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Here is an essay on ‘Asia’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Asia’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on Asia
Essay Contents:
- एशिया में विउपनिवेशीकरण एवं नए राज्यों का उदय (Decolonization and the Emergence of New States in Asia)
- एशिया के जागरण और विद्रोह का महत्व (Revolt of Asia: Significance)
- एशियाई राष्ट्रवाद की विशेषताएं (Salient Features of the Asian Nationalism)
- एशिया की समस्याएं (Problems of Asian Nations)
- एशिया में महाशक्तियों की प्रतिस्पर्द्धा (Super Power Rivalry in Asia)
Essay # 1. एशिया में विउपनिवेशीकरण एवं नए राज्यों का उदय (Decolonization and the Emergence of New States in Asia):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में आजकल एशिया का महत्व बढ रहा है । 19वीं शताब्दी यूरोपियन देशों की प्रभुता की शताब्दी थी जनसंख्या अल्प होते हुए भी अपनी उत्कृष्ट वैज्ञानिक औद्योगिक आर्थिक और सैनिक शक्ति के कारण ब्रिटेन, फ्रांस, हॉलैण्ड, बेल्जियम तथा जर्मनी ने अपने देश की जनसंख्या और क्षेत्रफल से कई गुनी अधिक जनसंख्या और क्षेत्रफल रखने वाले एशिया के अधिकांश देशों पर अपनी प्रभुता स्थापित की ।
किन्तु 20वीं शताब्दी में एशिया में यूरोप के सम्पर्क से अपनी स्वाधीनता पाने के लिए संघर्ष से जो नवजागरण हुआ उससे इस समूचे महाद्वीप में नयी चेतना की एक लहर आयी । पश्चिम की प्रभुता और साम्राज्यवाद के विरुद्ध एशिया के विद्रोह को अमरीकी पत्रकार रॉबर्ट पेन ने वर्तमान समय की सबसे बड़ी घटना कहा और यह लिखा है कि एशिया को अब अपने महत्व का ज्ञान हो गया है और ‘एशिया की शताब्दी’ आरम्भ हो गयी है ।
21वीं सदी के प्रथम दशक में चीन जापान और भारत एशिया की ऐसी उभरती शक्तियां हैं जिनकी विश्व राजनीति में उपेक्षा संभव नहीं है । 26 जून, 2006 के अंक में ‘टाइम’ ने लिखा है कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत आर्थिक क्षेत्र में वैश्विक महाशक्ति बनने जा रहा है ।
पाश्चात्य धारणा यह रही है कि चीन में एक महान शक्ति के रूप में उभरने की क्षमता है । उभरता चीन एशिया प्रशांत क्षेत्र को राजनीतिक रूप से प्रभावित करने की क्षमता रखता है । उसका प्रतिव्यक्ति जी एन पी दूसरा विशालतम है और अनेक वर्षों से लगभग 8 प्रतिशत वृद्धि दर बनाए रखी है ।
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विश्व के सर्वाधिक ऋण तथा सहायता देने वाले देश के रूप में जापान के पास अपार शक्ति है । आज चीन सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य है और भारत एवं जापान स्थायी सदस्यता प्राप्त करने के लिए राजनयिक रूप से सक्रिय हैं । आज एक जुमला प्रचलित है : विश्व अर्थव्यवस्था का अतीत यूरोप था वर्तमान अमेरिका है और भविष्य एशिया है ।
एशिया के भीड भरे पूर्व में और थोड़े कम स्तर पर दक्षिण में ”एक युगान्तकारी परिवर्तन हो रहा है ।” वर्ष 2002 में ये देश विश्व के कुल उत्पादन का बाजार दर के हिसाब से 24 प्रतिशत और क्रय शक्ति तुल्यता के पैमाने पर देखें तो 33 प्रतिशत उत्पादन कर रहे थे । इन्हीं देशों में भारी क्षमता वाली विश्व की 56 प्रतिशत जनसंख्या भी निवास करती है ।
विश्व बैंक के अनुसार एशिया के विकासशील देशों में वास्तविक अर्थों में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 1980 के दशक में तीन प्रतिशत वार्षिक की दर से बढ़ा, 1980 के दशक में 4.9 प्रतिशत वार्षिक की दर से बढ़ा और नई शताब्दी में 54 प्रतिशत वार्षिक की दर से बढ रहा है ।
