ड्री एयर पोल्यूशन) को है । यह कन्वेंशन, जिसके 47 पक्ष राज्य हैं, यूरोप के निमित्त संयुक्त राष्ट्र आर्थिक आयोग द्वारा प्रशासित किया जाता है ।
संकटास्पद उत्सर्जन पदार्थ एवं रसायन:
प्रतिवर्ष राष्ट्रीय सीमाओं को पार करने वाले 30 लाख टन विषैले उत्सर्जित पदार्थों को नियमित करने के लिए सदस्य राज्यों ने 1989 में यू.एन.ई.पी द्वारा प्रशासित एक कन्वेंशन, विषैले उत्सर्जित पदार्थों की सीमापार आवाजाही एवं उनके निपटान के नियन्त्रण पर बेसल कन्वेंशन (बेसल कन्वेंशन ऑन द् कण्ट्रोल ऑव ट्रान्स बाउण्ड्री मूवमेण्ट्स ऑव हेजारड्स वेस्ट एण्ड देयर डिसपोजल) बनाया है ।
इस कन्वेंशन में 142 राज्य शामिल हैं तथा इसे विषैले उत्सर्जित पदार्थों को विकासशील देशों में निर्यात पर प्रतिबन्ध के लिए 1995 में मजबूत किया गया । क्योंकि विकासशील देशों के पास उनके सुरक्षित निपटारे के लिए सुरक्षित टेक्नोलॉजी अक्सर नहीं होती ।
गहरे समुद्र में मछुवाही:
जरूरत से ज्यादा मछुवाही या मछलीमारी तथा व्यावसायिक रूप से मूल्यवान अनेक प्रजातियों की लगभग समाप्ति और गहरे समुद्र में मछलीमारी को लेकर हिंसा की बढ़ती घटनाओं ने पृथ्वी शिखर सम्मेलन में भाग लेने वाली सरकारों को एक आह्वान के लिए प्रेरित किया ।
यह आह्वान ऐसी मछलियों को संरक्षण देने तथा स्थायी रूप से प्रबन्धित करने के लिए उपायों के सम्बन्ध में है, जो सागर के विस्तृत क्षेत्रों में जाती हैं या एक से अधिक देशों के स्वत्वाधिकार वाले आर्थिक क्षेत्रों में घूमती-फिरती हैं ।
1995 के ‘यूनाइटेड नेशन्स एग्रीमेण्ट ऑन स्ट्रेडलिंग फिश स्टॉक एण्ड हाईली माइग्रेटरी फिश स्टॉक’ पर कोई 60 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं । इस समझौते में इन प्रजातियों के लिए कोटा तय किया गया है ताकि भविष्य में मछली का निरन्तर अस्तित्व सुनिश्चित रहे । साथ ही इसमें गहरे समुद्र पर विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से निपटाने के लिए भी उपाय हैं ।
Essay # 5. समुद्री पर्यावरण को सुरक्षित रखना (Protecting the Marine Environment):
समुद्रों में धरती की दो-तिहाई सतह का समावेश है और उन्हें सुरक्षित रखना संयुक्त राष्ट्र का एक प्राथमिक सरोकार बन गया है । यू.एन.ई.पी के कार्य ने, विशेषकर समुद्री पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए इसके विविध प्रयासों ने, महासागरों एवं समुद्रों पर विश्व का ध्यान केन्द्रित किया है ।
अन्तर्राष्ट्रीय समुद्रीय संगठन तेल द्वारा समुद्र के प्रदूषण की रोकथाम के लिए अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेंशन (इण्टरनेशनल कन्वेंशन फॉर द् प्रिवेंशन ऑव सी बाई आयल) 1954 में स्वीकार किया गया था । यह इस क्षेत्र में एक अनुगामी कन्वेंशन था । 1959 में आई.एम.ओ. (इमो) ने उसका उत्तरदायित्व ग्रहण कर लिया । 1960 के दशक के अन्त में अनेक बड़ी टैंकर दुर्घटनाओं ने आगे की कार्यवाही के लिए प्रवृत्त किया ।
तब से आई.एम.ओ. ने समुद्र पर दुर्घटनाओं एवं तेल बिखराव को रोकने, उनके परिणामों को न्यूनतम करने और समुद्री प्रदूषण से लड़ने के लिए अनेक उपाय विकसित किए । समुद्री प्रदूषण का एक कारण भूमि आधारित गतिविधियों से उअन्न उत्सर्जित पदार्थों को समुद्रों में डाल देना था ।
मुख्य सन्धियां हैं:
a. इण्टरनेशनल कन्वेंशन रिलेटिंग टू इन्टरवेंशन ऑन हाईसीज इन केसेज ऑव आयल पोल्यूशन केजुअल्टीज (इटरवेंशन) 1969 (तेल प्रदूषण से हताहत मामलों में गहरे समुद्र में हस्तक्षेप से सम्बन्धित अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेंशन),
b. कन्वेंशन ऑन द प्रिवेंशन ऑफ मैरीन पोल्यूशन बाई डम्पिंग ऑव वेस्ट्स एण्ड अदर मैटर्स (एलसी), 1972 (कचरा तथा अन्य सामग्री को फेंककर समुद्रीय प्रदूषण को रोकने से सम्बन्धित कनवेंशन),
c. इण्टरनेशनल कन्वेंशन ऑन आयल पोल्यूशन प्रीपेयर्डनेस, रिस्पांस एण्ड कोआपरेशन (ओ.पी.आर.सी.), 1990 (तेल प्रदूषण तैयारी, जवाब एवं सहयोग पर अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेंशन) ।
‘ईमो’ ने तेल वाहक जहाजों की सफाई एवं एंजिन-कक्ष के कूड़े को, जो टनेज के अर्थ में दुर्घटना से बड़ा खतरा रहता है, फेंकने की रोजाना की कार्यवाहियों से उत्पन्न पर्यावरणीय खतरों का भी हल ढूंढा है । इन उपायों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जहाजों द्वारा प्रदूषण की रोकथाम के निमित्त 1973 का अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेंशन जैसा कि 1978 के प्रोटोकोल (एम.ए.आर.पी.एल. 73/78) ने परिवर्तित किया था, अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन इंटरनेशनल कन्वेंशन फॉर प्रीवेंशन ऑव पोल्यूशन फ्रॉम शिप्स ऐज माडीफायड बाई इट्स 1978 प्रोटोकोल (एम.ए.आर.पी.ओ.एल. 73/78) ।
इसमें न केवल दुर्घटनाजन्य एवं आपरेशनल तेल प्रदूषण का बल्कि रसायनों, पैकेज बन्द माल, सुएज और कूड़े के कारण होने वाले प्रदूषण का भी समावेश है । 1992 में स्वीकृत कन्वेंशन के संशोधन ने सभी नए तेल टैंकरों को दोहरे पेटे लगाना या ऐसी डिजाइन बनाना जो टक्कर या धंसने के समय समतुल्य कारगो संरक्षण प्रदान करे, अनिवार्य कर दिया है ।
‘इमो’ की दो सन्धियों ने प्रदूषण के परिणामस्वरूप आर्थिक क्षति उठाने वालों के लिए क्षतिपूर्ति की एक प्रणाली स्थापित की है । ये सन्धियां हैं- तेल क्षति के निमित्त नागरिक दायित्व पर अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेंशन (इण्टरनेशनल कन्वेंशन ऑन सिविल लायबिलिटी फॉर आयल पोल्यूशन डेमेज-सीएलसी) और तेल प्रदूषण क्षति के निमित्त अन्तर्राष्ट्रीय निधि की स्थापना पर अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेंशन (इण्टरनेशनल कन्वेंशन ऑन द् एस्टब्लिशमेंट ऑव एन इण्टरनेशनल एण्ड फॉर आयल पोल्यूशन डेमेज-फण्ड) ।
ये सन्धियां 1969 एवं 1971 में स्वीकार की गईं तथा 1992 में उनका पुनरीक्षण किया गया । इन सन्धियों के फलस्वरूप तेल प्रदूषण के शिकार लोगों को पहले से अधिक सरलता और शीघ्रता से क्षतिपूर्ति पाना आसान हो गया है ।
Essay # 6. मौसम विज्ञान, मौसम एवं जल (Meteorology, Weather and Water):
विश्व मौसम विज्ञान संगठन (वर्ल्ड मेट्रोलाजिकल आर्गनाइजेशन, डब्ल्यू.एम.ओ.) मौसम की भविष्यवाणी के साथ मौसम परिवर्तन, शोध एवं उष्ण कटिबन्धीय तूफान चेतावनी प्रदान करता है । यह संगठन बिल्कुल सही मौसम सूचना को सुधारने एवं सार्वजनिक, निजी एवं व्यावसायिक उपयोग की अन्य सेवाओं, जिनमें विमान एवं जहाजरानी उद्योग भी शामिल हैं, को समुन्नत बनाने के लिए वैश्विक वैज्ञानिक प्रयासों में समन्वय स्थापित करता है ।
डब्ल्यू.एम.ओ. की गतिविधियां जीवन एवं सम्पत्ति की सुरक्षा, आर्थिक एवं सामाजिक विकास तथा पर्यावरण की सुरक्षा में योगदान करती हैं । संयुक्त राष्ट्र के भीतर डब्ल्यू.एम.ओ. पृथ्वी के वायुमण्डल एवं जलवायु की स्थिति एवं व्यवहार पर आधिकारिक वैज्ञानिक आवाज उपलब्ध कराता है ।
यह एजेंसी:
I. मौसम विज्ञान, जल विज्ञान एवं अन्य अवलोकनों के लिए स्टेशनों के नेटवर्कों की स्थापना में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग आसान बनाती है,
II. मौसम विज्ञान सम्बन्धी सूचना के त्वरित आदान-प्रदान, मौसम विज्ञान अवलोकनों के मानकीकरण और अवलोकनों तथा सांख्यिकी के एकरूप प्रकाशन को बढ़ावा देती है,
