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Here is an essay ‘Africa after the Second World War’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ’Africa after the Second World War’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on Africa
Essay Contents:
- अफ्रीका में विउपनिवेशीकरण एवं नए राज्यों का उदय (Decolonization and Emergence of New States in Africa)
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर अफ्रीका के नव-जागरण का प्रभाव (Impact of African Resurgence on International Politics)
- महाशक्तियां और अफ्रीका (Super Powers and Africa)
- स्वतन्त्र अफ्रीकी राज्यों की समस्याएं (Problems of Independent African States)
Essay # 1. अफ्रीका में विउपनिवेशीकरण एवं नए राज्यों का उदय (Decolonization and Emergence of New States in Africa):
अफ्रीका एक देश अथवा प्रदेश नहीं अपितु एक महाद्वीप है जिसमें अनेक देश हैं । अफ्रीका महाद्वीप अन्य महाद्वीपों की तुलना में अनेक राजनीतिक भौगोलिक विशेषताएं रखता है । इस महाद्वीप का क्षेत्र अन्य महाद्वीपों की तुलना में क्रमश: बाद में प्रकाश में आया ।
यही कारण है कि इस महाद्वीप को ‘अन्ध महाद्वीप’ (Dark Continent) की संज्ञा दी जाती रही है । यहां का विशाल क्षेत्र, जलवायु, वन, मरुस्थल आदि सदियों तक इसके क्षेत्र को शेष विश्व से पृथक् रखते रहे । इसके पश्चात् अनेक खोजकर्ताओं ने इस महाद्वीप के विभिन्न भागों की जानकारी दी । जैसे ही अफ्रीका के विभिन्न क्षेत्र प्रकाश में आए यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों ने उन पर अधिकार जमाना प्रारम्भ किया तथा अधिकांश महाद्वीप विदेशी शक्तियों के मध्य विभक्त हो गया ।
औपनिवेशिक नियन्त्रण में अफ्रीका में राजनीतिक एवं सांस्कृतिक गतिरोध प्रारम्भ हुआ । इसके पश्चात् अफ्रीका में राष्ट्रवाद की लहर आयी और एक के बाद एक अफ्रीकी देश स्वतन्त्र होने लगे । वर्तमान समय में यद्यपि विदेशी उपनिवेशों के अवशेष यहां शेष हैं किन्तु अधिकांश अफ्रीका स्वतन्त्र है ।
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अफ्रीका का उदय : महत्व:
अफ्रीका महाद्वीप में स्वतन्त्रता के सूर्य का उदय द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की सम्भवत: सबसे अधिक महत्वपूर्ण और निराली घटना है । टामम्बोया के शब्दों में- ”विदेशी आधिपत्य द्वारा आरोपित अंधेरे और औपनिवेशिक शासन की जेल की कोठरियों से अफ्रीका और अफ्रीकी लोगों का अभ्युदय समकालीन विश्व स्थिति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य है ।”
सम्पूर्ण महाद्वीप में अफ्रीकी चल पड़े हैं वे यह नहीं जानते कि आखिर उनकी दिशा क्या है ? अमरीका में तो एक कहावत बन गयी है कि ‘कल अमरीका की अभिरुचि एशिया में थी लेकिन आज अफ्रीका में है ।’ अस्थिरता, अशान्ति और अनिश्चितता के बावजूद अफ्रीका में क्रान्ति की भावना प्रबल है और सम्पूर्ण महाद्वीप में आशा की एक लहर दौड़ पड़ी है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार से अतीत काल में सर्वत्र निराशा का वातावरण व्याप्त रहता था ।
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अफ्रीका का परिवर्तित राजनीतिक स्वरूप:
अफ्रीका महाद्वीप ‘अन्ध महाद्वीप’ के रूप में सम्बोधित किया जाता रहा है । इसका मूल कारण यह रहा है कि अफ्रीका तथा उसके इतिहास के सम्बन्ध में बहुत कम जानकारी प्राप्त है । यद्यपि उत्तरी अफ्रीका के भूमध्यसागरीय तटीय क्षेत्र के सम्बन्ध में प्राचीन काल से जानकारी यूरोपीय लोगों को थी ।
प्राचीन काल में ईसा से लगभग 600 वर्ष पूर्व फोनेशियन्स के एक दल ने मिल के अन्तिम ‘फराहो’ के आदेश से अफ्रीका के तटीय क्षेत्र की यात्रा की । इसके एक शताब्दी पश्चात् कार्थेनियन गायना तट पर स्थित कैमरून तक पहुंचे । ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में एण्डोसियस (Endosius) नामक ग्रीक ने पूरब से पश्चिम तट की यात्रा की ।
यहां शोध करने वालों में पुर्तगीज राजकुमार नाविक हेनरी (Henry) सबसे प्रमुख हैं । जैसे ही अफ्रीका के विभिन्न क्षेत्रों का ज्ञान हुआ यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियां इस पर टूट पड़ी तथा इस महाद्वीप के अधिकांश क्षेत्रों को अपने-अपने अधिकार में कर लिया ।
स्वतन्त्रता से पूर्व सामान्य रूप से अफ्रीका महाद्वीप फ्रांसीसी, ब्रिटेन, बेल्जियम, पुर्तगीज एवं स्पेनिश शक्तियों के मध्य विभाजित था । यहां के राजनीतिक स्वरूप को अध्ययन की सुविधा के लिए दो भागों में विभाजित किया जा सकता है अर्थात् साम्राज्यवादी शासन का युग एवं जागृति या स्वतन्त्रता प्राप्ति का युग ।
अफ्रीका में साम्राज्यवादी शासन का युग:
अफ्रीका के वर्तमान राजनीतिक स्वरूप को समझने के लिए इसकी पृष्ठभूमि अर्थात् साम्राज्यवादी शासन का संक्षिप्त निरूपण अपेक्षित है क्योंकि यही शासन यहां की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के लिए उत्तरदायी है । साम्राज्यवादी शासन एवं उनके अधिकृत क्षेत्रों का वर्णन प्रत्येक साम्राज्यवादी शक्ति के आधार पर किया जा रहा है न कि कालानुसार ।
डच लोगों ने अफ्रीका में क्षेत्रीय अधिकार का प्रारम्भ उस समय किया जबकि उन्हें पूर्वी द्वीपसमूह के मार्ग में जहाजों आदि के ठहरने के स्टेशन की आवश्यकता थी । उन्होंने 1752 में केप ऑफ गुड होप पर अधिकार किया । डच लोगों ने पुर्तगीज को अफ्रीका से लगभग समाप्त-सा कर दिया ।
यद्यपि उनके स्वयं का विशाल क्षेत्र भी शीघ्र ही समाप्त हो गया । 1814 में केप कोलोनी तथा अन्य क्षेत्र नैपोलियन की हार के पश्चात् ब्रिटेन को शान्ति समझौते के अन्तर्गत बेच दिए गए । इससे ब्रिटिश अधिकृत क्षेत्र में अधिक संख्या में डच रह गए । इन लोगों ने 1803 में केप कोलोनी छोड्कर औरेन्ज फ्री स्टेट और नेटाल की स्थापना की । नेटाल पर ब्रिटेन ने 1845 में अधिकार कर लिया ।
1867 और 1884 में डच निर्वासित क्षेत्रों में सोना एवं हीरा उपलब्ध होने के कारण ब्रिटिश लोग वहां अधिकता से आने लगे । फलस्वरूप ‘बोर युद्ध’ (Boer War) हुआ । इसमें ब्रिटेन की विजय हुई इसके पश्चात् डच और ब्रिटिश निवासियों ने दक्षिण अफ्रीका संघ की स्थापना की । वर्तमान अफ्रीका में डच का कोई उपनिवेश शेष नहीं है ।
ब्रिटेन की इस महाद्वीप में प्रमुख रुचि भारत को जाने वाले व्यापारिक मार्ग की सुरक्षा के दृष्टिकोण से थी । इसी उद्देश्य से अनेक द्वीपों और बन्दरगाहों पर इन्होंने अधिकार किया । जब 1869 में स्वेज मार्ग खुला तब ब्रिटेन ने भूमध्य सागर एवं लाल सागर के सामुद्रिक मार्ग के महत्वपूर्ण केन्द्रों पर अधिकार किया ।
