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Here is an essay on ‘Disarmament’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Disarmament’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on Disarmament
Essay Contents:
- नि:शस्त्रीकरण: परिभाषा और अर्थ (Disarmament: Meaning and Definition)
- निरस्तीकरण की आवश्यकता एवं दर्शन (Need for Disarmament)
- निरस्त्रीकरण के विपक्ष में तर्क (Arguments against Disarmament)
- निरस्त्रीकरण के मार्ग में बाधाएं और कठिनाइयां (Difficulties in the Path of Disarmament)
- शस्त्र नियन्त्रण (Arms Control)
- नि:शस्त्रीकरण की दिशा में किये गये प्रयास (Efforts for Disarmament)
Essay # 1. नि:शस्त्रीकरण: परिभाषा और अर्थ (Disarmament: Meaning and Definition):
विश्व में होने वाले विनाशकारी युद्धों के पीछे राष्ट्रों में शस्रीकरण की होड़ एष्क प्रमुख कारण रही है । इस सदी के प्रथम और द्वितीय विश्व महायुद्ध शस्रीकरण के फलस्वरूप राष्ट्रों द्वारा शक्ति-सन्तुलन की सीमा लांघ जाने की प्रक्रिया या उससे जुड़े हुए भय के कारण ही भड़क उठे थे ।
प्रथम विश्व-युद्ध के बाद पेरिस के शान्ति सम्मेलन में मित्र-राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने जर्मनी और उसके मित्र देशों को विसैन्यीकृत करके उनकी सैन्य शक्ति तथा शस्त्रीकरण की सामर्थ्य को परिसीमित कर दिया था, किन्तु इससे यूरोप के देशों में शलीकरण की होड़ कम नहीं हुई । सन् 1920-1936 के मध्य अनेक सम्मेलनों द्वारा विश्व की प्रमुख शक्तियों ने नि:शस्त्रीकरण की दिशा में कुछ निर्णय लिए, जिनका कारगर साबित न होना द्वितीय विश्व-युद्ध को भड़काने का प्रमुख कारण था ।
द्वितीय विश्व-युद्ध की विभीषिका के बावजूद विश्व का साम्यवादी और गैर-साम्यवादी खेमों में बंट जाना नि:शस्रीकरण का घोर शत्रु साबित हुआ । सोवियत संघ और अमरीका दोनों परमाणु शस्त्रों की प्रतिस्पर्द्धा में एक-दूसरे को पीछे धकेलने की नियति से अधिकाधिक परमाणु शस्त्रास्त्र जमा करने लगे । बाद में ब्रिटेन, चीन और फ्रांस भी इस प्रतिस्पर्द्धा में सम्मिलित हो गये ।
शस्त्रों की प्रतिस्पर्द्धा के बावजूद नि:शस्त्रीकरण के लिए द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद अनेक प्रयास हुए हैं । इस दृष्टि से महाशक्तियों द्वारा अप्रचुरण सन्धि तथा साल्ट सन्धियां विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । फिर भी महाशक्तियों के आपसी मनमुटाव इतने गहरे थे कि समस्त मानव जाति की इच्छा के बावजूद वे नि:शस्त्रीकरण पर कोई निश्चित कार्यवाही नहीं कर पायीं ।
नि:शस्त्रीकरण का शाब्दिक अर्थ है शारीरिक हिंसा के प्रयोग के समस्त भौतिक तथा मानवीय साधनों का उन्मूलन । यह एक कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य हथियारों के अस्तित्व और उनकी प्रकृति से उत्पन्न कुछ विशिष्ट खतरों को कम करना है ।
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इससे हथियारों की सीमा निश्चित करने या उन पर नियन्त्रण करने या उन्हें घटाने का विचार ध्वनित होता है । नि:शस्त्रीकरण के प्रयास युद्ध को पूरी तरह समाप्त करने की कलात्मक आशा की पूर्ति के लिए नहीं, अपितु आश्चर्य में डाल देने वाले तथा यकायक होने वाले आक्रमणों को रोकने के लिए किये जाते हैं ।
नि:शस्त्रीकरण का लक्ष्य आवश्यक रूप से निरस्त कर देना नहीं है । इसका लक्ष्य तो यह है कि जो भी हथियार इस समय उपस्थित हैं उनके प्रभाव को घटा दिया जाये । मॉर्गेन्थाऊ के अनुसार- ”निरस्त्रीकरण कुछ या सब शस्त्रों में कटौती या उनको समाप्त करना है ताकि शस्त्रीकरण की दौड़ का अन्त हो ।”
मॉर्गेन्याऊ के अनुसार- निरस्त्रीकरण पर विचार करते समय दो मूल भेदों को ध्यान में अवश्य रखना चाहिए, वे हैं सामान्य और स्थानीय निरस्त्रीकरण में भेद और मात्रात्मक और गुणात्मक निरस्त्रीकरण में भेद । सामान्य निरस्त्रीकरण से मतलब है जिसमें सब सम्बन्धित राष्ट्र भाग लें ।
इसका उदाहरण हमें 1922 की नौसैनिक शस्त्रीकरण पर परिसीमा की वाशिंगटन सन्धि से मिलता है, जिस पर सारी प्रमुख नैसर्गिक शक्तियों ने हस्ताक्षर किये और 1932 में विश्व निरस्त्रीकरण सम्मेलन से जिसमें लगभग राष्ट्र समुदाय के सब सदस्यों का प्रतिनिधित्व हुआ ।
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स्थानीय निरस्त्रीकरण से हमारा अभिप्राय उससे है जिसमें सीमित संख्या में राष्ट्र सम्मिलित हों । 1871 का अमरीका ओर कनाडा के बीच रश-बागोट समझौता इस प्रकार का एक उदाहरण है । मात्रात्मक निरस्त्रीकरण का उद्देश्य अधिक या सब प्रकार के शस्त्रीकरण में सम्पूर्ण कटौती है ।
1932 में विश्व निरस्त्रीकरण सम्मेलन में उपस्थित अधिकतर राष्ट्रों का यह ध्येय था । गुणात्मक निरस्त्रीकरण केवल विशेष प्रकार के शस्त्रों में कटौती या इनका उन्मूलन है, जैसे 1932 के विश्व निरस्त्रीकरण सम्मेलन में ब्रिटेन ने आक्रमणकारी शस्त्रों को अवैध कराने का यत्न किया था ।
व्यापक निरस्त्रीकरण को पूर्ण या सम्पूर्ण निरस्त्रीकरण (Total Disarmament) भी कहते हैं । पूर्ण या व्यापक निरस्त्रीकरण का अर्थ है अन्ततोगत्वा ऐसी विश्व व्यवस्था ले आना जिसमें युद्ध करने के सारे मानवीय और भौतिक साधन समाप्त कर दिये गये हों ।
इस प्रकार की विश्व व्यवस्था में किसी प्रकार का कोई हथियार नहीं होगा और सेनाएं पूरी तरह भंग कर दी जायेंगी । सैनिक प्रशिक्षण केन्द्र, युद्ध मन्त्रालय, सैनिक साज-सामान बनाने वाले कारखाने, आदि भी बन्द कर दिये जायेंगे ।
निरस्त्रीकरण अनिवार्य और ऐच्छिक प्रकार का भी होता है । अनिवार्य निरस्त्रीकरण युद्ध के उपरान्त विजयी राष्ट्रों पर लागू किया जाता है । प्रथम और द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद जर्मनी पर ऐसा ही निरस्त्रीकरण लागू किया गया था । यदि राष्ट्र स्वेच्छा से अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों द्वारा निरस्त्रीकरण स्वीकार करते हैं तो उसे ऐच्छिक निरस्त्रीकरण कहते हैं जैसे, 1968 की अणु प्रसार निरोध सन्धि ।
संक्षेप में, निरस्त्रीकरण सामान्य भी हो सकता है और स्थानीय भी, मात्रात्मक भी हो सकता है और गुणात्मक भी, एकपक्षीय ही हो सकता है और द्विपक्षीय भी, पूर्ण भी हो सकता है और आंशिक भी, नियन्त्रित भी हो सकता है और अनियन्त्रित भी । मोटे रूप से, निरस्त्रीकरण में मौजूदा अस्त्र कम या समाप्त करने की बात तथ्यगत रूप से होनी चाहिए ।
Essay # 2. निरस्तीकरण की आवश्यकता एवं दर्शन (Need for Disarmament):
निरस्त्रीकरण को शान्ति का एक साधन समझा जाता है । निरस्त्रीकरण का प्रयोजन राष्ट्रों को लड़ाई के साधनों से ही वंचित कर देना है । निरस्त्रीकरण दर्शन के अनुसार युद्ध का एकमात्र प्रत्यक्ष कारण शस्त्रों एवं हथियारों का अस्तित्व है । निरस्त्रीकरण का सिद्धान्त इस सम्प्रत्यय पर खड़ा है कि शस्त्रों के कारण युद्ध न केवल भौतिक दृष्टि से सम्भव है, बल्कि राजनीतिक दृष्टि से भी सम्भाव्य बन जाता है । ”मनुष्य इसलिए नहीं लड़ते कि उनके पास हथियार हैं, वरन् इसलिए लड़ते हैं कि वे उन्हें लड़ने के लिए आवश्यक समझते हैं ।”
बर्ट्रेण्ड रसेल ने लिखा है:
”अत्यधिक महत्वपूर्ण और वांछनीय होते हुए भी सामान्य निरस्त्रीकरण स्थायी शान्ति की प्राप्ति के लिए पर्याप्त नहीं होगा । जब तक वैज्ञानिक तकनीक का ज्ञान बना रहेगा, किसी बड़ी लड़ाई के छिड़ जाने पर दोनों पक्षों द्वारा ताप-नाभिकीय शस्त्रों का निर्माण शुरू हो जायेगा और पिछले शान्ति के वर्षों से भी अधिक संहारक हथियार आ जायेंगे । इस कारण केवल निरस्त्रीकरण ही पर्याप्त नहीं है, फिर भी यह एक आवश्यक कदम है जिसके बगैर (शान्ति के लिए किये गये) अन्य प्रयास अधिक उपयोगी नहीं होंगे ।”
निरस्त्रीकरण की आवश्यकता अग्रलिखित कारणों से अनुभव की जाती है:
1. शस्त्रीकरण से युद्ध की सम्भावना:
निरस्त्रीकरण का आधुनिक दर्शन इस संकल्पना को लेकर चलता है कि आदमी लड़ते हैं, क्योंकि उनके पास हथियार हैं । इस धारणा से यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि आदमी सब हथियार छोड़ दें तो सब प्रकार का लड़ना असम्भव हो जायेगा । इनिस क्लाड का अभिमत है कि शस्त्रास्त्रों से राष्ट्र नेताओं को युद्ध में कूदने का प्रलोभन हो जाता है ।
प्रथम विश्व-युद्ध का प्रधान कारण राष्ट्रों में व्याप्त शस्त्रीय होड़ ही था । शस्त्र उत्पादन पर अनाप-शनाप खर्च करके राजमर्मज्ञ जनता को उनका युद्ध में उपयोग करके यह दिखाते हैं कि इस पर किया गया खर्च राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण मामले पर था ।
मसलन द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान अमरीका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नगरों पर बम गिराये । इस बम के उत्पादन पर अमरीका ने अरबों डॉलर व्यय किया था । बम का प्रयोग कर अमरीकी शासकों ने अपनी जनता को परोक्ष रूप से यह दर्शाना चाहा कि खर्च किया गया धन व्यर्थ नहीं गया है । अत: निरस्त्रीकरण का मार्ग अपनाकर युद्धों से बचा जा सकता है ।
2. शस्त्रीकरण से अन्तर्राष्ट्रीय तनाव उत्पन्न होना:
राष्ट्रों में शस्त्र-निर्माण की होड़ अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा भंग करती है । इससे अन्तर्राष्ट्रीय तनाव बढ़ता है । विभिन्न राष्ट्रों में राष्ट्रीय हितों का टकराव अस्वाभाविक तथ्य नहीं है । इस टकराव में शस्त्रीकरण आग में घी का काम करता है और अन्तर्राष्ट्रीय तनाव अपनी चरमोत्कर्ष की सीमा पर पहुंच जाता है । इसी बात को ध्यान में रखते हुए हैडली बुल ने कहा है कि शस्त्रों की होड़ स्वयं तनाव की अभिव्यक्ति है । अत: अन्तर्राष्ट्रीय तनाव में कमी लाने के लिए निरस्त्रीकरण अत्यन्त आवश्यक है ।
3. शस्त्रीकरण पर असीमित व्यय से लोक-कल्याणकारी कार्यों की उपेक्षा:
शस्त्र उत्पादन में असीमित संसाधन व्यय किये जाते हैं । विश्व के छोटे-छोटे सभी राष्ट्र अपने बजट का अधिकांश भाग शस्त्रों के निर्माण एवं सैन्य सामग्री जुटाने में खर्च करते हैं । यह आश्चर्य की बात है कि महाशक्तियों द्वारा अरबों डॉलर खर्च करके ऐसे बमों एवं मिसाइलों का निर्माण किया गया है जिनकी भविष्य में प्रयोग किये जाने की कोई सम्भावना प्रतीत नहीं होती । वह विपुल धनराशि जो राष्ट्रों द्वारा विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण पर व्यय की जाती है यदि विश्व के अविकसित और पिछड़े देशों के विकास पर व्यय की जाये तो समूचे विश्व का रूप बदल सकता है ।
