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Here is an essay on ‘Diplomacy’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Diplomacy’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on Diplomacy
Essay Contents:
- कूटनीति या राजनय (Introduction to Diplomacy)
- कूटनीति या राजनय का अर्थ एवं स्वरूप (The Meaning and Nature of Diplomacy)
- कूटनीति के लक्ष्य (Objectives of Diplomacy)
- कूटनीति के कार्य (The Functions of Diplomacy)
- कूटनीतिक वार्ता के उद्देश्य (The Objects of Diplomatic Negotiation)
- कूटनीति के साधन (The Means of Diplomacy)
- कूटनीति या राजनय के यन्त्र (Instruments of Diplomacy)
- कूटनीति तथा विदेश नीति (Diplomacy and Foreign Policy)
- कूटनीति और राष्ट्रीय शक्ति (Diplomacy and National Power)
- राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि में कूटनीतिज्ञों का योगदान (Diplomat’s Contribution in Promoting National Interest)
- कूटनीति के कार्य (Kinds and Classes of Diplomatic Envoys)
- कूटनीति की सीमाएं (Limitations of Diplomacy)
- कूटनीति की अवनति (Decline of Diplomacy)
- कूटनीति : नूतन प्रवृत्तियां (Diplomacy : New Trends)
- राजनय की क्रान्तिकारी शैली (Radical Style of Diplomacy)
- कूटनीति में नयी तकनीकें और नए विकास (New Techniques and Development in Diplomacy)
- दुकानदार जैसी कूटनीति बनाम यौद्धिक कूटनीति (Shop-Keeper Diplomacy Vs. Warrior Diplomacy)
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में कूटनीति का भविष्य : मॉरगेन्थाऊ के विचार (Future of Diplomacy in International Politics: Morgenthau’s Views)
- कूटनीति का बढ़ता हुआ महत्व (Diplomacy: Increasing Importance)
Essay # 1. कूटनीति या राजनय (Introduction to Diplomacy):
टस्कनी के भूतपूर्व ड़च्युक ने जो बहुत ही चतुर एवं उदार शासक था एक बार वेनिस के राजदूत से जो रोम में अपनी यात्रा के समय रात्रि में उसके साथ ठहरा था शिकायत की थी कि वेनिस के प्रजातन्त्र ने उसके दरबार में रेजीडेंट के रूप में एक निरुपयोगी मनुष्य को भेज दिया था जिसमें न तो निर्णय की क्षमता थी न ज्ञान और न कोई आकर्षक व्यक्तिगत गुण ।
राजदूत ने उत्तर में कहा था- ‘मुझे इस बात से कोई आश्चर्य नहीं है वेनिस में हमारे यहां बहुत-से मूर्ख हैं ।’ जिनको सुनकर ग्रांड डच्युक ने उत्तर दिया था: ‘हमारे यहां फलोरेंस में भी मूर्ख हैं परन्तु हम उन्हें बाहर न भेजने की सावधानी बरतते हैं ।’ अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में कूटनीति (राजनय) का अत्यधिक महत्व है ।
राष्ट्रीय शक्ति के जितने भी तत्व हैं कूटनीति उन्हें गतिशीलता एवं एकरूपता प्रदान करती है । राष्ट्रीय हितों की प्रगति के लिए शक्ति के विभिन्न तत्वों को अधिक प्रभावी बनाना कूटनीति द्वारा सम्भव हो सकता है । इसलिए कूटनीति को स्वयं भी राष्ट्रीय शक्ति का एक प्रमुख तत्व माना जाता है । इसके अलावा कूटनीति राष्ट्रीय हित की अभिवृद्धि का प्रमुख साधन है । विदेश नीति को चाहे कितनी ही अच्छी तरह से योजनाबद्ध क्यों न किया हो इसकी सफलता उत्तम कूटनीति पर निर्भर करती है ।
मॉरगेन्थाऊ के अनुसार- ”किसी राष्ट्र के वैदेशिक मामलों का इसके कूटनीतिज्ञों द्वारा संचालन करना राष्ट्रीय शक्ति के लिए शान्ति के समय उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि युद्ध के समय राष्ट्र शक्ति के लिए सैनिक नेतृत्व द्वारा चक्रव्यूह व दांव-पंचों का संचालन । यह वह कला है जिसके द्वारा राष्ट्रीय शक्ति के विभिन्न तत्वों को अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में उन मामलों में अधिक से अधिक प्रभावशाली रूप में प्रयोग में लाया जाए जोकि हितों में सबसे स्पष्ट रूप से सम्बन्धित हैं ।”
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कूटनीति राष्ट्रीय हितों को बढ़ाने में कितनी सहायक होती है यह बात जर्मनी और इटली के उदाहरणों से स्पष्ट हो जाएगी । 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में दोनों देश अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बंटे हुए थे । बिस्मार्क की कूटनीति ने न केवल जर्मनी के विभिन्न राज्यों को एक शक्तिशाली राज्य के रूप में संगठित किया अपितु बीस वर्ष तक उसके विरोधियों में फूट डालकर और उसका ध्यान दूसरी ओर बंटाकर जर्मनी को यूरोप की एक महान् शक्ति बनाने में सफलता प्राप्त की । कैवूर के राजनयिक कौशल से इटली का एकीकरण हुआ, वह यूरोप का एक शक्तिशाली राज्य बना ।
परस्परवादी विचारधारा के अनुसार कूटनीतिक व्यवहार का प्रमुख उद्देश्य राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करके एक राज्य के राष्ट्रीय हितों की रक्षा एवं अभिवृद्धि करना है । इसके लिए प्रत्येक राज्य अपने राजनयिक अन्य राज्यों को भेजता है । ये राजनयिक अपने कुशल बुद्धिपूर्ण एवं सद्भावनापूर्ण व्यवहार द्वारा स्वागतकर्ता राज्य की जनता और सरकार का दिल जीतने का प्रयास करते हैं ।
कूटनीति (राजनय) अन्तर्राष्ट्रीय परिवार के विभिन्न सदस्यों के बीच सम्बन्ध जोड़ने का सूत्र है । इसके द्वारा अनेक सम्मावित अवसरों पर युद्ध रोका जाता है, तथा राज्यों के आपसी विवादों को शक्ति प्रयोग के स्थान पर समझौते एवं बातचीत द्वारा हल किया जाता है । आधुनिक कूटनीति सैनिक शक्ति की भांति, अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के व्यवस्थित हल का साधन होने के साथ ही राज्य की शक्ति बढ़ाने का एक शस भी है ।
Essay # 2. कूटनीति या राजनय का अर्थ एवं स्वरूप (The Meaning and Nature of Diplomacy):
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‘कूटनीति’ शब्द अंग्रेजी के ‘डिप्लोमेसी’ का समानार्थी है । सन् 1796 में एडमण्ड बर्क ने इस शब्द का प्रयोग किया था । ‘डिप्लोमेसी’ शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के ‘डिप्लाउन’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ मोड़ना अथवा दोहरा करना (To fold) होता है ।
रोमन साम्राज्य में पासपोर्ट एवं सड़कों पर चलने के अनुमति-पत्र आदि दोहरे करके ही दिए जाते थे । ये पासपोर्ट तथा अनुमति-पत्र धातु के पत्रों पर खुदे रहते थे जिनको ‘डिप्लोमा’ कहा जाता था । धीरे-धीरे ‘डिप्लोमा’ शब्द का प्रयोग सभी सरकारी कागजातों के लिए होने लगा ।
सन् 1693 में लैबनीट्ज तथा 1726 में डच्यूमाण्ट ने सन्धियों और शासकीय लेख-पत्रों का जो कोश तैयार किया था उसमें ‘डिप्लोमेटिक्स’ तथा ‘डिप्लोमेटिक’ शब्दों का प्रयोग उन मूल राज्य प्रलेखों के लिए किया था जिनका सम्बन्ध अन्तर्राष्ट्रीय विषयों से होता था ।
‘कूटनीतिक निकाय’ उन समस्त राजदूतों दूतों तथा कर्मचारियों के लिए प्रयुक्त होने लगा था जो विदेशों की राजधानी में एक स्थायी दूतावास के सदस्य होते थे तथा ‘कूटनीतिक सेवाएं’ शब्द सार्वजनिक सेवाओं की उस विशिष्ट शाखा के लिए प्रयोग किया जाने लगा जो विदेशों में स्थायी दूत मण्डलों के लिए कर्मचारियों को प्रशिक्षण देती थी ।
हेरल्ड निकल्सन के अनुसार- ‘डिप्लोमेसी’ शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में किया जाता है । कभी-कभी इसका प्रयोग विदेश नीति के समानार्थक रूप में किया जाता है, जैसे इस कथन में कि ‘दक्षिण-पूर्वी यूरोप में ब्रिटिश कूटनीति में ओज का अभाव है ।’
कभी इस शब्द द्वारा सन्धि वार्ता को इंगित किया जाता है जैसे ‘इस समस्या को कूटनीति द्वारा सुलझाया जा सकता है ।’ ‘कूटनीति’ सन्धि वार्ता की प्रक्रिया एवं यन्त्र को भी इंगित करता है । कभी-कभी विदेश सेवा की एक शाखा को कूटनीति कह दिया जाता है । कूटनीति शब्द उस अमूर्त गुण या देन के लिए भी प्रयोग होता है जो अन्तर्राष्ट्रीय समझौता वार्ताओं के संचालन में कौशल का अर्थ ध्वनित करता है ।
हेरल्ड निकल्सन के शब्दों में- अपने श्रेष्ठ अर्थों में अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि वार्ताओं में कौशल का प्रयोग कूटनीति है, तथा अपने निकृष्ट रूप में कूटनीति, छल, छद्म या चालाकी का द्योतक है । सर अर्नेस्ट सेटो ने कूटनीति की परिभाषा की है- ‘कूटनीति स्वतन्त्र राज्यों की सरकारों के बीच अधिकारी सम्बन्धों के संचालन में बुद्धि और चातुर्य का प्रयोग है ।’ आर्गेन्सकी के अनुसार- ‘कूटनीति दो या दो से अधिक राष्ट्रों के सरकारी प्रतिनिधियों के बीच होने वाली सन्धि वार्ता की प्रक्रिया को इंगित करती है ।’
क्विन्सी राइट ने कूटनीति को दो रूपों में परिभाषित किया है- लोकप्रिय अर्थ में तथा विशेष अर्थ में । लोकप्रिय अर्थ में कूटनीति का अर्थ है- ‘किसी सन्धिवार्ता या आदान-प्रदान में चातुरी धोखेबाजी एवं कौशल का प्रयोग । अपने विशेष अर्थ में यह सन्धिवार्ता की वह कला है जो युद्ध की सम्भावनापूर्ण राजनीतिक व्यवस्था में -नतम लागत से अधिकतम सामूहिक लक्ष्यों की उपलब्धि कर सके ।’