यद्यपि गैर-सरकारी संगठन, जैसे मिशनरी, वैज्ञानिक, संगठन, शोधकर्ता, आदि अफ्रीका के सपूर्ण क्षेत्र में रुचि रखते थे । ब्रिटेन ने व्यापारिक मार्गों की सुरक्षा के लिए अदन, जन्जीबार सल्लनत एवं मिस्र पर नियन्त्रण क्षेत्र का विस्तार किया । मिस्र के माध्यम से उन्होंने सूडान तथा युगाण्डा पर नियन्त्रण स्थापित किया ।
इसी क्रम में ब्रिटिश अधिकार दक्षिण तक पहुंच गया । केवल रोडेशिया और विक्टोरिया के मध्य का क्षेत्र इनके अधिकार में नहीं था । यह भी प्रथम महायुद्ध की समाप्ति पर जैसे टांगानिका ब्रिटिश ‘मैण्डेट’ बनने से इनके अधिकार में आ गया । ब्रिटेन का अफ्रीकी क्षेत्रों पर अधिकार की दृष्टि से फ्रांस के पश्चात् द्वितीय स्थान है ।
फ्रांस प्रारम्भ से ही पूरब के देशों के साथ व्यापार में इच्छुक था । अत: मार्ग में स्टेशन स्थापित करना उसका प्रथम उद्देश्य रहा । 1464 और 1700 के मध्य उन्होंने मेडागास्कर, सेनेगल नदी के मुहाने तथा आइवरी तट पर नियन्त्रण स्थापित किया । इसमें किसी तरह का राजनीतिक नियन्त्रण नहीं था अपितु इन क्षेत्रों में व्यापारिक केन्द्र एवं किले की स्थापना की ।
किन्तु जैसे ही फ्रांस 1870-71 में जर्मनी द्वारा पराजित हुआ अफ्रीका में साम्राज्य विस्तार प्रारम्भ कर दिया । फ्रांस ने फ्रेंच पश्चिमी अफ्रीका, फ्रेंच भूमध्यरेखिक अफ्रीका, अल्जीरिया तथा टच्युनीशिया के विशाल क्षेत्रों पर अधिकार किया । मेडागास्कर पर भी पूर्णतया अधिकार कर लिया । इस प्रकार फ्रांस ने अफ्रीका में सर्वाधिक क्षेत्र पर नियन्त्रण स्थापित किया ।
यद्यपि ये क्षेत्र ब्रिटिश या बेल्जीयम के अधिकृत क्षेत्रों के समान सम्पन्न नहीं थे क्योंकि अधिकांश क्षेत्र सहारा मरुस्थल वाले थे । स्पेन ने जिब्राल्टर जलडमरूमध्य को पार कर अफ्रीका के उत्तरी-पश्चिमी तटीय क्षेत्र पर अधिकार किया । ये स्पेनिश मोरक्को कहलाते थे । इनके अन्तर्गत मेलीला (Melilla), चेउटा (Chuta) और अलहुकेमस द्वीप (Alhucemas Island) सम्मिलित थे ।
इससे अधिक स्पेन आगे नहीं गया क्योंकि दक्षिण अमरीका के क्षेत्रों में अधिक लाभ प्राप्त होने के कारण उसने अधिकाधिक नयी दुनिया की ओर ध्यान केन्द्रित रखा । उन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में एक अन्य क्षेत्र रियो डी ओरो (Rio de Oro) पर फ्रांस के विस्तार को नियमित करने के लिए अधिकार किया ।
जर्मनी ने 1861 में सर्वप्रथम गोल्डकोस्ट के तट पर जर्मनी राज्य ब्रांडेनबर्ग (Brandenburg) की व्यापारिक केन्द्र के रूप में स्थापना की । इसके 20 वर्ष पश्चात् जर्मनी ने टोगोलैण्ड, कैमरून, दक्षिण-पश्चिमी अफ्रीका और टांगानिका पर अधिकार कर लिया । इन पर जर्मनी का अधिकार प्रथम महायुद्ध के अन्त तक रहा । उसके बाद इन क्षेत्रों का ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम ने बंटवारा कर लिया ।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों ने अफ्रीका को लगभग पूर्ण रूप से अपने अधिकार में कर लिया । सम्पूर्ण रूप से यह कहा जा सकता है कि अफ्रीका का उपनिवेशीकरण यूरोपीय राज्यों की एक योजना थी कि महाद्वीप पर अधिकार किया जाए तथा लूट का हिस्सा किया जाए ।
अफ्रीका में नव-जागरण-स्वाधीनता की लहर:
1936 में इटली ने अफ्रीका के अन्तिम स्वाधीन राज्य अबीसीनिया की स्वतन्त्रता का अन्त कर दिया । अबीसीनिया की विजय के बाद अफ्रीका में स्वतन्त्रता और राष्ट्रीयता का आन्दोलन प्रबल हुआ । यह नारा दिया गया कि ‘अफ्रीका अफ्रीकावासियों का हो ।’ द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद इसके विविध प्रदेश तेजी से स्वतन्त्र होने लगे ।
द्वितीय विश्व-युद्ध की समाप्ति पर 1947 में इस महाद्वीप में केवल चार राज्य स्वतन्त्र थें: अबीसीनिया, लाइबीरिया, दक्षिण अफ्रीका का यूनियन तथा मिस्र । मिस्र में 1936 की सन्धि के अनुसार ब्रिटिश सेनाएं रहती थीं । 1945 के बाद यहां सर्वप्रथम इटालियन उपनिवेश लीबिया (24 दिसम्बर 1951) स्वतन्त्र हुआ ।
1 जनवरी, 1954 को सूडान स्वाधीन गणराज्य बन गया । फ्रांस ने अपने उपनिवेश ट्चुनीशिया की स्वतन्त्रता 20 मार्च, 1956 की सन्धि से स्वीकार की । 2 मार्च, 1956 को फ्रांस ने मोरक्को को स्वतन्त्र कर दिया । 7 अप्रैल, 1956 को स्पेन ने भी मोरक्को के कुछ भाग पर अपने संरक्षण का परित्याग किया ।
6 मार्च, 1957 को ब्रिटेन ने गोल्डकोस्ट को स्वाधीनता प्रदान की जिसने अपना नया नाम घाना रखा । अक्टूबर 1958 में फ्रेंच गिनी ने अपनी स्वतन्त्रता की तीन लहरें आयीं । स्वतन्त्रता की पहली लहर ने अल्जीरिया के अपवाद को छोड्कर अरबों द्वारा आवासित उत्तरी अफ्रीका से उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का सफाया किया ।
इसमें 1951 में स्वतन्त्र होने वाला लीबिया तथा 1956 में स्वाधीनता पाने वाले सूडान, मोरक्को तथा ट्च्युनीशिया थे । इसके बाद स्वाधीनता की दूसरी लहर ने काले अफ्रीका अर्थात् नीग्रो लोगों द्वारा आवासित अफ्रीका पर प्रभाव डाला । 1957 में ब्रिटेन ने घाना को स्वतन्त्रता प्रदान की तथा 1958 में गिनी स्वाधीन हुआ ।
1959 तक अफ्रीका में 11 राज्य स्वाधीन हो गए, इनमें अफ्रीका की 40% जनता तथा 20% क्षेत्र था । 1960 में अफ्रीका में स्वतन्त्रता की तीसरी लहर आयी और इस महाद्वीप के अधिकांश देश स्वाधीन हो गए । इसी कारण 1960 को अफ्रीका की स्वाधीनता का वर्ष कहा जाता है ।
इस वर्ष 8.5 करोड़ की जनसंख्या रखने वाले 16 देश स्वतन्त्र हुए । इस वर्ष के पहले ही दिन 1 जनवरी, 1960 को फ्रेंच कैमरून स्वतन्त्र हुआ और इसने कैमरून गणराज्य का नया नाम धारण किया । 27 अप्रैल 1960 को फ्रेंच टोगोलैण्ड टोगो गणराज्य के नाम से स्वतन्त्र हुआ । 29 जून 1960 को सेनेगल तथा फ्रेंच सूडान ने स्वतन्त्रता की घोषणा की और मिलकर ‘माली संघ’ बनाया । 26 जून, 1960 को फ्रांस की अधीनता में रहने वाले मेडागास्कर टापू ने स्वतन्त्र होकर ‘मालागासे’ नामक गणराज्य का रूप धारण किया ।
अगस्त 1960 में ही 8 स्वाधीन गणराज्य स्थापित हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं: आइवरी कोस्ट, अपर-वोल्टा, दहोमी, नाइजर, गेबोन, कांगो (फ्रेंच), केन्द्रीय अफ्रीका गणराज्य (Central African Republic) या उबन्गुई चारी (Ubangui Chary) तथा चाड । 1960 का वर्ष इस दृष्टि से स्मरणीय है कि इसमें अल्जीरिया के अपवाद को छोड्कर शेष 13 फ्रेंच उपनिवेश स्वतन्त्र हो गए ।
इसी वर्ष बेरियम के प्रभुत्व से कांगो 30 जून, 1960 को स्वतन्त्र हो गया । 1 जुलाई, 1960 को सोमाली गणराज्य का जन्म हुआ । नाइजीरिया का ब्रिटिश उपनिवेश 1 अक्टूबर, 1960 को स्वतन्त्र हो गया । यह अफ्रीका का समृद्धतम उपनिवेश था जिसका क्षेत्रफल 3,39,168 वर्ग मील और जनसंख्या 3,36,64,000 थी, जो अफ्रीका के देशों में सबसे अधिक है ।