आइजनहॉवर के शब्दों में- ”प्रत्येक बन्दूक जिसे बनाया जाता है, प्रत्येक युद्धपोत जिसका जलावतरण किया जाता है, प्रत्येक रॉकेट जिसे छोड़ा जाता है, अन्तिम अर्थों में उन लोगों के प्रति जो भूखे रहते हैं और उन्हें खाना नहीं खिलाया जाता, जो ठिठुरते हैं, किन्तु उन्हें वस्त्र नहीं दिये जाते – एक चोरी का सूचक होता है ।” दूसरे शब्दों में, विनाशकारी कार्यों में व्यय किये जाने वाले इस धन को लोक-कल्याणकारी कार्यों में लगाकर पृथ्वी को स्वर्ग बनाया जा सकता है ।
4. शस्त्रीकरण नैतिकता के प्रतिकूल है:
शस्त्रों से युद्ध होता है और युद्ध सैनिक दृष्टि से अनुचित है । जो लोग युद्ध के नैतिक अनौचित्य में विश्वास रखते हैं उनका कहना है कि हथियार रखने का अर्थ है युद्ध की मूक स्वीकृति और युद्ध की मूक स्वीकृति हर प्रकार से युद्ध को बल देती है ।
शस्त्रीकरण को नैतिकता के प्रतिकूल मानने वालों में धर्मगुरु, सामाजिक कार्यकर्ता तथा प्रबुद्ध लेखक हैं । इन नैतिकतावादियों का तर्क है कि किसी भी अच्छे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए साधन भी उतने श्रेष्ठ होने चाहिए ।
मसलन यदि कोई राष्ट्र शत्रु से राष्ट्रीय सुरक्षा करने हेतु शस्त्रों का उत्पादन करता है तो यह नैतिकता के खिलाफ है क्योंकि यह शस्त्रीकरण अन्ततोगत्वा युद्ध को जन्म देता है । युद्ध रूपी अनुचित साधन के किसी भी अच्छे उद्देश्य की प्राप्ति नैतिक रूप से न्यायोचित नहीं ठहरायी जा सकती है ।
5॰ शस्त्रीकरण से अन्य देशों में हस्तक्षेप:
शस्त्रीकरण दूसरे देशों द्वारा हस्तक्षेप करने का भी मार्ग प्रशस्त करता है । विश्व के छोटे राष्ट्र बड़े राष्ट्रों से शस्त्र तथा हथियारों की टेक्नोलॉजी का आयात करते हैं । आमतौर से यह देखा गया है कि बड़े राष्ट्र शस्त्र निर्यात और शस्त्र सहायता को राजनीतिक दबाव के साधन के रूप में प्रयुक्त करते हैं ताकि परोक्ष रूप से प्राप्तकर्ता देश दाता देशों के चंगुल में फंसे रहें ।
यही नहीं, शस्त्र सहायता एवं शस्त्र निर्यात के नाम पर बड़ी शक्तियां छोटे देशों की अर्थव्यवस्था में घुसपैठ करती हैं । मसलन अमरीका ने नाटो, सीटो, सेण्टो तथा सोवियत संघ ने वारसा पैक्ट के द्वारा इनके सदस्य राष्ट्रों को शस्त्र सहायता दी ।
इस शस्त्र सहायता के नाम पर यथार्थ में सदस्य राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था में घुसपैठ की । किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में बाहरी घुसपैठ उसको दूसरे पर निर्भर बनाती है । यह कई बार राजनीतिक हस्तक्षेप का भी मार्ग प्रशस्त करती है । अत: तीसरे विश्व में बाह्य हस्तक्षेप को रोकने के लिए आवश्यक है कि शस्त्रीकरण की नीति छोड़कर निरस्त्रीकरण के मार्ग को अपनाया जाये ।
6. शस्त्रीकरण से आर्थिक विकास का मार्ग अवरुद्ध होना:
शस्त्रीकरण पर राष्ट्रीय आय का बहुत बड़ा हिस्सा खर्च होने से विशेषकर तीसरी दुनिया के विकासशील देशों के आर्थिक विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है । जैसा कि हम सभी जानते हैं कि अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमरीका महाद्वीप के राष्ट्र द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद ही औपनिवेशिक दासता के पंजे से मुक्त हुए हैं ।
औपनिवेशिक शासन के दौरान उनकी अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर दिया गया था । औपनिवेशिक शक्तियों ने उनका असीमित आर्थिक शोषण किया । स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में उदय होने के कारण अब तीसरी दुनिया को अपनी एक मजबूत अर्थव्यवस्था का निर्माण करना है, जो स्वतन्त्र आर्थिक विकास के माध्यम से ही सम्भव है । जब इन गरीब राष्ट्रों द्वारा शस्त्रीकरण पर असीमित व्यय किया जाता है तो स्वाभाविक है कि आर्थिक विकास की उपेक्षा होती है ।
7. शस्त्रीकरण मृत्यु का पैगाम है:
शस्त्रीकरण के क्षेत्र में होने वाली आश्चर्यजनक क्रान्ति ने सपूर्ण मानवता को जीवन और मृत्यु के चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है । तकनीकी अविष्कारों ने इतने भयानक शस्त्रों का निर्माण कर दिया है कि कुछ ही मिनटों में सम्पूर्ण विश्व को नष्ट किया जा सकता है ।
फिलिप नोअल बेकर के शब्दों में- “आधुनिक शस्त्रों में प्रतिद्वन्द्विता मानवता के लिए मौत का ऐसा सन्देश बन गयी है जिसकी भयानकता किसी भाषा में भी व्यक्त नहीं की जा सकती है । केवल निरस्त्रीकरण सन्धि के ही उपाय द्वारा इसे रोका जा सकता है ।”
8. मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण:
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से स्पष्ट है कि शस्त्रीकरण देश में सैनिकीकरण को जन्म देता है । सैनिकों का होना इस बात का द्योतक है कि किसी भी प्रकार से युद्ध में विजय प्राप्त की जाय । शस्त्रों की उपस्थिति का अर्थ शक्ति का प्रदर्शन, धमकी, आक्रमण, विरोध आदि को प्रोत्साहित करना है । ये सभी कारण मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अशान्त वातावरण उत्पन्न करते हैं ।
9. उपनिवेशवाद व साम्राज्यवाद का अन्त करने में सहायक:
साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद ये सभी शक्ति को बढ़ाने के दूसरे रूप हैं । एक राष्ट्र को शक्ति व राष्ट्रों को बढ़ाना ही युद्ध को जन्म देना है । नि:शस्त्रीकरण में साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद का अन्त होता है तथा राष्ट्रों के बीच शान्ति स्थापित की जा सकती है ।
Essay # 3. निरस्त्रीकरण के विपक्ष में तर्क (Arguments against Disarmament):
कई विचारक विश्व-शान्ति के लिए निरस्त्रीकरण के महत्व को स्वीकार नहीं करते और इसके विपक्ष में निम्नलिखित तर्क देते हैं:
I. निरस्त्रीकरण से युद्ध अधिक होने की प्रवृत्ति:
क्विन्सी राइट के अभिमत में निरस्त्रीकरण से सम्भवत: युद्ध अधिक होने की प्रवृत्ति पैदा होगी । युद्ध होने की सम्भावना उस समय अधिक रहती है जब सब राज्यों के पास हथियार कम हों । राज्यों के पास जितनी ज्यादा मात्रा में हथियार होंगे वे उतने ही ज्यादा मात्रा में एक-दूसरे से डरते रहेंगे और एक-दूसरे को शक्ति प्रयोग से रोकते रहेंगे ।
यदि राज्यों के पास कम हथियार होंगे तो वे युद्ध को राष्ट्रीय नीति का साधन बना लेंगे और बिना किसी झिझक के शस्त्रों का प्रयोग करेंगे । परमाणु युग के नूतन हथियार युद्ध का सहारा लेने की अनिच्छा पैदा करते हैं और निरस्त्रीकरण को पहले से कहीं अधिक सम्भव बना रहे हैं ।
II. निरस्त्रीकरण से आर्थिक मन्दी:
ऐसा भी कहा जाता है कि निरस्त्रीकरण से आर्थिक मन्दी पैदा होगी जिससे समृद्धि का मार्ग अवरुद्ध होगा । आज लाखों-करोड़ों मजदूर और तकनीकी विशेषज्ञ शस्त्र निर्माण, शोध तथा सैनिक साज-सामान के निर्माण में लगे हुए हैं । यदि निरस्त्रीकरण लागू किया जाता है तो करोड़ों लोग बेकार हो जाएंगे, हजारों कारखाने बन्द हो जाएंगे और कई देशों की अर्थव्यवस्था डगमगा जायेगी ।
III. निरस्त्रीकरण से बैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति का अवरुद्ध होना:
ऐसा भी कहा जाता है कि निरस्त्रीकरण से तकनीकी और वैज्ञानिक उन्नति की गति मन्द पड़ जायेगी । आज विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में जितनी भी उन्नति हुई है उसका मूल कारण राष्ट्रीय सुरक्षा की चिन्ताएं और शस्त्र निर्माण के क्षेत्र में होने वाले अनुसन्धान हैं ।
Essay # 4. निरस्त्रीकरण के मार्ग में बाधाएं और कठिनाइयां (Difficulties in the Path of Disarmament):
निरस्त्रीकरण की दिशा में किये गये प्रयासों में कोई चमत्कारिक सफलता नहीं मिली है ।
निरस्त्रीकरण के मार्ग में अनेक बाधाएं हैं, जो इस प्रकार हैं:
A. प्राथमिकता का प्रश्न (Priority of Disarmament or the Solution of Disputes):
निरस्त्रीकरण पहले किया जाये अथवा राज्यों के आपसी विवादों को पहले सुलझाया जाये । निरस्त्रीकरण हो जाये तो कई राजनीतिक विवाद स्वयं सुलझ जायेंगे और राजनीतिक विवाद सुलझ जायें तो निरस्त्रीकरण करना सुगम हो जायेगा ।
हमारी मूल समस्या यह है कि दोनों में से किस तर्क को ज्यादा वजनी मानें । हमारी धारणा यह है कि शस्त्रों की होड़ से तनाव, शंका, भय और युद्ध का सूत्रपात होता है अत: निरस्त्रीकरण को प्राथमिकता देनी होगी ।
B. अनुपात की समस्या (The Problem of ‘Ratio’):
निरस्त्रीकरण से अभिप्राय है शस्त्रीकरण पर सीमा, या नियन्त्रण लगाना अथवा उनमें कटौती करना । निरस्त्रीकरण की मूल समस्या सभी देशों के शस्त्रों का आनुपातिक रूप से कम करना है । निरस्त्रीकरण के उपरान्त यह नहीं होना चाहिए कि शक्तिशाली देश तो कमजोर बन जाये तथा कमजोर देश अधिक शक्तिशाली बन जाये । अत: निरस्त्रीकरण में ‘सन्तुलित’ अथवा ‘आनुपातिक’ शक्ति को स्थिर ही रखना पड़ेगा ।
राज्य इस बात के लिए विशेष सतर्क रहते हैं कि आनुपातिक शक्ति में निरस्त्रीकरण के बाद कोई भी परिवर्तन न हो । इतना ही नहीं, प्रत्येक राज्य निरस्त्रीकरण के द्वारा अपनी शक्ति पर तो कोई आंच नहीं आने देना चाहता, यद्यपि दूसरे राज्यों की शक्ति को क्षीण करना चाहता है ।
अत: निरस्त्रीकरण के प्रस्ताव प्राय: एकपक्षीय होते हैं । सैल्वाडोर दि मदेरियागा ने इसी तथ्य को लिटिनोव द्वारा प्रस्तुत एक प्रस्ताव के उत्तर में 1932 में जेनेवा निरस्त्रीकरण सम्मेलन में एक लोककथा द्वारा चित्रित किया है ।
”जंगल के सभी जीव-जन्तु निरस्त्रीकरण सम्मेलन में भाग लेने के लिए एकत्र हुए । शेर ने गिद्ध की ओर देखते हुए गम्भीरता से कहा, हमें शिकारी पक्षियों के नखों को समाप्त करना होगा । चीते ने हाथी की ओर देखते हुए कहा, इन बाह्य दांतों को भी हटाना होगा, हाथी ने चीते की ओर देखते हुए कहा, नाखून और पंजे भी नहीं रहने चाहिए । इसी प्रकार बारी-बारी से कोई जानवर उठता अपने को छोड़कर जिस पर उसकी दृष्टि पड़ती उसके नुकीले दांत या नाखूनों को समाप्त करने की बात करता । अन्त में रीछ अपने स्थान से उठा और बहुत मीठे लहजे में बोला – साथियों सबको समाप्त कर दो, सबका उन्मूलन कर दो, बस यह महान् सर्वदेशीय आलिंगन रहने दो ।”
