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Here is an essay on ‘Europe’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Europe’ especially written for school and college students in Hindi language.
यूरोप में तीव्र गति से आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन हो रहे हैं । द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद विभाजित यूरोप एकीकरण की दिशा में बढ़ रहा है । शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद पश्चिमी और पूर्वी यूरोप का विभाजन अर्थशून्य हो गया है ।
बर्लिन की दीवार का टूटना जर्मनी का एकीकरण पूर्वी यूरोप से साम्यवाद का अवसान सोवियत संघ का विघटन, यूगोस्लाविया एवं चेकोस्लोवाकिया का विभाजन, मेस्ट्रिच सन्धि, कोसोवो पर नाटो की बमबारी, आदि ऐसी घटनाएं हैं जिन्होंने पिछले वर्षों में यूरोप के बारे में हमारी सोच को बदल डाला है ।
द्वितीय विश्व-युद्धोत्तर काल में यूरोप:
19वीं शताब्दी की विश्व राजनीति में यूरोप की महती भूमिका थी । प्रथम विश्व-युद्ध के शुरू होने तक सभी महान् शक्तियां यूरोपियन थीं । उनकी आर्थिक शक्ति, सैनिक उत्कर्ष तथा राजनीतिक प्रभाव ने विश्व में वर्चस्व स्थापित किया था । प्रथम विश्व-युद्ध (1914-19) के परिणामों ने इस शक्ति संरचना को एक झटका दिया शक्तिशाली राज्यों की विश्वव्यापी भूमिका को गम्भीर रूप से आहत किया ।
दो विश्व-युद्धों के बीच (1919-1939) जर्मनी और इटली जैसे देश अपने पुराने गौरव को प्राप्त करने के लिए हिटलर और मुसोलिनी के नेतृत्व में सदैव संघर्षरत रहे । द्वितीय महायुद्ध की शुरुआत के समय ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और सोवियत संघ निस्संदेह महाशक्तियां थीं और इटली भी मुसोलिनी के नेतृत्व में महाशक्ति की भूमिका अदा करने के लिए प्रयत्नशील था ।
लेकिन छ: वर्ष तक लगातार चलने वाले द्वितीय महायुद्ध ने इसका रूप ही बदल दिया । महायुद्ध में यूरोप को जन और धन की जो हानि उठानी पड़ी उसका अनुमान लगाना कठिन है । कहा जाता है कि इस युद्ध में यूरोप के एक करोड़ सैनिकों और दो करोड़ से भी अधिक नागरिकों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा ।
अनुमानत: 30 से 40 अरब रुपए के मूल्य की सम्पत्ति नष्ट हो गयी । युद्ध की उखाड़-पछाड़ में कई देशों की सीमाएं बदल गयीं । युद्ध व्यय के भार से अनेक राज्यों की कमर टेढ़ी हो गयी और कई राज्यों की शक्ति का तो पूरी तरह खलन हो गया । पुराना शक्ति सन्तुलन बिखर गया ।
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जर्मनी पददलित और विभाजित हो गया फ्रांस सर्वनाश के गह्वर में फंस गया, इटली की कमर टूट गयी ब्रिटेन को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने पर विवश होना पड़ा । केवल सोवियत संघ ही ऐसा राष्ट्र था जो बरबाद होकर भी युद्ध द्वारा सबसे अधिक लाभान्वित हुआ ।
बहुत-से नए प्रदेशों पर उसका अधिकार हो चुका था और उसकी सीमा पर स्थित अनेक राज्य उसकी साम्यवादी व्यवस्था के घेरे में आ गए थे । शक्तिशाली जर्मनी के पीछे धकेल देने के कारण सोवियत संघ का आत्मविश्वास दृढ़ हो गया था ।