III. विमानन, जहाजरानी, जल समस्याओं, कृषि एवं अन्य गतिविधियों में मौसम विज्ञान के उपयोग को आगे बढ़ाती है,
IV. ऑपरेशनल जल विज्ञान को बढ़ावा देती है,
V. शोध एवं प्रशिक्षण को प्रोत्साहित करती है ।
डब्ल्यू.एम.ओ. की गतिविधियों की रीढ़ ‘वर्ल्ड वेदर वॉच’ (विश्व मौसम निगरानी) कार्यक्रम है, जो पर्यवेक्षण प्रणालियों तथा कुसंचार सम्पर्कों के द्वारा तत्काल मिनट तक की विश्वव्यापी मौसम सूचना प्रदान करता है । पर्यवेक्षण प्रणालियों एवं दूरसंचार सम्पर्कों का सदस्य राज्यों द्वारा 9 उपग्रहों, 3,000 विमान, 10,000 भूमि पर्यवेक्षण स्टेशनों, 7,300 जलयान स्टेशनों, और 900 लंगर-घाटों तथा स्वचालित मौसम स्टेशन से युक्त तरणशील बोयों के माध्यम से संचालन किया जाता है ।
प्रत्येक दिन तीव्र गति वाले सम्पर्क 3 विश्व, 34 प्रादेशिक तथा 185 राष्ट्रीय मौसम विज्ञान केन्द्रों द्वारा डाटा एवं मौसम मानचित्रों का सम्प्रेषण करते हैं । ये केन्द्र मौसम विश्लेषणों एवं भविष्यवाणियों को तैयार करने में सहयोग करते हैं । इस तरह जहाजों, विमानों, शोध, वैज्ञानिकों, मीडिया एवं जनता को समय पर मौसम विवरण की निरन्तर पूर्ति होती रहती है ।
डब्ल्यू.एम.ओ. के द्वारा ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मौसम मानदण्डों, संहिताओं, मापों एवं संचार पर पेचीदा समझौते सम्पन्न हुए । एक ट्रॉपिकल सायक्लोन प्रोग्राम (उष्णकटिबन्धीय चक्रवात-तूफानी कार्यक्रम) चक्रवातों का आसानी से शिकार हो सकने वाले 50 से अधिक देशों की भविष्यवाणी एवं चेतावनी प्रणालियों एवं संकट का समाधान करने के लिए तैयारी को समुन्नत बना विनाश और जीवन क्षति को कम करने में सहायता करता है ।
मौसम परिवर्तन बढ़ती चिन्ता का विषय बन गया है फलत: विश्व मौसम कार्यक्रम (वर्ल्ड क्लाइमेट प्रोग्रैम) मौसम सम्बन्धी डेटा संकलित एवं संरक्षित कर सरकारों को बदलती स्थिति के अनुरूप जवाब की योजना बनाने में सहायता करता है । इसका उद्देश्य आर्थिक एवं सामाजिक नियोजन को समुन्नत बनाने, शोध के जरिए मौसम प्रक्रियाओं के प्रति समझ को बढ़ाने के लिए मौसम सूचना का उपयोग करना है ।
यह आसन्न मौसम विभिन्नताओं या परिवर्तनों का पता लगाने एवं सरकारों को चेतावनी देने के लिए इस सूचना का लाभ उठाना चाहता है । ऐसी मौसम विभिन्नता या परिवर्तन जो प्राकृतिक या मनुष्य निर्मित हो सकते हैं, महत्वपूर्ण मानव गतिविधियों को प्रभावित कर सकते हैं ।
जलवायु परिवर्तन पर सभी उपलब्ध सूचनाओं का आकलन करने के लिए डब्ल्यू.एम.ओ. एवं यू.एन.ई.पी ने 1988 में जलवायु परिवर्तन पर अंतःसरकारी पैनल का गठन किया । वायुमण्डलीय शोध एवं पर्यावरणीय कार्यक्रम (एटमासफेरिक रिसर्च एण्ड एनवायरनमेंट प्रोग्रैम) वायुमण्डल की संरचना, गठन, बादलों की भौतिकी एवं रसायन, मौसम सुधार, कटिबन्धीय मौसम विज्ञान एवं मौसम भविष्यवाणी पर शोध में समन्वय करता है ।
वह सदस्य राज्यों को शोध परियोजनाएं संचालित करने, वैज्ञानिक सूचना के वितरण और शोध के परिणामों को भविष्यवाणियों एवं अन्य तकनीकों में समावेश के लिए सहायता करता है । विशेषकर वैश्विक वायुमण्डलीय निगरानी (ग्लोबल एटमासफेयर वॉच) के अन्तर्गत लगभग 80 देशों में 340 स्टेशन वायुमण्डल में ग्रीनहाउस गैसों के स्तर पर नजर रखने के लिए एक वैश्विक नेटवर्क की रचना करते हैं ।
कुछ देशों में मौसम सम्बन्धित कृषि हानि वार्षिक उत्पादन के 20 प्रतिशत तक पहुंच सकती है । ‘मौसम विज्ञान कार्यक्रम का अमल’ (एप्लीकेशन्स ऑव मेट्रोलॉजिकल प्रोग्रैम) देशों को जीवन एवं सम्पत्ति के संरक्षण में सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए मौसम विज्ञान को इस्तेमाल करने में सहायता करता है ।
यह सार्वजनिक मौसम सेवाओं को सुधारने, सागर एवं विमान यात्रा में सुरक्षा बढ़ाने और मरुस्थलीकरण के प्रभाव को घटाने तथा कृषि, जल, ऊर्जा एवं संसाधनों के प्रबन्धन में सुधार लाना चाहता है । उदाहरण के लिए, कृषि में तत्काल मौसम विज्ञानी परामर्श सूखे, कीटाणु एवं रोग के कारण होने वाले नुकसानों को पर्याप्त घटा सकता है ।
Essay # 7. प्राकृतिक संसाधन एवं ऊर्जा (Natural Resources and Energy):
संयुक्त राष्ट्र एक लम्बे समय से देशों को उनके अपने प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन में सहायता दे रहा है । बहुत पहले 1952 में महासभा ने घोषणा की थी कि विकासशील देशों को अपने ‘प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग पर स्वतन्त्रतापूर्वक निर्णय करने का अधिकार’ है तथा वे ऐसे संसाधनों का अपने राष्ट्रीय हितों के अनुसार अपनी आर्थिक विकास योजना को साकार करने में अवश्य ही उपयोग करें ।
बिकास के निमित्त ऊर्जा एवं प्राकृतिक संसाधन समिति (ई.सी.ओ.एस.ओ.सी.) का एक 24 सदस्यीय निकाय है, जो टिकाऊ विकास आयोग के सहयोग से ई.सी.ओ.एस.ओ.सी. तथा सरकारों के लिए नीतियों एवं रणनीतियों के मार्गदर्शक सिद्धान्त विकसित करता है ।
यह प्रत्येक 12 सदस्यों के दो उपसमूहों में बंटा हुआ है । ऊर्जा उप समूह ऊर्जा विकास की प्रवृत्तियों एवं विषयों के साथ-साथ ऊर्जा के क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र प्रणाली की गतिविधियों के समन्वय की समीक्षा करता है । जल संसाधनों पर उपसमूह भूमि एवं जल संसाधनों के एकीकृत प्रबन्धन के साथ-साथ इस क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र प्रणाली गतिविधियों के समन्वय पर विचार करता है ।
जल संसाधन:
संयुक्त राष्ट्र लम्बे समय से विश्व के जल संसाधनों की बढ़ती मांग से उत्पन्न वैश्विक संकट पर विचार करता आ रहा है । यह संकट मानवीय, व्यावसायिक एवं कृषि विषयक जरूरतों के पूर्ति की जरूरत से पैदा हुआ है ।
1977 के संयुक्त राष्ट्र जल सम्मेलन, 1992 के जल एवं पर्यावरण अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन, 1992 के पृथ्वी शिखर सम्मेलन तथा अन्तर्राष्ट्रीय पेयजल एवं स्वच्छता दशक (1981-1990), इन सभी ने इस महत्वपूर्ण संसाधन पर ध्यान केन्द्रित किया । इस दशक ने विकासशील देशों के लगभग 1 अरब 30 करोड़ लोगों को सुरक्षित पेयजल में पहुंच पाने के लिए सहायता की ।
आज विश्व की बीस प्रतिशत जनसंख्या जलाभाव को अनुभव कर रही है, जो 2025 तक बढ़कर 30 प्रतिशत हो जाएगी और जो 50 देशों को प्रभावित करेगी । जलाभाव के अनेक कारण हैं, जिनमें अकुशल उपयोग, प्रदूषण द्वारा जल का क्षय और भू-जल संग्रहों का जरूरत से ज्यादा दोहन । ताजे जल के दुर्लभ संसाधनों के बेहतर प्रबन्धन को विशेषकर जलापूर्ति एवं मात्रा एवं गुणवता के प्रबन्धन को पाने के लिए कार्यवाही की जरूरत है ।
संयुक्त राष्ट्र प्रणाली की गतिविधियां ताजे जल के नाजुक और सीमित संसाधनों के टिकाऊ विकास की दिशा में सक्रिय हैं । इन संसाधनों पर जनसंख्या वृद्धि, प्रदूषण, कृषि एवं औद्योगिक उद्देश्यों के लिए बढ़ती मांग के कारण बढ़ता हुआ दबाव पड़ रहा है ।
उदाहरण के लिए आर्थिक एवं सामाजिक कार्य विभाग के पास जल संसाधन विकास के लिए तकनीकी सहयोग का एक अच्छा-खासा कार्यक्रम है ‘फाओ’ खाद्य सुरक्षा पाने के लिए जल संसाधनों के कुशल उपयोग एवं संरक्षण को प्रोत्साहित करता है, और ‘यू.एन.डी.पी.’ तथा विश्वबैंक संयुक्त जल एवं स्वच्छता कार्यक्रम में सहयोग करते हैं ।