के. एम. पणिक्कर के शब्दों में- “अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रयुक्त कूटनीति अपने हितों को दूसरे देशों से आगे रखने की एक कला है ।” पेडिलफोर्ड तथा लिंकन के शब्दों में- ”कूटनीति को प्रतिनिधित्व एवं सन्धिवार्ता की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके द्वारा राज्य शान्तिकाल में परस्पर सम्पर्क में रहते हैं ।” मॉवट के अनुसार- “कूटनीति राज्यों का प्रतिनिधित्व तथा समझौते करने की कला है ।”
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में कूटनीति न तो बुद्धि और चातुर्य का प्रयोग है, न समझौता वार्ता करने की व्यवस्था का नाम है और न यह किसी देश का विदेश विभाग है । कूटनीति का काम है सहमति पर पहुंचना । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में कूटनीति का प्रसंग वहीं आ सकता है जहां मतभेद मौजूद हों ।
यदि पूर्ण सहमति हो तो वहां इसका कोई प्रसंग नहीं होगा । कूटनीति का प्रयोग वहां होता है जहां असहमति या गलतफहमी के वास्तविक या सम्भावित क्षेत्र मौजूद हों । कूटनीति ऐसे क्षेत्र में कार्य करती है जहां बल प्रयोग की सम्भावनाएं मौजूद हों और कूटनीति का काम उन सम्भावनाओं को टालना है ।
कूटनीति में सफलता का अर्थ है अन्य राष्ट्रों को अपने दृष्टिकोण के अनुकूल बनाने में सफलता प्राप्त करना । कूटनीति ऐसे विरोधी हितों में सामंजस्य लाने की तकनीक है जो पहले तो मतभेद के प्रासंगिक तथ्यों का ठीक-ठीक पता लगाती है और फिर उनके समाधान की शर्तें निर्धारित करती है ।
कूटनीति की उपर्युक्त परिभाषाओं के सन्दर्भ में निम्नलिखित तब स्पष्ट होते हैं:
i. कूटनीति अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की व्यवस्था है,
ii. यह समझौते और वार्ता की कला है,
iii. यह राष्ट्रीय हित की अभिवृद्धि का साधन है ।
Essay # 3. कूटनीति के लक्ष्य (Objectives of Diplomacy):
युद्ध एवं शान्तिकाल में कूटनीति राष्ट्रीय हित की अभिवृद्धि का प्रमुख साधन है । राष्ट्रीय हित के अन्तर्गत देश की सुरक्षा जन-कल्याण तथा अन्य लाभ सम्मिलित हैं । के. एम. पणिक्कर ने लिखा है कि- ”समस्त कूटनीतिक सम्बन्धों का मूलभूत उद्देश्य अपने देश के हितों की रक्षा करना होता है और हर राज्य का मूलभूत हित स्वयं अपनी सुरक्षा करना होता है परन्तु इस सर्वोपरि लक्ष्य के अतिरिक्त आर्थिक हित व्यापार और अपने देशवासियों की रक्षा भी ऐसे मह1त्वपूर्ण विषय हैं जिनका ध्यान रखना कूटनीति का उद्देश्य है ।”
के. एम. पणिक्कर ने कूटनीति के प्रमुख लक्ष्य इस प्रकार बताए हैं:
a. मित्र राष्ट्रों के साथ सम्बन्धों को मजबूत बनाना और जिन देशों के साथ मतभेद हों उनसे यथासम्भव तटस्थ रहना,
b. अपने राष्ट्रीय हित की विरोधी शक्तियों को तटस्थ बनाए रखना,
c. अपने विरुद्ध दूसरे राष्ट्रों का एक गुट बनने से रोकना ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में कूटनीति के प्रमुख लक्ष्य निम्नलिखित हैं:
1. राष्ट्रीय हित की रक्षा:
कूटनीति का मुख्य लक्ष्य अपने राज्य के हितों की रक्षा करना है । प्रत्येक राज्य का बुनियादी हित अपनी सीमाओं की रक्षा होता है । इसके अतिरिक्त आर्थिक हित, व्यापार, राष्ट्रिकों की रक्षा आदि भी महत्वपूर्ण विषय हैं तथा कूटनीति इनकी सुरक्षा का प्रयास करती है ।
2. राज्य की अखण्डता की रक्षा:
कूटनीति का यह महत्वपूर्ण लक्ष्य है कि वह अपने देश की प्रादेशिक अखण्डता के साथ राजनीतिक एवं आर्थिक अखण्डता की भी रक्षा करे । आजकल केवल सैनिक आक्रमण से ही राज्य की सुरक्षा खतरे में नहीं पड़ती वरन् सामाजिक महत्व के क्षेत्रों पर नियन्त्रण करके आर्थिक दबाव एवं देश में राजनीतिक प्रभाव बढ़ाकर भी उसकी सुरक्षा को खतरे में डाला जा सकता है ।
3. मित्रों से सम्बन्ध बढ़ाना तथा शत्रुओं को तटस्थ करना:
कूटनीति अपने राष्ट्रीय हितों की उपलब्धि के लिए मित्र देशों के साथ अपने मैत्री सम्बन्धों को दृढ़ बनाती है तथा ऐसी शक्तियों को तटस्थ बनाती है जिनसे राष्ट्रीय हितों को हानि पहुंचने की सम्भावना हो ।
4. विरोधी शक्तियों के गठबन्धन को रोकना:
कूटनीति का एक लक्ष्य यह है कि अन्य राज्यों को अपने राज्य के विरुद्ध संगठित होने से रोके । इसके लिए उसे कुछ राज्यों के साथ समझौता करना होगा कुछ को समर्थन देना होगा तथा कुछ को तटस्थ रखना होगा ।
5. युद्ध का संचालन:
युद्ध आज भी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का एक तथ्य है । यदि युद्ध छेड़ना आवश्यक बन जाए तथा सन्धि वार्ता के सभी साधन असफल हो जाएं तो कूटनीति के दायित्व का रूप बदल जाता है । के. एम पणिक्कर के अनुसा- ”प्रभावशाली कूटनीति के बिना न तो युद्ध लड़े जा सकते हैं और न जीते जा सकते हैं । युद्ध से पूर्व गलत कूटनीतिक तैयारियां एवं युद्धकाल में प्रभावहीन कूटनीति एक शक्तिसम्पन्न राष्ट्र की हार एवं उसके विनाश का कारण बन जाता है ।”
6. आर्थिक एवं व्यावसायिक लक्ष्य:
पणिक्कर के शब्दों में- ‘पिछले तीस वर्षों में व्यावसायिक कूटनीति अन्तर्राष्ट्रीय जीवन का एक सर्वाधिक सक्रिय पहलू बन गया है ।’ अब प्रत्येक राज्य यह जान गया है कि व्यापार को राजनीतिक कार्यों में प्रमुख साधन के रूप में प्रयुक्त किया जाए । प्रत्येक राज्य दूसरे देशों में अपने उत्पादनों के लिए बाजार तलाश करता है स्पर्द्धा को घटाता है आर्थिक सतर्कता रखता है तथा अपने हितों की रक्षा के लिए अन्य उचित कदम उठाता है ।
7. सद्भावना की स्थापना:
राष्ट्रीय हित की उपलब्धि के लिए कूटनीति को अपने सभी उपलब्ध साधनों द्वारा दूसरे देशों के साथ सद्भावनापूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने चाहिए । पामर एवं पर्किन्स ने लिखा है- “विदेश नीति की भांति कूटनीति का उद्देश्य, सम्भवत: शक्ति साधनों द्वारा लेकिन यदि युद्ध को नहीं रोका जा सका तो सैनिक गतिविधियों की सहायता प्रदान कर, राष्ट्रीय सुरक्षा प्रदान करना है । कूटनीति जैसा कि निकल्सन ने कहा है युद्ध काल में समाप्त नहीं हो जाती हालांकि युद्ध काल में उसे अलग भूमिका निभानी पड़ती है तथा विदेश मन्त्रियों की तरह कूटनीतिज्ञों का कार्यक्षेत्र अधिक व्यापक हो जाता है । इस शताब्दी के दो विश्वयुद्ध इस धारणा की पुष्टि करते हैं ।”
Essay # 4. कूटनीति के कार्य (The Functions of Diplomacy):
कौटिल्य के अनुसर कूटनीति के कार्य हैं: अपने राज्य का सन्देश अन्य राज्य को तथा अन्य राज्य का सन्देश अपने राज्य को देना सन्धियों का पालन कराना अपने राज्य की शक्ति का प्रदर्शन करना मित्र बढ़ाना तथा शत्रुओं में फूट पैदा करना आदि- आदि ।
के. एम. पणिक्कर के अनुसार कूटनीति का एक लक्ष्य अपने देश के प्रति दूसरे देशों की सद्भावना अर्जित करना है, जिसके लिए चार बातें आवश्यक हैं:
i. दूसरे देश उस देश की नीतियों को ठीक प्रकार समझें,
ii. ये उनके प्रति सम्मान के भाव रखें,
iii. वह देश दूसरे देशों के न्यायोचित हितों को जानें तथा
iv. वह देश ईमानदारी का व्यवहार करें ।
मॉरगेन्थाऊ ने कूटनीति के चार कार्य बताए हैं:
a. कूटनीति का सबसे पहला काम राज्य की शक्ति को ध्यान में रखकर अपने लक्ष्यों को निर्धारित करना है,
b. उसका काम दूसरे राज्य की शक्ति का भी वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करना है,
c. वह इस बात का भी पता लगाए कि विभिन्न राज्यों के लक्ष्य और उसके अपने राज्य के लक्ष्य एक-दूसरे के साथ किस सीमा तक मेल खाते हैं,
d. अन्त में कूटनीति को अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए समुचित उपाय: समझौता, समझाना-बुझाना, बल प्रयोग की धमकी, आदि काम में लानी चाहिए ।
शस्त्र एवं मित्र युद्ध के औजार हैं । कूटनीति का कार्य बारूद को सूखी रखना तथा मित्रों को प्राप्त करना एवं लोगों को प्रभावित करना है ।
संक्षेप में, कूटनीति के प्रमुख कार्य निम्न प्रकार हैं:
1. सन्धि वार्ता:
कूटनीति अपने तथा दूसरे राज्य के बीच विभिन्न विषयों पर समझौता वार्ता करने का महत्वपूर्ण माध्यम है । कूटनीतिज्ञ न केवल अपने उस राज्य से सम्बन्ध रखता है जिसके लिए वह भेजा गया है, वरन् अन्य राज्यों के साथ भी सन्धि वार्ता कर सकता है । कूटनीतिज्ञ अपने राष्ट्रीय हित में तर्क प्रस्तुत करता है । वह समझौता वार्ताओं में अपने देश के पक्ष में सौदेबाजी करता है तथा अपने देश के पक्ष में अधिक लाभ अर्जित करने का प्रयत्न करता है ।
2. निरीक्षण:
कूटनीति का अन्य महत्वपूर्ण कार्य दूसरे राज्य की राजनीतिक परिस्थितियों का निरीक्षण करते रहना और उसका पूरा प्रतिवेदन अपनी सरकार को भेजना है । दूसरे देश के गुप्त भेदों को जानने के लिए तथा अपने हितों की पूर्ति के लिए कभी-कभी कूटनीतिज्ञ जासूसी कार्यवाही भी करते हैं ।
3. संरक्षण:
कूटनीति का अन्य कार्य विदेश में स्थित अपने देश के नागरिकों की सम्पत्ति जीवन एवं अन्य हितों की रक्षा करना है । यदि विदेशों में अपने देशवासियों के सम्मान एवं हितों को चोट पहुंचती है तो राजनयज्ञ यहां के विदेशमन्त्री से सम्पर्क करते हैं ।