जापान, चीन, भारत और दक्षिण कोरिया मिलकर पूरे पूर्व और दक्षिण एशिया के सकल घरेलू उत्पाद का 85 प्रतिशत पैदा कर लेते हैं। अगर हम क्रय शक्ति की तुल्यता के हिसाब से देखें, तो चीन विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और उसके पीछे जापान व भारत । एशियाई क्षेत्र विश्व का सबसे ज्यादा पूंजी के अतिरेक वाला क्षेत्र है । वर्तमान में एशिया में लगभग 47 स्वतन्त्र सम्प्रभु राज्य हैं ।
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Essay # 2. एशिया के जागरण और विद्रोह का महत्व (Revolt of Asia : Significance):
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एशिया के विविध देश किस प्रकार पाश्चात्य देशों के साम्राज्य से मुक्त हुए, उनमें किस प्रकार चेतना उत्पन्न हुई, किस प्रकार उन्होंने अपनी आन्तरिक निर्बलताओं को दूर कर उन्नति के मार्ग की ओर कदम बढ़ाया और किस प्रकार वे विदेशी प्रभुत्व को नष्ट कर अपनी स्वतन्त्रता स्थापित करने में सफल हुए, आदि घटनाओं को पामर और पर्किन्स ने ‘एशिया का विद्रोह’ (Revolt of Asia) कहा है । वे लिखते हैं- ”एशिया का विद्रोह 20वीं शताब्दी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण विकास सिद्ध हो सकता है ।”
मेकमोहन बाल के अनुसार यह विद्रोह तीन मुख्य शक्तियों की उपज हैं:
प्रथम- यह विदेशी राजनीतिक नियन्त्रण के विरुद्ध उपनिवेशवाद के विरुद्ध विद्रोह है । यह आत्म-निर्णय का, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता का दावा है ।
द्वितीय- यह उन व्यक्तियों द्वारा एक सामाजिक और आर्थिक विद्रोह है जिन्हें अपनी दरिद्रता और दुर्भाग्य की तीव्रतर अनुभूति है ।
तृतीय- यह उपयुक्त नाम के अभाव में एक जातीय (Racial) विद्रोह कहा जा सकता है । यह पूरब का पश्चिम के विरुद्ध विद्रोह है ।
1947 में प्रथम एशियन सम्बन्ध सम्मेलन में पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा था- “एक परिवर्तन हो रहा है । एशिया पुन: अपने स्वरूप को पहचान रहा है । हम परिवर्तन के एक महान् युग में रह रहे हैं और नवीन युग का समावेश तब होगा जब एशिया अन्य महाद्वीपों सहित अपना उचित स्थान ग्रहण करेगा । विश्व इतिहास के इस संकट काल में एशिया निश्चित रूप से अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करेगा ।”
Essay # 3. एशियाई राष्ट्रवाद की विशेषताएं (Salient Features of the Asian Nationalism):
नव-जागरण के फलस्वरूप एशिया के सभी देशों में राष्ट्रवाद की प्रबल लहर आयी । जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में- ”एशिया के अन्दर आज राष्ट्रवाद सबसे बड़ी ताकत है । अनेक विचारक एशियाई राष्ट्रवाद का प्रधान स्रोत उन्नीसवीं सदी में यूरोप में विकसित राष्ट्रीयता की भावना को मानते हैं ।”
प्रो. सेन के शब्दों में- ”एशिया में राष्ट्रवाद का उदय पिछली सदी के यूरोपियन साम्राज्यवाद की प्रकृति से उत्पन्न हुआ है ।” लाइनर बरगर भी एशिया के राष्ट्रवाद को एशिया की संस्कृति पर आधारित नहीं मानते । यह सच है कि एशिया का राष्ट्रवाद एवं जागरण एशियाई नेतृत्व की प्रकृति और आन्तरिक क्षेत्र में आर्थिक राजनीतिक एवं सामाजिक समस्याओं से जूझता रहा है ।
विभिन्न प्रकार का नेतृत्व होने के कारण व जटिल आर्थिक व सामाजिक समस्याओं में उलझे रहने की वजह से एशिया का राष्ट्रवाद अपने लक्ष्य-एशियाई अस्तित्व (Asian Identity) को प्राप्त नहीं कर पाया है ।