26 नवम्बर, 1960 को मारीटानिया का प्रदेश भी स्वतन्त्र हो गया । 27 अप्रैल, 1961 को ब्रिटिश उपनिवेश सियरा लियोन स्वतन्त्र हुआ । 1962 में युगाण्डा, 1964 में जाम्बिया (उ. रोडेशिया), 1964 में मालावी, 1966 में बोत्सवाना, लेसोथो और बारबाडोस; 1958 में मॉरीशस, 1974 में गिनीबिसाउ, 1975 में मोजाम्बिक, केपवरदे, कोमोरी द्वीपसमूह और अंगोला स्वतन्त्र हुए ।
जिबूती (जिसे फ्रांसीसी सोमालीलैण्ड तथा ‘अफार’ और ‘इसा’ भी कहते हैं) 27 जून, 1977 को गणतन्त्र के रूप में अस्तित्व में आया । अथक संघर्ष के पश्चात् 18 अप्रैल, 1980 को द. रोडेशिया ‘जिम्बाब्वे’ के नाम से स्वतन्त्र हुआ । अफ्रीका में स्वतन्त्रता प्राप्त करने वाला यह 50वां देश था । 21 मार्च, 1990 को नामीबिया स्वतन्त्र हो गया ।
अप्रैल 1994 के निर्वाचनों के बाद दक्षिणी अफ्रीका से श्वेत शासन समाप्त हो गया है । अफ्रीका महाद्वीप में लगभग 54 मान्यता प्राप्त देश हैं । इनमें से 6 राष्ट्र अफ्रीका महाद्वीप में स्थित होते हुए भी एशिया के सीमावर्ती होने के कारण राजनीतिक व सांस्कृतिक कारणों से अरब देशों से जुड़े हैं । अत: मोरक्को, अल्जीरिया, ट्च्युनीशिया, लीबिया व मिस्र अपने को अरब कहलाना अधिक पसन्द करते हैं ।
शेष लगभग 40 देशों में काले अफ्रीकी निवास करते हैं । इनमें लाइबेरिया व इथियोपिया को छोड्कर सभी किसी-न-किसी साम्राज्य के उपनिवेश थे । ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत 15, फ्रांस के 14, पुर्तगाल के 3, बेल्जियम के 4 व तीन अन्य उपनिवेश थे ।
आजादी के बाद इन देशों में जो राजनीतिक चित्र उभरा है, तदनुसार केवल 7 देशों में विपक्षी दलों का अस्तित्व है, अर्थात् वहां लोकतन्त्र के प्रयोग चल रहे हैं । इन 7 देशों में दक्षिणी अफ्रीका भी शामिल है जहां की जनसंख्या के 70 प्रतिशत हिस्से को यानी काले लोगों को हाल तक मताधिकार प्राप्त नहीं वहां केवल 30 प्रतिशत गोरे लोगों का हाल तक सत्ता पर कब्जा रहा है ।
17 राज्यों में एकदलीय शासन-व्यवस्था है तथा 17 फौजी शासन के अन्तर्गत हैं । पिछले 25 वर्षों में 70 राजनेता किंवा शासनाध्यक्षों की हत्या कर उन्हें सत्ताच्युत किया गया । 1960 से 1985 के प्रारम्भ तक 90 सैनिक क्रान्तियों को झेलने वाले इस महाद्वीप में पिछले वर्षों में छ: सैनिक विद्रोह हुए-तीन सफल और तीन असफल ।
अफ्रीका का विश्व राजनीति में उद्भव:
एक समय था जबकि अफ्रीका शेष विश्व से पृथक् था तथा विश्व राजनीति में इसका कोई अस्तित्व ही नहीं था किन्तु आज अफ्रीका की स्थिति पर्याप्त भिन्न है अर्थात् वर्तमान विश्व राजनीति में यह पूर्ण सक्रिय है । आज अफ्रीका में जो कुछ होता है उसका सम्बन्ध केवल यहां के निवासियों तक ही सीमित नहीं अपितु एशिया यूरोप एवं अमरीका के देश भी उसमें पर्याप्त रुचि रखते हैं ।
वास्तव में, आज जैसे ही अफ्रीका का दीर्घकालीन पृथकत्व समाप्त हुआ, वह न केवल सरकारों अपितु लोगों को और न केवल यूरोप अपितु सभी महाद्वीपों को आकर्षित करने लगा ।
अफ्रीका के विश्व राजनीति में महत्ता प्राप्त करने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:
a. सामरिकता:
इसके अन्तर्गत अफ्रीका के क्षेत्रों पर सैनिक अड्डों की स्थापना की महत्ता यहां उपलब्ध सामरिक खनिज सैनिक मानव शक्ति तथा औद्योगिक एवं सैनिक उपलब्धि की सम्भावना आदि तत्व सम्मिलित किए जाते हैं ।
b. राष्ट्रवाद का तीव्र उद्गम:
जिस तीव्र गति से यहां राष्ट्रवादी भावनाओं का विकास हुआ तथा उसका अनेक प्रकार से राजनीतिक क्षेत्रों पर प्रभाव हुआ तथा अनेक देश स्वतन्त्र होने से विश्व शक्तियों को यहां प्रभाव-क्षेत्र विस्तार का अवसर प्राप्त हुआ जिससे यहां के क्षेत्रों में उनकी रुचि जाग्रत हुई ।
c. आर्थिक शोषण के विरुद्ध विद्रोह:
उपनिवेशवाद की समाप्ति के उपरान्त भी यहां उद्योगपति या पूंजीपति एवं कृषक मजदूरों एवं गरीबों में शोषण के विरुद्ध तीव्र भावना है ।
d. उपनिवेशवाद के प्रश्न पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्बद्धता:
उपनिवेशवाद के फलस्वरूप यहां अनेक राजनीतिक जटिलताएं एवं सम्बन्धित प्रश्नों का जन्म हुआ है जिनमें विश्व के राष्ट्र पूर्णतया रुचि रखते हैं ।
e. साम्यवाद के विस्तार का भय:
अफ्रीका में वर्तमान समय में बहुत ही कम साम्यवाद का प्रसार हुआ है । इसका मुख्य केन्द्र अल्जीरिया है । यद्यपि यहां इसके विस्तार के लिए अनुकूल वातावरण पर्याप्त है । अत: गैर-साम्यवादी देश इसलिए रुचि रखते हैं कि साम्यवाद का प्रसार न हो तथा साम्यवादी इसीलिए कि उनका प्रसार हो ।
f. अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों की समस्या:
अफ्रीका के देश आज अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के सदस्य हैं । संयुक्त राष्ट्र संघ एवं राष्ट्रमण्डल के अनेक देश सदस्य हैं । इसके कारण यहां की समस्याएं एवं सम्बन्धित विवाद क्षेत्रीय होते हुए भी समाधान हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ आदि में प्रस्तुत किए जाते हैं । अत : विश्व के राष्ट्र यहा की क्षेत्रीय समस्याओं तथा विवाद से सम्बन्धित हो जाते हैं ।
उपर्युक्त कारणों से आज अफ्रीका विश्व राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है । आज यूरोपीय देशों के अतिरिक्त विश्व की प्रमुख शक्तियां यहां अत्यधिक रुचि रखती हैं । संयुक्त राज्य की इस महाद्वीप में प्रमुख रुचि के कारण-सामरिक महत्ता, अनेक खनिजों की उपलब्धि पूंजी लगाने का क्षेत्र औद्योगिक वस्तुओं के लिए उपयुक्त बाजार तथा साम्यवादी प्रसार पर रोक आदि हैं ।
इसी प्रकार सोवियत संघ साम्यवादी प्रसार के साथ यहां की कृषि की उपजों को भी प्राप्त करना चाहता था । एशिया के देश भी अफ्रीका की राजनीति में सक्रिय हिस्सा रखते हैं । अफ्रीका के अनेक देशों में एशियाई निवास करते हैं तथा वहां के व्यापार उद्योग एवं अन्य कार्यों में पर्याप्त भाग लेते हैं । स्पष्ट है कि वर्तमान अफ्रीका अन्तर्राष्ट्रीय जगत में एक विशिष्ट स्थान रखता है ।
अफ्रीका के नव-जागरण के कारण:
अफ्रीका का उदय बीसवीं शताब्दी की महत्वपूर्ण घटना है । थार्न जूनियर के शब्दों में- “अफ्रीका के उद्गम ने विश्व राजनीति के समीकरण को बदल दिया है ।” जिस तेजी से यूरोप के राष्ट्रों ने अपने साम्राज्यवाद का निर्माण किया था उससे भी कई गुना अधिक तेजी से अफ्रीका में उनके साम्राज्य का अन्त हो गया ।
अफ्रीका के उदय में सहायक तत्व इस प्रकार हैं:
1. अफ्रीकी राष्ट्रवाद:
अफ्रीकी राष्ट्रवाद का उदय ‘विरोध आन्दोलन’ तथा ‘विद्रोह आन्दोलन’ के रूप में हुआ था जिसने आगे जाकर उपनिवेशवाद विरोध का रूप धारण कर लिया । यूरोप की गोरी जातियां अफ्रीका के अश्वेत लोगों को अपने से निम्न कोटि का मानती थीं । इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई और अफ्रीका में राष्ट्रवाद का प्रसार होने लगा । राष्ट्रवाद को मुख्य प्रेरणा ‘जातीय समानता’ के सिद्धान्त से मिली ।
पाश्चात्य सम्पर्क और पाश्चात्य साहित्य के प्रसार ने भी अफ्रीका के प्रबुद्ध लोगों में राष्ट्रवाद की ज्योति जगाने में सहायता की । अफ्रीकी राष्ट्रवाद ऐसी शक्ति है जो वहां के लोगों को संगठित करती है उनमें अफ्रीकावाद की भावनाएं उत्पन्न करती है । यह विदेशी आधिपत्य के विरुद्ध प्रतिक्रिया है यह अफ्रीकी व्यक्तित्व की पहचान है । अफ्रीकी राष्ट्रवाद की मुख्य विशेषता स्वतन्त्रता की भावना में निहित है ।
अफ्रीका के देश स्वतन्त्र होने के साथ-साथ एकता, सामाजिक अधिकार जातीय समानता और राष्ट्रीय प्रतिष्ठा पर अत्यधिक बल देते हैं । अफ्रीकियों की यह मान्यता है कि पश्चिमी उपनिवेशवाद अफ्रीका में फूटा और इसके विभाजन के कारण ही अपना प्रभुत्व जमा सका । अत: विदेशी प्रभुत्व से मुक्ति पाने के लिए यह जरूरी है कि अफ्रीका में एकता हो और संकुचित कबीलावाद से ऊपर उठकर समस्त अफ्रीका अपने आपको एक इकाई समझे । पान-अफ्रीकावाद का यही आधार है ।
2. एशिया का विद्रोह:
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद भारत की आजादी के साथ ही एशिया के विभिन्न भागों में आजादी की लहर फैल गयी । एशिया के राष्ट्र तेजी से स्वतन्त्र होने लगे । एशिया का विद्रोह अफ्रीका के लिए प्रेरणा देने वाली शक्ति रहा । अफ्रीकी लोग महसूस करने लगे कि जिस प्रकार एशिया ने उपनिवेशवाद का जुआ उतार फेंका है, उसी भांति उन्हें भी एशिया की राह पर चलना चाहिए ।
3. संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका:
राष्ट्र संघ और संयुक्त राष्ट्र जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा उपनिवेशवाद के विरोध में की गयी कार्यवाहियों से भी अफ्रीका के राष्ट्रीय जागरण को बल मिला । संयुक्त राष्ट्र चार्टर में उल्लिखित मानवाधिकार तथा ट्रस्टीशिप सम्बन्धी प्रावधान अफ्रीका के लिए प्रेरक तत्व रहे हैं । अफ्रीकी समस्याओं के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा का दबाव उपनिवेशी शक्तियों पर निरन्तर पड़ता रहा है । संयुक्त राष्ट्र संघ उपनिवेशवाद एवं रंगभेद के अवशेषों के उन्तुलन के लिए वचनबद्ध है ।
4. औपनिवेशिक शक्तियों का निर्बल होना:
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद साम्राज्यवादी शक्तियां दुर्बल हो गयीं । उनके लिए अब बड़ा कठिन था कि उपनिवेशों को चिरकाल तक अपने अधीन रख सकें । फ्रांस व ब्रिटेन आदि राष्ट्र इतने कमजोर हो गए कि उनमें अपने उपनिवेशों के स्वाधीनता आन्दोलन का दमन करने की शक्ति नहीं रह गयी । जब एशिया के उपनिवेश तेजी से उनके चंगुल से मुक्त होने लगे तो अफ्रीकी राष्ट्रवादियों में भी प्रबल आत्म-विश्वास जाग्रत हुआ ।
5. साम्यवाद का आकर्षण:
अफ्रीका महाद्वीप में साम्यवाद के लिए प्राय: सभी आवश्यक परिस्थितियां उपस्थित हैं । पश्चिमी ढंग का लोकतन्त्र इस महाद्वीप के लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं से मेल नहीं खाता । अफ्रीकी नेता पश्चिमी लोकतन्त्रात्मक देशों को उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का समर्थक मानते हैं । सोवियत संघ और साम्यवादी चीन ने इस महाद्वीप के अनेक देशों के राष्ट्रीय आन्दालनों में सक्रिय सहयोग प्रदान किया ।
अफ्रीकी नेता साम्यवाद की अपीलों और उपलब्धियों से प्रभावित रहे हैं । अल्जीरिया, टच्युनीशिया तथा फ्रांसीसी पश्चिमी अफ्रीका में स्थानीय साम्यवादी दलों का प्रभाव रहा है । साम्यवाद का आकर्षण जनता को उपनिवेशवाद रंगभेद तथा आर्थिक शोषण के अवशेषों का उन्मूलन करने के लिए प्रेरित करता है ।
अफ्रीकी नव-जागरण के मार्ग में रुकावटें:
अफ्रीका में राष्ट्रवाद एवं नव-जागरण की लहर उतनी तीव्र नहीं हो पायी जितनी एशिया में है ।
उसके निम्नलिखित कारण हैं:
(i) अफ्रीका में राष्ट्रवाद परस्पर विरोधी राष्ट्रीय गुटों एवं मान्यताओं के कारण तीव्र नहीं हो पाया है ।
(ii) अफ्रीका में कबीलावाद राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बहुत बड़ी रुकावट है । कबीलावाद और परम्परागत मान्यताएं जिनको उपनिवेशवादी शक्तियां प्रोत्साहित करती रहीं न केवल अफ्रीकी राष्ट्रवाद के मार्ग में रुकावट बन जाती हैं बल्कि क्षेत्रीय व विभिन्न राज्यों की आन्तरिक अस्थिरता और फूट का भी ये कारण हैं ।
(iii) अफ्रीका के किसी भी राष्ट्र में जब कभी भी कोई नेता अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त कर लेता है तो तुरन्त ही उसका आन्तरिक एवं अन्य अफ्रीकी देशों में विरोध शुरू हो जाता है । सैनिक और राजनीतिक षडचन्त्रों के माध्यम से सरकारों का तख्ता पलटने का क्रम चलता रहता है । ऐसी स्थिति में अफ्रीकी राष्ट्रवाद की गति मन्द पड़ना स्वाभाविक है ।
(iv) उपनिवेशी शासनकाल में अफ्रीका में शिक्षा की उपेक्षा की गयी । अनेक स्वाधीन अफ्रीकी देशों को राज-काज चलाने के लिए पढ़े-लिखे अफ्रीकी नहीं मिलते थे और आज भी उन्हें विदेशियों पर निर्भर रहना पड़ता है ।
(v) आर्थिक पिछड़ापन और विदेशी कम्पनियों द्वारा आर्थिक शोषण भी अफ्रीकी राष्ट्रवाद के मार्ग में बाधा है । अफ्रीकी राष्ट्रवाद उस समय तक प्रगति नहीं कर सकता जब तक अफ्रीकी अर्थव्यवस्था पर विदेशी प्रभुत्व कायम है ।
(vi) अफ्रीकी राजनीतिक जागरण में सैनिक अफसरों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । लेकिन आजकल विभिन्न देशों के .सैनिक अफसरों में राजनीतिक महत्वाकांक्षा बढ़ती जा रही है और ये अफसर विदेशी शक्तियों के उकसाने पर सैनिक क्रान्तियां कर डालते हैं । आए दिन होने वाली सैनिक क्रान्तियों के कारण अफ्रीका के राजनीतिक विकास की प्रक्रिया में रुकावट पड़ जाती है ।
(vii) आज भी अफ्रीका के कई देशों में यूरोपीय नस्त के लोग मौजूद हैं । इन्हें स्थानीय लोगों की तुलना में विशिष्ट राजनीतिक और आर्थिक दर्जा औपनिवेशिक शक्तियों ने दिया था । ये लोग अफ्रीकी निवासियों से अपने आपको ‘उच्च’ मानते हैं । दक्षिणी अफ्रीका तथा रोडेशिया में तो राजनीतिक सत्ता इन्हीं यूरोपीय जातियों के हाथों में है ।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि अफ्रीकी राष्ट्रवाद को कबीलावाद, जातिवाद, आर्थिक-सामाजिक पिछड़ापन, साम्यवाद विरोध तथा सैनिक तानाशाही का कड़ा मुकाबला करना पड़ रहा है । इन रुकावटों से अफ्रीका को मुक्ति दिलाने का केवल एक ही विकल्प दिखाई देता है और वह है-पान-अफ्रीकावाद जिसका अर्थ है कबीलावाद को पूरी तरह नष्ट करना और पूरे अफ्रीकी महाद्वीप की समस्याओं को क्षेत्रीय एवं संकुचित राष्ट्रीय समस्याओं से अधिक महत्वपूर्ण समझना ।