कहने का मतलब यह है कि निरस्त्रीकरण के लिए विभिन्न राष्ट्रों द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव बड़े एकपक्षीय होते हैं । आनुपातिक निरस्त्रीकरण करना तो और भी कठिन है ।
C. राष्ट्रीय हित:
राष्ट्रीय स्वार्थ निरस्त्रीकरण के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा है । राष्ट्र सबसे पहले अपने हितों को देखते हैं और उसके बाद अपनी राष्ट्रीय सीमा से बाहर निकलकर आदर्शों में लिपटी हुई भाषा में अन्तर्राष्ट्रीय जगत को धोखा देने का प्रयास करते हैं । कोई भी राष्ट्र इसका अपवाद नहीं है । उदाहरणार्थ, भारत ने 1968 की परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं किये । भारत चीन से भयभीत है और परमाणु अप्रसार संधि को शंका की दृष्टि से देखता है ।
D. राष्ट्रवाद एवं सम्प्रभुता:
राष्ट्रवाद एवं सम्पभुता की भावना के कारण एक देश यह स्वीकार नहीं करता कि उसकी निरस्त्रीकरण की क्रियान्विति की जांच के लिए कोई अन्तर्राष्ट्रीय संस्था बनायी जाये । इस प्रकार के निरीक्षण द्वारा एक देश की स्वतन्त्रता पर जो अंकुश लगता है उसे मानने को कोई भी तैयार नहीं होता ।
E. राजनीतिक समस्याएं:
निरस्त्रीकरण राजनीतिक समस्याओं के समाधान पर निर्भर करता है, अत: पहले राजनीतिक समस्याओं को हल किया जाये या निरस्त्रीकरण किया जाये । ये दोनों एक-दूसरे के मार्ग में बाधा डालते हैं । यह सोचा जाता है कि शस्त्र झगड़ों का कारण हैं और इनको घटाने से अन्तर्राष्ट्रीय प्रेम और मैत्री बढ़ेगी, किन्तु यह प्रयास एकपक्षीय होगा ।
होना यह चाहिए कि मनमुटाव, अविश्वास एवं प्रतिद्वन्द्विता को दूर करने के लिए हर दिशा में प्रयास किया जाये । वास्तव में, निरस्त्रीकरण की दिशा में ठोस कार्य तब तक नहीं हो सकता जब तक महाशक्तियों में मौलिक मतभेद बने रहेंगे ।
F. आर्थिक कारण:
अमरीका और ब्रिटेन आदि पूंजीवादी देशों में शस्त्रास्त्र निर्माण करने वाली कम्पनियों के मालिक व हिस्सेदार राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं और निरस्त्रीकरण कार्यक्रमों को सफल नहीं होने देते, क्योंकि निरस्त्रीकरण हो जानें से उनका रोजगार ठप्प हो जायेगा और उनके कारखाने बन्द हो जायेंगे ।
निरस्त्रीकरण हो जाने से यदि शस्त्र उद्योग बन्द हो गये तो पूंजीवादी देशों में बेकारी बढ़ेगा और लोगों की क्रयशक्ति नष्ट हो जायेगी । ऐसा कहा जाता है कि निरस्त्रीकरण के कारण होने वाली आर्थिक कटौती से आर्थिक संकट आ जायेगा ।
Essay # 5. शस्त्र नियन्त्रण (Arms Control):
नि:शस्त्रीकरण के कार्यक्रम को कुछ विद्वान शस्त्र नियन्त्रण या आयुध नियन्त्रण (Arms Control) कार्यक्रम कहकर पुकारते हैं । निरस्त्रीकरण के अनुसार तो राष्ट्रों के पास शस्त्र ही नहीं होने चाहिए, राष्ट्रों के पास बिल्कुल ही शस्त्र या सेना न रहे अथवा सपूर्ण निरस्त्रीकरण हो जाए, ऐसा सम्भव नहीं है ।
फिर भी निरस्त्रीकरण केवल वर्तमान में उपलब्ध हथियारों का हो सकता है, जबकि शस्त्रों के उत्पादन की तकनीक में निरन्तर प्रगति होती रहती है और उसके परिणामस्वरूप नये हथियार बनते रहते हैं अत: स्पष्ट है कि निरस्त्रीकरण को नये हथियारों पर लागू नहीं किया जा सकता ।
इस प्रकार के नियन्त्रण के लिए एक पृथक् शब्दावली प्रयुक्त की जाती है और वह है ‘शस्त्र नियन्त्रण’ (Arms Control) । निरस्त्रीकरण शब्द का प्रयोग मौजूदा हथियारों के नियन्त्रण के लिए किया जाता है और शस्त्र नियन्त्रण शब्द भविष्य के हथियारों के नियन्त्रण के लिए ।
निरस्त्रीकरण शस्त्रों पर नियन्त्रण करने का प्रयत्न करता है और शस्त्र नियन्त्रण शस्त्र की होड़ रोकने की कोशिश करता है । नि:शस्त्रीकरण का अर्थ युद्ध संचालन के सभी शस्त्रों तथा सेनाओं को अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों द्वारा घटाना है जबकि शस्त्र नियन्त्रण में वे सभी अन्तर्राष्ट्रीय समझौते अथवा उपाय आ जाते हैं जिनसे स्वीकृत शस्त्रों के प्रयोग को नियन्त्रित किया जाता है । शस्त्र नियन्त्रण इस प्रकार शस्त्रों की कटौती पर उतना बल नहीं देता जितना कि इस बात पर कि किन विशिष्ट प्रकार के शस्त्रों का प्रयोग न किया जाए ।
शस्त्र नियन्त्रण एक अन्तर्राष्ट्रीय निरीक्षक संस्था की अनिवार्यता स्वीकार करता है जो समस्त राज्यों का निरीक्षण करने में समर्थ हो कि राज्यों द्वारा निषिद्ध शस्त्रों का निर्माण अथवा प्रयोग तो नहीं हो रहा । वस्तुत: निरस्त्रीकरण और शस्त्र नियन्त्रण का अन्तर ही शीतयुद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ द्वारा एक-दूसरे के विरुद्ध प्रचार का स्रोत बन गया था ।
सोवियत संघ अमेरिका पर यह आरोप लगा रहा था कि वह निरस्त्रीकरण से पूर्व ही नियन्त्रण व्यवस्था चाहता है । उसी प्रकार अमरीका का सोवियत संघ पर आरोप था कि वह बिना नियन्त्रण की व्यवस्था के लिए निरस्त्रीकरण चाहता है ।
संक्षेप में अन्तर्राष्ट्रीय शांति के लिए निरस्त्रीकरण और शस्त्र नियन्त्रण एक-दूसरे के पूरक हैं । शस्त्र नियन्त्रण निरस्त्रीकरण का अनिवार्य अंग है । दोनों का मूल उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय समाज में अवैध हिंसा एवं शक्ति के प्रयोग को रोकना, सीमित करना तथा उसे कम करना है ।
Essay # 6. नि:शस्त्रीकरण की दिशा में किये गये प्रयास (Efforts for Disarmament):
नि:शस्त्रीकरण की दिशा में किये गये प्रयासों का इतिहास अनेक असफलताओं तथा कुछ सफलताओं की कहानी है । परिणामों की असफलता का मुख्य कारण निरस्त्रीकरण के लिए राष्ट्रों में सदिच्छा का अभाव है । प्रथम महायुद्ध से पूर्व ‘शक्ति ही सबसे बड़ा न्याय’ था, अत: उस काल में निरस्त्रीकरण के लिए किये गये प्रयासों का विशेष महत्व नहीं है ।
विश्व के देशों को निरस्त्र करने की न तो किसी ने आवश्यकता अनुभव की थी और न इस दिशा में प्रयास ही किये गये थे । सन् 1899 के हेग सम्मेलन में बस यह प्रस्ताव ही पारित हुआ था कि- ”मानवता के भौतिक और नैतिक कल्याण के लिए सैनिक हथियारों का नियन्त्रण अत्यन्त आवश्यक है ।”
दूसरे हेग सम्मेलन (1907) में इस बात की संस्तुति की गयी थी कि विभिन्न राष्ट्रों की सरकारें इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें । प्रथम महायुद्ध में हुए नरसंहार ने युद्ध की भयानकता से भावी संततियों को बचाने के लिए नि:शसस्त्रीकरण की आवश्यकता सिद्ध कर दी ।
दो महायुद्धों के मध्य नि:शस्त्रीकरण के प्रयास:
सन् 1919 से लेकर 1939 तक नि:शस्रीकरण समस्या के समाधान के लिए राष्ट्र संघ में तथा राष्ट्र संघ के बाहर प्रयास किये गये ।
राष्ट्र संघ द्वारा किये गये नि:शस्त्रीकरण प्रयास:
1. शान्ति और सुरक्षा के लिए नि:शस्त्रीकरण की आवश्यकता का अनुभव करते हुए पेरिस के शान्ति समझौते की विचित्र सन्धियों में इस दिशा में पहले चरण के रूप में जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी की स्थलीय एवं जलीय सैनिक शक्तियों को सीमित कर दिया गया ।
2. राष्ट्र संध के संबिधान की 8वीं धारा में शान्ति स्थापित करने के लिए शस्त्रास्त्रों की कमी को आवश्यक बताते हुए इसके लिए विस्तृत योजना बनाने का कार्य संघ की कौंसिल को सौंपा गया था ।
3. इस कार्य के लिए जनवरी 1920 में एक स्थायी परामर्शदाता आयोग (Permanent Advisory Commission) बनाया गया । इसके सदस्य उस समय कौंसिल में विद्यमान देशों में से प्रत्येक की स्थल, जल और वायु सेना के एक-एक विशेषज्ञ होते थे ।
इन सेनाविशारदों से नि: शस्त्रीकरण की आशा वैसी ही थी जैसी पादरियों के किसी आयोग से वास्तविकता की घोषणा की आशा रखना । अत: नवम्बर 1920 में संघ की असेम्बली ने इसमें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में विशेषज्ञ समझे जाने वाले छ: सिविलियन (Civilian) व्यक्ति बढ़ाकर अस्थायी मिश्रित आयोग (Temporary Mixed Commission) के रूप में इसका पुनर्निर्माण किया ।
4. सितम्बर 1922 तक अनेक योजनाओं पर विचार करने के बाद अस्थायी मिश्रित आयोग इस परिणाम पर पहुंचा कि इस समस्या का हल विभिन्न देशों को सुरक्षा (Security) प्रदान करने से सम्भव है, जब तक उन्हें सुरक्षा प्राप्त नहीं होगी, वे अपने शस्त्रास्त्र घटाने को तैयार नहीं होंगे ।
सुरक्षा प्रदान करने का पहला प्रयत्न चौथी असेम्बली द्वारा 1923 में पारस्परिक सहायता की सन्धि का मसविदा या प्रारूप (Draft Treaty of Mutual Assistance) स्वीकार करना था । इसका उद्देश्य आक्रमण का शिकार होने वाले राष्ट्रों को सहायता प्रदान करना था, किन्तु यह मसविदा ग्रेट ब्रिटेन, आदि देशों ने स्वीकार नहीं किया ।
इसके बाद मध्यस्थता के उपाय से सुरक्षा की समस्या हल करने का प्रयास किया गया और शूमैन के शब्दों में मध्यस्थता से सुरक्षा और सुरक्षा से नि:शस्त्रीकरण का नया मार्ग ढूंढ़ा गया । इसका अनुसरण करते हुए जेनेवा प्रोटोकोल तैयार किया गया और 15 जून, 1925 को सामान्य नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन बुलाने का निश्चय किया गया, किन्तु ग्रेट ब्रिटेन जेनेवा प्रोटोकोल स्वीकार करने को तैयार न था ।
5. अक्टूबर, 1924 में अस्थायी मिश्रित आयोग द्वारा काम करना बन्द कर दिया गया और इसके स्थान पर नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन के लिए सज्जीकरण आयोग (Preparatory Commission for the Disarmament Conference) बनाया गया और इसके सदस्य कौंसिल में विद्यमान राज्यों के प्रतिनिधियों के अतिरिक्त संघ के कुछ अन्य सदस्य राज्यों के प्रतिनिधि थे तथा संघ का सदस्य न होते हुए भी सं.रा. अमरीका, रूस और जर्मनी के प्रतिनिधियों को इसमें आमन्त्रित किया गया ।
सज्जीकरण आयोग पांच वर्ष तक निरन्तर प्रयास करने पर भी नि:शस्त्रीकरण सम्बन्धी मतभेदों को अपनी सात बैठकों में न सुलझा सका । 6 नवम्बर, 1930 को इस आयोग का सातवां और अन्तिम अधिवेशन हुआ ।
9 दिसम्बर, 1930 को इसने नि:शस्त्रीकरण की एक योजना का मूल प्रस्ताव (Draft Convention) पास करके अपनी कार्यवाही समाप्त की ।
60 धाराओं के इस प्रस्ताव की मुख्य व्यवस्थाएं इस प्रकार थीं:
i. स्थल युद्ध की रण सामग्री पर बजट द्वारा नियन्त्रण किया जाये ।
ii. सैनिकों की संख्या का नियन्त्रण करते हुए प्रशिक्षित सुरक्षित सैनिकों का विचार न किया जाये ।