टिकाऊ विकास आयोग ने मूल्य निर्धारण सहित बाजार प्रणालियों के द्वारा जल की प्राप्ति को बढ़ाने के तरीकों पर विचार किया है, साथ ही यह भी सुनिश्चित किया गया है कि गरीब जनता जल को पाने में सक्षम हो ।
ऊर्जा:
विश्व की ऊर्जा का ऐसे तरीकों से उत्पादन एवं उपयोग किया जा रहा है कि यदि कुल उपभोग पर्याप्त बढ़ता रहा तो उसे टिकाऊ नहीं रखा जा सकेगा । एजेण्डा 21 इस बात पर जोर देता है कि सभी ऊर्जा स्रोतों का ऐसे तरीकों से उपयोग किया जाए कि वह वायुमण्डल, मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण को सुरक्षित करे ।
यद्यपि विकसित देशों में जीवाश्म ईंधन का उपयोग धीरे-धीरे स्थिर हो रहा है, तथापि अनेक प्रदूषणकारी उत्सर्जन वृद्धि पर हैं । अनेक विकासशील देशों में जीवाश्म ईंधन के उपयोग में वृद्धि गम्मीर प्रदूषण की ओर ले जा रही है ।
वैश्विक ऊर्जा उपभोग के वर्ष 2050 तक दोगुने हो जाने का अनुमान लगाया गया है, लेकिन इसके साथ-साथ एक अरब 80 करोड़ लोगों की, जो अधिकांशत: विकासशील देशों के ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं, व्यावसायिक ऊर्जा सेवाओं में कोई पहुंच नहीं है ।
संयुक्त राष्ट्र प्रणाली की अनेक इकाइयां ऊर्जा के क्षेत्र में विविध प्रकार की परियोजनाओं एवं कार्यक्रमों में संलग्न हैं, अक्सर शिक्षा एवं प्रशिक्षण, ऊर्जा पैदा करने के प्रति जागरूकता और क्षमता-निर्माण के रूप में । अधिकांश परियोजनाएं विशिष्ट देशों को अपनी ऊर्जा लक्ष्यों की पूर्ति में सहायता देती हैं । अन्य गतिविधियां बदलती ऊर्जा स्थिति एवं विकास तथा ऊर्जा संसाधनों के उपयोग के पर्यावरणीय प्रभाव को परिलक्षित करती हैं ।
तकनीकी सहयोग:
प्राकृतिक संसाधनों एवं ऊर्जा के क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र तकनीकी सहयोग के लिए एक सक्रिय कार्यक्रम को बनाए रखता है । जल एवं विभिन्न संसाधनों में संयुक्त राष्ट्र तकनीकी सहायता और परामर्श सेवाएं प्रदान करता है । वह पर्यावरणीय सुरक्षा, निवेश प्रोत्साहन, कानून एवं टिकाऊ विकास पर जोर देता है ।
ऊर्जा में तकनीकी सहयोग तीन कार्यक्रमों के अन्तर्गत संगठित किया जाता है, जिनमें वैश्विक ऊर्जा दक्षता, पुनर्नवीकरण की जा सकने वाली ऊर्जा एवं स्वच्छ ईंधन प्रौद्योगिकियां और उत्पादन प्रक्रियाएं शामिल हैं । गत दो दशकों में संयुक्त राष्ट्र संघ एवं उसके संगठनों के परिवार ने प्राकृतिक संसाधनों एवं ऊर्जा के क्षेत्र में लाखों डॉलर वाली तकनीकी सहयोग एवं पूर्व निवेश परियोजनाओं को कार्यान्वित किया है ।
लगभग इतनी ही राशि प्राप्तिकर्ता सरकारों ने स्टॉफ, सुविधाओं एवं स्थानीय आपरेशन लागत के रूप में जुटाई । इसके परिणामस्वरूप हर वर्ष लगभग 300 क्षेत्र परियोजनाएं विकासशील देशों की अपने प्राकृतिक संसाधनों के टिकाऊ विकास में सहायता कर रही हैं । ऐसी परियोजनाएं राष्ट्रीय क्षमताओं को मजबूत बनाती तथा और आगे निवेश को गति देती एवं टिकाऊ विकास को प्रोत्साहित करती हैं ।
Essay # 8. पर्यावरण संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय कानून निर्माण हेतु प्रयत्न (Efforts for Making International Law for Environment Protection):
1. लेक सेक्स सम्मेलन, 1949:
संसाधनों के प्रयोग और संरक्षण विषयक प्रथम विश्व वैज्ञानिक सम्मेलन का संचालन संयुक्त राष्ट्रों द्वारा लेक सेक्स में 1949 में किया गया । सम्मेलन में इस बात पर बल दिया गया कि प्रकृति के उपकरण एक नैसर्गिक बपौती के रूप में हैं जिन्हें शीघ्रता से नष्ट नहीं करना चाहिए ।
2. मानवीय पर्यावरण पर स्टॉकहोम सम्मेलन 1972:
1968 में महासभा के इस निर्णय कि मानव पर्यावरण की क्षति को सीमित करने तथा मानव की प्राकृतिक परिस्थितियों के संरक्षण और सुधार के लिए राष्ट्रीय, क्षेत्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर कार्यवाही की आवश्यकता थी, के बाद जून 1972 में स्टॉकहोम में संयुत्त राष्ट्र मानवीय पर्यावरण पर सम्मेलन हुआ जिसमें वैज्ञानिकों ने इस बात पर चिन्ता प्रकट की कि नदियों का जल प्रदूषित हो रहा है, मछलियों का समुद्र के किनारों पर सड़ना, पेड़ों का काटना, नगरों द्वारा दूषित धुआं उत्पादित करके आकाश को प्रदूषित करना और मानवीय उपयोग में आने वाली खाद्य सामग्रियों में नशीली चीजों का मिलाया जाना, आदि ऐसे विषय हैं जिन पर विश्वव्यापी चिन्ता व्याप्त है ।
इन समस्याओं में शस्त्रों के प्रति होड़, रासायनिक युद्ध प्रणाली, न्यूक्लियर परीक्षण और औद्योगिक बस्तियों का विस्तारण भी शामिल है । सम्मेलन ने मानव पर्यावरण पर एक घोषणा स्वीकृत की जो उत्तम पर्यावरण के मानव अधिकार तथा भावी पीढ़ियों के लिए पर्यावरण संरक्षण और सुधार में उनके दायित्व का ऐलान करती है ।
जीवन रक्षण, मानव निर्मित प्रदूषकों से प्रदूषण नियन्त्रण और नगरों और मानव बस्तियों के लिए सरकारों तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा किए जाने वाले उपायों की 100 से अधिक सिफारिशों वाली कार्यवाही योजना को भी इसने स्वीकृति दी । स्टॉकहोम सम्मेलन ने पर्यावरण संरक्षण पर अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए ध्यान आकर्षित किया ।
इस सम्मेलन की मुख्य उपलब्धियां अग्रलिखित हैं:
A. मानवीय पर्यावरण पर घोषणा:
मानवीय पर्यावरण पर घोषणा इस सम्मेलन की सबसे बड़ी उपलब्धि है । स्टार्क ने इसकी तुलना मानवीय अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा से की है । यह घोषणा दो भागों में विभाजित है । प्रथम भाग में मनुष्य की पर्यावरण के सम्बन्ध में सात सच्चाइयों की घोषणा है तथा दूसरे भाग में 26 सिद्धान्त प्रतिपादित किए गये हैं ।
प्रथम भाग में उल्लिखित सच्चाइयां हैं- मनुष्य अपने पर्यावरण का निर्माता और ढालने वाला दोनों ही है । विकासशील देशों में पर्यावरण सम्बन्धी अधिकांश समस्याएं अल्पविकास के परिणामस्वरूप हैं, आदि ।
घोषणा के दूसरे भाग में उल्लिखित सिद्धान्त हैं- पृथ्वी के प्राकृतिक द्रव्यों जिनमें वायु, पानी, भूमि, पेड़-पौधे शामिल हैं, को वर्तमान तथा भावी पीढ़ियों के लिए सावधानीपूर्ण तथा उपयुक्त योजना तथा प्रबन्ध द्वारा सुरक्षित किया जाना चाहिए ।
समुद्र में होने वाले प्रदूषण जो मानवीय स्वास्थ्य, जीवित द्रव्यों तथा सामुद्रिक जीवन के लिए हानिकारक हैं, को सभी सम्भव उपायों से रोका जाना चाहिए । राज्यों की जिम्मेदारी है कि अपने राष्ट्रीय क्षेत्राधिकार की सीमाओं से बाहर के पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाएं ।
B. मानवीय पर्यावरण के लिए कार्य करने की योजना:
मानवीय पर्यावरण के लिए कार्य करने की योजना तीन भागों में विभाजित है:
i. विश्व पर्यावरण निर्धारण प्रोग्राम,
ii. पर्यावरण प्रबन्ध के कार्य-कलाप,
iii. निर्धारण तथा प्रबन्ध के राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय कार्यों को सहायता पहुंचाने वाले अन्तर्राष्ट्रीय उपाय ।
C. संस्थागत तथा वित्तीय व्यवस्थाओं पर प्रस्ताव:
निम्न संस्थाओं की स्थापना की संस्तुति की गयी:
i. पर्यावरण कार्यक्रमों के लिए अधिशासी परिषद्,
ii. पर्यावरण सचिवालय,
iii. पर्यावरण कोष,
4. एक पर्यावरण-समन्वयी निकाय ।
D. विश्व पर्यावरण दिवस की घोषणा पर प्रस्ताव:
इस प्रस्ताव में यह सिफारिश की गयी है कि 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाए ।
E. आणविक अस्त्रों के परीक्षण पर प्रस्ताव:
इस प्रस्ताव में आणविक परीक्षणों की निन्दा की गयी है ।