फिर भी एशियाई राष्ट्रवाद की कतिपय प्रमुख विशेषताएं हैं, जो इस प्रकार हैं:
(1) पश्चिमी राष्ट्रवाद में साम्राज्यवाद जातिवाद तथा युद्ध-प्रवृत्ति पायी जाती है जबकि एशियाई राष्ट्रवादे ने इन सभी प्रवृत्तियों को त्याग दिया है ।
(2) एशिया में राष्ट्रीयता की भावना को न केवल राजनीतिक स्वतन्त्रता की प्राप्ति हेतु प्रयोग किया गया वरन् आर्थिक और सामाजिक सुधार आन्दोलन में भी इसे प्रयुक्त किया गया ।
(3) एशियाई राष्ट्रवाद की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह विशाल और सार्वभौमिक है । यह अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग, शान्ति मानवता और विश्व-बन्धुत्व की भावना का सहायक है । प्रथम एशियाई सम्मेलन में जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट कहा था कि- ”हम किसी संकीर्ण राष्ट्रीयता को नहीं चाहते । राष्ट्रीयता का प्रत्येक देश में स्थान है । इसका पोषण होना चाहिए किन्तु इसे आक्रमणात्मक नहीं बनने देना चाहिए इसे अन्तर्राष्ट्रीय विकास में बाधक भी नहीं होना चाहिए ।”
(4) एशियाई राष्ट्रवाद का आधार राजनीति के साथ-साथ परम्परागत धर्म संस्कृति और लोगों का सामाजिक दृष्टिकोण रहा है ।
(5) एशिया के सभी राष्ट्र चाहे उनके यहां नेतृत्व की प्रवृत्ति कैसी भी क्यों न रही हो अपनी स्वतन्त्रता तथा सार्वभौमिकता के प्रति पूरी तरह सचेत रहे हैं ।
(6) एशिया के राष्ट्र उपनिवेशवाद को विश्व-शान्ति के लिए खतरा समझते हैं ।
(7) एशिया के राष्ट्र जातिभेद व रंगभेद की नीतियों का विरोध करते हैं ।
(8) एशिया के राष्ट्र अपने निजी अस्तित्व को चरितार्थ करना उतना ही महत्वपूर्ण समझते हैं जितना कि उनकी दृष्टि में एशियाई अस्तित्व का महत्व है ।
Essay # 4. एशिया की समस्याएं (Problems of Asian Nations):
विगत वर्षों में एशिया के विविध देशों में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं । अग्रगामी लम्बी छलांग और सांस्कृतिक क्रान्ति के कारण चीन के समाजवाद (कम्युनिज्म) ने एक नया रूप प्राप्त कर लिया है, जो सोवियत संघ के कम्युनिज्म से भिन्न है ।
वियतनाम के युद्ध का अन्त हो गया है, चीन ने संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता प्राप्त कर ली है और अमरीका जैसा पूंजीवादी देश उसके साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील है । पाकिस्तान का अंग-भंग होकर बांग्लादेश नाम से एक नया राज्य स्थापित हो गया है ।
भारत-चीन तथा भारत-पाक सम्बन्धों में सुधार लाने के लिए वार्ताओं का कम चल पड़ा है । भारत में आयोजित सातवें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन तथा इण्डोनेशिया में आयोजित दसवें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन (1992) में एशिया के अधिकांश राष्ट्रों ने भाग लिया । दोनों कोरियाओं के मध्य युद्ध निषेध सन्धि हो गयी है और वे संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य बन गए हैं ।
कम्पुचिया के सम्बन्ध में भी समझौता हो गया है और पश्चिम एशिया में अरब-इजरायल समस्या के समाधान के लिए शान्ति वार्ताओं के अब सकारात्मक परिणाम सामने आने लगे हैं । एशिया के राष्ट्रों की अनेक समस्याएं हैं । महाशक्तियां उनके आन्तरिक मामलों में तथा आपसी विवादों में बराबर हस्तक्षेप करती रहती हैं ।
उनके सम्मुख पुनर्निर्माण और आर्थिक विकास की ज्वलन्त समस्याएं हैं । लगभग सभी देश जनसंख्या विस्फोट से पीड़ित हैं । संयुक्त राज्य जनसंख्या फण्ड के अनुसार अगस्त 1988 तक एशिया की जनसंख्या 3 अरब तक पहुंच चुकी थी जो कि पूरे विश्व की 5 अरब की आबादी के 60 प्रतिशत से अधिक है ।