iii. अनिवार्य सैनिक सेवा के वर्षों की अवधि घटायी जाये ।
iv. नौसैनिक जहाजों पर 1922 के वाशिंगटन सम्मेलन की तथा 1930 के लन्दन सम्मेलन की व्यवस्थाओं को लागू किया जाये ।
v. हवाई अस्त्रों को अश्व-शक्ति के आधार पर नियन्त्रित किया जाये ।
vi. रासायनिक तथा जीवाणु फैलाने वाले युद्धों को रोका जाये ।
vii. एक स्थायी नि:शस्त्रीकरण आयोग बनाया जाये ।
6. उपर्युक्त प्रस्ताव को मुख्य आधार बनाकर इस समस्या पर विचार करने के लिए राष्ट्र संघ का निरस्त्रीकरण सम्मेलन जेनेवा में 3 फरवरी, 1932 को आर्थर हैण्डर्सन के सभापतित्व में आरम्भ हुआ । इसमें 57 राज्यों से प्रतिनिधि आये थे ।
यह विधि की विडम्बना और क्रूर व्यंग्य था कि इस समय शंघाई में जापान की चीन के विरुद्ध लड़ाई चल रही थी । इस सम्मेलन के 232 प्रतिनिधि अपने साथ 337 प्रस्ताव लेकर आये थे । फ्रेंच प्रतिनिधि आन्द्रे तरद्यु ने इसे सफल बनाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय पुलिस की एक निरोधात्मक तथा दण्डात्मक सेना बनाने का प्रस्ताव रखा ।
इसके अनुसार विभिन्न राज्यों को सब आक्रमणात्मक शस्त्र और साधन – बड़े युद्धपोत, तोपखाने, पनडुब्बियां, बमवर्षक वायुयान संघ को दे देने चाहिए, सब विवादों का निर्णय आवश्यक रूप से मध्यस्थों द्वारा ही होना चाहिए । जर्मनी ने इससे यह मांग की कि राष्ट्र संघ के प्रतिज्ञा-पत्र – वर्साय की सन्धि में उसके साथ किया गया वचन पूरा होना चाहिए, उसका नि:शस्त्रीकरण इस आधार पर किया गया था कि अन्य देशों के शस्त्रास्त्र भी कम कर दिये जायेंगे ।
अब या तो दूसरे देशों के हथियार कम कर दिये जायें अथवा जर्मनी को अन्य देशों के बराबर शस्त्रास्त्र रखने दिये जायें, किन्तु फ्रांस जर्मनी की इस समानता की मांग को स्वीकार करने का कट्टर विरोधी था, वह अपनी सुरक्षा की दृष्टि से जर्मनी के निःशस्त्रीकरण को स्थायी बनाना चाहता था ।
फ्रांस और जर्मनी के परस्पर विरोधी दृष्टिकोण से सम्मेलन में गतिरोध उत्पन्न हो गया । हिटलर के अभ्युदय के बाद 14 अक्टूबर, 1933 को जर्मनी ने नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन से पृथक् होने की घोषणा की । इससे यह सम्मेलन, क्रियात्मक रूप से समाप्त और मृतप्राय हो गया, यद्यपि इसकी अन्तिम बैठक 29 मई, 1933 को हुई ।
सर अल्फ्रेड जिम्मर्न के सम्मेलन की विफलता के कारण:
a. पहला कारण:
इसमें सहयोग की भावना का अभाव और इसका राजनीतिक होना बताया है । इसमें विभिन्न राष्ट्र विश्व-शान्ति की समस्या सुलझाने के लिए नहीं, किन्तु अपनी प्रभुता बनाये रखने और दूसरों की शक्ति न बढ़ने देने के लिए एकत्र हुए थे ।
b. दूसरा कारण:
विभिन्न शक्ति के उग्र मतभेद थे । फ्रांस अन्तर्राष्ट्रीय सेना और सुरक्षा का दृढ़ समर्थक था । वह आरम्भ से ही राष्ट्र संघ की अध्यक्षता में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा के लिए सेना के निर्माण का प्रस्ताव रख रहा था, क्योंकि इस प्रकार वह जर्मन आक्रमण से निश्चिन्त हो सकता था ।
इसके बाद ही वह अपने हथियार घटाने को तैयार था । उसका यह मत था कि सुरक्षा के बाद शस्त्रीकरण की आवश्यकता नहीं रहेगी, किन्तु ग्रेट ब्रिटेन का यह विचार था कि हथियारों की वृद्धि राष्ट्रों में असुरक्षा की भावना पैदा करती है, यदि हथियारों को घटा दिया जाये तो चिन्ता, असुरक्षा और आक्रमण की आशंका स्वयमेव कम हो जायेगी, हथियार जितने कम होंगे, युद्ध का भय उसी मात्रा में घट जायेगा ।
अत: सुरक्षा से पहले नि:शस्त्रीकरण आवश्यक है । फ्रांस की सुरक्षा की मांग जर्मनी की समानता की मांग से सर्वथा प्रतिकूल थी । इन दोनों का समन्वय असम्भव था और इनके संघर्ष की चट्टान से टकराकर सम्मेलन की नौका डूबनी शुरू हुई थी ।
c. तीसरा कारण:
महाशक्तियों का नि:शस्त्रीकरण के सिद्धान्त में अविश्वास और पक्षपातपूर्ण व्यवहार था । ”प्रथम विश्व-युद्ध के विजेताओं ने जर्मनी का नि:शस्त्रीकरण तो बलपूर्वक कर दिया, किन्तु वचनबद्ध होने पर भी अपना नि:शस्त्रीकरण टालते रहे ।”
d. चौथा कारण:
यह था कि शस्त्रास्त्र निर्माण करने वाली कम्पनियों ने नि:शस्त्रीकरण सम्मेलनों को विफल बनाने का पूरा प्रयत्न किया, क्योंकि इनकी सफलता से उनके अत्यधिक व्यवसाय को गहरी क्षति और धक्का पहुंचता ।
राष्ट्र संघ की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए शूमां ने लिखा है कि, ”राष्ट्र संघ द्वारा विश्व में नि:शस्त्रीकरण के प्रयासों का आरम्भ जर्मनी के एकपक्षीय नि:शस्त्रीकरण से हुआ था और जर्मनी के एकपक्षीय पुन: संशोधन से इन प्रयासों का अन्त हो गया ।”
राष्ट्र संघ के बाहर किये गये नि:शस्त्रीकरण प्रयास:
राष्ट्र संघ के बाहर दो महायुद्धों के मध्य नि:शस्त्रीकरण की दिशा में जो प्रयत्न किये गये उनमें उल्लेखनीय थे:
I. वाशिंगटन सम्मेलन, 1921-22 (Washington Conference, 1991-22):
राष्ट्र संघ ने जिस समय अपना नि:शस्त्रीकरण का कार्य आरम्भ किया, उसी समय वाशिंगटन में राष्ट्र संघ से सर्वथा पृथक् विभिन्न देशों की जलीय शक्ति को नियन्त्रित करने के लिए एक सम्मेलन अमरीकन राष्ट्रपति हार्डिंग द्वारा 12 नवम्बर, 1921 को बुलाया गया ।
इसमें ग्रेट ब्रिटेन, जापान, फ्रांस, इटली, चीन, बेल्जियम, पुर्तगाल, हॉलैण्ड के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए । इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य विभिन्न देशों में नौसेना के विस्तार के लिए होने वाली व्ययसाध्य और अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति में बाधक उग्र प्रतिद्वन्द्विता को रोकना था ।
12 नवम्बर, 1921 से 6 फरवरी, 1922 तक इस सम्मेलन ने नौसेना होड़ को समाप्त करने के लिए सात सन्धियां कीं, इसमें सबसे महत्वपूर्ण पहली सन्धि ‘Nine Power Treaty Limiting Naval Armament’ थी । इस सन्धि में प्रत्येक देश के लिए बड़े युद्धपोतों और वायुयान वाहक पोतों के कुल टनों की मात्रा मर्यादित की गयी ।
इस सन्धि द्वारा सं.रा. अमरीका के पास अधिक से अधिक 5,25,000 टन के बड़े जंगी जहाज, ग्रेट-ब्रिटेन के पास 5,25,000 टन के जहाज, जापान के पास 3,15,000 टन के जहाज, फ्रांस के पास 1,75,000 टन कें जहाज और इटली के पास 1,75,000 टन के जहाज रखे जाने निश्चित हुए ।
इससे इनकी नौसैनिक शक्ति का अनुपात 5 : 5 : 3 : 1.67 : 1.67 निश्चित हुआ । ग्रेट-ब्रिटेन पनडुब्बियों को बिल्कुल समाप्त करने के पक्ष में था, किन्तु फ्रांस ने इसका घोर विरोध किया । वायु एवं स्थल सेना को घटाने के विषय में कोई समझौता नहीं हुआ । दो विश्वयुद्धों के मध्य हुए अनेक नि:शस्त्रीकरण सम्मेलनों में यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण सम्मेलन था, इसने युद्धपोतों के निर्माण की तात्कालिक होड़ को नियन्त्रित किया ।
II. जेनेवा सम्मेलन, 1927 (Geneva Conference, 1927):
वाशिंगटन सम्मेलन में बड़े युद्धपोतों का निर्णय तो हो गया, किन्तु अन्य छोटे युद्धपोतों का झगड़ा बाकी था । अत: सन् 1927 में राष्ट्रपति कूलिज ने वाशिंगटन सम्मेलन की सफलता से प्रभावित होकर जेनेवा में 5 महान जल शक्तियों का एक सम्मेलन बुलाया ।
फ्रांस व इटली में समता के बारे में झगड़ा होने तथा इटली के और अधिक कटौती के लिए तैयार न होने के कारण जेनेवा सम्मेलन में केवल अमरीका, ब्रिटेन और जापान के सैनिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया । यह सम्मेलन अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका । ब्रिटेन छोटे युद्धपोतों के मामले में अमरीका से समता के लिए तैयार नहीं था, क्योंकि अमरीका की तुलना में ब्रिटेन के समुद्रपार हित अधिक थे ।
III. लन्दन का नौसैनिक सम्मेलन, (London Naval Conference, 1930):
21 जनवरी, 1930 से आरम्भ होने वाले इस सम्मेलन में ब्रिटिश प्रतिनिधियों ने सब महाशक्तियों द्वारा सब प्रकार के रणपोतों के निर्माण को घटाने पर बल दिया । अमरीका ने इसका समर्थन करते हुए ब्रिटेन के साथ समानता पर बल दिया । जापान बड़े क्रूजरों में ब्रिटेन व अमरीका के 70 प्रतिशत क्रूजर रखना चाहता था । इटली अपनी नौसेना इस शर्त पर घटाना चाहता था कि उसकी घटी हुई नौसेना महाद्वीपीय शक्तियों के अर्थात् फ्रांस के तुल्य हो ।
तीन महीने की सुदीर्घ सन्धिवार्ता के उपरान्त 22 अप्रैल, 1930 को लन्दन की नौसैनिक सन्धि पर केवल ब्रिटेन, अमरीका और जापान ने हस्ताक्षर किये । फ्रांस और इटली में समानता के प्रश्न पर समझौता नहीं हुआ, अत: उन्होंने इसके नौ-सैनिक शक्ति मर्यादित करने वाले मुख्य अंश पर हस्ताक्षर नहीं किये ।
इस सन्धि की महत्वपूर्ण व्यवस्थाएं निम्नलिखित थीं:
i. पांच महाशक्तियों ने 1936 तक नये युद्धपोत न बनाने का निश्चय किया ।
ii. ब्रिटेन ने अपने पांच बड़े जंगी जहाज, अमरीका ने तीन तथा जापान ने एक जहाज नष्ट करने का निश्चय किया ।
iii. वायुयान वाहक जहाजों में 6.1 इंच से बड़ी तोपें न लगाने का निर्णय हुआ ।
iv. पनडुब्बियों का आकार 2,000 टन तथा तोपों का 5.1 इंच तक सीमित किया गया ।
v. तीनों देश 52,700 टन की पनडुब्बियां रख सकते थे ।
vi. इस सन्धि की अवधि 31 दिसम्बर, 1936 तक रखी गयी और 1935 में नया सम्मेलन बुलाने का निश्चय किया गया ।
VI. द्वितीय लन्दन नौसैनिक सम्मेलन, 1935 (Second London Naval Conference, 1935):
1930 की लन्दन की नौसैनिक सन्धि, 1936 में समाप्त होनी थी । इससे पहली नयी सन्धिवार्ता के प्रयत्न लन्दन में हुए, किन्तु इस समय जापान द्वारा सं.रा. अमरीका के तुल्य नौसेना रखने की मांग ने इस समस्या को जटिल बना दिया ।
सं.रा. अमरीका ने जापान की समानता की मांग का घोर विरोध किया । उसका यह कहना था कि अमरीका को प्रशान्त एवं अटलाण्टिक महासागरों के तटों की रक्षा करनी है, जबकि जापान के पास केवल प्रशान्त महासागर ही है, अत: उनकी नौसेना से समानता नहीं हो सकती ।
इन मतभेदों को हल करने के लिए लन्दन में दिसम्बर, 1935 को सं. रा. अमरीका, ब्रिटेन, जापान, इटली और फ्रांस का सम्मेलन हुआ, किन्तु इसमें न तो जापान की सं.रा. अमरीका के साथ समानता की मांग का प्रश्न हल हो सका और न फ्रेंच-इटालियन समानता की गुत्थी सुलझी ।