सोवियत संघ को छोड़कर अन्य यूरोपीय राज्य दूसरे या तीसरे नम्बर की शक्ति बनकर रह गए थे । सोवियत संघ को छोड्कर समस्त यूरोप इतना कमजोर हो गया था कि एरिक फिशर के शब्दों में- ”यूरोप का समय बीत चुका है ।”
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद यूरोप की राजनीतिक एवं आर्थिक समस्याएं:
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द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद यूरोप की प्रमुख समस्याएं थीं-शान्ति निर्माण की समस्या आर्थिक पुनरुद्धार और एकीकरण की समस्या तथा सैनिक सुरक्षा की समस्या ।
इन समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में यूरोप की राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है:
1. यूरोप में शान्ति निर्माण की समस्या:
द्वितीय विश्व-युद्ध की समाप्ति के बाद यूरोप की सबसे कठिन और जटिल समस्या थी शान्ति निर्माण । युद्ध समाप्त होने के लगभग डेढ़ वर्ष बाद तक भी शान्ति सन्धियों के प्रारूप तैयार नहीं हो सके । 10 फरवरी, 1947 तक केवल इटली, रोमानिया, हंगरी और फिनलैण्ड के साथ शान्ति सथिया सम्पन्न हो सकीं ।
आस्ट्रिया के साथ शान्ति सन्धि जुलाई, 1955 में कार्यान्वित की गयी । वस्तुत: शान्ति स्थापना का कार्य अत्यन्त कठिन था क्योंकि सोवियत संघ और अमरीका में शीत युद्ध प्रारम्भ हो चुका था । दोनों में प्रभुत्व विस्तार की प्रतिस्पर्द्धा प्रारम्भ हो गयी थी ।
शान्ति स्थापना के लिए विदेश मन्त्रियों की जो परिषद् बनायी गयी उसमें ‘सर्वसम्मति से निर्णय’ का निश्चय किया गया वह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण था, क्योंकि इसके द्वारा दोनों ही गुटों को एक-दूसरे के कार्यों पर ‘वीटो’ प्राप्त हो गया जिससे वे किसी भी निर्णय को रोकने की स्थिति में आ गए । शान्ति सन्धियों के लिए जो सम्मेलन आयोजित किए गए उनमें सोवियत संघ और पश्चिमी राष्ट्रों के बीच उग्र मतभेद स्पष्ट हो गया जिसके कारण बड़ी मुश्किल से कुछ प्रश्नों पर सहमति हो सकी ।
2. जर्मनी की समस्या और शान्ति वार्ताएं:
द्वितीय महायुद्ध में आत्मसमर्पण करने के उपरान्त जर्मनी यूरोप में शीत-युद्ध का केन्द्र-बिनु बन गया । पोट्सडाम समझौते (जुलाई-अगस्त, 1945) के अनुसार मित्र राष्ट्रों ने जर्मनी को चार भागों में बांट दिया जिनमें क्रमश: संयुक्त राज्य अमेरिका ब्रिटेन सोवियत संघ और फ्रांस ने अपना शासन स्थापित किया ।
इन चारों क्षेत्रों के प्रधान सेनाध्यक्षों को अपने-अपने क्षेत्र में सर्वोच्च अधिकार प्राप्त थे । जर्मनी की पुरानी राजधानी बर्लिन में चारों बड़े राष्ट्रों ने एक मिला-जुला शासन स्थापित किया और एक मित्रराष्ट्रीय नियन्त्रण परिषद का गठन किया ।
यों तो जर्मनी के विभाजन का उद्देश्य यह माना गया था कि उस पर आधिपत्य रखने वाले राष्ट्र मिल-जुलकर आपसी सहयोग से उस पर शासन करेंगे परन्तु प्रारम्भ से ही यह स्पष्ट हो गया कि इस प्रकार के सहयोग की आशा धूमिल है ।
जर्मन समस्या के सम्बन्ध में 10 मार्च, 1947 से आरम्भ होने वाली मॉस्को की विदेश मन्त्री परिषद् की बैठक में 40 दिन तक लम्बे वाद-विवाद होते रहे किन्तु फिर भी यह परिषद् सन्धि का सर्वमान्य प्रारूप तैयार नहीं कर सकी ।