4. प्रतिनिधित्व:
कूटनीतिज्ञ दूसरे देशों में अथवा अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों में अपने राज्य की सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं । एक प्रतिनिधि के रूप में कूटनीतिज्ञ अपने राज्य तथा सरकार का प्रतीक होता है तथा उनके विचारों की अभिव्यक्ति करता है । वह अपने देश के दृष्टिकोण को बड़ी चतुरता स्पष्टता एव संक्षिप्तता के साथ प्रस्तुत करता है ।
5. जनसम्पर्क:
राजनयज्ञ निरन्तर अपने राज्य और उसकी नीतियों के प्रति सद्भावना बनाने के कार्य में संलग्न रहता है । इसके लिए वह प्रचार तथा जनसम्पर्क के दूसरे कार्य सम्पन्न करता है । पार्टियों एवं भोजों में सम्मिलित होता है, सार्वजनिक एवं अन्य अवसरगत भाषण देता है ।
वियना अभिसमय (1961) में कूटनीतिज्ञ के पांच कार्यों का उल्लेख किया गया:
(i) विदेशों में अपने राज्य का प्रतिनिधित्व करना,
(ii) अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार अपने राज्य के नागरिकों के हितों की रक्षा करना,
(iii) अन्य राज्यों से विविध विषयों पर वार्ता करना,
(iv) अन्य राज्यों की परिस्थितियों की जानकारी प्राप्त करके अपने देश को सूचना एवं प्रतिवेदन भेजना और
(v) स्वदेश तथा ग्रहणकर्ता राज्यों के बीच आर्थिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक क्षेत्र में मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना करना ।
Essay # 5. कूटनीतिक वार्ता के उद्देश्य (The Objects of Diplomatic Negotiation):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में जब दो या दो से अधिक राज्यों की सरकारों के बीच कूटनीतिक वार्ता आरम्भ होती है, तो मोटे तौर से तीन उद्देश्य हो सकते हैं:
i. एक-दूसरे के उद्देश्यों तथा नीतियों को बदलना,
ii. यदि उनके उद्देश्य तथा नीतियां पहले से ही अनुकूल हैं तो उनमें यथा-स्थिति कायम रखना,
iii. किसी विवादास्पद प्रश्न का समाधान करने के लिए समझौता करना ।
कभी-कभी कूटनीतिक वार्ता का उद्देश्य केवल विचारों का आदान-प्रदान होता है । इस प्रकार की बातचीत में कोई सौदेबाजी नहीं होती । कभी-कभी कूटनीतिक वार्ताओं का उद्देश्य जनसाधारण में भ्रम पैदा करना भी हो सकता है यथार्थ में उनकी आकांक्षा कोई समझौता करने की नहीं होती । कभी वार्ता का उद्देश्य केवल प्रचार करना होता है । राजनयिक सम्मेलनों का प्रयोग लोकमत को अपने अनुकूल बनाने के लिए तथा प्रतिपक्षी की मोल-तोल करने की सामर्थ्य को कम करने के लिए किया जाता है ।
Essay # 6. कूटनीति के साधन (The Means of Diplomacy):
मॉरगेन्थाऊ के अनुसार- ”एक कुशल राजनय (Diplomacy) का, जो शान्ति संरक्षण के लिए तत्पर है अन्तिम कार्य है कि वह अपने ध्येयों की प्राप्ति के लिए उपयुक्त साधनों को चुने । राजनय को तीन प्रकार के साधन प्राप्त होते हैं, अनुनय, समझौता तथा शक्ति की धमकी ।”
अन्तर्राष्ट्रीय राजनय में प्रयोग में आने वाला मुख्य तरीका अनुनय का है और सफल राजनयज्ञ में अनुनय की कला होने की आशा की जाती है । वार्ता करने वाले पक्ष राष्ट्र होते हैं इसलिए अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अनुनय का क्षेत्र बहुत बड़ा नहीं होता । कूटनीति सहमति पर पहुंचने की एक प्रक्रिया है ।
यदि सहमति होना असम्भव सिद्ध हो तो कूटनीति का क्षेत्र समाप्त हो जाता है क्योंकि उस स्थिति में बल प्रयोग का सहारा लिया जाता है और बल प्रयोग सहमति के बिना दूसरों को प्रभावित करने का एक तरीका है । कूटनीतिज्ञ पुरस्कार का वचन या दण्ड की धमकी दे सकते हैं जो दोनों शक्ति के प्रयोग की विधियों में आते हैं ।
कूटनीतिज्ञ की पुरस्कार का वचन देने और दण्ड की धमकी देने की सामर्थ भी सीमित होती है । उदाहरण के लिए, वह वे पुरस्कार नहीं पेश कर सकता जो उसके राष्ट्र के पास नहीं है । कोई भी कूटनीति जो अनुनय और समझौते पर ही निर्भर करती है, कुशल कहलाने के योग्य नहीं है ।
साधारणतया एक बड़े राष्ट्र के कूटनीतिक प्रतिनिधि को अपने देश के हितों और शान्ति के हितों की सेवा करने के योग्य होने के लिए एक ही समय में अनुनय का प्रयोग करना होगा समझौते के लाभ उठाने होंगे तथा दूसरे पक्ष को अपने देश की सैनिक शक्ति से भी अवगत करना होगा ।
जैसा कि फ्रेडरिक एल. शूमां ने लिखा है- “कूटनीतिज्ञों का प्रथम कर्तव्य राष्ट्रीय सुरक्षा परन्तु सभी समयों एवं सभी परिस्थितियों में सुरक्षा शक्ति पर निर्भर रहती है तथा शक्ति उस समय तक व्यर्थ रहती है जब तक कि आवश्यकता पड़ने पर उसे सशस्त्र शक्ति के रूप में परिणत न किया जा सके ।”
Essay # 7. कूटनीति या राजनय के यन्त्र (Instruments of Diplomacy):
कूटनीति के संगठित यन्त्र दो हैं- सम्बन्धित राष्ट्रों की राजधानियों में विदेश मन्त्रालय तथा विदेशी राष्ट्रों की राजधानियों में विदेश मंत्रालय द्वारा भेजे जाने वाले राजनयिक प्रतिनिधि । विदेश मन्त्रालय नीति-निर्माण करने वाला अभिकरण है ।
यह विदेश नीति का मस्तिष्क है जहां बाह्य विश्व के अनुभव एकत्रित किए जाते हैं तथा इनका मूल्यांकन किया जाता है । जबकि विदेश मत्रालय विदेश नीति का मस्तिष्क है, कूटनीतिक प्रतिनिधि इसकी आंखें, कान, मुख, अंगुलियां तथा एक प्रकार से इसके भ्रमणशील अवतार हैं ।
Essay # 8. कूटनीति तथा विदेश नीति (Diplomacy and Foreign Policy):
कूटनीति तथा विदेश नीति साधारणतया पर्यायवाची माने जाते हैं । विदेश नीति और कूटनीति दो पहिए हैं जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की गाड़ी को आगे बढ़ाते हैं । आज भी राज्यों की कोई न कोई विदेश नीति होती है तथा उसे कार्यान्वित करने के लिए तदनुसार कूटनीति का सहारा लिया जाता है ।
जे. आर. चाइल्डस ने कूटनीति और विदेश नीति में अन्तर स्पष्ट करते हुए लिखा है कि- विदेश नीति एक देश के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का सार है तो कूटनीति वह प्रक्रिया है जिससे विदेश नीति कार्यान्वित की जाती है । एक नीति है तो दूसरा वार्ताक्रम । विदेश नीति एक विधायी प्रक्रिया है जबकि कूटनीति कार्यकारी प्रक्रिया है ।
विदेश नीति के निर्माण में मन्त्रिमण्डल, संसद, लोकमत एवं शासनमर्मज्ञों का विशेष भाग होता है जबकि कूटनीति का संचालन सन्धिवार्ता की कला में प्रवीण और अनुभवी व्यावसायिक व्यक्तियों द्वारा किया जाता है । कूटनीति द्वारा विदेश नीति को क्रियात्मक स्वरूप प्राप्त होता है ।
हेरल्ड निकल्सन ने विदेश नीति और कूटनीति में अन्तर करते हुए लिखा है:
”जहां कूटनीति समाप्त होती है वहीं विदेश नीति आरम्भ होती है । दोनों का लक्ष्य राष्ट्रीय हितों का अन्तर्राष्ट्रीय हितों से समायोजन है । विदेश नीति का मूल उद्देश्य राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता है जबकि कूटनीति साध्य न होकर साधन है, उद्देश्य न होकर एक माध्यम है । कूटनीति वह अभिकरण है जिसके माध्यम से विदेश नीति अपने लक्ष्यों की प्राप्ति, युद्ध की अपेक्षा, सहमति से प्राप्त करती है ।”
आधुनिक संचार साधनों के विकास के बाद विदेश नीति और कूटनीति का वह अन्तर कम होता जा रहा है । संचार साधनों के आविष्कार के बाद कूटनीतिज्ञों की घटनाओं तथा निर्णयों को प्रभावित करने की क्षमता कम होती जा रही है ।
आज का कूटनीतिज्ञ निरन्तर अपनी सरकार से सम्पर्क रखता है तथा विशेष समस्या उत्पन्न होने पर तुरन्त उससे परामर्श प्राप्त कर लेता है । लेस्टर पीयर्सन के अनुसार कूटनीति इस अर्थ में विदेश नीति है कि आजकल नीति-निर्माता स्वयं ही कूटनीतिक प्रतिनिधियों का कार्य करते हैं, तथा स्वयं अपनी नीतियों को कार्यरूप देते हैं । प्रतिदिन शिखर सम्मेलन या विदेशमन्त्रियों के सम्मेलनों के समाचार सुनने में आते हैं, जिससे ऐसा लगता है कि नीति-निर्माता कूटनीतिज्ञ बनते जा रहे हैं ।
Essay # 9. कूटनीति और राष्ट्रीय शक्ति (Diplomacy and National Power):
कूटनीति को राष्ट्रीय शक्ति से भिन्न करके नहीं देखा जा सकता । मॉरगेन्थाऊ तो राज्य के अन्य सभी शक्ति तत्वों को कच्चे माल की संज्ञा देता है जिन्हें कूटनीति की कला एक विशिष्ट रूप से प्रयोग, संगठित और सपूर्ण राज्य की शक्ति का विकास करती है ।
कूटनीति ही एक राज्य की असंगठित शक्ति तत्वों को निश्चित दिशा देती है तथा छिपी शक्ति सम्भावनाओं का समायोजन करके उसे यथार्थ शक्ति का रूप देती है । राष्ट्रीय मनोबल जिस प्रकार शक्ति की आत्मा है कूटनीति उसी प्रकार राष्ट्रीय शक्ति का मस्तिष्क ।
कूटनीति वह कला है, जो राष्ट्रीय शक्ति के विभिन्न तत्वों का सामूहिक दृष्टि से इस प्रकार प्रयोग करती है कि तत्कालीन अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में राष्ट्रीय हित को अधिकाधिक लाभ हों । कुशल तथा सक्रिय कूटनीति, एक देश की शक्ति को किस प्रकार घटा-बढ़ा सकती है इसके अनेक स्पष्ट उदाहरण इतिहास में मिलते हैं ।
