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Read this essay in Hindi to learn about the two main approaches used for studying international relations.
Essay # 1. उदारवादी उपागम (Liberal Approach):
उदारवादी और नव-उदारवादी सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का यथार्थवादी सिद्धान्तों से भिन्न विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं । उदारवादियों के अनुसार मानव विवेक के अनुसार कार्य करता है, अत: उदारवादी यथार्थवाद के इस तर्क का खण्डन करते हैं कि युद्ध विश्व राजनीति की एक अनिवार्य स्थिति है ।
वे इस विचार से भी सहमत नहीं हैं कि विश्व के मंच पर राज्य ही प्रमुख अभिकर्ता होते हैं यद्यपि वे राज्य के महत्व से इंकार बिल्कुल नहीं करते तथापि वे राज्य के साथ-साथ बहुराष्ट्रीय निगमों, आतंकवादी समूहों तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों को भी विश्व राजनीति के कुछ क्षेत्रों में केन्द्रीय भूमिका निभाते हुए पाते हैं ।
राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों में उदारवादी सहयोग की सम्भावनाओं पर बल देते हैं । उनके अनुसार राज्यों के मध्य आपसी सहयोग का मार्ग खोजा जाना चाहिए । अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन के उदारवादी उपागम का उद्गम 17वीं शताब्दी की उदारवादी राजनीतिक विचारधारा में पाया जाता है ।
आधुनिक उदार राज्य के उदय से स्पष्ट रूप से सम्बद्ध उदारवादी परम्परा सामान्यतया मानव प्रकृति को सकारात्मक दृष्टिकोण से देखती है । यहां यह उल्लेखनीय है कि, 20वीं शताब्दी के मध्य तक अधिकांश उदारवादी विद्वान अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के विद्वान नहीं थे ।
वे राजनीतिक दार्शनिक राजनीतिक अर्थशास्त्री तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध में रुचि रखने वाले सामान्य व्यक्ति थे । अंग्रेज विद्वान जॉन लॉक को 17वीं शताब्दी का प्रथम उदारवादी चिंतक माना जाता है, जिनका विश्वास था कि आधुनिक नागरिक समाज तथा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में ही मानव की प्रगति सम्भव थी ।
उदारवादी उपागम की महत्वपूर्ण पूर्व मान्यताएं:
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य में उदारवादी उपागम की कतिपय महत्वपूर्ण पूर्व मान्यताएं निम्नलिखित हैं:
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1. व्यक्ति प्राथमिक अन्तर्राष्ट्रीय अभिकर्ता होते हैं- व्यक्ति के हित तथा समाज की प्रगति एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं ।
2. राज्यों के हित गतिशील होते हुए अपने और दूसरों के हितों को ध्यान में रखते हैं-राज्यों के हितों में समय के साथ परिवर्तन होते रहते हैं क्योंकि व्यक्तियों के मूल्य बदलते रहते हैं ।
3. उदारवादी राज्य अन्य देशों के हितों और नीतियों को भी ध्यान में रखते हैं क्योंकि उनका विश्वास है कि उदार लोकतन्त्र का विकास अन्य व्यक्तियों के हितों की चिन्ता अपनी चिन्ता के रूप में देखने पर बल देता है ।
4. व्यक्तियों और राज्यों दोनों के हित अनेक आन्तरिक तथा अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों से प्रभावित होते हैं…अन्तत: हितों का निर्धारण राज्यों और व्यक्तियों की सौदा करने की सामर्थ से होता है ।
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5. पारस्परिक हित अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में सहयोग को स्थायित्व प्रदान करते हैं…बल प्रयोग के साधनों का आशय लिए बिना राज्यों के मध्य सहयोग सम्भव है ।