जर्मनी के प्रश्न पर पश्चिमी देशों और सोवियत संघ के बीच अनेक मतभेद उभरकर सामने आए । जब इन मतभेदों के कारण जर्मनी के साथ कोई सन्धि करना सम्भव न हो सका तो मित्र राष्ट्रों ने अपने क्षेत्रों को मिलाना शुरू किया ।
सर्वप्रथम अमरीकी और ब्रिटिश क्षेत्रों को 1947 के आरम्भ में आर्थिक दृष्टि से संयुक्त बनाते हुए द्विक्षेत्र (Bizonia) का निर्माण किया गया और बाद में 31 मई, 1948 को पश्चिम के तीनों क्षेत्रों (Trizonia) के लिए सं.रा. अमरीका ब्रिटेन और फ्रांस ने एक केन्द्रीय सरकार बनाना स्वीकार कर लिया । 21 सितम्बर, 1949 को पश्चिमी जर्मनी में एक संघीय गणराज्य (Federal Republic of Germany) की स्थापना हुई ।
पूर्वी क्षेत्र में सोवियत सघ ने 7 अक्टूबर, 1949 को ‘जर्मन डेमोक्रेटिक गणराज्य’ (German Democratic Republic) की स्थापना की । इस प्रकार दो जर्मनी अस्तित्व में आए और जर्मनी के एकीकरण की समस्या शीत-युद्ध की राजनीति में उलझ गयी ।
3. आस्ट्रिया से सन्धि:
आस्ट्रिया के साथ शान्ति सन्धि करने में कई बाधाएं सामने आयीं । पश्चिमी राष्ट्र आस्ट्रिया में नाजी शक्तियों को प्रोत्साहन दे रहे थे जबकि युद्ध के दौरान यह तय हो चुका था कि पराजित नाजी देशों में नाजी तत्वों का पूरी तरह उन्मूलन कर दिया जाएगा । सोवियत संघ पुन: नाजीवाद को पनपने नहीं देना चाहता था अत: अमरीका द्वारा प्रस्तुत की गयी शान्ति शर्तों को वह अपने अनुकूल नहीं समझता था ।
पेरिस की विदेश मत्रिपरिषद् में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा आस्ट्रिया की शान्ति सन्धि का प्रश्न उठाने पर सोवियत संघ ने उसे वीटो कर दिया । अन्त में 1955 में आस्ट्रिया से सम्बन्धित शान्ति सन्धि हुई । इसके अनुसार आस्ट्रिया ने यह स्वीकार किया कि वह जर्मनी के साथ राजनीतिक या आर्थिक संघ का निर्माण नहीं करेगा ।
4. बर्लिन संकट:
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद बर्लिन समस्या ने विश्व का बहुत अधिक ध्यान आकर्षित किया । 1945 के पोट्सडाम समझौते के अनुसार बर्लिन नगर सोवियत संघ, फ्रांस, ब्रिटेन एवं अमरीका के नियन्त्रण में बांट दिया गया ।
पश्चिमी बर्लिन पश्चिमी देशों के नियन्त्रण में आ गया । जर्मनी में आर्थिक सुधार के लिए पश्चिमी शक्तियों ने मुद्रा संशोधन का एक प्रस्ताव रखा जिसे सोवियत संघ ने लागू करने से इन्कार कर दिया । पश्चिमी राष्ट्रों ने विवश होकर एक नया ‘डी-मार्क’ चालू कर दिया ।
पश्चिमी राष्ट्रों के इस कदम से क्षुब्ध होकर 24 जून, 1948 को सोवियत संघ ने पश्चिमी बर्लिन की नाकेबन्दी कर दी । उसने बर्लिन से पश्चिमी राष्ट्रों के सम्पर्क को समुद्र और भूमि के मार्गों से विच्छिन्न करने का प्रयल किया जिसके प्रत्युत्तर में पश्चिमी राष्ट्रों ने लाखों टन सामान हवाई जहाजों के द्वारा बर्लिन भेजना शुरू किया ।
पश्चिमी देशों ने सोवियत संघ के खिलाफ सुरक्षा परिषद में शिकायत की और बर्लिन के घेरे को विश्व-शान्ति के लिए खतरा निरूपित किया । 14 मई, 1949 को बर्लिन समस्या पर दोनों पक्षों में एक समझौता हो गया ।
5. यूरोप में आर्थिक पुनरुद्धार के प्रयत्न:
द्वितीय विश्व-युद्ध के भीषण विध्वंस ने यूरोप को आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से निर्बल बना दिया । जहां एक ओर उसे सोवियत संघ की विस्तारवादी नीति आतंकित करने लगी वहीं दूसरी ओर पश्चिम दिशा में अमरीका का उत्कर्ष भी उसे व्यथित करने लगा ।