अर्जेण्टीना में संयुक्त राष्ट्र जल सम्मेलन, 1977 – जल प्रदूषण की समस्या का स्वरूप विश्वव्यापी है । विकसित देशों से लेकर विकासशील देशों तक सभी इससे पीड़ित हैं । वस्तुत: विश्व की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग स्वच्छ पानी के लिए मोहताज है ।
इस स्थिति में थोड़ा-बहुत सुधार लाने के लिए सन् 1977 में अर्जेण्टीना में संयुक्त राष्ट्र जल सम्मेलन ने 1981 से 1990 के दशक को अन्तर्राष्ट्रीय जल आपूर्ति और जल प्रदूषण निवारण दशक के रूप में मनाने का निश्चय किया ।
इसके अन्तर्गत संयुक्त राष्ट्र संघ से सम्बन्धित विभिन्न एजेन्सियों ने 1990 तक विकासशील देशों की दो अरब जनसंख्या को प्रदूषणरहित पेयजल उपलब्ध कराने का एक वृहद् कार्यक्रम तैयार किया । इस पर लगभग 300 अरब डॉलर खर्च होने का अनुमान है ।
नैरोबी घोषणा, 1982:
10-18 मई, 1982 को स्टॉकहोम में हुई मानवीय पर्यावरण पर संयुत्त राष्ट्र सम्मेलन की दसवीं वर्षगांठ मनाने के लिए नैरोबी में राष्ट्रों का एक सम्मेलन हुआ जहां एक घोषणा-पत्र स्वीकृत किया गया । नैरोबी घोषणा द्वारा विश्व समुदाय के राज्यों ने स्टॉकहोम घोषणा तथा कार्य योजना के प्रति पुन: आस्था प्रकट करते हुए उसमें उल्लिखित सिद्धान्तों का अनुमोदन किया ।
पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र विशिष्ट समिति:
मई, 1984 में विश्व की पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं को हल करने के लिए संयुक्त राष्ट्र विशिष्ट समिति की स्थापना की गयी । इस समिति की फरवरी 1987 में बैठक हुई जिसमें उष्ण देशों के कम होने तथा रेगिस्तानों एवं तेजाब वर्षा (Acid Rain) को रोकने हेतु अन्तर्राष्ट्रीय मार्ग निर्देशिका बनाने के लिए विचार-विमर्श हुआ ।
पर्यावरण एवं विकास पर संयुक्त राष्ट्र (रिओ पृथ्वी सम्मेलन) सम्मेलन, जून 1992:
संयुक्त राष्ट्र महासचिव बुतरस घाली ने 3 जून, 1992 को ब्राजील की राजधानी रिओ-डी-जेनेरो में ‘पर्यावरण एवं विकास पर सयुक्त राष्ट्र सम्मेलन’ का उद्घाटन किया । यह सम्मेलन 14 जून, 1992 तक चला । सम्मेलन के महासचिव कनाडा के मौरिस एफ.स्ट्रांग थे ।
यह सम्मेलन 1972 में स्टॉकहोम में पर्यावरण पर हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन की 20वीं वर्षगांठ के मौके पर हुआ था । स्टॉकहोम सम्मेलन के फलस्वरूप ही पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल विकास के सिद्धान्तों तथा संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की नींव पड़ी थी । हाल के वर्षों में यह बहुत बड़ा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन है जहां 150 से अधिक राष्ट्रीय प्रतिनिधि (अनेक शासनाध्यक्षों सहित) उपस्थित हुए ।
रिओ घोषणापत्र:
3 से 14 जून, 1992 तक ब्राजील की पुरानी राजधानी रिओ-डी-जेनेरो में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में विश्व के सभी पर्यावरण सचेतन देशों का एक शिखर सम्मेलन ‘पृथ्वी सम्मेलन’ के नाम से सम्पन्न हुआ, जिसमें भाग लेने वाले सभी राज्य-प्रमुखों की ओर से एक संयुक्त घोषणा-पत्र जारी किया गया ।
इस घोषणा-पत्र में पर्यावरण एवं विकास को अन्योन्याश्रित स्वीकार करते हुए मानव जाति के घर ‘पृथ्वी’ के पर्यावरण की सुरक्षा के लिए सभी देशों के सामान्य अधिकारों एवं कर्तव्यों को सैद्धान्तिक रूप से सुपरिभाषित किया गया ।
घोषणा-पत्र का मूल पाठ इस प्रकार है:
स्थायी विकास के सभी सरोकारों का केन्द्र-बिनु मानव जाति ही है और उसे प्रकृति के साथ पूर्ण समरसता रखते हुए स्वस्थ एवं उत्पादनशील जीवन जीने का अधिकार है । संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा-पत्र तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि-सिद्धान्तों के तहत प्रत्येक राज्य को अपने संसाधनों का शोषण अपनी ही पर्यावरण-नीति के अनुसार करने का सम्प्रभु अधिकार है और उनका यह भी दायित्व है कि वे अपनी समस्त गतिविधियों का संचालन इस ढंग से सुनिश्चित करें कि उनकी राष्ट्रीय सीमाओं के बाहर कोई अन्य राज्य अथवा क्षेत्र उससे दुष्प्रभावित या क्षतिग्रस्त न हो ।
विकास के सम्प्रभु अधिकारों का प्रयोग इस प्रकार हो कि विकास एवं पर्यावरण का तालमेल बना रहे ताकि वर्तमान एवं भावी पीढ़ियों पर इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़ने पाए । स्थायी प्रकृति के विकास के लाभों को प्राप्त करते हुए पर्यावरण सुरक्षा पर भी पूरा-पूरा ध्यान दिया जाए, क्योंकि ये दोनों ही परस्पर एक-दूसरे के अविभाज्य अंग हैं । इन्हें अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता ।
सभी राज्य और सम्पूर्ण जनता विश्व से गरीबी समाप्त करने के आवश्यक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए परस्पर सहयोग कर स्थायी विकास के लाभों को पाने के लिए सक्रिय होंगे, क्योंकि यह एक अनिवार्य आवश्यकता है ।
पर्यावरण एवं विकास में सन्तुलन बनाए रखने के लिए विकासशील तथा अत्यधिक अविकसित देशों की विशेष स्थिति एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए तथा पर्यावरण की दृष्टि से अधिक संकटग्रस्त देशों को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी विशेष प्राथमिकता प्रदान की जाएगी और विकास एवं पर्यावरण संगठन के सभी क्रिया-कलाप सभी देशों के हितों और आवश्यकताओं को लक्ष्य करके ही सम्पादित एव संचालित होंगे ।
सभी देश विश्व सहभागिता की भावना से परस्पर सहयोग करेंगे ताकि विश्व पारिस्थितिकी सुरक्षा, संरक्षा, पुनर्स्थापना एवं अखण्डता सम्भव हो सके । विश्व पर्यावरण की हो चुकी क्षति में विभिन्न देशों के बहुविध योगदान को देखते हुए विश्व के समस्त देशों की समान, किन्तु अलग-अलग जिम्मेदारियां होंगी ।
विकसित देश अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थायी विकास से सम्बन्धित अपनी उन जिम्मेदारियों को स्वीकारते हैं, जो उनके समाजों ने विश्व पर्यावरण को लेकर उन पर रखी हैं । इसके लिए वे अपने वित्तीय संसाधनों एवं तकनीकी माध्यम से उन्हें पूरा करने हर सम्भव प्रयास करेंगे ।
विश्व समुदाय के स्थायी विकास और जीवन-स्तर को उन्नत करने के लिए सभी देशों को चाहिए कि पर्यावरण विरोधी उत्पादन एवं उपभोग की सीमाओं को संकुचित करें और ऐसी जनसंख्या नीति अपनाएं जिससे आवश्यक सन्तुलन बना रहे ।
सभी देशों को परस्पर सहयोग करते हुए स्थायी विकास की ऐसी प्रविधियां अपनानी चाहिए जो पर्यावरण के अनुकूल हों । इसके लिए उन्हें विज्ञान और तकनीकी ज्ञान में वृद्धि के साथ-साथ आपस में उनका लेन-देन तो करना ही चाहिए, साथ ही स्थानिक आवश्यकताओं के अनुरूप उनमें वांछित सुधार भी करते रहना चाहिए । तकनीकें भी ऐसी होनी चाहिए, जिनमें नयेपन के साथ पुनर्नवीकरण की भी सुविधा हो ।
पर्यावरण सम्बन्धी विभिन्न मसलों का उपयुक्त समाधान सम्बद्ध स्तर पर ही सम्बन्धित नागरिकों की सहभागिता से किया जा सकता है । राष्ट्र स्तर पर भी प्रत्येक व्यक्ति को पर्यावरण सम्बन्धी जानकारियां सहज सुलभ होनी चाहिए । इसमें क्षतिकारक पदार्थों एवं संक्रियाओं की भी जानकारी शामिल है ।
प्रत्येक समुदाय को निर्णय लेने की प्रक्रिया में सम्मिलित किया जाना चाहिए । इसी को ध्यान में रखते हुए राज्यों का कर्तव्य होगा कि वे जानकारियां सुलभ कराकर जनता में पर्यावरण चेतना जगाएं तथा उसकी संरक्षा के लिए उसे प्रोत्साहित करते रहें । पर्यावरण संरक्षा के लिए जरूरी एवं प्रभावी विधिक तथा प्रशासनिक कार्यवाहियों एवं उपायों की भी सुलभता बनाए रखी जानी चाहिए ।