Essay # 2. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर अफ्रीका के नव-जागरण का प्रभाव (Impact of African Resurgence on International Politics):
अफ्रीका के अभ्युदय ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर व्यापक प्रभाव डाला है:
1. उपनिवेशवाद पर कड़ा प्रहार:
अफ्रीकी नव-जागरण से उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद पर कड़ा प्रहार हुआ । आज से तीस वर्ष पूर्व समूचा अफ्रीका महाद्वीप साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के शिकंजे में कसा हुआ था और आज वहां के अधिकांश देश स्वतन्त्रता की श्वास ले रहे हैं ।
2. मुक्ति आन्दोलनों के लिए प्रेरणा:
समूचा अफ्रीका महाद्वीप आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ है फिर भी वहां स्वाधीनता एवं मुक्ति आन्दोलनों का क्षेत्र व्यापक एवं आक्रामक रहा है । अफ्रीका में प्रत्येक स्वाधीन राज्यों का उदय दुनिया के अन्य भागों के मुक्ति आन्दोलनों के लिए प्रेरणा और उत्साह के भाव पैदा करता है ।
3. जातिवाद और रंगभेद जैसे मसले अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दे बनाना:
जातिभेद और रंगभेद जैसे मसले ‘घरेलू क्षेत्राधिकार’ के विषय समझे जाते थे । किन्तु दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद नीति और रोडेशिया की गोरी सरकार के एकपक्षीय निर्णयों के प्रश्नों को अफ्रीकी राष्ट्रों ने एकजुट होकर संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर बार-बार उठाया और इनके साथ ‘मानव अधिकार’ का सन्दर्भ देकर इसे अन्तर्राष्ट्रीय अभिरुचि का विषय बना दिया । यही कारण है कि संयुक्त महासभा ने रंगभेद की नीति को 1973 में ‘मानवता के प्रति अपराध’ घोषित किया तथा 1978 वर्ष को ‘रंगभेद विरोध वर्ष’ के रूप में मनाया गया ।
4. संयुक्त राष्ट्र संघ में बढ़ता संख्या बल:
अफ्रीकी नव-जागरण से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रभुसत्ताधारी राज्यों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है । संयुक्त राज्य के कुल सदस्य राष्ट्रों में लगभग एक-तिहाई अफ्रीकी राज्य हैं । आज स्वतन्त्र अफ्रीकी राज्य संयुक्ता राष्ट्र संघ में संगठित ‘लॉबी’ के रूप में कार्य करते हैं और एशियाई राष्ट्रों के साथ मिलकर प्रभावकारी शक्ति बन गए हैं ।
5. गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को बल मिलना:
अफ्रीका की जाति ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में गुटनिरपेक्षता की आवाज को दृढ बनाया है । अफ्रीकी राज्यों की शीत-युद्ध में कोई रुचि नहीं रही; अत: गुटनिरपेक्षता की विदेश नीति को अपनाकर निर्गुट आन्दोलन को पुष्ट किया । गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के देशों के 12वें शिखर सम्मेलन का आयोजन 2-3 सितम्बर, 1998 को दक्षिण अफ्रीका (डरबन) ने किया । सम्मेलन में यह संकेत मिले कि आन्दोलन की बागडोर दक्षिण अफ्रीका अपने हाथों में लेना चाहता है ।
6. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का केन्द्र:
आज अफ्रीका अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का केन्द्र बनता जा रहा है । महाशक्तियों की अभिरुचि अफ्रीका में बढ़ती जा रही है । अफ्रीकी राज्यों की संख्या इतनी अधिक है कि उनके आपसी विवाद अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बन जाते हैं और महाशक्तियों को हस्तक्षेप का अवसर प्रदान कर देते हैं । उदाहरणार्थ, कांगो समस्या, नाइजीरिया का गृह-युद्ध, अंगोला समस्या, दक्षिण अफ्रीका में काले और गोरे लोगों में संघर्ष, रोडेशिया समस्या, इथियोपिया-सोमालिया विवाद के कारण अफ्रीका महाद्वीप संघर्ष-स्थल बन गया और विश्व राजनीति को आलोड़ित करने लगा ।
7. राष्ट्रमण्डल के स्वरूप को प्रभावित करना:
स्वतन्त्रता के बाद अफ्रीका के ब्रिटिश उपनिवेश राष्ट्रमण्डल के सदस्य बने । अब राष्ट्रमण्डल एक ऐसा क्लब बन गया है जहां अश्वेत राष्ट्र बहुसंख्या में हैं । अफ्रीकी राज्य राष्ट्रमण्डल के मंच से रंगभेद नीति की भर्त्सना करते हैं और उसकी निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं । अफ्रीकी राष्ट्रवाद का मुख्य उद्देश्य विश्व के मामलों में अपने लिए एक प्रभावशाली भूमिका प्राप्त करना है ।
यद्यपि अफ्रीकी देशों की आन्तरिक अस्थिरता और पिछड़ेपन के कारण वे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में उपयुक्त प्रभाव प्राप्त नहीं कर सके हैं फिर भी अफ्रीका आज अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को अपने इतिहास के किसी भी पूर्ववर्ती काल की अपेक्षा अधिक प्रभावित कर रहा है ।
Essay # 3. महाशक्तियां और अफ्रीका (Super Powers and Africa):
यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों के अफ्रीका से पलायन के उपरान्त वहां शक्ति शून्यता आ गयी । इस अवसर का लाभ उठाकर संयुक्त राज्य अमरीका अफ्रीका में पूंजीवाद और सोवियत संघ व चीन साम्यवाद के प्रसार का प्रयास करने लगे ।
अफ्रीका में सोवियत विदेश नीति की तीन प्रमुख विशेषताएं रहीं-मुक्ति आन्दोलनों का समर्थन करना प्रगतिशील शक्तियों का समर्थन करना तथा साम्यवादी शासनों की स्थापना करना । सोवियत संघ ने औपनिवेशिक देशों के विरुद्ध अफ्रीकी देशों के स्वाधीनता संघर्ष का हमेशा समर्थन किया ।
वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रगतिशील कहे जाने वाले उन लोगों का समर्थन करता रहा जो स्वाधीनता के बाद अपने देशों की सरकारों से आर्थिक सुधारों की मांग कर रहे थे । एक प्रकार से यह स्वाधीन अफ्रीकी राष्ट्रों में सरकारों के विरुद्ध जन संघर्ष को प्रोत्साहन देना था ।
1977-78 के सोमालिया-इथियोपिया संघर्ष में सोवियत संघ ने इथियोपिया का समर्थन किया । अंगोला के गृह-युद्ध के समय एम. पी. एल. ए का समर्थन किया । मई 1971 में उसने मिस्र के साथ एक पन्द्रह-वर्षीय पारस्परिक सुरक्षा समझौता किया और 1980 में सीरिया के साथ एक 20-वर्षीय सन्धि पर हस्ताक्षर किए । ऐसा कहा जाता है कि अफ्रीका में सोवियत संघ क्यूबा के माध्यम से सक्रिय रहा । मोजाम्बिक में सोवियत संघ और मेंका दोनों ही सक्रिय रहे ।