इन दो भीमाकार शक्तियों के बीच में पश्चिमी यूरोप के राष्ट्रों के लिए आत्मरक्षा और उन्नति का उपाय यूरोपियन एकता को सुदृढ़ करना तथा इसके लिए विविध आर्थिक और राजनीतिक संगठन बनाना था । संयुक्त राज्य अमेरिका भी सोवियत संघ के विरुद्ध ऐसे संगठनों को आत्मरक्षा के लिए आवश्यक समझता था ।
1946 में चर्चिल ने यूरोप की एकता का आन्दोलन चलाया । यूरोप के आर्थिक पुनरुत्थान के लिए प्रारम्भिक प्रयलों में ट्रूमैन सिद्धान्त और मार्शल योजना प्रमुख हैं । अमरीकी विदेश सचिव मार्शल ने अप्रैल 1947 में कहा कि यदि इस समय तुरन्त यूरोप के आर्थिक पुनरुद्धार का यल नहीं किया गया तो वह साम्यवादी हो जाएगा ।
5 जून, 1947 को हार्वर्ड विश्वविद्यालय में अपने सुप्रसिद्ध भाषण में उन्होंने यूरोप के आर्थिक पुनर्निर्माण के कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की । इसी आधार पर ‘भुखमरी, गरीबी, निराशा एवं अव्यवस्था’ का सामना करने के लिए मार्शल योजना का निर्माण हुआ । इसके अन्तर्गत संयुक्त राज्य अमरीका ने चार वर्ष की अवधि (1948-52) के लिए पश्चिमी यूरोप के 16 देशों को लगभग ग्यारह मिलियन डॉलर की सहायता दी ।
इस काल में यूरोप में आर्थिक सहयोग एवं राजनीतिक एकीकरण के लिए कई संगठन अस्तित्व में आए जिनमें प्रमुख हैं:
बेनीलक्स (1944), यूरोपियन आर्थिक सहयोग संगठन (1948), आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (1961), यूरोपियन अदायगी संघ (1952), यूरोप की परिषद् (1949), यूरोपियन कोयला तथा इस्पात संघ (1952), यूरोपियन आणविक शक्ति समुदाय (1958), यूरोपियन मुक्त व्यापार संघ (1960), यूरोपीय साझा बाजार (1958) । इन संगठनों का उद्देश्य यूरोपियन व्यापार को सुविधाजनक बनाना, चुंगी व्यवस्था को पूर्णतया समाप्त करना तथा अन्त:यूरोपियन वित्त व्यवस्था का निर्माण था ।
6. पश्चिम यूरोप की सैनिक सुरक्षा:
शीतयुद्ध के आतंक ने पश्चिमी यूरोप के देशों को एकीकृत सुरक्षात्मक प्रयत्नों की आवश्यकता महसूस करायी जिससे सैन्य सन्धियों का जाल-सा बिछ गया । द्वितीय महायुद्ध के बाद पश्चिमी यूरोप की सैनिक सुरक्षा की दृष्टि से डंकर्क सन्धि (1947), ब्रुसेल्स सन्धि (1954 से इसे पश्चिमी यूरोपियन संघ कहते हैं), नाटो (1949) तथा यूरोपियन प्रतिरक्षा समुदाय (1952) जेसे संगठन बने ।
7. पूर्वी यूरोप का सैनिक एवं आर्थिक एकीकरण:
पश्चिमी यूरोप का राजनीतिक, आर्थिक एवं सैनिक एकीकरण अमरीका के नेतृत्व में होने के कारण इसकी प्रतिक्रिया सोवियत संघ पर हुई । सोवियत संघ ने प्रतिक्रिया स्वरूप पूर्वी यूरोप के देशों पर अपना नियन्त्रण और भी अधिक कठोर बना दिया ।
पूर्वी यूरोप के प्रमुख देश हैं-पूर्वी जर्मनी, पोलैण्ड, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, रोमानिया, बुल्गारिया, तथा अल्बानिया । इन देशों को साधारणत: सोवियत संघ के पिछलग्गू (Satellite) देशों के नाम से पुकारा जाता है । द्वितीय महायुद्ध के बाद इन देशों में साम्यवादी शासन की स्थापना में सोवियत संघ ने उल्लेखनीय सहायता दी थी ।