19वीं शताब्दी में एक बहुत-छोटे से बेलिजयम का प्रभाव उसके दो सम्राटों लियोपोल्ड प्रथम व द्वितीय के कुशल राजनय को ही दिया जा सकता है । 17वीं शताब्दी में टकी ने राष्ट्रीय शक्ति के हास की क्षतिपूर्ति अपने सम्बन्धों के योग्य संचालन से की ।
इसी प्रकार ब्रिटेन की शक्ति कार्डीनल वूल्जे, कैस्टरले व कैनिंग के हाथों विकसित हुई, रिजलू जारिन व टैलीरैण्ड जैसे कूटनीतिज्ञों के अभाव में फ्रांस की बिस्मार्क के अभाव में जर्मनी की तथा कैवूर के बिना इटली की क्या स्थिति होती इसका हम अनुमान लगा सकते हैं । दो विश्वयुद्धों के अन्तराल में रोमानिया ने अपनी चातुर्यपूर्ण कूटनीति के कारण अपनी शक्ति की अपेक्षा कहीं अधिक अन्तर्राष्ट्रीय गतिविधियों को प्रभावित किया, जिसका श्रेय उसके विदेशमन्त्री ट्टियुल्सु को है ।
Essay # 10. राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि में कूटनीतिज्ञों का योगदान (Diplomat’s Contribution in Promoting National Interest):
राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि को ध्यान में रखते हुए विदेश नीति के उद्देश्य तथा कूटनीति के लक्ष्य की प्राप्ति का प्रमुख उत्तरदायित्व कूटनीतिज्ञों पर होता है । कूटनीतिज्ञ ही विभिन्न कार्यों द्वारा नीतियों को साकार रूप प्रदान करते हैं । प्राचीन काल से ही इन कूटनीतिज्ञों का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में महत्व रहा है ।
इन कार्यों एवं महत्व के विषय में कौटिल्य ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक अर्थशास्र में लिखा है:
”अपनी सरकार के दृष्टिकोण को दूसरी सरकार तक पहुंचना, सन्धियों को बनाए रखना अपने राज्य हितों की रक्षा करना-यदि आवश्यक हो तो डरा-धमकाकर भी मित्र बनाना, फूट डालना, गुप्त संगठन बनाना, गुप्तचरों की गतिविधि के बारे में जानकारी प्राप्त करना, जो सन्धियां अपने राज्य के हित में न हों उन्हें निष्फल बनाना, उस देश (जिसमें वह नियुक्त हो) के शासनाधिकारियों को अपनी तरफ मिलाना ये राजदूत के कर्तव्य हैं ।”
कौटिल्य ने राजदूत के जिन कर्तव्यों का उल्लेख किया है, सामान्यत: ये सभी कूटनीतिज्ञों के लक्ष्य हैं जिनसे राष्ट्रीय हितों की पूर्ति होती है । कौटिल्य से भी पहले मनु ने मनुस्मृति में लिखा है कि युद्ध और शान्ति ये सब राजदूत के प्रयासों पर निर्भर हैं । इसी प्रकार पणिक्कर ने भगवान श्रीकृष्ण का उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया है कि जब वे पाण्डवों का पत्र लेकर कौरवों के दरबार में गए तो उनका लक्ष्य पाण्डवों के हितों का संरक्षण था ।
यूनानी नगर राज्यों में भी, विशेषत: बाइजेण्टियम के राजदरबार में, कूटनीति एक परिमार्जित कला बन गयी थी तथा शासक वर्ग ऐसे व्यक्तियों का सदैव ही आदर करते थे । यह स्थिति प्रत्येक युग में बनी रही । धीरे-धीरे कूटनीतिज्ञों का स्थायी महत्व स्वीकार किया गया और राज्य कूटनीतिज्ञों की स्थायी नियुक्ति करने लगे ।
उनकी नियुक्ति किसी कार्य विशेष अथवा किसी सन्धि वार्ता की पूर्ति तक के लिए ही नहीं की जाती थी । ऐसे कार्य या वार्ता की समाप्ति हो जाने के बाद भी उनके पद का अन्त नहीं होता था । स्थायी छूटनीतिइघें का महत्व लगभग 15वीं शताब्दी से स्वीकार किया जाता है ।
Essay # 11. कूटनीति के कार्य (Kinds and Classes of Diplomatic Envoys):
वियना की कांग्रेस ने 1815 में राजनीतिक प्रतिनिधियों को तीन श्रेणियों में बांटा । सन् 1818 की एक्स-ला-शैपल की कांग्रेस ने उसमें एक चौथी श्रेणी और जोड़ दी । 1861 के वियना अभिसमय ने इसको मान्यता दे दी है ।
वरिष्ठता के क्रम से वे श्रेणियां निम्नलिखित हैं:
(1) राजदूत, पोपदूत तथा नंसियो (Ambasador, papal legates and nuncious):
प्रारम्भ में शाही सम्मान से युक्त राज्यों द्वारा ही राजदूत भेजे जाते थे और स्वीकार किए जाते थे । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अन्य छोटे राज्य भी राजदूत भेजने लगे हैं । राजदूतों को उनके राज्य के अध्यक्षों का व्यक्तिगत प्रतिनिधि माना जाता है और इसलिए इनको विशेष सम्मान तथा अधिकार प्रदान किए जाते हैं ।
राजदूत का सबसे बड़ा अधिकार यह है कि वह राज्य के अध्यक्ष या राष्ट्रपति से सीधा मिल सकता है और वार्ता कर सकता है । राजदूतों को परमश्रेष्ठ (His Execellency) के रूप में सम्बोधित किया जाता है । इसके पीछे यह औचित्य है कि राजदूत राजा का व्यक्तिगत प्रतिनिधि होता है । धर्म के अधिष्ठाता पोप द्वारा जो राजदूत भेजे जाते हैं उन्हें पोपदूत या नंसियो कहते हैं ।
(2) पूर्ण अधिकारयुक्त मन्त्री और साधारण दूत (Minister plenipotentiary and envoys extraordinary):
इस श्रेणी के दूतों को राज्य के अध्यक्ष का व्यक्तिगत प्रतिनिधि नहीं माना जाता । अत: इनको राजदूतों जैसा विशेष सम्मान प्राप्त नहीं होता । वे राज्य के अध्यक्ष से व्यक्तिगत रूप से नहीं मिल सकते । वे प्रत्येक समय श्रोताओं की मांग नहीं कर सकते । वे सौजन्यतावश ही ‘एक्सलेन्सी’ से सम्बोधित किए जाते हैं ।
(3) निवास मन्त्री (Minister resident):
दूतों की इस श्रेणी को द्वितीय की अपेक्षा कम गौरव और सम्मान प्राप्त होता है । इनको सौजन्यवश भी ‘परमश्रेष्ठ’ का सम्बोधन नहीं दिया जाता है । यह श्रेणी 1818 में एक्स-ला-शैपल की कांग्रेस द्वारा जोड़ी गयी थी। आजकल निवासी मन्त्री नियुक्त करने की प्रथा कम होती जा रही है ।
(4) कार्यदूत (Charges affairs):
दूतों के इस विशेष वर्ग की विशेषता यह है कि, इन्हें एक राज्य के विदेश मन्त्रालय द्वारा दूसरे राज्य के विदेश मन्त्रालय के लिए भेजा जाता है । इससे भिन्न उसे तीनों श्रेणियों के दूतों को एक राज्य के अध्यक्ष द्वारा राज्य के अध्यक्ष के लिए भेजा जाता है । कार्यदूतों को अन्य दूतों की भांति विशेष सम्मान और गौरव प्रदान नहीं किया जाता । ये अपनी नियुक्ति के प्रत्यय-पत्र राज्य के अध्यक्ष को नहीं वरन् विदेशमन्त्री को सौंपते हैं ।
ओपेहनहीम ने राजनयिक दूतों के दो प्रकारों का उल्लेख किया है:
(a) वे दूत जिन्हें राजनीतिक सन्धिवार्ता के लिए भेजा जाता है और
(b) वे दूत जो केवल समारोहपूर्ण कार्यों के लिए भेजे जाते हैं । दोनों प्रकार के दूत एक जैसा महत्व रखते हैं ।
राजनीतिक दूतों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:
(i) स्थायी अथवा अस्थायी रूप से किसी राज्य में समझौता वार्ता करने के लिए भेजे गए दूत,
(ii) किसी कांग्रेस या सम्मेलन का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजे गए दूत ।
दूसरे प्रकार के राजनीतिक दूत यद्यपि जिस राज्य को भेजे जाते हैं उसमें बसते नहीं हैं, किन्तु वे राजनयिक दूत ही होते हैं और इस पद के सभी विशेषाधिकारों का प्रयोग करते हैं ।
पुरानी कूटनीति की विशेषताएं (Characteristics of the old diplomacy):
फ्रेंच कूटनीतिक विधि को ही पुरानी कूटनीति कहा जाता है । इस विधि का अर्थ है, अन्तर्राष्ट्रीय वार्ता के वे सिद्धान्त और व्यवहार जो रिशलू ने बनाए थे, कैलियरे ने जिसका विश्लेषण किया था तथा बीसवीं सदी के प्रारम्भ तक जिन्हें अपना रखा था।
हेराल्ड निकल्सन ने पुरानी कूटनीति की छ: विशेषताएं बतायी हैं:
प्रथम:
पुरानी कूटनीति में यूरोप को सबसे महत्वपूर्ण महाद्वीप माना जाता था । एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका को तो व्यापार, साम्राज्य तथा ईसाई धर्म के विस्तार का क्षेत्र समझा जाता था। यूरोपीय राज्यों द्वारा ही अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और युद्ध सम्बन्धी प्रश्नों का निर्णय किया जाता था ।
द्वितीय:
कूटनीति की दृष्टि से छोटे राज्यों की स्थिति अपेक्षाकृत महत्वहीन थी, बड़ी शक्तियां अक्सर छोटी शक्तियों की उपेक्षा कर देती थीं । 1815 के वियना सम्मेलन में छोटे राज्यों का कोई प्रतिनिधि नहीं था ।
तृतीय:
महाशक्तियों का यह दायित्व माना जाता था कि छोटी शक्तियों के आचरण का निरीक्षण करें । छोटी शक्तियों के बीच संघर्ष होने पर महाशक्तियां हस्तक्षेप करती थीं ।
चतुर्थ:
प्रत्येक यूरोपीय देश में एक पेशेवर कूटनीतिक सेवा कायम कर दी गयी थी ।
पंचम:
सारी समझौता वार्ताएं गुप्त थीं । कूटनीति इस अर्थ में गुप्त थी कि आम लोगों को न तो वार्ताओं के स्वरूप के बारे में जानकारी दी जाती थी और न उन्हें विचार-विमर्श में कोई हिस्सा लेने या उन पर कोई प्रभाव डालने का मौका दिया जाता था । कूटनीति राजाओं और राजदूतों का विशेष क्षेत्र माना जाता था ।
वही इसके प्रमुख सूत्रधार होते थे और सारी राजनयिक बातचीत और पत्र-व्यवहार करते थे राज्यों के विशाल प्रदेशों का बंटवारा राजा जनता से बिना पूछे या उसे बिना बताए मनमाने ढंग से किया करते थे । तीन बार पोलैण्ड का बंटवारा इसका प्रमुख उदाहरण है । गुप्त सन्धियों की प्रथा उस समय सार्वभौम पद्धति थी । बिस्मार्क ने रूस इटली और जर्मनी के साथ अनेक गुप्त सन्धियां की थीं ।
षष्ठ:
इस समय राजनय का क्षेत्र राजदरबारों (Diplomacy of Courts) तक ही सीमित था । राजतन्त्र की पद्धति प्रचलित होने के कारण राजदूत राजाओं के प्रतिनिधि होते थे उनके निर्देशों पर अपने सारे कार्य करते थे । जनता इस कूटनीति के संचालन में किसी प्रकार का कोई भाग नहीं लेती थी ।
1815 के वियना कांग्रेस जैसे सम्मेलनों में यूरोप के मानचित्र का पुन: निर्माण करते हुए विभिन्न राज्यों की सीमाओं में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए थे पराजित निर्बल राष्ट्रों के विशाल प्रदेश दूसरे राज्यों को दिए गए थे किन्तु इसमें जनता की कोई सम्मति नहीं ली गयी थी ।
Essay # 12. कूटनीति की सीमाएं (Limitations of Diplomacy):
आधुनिक युग में संचार साधनों के विस्तार एवं जन-सामान्य की जागरूकता ने कूटनीति की 11वीं शताब्दी की भूमिका को अत्यधिक कम कर दिया है । द्वितीय महायुद्ध के बाद तो कूटनीति की सफलता में इतनी अधिक कमी आ गयी है जितनी इतिहास में कभी न थी ।
मॉरगेन्थाऊ के अनुसार- ”द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद राजनय अपना महत्व खो चुकी है । इसके कार्य अब इतने कम रह गए हैं जितने राज्य व्यवस्था के इतिहास में कभी नहीं रहे थे ।” कूटनीति की सीमाओं का अभिप्राय प्रभावहीन होना नहीं है बल्कि इच्छित लाभ प्राप्त करने में असफल होना है ।
आधुनिक युग में विभिन्न राज्यों के मध्य कुछ ऐसी समस्याएं पैदा हो गयी है जिनका समाधान करने में कूटनीति असफल रही है । उदाहरणार्थ, 1947 में भारत-पाक संघर्ष, 1962 में भारत-चीन संघर्ष, पश्चिमी एशिया में अरब-इजरायल संघर्ष आदि राजनय की असफलताएं हैं ।
इस सन्दर्भ में आधुनिक राजनय की निम्नलिखित सीमाएं स्पष्ट होती हैं:
(1) राष्ट्रों द्वारा अपने हितों व मान्यताओं के सम्बन्ध में कठोर रुख अपनाना ।
(2) राष्ट्रों के मध्य शक्ति सम्बन्ध ।
(3) अन्तर्राष्ट्रीय कानून ।
(4) हीन राजनयिक क्षमता ।
(5) सौदेबाजी करने वाले राज्य की साख ।
(6) विश्व जनमत का भय या दबाव ।
(1) राष्ट्रों द्वारा अपने हितों व मान्यताओं के सम्बन्ध में कठोर रुख अपनाना:
आधुनिक युग में विश्व के विभिन्न राज्य कुछ मान्यताओं व हितों को लेकर चलते हैं जिनके सम्बन्ध में अगर ये समझौते के लिए तैयार हो जाएं तो यह इनकी हार होती है जिससे राजनीतिक प्रभाव समाप्त हो जाता है ।
इसलिए समझौते की इच्छा होते हुए भी ये हठधर्मी एवं दृढ़ता अपनाते हैं । राज्यों के मध्य इस प्रकार का राजनीतिक वातावरण राजनय की भूमिका को समाप्त कर देता है । उदाहरणार्थ जर्मनी के एकीकरण में पश्चिमी और साम्यवादी गुट द्वारा यही रुख अपनाया गया था ।
(2) राज्यों के मध्य शक्ति सम्बन्ध:
कूटनीति की सफलता की सम्भावना दुर्बल या कम शक्तिशाली राज्यों के मध्य अधिक होती है लेकिन जहां वार्ता में दो बराबर शक्ति के राज्य हों वहां सफलता की आशा कम हो जाती है क्योंकि न तो धमकी और न ही दृढ़ रुख असर डालते हैं ।
आधुनिक युग दो महाशक्तियों के मध्य बंटा हुआ है । जब कभी ये महाशक्तियां विश्व समस्याओं में उलझी हैं उनका समाधान करने में राजनय असफल रहा । उदाहरणार्थ अमरीका और रूस के मध्य शक्ति सम्बन्धों के कारण कोरिया का एकीकरण तथा अरब-इजरायल समस्याएं अनसुलझी रह गयीं ।
(3) अन्तर्राष्ट्रीय कानून:
प्राचीन समय में अनैतिक तरीके भी राजनय की सफलता के लिए अपनाए गए थे । लेकिन आज अन्तर्राष्ट्रीय कानून के मान्य और नियमित हो जाने के कारण राजनय के अन्तर्गत बहुत-से कार्य नहीं किए जा सकते । यह भी एक सीमा बन जाता है ।
(4) हीन राजनयिक क्षमता:
आजकल विश्व में ऐसे राज्यों की संख्या बहुत ज्यादा है जिनकी शक्ति की दृष्टि से स्थिति दुर्बल है । एक ओर मॉरीशस जैसा दुर्बल राज्य है तो दूसरी ओर अमरीका जैसा अत्यधिक शक्तिशाली राज्य । इसलिए जब एक निर्बल राजनय क्षमता वाला राज्य शक्तिशाली राज्य से विचार-विमर्श करता है तो सौदेबाजी की कम शक्ति होने के कारण राजनय असफल हो जाता है ।
(5) सौदेबाजी करने बाले राज्य की साख:
राजनय उस दशा में भी असफल हो जाता है जब वार्तालाप में सम्मिलित राज्यों के मध्य विश्वास न हो । विश्व में आज ऐसी ही स्थिति है । अमरीका और चीन वार्तालाप से पूर्व ही यह मानकर चलते हैं कि उन्हें धोखा देने के लिए दूसरा राज्य तत्पर है ।
(6) विश्व जनमत का भय व दबाव:
संचार के विकास के परिणामस्वरूप विश्व में घटित होने वाली कोई घटना क्षेत्रीय न होकर विश्वव्यापी हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप साधारण से साधारण व्यक्ति भी उन शर्तों के सम्बन्ध में पूर्ण जानकारी रखता है जो विभिन्न राजनयइम्रें ने एक-दूसरे के समक्ष रखी हैं ।
साधारण व्यक्ति इन शर्तों को राष्ट्रीय मान-अपमान का प्रश्न बना लेता है तथा उस राजनयिक को कमजोर समझता है जो रियायतें दे दे । राजनयज्ञ जनता की इस प्रतिक्रिया से सचेष्ट रहते हैं तथा रियायत न देना ही हितकर समझते हैं ।
चैम्बरलेन को चूनिख पैक्ट (1936) में हिटलर को रियायतें देने के कारण प्रधानमन्त्री पद त्यागना पड़ा । इसी प्रकार ताशकन्द समझौते में पाकिस्तान को दी गयी रियायतों व जनता की प्रतिक्रिया की सम्भावना लाल बहादुर शास्त्री मानसिक रूप से न सह सके ।
Essay # 13. कूटनीति की अवनति (Decline of Diplomacy):
आज कूटनीति के परम्परावादी स्वरूप की अवनति हो रही है । परम्परावादी कूटनीति की विशेषता थी गुप्तता, छद्म, व्यक्ति विशेष का महत्व रोमांचित कपट आदि । प्रथम विश्वयुद्ध के अन्त के साथ कूटनीति की अवनति आरम्भ हुई ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व की शताब्दी में विदेश नीति के निर्माण में कूटनीतिज्ञों द्वारा लिया गया भाग और भी कम हो गया तथा एक तकनीक के रूप में विदेशी सम्बन्धों के परिचालन में कूटनीति की अवनति और प्रत्यक्ष हो गयी ।
मॉरगेन्थाऊ ने कूटनीति की अवनति के पांच कारण बताए हैं:
(1) संचार व्यवस्था का विकास,
(2) कूटनीति का अवमूल्यन,
(3) संसदीय प्रक्रिया द्वारा कूटनीति,
(4) महाशक्तियां कूटनीति में नवागन्तुक,
(5) वर्तमान विश्व राजनीति का स्वरूप ।
(1) संचार व्यवस्था का विकास (Development of communication):
कूटनीति का महत्व उस समय अधिक था जब आवागमन एवं संचार के हुतगामी साधनों का विकास नहीं हो पाया था । प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व स्थायी कूटनीतिक प्रतिनिधियों के आवश्यक होने का कारण यह था कि सविस्तार सन्देशों को शीघ्रतापूर्वक एवं अविच्छिन्न रूप से भेजने की सुविधाएं कष्टदायक थीं ।
लेकिन अब संचार-साधनों का इतना तीव्र विकास हुआ है कि, कूटनीतिज्ञों को कहीं भी कुछ ही मिनटों में बेतार-व्यवस्था द्वारा निर्देश दिया जा सकता है । कुछ ही घण्टों में कूटनीतिज्ञ परामर्श करने के लिए विभिन्न देशों में आ-जा सकता है । इससे विदेश मन्त्रालय के प्रभाव में वृद्धि हुई है । मॉरगेन्थाऊ के शब्दों में- “कूटनीति की अवनति का आंशिक कारण हवाई जहाज, रेडियो, तार, टेलीटाइप, दूरस्थ टेलीफोन के रूप में शीघ्र एवं नियमित संचार-व्यवस्था का विकास था ।”
(2) कूटनीति का अवमूल्यन (Depreciation of diplomacy):
कूटनीति एवं कूटनीतिज्ञ शब्दों को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है । कूटनीति का सामान्य अर्थ चालाकी धूर्तता छल-कपट झूठ आदि से लिया जाता है । लोगों में ऐसा विश्वास पनपता जा रहा है कि, कूटनीतिक सेवाओं का परित्याग करना ही चाहिए क्योंकि ये शान्ति के मूल में केवल कोई योगदान ही नहीं देतीं वरन् वास्तव में शान्ति को संकट में डालती हैं ।
कूटनीतिज्ञों के व्यक्तित्व पर अविश्वास किया जाता है, तथा यह माना जाता है कि वह कोई भी अनैतिक कार्य को करने को तैयार हो सकता है । धूर्तता एवं कपट के लिए कूटनीतिज्ञ की प्रसिद्धि उतनी ही प्राचीन है जितनी कि स्वयं कूटनीति प्राचीन है ।
17वीं शताब्दी के आरम्भ में एक अंग्रेज राजदूत सर हेनरी वोटन द्वारा दी गयी एक कूटनीतिज्ञ की परिभाषा प्रख्यात है कि- ”वह एक ईमानदार व्यक्ति होता है, जिसे अपने देश के लिए झूठ बोलने के लिए विदेश भेजा जाता है ।”
जब वियेना के सम्मेलन में मेटरनिख को रूसी राजदूत की मृत्यु की सूचना दी गयी, तो कहा जाता है कि, उन्होंने विस्मयपूर्वक कहा, ‘क्या यह सत्य है ?’ उसका अभिप्राय क्या हो सकता है ? इन धारणाओं से कूटनीति की प्रतिष्ठा कम होती गयी है ।
(3) संसदीय प्रक्रिया द्वारा कूटनीति (Diplomacy by parliamentary procedures):
राष्ट्र संघ, संयुक्त राष्ट्र संघ, आदि अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों ने कूटनीति को नया मोड़ दिया है । इन संगठनों के मंचों पर राष्ट्रीय उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए राजनयज्ञ अपने विचार प्रकट करते हैं तथा अन्त में मतदान द्वारा निर्णय लिया जाता है । अब राजनयज्ञों की बुद्धि, चातुर्य और व्यक्तित्व का उतना महत्व नहीं है जितना इन सम्मेलनों में अपने समर्थन में अधिक-से-अधिक मत जुटाने का महत्व है ।