नामीबिया, रोडेशिया और दक्षिण अफ्रीका की वामपन्थी शक्तियों को उनका समर्थन प्राप्त रहा । अल्जीरिया का धातुकर्मीय संयन्त्र, नाइजीरिया का धातु कारखाना तथा इथियोपिया की अस्सब तेल रिफाइनरी सोवियत संघ की सहायता से बनी ।
अल्जीरिया, सियरा लियोन, इथियोपिया, गिनी, नाइजीरिया, कांगो, तंजानिया तथा अन्य कई अफ्रीकी देशों में हजारों की संख्या में सोवियत इन्जीनियर, डॉक्टर, तकनीकी विशेषज्ञ, आदि विकास कार्यों में योगदान देते रहे ।
बौद्धिक स्तर पर अफ्रीका में साम्यवाद लाने के लिए वह बड़ी-बड़ी छात्रवृत्तियां देकर अफ्रीकी विद्यार्थियों को सोवियत विश्व-विद्यालयों में स्थान देता था जहां उनके मस्तिष्क को साम्यवादी विचारधारा से अनुप्राणित करके उन्हें पुन: उनके देश भेज दिया जाता था ।
अफ्रीका में अमरीका की दिलचस्पी काफी पुरानी है । यह अफ्रीका के औपनिवेशिक मालिकों से कच्चा माल खरीदता था । अमरीका ब्रिटेन, फ्रांस, आदि औपनिवेशिक शक्तियों का मित्र था अत: अब अफ्रीका में उसे एक उपनिवेशी पूंजीवादी शक्ति माना जाने लगा है ।
दक्षिण अफ्रीका तथा श्वेत लोगों का समर्थक होने के कारण अफ्रीकी नेता अमरीकी जोड़-तोड़ से दूर रहना चाहते हैं । अमरीका ने अफ्रीकी राज्यों के आपसी विवादों में भी हस्तक्षेप किया है । उसने सोमालिया को सहायता देकर उससे इथियोपिया पर आक्रमण कराया; अंगोला के गृह-युद्ध में उसने एफ. एन. एल. ए का समर्थन किया ।
अमरीका ने रोडेशिया तथा दक्षिणी अफ्रीका की रंगभेद समर्थक सरकारों का समर्थन किया तथा 30 अक्टूबर, 1974 को संयुक्त राष्ट्र संघ से दक्षिण अफ्रीका को निष्कासित करने के प्रस्ताव पर ‘वीटो’ का प्रयोग किया । इन सबसे अमरीका की पहचान अफ्रीका के आन्तरिक शासन में हस्तक्षेप तथा रंगभेद का समर्थन करने वाले राष्ट्र के रूप में होने लगी ।
साम्यवादी चीन अफ्रीका को अपना विशेष क्षेत्र मानता है । उसका उद्देश्य इस क्षेत्र में साम्यवाद का अधिकाधिक प्रसार करना और स्वयं इसका सर्वमान्य नेता बन जाना है । चीन अपनी क्रान्ति और पद्धति को अफ्रीका के अविकसित राष्ट्रों के लिए नमूने के रूप में प्रस्तुत करता है ।
उसका उद्देश्य अपनी प्रगति का उदाहरण देकर अफ्रीकी देशों को साम्यवादी पद्धति को अपनाने के लिए प्रेरित करना है । चीन ने अफ्रीकी देशों से न केवल व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किए अपितु उन्हें आर्थिक और तकनीकी सहायता भी दी है । चीन से सहायता पाने वाले प्रमुख देश हैं: तंजानिया, माली, गिनी, जाम्बिया और सोमालिया ।
चीन ने 6 वर्ष के अल्पकाल (1970-76) में 1,276 मील लम्बे तंजाम रेलमार्ग का निर्माण करके अफ्रीकी राष्ट्रों में विशेष सम्मान अर्जित कर लिया । चीन की यह सफलता अमरीका और सोवियत संघ के लिए एक चुनौती बन गयी । चीन अफ्रीकी राष्ट्रों को सोवियत-क्यूबाई खतरे भी परिचित कराता रहा ।
विदेशी अड्डे:
अफ्रीकी समाज में भावात्मक एकता की चेतना का अभाव, परिणामस्वरूप उत्पन्न आपसी राजनीतिक कलह, आर्थिक मजबूरियां एवं विश्व राजनीति की शतरंजी चाल के प्रति अफ्रीकी राजनेताओं की नासमझी के कारण बड़ी ताकतों ने इन देशों में अपने अखाड़े स्थापित कर लिए ।
अंगोला व इथियोपिया में सोवियत वर्चस्व का प्रतिनिधित्व क्यूबाई सेना के मार्फत होता रहा । पूर्वी जर्मनी के सैनिक सलाहकारों ने इथियोपिया व मोजाम्बिक में अपने अड्डे जमाए हुए हैं । सोवियत संघ ने लाल सागर में डेलहेक द्वीप पर अपना नाविक सैन्य अड्डा स्थापित कर लिया । फ्रांस की सेनाएं महाद्वीप के कम-से-कम बीस देशों में तैनात हैं । चाड व लीबिया के संघर्ष में फ्रांस व अमरीका ने चाड की सुरक्षा के लिए भारी शस्र व तकनीकी सहायता उपलब्ध करवायी ।
सोवियत संघ व अमरीका की साम्राज्यवादी आपाधापी की राजनीति ने इन नवजात अफ्रीकी देशों को सहज विकास के क्रम से गुजरने का अवसर ही नहीं दिया । राष्ट्रीय चेतनाविहीन मध्ययुगीन मानसिकता व पश्चिमी शिक्षा से सम्पन्न अफ्रीकी नेताओं को खरीदने उनकी वैयक्तिक सामुदायिक कमजोरियों को अपने साम्राज्यवादी हित से लाभ उठाने का अमानवीय कार्य पूर्व यूरोपीय साम्राज्यवादी देशों व वर्तमान साम्राज्यवादी ताकतों (अमरीका व रूस) ने भरपूर किया है ।
Essay # 4. स्वतन्त्र अफ्रीकी राज्यों की समस्याएं (Problems of Independent African States):
नवोदित अफ्रीका को अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है । इसमें अधिकांश समस्याएं यहा की पिछड़ी हुई आर्थिक सामाजिक राजनीतिक एवं भौगोलिक स्थिति से उत्पन्न हुई हैं । स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् यहां के कुछ देशों में क्रान्ति हुई, गृह-युद्ध हुए, जातीय भेदभाव के कारण अनेक उपद्रव हुए ।
विभिन्न राज्यों में सैनिक संघर्षों षडयन्त्रों विद्रोहों तथा हत्याओं का बोलबाला रहा है । जैसे ही यहां के देश स्वतन्त्र हुए उनमें राजनीतिक प्रतिद्वन्द्विता का सूत्रपात हुआ । फलस्वरूप राजनीतिक आर्थिक और सामाजिक कारणों को लेकर संघर्ष होने लगे । सरकारी कर्मचारी अयोग्य एवं भ्रष्टाचारी सिद्ध हुए ।
सर्वत्र कठोर परिश्रम लगन और दूर-दृष्टि की कमी दिखायी देती है । स्वतन्त्रता पाने के बाद अफ्रीकी राज्यों में विघटन की प्रवृत्तियां प्रबल हुई हैं । जाइरे (कांगो) और नाइजीरिया को छोड्कर कहीं भी शासन में स्थिरता नहीं दिखायी देती । आज भी अफ्रीका महाद्वीप का ‘हार्न आफ अफ्रीका’ क्षेत्र के राज्य इरीट्रिया इथियोपिया सोमालिया जिबूती आदि देश अशांत हैं एवं राजनीतिक अस्थिरता एवं गृहयुद्ध के शिकार हैं ।
इन सब राज्यों में गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी की समस्याएं प्रबल हो रही हैं । ऑक्सफोर्ड पावर्टी एवं मानव विकास पहल द्वारा तैयार ताजा आंकडो के अनुसार निर्धनतम 26 अफ्रीकी देशों में गरीबों की संख्या 41 करोड़ है ।
इस समय अफ्रीका की प्रमुख समस्याएं निम्नलिखित हैं:
1. राजनीतिक स्थायित्व की समस्या:
अफ्रीका के अनेक देशों में विदेशी शासन की समाप्ति के पश्चात् जैसे ही स्थानीय सरकारें बनने लगीं उनमें स्थायित्व की समस्या है । इसी कारण अनेक देशों में सैनिक अधिनायकवादी सरकारें हैं । यहां की राजनीतिक परम्पराएं प्रारम्भ से ही अधिनायकवादी और सर्वसत्तावादी रही हैं । यहां की जनता का शोषण साम्राज्यवाद के समाप्त हो जाने पर भी जारी है ।
यहां लोकतन्त्रीय परम्पराओं का विकास नहीं हो सका । अल्जीरिया या घाना इथियोपिया या मिस्र किसी भी देश को लें हमें सर्वत्र यही दिखायी पड़ेगा कि इन देशों में निर्वाचित एकतन्त्र की स्थापना की गयी है । इसके अतिरिक्त यहां शासन में अत्यधिक उथल-पुथल होती रहती है ।