पश्चिमी यूरोप के लिए निर्मित नाटो संगठन का उत्तर सोवियत संघ ने 1955 में वारसा पैक्ट बनाकर दिया । वारसा संगठन नाटो के विरुद्ध साम्यवादी देशों का सैन्य संगठन था । वारसा पैक्ट में सोवियत संघ की स्थिति नाटो में संयुक्त राज्य अमरीका से भी अधिक प्रभावशाली रही । पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों में आर्थिक सहयोग के लिए ‘पारस्परिक आर्थिक सहायता परिषद्’ (1949) का निर्माण किया गया ।
यूरोप में सामान्य साम्यवादी नीतियों के क्रियान्वयन एवं समायोजन हेतु 1947 में ‘कॉमिनफार्म’ का निर्माण किया गया । कॉमिनफार्म के माध्यम से पूर्वी यूरोपीय राज्यों की साम्यवादी सरकारों को संगठित करने और उन्हें साम्यवादी कार्यपद्धति में दीक्षित करने में स्टालिन को पर्याप्त सफलता मिली ।
इस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप दो भागों में विभाजित हो गया, यूरोप पर शीतयुद्ध के काले बादल छाए रहे, यूरोप के राज्य अमरीका और सोवियत संघ के पिछलग्गू बन गए, पूर्वी यूरोप साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव में आ गया नाटो और वारसा पैक्ट जैसे संगठनों में सैन्य स्पर्द्धा प्रारम्भ हुई जर्मनी विभाजित हो गया और बर्लिन की दीवार खड़ी हो गयी, यूरोप आर्थिक संकट में था और यूरोप का नेतृत्व अमरीका और सोवियत संघ के हाथों में आ गया ।
यूरोप में नई आर्थिक और राजनीतिक प्रवृत्तियों के उदय के कारण:
1969 के बाद संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ की विदेश नीतियों में व्यापक परिवर्तन आने लगा । अब वे टकराव की राजनीति के स्थान पर संवाद दितान्त की कूटनीति अपनाने लगे जिससे यूरोप में नई आर्थिक एवं राजनीतिक प्रवृत्तियां उभरने लगीं ।
यूरोप में नई प्रवृत्तियों के उदय के निम्नलिखित प्रमुख कारण हैं:
a. दितान्त की राजनीति:
1969 में रिचर्ड निक्सन अमरीका के राष्ट्रपति बने । उन्होंने साम्यवादी विश्व के प्रति अमरीका की नीति को एक नई दिशा प्रदान की जिससे अमरीका-सोवियत संघ सम्बन्धों में दितान्त की प्रक्रिया तीव्र हुई । दितान्त का प्रभाव यूरोप पर पड़ना स्वाभाविक था जिससे मास्को-बोन समझौता (1970), बर्लिन समझौता (1971), पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी के बीच समझौता (1972), यूरोपियन सुरक्षा सम्मेलन (1973-1975), आदि सम्पन्न हुए ।
इन समझौते से यूरोपीय परिवेश में एक सौहार्दपूर्ण वातावरण की स्थापना हुई । ऐसा कहा जाता है कि यूरोपीय सुरक्षा सम्मेलनों ने शीत-युद्ध के वातावरण को समाप्त कर यूरोप को तनाव-मुक्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया ।
b. सोवियत संघ की मजबूरी:
सोवियत संघ की आर्थिक स्थिति में निरन्तर गिरावट आ रही थी । तकनीकी ज्ञान के अभाव में सोवियत संघ कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भर नहीं हो पाया था साइबेरिया में उपलब्ध विशाल गैस भण्डारों का दोहन नहीं कर पाया । सोवियत संघ को अतिरिक्त खाद्य पदार्थों की अनवरत आवश्यकता रही है जिसे वह यूरोपीय देशों एवं अमरीका से आसानी से प्राप्त कर सकता था ।
निश्चित ही अमरीका-जर्मनी आदि पश्चिमी देशों के तकनीकी ज्ञान और सहायता के आधार पर सोवियत विकास को नया आयाम प्राप्त हो सकता था किन्तु इसके लिए यूरोप को तनाव एवं वैमनस्य से मुक्त करना आवश्यक था । यह यूरोपीय देशों के प्रति सह-अस्तित्व एवं माधुर्य की नीति अपनाकर ही सम्भव था ।