सभी देशों को आवश्यक कानून बनाकर पर्यावरणीय मानकों का निर्धारण, तत्सबंधी लक्ष्यों, प्राथमिकताओं तथा उपायों को सुपरिभाषित करना चाहिए । विकास एवं पर्यावरण सन्तुलन सुनिश्चित करने के साथ ही उपयुक्त प्रबन्ध-विधियों का भी इन कानूनों में स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए ।
सम्भव है, कुछ विकसित देशों के मानक उनकी सामाजिक एवं वित्तीय परिस्थितियों के कारण अन्यान्य देशों के लिए अनुपयुक्त अथवा अवांछित हों । राज्यों के पारस्परिक सहयोग से एक ऐसी वित्तीय प्रणाली का विकास भी वांछनीय है, जो एक-दूसरे के लिए सहायक हो तथा इस हद तक खुली हो कि जिसके माध्यम से प्रत्येक देश का आर्थिक विकास तो सम्भव हो ही सके, पर्यावरण को होने वाली क्षति भी न्यूनतम हो ।
पर्यावरण की दृष्टि से व्यापार नीतियां भी इस प्रकार तैयार की जाएं, जो न तो एकतरफा हों और न ही उनमें कोई भेदभाव बरता गया हो । प्रच्छन्न अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिबन्धों से भी उन्हें पूर्णत: मुक्त होना चाहिए । आयातक देशों को भी यथासम्भव ऐसे प्रयास करने चाहिए कि विश्व पर्यावरण उससे प्रतिकूल तथा प्रभावित न हों । पर्यावरण के सभी मुद्दों पर अन्तर्राष्ट्रीय निर्णय यथासम्भव सर्वसम्मत ही होने चाहिए ।
राज्यों को ऐसे कानून भी बनाने चाहिए जिनमें प्रदूषण एवं अन्य प्रकार की पर्यावरण सम्बन्धी क्षतियों से दुष्प्रभावित जनों की क्षतिपूर्ति का प्रावधान हो । इसी तरह के प्रावधानों से युक्त अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विकास में तो सभी देशों को सहयोग करना चाहिए, ताकि किसी एक देश की गलती से दुष्प्रभावित अन्य देश की क्षतिपूर्ति सम्भव हो सके । राज्यों को परस्पर ऐसे प्रभावी उपाय भी करने चाहिए, जिनसे मानव स्वास्थ्य अथवा पर्यावरण के लिए क्षतिकारक पदार्थों व प्रक्रियाओं का पुनरावंटन अथवा हस्तान्तरण निरुत्साहित हो ।
रिओ पृथ्वी सम्मेलन: उपलब्धियां:
रिओ में आयोजित शिखर सम्मेलन की उपलब्धियां निम्नलिखित हैं:
जलवायु परिवर्तन सन्धि:
इस सन्धि के अन्तर्गत ताप बढ़ाने वाली गैसों के बढ़ते उत्सर्जन में जलवायु परिवर्तन एवं समुद्र स्तरों में बढ़ोतरी के खतरे को रेखांकित किया गया । साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया कि ऐसी गैसों की ज्यादा मात्रा विकसित देश ही वायुमण्डल में उड़ेलते हैं ।
सन्धि पर हस्ताक्षर करने वाले देशों से आग्रह किया गया कि वे शीघ्र ही रिपोर्ट तैयार करें कि ऐसे उत्सर्जन को घटाने के लिए वे क्या उपाय कर रहे हैं । यही नहीं, सन्धि में यह भी आग्रह किया गया कि विकसित देश ऐसे उत्सर्जन को सन् 2000 तक 1990 के स्तर पर लाने का प्रयास करें ।
हालांकि इस लक्ष्य के लिए कोई कानूनी बन्धन अस्तित्व में नहीं आ सका । सन्धि में यह भी बताया गया है कि विकसित देश विश्व बैंक की ग्लोबल एनवायरनमेंट फैसिलिटी (G.E.F.) के अन्तर्गत उपलब्ध 80 करोड़ पाउंड की धनराशि का इस्तेमाल इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए करें ।
जैव विविधता (बायोडाइवर्सिटी) पर समझौता:
इस समझौते के अन्तर्गत इस बात पर बल दिया गया कि सभी राष्ट्र अपनी सीमाओं के भीतर वानस्पतिक एवं जीव-जन्तुओं की विभिन्न जातियों को सुरक्षित करें । किन्तु राष्ट्रों को इस कार्य के लिए बाध्य करने हेतु कोई कानूनी बन्धन नहीं है ।
समझौते में यह भी कहा गया है कि विकसित देश G.E.F. में उपलब्ध फंड की सहायता दिलाकर विकासशील देशों को जैव विविधता की रक्षा के लिए प्रेरित करें । अमेरिका ने इस समझौते पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया क्योंकि उसका मानना है कि इसे स्वीकार करने से उसका जैव उद्योग प्रभावित होगा जो तीसरी दुनिया से उपलब्ध होने वालें जन्तुओं एवं वनस्पतियों पर ही आधारित है ।
रिओ घोषणा-पत्र:
इस घोषणा-पत्र के विभिन्न बिन्दुओं पर सम्मेलन-पूर्व की बैठकों में काफी विचार-विमर्श हुआ तथा सम्मेलन में बिना किसी महत्वपूर्ण फेर-बदल के इसे पेश किया गया । इस घोषणा-पत्र में पर्यावरण की रक्षा और विकास के लिए 27 सिद्धान्त हैं । विचार-विमर्श के दौरान इनमें काफी फेर-बदल हुआ था । इसी कारण इसका नाम ‘अर्थ चार्टर’ से बदलकर ‘रिओ डेक्लेरेशन’ हो गया था ।
इस घोषणा-पत्र में उल्लिखित सिद्धान्त क्रम-3 सन्तुलित विकास के विचार पर बल देता है यानी आज की जरूरतें पूरी करने के लिए राष्ट्रों को प्राकृतिक सम्पदा का ऐसा दोहन नहीं करना चाहिए कि पर्यावरण असन्तुलित हो जाए और आने वाली नस्लों को अपनी जरूरतें पूरी करने के मार्ग में बाधाएं उठानी पड़े ।
एजेंडा-21:
यह एक आठ सौ पृष्ठीय दस्तावेज है, जिसमें सन्तुलित विकास के उपायों को रेखांकित किया गया है । एजेंडा-21 में 40 अध्याय हैं जिनमें समुद्र, तापमान, जैव-विविधता पर चर्चा की गयी है तथा ऐसे रास्ते सुझाये गये हैं जिनमें पर्यावरण संरक्षण सुनिश्चित करते हुए विकास सम्भव है ।
एजेंडा-21 में विस्तार से सिफारिशें की गई हैं कि रहन-सहन के उन तरीकों को बदला जाये जिनका पर्यावरण पर बोझ पड़ता है और मानव स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है । इसमें आगे कदम उठाने के लिए जो क्षेत्र चुने गए हैं, उनमें शामिल हैं- वायुमण्डल की रक्षा, जंगलों को उजड़ने से बचाना, मिट्टी का कटाव और मरुस्थलीकरण, वायु तथा जल प्रदूषण का नियन्त्रण, मछलियों के जमाव में कमी तथा जहरीले छीजन का सुरक्षित निपटान ।
एजेंडा-21 में विकास की उन प्रणालियों पर भी अंगुली उठाई गई है, जो पर्यावरण पर दबाव डालती हैं । इनमें विकासशील देशों में गरीबी और बाहरी कर्जे, औद्योगीकृत देशों में उत्पादन और खपत के अनुचित स्तर, जनसंख्या के दबाव और अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का चरमराता ढांचा शामिल है ।
सतत विकास आयोग:
विश्व शिखर सम्मेलन की सिफारिश मानते हुए महासभा ने इस आयोग की स्थापना की ताकि सरकारें, उद्योग तथा अन्य संस्थाएं एजेंडा-21 के कार्यान्वयन पर निगरानी रख सकें । नीति समन्वय तथा सतत विकास का विभाग 53 सदस्यीय आयोग के लिए ठोस सहायता उपलब्ध करता है । यह आयोग ‘आर्थिक एवं सामाजिक परिषद्’ के अधीन गठित किया गया है और वर्ष में एक बार इसकी बैठक होती है ।
तीसरी दुनिया को मदद:
पृथ्वी सम्मेलन सचिवालय ने एजेंडा-21 को क्रियान्वित करने के लिए 350 खरब पाउंड प्रतिवर्ष के खर्च का अनुमान पेश किया है । उसका सुझाव है कि इसमें से 70 खरब पाउंड विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को अनुदानस्वरूप दिया जाना चाहिए ।
ध्यान रहे कि 30 खरब पाउंड तो पहले से ही विकासशील देशों के समूह को मदद के बतौर दिया जा रहा है । बहरहाल, विकासशील देशों के समूह-77 को यह उम्मीद थी कि शेष 40 खरब पाउंड सहायता का मार्ग भी बन सकता है । किन्तु अंतत: विकसित देशों- जापान, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, कनाडा तथा अन्य छोटे देशों ने जो घोषणा की उससे मात्र कुछ खरब पाउंड की सहायता ही सुनिश्चित हो सकी ।
वन सिद्धान्त:
वनों के संरक्षण तथा उनके सन्तुलित दोहन के मुद्दे पर सम्मेलन में काफी गम्भीरता से विचार हुआ, किन्तु कोई महत्वपूर्ण दस्तावेज सामने नहीं आ सका । हालांकि विकसित देशों का पूरा प्रयास रहा कि इस सम्बन्ध में कोई सन्धि हो जाए, किन्तु वे विफल रहे, क्योंकि भारत और मलेशिया ऐसी किसी बात पर राजी नहीं हुए जो उनके वनों के उपयोग पर रोक लगाये, वह भी बिना किसी लाभ के ।
रिओ सम्मेलन : उत्तर-दक्षिण मतभेद:
पर्यावरण असन्तुलन को नियन्त्रण में लाने के मुद्दे पर विचार-विमर्श के दौरान विश्व बिरादरी प्रमुख रूप से उत्तरी एवं दक्षिणी गुटों में बंटी हुई नजर आयी । इस बंटवारे का आधार है – उत्तर की सम्पन्नता और दक्षिण की विपन्नता ।
रिओ में दक्षिण गुट का कहना था कि उत्तर ने अपने विकास एवं समृद्धि के लिए पर्यावरण का असन्तुलित शोषण किया है तथा विश्व को प्रदूषित किया है, इसलिए पर्यावरण पुन: सन्तुलित करने तथा प्रदूषण दूर करने के उपायों पर आने वाले खर्चों को भी उसे ही उठाना चाहिए । बात किसी हद तक सही भी है ।
यदि सिर्फ अमेरिका और भारत का ही तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि उत्तरी खेमे का महाशक्तिशाली देश अमेरिका दक्षिणी खेमे के भारत के मुकाबले कहीं बड़े अनुमान में पर्यावरण असन्तुलन के लिए जिम्मेदार है । मसलन भारत में विश्व की 17.5 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है तथा इसकी ऊर्जा खपत विश्व की कुल खपत का मात्र तीन प्रतिशत ही है ।
यही नहीं, वायुमण्डल में उत्सर्जित कुल कार्बन डाइ-ऑक्साइड के मात्र तीन प्रतिशत के लिए ही भारत जिम्मेदार है, जबकि अमेरिका में कुल विश्व की मात्र पांच प्रतिशत जनता रही है, किन्तु यह देश विश्व की एक-चौथाई ऊर्जा का उपभोग करके वातावरण में बाइस प्रतिशत कार्बन डाइ-ऑक्साइड की उपस्थिति के लिए जिम्मेदार है ।
यह तो रहा उत्तर तथा दक्षिण के मात्र एक-एक देश का उदाहरण । यदि इसी तरह आंकड़े एकत्र किए जाएं तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि विश्व पर्यावरण असन्तुलन के लिए जितने सम्पन्न देश जिम्मेदार हैं, उतने गरीब, अविकसित अथवा विकासशील देश नहीं ।
इस तथ्य को जानते हुए भी रिओ में एकत्र सम्पन्न देशों ने प्रदूषण के मुद्दे पर चिन्ताएं तो व्यक्त कीं, घड़ियाली आंसू तो बहाए, किन्तु किसी भी हाल में विभिन्न सन्धियों में उल्लिखित ऐसे प्रस्तावों पर सहमति व्यक्त करने को तैयार नहीं हुए जिनसे उनकी जीवन शैली प्रभावित होने का खतरा था ।
विकसित देशों में सबसे अधिक बाधक भूमिका रही संयुक्त राज्य अमेरिका की, जहां के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पहले तो इस शिखर सम्मेलन में हाजिर होने से कतरा रहे थे, किन्तु जब लोक-लाज के दबाव ने उन्हें मजबूर किया और अन्तिम क्षणों में वे रिओ पहुंचे भी, तो सिवाय अपने हितों को सर्वोपरि रखने के उन्होंने विश्वहित की ओर ध्यान भी नहीं दिया ।
जॉर्ज बुश ने जैव-विविधता तथा जलवायु परिवर्तन सन्धियों पर हस्ताक्षर न करके अपने उद्योग, व्यवसाय एवं जीवन शैली को अप्रभावित रखा । यहां हम यह भी प्रतिपादित नहीं करना चाहते कि निर्धन अथवा विकासशील देश प्रदूषण फैलाने के लिए जिम्मेदार ही नहीं हैं ।
सच पूछा जाए तो धन की कमी तथा पुरानी तकनीकों पर आधारित उद्योगों के कारण किसी-न-किसी रूप में वे भी पर्यावरण असन्तुलन बढ़ाने में योगदान कर ही रहे हैं; फिर जंगलों को काटकर ईंधन उपलब्ध कराना तथा बेशकीमती लकड़ी बेचकर अपनी अर्थव्यवस्था चलाना इन देशों की मजबूरी है ।
इस मजबूरी से उन्हें छुटकारा दिलाने के लिए भी समृद्ध देश आगे नहीं आते । जाहिर है, जिनके पास धन है, तकनीक है, विज्ञान है, वे ही ऐसे देशों को उबार सकते हैं, जो इन सबके अभाव में किसी तरह अपनी जनसंख्या को जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं ।
यही कारण है कि रिओ सम्मेलन में विकासशील देशों के ग्रुप-77 ने, जिसके औपचारिक अध्यक्ष पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ थे, उत्तर के समक्ष खुलकर अपना पक्ष प्रस्तुत किया तथा समृद्ध देशों से आर्थिक अनुदान बढ़ाने की मांग की ।
तीसरी दुनिया के देशों द्वारा पर्यावरण को सन्तुलित रखते हुए विकास करने की प्रबल इच्छा को मद्देनजर रखते हुए समृद्ध देशों ने आर्थिक अनुदान के लिए हामी भी भरी । जापान ने सन्तुलित विकास के लिए 8 करोड़ डॉलर से बढ़ाकर 1.4 खरब डॉलर प्रतिवर्ष करने की घोषणा की ।
इसी तरह यूरोप ने 4 खरब डॉलर के अनुदान की घोषणा की । जर्मनी तो सबसे आगे रहा । उसने तीसरी दुनिया के देशों की इस मांग को स्वीकृत किया कि समृद्ध देशों को अपने सकल राष्ट्रीय उत्पाद का 0.7 प्रतिशत विदेशी मदद के रूप में देना चाहिए । बॉन ने घोषणा की कि वह 6.3 खरब डॉलर प्रतिवर्ष तीसरी दुनिया के देशों को बतौर मदद दिया करेगा ताकि वे गरीबी से उबर सकें और पर्यावरण सन्तुलन की दिशा में काम कर सकें ।
जैव-विविधता सन्धि प्रभावी:
विश्व जैव-विविधता सन्धि 29 दिसम्बर, 1993 से प्रभावी हो गयी । इस सन्धि पर जून, 1992 में 153 देशों ने रिओ-डी-जेनेरो में पृथ्वी सम्मेलन के दौरान हस्ताक्षर किये थे । जैव-विविधता सन्धि तेजी से नष्ट हो रही जैव-विविधता को बचाने के लिए है ।
संयुक्त राष्ट्र पृथ्वी शिखर सम्मेलन (न्यूयार्क) : जून 1997:
1992 में रिओ-डी-जेनेरो में सम्पन्न हुए पृथ्वी शिखर सम्मेलन में लिए गए निर्णयों की प्रगति का मूल्यांकन करने हेतु एक पांच दिवसीय संयुक्त राष्ट्र पृथ्वी शिखर सम्मेलन 23-27 जून, 1997 को न्यूयार्क में सम्पन्न हुआ ।
सम्मेलन में 170 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया । विश्व में निरन्तर कम हो रहे वनों, नष्ट हो रही प्रजातियों तथा घटते हुए मत्स्य संग्रह के प्रति अधिकांश देशों ने सम्मेलन में चिन्ता व्यक्त की । विकासशील राष्ट्रों ने इस बात पर बल दिया कि पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के लिए उन्हें विकसित राष्ट्रों से वांछनीय वित्तीय सहायता उपलब्ध नहीं कराई जा रही है ।
यद्यपि अमरीकी राष्ट्रपति क्लिंटन ने विकासशील राष्ट्रों को पर्यावरण अनुकूल ऊर्जा स्रोतों के विकास के लिए एक अरब डॉलर उपलब्ध कराने की घोषणा की तथापि सम्मेलन बिना किसी ठोस निष्कर्ष के समाप्त हो गया ।
पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकी के वितीयन एवं इसकी रियायती शर्तों पर हस्तान्तरण विषैली गैसों के उत्सर्जन तथा वन संरक्षण, आदि मुद्दों पर व्यापक बहस के बावजूद सम्मेलन में किसी समझौते पर सहमति न हो सकी ।
ग्लोबल वार्मिंग पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन : क्योटो संधि-दिसम्बर 1997:
पृथ्वी को बढ़ते तापमान से बचाने के लिए दिसम्बर 1997 में जापान के क्योटो नगर में ग्लोबल वार्मिंग सम्मेलन सम्पन्न हुआ । ”विश्व पर्यावरण सम्मेलन तथा ग्रीन हाउस सम्मेलन” नाम से चर्चित इस सम्मेलन में वातावरण को गर्म करने वाली गैसों के उत्सर्जन को नियन्त्रित करने पर यद्यपि सभी राष्ट्र सहमत थे, किन्तु इसकी सीमा का निर्धारण विवाद का ही मुद्दा बना रहा ।
राउल प्रस्ट्राडा की अध्यक्षता में सम्पन्न इस सम्मेलन में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर अन्ततः एक समझौते की स्वीकृति दे दी गई जिसके अन्तर्गत विभिन्न औद्योगिक राष्ट्रों के लिए उत्सर्जन की अलग-अलग सीमाएं निर्धारित की गई हैं । इसके अन्तर्गत यूरोपीय संघ के राष्ट्र ग्रीन हाउस गैसों के विस्तार में 8 प्रतिशत, अमरीका 7 प्रतिशत तथा जापान 6 प्रतिशत कटौती करेंगे ।