इस समय एशिया की जनसंख्या में वृद्धि की दर 5 करोड़ 45 लाख प्रतिवर्ष है । इस दर से बढ़ रही जनसंख्या 2010 में 5 अरब तक पहुंच गयी जोकि विश्व की कुल जनसंख्या 7 अरब की आधी से भी अधिक है ।
यदि भोजन और अच्छे स्वास्थ्य के लिए समुचित दशाओं की व्यवस्था निकट भविष्य में एशिया में नहीं की गयी तो सम्भावना है कि 21वीं सदी के पूर्वार्द्ध में ही एशिया के निवासी बीमार और अकाल के कारण असमय ही काल के ग्रास बन जाएंगे । एशिया के सभी देश अभी औद्योगीकरण की दृष्टि से पिछड़ी अवस्था में हैं ।
Essay # 5. एशिया में महाशक्तियों की प्रतिस्पर्द्धा (Super Power Rivalry in Asia):
एशिया में नव-जागरण के साथ-साथ विश्व-युद्ध के पश्चात् महाशक्तियों में सक्रिय अभिरुचि भी दिखायी देती है । एशियाई राजनीति में अमरीका सोवियत संघ और चीन ने जितनी रुचि पिछले 30 वर्षों में दिखायी है उतनी शायद पहले कभी नहीं दिखायी । पश्चिमी एशिया दक्षिण-पूर्वी एशिया और हिन्द महासागर महाशक्तियों की शक्ति प्रतिस्पर्द्धा के केन्द्र बने हुए हें ।
1950 के कोरिया युद्ध में अमरीका चीन और सोवियत संघ का हस्तक्षेप स्पष्ट परिलक्षित होता था । 1947 में ही कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान में जो विवाद छिड़ा उसमें अमरीका ने हमेशा पाकिस्तान की पीठ थपथपायी । 1956 में जब मिस्र ने स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया तो ब्रिटेन एवं फ्रांस ने मिस्र पर आक्रमण कर दिया ।
पश्चिमी एशिया में जून 1967 में होने वाले अरब-इजरायल युद्ध में जहां सोवियत संघ ने अरबों का पक्ष लिया वहीं अमरीका ने इजरायल का समर्थन किया । हिन्द महासागर में अमरीका ने डियागो गार्सिया पर सैनिक अड्डे का निर्माण किया तो सोवियत संघ भी 1968 से ही इस क्षेत्र में सक्रिय हो गया ।
सोवियत संघ के पास हिन्द महासागर में कोई स्थायी अड्डे तो नहीं रहे परन्तु उसकी पनडुब्बियां और लडाकू जहाज बराबर तैरते रहते थे । हिन्द महासागर में चीन की नौ-सेना का भी दखल है किन्तु शक्ति-सन्तुलन की दृष्टि से वह अधिक महत्व नहीं रखता । एशिया में सबसे अधिक चलने वाला युद्ध वियतनाम युद्ध था ।
यह युद्ध वस्तुत: एक ओर अमरीका और दूसरी तरफ रूस-चीन समर्थन से लड़ा गया । अमरीका 1965 से ही वियतनाम युद्ध में पूरी तरह कूद चुका था । 1971 की जुलाई में कीसिंगर की चीन यात्रा के बाद जब यह स्पष्ट हो गया कि अमरीका और चीन की व्यूह-रचना दक्षिणी-पूर्वी एशिया में सोवियत प्रभाव को रोकने के लिए है तो सोवियत संघ ने भारत के साथ वह सन्धि सम्पन्न कर ली जिस पर दोनों देश लम्बे समय से विचार-विमर्श कर रहे थे ।
दिसम्बर 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान अमरीका ने प्रशान्त महासागर में स्थित सातवें बेड़े के परमाणु युद्धपोत ‘एण्टरप्राइज’ को बंगाल की खाड़ी में भेजकर युद्ध पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने की कोशिश की थी । दक्षिण-पूर्वी एशिया में कम्पुचिया लम्बे समय तक समस्या का केन्द्र बना रहा है । 1978 में वहां वियतनाम ने सैनिक हस्तक्षेप किया और उसके द्वारा समर्थित हेग सामरिन की सरकार सत्तारूढ़ हुई ।