c. शीतयुद्ध का अन्त:
यूरोप में नवीन राजनीतिक एवं आर्थिक प्रवृत्तियों के उदय का एक कारण शीतयुद्ध का अन्त भी है । 1988 में विश्व इतिहास में चमत्कारी मोड आया । यूरोप में शीत युद्ध के मुद्दे-बर्लिन और जर्मनी की समस्या का अन्त हो गया । जुलाई, 1990 में बर्लिन की दीवार तोड़ दी गयी और अगस्त 1990 में दोनों जर्मनी का एकीकरण हो गया ।
d. गोर्बाच्योव का नेतृत्व:
यूरोप को नए मार्ग पर धकेलने में तात्कालिक सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाच्योव का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । ‘ग्लासनोस्त’ और ‘पेरेस्त्रोइका’ की नीतियों के परिणामस्वरूप पूर्वी यूरोप में साम्यवाद का अन्त हुआ और लोकतन्त्र की बहार आयी ।
अनेक युगों से सोवियत संघ (पहले जार का रूस) अलग-थलग और तानाशाह देश रहा है । गोर्बाच्योव ने वहां ‘स्वतन्त्रता’ और ‘उदारीकरण’ का नया प्रकाश दिया । गोर्बाच्योव के नेतृत्व में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में ‘रक्तहीन’ क्रान्ति हो जाने से यूरोप का नक्शा और सोच ही बदल गया ।
e. यूरोपीय साझा बाजार का आकर्षण:
1958 में यूरोपीय साझा बाजार की स्थापना हुई जिसका उद्देश्य यूरोप का आर्थिक एकीकरण था । आर्थिक समुदाय के सदस्यों के मध्य आन्तरिक व्यापार कर-मुक्त हो गया जिससे श्रम पूंजी एवं सेवाओं की आन्तरिक गतिशीलता में काफी वृद्धि हुई । साझा बाजार के देशों में व्यापार बढ़ने से प्रति व्यक्ति आय में बहुत वृद्धि हुई । अब यूरोप के अन्य देश भी साझा बाजार में शामिल होने के लिए उत्सुक नजर आने लगे ।
यूरोप में नई आर्थिक एवं राजनीतिक प्रवृत्तियां:
पिछले एक दशक (1989-2002) में यूरोप पूर्णतया बदल गया है ।
यूरोप में निम्नलिखित नई आर्थिक एवं राजनीतिक प्रवृतियां उभरी हैं:
i. साम्यवाद का अवसान:
यूरोप साम्यवाद का मजबूत गढ़ रहा है । सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोप के देश साम्यवादी तानाशाही के सुदृढ़ दुर्ग माने जाते थे । द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद पूर्वी यूरोप के देशों पर स्टालिन द्वारा साम्यवादी तानाशाही थोप दी गयी थी ।
किन्तु 1989-90 के वर्षों में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देश साम्यवादी निरंकुशता से एक-एक कर मुक्त हो गए । सम्पूर्ण कम्युनिज्म-अर्थात् सारे का सारा मार्क्सवाद-लेनिनवाद-अब इतिहास के कब्रिस्तान में गहरा दफना दिया गया ।
इस भयावह विचारधारा की अब नाजीवाद जैसी ही दुर्गति हो रही है । सर्वहारा की तानाशाही जन लोकतन्त्र अनन्त क्रान्ति में राज्य की शाश्वत भूमिका जैसे लेनिन के ‘मौलिक’ सिद्धान्तों को अब पेरेस्त्रोइका (पुनर्गठन) ने धराशायी कर दिया । अब यूरोप में लेनिन का केवल नाम भर सम्भवत: एक राष्ट्रीय नायक के रूप में रह गया है ।
सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में बहुदलीय लोकतन्त्र, अन्य पद्धतियों के साथ सहअस्तित्व और धार्मिक स्वतन्त्रता के आगमन से मार्क्सवाद मिट्टी में मिल गया है । अल्बानिया को छोड्कर पूर्वी यूरोप की कम्युनिस्ट तानाशाहियां 1989 में केवल छ: मास की अवधि के भीतर धराशायी हो गयीं । हंगरी, पोलैण्ड और इटली की कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने निधन का उल्लेख स्वयं किया है । राष्ट्रपति गोर्बाच्योव ने स्वयं सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबन्ध लगाकर उसे भंग कर दिया ।