6. उदारवादी उपागम व्यक्तिवाद, तार्किकता, स्वतन्त्रता, न्याय और सहिष्णुता के मूल्यों पर जोर देता है ।
7. उदारवादी समाज के प्रमुख लक्षण हैं: अनेकता तथा बहुलतावाद और सहमति एवं संविधानवाद की मान्यताओं के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं का गठन ।
8. उदारवाद पूंजीवादी वर्ग का आर्थिक दर्शन है जो मुक्त व्यापार तथा समझौतों पर आधारित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का समर्थन करता है, जिसमें राज्य की दखलंदाजी तथा विपन्नता बिल्कुल न हो ।
9. स्वतन्त्र समझौते, व्यापार, प्रतियोगिता, बाजार अर्थव्यवस्था तथा बाजारू समाज का समर्थन करते हुए उदारवाद ने आर्थिक स्वतन्त्रता के लिए राज्य की आर्थिक मामलों में दखलंदाजी का विरोध किया ।
10. उदार लोकतन्त्र, पारस्परिक निर्भरता अन्तर्राष्ट्रीय सामाजिक सम्बन्धों और अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के विकास के चलते उदारवादियों को विश्वास हो गया है कि बल प्रयोग के साधनों का आश्रय लिए बिना राज्यों के मध्य सहयोग सम्भव है ।
Essay # 2. नव-उदारवादी उपागम (Neo-Liberal Approach):
नव-उदारवादी मानव प्रगति तथा सहयोग के प्रति उदारवादियों की तुलना में कम आशावादी हैं । नव-उदारवादियों में युद्धोत्तर विश्व के उदारवादी विद्वान शामिल हैं । नई पीढ़ी के उदारवादियों में आशावादिता कम होने के अनेक कारण थे ।
जैसा कि जैचर एवं मैथ्यू का कहना है- नव-उदारवादी यह नहीं चाहते कि उन्हें युद्धों के मध्यान्तर के अनेक उदारवादियों की भांति आर्दशवादी कहा जाए । 20वीं शताब्दी की अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं (दो विश्व युद्ध तथा शीत युद्ध) ने उनकी आशावादिता को संकोच में डाल दिया…शैक्षणिक दृष्टि से नव-उदारवाद का अर्थ नव-उदारवादी संस्थात्माकता से लिया जाता है ।
नीतिगत दृष्टि से विदेशनीति के परिप्रेक्ष्य में नव-उदारवादी उपागम मुक्त व्यापार तथा मुक्त बाजार को प्रोत्साहन देते हैं तथा वे पाश्चात्य लोकतान्त्रिक मूल्यों और उनकी संस्थाओं का प्रचार करते हैं । इस विचारधारा से प्रेरणा लेकर अधिकांश पश्चिमी उदार लोकतान्त्रिक देशों ने संयुक्त राज्य अमेरिका का लोकतान्त्रिक समुदाय तथा पूंजीवादी राष्ट्र राज्यों के ‘विस्तार’ के कार्य में समर्थन किया ।
नव-उदारवाद का मुख्य प्ररणास्रोत यह विश्वास है कि, द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् स्थापित वित्तीय तथा कार्यात्मकवाद संस्थाएं समय की कसौटी पर खरी उतरी हैं । नव-उदारवादी सिद्धान्त उदारवादी उपागम को आद्योपान्त (Uptodate), करते हुए यह मानता है कि, राज्य अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में प्रमुख कर्ता हैं तथापि गैर-राज्य कर्ता (NSAs) और अन्तर्सरकारी संगठनों (IGOs) को भी महत्वपूर्ण मानता है ।
शीतयुद्ध काल में राज्यों के मध्य अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा बढ़ते सहयोग एवं अन्तर्निर्भरता को देखते हुए नव-उदारवाद को ‘नव उदार संस्थावाद’ (Liberal institutionalism) कहा जाने लगा । जहां उदारवाद को ‘वैश्वीकरण के प्रथम युग’ की विचारधारा कहा जाता है वहीं नव-उदारवाद को ‘वैश्वीकरण का द्वितीय युग’ (Second era of globalization) कहा जाता है जिसके बीज द्वितीय महायुद्ध के बाद ही प्रस्फुटित हो गए थे । ब्रेटन बुड व्यवस्था के माध्यम से स्थापित अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक स्थिरता में नव-उदारवाद की जड़ें निहित हैं ।