(4) महाशक्तिय-कूटनीति में नवागन्तुक (The super powers-new comers in diplomacy):
द्वितीय विश्व- युद्ध के बाद अमरीका और सोवियत संघ को विश्व की महान् शक्तियों का स्तर प्राप्त हुआ । अमरीका को कूटनीति में कम अनुभव था और 1917 की क्रान्ति के बाद रूस में भी प्रसिद्ध कूटनीतिज्ञों का सफाया कर दिया गया ।
रूस में साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना से कूटनीति को और भी ठेस लगी । साम्यवाद और पूंजीवाद एक-दूसरे को समाप्त करना चाहते थे, दोनों में इतने अधिक मतभेद थे कि सहमति और समझौते की बहुत कम गुंजाइश थी । कूटनीति का महत्व वहीं अधिक होता है जहां समझौते और आदान-प्रदान की गुंजाइश रहती है ।
(5) वर्तमान विश्व राजनीति का स्वरूप (The nature of contemporary world politics):
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व दो गुटों-अमरीका और सोवियत संघ-के प्रभाव क्षेत्र में बंटा गया । इन दोनों के हित परस्पर विरोधी थे दोनों एक-दूसरे का प्रत्येक स्तर पर विरोध करते थे । कोई भी पीछे हटकर समझौता नहीं करना चाहता था । पीछे हटने का तात्पर्य मूल हितों को त्यागना तथा आगे का अर्थ जोखिम उठाना था । ऐसी स्थिति में कूटनीतिज्ञों की योग्यता प्रदर्शन का क्षेत्र समाप्त हो गया ।
मीरगे-थाऊ के शब्दों में- “संयुक्त राज्य एवं सोवियत संघ के बीच शक्ति सम्बन्धों की प्रकृति के कारण तथा इन दो अति शक्तिशाली राष्ट्रों के पारस्परिक सम्बन्धों में वर्तमान मानसिक स्थिति के कारण कूटनीति के परिचालन के लिए बहुत कम अवसर थे तथा इसके अप्रचलित हो जाने की सम्भावना थी ।”
Essay # 14. कूटनीति : नूतन प्रवृत्तियां (Diplomacy : New Trends):
रगेन्थाऊ ने जिस कूटनीति के पतन की चर्चा की है वह परम्परागत कूटनीति है । आधुनिक विश्व राजनीति में परम्परागत कूटनीति मुश्किल से ही राष्ट्रीय हितों की वृद्धि कर सकती है । वर्तमान में कूटनीति में नूतन प्रवृत्तियों का उदय हो रहा है । नए तरीकों, प्रक्रियाओं और साधनों को अपनाया जा रहा है ।
यहां हम कूटनीति के नए आयामों की चर्चा करेंगे:
(1) प्रजातान्त्रिक कूटनीति (Democratic diplomacy):
20 वीं शताब्दी तक इस नवीन कूटनीति के लिए प्रजातान्त्रिक कूटनीति शब्द प्रयोग होने लगा था । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से इसका अर्थ ऐसी व्यवस्था से था जिसमें सरकारें अपनी राजतत्त्वीय और कुलीन प्रवृत्तियां छोड़ रही थीं तथा राष्ट्रों की जनता अपने प्रजातान्त्रिक प्रतिनिधियों तथा अनौपचारिक माध्यमों से एक-दूसरे से सम्बन्धित हो रही थीं ।
प्रजातान्त्रिक कूटनीति की विशेषताएं इस प्रकार हैं:
(i) राजदूत मूलत: जनता के प्रति उत्तरदायी होता है । आज का राजनयिक एक सार्वजनिक कर्मचारी है जो विदेशमन्त्री के अधीन है । विदेशमन्त्री मन्त्रिमण्डल का सदस्य है मन्त्रिमण्डल संसद के बहुमत के प्रति उत्तरदायी है तथा संसद का बहुमत निर्वाचकमण्डल का प्रतिनिधि है ।
(ii) प्रजातान्त्रिक कूटनीति की दूसरी विशेषता यह है कि यह पद्धति गुप्त सन्धियों रहस्यमय कूटनीति के स्थान पर खुले सार्वजनिक समझौतों और स्पष्ट कूटनीतिक सम्बन्धों में विश्वास करती है ।
(iii) प्रजातान्त्रिक कूटनीति की तीसरी विशेषता सन्धियों के अनुसमर्थन करने की विधि में है । आज सभी प्रजातान्त्रिक देशों में सन्धियों को मान्यता संसद के बहुमत से प्राप्त होती है ।
नवीन राजनय प्रजातान्त्रिक उद्देश्यों की पूर्ति का एक साधन है । सन्धियों के अनुसमर्थन में संसद का प्रत्यक्ष भाग होने से जनता कूटनीतिक गतिविधियों से परिचित रहती है, विशेष राष्ट्रीय संकटों के अवसर पर आपसी मतभेद भुलाकर जनता शासन को पूर्ण समर्थन भी देती है ।
(2) सम्मेलनों द्वारा कूटनीति (Diplomacy by conferences):
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद सम्मेलन कूटनीति एक स्थायी प्रवृति के रूप में विकसित हुई है । प्रथम विश्वयुद्ध के उपरान्त राष्ट्र संघ की सामूहिक सुरक्षा की योजना अथवा प्रादेशिक संगठनों के कारण अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का महत्व और भी अधिक हो ही गया है ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान चार बड़ों के सम्मेलनों का निरन्तर प्रयोग किया गया अन्तर-संश्रित (Inter-Allied) कमेटियों और स्थायी परिषदों का निर्माण किया गया । सर आर्थर साल्टर इन अन्तर्राज्य परिषदों को अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति की एक नवीन प्रवृत्ति मानते हैं । द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात्र सम्मेलन कूटनीति इतनी प्रचलित हो गयी कि इसने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लिया है ।
संयुक्त राष्ट्र सैनिक सन्धियों; जैसे नाटो सीटो तथा गुटनिरपेक्ष राज्यों के तत्वावधान में सम्मेलन आयोजित होते ही रहते हैं । आंकड़ों के अनुसार प्रतिवर्ष 6 से 10 हजार अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन होते हैं । इनमें अधिकांश सम्मेलन संयुक्त राष्ट्र संघ या इससे सम्बद्ध संगठनों तथा अभिकरणों के तत्वावधान में किए जाते हैं ।
आजकल इन सम्मेलनों का और बहुपक्षीय राजनीति का महत्व इतना अधिक बढ़ गया है कि, संयुक्त राष्ट्र के सचिवालय में ऐसे सम्मेलन बुलाने और इनकी व्यवस्था करने के लिए एक पृथक् विभाग बनाया गया है और यह संघ की महासभा परिषदों आयोगों और सम्मेलनों की बैठकें बुलाने का आयोजन संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में करता है ।
(3) व्यक्तिगत कूटनीति (Personal diplomacy):
जब कूटनीतिक विषयों के समाधान के लिए सरकारी अधिकारियों के स्थान पर सम्बन्धित देशों के अध्यक्षों प्रधानमन्त्रियों अथवा विदेशमन्त्रियों द्वारा सीधा भाग लिया जाता है, तो उसे व्यक्तिगत कूटनीति कहा जाता है । द्वितीय विश्वयुद्ध की अन्त राज्य नीति के निर्माण और विकास में चर्चिल तथा रूजवेल्ट का विशेष हाथ था ।
संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में होने वाले सम्मेलनों में महासभा की बैठकों में सभी देशों के प्रधानमन्त्री प्राय: भाग लेते हैं । आवागमन के साधनों के तीव्र विकास ने व्यक्तिगत कूटनीति के प्रयोग में वृद्धि की है । अब तो थोडे-से भी महत्व वाले मामलों में व्यक्तिगत कूटनीति को अपनाया जाता है ।
कभी-कभी समस्त परम्परागत माध्यमों के स्थान पर राष्ट्रों के अध्यक्ष विशेष महत्वपूर्ण, गम्भीर, नाजुक स्थितियों को संभालने के लिए अपने विशेष विश्वासपत्र व्यक्तियों का उपयोग करते हैं । हम सभी जानते हैं कि विल्सन कर्जन हाउस पर, रूजवेल्ट हैरी हापकिन्स पर, नेहरू कृष्णा मेनन पर, निक्सन हेनरी किसिंगर पर विशेष विश्वास करते थे । व्यक्तिगत कूटनीति का एक और रूप भी है कि, राष्ट्रों के अध्यक्ष व्यक्तिगत रूप से सीधे ही विचार-विमर्श करें जैसे पूर्व में सम्राट मिलते थे ।
चर्चिल और रूजवेल्ट तो टेलीफोन पर सीधी बात करते थे और पत्र-व्यवहार करते रहते थे । ऐसा कहा जाता है कि इस प्रकार की कूटनीति में अविवेक भ्रम द्विरूपता और रहस्योद्घाटन के अधिक अवसर रहते हैं । विशेषकर व्यक्तिगत रूप से यदि दो अध्यक्षों को एक-दूसरे का व्यक्तित्व रुचिकर न लगे तो समस्याओं के अधिक उलझने की सम्भावना रहती है ।
(4) शिखर कूटनीति (Summit diplomacy):
शिखर कूटनीति का अभिप्राय उस कूटनीति से है जिसमें विवाद हल करने के लिए राज्य या सरकार के प्रधान भाग लेते हैं । यह सम्मेलन और व्यक्तिगत कूटनीति का बड़ा ही प्रभावी ढंग है । द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान कई शिखर सम्मेलन हुए । गुट निरपेक्ष देशों के अब तक ग्यारह शिखर सम्मेलन हो चुके हैं ।
(5) वणिक कूटनीति (Commercial diplomacy):
आधुनिक कूटनीति पर व्यापार-वाणिज्य का विशेष प्रभाव पड़ा है । मुद्रा तथा वित्तीय समस्याओं तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के प्रश्न इतने तकनीकी हो गए हैं कि, विशेषज्ञ ही उनका संचालन कर सकते हैं । प्राचीन राजनय में राजदूत ही सभी प्रकार की व्यापारिक सन्धियां करते थे, परन्तु इधर वाणिज्य दूत ही ऐसी सन्धियों पर विशेष विचार करते हैं ।
आधुनिक राज्य आर्थिक दृष्टि से एक-दूसरे पर निर्भर हैं अत: आर्थिक तरीकों का कूटनीतिक प्रयोग होता है; जैसे पूर्व सोवियत संघ द्वारा यूगोस्लाविया से आर्थिक सम्बन्ध तोड़ना, सोवियत संघ द्वारा ‘कॉमन फार्म’ को सुदृढ़ करना अमरीका द्वारा समय-समय पर भारत को दी जाने वाली आर्थिक सहायता बन्द करना, आदि ।
(6) संगुट्टीय कूटनीति (Alliance and coalition diplomacy):
संगुट्टीय कूटनीति की चर्चा हौस्ल्टी, स्टीवेन रोजेन, ऐडवीन फेडर, आर. जे. रूमेल, के. जी हाल्स्टी आदि ने की है ।
संगुट्टीय कूटनीति में तीन बातों पर बल दिया जाता है:
(i) संगुट के निर्माण (Alliance Formation) अर्थात् गुट का निर्माण क्यों किया जाता है तथा कोई राज्य संगुट को क्यों छोड़ता है ?