ii. पूर्वी यूरोप में स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र की बहार:
सोवियत संघ के राजनीतिक रंगमंच पर गोर्बाच्योव के उदय से पूर्व भी विश्व में ऐसे विचारशील लोग थे जिनका अनुमान था कि एक न एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब कम्युनिज्य के जुए में जुते लोग उसे उतार फेंकेंगे और कम्युनिस्ट व्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी परन्तु उनमें से भी कोई इस बात की आशा तो क्या कल्पना भी नहीं कर सकता था कि यह सब अचानक इतने शीघ्र, इतनी सरलता से (केवल एक रोमानिया को छोड़कर) बिना रक्तपात के और बिना बाहरी सहायता के आप से आप हो जाएगा ।
लेनिन, स्टालिन और ब्रेझनेव जैसे सोवियत नेताओं द्वारा लौह आवरण में बन्द करके रखे गए इन देशों की आर्थिक दुर्दशा से घबराकर गोर्बाव्योक् ने सोवियत संघ में पुनर्गठन (पेरेस्त्रोइका) के संकल्प के साथ ‘ग्लासनोस्त’ का द्वार जो खोला तो स्वतन्त्रता की स्वच्छ वायु के एक ही झोंके से पूर्वी यूरोप के देशों पर थोपे हुए कम्युनिस्ट तानाशाह सड़े फलों की भांति एक के पश्चात् एक टपाटप भूलुण्ठित होते दिखाई दिए ।
हंगरी:
हंगरी में 1956 में सोवियत कठपुतली सरकार की अवज्ञा करते हुए लाखों लोग बुडापेस्ट की सड़कों पर निकल आए और मांग की कि हंगरी से सभी सोवियत सैनिकों को हटा लिया जाए, हंगरी के आन्तरिक विषयों में कोई हस्तक्षेप न किया जाए और उसे सोवियत संघ के साथ पूर्ण आर्थिक एवं राजनीतिक समता प्रदान की जाए ।
श्रमिकों के उत्पादन कोटे में संशोधन करने और हड़ताल के अधिकार को मान्यता देने की मांग की गयी । आन्दोलन के नेता इमरे नज ने राजनीति में उदार नीति तथा रहन-सहन के स्तर को ऊंचा उठाने वाली आर्थिक नीति अपनाए जाने की मांग की ।
विद्रोह के प्रति ख्रुश्चेव की प्रतिक्रिया यह थी कि अविलम्ब लाल सेना की टुकड़ियां वहां भेज दी गयीं । विद्रोह को कुचल दिया गया और इमरे नज को बन्दी बना लिया गया । 1956 में ख्रुश्चेव द्वारा सिंहासन पर बिठाए गए यानोस कादर मई 1988 तक सत्ता में रहे ।
32 वर्ष की उनकी तानाशाही में विदेशी ऋण बढ्कर 17 अरब डॉलर तक पहुंच गया । पूर्वी यूरोप के देशों में यह सबसे अधिक ऋण था । मुद्रा-स्फीति 30 प्रतिशत की दर से चौकड़ी भर रही थी । जनवरी, 1989 में हंगरी में नवयुग का उदय हुआ ।
एक ऐतिहासिक कदम उठाकर हंगरी की संसद ने ‘स्वतन्त्र’ राजनीतिक आन्दोलनों’ के गठन की अनुमति देने वाला विधान पारित कर दिया । नए विधान में विभिन्न राजनीतिक दलों के गठन के अधिकार को सिद्धान्त रूप में मान्यता दी गयी ।
संसद ने प्रदर्शन के अधिकार को भी मान्यता दी । फरवरी, 1989 में हंगरी की कम्यूनिस्ट पार्टी ने स्वीकार कर लिया कि एकदलीय समाजवाद का प्रयोग विफल रहा है और बहुदलीय पद्धति में परिणति की तैयारी के लिए एक समिति का गठन किया जाए ।