नव-उदारवाद की सर्वोत्तम परिभाषा है- अहस्तक्षेपवाद, पूंजीवादी बाजार आधारित अर्थव्यवस्था, निजीकरण और व्यापारिक समझौते” (Laissez-faire, capital market driven, privatization and trade arrangements) । यह एक प्रकार से अनुदारवादी व्यावसायिक नीति को प्रश्रय देने वाली विचारधारा है जिसका उद्देश्य विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों पर बजट अनुशासन लागू करते हुए सन्तुलित बजट एवं व्यापार बहाव को तेज करना है ।
यह एक प्रकार से मुन्डेल-फ्लेमिंग प्रतिमान (Mundell-Fleming Model) के विश्लेषण तथा वाशिंगटन सर्वानुमति (Washington consensus) पर आधारित है । यह विचारधारा एक प्रकार से ‘नव-उदारवादी आर्थिक सम्बन्धों’ से सम्बन्धित है । नव-उदारवाद का अर्थ ‘नवउदारवादी संस्थात्मकता’ से लिया जाता है ।
आजकल इसे संस्थानात्मक सिद्धान्त भी कहते हें । विदेश नीति के सन्दर्भ में नव-उदारवादी उपागम मुक्त व्यापार अथवा मुक्त बाजार को प्रोत्साहन देते है तथा वे पाश्चात्य लोकतान्त्रिक मूल्यों और उनकी संस्थाओं का प्रचार करते हैं ।
नव-उदारवाद का प्रमुख प्रेरणास्रोत यह विश्वास है कि, द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् स्थापित वित्तीय तथा कार्यात्मकवाद संस्थाएं समय की कसौटी पर खरी उतरी हैं । नव-उदार संस्थावादियों का यह विश्वास है कि आधुनिक प्रतिस्पर्धा परिवेश में राज्य सहयोग के द्वारा पूर्ण लाभ में अधिक-से-अधिक वृद्धि करना चाहते हैं क्योंकि उनका विवेकशील आचरण सहयोग आधारित व्यवहार के मूल्यों से उन्हें अवगत करवाता है ।
नव-उदारवादी प्रमुख रूप से विश्लेषण की इकाई ‘राज्यों’ को मानते हैं और राज्यों का सरोकार आपसी लाभ से है, अत: वे उन संस्थाओं में रुचि दर्शाते हैं जिनसे सामूहिक लाभ अर्जित हो । राज्य सहयोग या असहयोग क्यों करते हैं, इसके स्पष्टीकरण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का नव-उदारवादी सिद्धान्त खेल सिद्धान्त का प्रयोग करता है । नव-उदारवाद को मोटे रूप से चार विविध उप-विचारधाराओं में विभाजित किया जाता है, वे हैं संस्थागत उदारवाद, समाजशास्त्रीय उदारवाद, गणतन्त्रात्मक उदारवाद तथा पारस्परिक निर्भरता उदारवाद ।
नव-उदारवादियों में उल्लेखनीय नाम हैं: स्टीफेन गुस्ताव सेन (Steffen Gustav Sen), रोनाल्ड रीगन (Ronald Reagan), मार्ग्रेट थैचर (Margaret Thatcher) तथा आलन ग्रीनस्पान (Alan Greenspan) । प्रसिद्ध पत्रकार थॉमस एल. फ्रीडमैन का नाम भी नव-उदारवादियों में प्रमुखता से लिया जाता है जिनके न्यूयार्क टाइम्स में प्रकाशित लेखों में उदार वैश्विक व्यापार की वकालत करते हुए जहां एक ओर कृषि अनुदान की आलोचना पायी जाती है वहीं दूसरी ओर वैश्वीकरण से प्रभावित श्रमिकों के संरक्षण के लिए सुदृढ़ सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है ।
उनके ये विचार उनकी कृतियों ‘The Lexus and the Olive Tree’ तथा ‘The World is Flat’ में भी प्रस्फुटित हुए हैं । वैश्वीकरण नीतियों के विरोधी नव-उदारवाद के प्रखर आलोचक हैं, क्योंकि स्वतन्त्र पूंजी बहाव (Free capital flows) की नीति के क्रियान्वयन से स्वतन्त्र श्रम बहाव (Free labour flows) नहीं होता । उनके अनुसार नव-उदारवाद पुरातन उदारवाद (Classical liberalism) का ही संशोधित रूप है ।
प्रमुख नव-उदारवादी उपागम:
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन की दृष्टि से प्रमुख नव-उदारवादी उपागम निम्नांकित हैं:
1. विश्व राज्य सिद्धान्त या दृष्टिकोण,
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2. बहुलवादी सिद्धान्त या दृष्टिकोण,
3. भूमण्डलीय अवधारणा,
4. निवारकता सिद्धान्त,
5. निर्भरता और अन्तर-निर्भरता सिद्धान्त,
6. कार्यात्मकतावाद का सिद्धान्त ।