परन्तु चीन ने इसकी तीव्र निन्दा की । सोवियत संघ के अफगानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप तथा कम्पूचिया में सोवियत संघ के समर्थन से वियतनाम के हस्तक्षेप से बहुत-से देश उससे सशंकित हो गए । अमरीका ने पाकिस्तान को भारी सैनिक सहायता देने का निर्णय किया । खबर है कि चीन ने पाकिस्तान को परमाणु शस्त्र बनाने की तकनीक जुटाने में चुपके-चुपके काफी मदद की ।
कतिपय विद्वानों का मानना है कि पूर्व में एशिया दो महाशक्तियों-सोवियत संघ और अमरीका-का संघर्ष-स्थल बन गया था भविष्य में वह चार महाशक्तियों-रूस, अमरीका, चीन और जापान-के चतुष्कोणीय संघर्ष का केन्द्र बनेगा ।
एशिया में सक्रिय रुचि दिखाते हुए अमरीका ने ‘आइजनहॉवर सिद्धान्त’ प्रतिपादित किया तो सोवियत नेता ब्रेझनेव ने ‘एशियाई सामूहिक सुरक्षा’ का विचार प्रस्तुत किया । जून, 1969 में सोवियत संघ ने इस हिस्से में अपनी रुचि को ‘सामूहिक सुरक्षा’ के नाम से प्रकट किया ।
यद्यपि ब्रेझनेव ने यह बात स्पष्ट नहीं की कि यह सामूहिक सुरक्षा किस प्रकार के भय के लिए है तथापि सोवियत संघ की यह नयी नीति ‘यथास्थिति’ बनाए रखने के लिए थी जिससे कि इस क्षेत्र में चीन के प्रभाव को रोका जा सके । जापान और चीन के बीच आर्थिक सम्बन्धों का विकास इस बात की ओर संकेत करता है कि अपनी आर्थिक सैन्य सीमाओं एवं आवश्यकताओं से प्रभावित ये राष्ट्र सम्मिलित रूप से इस क्षेत्र में विश्व महाशक्तियों के प्रभाव को कम करना चाहेंगे ।
जापान के आर्थिक चमत्कार ने जापान को एशिया में ही नहीं वरन् विश्व स्तर पर भी आर्थिक शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है । अपनी आर्थिक प्रगति के कारण जापान किसी भी रूप से उपेक्षित नहीं किया जा सकता ।
साम्राज्यवादियों ने एशिया के मर्मस्थलों पर इस प्रकार अड्डे जमाए हैं जिससे एशियाई राष्ट्र कभी महाद्वीपीय एकता की बात सोच ही न सके । पश्चिमी एशिया में इजरायल, पूर्वी एशिया में दक्षिण कोरिया, थाईलैण्ड, सिंगापुर, आदि तथा दक्षिणी एशिया में पाकिस्तान व उत्तर में जापान पश्चिमी साम्राज्यवाद के गढ़ हैं ।
इसी प्रकार सोवियत संघ ने क्रमश: सीरिया, उत्तरी कोरिया, वियतनाम, लाओस, कम्बोडिया व अफगानिस्तान, आदि में अपनी डैने फैला रखी थीं । हिन्दमहासागर अमरीका व सोवियत संघ की सामरिक स्पर्द्धा का केन्द्र बन गया । अरब जगत के तेल को किसी हालत में ब्रिटेन, फ्रांस व अमरीका मुक्त करने की मनःस्थिति में नहीं हैं ।
एशियाई-सहयोग संवाद:
एशियाई राष्ट्रों में सहयोग के नये मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति उभर रही है । 22 सदस्यीय एशियाई सहयोग संवाद (Asian Cooperation Dialogue) की तीसरी बैठक 21-22 जून, 2004 को चीन के शांडोग राज्य के तटीय शहर क्विंगदाओ में सम्पन्न हुई । दो दिन चले इस सम्मेलन में एशिया के विकास सम्बन्धी विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई । ऊर्जा एवं कृषि विकास के मुद्दे इसमें मुख्यत: शामिल थे । सम्मेलन की समाप्ति पर जारी दो घोषणा पत्रों में एक में समृद्ध एशिया के निर्माण का संकल्प किया गया तो दूसरा ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता लाने का प्रारूप है ।
ज्ञातव्य है कि एशियाई सहयोग संवाद का विचार थाईलैण्ड के प्रधानमन्त्री थाकसिन शिनवात्रा ने वर्ष 2000 में एशियाई राजनीतिक दलों के मनीला में सम्पन्न एक सम्मेलन में दिया था । 23-24 जुलाई 2001 को हनोई में आसियान के 34वें विदेश मन्त्री सम्मेलन में इसके लिए आम सहमति बनी ।
इसी कड़ी में एशियाई सहयोग संवाद की पहली मंत्रीस्तरीय बैठक थाईलैण्ड में चा-अम में 18-19 जून 2002 को सम्पन्न हुई जिसमें केवल 18 देशों के विदेश मन्त्री सम्मिलित हुए । इसका दूसरा मत्रिस्तरीय सम्मेलन 21-22 जून, 2003 को चियांग माई में सम्पन्न हुआ जिसमें ‘एशिया की एकता’ का नारा दिया गया ।