यह कटौतियां वर्ष 2008 से 2012 के बीच की जाएंगी । 21 अन्य औद्योगिक राष्ट्र भी इन गैसों के उत्सर्जन में इसी प्रकार कटौती करेंगे । यह उत्सर्जन नियन्त्रण सभी छह ग्रीन हाउस गैसों पर समान रूप से प्रभावी होगा । उत्सर्जन नियन्त्रण की प्रक्रिया आदि पर सम्मेलन में कोई निर्णय नहीं लिया गया ।
1997 में सम्पन्न ऐतिहासिक क्योटो सन्धि का यूरोपीय संघ के सभी 15 सदस्य राष्ट्रों ने अनुमोदन कर सम्बन्धित दस्तावेज 1 जून, 2002 को संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में जमा करा दिए । अब तक प्रोटोकोल का 125 देशों ने पुष्टिकरण किया है तथा 141 देशों ने इस सन्धि के प्रति सहमति जताई है परन्तु अमेरिका ने 2001 में ही कार्बन-डाइ-ऑक्साइड को कम करना अत्यधिक खर्चीला बताकर इस पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया । ऑस्ट्रेलिया, चीन एवं भारत भी अब इस सन्धि से बाहर हैं । रूस ने इस सन्धि पर 22 अक्टूबर, 2004 को हस्ताक्षर किये । क्योटो प्रोटोकोल को 16 फरवरी, 2005 से लागू कर दिया गया है ।
जोहान्सबर्ग में सतत विकास से सम्बद्ध विश्व शिखर सम्मेलन (अगस्त-सितम्बर, 2002):
26 अगस्त से 6 सितम्बर, 2002 तक दक्षिण अफ्रीका के नगर जोहान्सबर्ग में संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रायोजित पृथ्वी सम्मेलन सम्पन्न हुआ । विश्व के लगभग 104 देशों के शासनाध्यक्षों के अतिरिक्त 21,000 लोगों ने जिसमें 9,101 सरकारी प्रतिनिधियों, 8,227 गैर-सरकारी प्रतिनिधियों तथा 4,012 संचार माध्यमों के प्रतिनिधियों ने इस सम्मेलन में भाग लिया; लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश सम्मेलन में अनुपस्थित रहे ।
सम्मेलन का प्रमुख विषय रहा- टिकाऊ विकास (Sustainable Development) । दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति थाबोम्बेकी ने पाश्चात्य प्रायोजित विकास की अवधारणा पर प्रहार करते हुए कहा कि यह विकास गरीबी की एक लम्बी छाया का सर्जक है ।
यह शिखर सम्मेलन जो पृथ्वी से सम्बद्ध शिखर सम्मेलन के दस वर्ष बाद हुआ, से अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को इस बात का मूल्यांकन करने का अवसर मिला कि क्या कार्यसूची-21 में उल्लिखित लक्ष्यों को प्राप्त कर लिया गया है ।
संयुक्त राष्ट्र जलवायु समझौता सम्मेलन (दिसम्बर, 2005):
धरती के बढ़ते तापमान को कम करने के लिए संयुका राष्ट्र जलवायु समझौता सम्मेलन कनाडा के मॉण्ट्रियल शहर में 13 दिन तक चली लम्बी बहस के साथ 10 दिसम्बर, 2005 को सम्पन्न हुआ । यह एक विशाल सम्मेलन था जिसमें 189 राष्ट्रों के लगभग 10,000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया । सम्मेलन के अन्तिम दिन 150 से अधिक राष्ट्रों ने ग्रीन हाउस गैसों के क्योटो ताप सन्धि के निर्धारित लक्ष्य पर औपचारिक वार्ताओं में सम्मिलित होने पर सहमति व्यक्त की ।
इस सन्धि में औद्योगिक राष्ट्रों के लिए वर्ष 2008 से 2012 के मध्य ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी का लक्ष्य है । अमरीका केवल अबाध्यकारी वार्ताओं में स्वैच्छिक रूप से सम्मिलित होने पर सहमत हुआ है ।
अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने इस दिशा में प्रमुख भूमिका निभायी और उनके द्वारा की गई आलोचना से ही अमरीकी प्रतिनिधि मण्डल अन्तत: इसके लिए सहमत हुआ । बुश प्रशासन इस समस्या से निपटने के लिए गैसों के उत्सर्जन पर स्वैच्छिक नियन्त्रण करने और पुनर्चक्रीकरण प्रदौगिकी में निवेश पर बल देने का समर्थक रहा है ।
जलवायु परिवर्तन पर कोपनहेगन सम्मेलन (दिसम्बर 2009):
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र का सम्मेलन ‘कॉप- 15’ डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में 7-18 दिसम्बर, 2009 को सम्पन्न हुआ । 12 दिन चले इस सम्मेलन में प्रदूषणकारी गैसों के उत्सर्जन पर अंकुश के लिए एक सर्वसम्मत समझौते पर पहुंचने का प्रयास किया गया ।
सम्मेलन के दौरान विकसित एवं विकासशील देशों के बीच सतत रूप से जारी गम्भीर विभाजन देखा गया । सम्मेलन के अन्तिम दिन (18 दिसम्बर) एक गैर बाध्यकारी कोपेनहेगन समझौते को स्वीकार किया गया ।
अमरीका व बेसिक (BASIC – Brazil, South Africa, India, China) देशों के बीच अन्तिम क्षणों की बातचीत के बाद स्वीकारे गए इस समझौते को सर्वसम्मत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अनेक राष्ट्रों ने बाद में इसका पुरजोर विरोध किया है ।
संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन अभिसमय की रूपरेखा:
संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन अभिसमय की रूपरेखा के पक्षकारों के 17वें सम्मेलन तथा क्योटो प्रोटोकोल के पक्षकारों की 7वीं बैठक 28 नवम्बर, 9 दिसम्बर, 2011 तक डरबन नें आयोजित की गई । डरबन में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए ।
विशेषकर, विकसित देश के लिए क्योटो प्रोटोकोल की दूसरी प्रतिबद्धता अवधि पर सहमति व्यक्त की गई । इसके अतिरिक्त, इस सम्मेलन में 2010 में कानकुन में सहमत संरचनाओं के प्रचालन से सम्बन्धित निर्णयों को अपनाया गया । डरबन सम्मेलन में 192 देशों की उपस्थिति और 36 घण्टे की विस्तारित गहन मन्त्रणा के बाद यह सहमति बन पाई कि 2015 तक एक समझौते पर सहमति बना ली जाएगी ।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन, 2012:
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के लिए सदस्य राष्ट्रों (सी.ओ.पी. – 18) का 18वां सम्मेलन 8 दिसम्बर, 2012 को दोहा, कतर में सम्पन्न हुआ । इस सम्मेलन में क्योटो प्रोटोकॉल के सदस्य राष्ट्रों (सी.एम.पी. – 8) की 8वीं बैठक को भी शामिल किया गया ।
दोहा सम्मेलन द्वारा पारित किए गए मूलभूत निर्णयों में क्योटो प्रोटोकॉल की दूसरी प्रतिबद्धता अवधि, बाली कार्ययोजना (मन्दी, अनुकूलीकरण, वित्त, प्रौद्योगिकी तथा क्षमता निर्माण पर) के कार्यकरण पर निर्णयों के एक समुच्चय तथा डरबन प्लेटफार्म के अन्तर्गत कार्ययोजना को अन्तिम रूप प्रदान किया जाना शामिल था । दोहा सम्मेलन की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि दूसरी प्रतिबद्धता अवधि जोकि विकासशील देशों की एक प्रमुख मांग थी, को कार्यशील बनाने के लिए क्योटो प्रोटोकॉल में संशोधन करना था ।
बी.ए.एस.आई.सी. समूह के भाग के रूप में भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका के बीच एक घनिष्ठ समन्वय नई दिल्ली (फरवरी 2012), जोहान्सबर्ग (जुलाई 2012 ), ब्रासीलिया (सितम्बर, 2012) और बीजिंग (नवम्बर 2012) में हुई बैठकों के साथ दोहा सम्मेलन में भी लगातार बना रहा । भारत ने एकसमान विचार वाले विकासशील देशों के समूह के साथ भी घनिष्ठता के साथ कार्य किया जिसने दोहा सम्मेलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
जलवायु परिवर्तन लीमा (पेरू) में समझौता – दिसम्बर, 2014:
पेरू की राजधानी लीमा में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (दिसम्बर 2014) में धनी और गरीब देशों के बीच लम्बे समय से कायम गतिरोध आखिर टूट गया । अब नए समझौते पर सहमति बनी है, जिस पर वर्ष 2015 में पेरिस में होने वाले जलवायु सम्मेलन में हस्ताक्षर होंगे ।