जापान यह सम्मेलन छोड़कर चला गया और 25 मार्च, 1936 को इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप हुई सन्धि पर केवल सं.रा. अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस ने हस्ताक्षर किये । इटली ने एबीसीनिया युद्ध में लगाये गये आर्थिक प्रतिबन्धों के कारण इस सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं किये । इसके बाद सभी राष्ट्र नौसैनिक प्रतियोगिता में कूद पड़े थे और निःशस्त्रीकरण सम्बन्धी समझौते असफलता के अन्धकार में भटक रहे थे । यह द्वितीय विश्व-युद्ध की भूमिका थी ।
द्वितीय महायुद्ध के बाद नि:शस्त्रीकरण के प्रयास:
1. संयुक्त राष्ट्र संघ चार्टर की दूसरी धारा में नि:शस्त्रीकरण की चर्चा की गयी है । चार्टर में नि:शस्त्रीकरण के बारे में संयुक्त राष्ट्र की जिम्मेदारी महासभा और सुरक्षा परिषद् दोनों पर डाली गयी थी ।
2. चार्टर के नि:शस्त्रीकरण सम्बन्धी उपबन्धों को कार्यान्वित करने के लिए पहला कदम 15 नवम्बर, 1945 को उठाया गया जब कनाडा, ब्रिटेन और अमरीका की सरकारों ने एक घोषणा प्रकाशित करके यह प्रस्ताव रखा कि परमाणु ऊर्जा के अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण पर कार्य करने के लिए एक संयुक्त राष्ट्रीय आयोग स्थापित किया जाय ।
3. संयुक्त राष्ट्र संघ की पहली महासभा ने संयुक्त राष्ट्र परमाणु ऊर्जा आयोग (United Nations Atomic Energy Commission) की स्थापना की जिसके सदस्यों में सुरक्षा परिषद् के सभी राष्ट्रों के साथ-साथ कनाडा भी था । परमाणु ऊर्जा आयोग की पहली बैठक में अमरीका ने एक राष्ट्रीय परमाणु विकास प्राधिकरण के लिए बरूख योजना (एचेसन-लिलिएंथल) पेश की ।
इस योजना के अनुसार परमाणु ऊर्जा आयोग को विखण्डनीय पदार्थों के उत्पाद की सब अवस्थाओं का निरन्तर निरीक्षण करना था और उसे परमाणु अस्त्रों के परीक्षण करने का और परमाणु ऊर्जा के शान्तिकालीन लाभों को बढ़ावा देने का अनन्य अधिकार दिया गया । सोवियत संघ ने बरूख योजना के निरीक्षण सम्बन्धी और खानों तथा फैक्टरियों के अन्तर्राष्ट्रीय स्वामित्व और प्रबन्ध सम्बन्धी उपबन्धों पर आपत्ति की ।
4. 13 फरवरी, 1947 को सुरक्षा परिषद् ने पारस्परिक हथियार आयोग (Conventional Disarmament Commission) की स्थापना की जिसके सदस्य वे सब देश ही थे जो सुरक्षा परिषद् के सदस्य थे । इस आयोग को वे कार्य करने की मनाही थी, जो परमाणु ऊर्जा आयोग को सौंपे गये थे ।
5. बरूख योजना के विकल्प के रूप में 11 जून, 1947 को सोवियत संघ ने कुछ प्रस्ताव पेश किये । सोवियत योजना में ‘एक परमाणु नियन्त्रण प्रणाली की शर्त और सिद्धान्त’ स्थिर करने की बात कही गयी । बाद में सितम्बर 1947 में सोवियत संघ ने ‘एक वर्ष में एक-तिहाई’ हथियार और सेना घटाने के प्रस्ताव रखे ।
6. 11 जनवरी, 1952 को छठी महासभा ने संयुक्त राष्ट्र नि:शस्त्रीकरण आयोग (United Nations Disarmament Commission) की स्थापना की जिसने परमाणु ऊर्जा आयोग और पारस्परिक हथियार आयोग दोनों का स्थान ले लिया ।
ऐसा निश्चय किया गया कि नि:शस्त्रीकरण आयोग सुरक्षा परिषद् के नियन्त्रण में कार्य करेगा । इस आयोग ने दो समितियों की स्थापना की । एक समिति को हथियारों से सेनाओं के नियमन का कार्य सौंपा गया और दूसरी समिति को यह कार्य दिया गया कि वह राष्ट्रों द्वारा सेनाओं व हथियारों के सम्बन्ध में दी गयी सूचनाओं पर विचार-विमर्श करेगी ।
7. 10 मई, 1955 को सोवियत संघ के प्रतिनिधि ने संयुक्त राष्ट्र संघ में नि:शस्त्रीकरण की एक नयी योजना रखी । रूस ने सेना के एक-तिहाई कटौती की अपनी मांग को छोड़ दिया । आणविक हथियारों को तत्काल नष्ट करने की जिद छोड़कर उसने पश्चिमी गुट की यह बात मान ली कि तीन-चौथाई हथियारों और सैनिकों की कमी करने के बाद इस दिशा में कदम उठाये जायें-तथा एक ‘अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण संघ’ की स्थापना की जाय ।
8. जेनेवा के शिखर सम्मेलन (जुलाई, 1955) में सोवियत संघ, ब्रिटेन, अमरीका और फ्रांस ने भाग लिया । इस सम्मेलन में अमरीका के राष्ट्रपति आइजनहॉवर ने मुक्त आकाश योजना (Open Skies Plan) रखी । इस योजना का उद्देश्य एक देश को दूसरे देश के आकाश पर निरीक्षण करने का अधिकार प्रदान करना था ।
इस योजना के अनुसार यह प्रस्ताव रखा गया कि सोवियत संघ व संयुक्त राज्य अमरीका अपनी सेना, शस्त्रागारों की संख्या, सैनिक सामग्री तैयार करने वाले कारखानों व सैनिक अड्डों की पूर्ण जानकारी प्रदान करें तथा विद्युत् उपकरणों से हवाई निरीक्षण की व्यवस्था हो । सोवियत संघ ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया, क्योंकि उस समय सारे विश्व में अमरीका के सैनिक अड्डे तिरोहित हो रहे थे ।
9. 24 जनवरी, 1957 को सोवियत संघ ने यह प्रस्ताव रखा कि नि:शस्त्रीकरण आयोग को विस्तृत किया जाय और मिस्र, भारत, पोलैण्ड और एक लैटिन अमरीकी देश को भी इसका सदस्य बनाया जाये ।
10. 3 फरवरी, 1958 को सोवियत संघ के प्रधानमन्त्री मार्शल बुल्गानिन ने अमरीका के राष्ट्रपति आइजनहॉवर के समक्ष नि:शस्त्रीकरण की एक योजना प्रस्तुत की जो बुलघिनन योजना के नाम से प्रसिद्ध है ।
इस योजना में निम्न बातों पर जोर दिया गया:
i. अणु व उद्जन बमों का परीक्षण बन्द किया जाये,
ii. अमरीका, सोवियत संघ और ब्रिटेन आणविक शस्त्रों का परित्याग करें,
iii. नाटो तथा वारसा पैक्ट के देशों में अनाक्रमण समझौता हो,
iv. जर्मनी तथा अन्य यूरोपीय देशों से विदेशी सेनाओं को हटाया जाये,
v. आकस्मिक आक्रमणों को रोकने के लिए समझौता हो,
11. इन्हीं दिनों पोलैण्ड के विदेश मन्त्री ने एक योजना प्रस्तुत की जो रापाकी योजना के नाम से विख्यात है । इस योजना में यूरोप में सुरक्षा और शान्ति बनाये रखने हेतु पोलैण्ड, चैकोस्लोवाकिया, पश्चिमी व पूर्वी जर्मनी का अणु-विहीन क्षेत्र बनाने का सुझाव दिया गया ।
इसका अर्थ यह था कि उपरोक्त देशों में आणविक शस्त्रों के निर्माण, संग्रह व उपयोग पर पाबन्दी लगा दी जाय । सोवियत संघ द्वारा इस प्रस्ताव को समर्थन मिला, परन्तु अमरीका की तरफ से कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिला ।
12. 31 मार्च, 1958 को सोवियत संघ की सुप्रीम सोवियत ने यह घोषणा की कि वह अणु परीक्षण बन्द कर रहा है, दूसरे राष्ट्र भी उसका अनुसरण करें । अमरीकी राष्ट्रपति आइजनहॉवर ने इस प्रस्ताव को सोवियत संघ का प्रचारात्मक कार्य बतलाया ।
13. 31 अक्टूबर, 1958 के दिन जेनेवा सम्मेलन में निःशस्त्रीकरण के विषय में अनेक प्रस्ताव प्रस्तुत किये गये । सोवियत संघ का मत था कि सभी प्रकार के आणविक परीक्षण सदा के लिए बन्द कर दिये जायें, जबकि ब्रिटेन और अमरीका निरीक्षण पद्धति के साथ एक वर्ष के लिए आणविक परीक्षणों को बन्द करने के पक्ष में थे ।
14. 18 दिसम्बर, 1959 को सोवियत प्रधानमन्त्री ख्रुश्चेव ने महासभा में ‘पूर्ण सर्वमान्य नि:शस्त्रीकरण’ का प्रस्ताव रखा जिसमें कहा गया था कि चार वर्ष के भीतर सभी राष्ट्रों को इस प्रकार नि:शस्त्रीकरण करना चाहिए कि इस अवधि के बाद उनके पास युद्ध के साधन न रहें । आन्तरिक सुरक्षा के लिए वे थोड़ी-सी सेना व पुलिस रख सकते हैं ।
15. सन् 1960 में नि:शस्त्रीकरण पर विचार करने के लिए जेनेवा में 15 मार्च को दस राष्ट्रों का एक सम्मेलन हुआ । इस बार एक साथ दो सम्मेलन हो रहे थे; एक, दस राष्ट्रों का निःशस्त्रीकरण सम्मेलन तथा दूसरा, आणविक (Atom Club) के तीन सदस्यों को आणविक परीक्षणों का निषेध करने के सम्बन्ध में वार्ता, लेकिन इन दोनों सम्मेलनों में कोई प्रगति नहीं हो सकी । नि:शस्त्रीकरण और नियन्त्रण पर दोनों पक्षों के बीच गतिरोध उत्पन्न हो जाना अवश्यम्भावी था ।
16. दिसम्बर 1961 में महासभा ने नि:शस्त्रीकरण आयोग का विस्तार करके आठ गुटनिरपेक्ष देशों – ब्राजील, बर्मा (म्यांमार), इथियोपिया, भारत, मैक्सिको, नाइजीरिया, स्वीडन और संयुक्त अरब गणराज्य – को इसमें शामिल कर दिया ।
इस प्रकार 10-राष्ट्रीय निःशस्त्रीकरण आयोग अब 18-राष्ट्रीय निःशस्त्रीकरण आयोग बन गया । पर फ्रांस ने शुरू से ही इस पुनर्गठित आयोग का इस आधार पर बहिष्कार किया कि 18 राष्ट्रों वाला इतना बड़ा आयोग नि:शस्त्रीकरण समस्या का कोई हल नहीं निकाल सकता ।
17. 1963 की आणविक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि:
14 जुलाई, 1963 को ब्रिटेन, सोवियत संघ और अमरीका के प्रतिनिधियों का मास्को में एक सम्मेलन हुआ । 25 जुलाई, 1963 को इन तीनों देशों ने एक ‘सीमित अणु प्रतिबन्ध सन्धि’ पर हस्ताक्षर किये । इस सन्धि के द्वारा भूगर्भ परीक्षणों को छोड़कर बाह्य आकाश, समुद्र और वायुमण्डल में अणु परीक्षण करने पर रोक लगा दी गयी । फ्रांस ने इस सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं किये, चीन इसका विरोधी था और भारत हस्ताक्षर करने वाले राष्ट्रों में अग्रणी था ।
इस सन्धि में निम्नांकित पांच धाराएं थीं:
a. पहली धारा में तीन राष्ट्रों द्वारा यह संकल्प किया गया कि वे अपने अधिकार क्षेत्र और नियन्त्रण में विद्यमान किसी भी प्रदेश के वायुमण्डल में, इसकी सीमाओं में, बाह्य अन्तरिक्ष में, प्रादेशिक अथवा महासमुद्रों में कोई भी आणविक विस्फोट नहीं करेंगे ।
b. दूसरी धारा में संशोधन की व्यवस्था है । सन्धि में संशोधन का प्रस्ताव किसी भी राष्ट्र की सरकार द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है । यदि हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्रों में से एक-तिहाई राष्ट्र प्रस्ताव के पक्ष में हों तो संशोधन पर विचार हो सकता है ।
c. तीसरी धारा के अनुसार इस सन्धि पर कोई भी देश हस्ताक्षर कर सकता है । यह व्यवस्था है कि हस्ताक्षरकर्ता देश इस सन्धि पर अपनी संसद या राष्ट्रीय परिषद् का समर्थन प्राप्त करेगा और ऐसे समर्थन को रूस, अमरीका व ग्रेट ब्रिटेन के पास जमा कराना पड़ेगा ।
d. चौथी धारा में लिखा गया है कि यह सन्धि असीमित काल के लिए है । यद्यपि हस्ताक्षरकर्ता प्रत्येक राष्ट्र को यह अधिकार है कि वह अपनी राष्ट्रीय प्रभुसत्ता का प्रयोग करते हुए उस समय स्वयं को इस सन्धि के बन्धनों से मुक्त कर ले, जब वह यह अनुभव करे कि इसमें इसके देश का सर्वोच्च हित संकट में पड़ गया है, तथापि हटने वाले राष्ट्र को तीन माह पूर्व नोटिस देना होगा ।
e. पांचवीं धारा के अनुसार इस सन्धि के अंग्रेजी व रूसी भाषा के दोनों रूप समान रूप से प्रामाणिक समझे जायेंगे ।