एशियाई देशों में बढ़ रही है आर्थिक असमानता (एशियाई विकास बैंक वार्षिक आकलन, 8 अगस्त 2007):
विकासशील एशियाई देशों में धनी लोग और तेजी से धनी होते जा रहे हैं जबकि गरीबों का हाल बेहाल है । लोगों के जीवन स्तर में लगातार बढ़ रही असमानता के कारण विश्व के इस सबसे गतिशील क्षेत्र के विकास की प्रक्रिया बाधित हो सकती है क्योंकि वैश्वीकरण से पढ़े-लिखे लोगों को ही लाभ हो रहा है वहीं कम दक्षता वाले लोगों को इसका दण्ड झेलना पड़ रहा है ।
एशियाई विकास बैंक (एडीबी) के वार्षिक सांख्यिकी आकलन में कहा गया है कि इस क्षेत्र में गरीबी की दर में कमी आने के बावजूद गरीब लोग तीव्र विकास के मामले में पीछे होते जा रहे हैं । इस रिपोर्ट को चीन की राजधानी पेइचिंग में जारी किया गया ।
रिपोर्ट में कहा गया है कि इसका मतलब यह नहीं है कि एशियाई देशों को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत होने की प्रक्रिया या बाजार सुधार की अपनी नीति से पीछे हट जाना चाहिए बल्कि उन्हें ऐसी नीतियां बनानी चाहिए जिससे विकास के इस रुख को बदला जा सके ।
एडीबी ने कहा है कि गरीबों की आय बढ़ाने के लिए कृषि में सरकारी निवेश बढ़ाना चाहिए । ग्रामीण क्षेत्रों और अनौपचारिक शहरी अर्थव्यवस्था में रोजगार के अवसर बढ़ाने होंगे और उच्च शिक्षा के बजाय प्राथमिक शिक्षा पर जोर देना होगा ।
एशिया के प्रभावशाली धनी लोगों के हाथ में शक्तियों के केन्द्रित होने की ओर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता जताते हुए इस रिपोर्ट में कहा गया है कि एशियाई देशों की सरकारें आय और सन के कुछेक लोगों की तिजोरियों में बंद होने के कारण सामाजिक ताने-बाने को होने वाली क्षति-विकास को बढ़ावा देने वाली नीतियों और संस्थाओं पर पड़ने वाले इसके नकारात्मक प्रभाव की पहचान करें ।
विकासशील एशियाई देशों की सरकारों को ऐसी नीतियां बनाने की चुनौती स्वीकार करनी होगी ताकि आय का इस तरह वितरण किया जा सके जिससे विकास बाधित नहीं हो पाए ।
21वीं शताब्दी एशियाई शताब्दी:
एशियाई देशों की प्रगति के आधार पर कतिपय विद्वानों ने घोषणा की है कि 21वीं शताब्दी ‘एशियाई शताब्दी’ होगी । ‘एशियाई शताब्दी’ के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि विगत दो दशकों में एशियाई देशों-प्रमुख रूप से चीन, भारत, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया व जापान ने उल्लेखनीय आर्थिक व तकनीकी उन्नति की है । आज एशिया के 48 देशों में विश्व की 60 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है ।
उत्तरी अमेरिका व यूरोपीय संघ के बाद एशिया विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है । वैश्विक आर्थिक मन्दी के दौरान वैश्विक अर्थव्यवस्था के प्रबन्धन का दारोमदार जी-8 के सदस्यों पर था लेकिन इस संकट के बाद जी-20 को जो महत्व प्राप्त हुआ उससे यह स्पष्ट हो गया कि शीघ्र ही जी-20 समूह पश्चिम के जी-8 का स्थान ले लेगा । जी-20 समूह में एशिया के पांच सबसे बड़े देशों के साथ सऊदी अरब की महत्वपूर्ण भूमिका है ।
अब यह कहा जाने लगा है कि वर्ष 2025 तक चीन अमरीका के बराबर की अर्थव्यवस्था होगा तथा 2050 तक वह विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होगा । आज विश्व की अन्य प्रमुख समस्याओं-जलवायु परिवर्तन, विश्व व्यापार वार्ताओं तथा सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों की पूर्ति आदि में एशिया के देशों विशेषकर चीन व भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है ।