हाल ही में (1994) गाम्बिया, बरूण्डी एवं रवांडा में निर्वाचित सरकार का तख्ता पलट होने के साथ-साथ खून-खराबा भी हुआ । 1975 में अंगोला में देश की स्वाधीनता के समय से ही सरकारी एवं विरोधी सैन्य बल ‘यूनिटा’ के बीच रुक-रुककर कर लेकिन विनाशकारी गृहयुद्ध देश को ग्रस्त किए रहा ।
रुआंडा में वर्ष 1990 में मुख्यत: हुतू सरकार एवं युगांडा से कार्यवाही कर रहे तुत्सी नेतृत्व वाले रुआडी देशभक्त मोर्चे में लड़ाई छिड़ गयी । 170 लाख की जनसंख्या में लगभग 8,00,000 लोग मारे गए, 20 लाख दूसरे देशों में पलायन कर गए और लगभग 20 लाख लोग आन्तरिक रूप से विस्थापित हो गए, बरूंडी में लंबे समय से चले आ रहे आन्तरिक संकट के फलस्वरूप वर्ष 1993 में सत्तापहरण का प्रयत्न किया गया जिसमें लोकतांत्रिक ढंग से पहली बार निर्वाचित प्रेसिडेंट जो हुतू थे एवं छ: मंत्री मारे गए ।
इसने गुटों की लड़ाई भड़का दी जिसमें बाद के तीन वर्षों में 1,50,000 लोगों के प्राण गए । जनवरी 2001 में लोकतान्त्रिक गणराज्य कांगो में तख्ता पलट की कार्यवाही के अन्तर्गत राष्ट्रपति लर्रिट कबीला की उनके एक अंगरक्षक ने हत्या कर दी । यहां के अधिकांश देशों की प्रमुख समस्या है स्थायी प्रशासन की स्थापना जिससे कि यहां का विकास हो सके ।
2. जातिवाद अथवा गोरे-काले की समस्या:
अफ्रीका महाद्वीप की द्वितीय प्रमुख समस्या है जातिवाद की अथवा गोरे-काले की समस्या । इस समस्या का उदय यूरोपीय शक्तियों द्वारा किया गया । उनके शासनकाल में यहां श्वेत लोग आकर बसे तथा प्रशासन एवं उच्चस्तरीय कार्य इन्हीं के हाथों में था । ये शासक थे । अत: स्थानीय निवासियों पर मनमाना अत्याचार करते तथा उनको दास समझते थे ।
यह क्रम उस समय तक चलता रहा जब तक उनका शासन था यद्यपि अनेक बार इसका विरोध किया गया । किन्तु यूरोपीय अपनी जातीय उच्चता की भावना के कारण स्थानीय जनता का शोषण करते रहे । आज जबकि यहां के देश स्वतन्त्र हैं फिर भी जहां विदेशी हैं वहां यह समस्या वर्तमान है ।
इसके अतिरिक्त यहां अनेक आदिवासी जातियां निवास करती हैं । उनका तथा शेष अफ्रीकियों में सामंजस्य करना इनके विकास के लिए अति आवश्यक है । यह समस्या द रोडेशिया तथा द अफ्रीका में उग्र रूप धारण कर चुकी है तथा वहां संघर्ष होता रहता है ।
3. आर्थिक विकास की समस्या:
अफ्रीका महाद्वीप की तृतीय समस्या यहां के विविध संसाधनों के नियोजित विकास एवं उपयोग की है । यहां अनेक उपयोगी खनिज प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं । इन खनिजों के विकास के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि उनका स्थानीय विकास में अधिकतम उपयोग हो । इसी प्रकार यहां औद्योगिक विकास नगण्य हुआ है अत: उसके विकास के लिए अधिकतम प्रयत्न आवश्यक हैं क्योंकि औद्योगिक विकास ही यहां आर्थिक व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान कर सकता है ।
4. विदेशियों की उपस्थिति:
अफ्रीका के देशों में वर्तमान समय में विदेशी अर्थात् यूरोपीय एशियाई यहां के अनेक देशों के लिए समस्या है । यहां के देशों में अब विदेशी जनता के लिए भी क्रमश: विद्रोही भावना जाग्रत हो रही है उनमें यह विश्वास घर करता जा रहा है कि विदेशी स्थानीय धन का शोषण कर रहे हैं ।
इसका प्रत्यक्ष उदाहरण युगाण्डा से एशियाइयों के निष्कासन के रूप में देखा जा चुका है । हाल में ही दक्षिण अफ्रीका में बसे विदेशी नागरिकों के विरुद्ध वहां के स्थानीय नागरिकों में रोष देखा गया जिनका मानना है कि वहां बसे विदेशी न केवल नौकरियों में उनका हक छीन रहे हैं बल्कि वहां बढ़ रही आपराधिक घटनाओं के लिए भी वह ही मुख्यत : जिम्मेदार हैं । संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी आयोग के अनुसार 13 हजार से अधिक विदेशी मई 2008 में दक्षिण अफ्रीका से पलायन कर गये ।
5. विदेशी प्रभावों से संरक्षण की समस्या:
आज अफ्रीका के देशों की प्रमुख समस्या विदेशी प्रभावों से संरक्षण की है क्योंकि जब अफ्रीका का कोई देश किसी एक गुट में शामिल हो जाता है तो उससे अनेक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं । यहां पूंजीवादी एवं साम्यवादी दोनों ही अपना प्रभाव स्थापित करना चाहते हैं । यदि यहां के देश अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के दल-दल में फंस गए तो विकास की अन्य सम्भावनाएं समाप्त हो जाती हैं ।
6. अफ्रीकी एकता की समस्या:
अफ्रीका आज विघटन के कगार पर खड़ा है । अफ्रीकी एकता संगठन अपने एकता प्रयासों में पूर्णतया असफल रहा है । डॉ. एन्क्रूमा का ‘अफ्रीका का राज्य’ का सपना टूट चुका है, क्योंकि विघटनकारी शक्तियां बहुत व्यापक एवं सक्रिय हैं । दक्षिण अफ्रीका की राजनीति अभी भी अफ्रीकी एकता के मार्ग में रुकावट बनी हुई है ।
7. साम्यवाद के प्रसार की समस्या:
अफ्रीका महाद्वीप में साम्यवाद के लिए प्राय: सभी आवश्यक परिस्थितियां उपस्थित हैं जिनके कारण इस विचारधारा का निर्बाध प्रचार एवं प्रसार किया जा सकता है । यहां के लोग आर्थिक शोषण तथा साम्राज्यवादी दमन एवं आतंक के कटु अनुभव प्राप्त कर चुके हैं ।
साम्यवादी देशों द्वारा साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का विरोध आर्थिक विकास के कार्यक्रमों की सफलता तथा पूंजीपति वर्ग को समाप्त कर शोषण का अन्त व्यक्तियों के बीच समानता की स्थापना और जातीय भेदभाव की नीति की निन्दा आदि साम्यवादी नीतियों के कुछ उदाहरण हैं जो अफ्रीकावासियों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए पर्याप्त हैं ।
सोवियत संघ और साम्यवादी चीन द्वारा इस महाद्वीप के अनेक देशों के राष्ट्रीय आन्दोलनों में सक्रिय सहयोग प्रदान किया गया था । उपर्युक्त समस्याओं के अतिरिक्त सामूहिक राष्ट्रीय चेतना का अभाव विदेशी आर्थिक सहायता पर निर्भरता, कुशल राष्ट्रीय नौकरशाही का अभाव, सत्ता के औचित्य की समस्या, शिक्षा की प्रगति आदिवासियों का विकास आदि अनेक समस्याएं इस महाद्वीप के सम्मुख हैं । वास्तव में, सपूर्ण महाद्वीप के देश विकास की शैशवावस्था में हैं ।
8. अकाल एवं भुखमरी की समस्या:
इन दिनों अफ्रीका के कतिपय देशों में लोग भुखमरी और अकाल से जूझ रहे हैं । ‘हार्न आफ अफ्रीका’ में अकालग्रस्त क्षेत्रों की दुर्दशा को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र की खाद्य समिति ने विश्व समुदाय से आगे आकर 54 लाख लोगों की आर्थिक मदद करने की अपील की है ताकि प्राकृतिक आपदा की मार झेल रहे लोगों को दो जून की रोटी मिल सके । समिति के अनुसार केन्या के 25 लाख, सोमालिया के 14 लाख, इथियोपिया के 15 लाख और जिबूती के 60 हजार लोगों को एक वक्त का खाना भी ठीक से नसीब नहीं हो रहा है ।
सोमालिया में ‘आपरेशन रिस्टोर होप’:
अफ्रीका का छोटा-सा देश सोमालिया कई वर्षों से पड़ोसी इथियोपिया के साथ संघर्षरत है । इस देश में सूखे की आशंका हमेशा बनी रहती है । जनवरी 1991 में सोमालिया को उस समय भीषण राजनीतिक धक्का पहुंचा जब इसके शक्तिशाली नेता राष्ट्रपति सिआद बारे का तख्ता पलट दिया गया ।
पिछले कुछ वर्षों से सोमालिया में हालत बदतर होते जा रहे थे- प्रतिद्वन्द्वी गुटों और लडाकू नेतओं के बीच देश भर में संघर्ष जारी रहा और भुखमरी से पीड़ित देश को बर्बादी की ओर धकेल दिया गया । संयुक्त राष्ट्र महासचिव बुतरस घाली के अनुरोध पर और सुरक्षा परिषद् के तत्वावधान में अमरीका ने 9 दिसम्बर 1992 को ‘ऑपरेशन रिस्टोर होप’ शुरू किया ।
पांच महीने के बाद सोमालिया में अमरीकी कमान के अन्तर्गत संयुक्त राष्ट्र शान्ति सेना को भी लगा दिया गया । इसमें (अमरीका के 4,000 सैनिकों सहित) 22 देशों के हजार सेनिक शामिल थे । ‘ऑपरेशन रिस्टोर होप’ के दौरान अमरीकी नेतृत्व वाले गठबन्धन को डेढ़ लाख टन खाद्य सामग्री दवाएं और अन्य महत्वपूर्णं आपूर्ति करने में सफलता मिली ।
22 दिसम्बर 1997 को सोमालिया के दो शक्तिशाली गुटों के बीच मिस्र की राजधानी काहिरा में पारस्परिक समझौते पर हस्ताक्षर हुए इससे वहां गृह युद्ध समाप्त करके शान्ति की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ है । सोमालिया में शांति व्यवस्था को बहाल करने के प्रयास पड़ोस के अफ्रीकी देशों द्वारा बहुत पहले ही आरम्भ कर दिए गए थे । 2004 में संघीय सरकार के गठन का निर्णय लिया गया ।
इस सरकार की स्थापना से तथा युद्धरत पक्षों के मध्य जनवरी 2006 में हुए शांति समझौते से यह आशा बंधी कि सोमालिया की जनता को शाति की हवा में श्वास लेने का सुखद अनुभव होगा किन्तु जनवरी समझौते की स्याही भी नहीं सूख पायी थी कि फरवरी 2006 में पुन: झगड़े आरम्भ हो गए और एक बार फिर से देश में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो गई ।
इस संघर्ष ने संक्रमणकालीन संघीय सरकार को अर्थहीन बना दिया । कई वर्षों से सूखे से जूझ रहे सोमालिया में खाद्य पदार्थों की लगातार बढ रही कीमतों व मुद्रास्फीति से त्रस्त जनता हाल ही में वहां सड़कों पर उतर आयी ।
अफ्रीका में उग्र-राष्ट्रीयता तथा एशियावासियों का निष्कासन:
अफ्रीका में इन दिनों उग्र राष्ट्रवाद की भावना दिखायी देती है । इस भावना को दो रूपों में देखा जा सकता है । इसका पहला रूप तो पश्चिमी प्रभाव को समाप्त करना और अपने देश की पुरानी परम्पराओं और नामों का पुनरुज्जीवन है । इस समय अफ्रीका के विभिन्न देशों में यह प्रवृति दिखायी देती है कि यूरोपियन लोगों द्वारा दिए गए अपने देशों के नामों को बदलकर इनके पुराने अफ्रीकी नाम रखें ।
कांगो ने अपना नया नाम जायरे रख लिया है रोडेशिया को अफ्रीकी लोग जिम्बाब्बे कहते हैं; न्यासालैण्ड मलावी और उत्तरी रोडेशिया जाम्बिया बन गया है । उग्र राष्ट्रवाद का दूसरा रूप यह है कि अफ्रीकी राज्य अपने देशों से एशियावासियों को निकाल रहे हैं ।
यह एक विचित्र बात है कि यद्यपि इस समय 5 लाख गोरे अफ्रीकी राज्यों में मौजूद हैं किन्तु वे इन राज्यों से न तो निकाले गए और न ही उनकी सम्पत्ति जब्त की गयी है । किन्तु अफ्रीकी राज्य अपने यहां से एशियावासियों को निकाल रहे हैं और उनकी सम्पत्ति जब्त कर रहे हैं । स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय जंजीबार में एक लाख एशियावासी थे । अब यहां केवल 40 हजार एशियावासी ही रह गए हैं । युगाण्डा में 1972 में एशियावासियों और भारतीयों को बड़ी कठोरता से निष्कासित किया गया । स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय इनकी संख्या 80 हजार थी और अब 8-10 हजार रह गयी है ।
किसी समय यह समझा जाता था कि पश्चिमी देशों के साम्राज्यवाद के विरुद्ध एशिया और अफ्रीका की जनता एक संयुक्त मोर्चे का निर्माण करेगी किन्तु आज अफ्रीकावासी उनका विकास करने वाले भारतीयों और एशियावासियों को अपने देश से निकालने पर तुले हुए हैं । अफ्रीका की उग्र राष्ट्रीयता का यह एक चिन्ताजनक पहलू है । इससे अफ़्रो-एशियन एकता के प्रयल प्रभावित होंगे और तीसरी दुनिया की एकता का सवाल उठ खड़ा हुआ है ।
अफ्रीका में लोकतन्त्र की बहार:
आज अफ्रीका के अनेक देशों में जनक्रान्ति की बहार है । ट्यूनीशिया, मिस्र, सूडान, मोरक्को, लीबिया, तानाशाही से लोकतन्त्र के मार्ग पर चल पड़े हैं । मिस्र की जनता ने मात्र 18 दिन के भीतर वर्षों की तानाशाही की सरकार का अन्त कर जनवरी 2011 में नया इतिहास रचा ।
ट्यूनीशिया की जनक्रान्ति से प्रेरित मिस्र की इस क्रान्ति ने सिर्फ 30 वर्षों से सत्ता पर काबिज राष्ट्रपति मोहम्मद होस्नी मुबारक को हटाया ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में तानाशाही के विरुद्ध लड़ने के लिए जनता को एक नया रास्ता भी दिखाया ।
अगस्त 2011 में लीबिया के तानाशाह शासक कर्नल गद्दाफी को अपदस्थ कर विद्रोहियों की नेशनल ट्रांजिशनल काउन्सिल ने अन्तरिम सरकार का गठन किया । अन्तत: अन्तरिम सरकार के सैनिकों के हाथों लीबिया पर 42 वर्षो तक निरंकुश शासन करने वाले गद्दाफी 20 अक्टूबर 2011 को मारे गए ।
जहां कुछ समय तक लोकतान्त्रिक आन्दोलनों के आगमन के रूप में बसन्त की चर्चा जोरों पर थी वहां अब लगता है बसन्त बहुत जली ही कुम्हलाने लगा है । आज मिस्र गृह-युद्ध की ओर अग्रसर हो रहा है लीबिया उससे पहले ही संकटग्रस्त हो गया था । सूडान दो भागों में बंटने के बाद भी अपनी समस्याओं को नहीं सुलझा पा रहा है ।
सीरिया में जितनी हिंसा आज है उतनी पहले कभी नहीं थी । इराक में आए दिन दिल दहला देने वाले बमों के धमाके होते रहते हैं । उधर फिलीस्तीन की समस्याओं का सन्तोषजनक समाधान नजर नहीं आ रहा है ।
निष्कर्ष:
अफ्रीकी एकता की भावना समूचे अफ्रीका की राजनीति में एक सक्रिय तत्व है । अफ्रीकी एकता की यह भावना यूरोप के साथ सम्पर्क का फल नहीं है । राजनीतिक स्वतन्त्रता के आन्दोलनों से भी इसका कोई सीधा सम्पर्क नहीं है । अफ्रीका में एकता की भावना पहले से ही विद्यमान है विभिन्न प्रकार के राजनीतिक आन्दोलनों और उनके नेताओं द्वारा केवल उसके उपयोग की चेष्टा होती रही है ।
अंगोला, रोडेशिया तथा नामीबिया के प्रश्न अगर सम्पूर्ण अफ्रीका को आन्दोलित कर देते हैं तो इसलिए नहीं कि ये प्रश्न आधुनिकता या आर्थिक विकास से जुड़े हुए हैं, वरन् इसलिए कि इतिहास, संस्कृति और सामाजिक सम्बन्धों में अफ्रीकी एकता की भावना एक जीवन्त तत्व है । आज दक्षिण अफीका में रंगभेद जातीय भेदभाव और श्वेत अल्पसंख्यक शासन समाप्त हो गया है, और अश्वेतों को भी शासन में सहभागी होने का अवसर प्राप्त हुआ है ।