(ii) संगुट की भूमिका (Alliance Performance) अर्थात् किसी संगुट में प्रभावक शक्ति का वितरण किस भांति होता है ? संगुट के सदस्य राज्यों में सुदृढ़ता का क्या आधार है ?
(iii) संगुट के प्रभाव (Effects of Alliances) । क्या संगुटों से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सन्तुलन बना रहता है ? आधुनिक युग में अनेक संगुटों का निर्माण हुआ है; जैसे-नाटो, वार्साय पैक्ट, सीटो, सेण्टो आदि । शीतयुद्ध के उत्तरार्द्ध में संगुट व्यवस्था बिखरने लगी थी । निक्सन ने लन्दन, पेरिस और टोक्यो के बजारा पेकिंग और मास्को की तरफ झांकना प्रारम्भ किया, जिससे संगुट्टीय कूटनीति में नयी प्रवृत्ति देखने को मिली ।
(7) सांस्कृतिक कूटनीति (Cultural diplomacy):
सांस्कृतिक कूटनीति अराजनीतिक तत्वों एवं समस्याओं पर बल देती है; जैसे विज्ञान, तकनीकी, शैक्षणिक आदान-प्रदान, आदि पर । दूसरे देशों में अपनी सभ्यता, जीवन प्रणाली तथा विचारधारा का प्रचार करना सांस्कृतिक कूटनीति का अंग है । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमरीका और सोवियत संघ सांस्कृतिक प्रसार एवं विस्तार पर अधिक जोर देने लगे ।
(8) प्रचार कूटनीति (Diplomacy by propaganda):
आजकल कूटनीति में प्रचार का महत्व काफी बढ़ गया है । कूटनीतिक निर्णयों को अपने अनुकूल बनाने के लिए प्रत्येक देश प्रचार तकनीकी का प्रयोग करता है । प्रचार द्वारा जनता में अनेक मिथ्या विश्वास एवं भ्रम उत्पन्न किए जाते हैं ।
इसके द्वारा समझौते पर विचार करने योग्य वातावरण तैयार किया जाता है । वैसे तो सभी राज्य प्रचार और प्रकाशन द्वारा कूटनीति का संचालन करते हैं, किन्तु साम्यवादी राज्यों में इनका प्रयोग अधिक व्यापक रूप में किया जाता है ।
(9) संसदात्मक कूटनीति (Parliamentary diplomacy):
संयुक्त राष्ट्र संघ में कार्यान्वित कूटनीति संसदात्मक कूटनीति जैसी है । संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठकों की प्रक्रिया राष्ट्रीय संसदों की प्रक्रिया के समान होती है । दोनों में एक ही निश्चित प्रक्रिया को अपनाया जाता है । राष्ट्रीय संसद की भांति संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रस्ताव प्रस्तुत किए जाते हैं ।
उन पर वाद-विवाद होता है पदाधिकारियों के चुनाव होते हैं बजट बनता है तथा स्वीकार किया जाता है । जिस प्रकार संसदात्मक व्यवस्था में राजनीतिक दल दबाव समूह आदि राज्य रीति-नीति को प्रभावित करते हैं उसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी क्षेत्रीय तथा राजनीतिक गुट संयुक्त राष्ट्र संघ की निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं । संसदीय कूटनीति की उपयोगिता यह है कि, इसके फलस्वरूप विश्व लोकमत संगठित होता है तथा इसके माध्यम से राज्यों के सहयोगपूर्ण सम्बन्धों को प्रोत्साहन मिलता है ।
Essay # 15. राजनय की क्रान्तिकारी शैली (Radical Style of Diplomacy):
राजनय की क्रान्तिकारी शैली का अर्थ समाजवादी या साम्यवादी राजनयिक शैली नहीं है । क्रान्तिकारी शैली का प्रयोग करने वाले राज्य के लिए वास्तव में क्रान्तिकारी राज्य होना भी जरूरी नहीं है । अक्सर यह होता है कि आन्तरिक मामलों में जड़ या प्रतिक्रियावादी नीति से जनता का ध्यान हटाने के लिए विदेश नीति के क्षेत्र में नवोदित राष्ट्र राजनय की क्रान्तिकारी शैली अपना लेते हैं ।
सुकर्णोकालीन इण्डोनेशिया तथा ऐकुमा के अधीन घाना इस बात के अच्छे उदाहरण हैं । इसके विपरीत क्रान्तिकारी राज्य अक्सर अपने राष्ट्रीय हितों के साधन के लिए पारम्परिक (औपनिवेशिक) राजनयिक शैली का अवलम्बन लेते हैं ।
स्टालिन और मोलोतोव, चाऊ एन लाई तथा उत्तर वियतनामी ले दुक तथा मादाम बिन्ह, आदि से यही प्रमाणित होता है । ‘क्रान्तिकारी शैली’ का मतलब सिर्फ इतना लगाना चाहिए कि राजनय की वह शैली जो अन्तर्राष्ट्रीय जगत में स्वीकृत पारम्परिक राजनयिक शैली को चुनौती देती हो ।
क्रान्तिकारी राजनयिक शैली में एक और प्रवृत्ति देखने में आती है । ऐसे राजनयिकों का आचरण सैनिक प्रकार के राजनय की तरह होता है । ‘क्रान्तिकारी राजनयिक’ राजनय के शिल्प को महत्वपूर्ण नहीं समझते । उनका रुझान, अनभ्यस्त, अनिपुण कार्यशैली की ओर होता है ।
क्रान्तिकारी परिवेश में अनभ्यस्त, अनिपुण का आकर्षण राजनय ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी दिखायी देता है । इसे एक तरह से औपनिवेशिक विरासत को ठुकराना कहा जा सकता है । यदि क्रान्तिकारी राजनय प्रतिक्रियावादी नीतियों को ढंकने वाले आचरण के रूप में नहीं अपनाया गया है तो वह अनिपुण होने पर भी नवोदित देश की विदेश नीति से घनिष्ट रूप से जुड़ा रहकर उसके राष्ट्रीय हित के साधन में समर्थ हो सकता है ।
Essay # 16. कूटनीति में नयी तकनीकें और नए विकास (New Techniques and Development in Diplomacy):
वर्तमान कूटनीति में कुछ महत्वपूर्ण तकनीकें एवं विकास इस प्रकार हैं:
(i) अन्तर्राष्ट्रीय संगठन:
पहले व्यक्तिगत स्तर पर कूटनीति का व्यवहार होता था, किन्तु आज सामूहिक रूप से अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर कूटनीति का प्रयोग हो रहा है ।
(ii) लोकतान्त्रिक निर्णय:
वर्तमान में संसद और विधायिका के मार्फत कूटनीतिज्ञों पर जनता का नियन्त्रण. रहता है ।
(iii) वाणिज्य का महत्व:
पूर्व में कूटनीति राजनीतिक प्रश्नों को अधिक महत्व देती थी अब व्यापार वाणिज्य के मसलों पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया जाता है ।
(iv) समाचार-पत्रों का महत्व:
कूटनीति में समाचार-पत्रों का महत्व बढ़ता जा रहा है । आज राजदूत को अपने स्वागतकर्ता देश के सभी प्रमुख समाचार-पत्रों का अध्ययन और विवेचन करना पड़ता है ।
Essay # 17. दुकानदार जैसी कूटनीति बनाम यौद्धिक कूटनीति (Shop-Keeper Diplomacy Vs. Warrior Diplomacy):
ओर्गेन्सकी ने दुकानदार जैसी कूटनीति और योद्धा कूटनीति में अन्तर किया है । ब्रिटिश कूटनीति को दुकानदार जैसी कूटनीति तथा जर्मन कूटनीति को योद्धा जैसी कूटनीति कहा जाता है । दुकानदार की कूटनीति सतर्क, शान्तिमय और तर्कसंगत दृष्टिकोण पर आधारित होती है, जबकि योद्धा की कूटनीति उसके प्रखर, झगड़ालू और गतिशील दृष्टिकोण पर आधारित होती है ।
हेरल्ड निकल्सन के अनुसार ब्रिटिश कूटनीति की सफलता के कारण उसका नरम, न्यायोचित व्यवहार, तर्कसंगतता और समझौते या लेन-देन पर आधारित होना है, जबकि हिटलर सन्धि वार्ता से प्राप्त लाभ की अपेक्षा युद्ध और शक्ति से प्राप्त त्वरित लाभों में अधिक विश्वास करता था । यौद्धिक कूटनीति समझौते में विश्वासनहीं करती तथा युद्ध के वातावरण को अधिकाधिक उत्तेजित करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहती है ।
Essay # 18. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में कूटनीति का भविष्य : मॉरगेन्थाऊ के विचार (Future of Diplomacy in International Politics: Morgenthau’s Views):
युद्ध एक तर्कसंगत साध्य की प्राप्ति का तर्कसंगत साधन था, किन्तु परमाणु युद्ध की सम्भावना ने युद्ध को अब आत्मघाती निराशा का साधन बना दिया है । परिणामत: युद्ध के विकल्पों की बात सोचना अपरिहार्य है । अब युद्ध और कूटनीति में से किसी एक को चुनने की गुंजाइश नहीं रह गयी है ।
अब तो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में कूटनीति का कार्य पहले से अधिक महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि जिस कूटनीति का अन्त युद्ध में होता है, वह अपने प्राथमिक ध्येय में जौ कि शान्तिपूर्वक साधनों द्वारा राष्ट्रीय हित का प्रवर्तन करना है, असफल रहती है ।
यह सच है कि, आधुनिक युग में कुछ ऐसे विकास हुए हैं जिनके परिणामस्वरूप ‘राजनय’ का महत्व कम हो गया है, लेकिन इसका यह अभिप्राय नहीं कि राजनय बेकार है । आज भी राज्यों के सामने एक प्रभावशाली विकल्प के रूप में राजनय ही है । मानव को युद्ध, हितों का त्याग और राजनय में से एक चुनना होगा ।
निःसन्देह मानव राजनय को ही चुनेगा क्योंकि आणविक हथियारों ने युद्ध को इतना आसान नहीं रहने दिया है तथा राष्ट्रीय हितों का परित्याग असम्भव है । इसलिए राजनय (कूटनीति) को ही सफल -बनाने के लिए राज्यों को प्रयत्नशील रहना होगा ।