आणविक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि का स्वागत करते हुए इसे “स्थायी शान्ति और नि:शस्त्रीकरण की दिशा में प्रथम कदम”, “अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में एक नया मार्ग और अरुणोदय” और “मेल-मिलाप की प्रतिज्ञा और एक अधिक सौम्य भविष्य की आशा” कहा गया, परन्तु इस सन्धि से परमाणु परीक्षणों से सम्बन्धित सब समस्याएं, विशेष रूप से परमाणु अस्त्रों को लक्ष्यों पर पहुंचाने के साधनों, प्रक्षेपास्त्र नाशक प्रक्षेपास्त्रों को त्रुटिहीन बनाने, और रूढ़ हथियारों से सम्बन्धित सब समस्याओं को हल नहीं किया जा सकता ।
यह न तो भूमिगत विस्फोटों पर रोक लगाती है और न परमाणु हथियारों का उत्पादन बन्द रखती है । इसके अतिरिक्त, यह परमाणु शक्तियों को अपने हथियार अपने मित्र राष्ट्रों को देने से भी नहीं रोकती । वस्तुत: भू-गर्भ परीक्षण को पकड़ने का कोई उचित तरीका न होने के कारण इस पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता । खुश्चेव ने इसे एक अच्छी शुरुआत और युगान्तरकारी घटना कहा था ।
18. 27 जुलाई, 1965 को जेनेवा में नि:शस्त्रीकरण आयोग की बैठक बुलाई गयी । इस सम्मेलन ने अपने कार्यों की, जो उसने अब तक किये थे, रपट पेश की । दोनों गुटों की ओर से ऐसे भाषण हुए जिन्होंने सम्मेलन के भाग्य का पहले ही फैसला कर दिया । अणु-हथियारों के नियन्त्रण के तरीकों के सम्बन्ध में दोनों पक्षों में स्पष्ट मतभेद था ।
19. बाह्य आकाश सन्धि, 1966:
बाह्य आकाश सन्धि (Outer Space Treaty) भी शान्ति की दिशा में एक रचनात्मक सन्धि है । इस सन्धि द्वारा अमरीका, सोवियत संघ तथा ब्रिटेन ने बाह्य आकाश में न्यूक्लीय शस्त्रों का भेजा जाना निषिद्ध मान लिया ।
20. अणु अप्रसार सन्धि, 1968:
सन् 1966 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा की राजनीतिक समिति ने परमाणु अस्त्रों के प्रसार और निर्माण पर नियन्त्रण (Nuclear Non Proliferation Treaty) का प्रस्ताव पास किया । संघ के 112 सदस्यों में से 110 ने प्रस्ताव के पक्ष में मत दिया । अल्बानिया ने प्रस्ताव का विरोध किया और क्यूबा तटस्थ रहा ।
इस सन्धि की मुख्य धाराएं निम्नलिखित हैं:
A. परमाणु राज्य परमाणु अस्त्रविहीन राष्ट्रों को परमाणु बम के निर्माण के रहस्य की जानकारी नहीं देंगे ।
B. परमाणु राज्य परमाणु अस्त्रविहीन राज्यों को परमाणु अस्त्र प्राप्त करने में सहायता नहीं देंगे ।
C. परमाणु अस्त्रविहीन राष्ट्र परमाणु बम बनाने का अधिकार त्याग देंगे ।
D. परमाणु अस्त्रों के परीक्षण और विस्फोटों पर रोक लगाने की अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था स्थापित की जानी चाहिए ।
E. ऐसे देश जिनमें परमाणु अस्त्र निर्माण की तकनीकी क्षमता है वे परमाणु शक्ति का विकास असैनिक कार्यों के लिए करेंगे ।
इस सन्धि को 1963 की परमाणु निषेध सन्धि के उपरान्त नि:शस्त्रीकरण की दिशा में एक युगान्तरकारी कदम कहा गया । इस सन्धि को यद्यपि अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है, परन्तु यह सन्धि नि:शस्त्रीकरण का कोई वास्तविक हल प्रस्तुत नहीं करती ।
यह सन्धि भी भूमिगत न्यूक्लीय परीक्षणों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाती, परमाणु राज्यों द्वारा नये न्यूक्लीय अस्त्रों के निर्माण पर कोई रोक नहीं लगाती, न ही परमाणु राज्यों के न्यूक्लीय अनुसन्धान कार्यक्रम पर किसी प्रकार के अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण या निरीक्षण की व्यवस्था करती है ।
इसी प्रकार कोई परमाणु राज्य एक शक्तिहीन राज्य पर आक्रमण करे तो किसी बाध्यकारी प्रतिक्रिया की व्यवस्था यह सन्धि नहीं करती । राज्य असैनिक उपयोग के नाम पर जो परमाणु अनुसन्धान करेंगे उनका सैनिक उपयोग नहीं करेंगे इसकी कोई प्रत्याभूति नहीं है ।
1968 में अणु अप्रसार सन्धि को जब महासभा के समक्ष रखा तो भारतीय प्रतिनिधि ने इसका विरोध करते हुए इसे संयुक्त राष्ट्र संघ के नि:शस्त्रीकरण के सिद्धान्त के प्रतिकूल माना था, क्योंकि विश्व शान्ति को परमाणुविहीन राज्यों में परमाणु अस्त्रों के प्रसार से ही खतरा नहीं है, वरन् परमाणु राज्यों के पास अणु आयुधों के बने रहने से भी उतना ही खतरा है ।
वास्तव में, यह सन्धि एक भेद मूलक दृष्टि पर आधारित है जो परमाणुसम्पन्न और परमाणुविहीन राज्यों के वर्तमान विभाजन को निरन्तर बनाये रखना चाहती है । यह सन्धि उन देशों के लिए अहितकर मानी गयी जो न्यूक्लीय शस्त्रों का निर्माण कर सकते हैं ।
भारत के साथ पश्चिमी जर्मनी, इटली, संयुक्त अरब गणराज्य, रूमानिया, ब्राजील, अर्जेण्टाइना, नाइजीरिया ने भी इसका विरोध इन्हीं कारणों से किया । जापान ने मांग की थी कि परमाणु राज्य यह आश्वासन दें कि इस सन्धि पर हस्ताक्षर करने वाले राज्यों के विरुद्ध यह देश परमाणु अस्त्रों का प्रयोग नहीं करेंगे ।
स्पेन ने इसे सोवियत संघ और अमरीका द्वारा ‘परमाणु अस्त्रों पर एकाधिकार’ का प्रयत्न कहा । इस सन्धि से एक मुख्य लाभ केवल इतना है कि सोवियत संघ और अमरीका अपने गुट के देशों को परमाणु शस्त्र नहीं देंगे ।
21. न्यूक्लीय मुक्त समुद्र तल सन्धि, 1971 (Nuclear Free Sea Bed Treaty):
11 फरवरी, 1971 को सोवियत संघ, ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमरीका ने न्यूक्लीय मुक्त समुद्र तल सन्धि पर मॉस्को, लन्दन तथा वाशिंगटन में हस्ताक्षर किये और उसी दिन 64 अन्य देशों ने भी इस पर हस्ताक्षर किये ।
संयुक्त राज्य की महासभा ने इसे 7 दिसम्बर, 1970 को स्वीकृत किया था । इस सन्धि के अनुसार प्रत्येक देश के प्रादेशिक समुद्र के 19 किलोमीटर का क्षेत्र छोड़कर समुद्रतल और महासमुद्र तल पर न्यूक्लीय अस्त्र और भयानक विनाश के अन्य परमाणु अस्त्र नहीं बिछाये जायेंगे ।
22. सामरिक शस्त्र परिसीमन वार्ताएं और उपलब्धियां (Salt Talks):
नवम्बर 1969 में सामरिक शस्त्रास्त्रों को सीमित करने के मसले पर संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ के मध्य फिनलैण्ड की राजधानी हेलसिंकी में वार्ता शुरू हुई । हेलसिंकी वार्ता के साथ-साथ वियना में संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ के बीच ‘सामरिक शस्त्रास्त्र परिसीमन वार्ता’ (Strategic Arms Limitation Talks-SALT) भी शुरू हुई थी ।
22 मई, 1972 को अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन जब मॉस्को गये तो वहां सोवियत संघ और अमरीका के बीच दो महत्वपूर्ण समझौते किये गये जिनका सम्बन्ध विभिन्न प्रकार के बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्रों पर रोक लगाने से था । इन समझौते के पक्ष में यह कहा गया कि इनसे शस्त्रों की होड़ में कमी आयेगी और परमाणु युद्ध को रोकने में सहायता मिलेगी ।
वास्तव में, इन समझौतों के पीछे सोवियत संघ और अमरीका दोनों का यह स्वार्थ निहित था कि इनकी आपसी शस्त्र होड़ पर होने वाले निरर्थक व्यय को रोका जाये । 3 जुलाई, 1974 को अमरीका और सोवियत संघ के मध्य दस-वर्षीय आणविक आयुध परिसीमन समझौता हुआ जिसे 31 मार्च, 1976 से लागू किया जाना निश्चित किया गया ।
समझौते के अनुसार दोनों ने 150 किलो टन से अधिक के भूमिगत आणविक परीक्षणों को रोकने तथा प्रक्षेपास्त्रों पर नयी सीमा लगाने का निश्चय प्रकट किया । यह निश्चित किया गया कि शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए किए गए विस्फोट इस आंशिक प्रतिबन्ध व्यवस्था की परिधि में नहीं आएंगे ।
नए समझौते के अन्तर्गत दोनों पक्ष अपनी-अपनी प्रक्षेपास्त्र-व्यवस्था को 3 अक्टूबर, 1977 से 2 अक्टूबर, 1978 के बीच एक बार और उसके उपरान्त पांच वर्ष में एक बार एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित कर सकेंगे । यह कार्य परस्पर सूचना के आदान-प्रदान के अन्तर्गत ही किया जा सकेगा ।
लेकिन परमाणु-परीक्षण के खतरे से दुनिया को बचाने के लिए इतनी ही सन्धि काफी नहीं थी, अत: जून, 1976 में एक नयी धारा जोड़कर इस सन्धि को अधिक लाभकारी बना दिया गया । अब दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हो गए कि परमाणु स्थल का निरीक्षण किया जा सकता है ।
23. साल्ट समझौता, 1979:
1979 में अमरीका और सोवियत संघ में साल्ट-2 (SALT-2) समझौते पर हस्ताक्षर हुए । इसके बाद इस सन्धि का दोनों देशों की संसदों द्वारा अनुमोदन होना था । अमरीकी कांग्रेस इस पर विचार कर ही रही थी कि अफगानिस्तान में सोवियत संघ का हस्तक्षेप हो गया ।
राष्ट्रपति कार्टर ने इस हस्तक्षेप के विरोध में साल्ट-2 के अनुमोदन को स्थगित करा दिया और इस प्रकार एक गतिरोध की स्थिति आ गयी । 28 नवम्बर, 1980 को अमरीका द्वारा सोवियत संघ से ‘साल्ट-2’ पर नवीन वार्ता का प्रस्ताव किया गया ताकि इस सन्धि का पुनर्मूल्यांकन किया जा सके ।
24. मध्यम दूरी प्रक्षेपास्त्र सन्धि, 8 दिसम्बर, 1987:
राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाच्योव ने 8 दिसम्बर, 1987 को ऐतिहासिक मध्यम दूरी प्रक्षेपास्त्र सन्धि (आई.एन.एफ. सन्धि) पर हस्ताक्षर किए । सन्धि में दोनों देश मध्यम व कम दूरी के प्रक्षेपास्त्र नष्ट करने को सहमत हो गए । इस सन्धि से कुल मिलाकर 1139 परमाणु हथियार नष्ट किए जाने हैं । इन हथियारों की मारक क्षमता 50 किमी. से 5 हजार किमी. है ।
सन्धि के अनुसार सोवियत संघ के एल-एस-12, एस-एस-20, एस-एस-23 प्रक्षेपास्त्रों और अमरीका के पर्शिंग-1 और पर्शिंग-2 और भू-प्रक्षेपास्त्रों को नष्ट किया जाना तय हुआ । एक अन्य समझौते के अन्तर्गत दोनों देश अपने यहां परमाणु परीक्षणों की क्षमता की जांच के लिए एक-दूसरे को निरीक्षण की सुविधा देंगे । यह सन्धि आणविक नि:शस्त्रीकरण की दिशा में पहला कदम है । इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि शस्त्र नियन्त्रण की भाषा का स्थान शस्त्र कटौती ने ले लिया ।
25. वारसा और नाटो में ऐतिहासिक सन्धि, 19 नवम्बर 1990:
19 नवम्बर, 1990 को पेरिस में वारसा व नाटो सन्धि देशों के 34 शासनाध्यक्षों ने एक ऐतिहासिक सन्धि पर हस्ताक्षर किए । सन्धि में दोनों गुटों के लिए सैनिकों की संख्या निर्धारित नहीं की गयी है लेकिन परम्परागत शस्त्रों की अधिकतम संख्या प्रत्येक के लिए इस प्रकार नियत की गयी – टैंक 20,000, आर्म पर्सनल कैरियर्स 30,000 अर्टीलरी पीसेज 20,000, लड़ाकू विमान 6,800, लड़ाकू हैलीकोप्टर 2,000 ।