भारत और अन्य विकासशील देशों की बात मानते हुए मसौदे में अतिरिक्त पैरा जोड़ा गया है कि जलवायु सम्बन्धी कदमों का आर्थिक बोझ उठाने की क्षमता के आधार पर देशों का वर्गीकरण किया जाए । इसमें विभिन्न देशों की राष्ट्रीय परिस्थितियों को भी ध्यान में रखने की बात कही गई है ।
लगभग दो सौ देशों की इस मन्त्री स्तर की वार्ता के पहले भारतीय प्रतिनिधिमण्डल ने जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत टॉड स्टर्न से मिलकर प्रत्येक देश के ऐसे मुद्दों को समझने पर जोर दिया था कि जिस पर वह समझौता नहीं कर सकता । हालांकि, यह सहमति मोटेतौर पर कायम हुई है और पेरिस में ही समझौते का स्पष्ट स्वरूप सामने आएगा ।
संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (पेरिस : 30 नवम्बर – 12 दिसम्बर, 2015):
संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP 21 या CMP 11) पेरिस में 30 दिसम्बर से 12 दिसम्बर, 2015 तक सम्पन्न हुआ । यह जलवायु परिवर्तन पर 1992 के संयुक्त राष्ट्र संरचना सम्मेलन (यू.एन.एफ.सी.सी.सी.) के लिए दलों की बैठक का 21वां वार्षिक सत्र था और 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल के लिए दलों की बैठक का 11 वां सत्र था ।
सम्मेलन के अन्तर्गत 21वीं कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (सी.ओ.पी. 21) में जलवायु परिवर्तन पर ऐतिहासिक समझौते को 196 देशों ने 12 दिसम्बर, 2015 को अपनी स्वीकृति दे दी । इस समझौते के अन्तर्गत धरती के बढ़ते तापमान को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने का लक्ष्य रखा गया है ।
इस दिशा में विकसित देश 2020 से 2025 तक विकासशील देशों को प्रतिवर्ष 100 अरब डॉलर की आर्थिक मदद देंगे । अगर यह कम-से-कम 55 देशों, जो वैश्विक ग्रीनहाउस उत्सर्जन के कम-से-कम 55 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करते हैं को स्वीकृत, अनुमोदित या स्वीकार कर लिया जाता है तो कानूनी रूप से बाध्यकारी हो जाएगा और 2020 तक कार्यान्वित किया जाएगा ।
पृथ्वी के बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन के मसले पर पेरिस में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में हुए समझौते को इस दिशा में अब तक का सबसे ऐतिहासिक समझौता माना गया है । इस समझौते के अनुसार, वैश्विक तापमान की सीमा दो डिग्री सेल्सियस से ‘काफी कम’ रखने का प्रस्ताव है ।
तापमान वृद्धि पर अंकुश की यह बात भारत और चीन जैसे विकासशील देशों की पसन्द के अनुरूप नहीं है, जो औद्योगीकरण के कारण कार्बन गैसों के बड़े उत्सर्जक हैं । लेकिन भारत ने शिखर बैठक के इन नतीजों को सन्तुलित और आगे का रास्ता दिखाने वाला बताया । भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने सबसे महत्वपूर्ण सतत जीवनशैली और जलवायु न्याय के उद्देश्य का हमेशा ही समर्थन किया है ।
दोनों को मूलपाठ की प्रस्तावना में उल्लेखित किया गया है । यह भारत के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है । इन दो अवधारणाओं को भारत की ओर से पिछले एक वर्ष के दौरान मजबूती से रखा गया । भारत चाहता था कि विभेदीकरण की अवधारणा को समझौते के सभी तत्वों में स्पष्ट रूप से समझाया जाए और वह यह रूख अपना रहा था कि उत्सर्जन में कमी के लक्ष्यों को स्वीकार करने में विकसित देशों की अधिक जिम्मेदारी होनी चाहिए, जबकि वे एकमात्र ऐसे होने चाहिए जो अनिवार्य रूप से वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराएं ।
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की-मून ने कहा था कि अगर देशों को अपना हित करना है, तो उन्हें वैश्विक हित के लिए आगे बढ़ना होगा । उन्होंने कहा- ”प्रकृति हमें संकेत भेज रही है । सभी देशों के लोग आज जितने भयभीत पहले कभी नहीं रहे । हमें अपने गृह को बचाने के साथ उसे सम्भालना भी होगा ।”
फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने इस समझौते को अभूतपूर्व बताया है और अन्य देशों से इसके मसौदे को अपनाने की अपील की । पर्यावरणीय समूहों ने कहा कि पेरिस समझौता इतिहास में एक निर्णायक मोड़ है ।
31 पृष्ठों वाले अन्तिम मसौदे में सतत जीवन शैली और जलवायु न्याय का उल्लेख किया गया है जिसका भारत द्वारा समर्थन किया जा रहा था । उन्होंने कहा, अन्तिम मूलपाठ को पहली नजर में देखकर हम खुश हैं कि इसमें भारत की चिन्ताओं का ध्यान रखा गया है । इसे सन्धि (यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेशन फॉर क्लाइमेट चेंज) से जोड़ा गया है, जबकि साझा लेकिन विभेदकारी जिम्मेदारियों को उसमें आत्मसात किया गया है ।
जलवायु समझौते की उपलब्धियां:
i. इस समझौते में ‘साझा लेकिन विविध जिम्मेदारी’ के सिद्धान्त को जगह दी गई है, जिसकी भारत लम्बे अर्से से मांग करता रहा है । जबकि अमेरिका और दूसरे विकसित देश इस प्रावधान को कमजोर करना चाहते हैं ।
ii. भारत इस समझौते में टिकाऊ जीवन शैली और उपभोग का जिक्र चाहता है, जिसे कि इस मसौदे में जगह दी गई है ।
iii. हालांकि इस समझौते में एक बड़ी चुनौती ग्लोबल वार्मिंग को औद्योगिक क्रान्ति से पहले के वैश्विक तापमान से अधिकतम दो प्रतिशत और यहां तक 115 प्रतिशत वृद्धि में सीमित करने को लेकर हो सकती है ।
iv. विकासशील देशों को स्वच्छ ईंधन और प्रौद्योगिकी अपनाने में मदद करने के लिए समृद्ध देशों द्वारा 2020 से वार्षिक 100 अरब डॉलर देने पर सहमति बनी है, लेकिन इसमें तकनीकों के हस्तान्तरण की कोई बात नहीं है ।
जलवायु समझौते का दुर्बल पक्ष:
a. विशेषज्ञों की राय है कि मूल संयुक्त राष्ट्र कन्वेशन में विकसित देशों में कड़े शब्दों में जिम्मेदारी डाली गई थी, लेकिन मौजूदा समझौते की भाषा कमजोर है । इसमें कई ऐसी बातें हैं, जिससे जलवायु वित्तपोषण के मुद्दों पर भ्रम हो सकता है, जैसे कि विकास के लिए दी जाने वाली सहायता या ऋण जलवायु वित्त के रूप में गिना जा सकता है ।
b. भारत के पर्यावरण मन्त्री प्रकाश जावड़ेकर भी कहते हैं कि यह समझौता और अधिक महत्वाकांक्षी हो सकता था, क्योंकि विकसित देशों की कार्यवाही उनकी ऐतिहासिक जिम्मेदारियों और निष्पक्ष शेयरों की तुलना में ‘काफी कम’ है ।
ADVERTISEMENTS:
c. कई विशेषज्ञों का कहना है कि अमेरिका और विकसित देशों के समूह के भारी दबाव के बाद विकसित देशों की जिम्मेदारियों में कटौती की गई है ।
d. पेरिस समझौते में कहा गया है कि सभी पक्ष, जिसमें विकासशील देश भी शामिल हैं – कार्वन उत्सर्जन कम करने के कदम उठाएं । इसका अर्थ हुआ कि विकासशील देशों को इसके लिए कदम उठाने होंगे, जो कि विकास के उनके सपने में एक रोड़ा साबित हो सकता है ।
e. अगर क्षति और घाटे की बात करें तो, इस समझौते में कहा गया है कि इन्हें दायित्व या क्षतिपूर्ति के सन्दर्भ में नहीं देखा जाएगा, तो परिणामस्वरूप इसके आधार पर विकसित देशों पर कोई वास्तविक दायित्व भी नहीं होगा ।
निष्कर्ष:
पर्यावरण सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विकास की आवश्यकता आज सबसे अधिक महसूस की जा रही है । स्टॉकहोम सम्मेलन ने पर्यावरण सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विकास की नींव डाली और रिओ पृथ्वी सम्मेलन के निर्णयों के आधार पर पर्यावरण और विकास के साथ सामान्य जीवन भी प्रभावित होने की सम्भावना है ।