मॉरगेन्थाऊ ने कूटनीति के ‘नौ नियमों’ की चर्चा की है, जिसके माध्यम से यह ‘समायोजन द्वारा शान्ति’ (Peace through accommodation) स्थापित कर सकती है:
(1) कूटनीति को धर्मयुद्धीय भावना से अवश्य रहित रहना होगा (Diplomacy must be divested of the crusading spirit):
कोई मत या धर्म सत्य नहीं होता । अपने धर्म या मत को सत्य मानकर शेष संसार पर आरोपित करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए । विदेश नीति के ध्येयों की परिभाषा एक विश्वव्यापी राजनीतिक धर्म के रूप में नहीं की जानी चाहिए ।
(2) विदेश नीति के ध्येयों की परिभाषा राष्ट्रीय हित के अर्थ में अवश्य करनी होगी तथा इसका यथेष्ट शक्ति द्वारा अवश्य पोषण करना (The objectives of Foreign Policy must be defined in term of the national interest and must be supported with adequate power):
शान्ति संरक्षण कूटनीति का यह दूसरा नियम है । एक शान्तिप्रिय राष्ट्र के राष्ट्रीय हित की परिभाषा केवल राष्ट्रीय सुरक्षा के अर्थ में हो सकती है, तथा राष्ट्रीय सुरक्षा की परिभाषा राष्ट्रीय क्षेत्र एवं इसकी संस्थाओं की अखण्डता के रूप में अवश्य होनी चाहिए । तब राष्ट्रीय सुरक्षा वह न्यूनतम वस्तु है, जिसकी कूटनीति को यथेष्ट शक्ति द्वारा बिना समझौते के रक्षा करनी होगी ।
(3) कूटनीति को राजनीतिक क्षेत्र पर दूसरे राष्ट्रों के दृष्टिकोण से अवश्य देखना होगा (Diplomacy must look at the political scene from the point of view of other nations):
कूटनीति को दूसरे राष्ट्रों के दृष्टिकोण, राष्ट्रीय हित, आदि को भी ध्यान में रखना चाहिए । “आत्म पक्षपात की अतिशयता एवं अन्य लोग स्वभावत: क्या आशा अथवा किस भय से करते हैं, इस विचार के पूर्णत: अभाव के समान किसी राष्ट्र के लिए और कुछ भी घातक नहीं है ।”
(4) राष्ट्र को उन सभी प्रश्नों पर जो उसके लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं, समझौता करने के लिए अवश्य इच्छुक रहना होगा (Nations must be willing to compromise on all issues that are not vital at them):
प्रत्येक राष्ट्र के दो प्रकार के हित होते हैं-स्थायीहित और अस्थायीहित । अस्थायी हित ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं होते, अत: ऐसे राष्ट्रीय हितों पर समझौता करने की भावना रखनी चाहिए ।
(5) यथार्थ लाभ की वास्तविकता हेतु निरर्थक अधिकारों की प्रतिच्छाया का परित्याग कर दीजिए (Give up the shadow of worthless rights for the substances of real advantages):
समझौता करते समय कूटनीतिज्ञ को मानवता, विश्वकल्याण जैसी अमूर्त बातों की अपेक्षा तध्यगत वस्तुओं को ध्यान में रखकर विचार करना चाहिए ।
(6) अपने आप को कभी ऐसी स्थिति में न रखिए जहां से आप बिना प्रतिष्ठा गंवाए पीछे नहीं हट सकते तथा वहां से आप बिना गम्भीर संकटों के आगे नहीं बढ़ सकते (Never put yourself in a position from which you cannot retreat without losing face and from which you cannot advance without grave risks):
अरक्षणीय स्थितियों में असावधान होकर गतिशीलतापूर्वक जाना और विशेषकर उचित समय में उनसे अपने को मुता करने से हठपूर्वक अस्वीकार करना अयोग्य कूटनीति का लक्षण है ।
(7) एक निर्बल संश्रित राष्ट्र को अपने लिए कभी निर्णय नहीं करने दीजिए (Never allow a weak ally to make decisions for you):
कूटनीति की दृष्टि से शक्तिशाली राष्ट्र को चाहिए कि उसके लिए कोई निर्बल राज्य निर्णय न ले । अपने शक्तिशाली मित्र की. सहायता द्वारा सुरक्षित होकर निर्बल संश्रित राष्ट्र अपनी विदेश नीति के ध्येयों और तरीकों को अपनी आवश्यकतानुसार चुन सकता है ।
(8) सशस्त्र सेनाएं विदेश नीति की यन्त्र हैं, इसकी स्वामी नहीं (The armed forces are the instruments of foreign policy, not its master):
सशस्त्र सेनाओं को विदेश नीति को क्रियान्वित करने का साधन होना चाहिए, उसका स्वामी नहीं बनना चाहिए । यदि किसी देश में सेना शासन पर हावी हो जाए, विदेश नीति के लक्ष्यों को निर्धारित करने लगे तो वहां शान्ति और समझौते की नीति सफल नहीं हो सकती है क्योंकि सशस्त्र सेनाएं सदैव युद्ध का साधन और उपकरण होती हैं जबकि विदेश नीति का प्रधान लक्ष्य शान्ति बनाए रखना होता है ।
परराष्ट्र सम्बन्धों का संचालन सेना को समर्पित करना, समझौते की सम्भावना को समाप्त करना है तथा शान्ति के हित को भी समर्पित कर देना है । सैनिक मस्तिष्क विजय एवं पराजय की एकान्तिक स्थितियों के बीच परिचालित होना जानता है ।
यह कूटनीति की उन धैर्यपूर्ण, जटिल एवं सूक्ष्म चालों के विषय में कुछ नहीं जानता, जिनका मुख्य उद्देश्य विजय एवं पराजय की एकान्तिक स्थितियों का परित्याग करना है तथा दूसरे पक्ष में वार्ता द्वारा किए समझौते के मध्यस्थ स्थान में मिलता है ।
सैनिक कला के नियमों के अनुसार सैनिक व्यक्तियों द्वारा संचालित विदेश नीति का अन्त केवल युद्ध में हो सकता है, क्योंकि हम उसी की तैयारी करते हैं, जो हम प्राप्त करेंगे । विदेश नीति का संचालन अवश्य इस प्रकार से होना चाहिए कि शान्ति संरक्षण सम्भव हो सके तथा युद्ध का कोहराम अवश्यम्भावी न हो जाए ।
(9) सरकार जनमत की नेता है, इसकी दास नहीं (The government is the leader of public opinion not its slave):
अन्तिम नियम यह है कि सरकार का संचालन करने वाले व्यक्तियों को लोकमत का नेतृत्व करना चाहिए और इसका वशवर्ती दास नहीं बनना चाहिए । दूसरे शब्दों में, राजनीतिक नेताओं को जनता का पथ-प्रदर्शन और नेतृत्व करना चाहिए । लोकप्रियता पाने के लिए जनता का अनुसरण करना उनके लिए घातक है ।
मॉरगेन्थाऊ के शब्दों मे- ”एक कूटनीतिज्ञ को लोक-भावावेश के झोंकों से अपने पाल को सुव्यवस्थित करना होगा तथा इसके साथ-साथ राज्य के जहाज को कुशल विदेश नीति के बन्दरगाह तक ले जाने के लिए उनका प्रयोग करना होगा । एक शब्द में, उसे अवश्य लोकमत का नेतृत्व करना होगा ।”
Essay # 19. कूटनीति का बढ़ता हुआ महत्व (Diplomacy: Increasing Importance):
ADVERTISEMENTS:
यदि कोई राष्ट्र कूटनीति को प्रयोग में नहीं लाना चाहता अथवा उसके पास कूटनीति को कार्यान्वित करने की क्षमता नहीं है तो वह अपने राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि के लिए युद्ध के अतिरिक्त कोई दूसरे विकल्प का सहारा नहीं ले सकता । यदि वह युद्ध का सहारा नहीं लेना चाहता अथवा नहीं ले सकता तो उसे अपने राष्ट्रीय हितों का ही परित्याग करना होगा ।
आधुनिक तकनीकी उन्नति ने युद्ध की उपादेयता को संदिग्ध बना दिया है और इस बात की कोई गारण्टी नहीं कि द्विपक्षीय युद्ध आणविक युद्ध में परिवर्तित न हो जाए अत: राज्यों के सामने कूटनीति के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं है । आज की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में कूटनीति का काम परमाणु बम का निवारण करना है ।
परमाणु युद्ध की समस्या एक भयंकर चुनौती है जिसका सामना कूटनीति को करना है । आज कूटनीति का कार्य अन्तर्राष्ट्रीय संकटों और समस्याओं का सामंजस्यपूर्ण हल खोजना ही नहीं है अपितु परमाणु अस्त्रों के फैलाव को रोकना है-तीसरे विश्वयुद्ध के खतरे को टालना है । जब हम यह कहते हैं कि, युद्ध सम्भव है तो कूटनीति की कला में आए परिवर्तनों के कारण अब यह भी कहा जाने लगा है कि कूटनीतिक वार्ता द्वारा युद्ध से बचा जा सकता है ।
मॉरगेन्थाऊ के अनुसार- ”कूटनीति शान्ति संरक्षण का सबसे उत्तम साधन है । कूटनीति आज की अपेक्षा शान्ति को अधिक सुरक्षित बना सकती है और यदि राष्ट्र कूटनीति के नियमों का पालन करें तो उस परिस्थिति की अपेक्षाविश्व राज्य शान्ति को अधिक सुरक्षित बना सकता है ।
तथापि जिस प्रकार एक विश्व राज्य के बिना स्थायी शान्ति सम्भव नहीं है, उसी प्रकार कूटनीति की शान्ति संरक्षण एवं लोकसमाज-निर्माण सम्बन्धी प्रक्रियाओं के बिना एक विश्व राज्य सम्भव नहीं है । विश्व राज्य को एक अस्पष्ट कल्पना से ऊपर उठाने के लिए कूटनीति की समायोजक प्रक्रियाओं का जिनसे संघर्ष मन्द एवं न्यूनतम होते हैं, अवश्य पुन: प्रवर्तन करना होगा ।