सन्धि में जांच-पड़ताल की भी व्यापक व्यवस्था की गयी ताकि कोई भी पक्ष उसका उल्लंघन न कर सके । सन्धि पर हस्ताक्षर करने के बाद अमरीका के राष्ट्रपति जार्ज बुश ने कहा कि इस सन्धि से यूरोप में आपसी सद्भाव व मैत्री का एक नया युग आरम्भ होगा ।
26. सामरिक हथियारों में कटौती की ऐतिहासिक स्टार्ट-प्रथम सन्धि:
31 जुलाई, 1991 को मास्को में अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश और सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाच्योव के शिखर सम्मेलन में ”सामरिक हथियारों में कटौती” की ऐतिहासिक स्टार्ट-I सन्धि पर हस्ताक्षर हुए ।
सन्धि की शर्तों के अनुसार दोनों महाशक्तियां अपने परमाणु शस्त्रों की स्वेच्छा से 30 प्रतिशत कटौती करने को सहमत हो गयीं । यह सन्धि पहला बड़ा औपचारिक समझौता है जिसके माध्यम से सर्वाधिक खतरनाक एवं विनाशकारी शस्त्रों में इतनी कटौती के लिए स्वेच्छा से सहमति हुई ।
27. अमरीका द्वारा सामरिक हथियारों में भारी कटौती की धोषणा:
28 सितम्बर, 1991 को अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने घोषणा की कि अमेरिका अपने सामरिक परमाणु हथियारों में एकतरफा भारी कटौती करेगा । राष्ट्रपति के अनुसार उन्होंने स्वेच्छा से यह फैसला किया है ताकि ‘विश्व को परमाणु युग में इतनी बेहतर स्थिति प्रदान की जा सके जितनी पहले कभी नहीं रही ।’
एकपक्षीय निरस्त्रीकरण की मुख्य बातें निम्नलिखित हैं:
I. यूरोप और विश्व में कहीं भी विद्यमान अमेरिका के कम दूरी तक मार करने वाले सभी सामरिक परमाणु हथियारों को समाप्त करना
II. जहाजों और पनडुब्बियों से छोड़ी जाने वाली सभी समुद्री परमाणु मिसाइलों की समाप्ति
III. सभी अमरीकी युद्धक बमवर्षकों को चौबीसों घण्टे चौकसी की हालत में न रखने का फैसला
IV. लम्बी दूरी तक मार करने वाले सभी बी-52 और अन्य बम वर्षकों को निष्क्रिय हालत में रखना
V. ‘स्टार्ट’ सन्धि के अन्तर्गत जिन हथियारों को निष्क्रिय करने पर सहमति हुई थी उन्हें निर्धारित अवधि से पहले ही नष्ट करने का फैसला । सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाच्योव ने बुश की पहल को ”अन्तर्राष्ट्रीय निरस्त्रीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण योगदान” बतलाया ।
28. सोवियत संघ द्वारा परमाणु शस्त्रों में कमी करने पर सहमति:
अमरीका के राष्ट्रपति बुश ने सितम्बर 1991 में कम दूरी के परमाणु प्रक्षेपास्त्र नष्ट करने की घोषणा की थी । इसी के प्रत्युत्तर में सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाच्योव ने अपने देश के परमाणु हथियारों में भी कमी करने की घोषणा की । गोर्बाच्योव ने कहा कि सोवियत संघ एक वर्ष के लिए परमाणु परीक्षण भी बन्द करेगा ।
गोर्बाच्योव ने निम्नलिखित प्रस्तावों पर सहमति प्रकट की:
a. जंगी जहाजों और बहु-उद्देश्यीय पनडुब्बियों से सभी सामरिक हथियारों को हटा लिया जाएगा
b. भारी बमवर्षकों को तैयारी की स्थिति से हटा लिया जाएगा और उनके परमाणु हथियारों का भण्डारण कम कर दिया जाएगा
c. सोवियत संघ के छोटे आकार के सचल अन्तरमहाद्वीपीय बैलेस्टिक प्रक्षेपास्त्रों को सक्रिय नहीं किया जाएगा
d. सामरिक महत्व के आक्रामक हथियारों में और कटौती की जाएगी । सोवियत संघ की इस घोषणा का अमरीका ने स्वागत किया । ब्रिटिश प्रधानमन्त्री जॉन मेजर ने इसे एक रचनात्मक कदम बताया ।
29. मास्को में ऐतिहासिक स्टार्ट-दो सन्धि पर हस्ताक्षर:
3 जनवरी, 1993 को अमरीकी राष्ट्रपति बुश और रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने भव्य क्रेमलिन पैलेस (मास्को) में ऐतिहासिक सन्धि स्टार्ट-दो पर हस्ताक्षर किए । स्टार्ट-दो परमाणु हथियारों में कटौती सम्बन्धी पहली सन्धि का अगला चरण है जिस पर जुलाई 1991 में राष्ट्रपति जार्ज बुश और तत्कालीन सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाच्योव ने हस्ताक्षर किए ।
स्टार्ट-दो जिसे राष्ट्रपति येल्तसिन ने शताब्दी की ‘सन्धि’ कहा है, का उद्देश्य दोनों देशों के परमाणु हथियारों में दो-तिहाई कटौती करना है, यानी वर्तमान में लगभग 20,000 को कम करके 6,500 रखना है (अमरीका के 3,500 और रूस के 3,000) । इस प्रकार अमरीका के शस्त्रागार में परमाणु हथियारों की संख्या उतनी ही रह जाएगी जितनी 1960 में थी और रूसी हथियारों की संख्या उतनी ही रह जाएगी, जितनी 1970 में थी । स्टार्ट-दो पर हस्ताक्षर होना अन्तर्राष्ट्रीय निरस्त्रीकरण की दिशा में स्मरणीय घटना है, इसका महत्व और क्षेत्र स्टार्ट-एक तथा सुप्रसिद्ध आई.एन.एफ. सन्धि से अधिक व्यापक है ।
30. रासायनिक हथियार निषेध (13 जनवरी, 1993):
रासायनिक हथियारों के विकास, उनका निर्माण, भण्डारण एवं उनके प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाने से सम्बन्धित सन्धि 29 अप्रैल, 1997 से लागू हो गई है । इस सम्बन्ध में 13 अप्रैल, 1993 को पेरिस में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे जिसमें 160 देशों की सहमति थी । लेकिन इसे लागू करने के लिए कम-से-कम 65 देशों द्वारा इसका अनुमोदन किया जाना जरूरी था ।
65 देशों के अनुमोदन के बाद इस सन्धि के कानूनी रूप लेने की अवधि 180 दिन थी । इस हिसाब से यह 29 अप्रैल, 1997 से प्रभावी हो गई है । इस सन्धि के मसौदे में रासायनिक हथियारों के लिए अनुसन्धान, उनका विकास, उनका भण्डारण एवं उनके हस्तान्तरण पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने का प्रावधान रखा गया है ।
मसौदे में सन्धि पर हस्ताक्षर करने वाले देशों से आशा की गई है कि वे 1 से 15 वर्ष के बीच अपने-अपने रासायनिक हथियारों के जखीरे नष्ट कर देंगे । रासायनिक हथियारों पर नियन्त्रण के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था बनाई गई है । इस संस्था का मुख्यालय हेग में है ।
रासायनिक हथियारों के विनाश की दिशा में विश्वस्तर पर किए गए इन प्रयासों को एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माना गया, लेकिन अमरीका एवं रूस के बिना यह सन्धि काफी हद तक खोखली सिद्ध होगी,, क्योंकि इन हथियारों पर पाबन्दी लगाने वाले 65 देशों में अमरीका व रूस शामिल नहीं हैं ।
अमरीका एवं रूस की तरह के कई देश ऐसे हैं जिन्होंने इस सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं और ये देश चोरी-छिपे रासायनिक हथियारों के विकास एवं उत्पादन में लगे हुए हैं । ऐसे देशों में लीबिया, सीरिया तथा उत्तरी कोरिया प्रमुख हैं ।
31. व्यापक आणविक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (सी.टी.बी.टी.):
सी.टी.बी.टी. अर्थात् व्यापक आणविक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (Comprehensive Test Ban Treaty) विश्व भर में किए जाने वाले परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाने के उद्देश्य से लायी गयी सन्धि या समझौता है जिसका 1993 में भारत, अन्य देशों के अतिरिक्त अमेरिका के साथ सह-प्रस्तावक था, लेकिन 1995 में उसने यह कहते हुए कि यह सन्धि सार्वभौमिक परमाणु निरस्त्रीकरण के समयबद्ध कार्यक्रम से जुड़ी हुई नहीं है, सह-प्रस्तावक बनने से ही इंकार कर दिया ।
अगस्त, 1996 में जेनेवा में इस विवादास्पद सन्धि के मसौदे पर विचार चलता रहा । इस बहुचर्चित सन्धि में परमाणु परीक्षणों पर प्रतिबन्ध लगाने तथा इस पर अमल की जांच के लिए अन्तर्राष्ट्रीय निरीक्षण की व्यवस्था है ।
भारत ने सी.टी.बी.टी. के प्रस्तावित मसौदे पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया क्योंकि प्रस्तावित मसौदे में परमाणु निरस्त्रीकरण का कोई प्रावधान नहीं रखा गया । भारत का दूसरा विरोध यह था कि यह सन्धि बहुत ही संकीर्ण है और यह केवल नए विस्फोट रोकने की बात करती है, पर नए तकनीकी विकास एवं नए परमाणु शस्त्रों के विषय में चुप है ।
सन्धि का स्वरूप परमाणु राष्ट्रों की तकनीकी उपलब्धता को बरकरार रखकर उनके हितों की रक्षा करने के लिए अधिक है न कि सपूर्ण निरस्त्रीकरण के लिए । इस सन्धि पर 24 सितम्बर, 1996 से हस्ताक्षर प्रारम्भ हुए थे । अब तक कुल मिलाकर 154 राष्ट्रों ने इस पर हस्ताक्षर किए हैं जिनमें से 45 ने इसका विधिवत् अनुमोदन भी कर दिया है ।
किन्तु सन्धि के प्रभावी होने के लिए विश्व के उन सभी 44 देशों द्वारा इसकी पुष्टि किया जाना आवश्यक है जिनके पास परमाणु शस्त्र अथवा परमाणु विद्युत् संयन्त्र अथवा परमाणु क्षमता उपलब्ध है । विविध परमाणु क्षमताओं वाले इन 44 राष्ट्रों में से अभी तक 26 ने ही सन्धि का अनुमोदन किया है, जबकि तीन देशों भारत, पाकिस्तान व उत्तर कोरिया ने इस पर अभी तक हस्ताक्षर भी नहीं किए हैं ।
परमाणु शक्ति के रूप में घोषित पांच राष्ट्रों – अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस व चीन ने यद्यपि सी.टी.बी.टी. पर हस्ताक्षर कर दिए हैं, किन्तु इनमें से केवल ब्रिटेन व फ्रांस ने ही सन्धि की पुष्टि की है । सी.टी.बी.टी. के भविष्य को एक बड़ा झटका अक्टूबर 1999 में उस समय लगा जब रिपब्लिकनों के वर्चस्व वाली अमेरिकी सीनेट ने इसका अनुमोदन नहीं किया । 100 सदस्यों वाली सीनेट मे इसकी पुष्टि के लिए हुए मतदान (13 अक्टूबर, 1999) में इसे 48 के मुकाबले 51 मतों से अस्वीकार कर दिया गया ।
सी.टी.बी.टी. के कार्यान्वयन की प्रगति के मूल्यांकन के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा एक विशेष सम्मेलन का आयोजन 6-8 अक्टूबर, 1999 को विएना में किया गया । इस सम्मेलन में 92 देशों के 400 से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया ।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा सम्मेलन का आयोजन सन्धि के उस प्रावधान के अन्तर्गत किया गया था जिसमें कहा गया है कि सन्धि को हस्ताक्षर के लिए उपलब्ध कराए जाने की तिथि (24 सितम्बर, 1996) से तीन वर्ष के भीतर यदि विविध परमाणु क्षमताओं वाले सभी 44 राष्ट्रों द्वारा इस सन्धि का अनुमोदन नहीं किया गया तो संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेष सम्मेलन में आगे की कार्यवाही के लिए विचार किया जाएगा ।
तीन दिन चले इस सम्मेलन में भारत, पाकिस्तान व उत्तर कोरिया से सन्धि पर हस्ताक्षर करने व उसका अनुमोदन करने की अपील की गई ताकि सन्धि को लागू किया जा सके । 8 दिसम्बर, 2011 तक सी.टी.बी.टी. पर 182 देशों ने हस्ताक्षर कर दिए हैं एवं 156 देशों ने इसका पुष्टिकरण किया है ।