भारत व जापान जहां जर्मनी व ब्राजील के साथ मिलकर सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता की दावेदारी कर रहे हैं वहीं भारत व चीन अन्य देशों के साथ मिलकर अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं-अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष व विश्व बैंक के सुधार की मांग कर रहे हैं ।
निष्कर्ष:
पिछले कुछ समय से भारत वैश्विक कूटनीति में तेजी लाया है और वह जापान व चीन को लेकर जिस तरह से आगे बढ़ना चाह रहा है उससे लगता है कि ये तीनों देश अब संयुक्त रूप से एशिया का नेतृत्व करने की दिशा में बढ़ रहे हैं ।
यदि ये तीनों देश अपने परम्परागत ऐतिहासिक संघर्षों को भुलाकर भू-क्षेत्रीय विवादों के समाधान शान्तिपूर्ण ढंग से खोजने की मानसिकता बनाने में सफल हो जाते हैं, तो ऐसी एशियाई कूटनीति का उदय होगा, जो वैश्विक कूटनीति को नई दिशा देने में समर्थ होगी, लेकिन क्या ऐसा हो सकेगा ?
हाल में कुछ चीनी विशेषज्ञों की तरफ से यह राय रखी गई थी कि भारत, चीन और जापान एशिया को नेतृत्व प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं बशर्ते कि वे अपनी एकजुटता का परिचय देते हुए रणनीति तैयार करें । उनका कहना था कि आने वाले समय में यूरोपीय संघ की तर्ज पर एशियाई संघ के निर्माण के लिए तीनों देशों का साझा नेतृत्व जरूरी है ।
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सवाल यह उठता है कि यदि ब्रिटेन के उपनिवेश संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन में साझा रणनीति बन सकती है और ये विश्व के भौतिक व प्राकृतिक संसाधनों पर नियन्त्रण की साझा रणनीति अपना सकते हैं । लम्बे वक्त तक दुश्मन रहे जर्मनी और फ्रांस मिलकर यूरोपीय संघ को नया आयाम दे सकते हैं ।
अमेरिका और जापान की दोस्ती जापान और प्रशान्त क्षेत्र का नक्शा बदल सकती है तो फिर भारत जापान और चीन इतिहास के उन अध्यायों को क्यों नहीं भुला सकते ? साझा कूटनीति के विकास में सबसे बड़ी बाधा चीन और जापान के मध्य भू-क्षेत्रीय विवाद हे जिसमें सेंकाकू द्वीप समूह तथा तेल क्षेत्र शामिल हैं ।
यह विवाद जापान और चीन के ‘एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक सी जोन’ को आच्छादित करता है । इसके लिए जापान चीन को दोषी मानता है और चीन जापान को । जापान चीन का विवादित इतिहास भी है जिसमें खासतौर पर जापान के पूर्व एशिया में किए गए सैनिक अभियान हैं, जो उसने सैन्यवादी काल में किए थे ।
भारत और चीन में सीमा विवाद है । चीनी रेड आर्मी के जवान भारतीय सीमा में प्रवेश कर जाते हैं उसका पाकिस्तान प्रेम भारत विरोधी है और वह स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स की नीति के द्वारा भारत को घेरने का प्रयास कर रहा है ।
बहरहाल, अब तक चीनी महत्वाकांक्षाएं एशिया में अस्थिरता का वातावरण उत्पन्न करती रही हैं, लेकिन अब चीन को यह महसूस होने लगा है कि भारत और जापान के प्रति उसे अपना दृष्टिकोण बदलना होगा । फिलहाल यदि ये देश इतिहास के कुछ अध्यायों को भुलाने की क्षमता विकसित कर लेते हैं और प्रतिस्पर्धी की बजाय सहयोगी बन जाते हैं तो एशियाई कूटनीति 21वीं सदी को एक नई दिशा देने में अवश्य ही सफल होगी । देखना यह है कि युवा भारत बूढ़े चीन व जापान की मानसिकता को बदलने में किस प्रकार की भूमिका निभा पाता है ?