परमाणु अप्रसार सन्धि समीक्षा सम्मेलन:
अप्रैल-मई, 2000 में सम्पन्न परमाणु अप्रसार सन्धि समीक्षा सम्मेलन में पांच परमाणु सम्पन्न शक्तियां अपने परमाणु आयुध भण्डारों को पूरी तरह समाप्त करने पर राजी हो गईं, हालांकि इसके लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है । 2 मई, 2005 को न्यूयॉर्क में सम्पन्न परमाणु अप्रसार समीक्षा सम्मेलन में 190 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया ।
सम्मेलन में ईरान के विदेश मन्त्री कमाल खराजी परमाणु अप्रसार सन्धि के उस प्रावधान पर अड़े रहे जिसके अन्तर्गत ईरान सहित 182 देशों ने परमाणु हथियार नष्ट कर दिए थे, जबकि अमरीका और अन्य कुछ देश नए मानदण्ड निर्धारित करते हुए एक बार फिर से विचार करने के पक्षधर थे ।
एन.पी.टी. समीक्षा सम्मेलन प्रति पांच वर्ष बाद आयोजित किया जाता है; अत: संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में 3-28 मई, 2010 को न्यूयॉर्क में आयोजित सम्मेलन में 150 से अधिक देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया । विश्वभर के कुल 189 देशों ने इस संधि पर हस्ताक्षर किये हैं ।
हस्ताक्षर न करने वालों में भारत के अतिरिक्त पाकिस्तान व इजरायल भी शामिल हैं । इन तीनों ही देशों ने इस सम्मेलन में भाग नहीं लिया । सम्मेलन के मसौदा दस्तावेज में भारत, पाकिस्तान और इजरायल से बिना शर्त परमाणु अप्रसार संधि (NPT) तथा व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (CTBT) में शामिल होने को कहा गया । ईरान द्वारा परमाणु अप्रसार संधि के दायित्वों को पूरा न करने पर इस सम्मेलन में चिंता व्यक्त की गई ।
अमेरिका-रूस में परमाणु शस्त्र कटौती सन्धि : मई, 2002:
मई, 2002 में अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने रूस की यात्रा की और रूस के साथ मित्रता मजबूत करने के लिए परमाणु शस्त्रों में कटौती के ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किए । सन्धि की शर्तों के अनुसार अमेरिका और रूस दोनों मिलकर साढ़े चार हजार के करीब परमाणु हथियार कम करेंगे । सन्धि के अनुसार परमाणु हथियारों में कटौती का लक्ष्य 2012 तक पूरा कर लिया जाएगा ।
अमरीका व रूस के मध्य नई ‘स्टार्ट संधि’:
अमरीका व तत्कालीन सोवियत संघ में संपन्न 31 जुलाई, 1991 की स्टार्ट संधि 9 दिसम्बर, 2009 को समाप्त हो गई । स्टार्ट-I के स्थान पर एक नई स्टार्ट संधि पर अमरीका व रूस के बीच चैक गणराज्य की राजधानी प्राग में 8 अप्रैल, 2010 को हस्ताक्षर किये गये ।
अमरीकी सीनेट व रूसी फेडरेशन काउन्सिल के अनुमोदन के बाद दोनों देशों द्वारा दस्तावेजों के आदान-प्रदान के पश्चात संधि प्रभावी होगी । मूलत: 10 वर्ष के लिए की गई इस संधि का कार्यकाल 5 वर्ष तक बढ़ाया जा सकेगा ।
नई स्टार्ट संधि में दोनों देशों ने सात वर्षों में अपने परमाणु हथियारों की संख्या में एक-तिहाई तक कटौती करने तथा उन्हें ले जाने वाली पनडुब्बियों, मिसाइलों व बम वर्षकों की संख्या में आधी से अधिक कटौती करने के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त की है । ऑपरेशन डिप्लॉइड न्यूक्लीयर वार हैड्स की संख्या को घटाकर 1550 तक सीमित करने को दोनों पक्ष संधि में सहमत हुए हैं ।
वाशिंगटन में सम्पन्न नाभिकीय सुरक्षा शिखर सम्मेल्लन:
अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की पहल पर आयोजित दो दिवसीय नाभिकीय सुरक्षा शिखर सम्मेलन (12-13 अप्रैल, 2010 : वाशिंगटन) में 47 देशों के राष्ट्राध्यक्ष या उनके प्रतिनिधि उपस्थित थे ।
परमाणु सामग्री के गुप्त प्रसार व अवैध तस्करी के खतरों व आतंकवादियों द्वारा परमाणु सामग्री खरीदे जाने की संभावनाओं पर विशेष फोकस इस सम्मेलन में किया गया तथा ऐसी संभावनाओं के विरुद्ध कार्य योजना तैयार की गई ।
परमाणु आतंकवाद के खतरे का संज्ञान लेते हुए भारत सहित 47 देशों ने परमाणु प्रौद्योगिकी या सूचना के अवैध हाथों में पड़ने से रोकने व इस क्षेत्र में सुरक्षा बढ़ाने के लिए वैश्विक स्तर पर प्रभावी सहयोग का संभाव्य इस सम्मेलन में लिया ।
संयुक्त राष्ट्र निरस्त्रीकरण आयोग:
संयुक्त राष्ट्र निरस्त्रीकरण आयोग की सत्र 2010 की बैठक 29 मार्च – 16 अप्रैल, 2010 को न्यूयॉर्क में आयोजित की गई । आयोग ने परमाणु निरस्त्रीकरण व परमाणु हथियारों के अप्रसार के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए सिफारिशों तथा चौथे निरस्त्रीकरण दशक के रूप में 2010 की मसौदा घोषणा के कारकों के मुद्दों पर विचार-विमर्श किया ।
निरस्त्रीकरण पर सम्मेलन:
निरस्त्रीकरण सम्मेलन एक एकल बहुपक्षीय निरस्त्रीकरण संधि विमर्शक निकाय है । वर्ष 2010 में सम्मेलन ने अपनी कार्यसूची मदों, कार्यों के कार्यक्रम, आयोजनों व प्रक्रियाओं तथा साथ ही अन्य मामलों पर 35 औपचारिक, 34 अनौपचारिक पूर्ण बैठकें कीं । तथापि, निरस्त्रीकरण सम्मेलन 2010 के सत्र के लिए अपने कार्यक्रम को पारित नहीं कर सका ।
दूसरा नाभिकीय सुरक्षा शिखर सम्मेलन सियोल में सम्पन्न:
नाभिकीय आतंकवाद के खतरों के प्रति परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों का ध्यान आकर्षित करने व इससे सुरक्षा के प्रति जागरूकता को बढ़ावा देने के लिए दूसरा नाभिकीय सुरक्षा शिखर सम्मेलन दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में 26-27 मार्च, 2012 को सम्पन्न हुआ ।
ऐसा पहला सम्मेलन 2010 में अमरीका में वाशिंगटन में हुआ था । वाशिंगटन सम्मेलन की तरह सियोल सम्मेलन में भी भारतीय शिष्टमण्डल का नेतृत्व प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने किया । 53 देशों के राष्ट्राध्यक्षों या उनके प्रतिनिधियों ने इस सम्मेलन में भाग लिया ।
इनमें अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, रूसी राष्ट्रपति दमित्री मेदवेदेव व चीन के राष्ट्रपति हू जिंताओ भी शामिल थे । सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए भारतीय प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा कि परमाणु आतंकवाद तब तक बड़ा खतरा बना रहेगा जब तक आतंकवादी परमाणु सामग्री और प्रौद्योगिकी तक अपनी पहुंच बनाने की ताक में रहेंगे ।
उन्होंने कहा कि परमाणु सुरक्षा के लिए सबसे अच्छी गारण्टी यह है कि विश्व इन हथियारों से मुक्त हो । भारत की नाभिकीय ऊर्जा की आवश्यकताओं का उल्लेख करते हुए प्रधानमन्त्री ने कहा कि वर्ष 2032 तक परमाणु ऊर्जा की सहायता से भारत 62 हजार मेगावाट विद्युत् का उत्पादन चाहता है ।
प्रधानमन्त्री ने कहा कि परमाणु दुर्घटनाओं से निपटने के लिए भारत अपनी आपातकालीन तैयारियों को मजबूत कर रहा है तथा परमाणु ऊर्जा के नियमन के लिए शीघ्र ही एक वैधानिक संस्था की स्थापना देश में की जाएगी ।
इसके साथ ही उन्होंने कहा कि भारत परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (NSG) के नियमों का पालन करता है तथा परमाणु अप्रसार उद्देश्यों को पूरा करने की योग्यता रखता है । इसलिए उसे अब बिशिष्ट परमाणु क्लबों का सदस्य बनाया जाना चाहिए ।
जिन चार परमाणु क्लबों में भारत की सदस्यता की वकालत प्रधानमन्त्री ने की उनमें नाभिकीय आपूर्तिकर्ता समूह (NSG), मिसाइल प्रौद्योगिकी नियन्त्रण शासन (Missile Technology Control Regime-MTCR) ‘वासनेर अरेंजमेंट’ (Wassenaar Arrangement) व ‘आस्ट्रेलिया ग्रुप’ शामिल हैं । भारत का मानना है कि इससे उसके परमाणु कार्यक्रम में उच्च अन्तर्राष्ट्रीय मानकों का अनुपालन सुनिश्चित होगा और उसकी नियन्त्रण प्रणाली मजबूत करने में मदद मिलेगी ।
दो दिन के इस सम्मेलन में 2010 के वाशिंगटन सम्मेलन में लिए गए निर्णयों की प्रगति की समीक्षा सर्वप्रथम की गई । नाभिकीय सुरक्षा के लिए चिह्नित प्राथमिकता बाले सभी 11 क्षेत्रों के लिए आगे की कार्ययोजना निर्धारण पर चर्चा भी सम्मेलन में की गई ।
संयुक्त राष्ट्र निरस्त्रीकरण आयोग:
संयुक्त राष्ट्र निरस्त्रीकरण आयोग की सत्र 2014 की बैठक 7-25 अप्रैल, 2014 को न्यूयॉर्क में आयोजित की गई । आयोग ने परमाणु निरस्त्रीकरण व परमाणु हथियारों के अप्रसार के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए सिफारिशों तथा चौथे निरस्त्रीकरण दशक के रूप में 2010 की मसौदा घोषणा के कारकों के मुद्दों पर विचार-विमर्श किया ।
संयुक्त राष्ट्र हथियार व्यापार संधि (दिसम्बर, 2014):
संयुक्त राष्ट्र वैश्विक हथियार व्यापार का नियमन करने वाली महत्वपूर्ण सन्धि 24 दिसम्बर, 2014 से लागू हो गई । संयुक्त राष्ट्र ने हथियारों के बड़े निर्यातकों और आयातकों को इस समझौते से जुड़ने की अपील भी की है । हथियार व्यापार सन्धि को संयुक्त महासभा द्वारा अप्रैल 2013 में स्वीकार किया गया था ।
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सन्धि ऐसा पहला बहुपक्षीय समझौता है, जो किसी देश को अन्य देशों को पारस्परिक हथियारों का निर्यात करने से रोकता है, जहां उसे पता हो कि इन हथियारों का इस्तेमाल जनसंहार मानवता के खिलाफ अपराधों या युद्ध अपराधों में किया जा सकता है ।
ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी जैसे शीर्ष निर्यातकों ने दस्तखत कर दिए । अमरीका ने सितम्बर, 2013 में हस्ताक्षर किए, लेकिन सीनेट ने पुष्टि नहीं की । भारत ने सन्धि पर मतदान से खुद को यह कहते अलग रखा था कि संलग्न मसौदा आतंकवाद और राज्येत्तर ताकतों के मामले में कमजोर है । इन चिन्ताओं का निराकरण सन्धि में नहीं है ।
निष्कर्ष:
निरस्त्रीकरण की दिशा में संयुक्त राष्ट्र संघ विशेष रूप से चिन्तित एवं प्रयत्नशील है । संयुक्त राष्ट्र ने 1970-80 के दशक को निरस्त्रीकरण दशक घोषित किया । मई-जून, 1978 में, 1982 तथा 1987 में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में निरस्त्रीकरण पर सम्मेलन आयोजित किए गए ।
अक्टूबर-नवम्बर, 1998 में न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा के 53वें सत्र में निरस्त्रीकरण और सम्बद्ध मामलों पर प्रथम समिति ने विचार किया । अक्टूबर 1999 में सी.टी.बी.टी. के कार्यान्वयन की प्रगति का मूल्यांकन करने के लिए जेनेवा में संयुक्त राष्ट्र द्वारा एक विशेष सम्मेलन आयोजित किया गया ।