16 जून, 1989 को सरकार ने सार्वजनिक क्षमा याचना के रूप में किसी अज्ञात कब्र से नज के अवशेषों को निकाला और उन्हें पूरे राजकीय सम्मान के साथ दूसरी कब्र में दफनाया । हंगरी की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी ने 7 नवम्बर, 1989 को मतदान द्वारा संकल्प पारित कर स्वयं अपना अस्तित्व समाप्त कर लिया । पार्टी कांग्रेस ने पार्टी के भीतर तथा बाहर मिश्रित अर्थव्यवस्था तथा लोकतन्त्र के पक्ष में भी मतदान किया ।
पोलैण्ड:
कम्युनिज्म को थोपे जाने के बाद तीन बार 1956, 1970 और 1976 में पोलैण्ड के सर्वहारा ने सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी को चुनौती दी, किन्तु उन्हें सोवियत सैनिकों की मदद से दबा दिया गया । दिसम्बर, 1970 में गेर्येक ने गोमुल्का का स्थान ग्रहण किया । गेर्येक के शासनकाल में पोलैण्ड के विदेशी ऋण बढ्कर 27 अरब डॉलर के हो गए । निर्यातों से ब्याज भी नहीं चुकाया जा सकता था ।
निवेश पूंजी जुटाने के लिए उन्होंने पश्चिम से भारी ऋण लिए किन्तु उनमें से अधिकांश पैसा कार टेलीविजन, आदि उपभोग्य सामग्री के उत्पादन पर व्यय किया गया । लेख वालेसा ने कम्युनिस्ट तानाशाही पर पोलैण्डवासियों को ‘यूरोप ओर विश्व का भिखारी’ बनाने का आरोप लगाया ।
1989 में पोलैण्ड पर विदेशों का ऋण 39 अरब डॉलर था । जून, 1989 में हुए चुनावों ने तथाकथित साम्यवादी लोकतन्त्र के खोखलेपन को नंगा कर दिया । सॉलिडैरिटी को संसद के केवल एक-तिहाई (162) स्थानों के लिए चुनाव लड़ने की अनुमति दी गयी, उसने 161 स्थानों के लिए चुनाव लड़ा और उन सब पर विजय प्राप्त की । सीनेट में भी सॉलिडैरिटी ने 100 में से 99 स्थानों पर अधिकार कर लिया ।
प्रधानमन्त्री तथा उनके समूचे मन्त्रिमण्डल को अस्वीकार कर दिया गया । कम्युनिस्टों और उनके विरोधियों के पक्ष में मतों का अनुपात 1 और 20 का रहा । 24 अक्टूबर, 1989 को पोलैण्ड में सॉलिडैरिटी के नेतृत्व में सरकार की स्थापना हुई ।
29 जनवरी, 1990 को पोलैण्ड की कम्युनिस्ट पार्टी के विशेष और अन्तिम सम्मेलन में प्रतिनिधियों ने पार्टी को भंग करने का निश्चय किया । इससे पूर्व उन्होंने एक कार्यक्रम स्वीकार किया और उसमें स्वतन्त्र तथा लोकतान्त्रिक चुनावों, बहुदलीय पद्धति वाले संसदीय लोकतन्त्र और मण्डी अर्थव्यवस्था की मांग की ।
रोमानिया:
रोमानिया में जिस दिसम्बर क्रान्ति ने अन्तत: मार्क्सवादी सरकार को उखाड़कर फेंक दिया, हाल के इतिहास में उसकी कोई उपमा नहीं है । 17 दिसम्बर, 1989 का तिमिसोरा में एक पादरी के निष्कासन का जो विरोध प्रारम्भ हुआ उसने शीघ्र ही पूर्णत: कम्युनिस्ट विरोधी विद्रोह का रूप धारण कर लिया ।
पुलिस ने भीड़ पर हेलीकोप्टरों से गोलियां बरसायीं और पहले ही दिन 400 लोगों को भून डाला । अगले कुछ दिनों में पश्चिमी रोमानिया में हजारों लोगों की निर्मम हत्या कर दी गयी और उन्हें सामूहिक कब्रिस्तान में दफना दिया गया ।
चार दिनों में विद्रोह राजधानी बुखारेस्ट तक फैल गया । विद्रोही नेता लोनलिजू पीतर रोमन और माइकेल लपोई के नेतृत्व में छात्रों तथा कामगारों ने कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति के भवन पर धावा बोल दिया ।
कारखानों पर अधिकार कर लिया और राष्ट्रीय हड़ताल की घोषणा कर दी गयी । सेना ने आन्दोलनकारियों के आह्वान की ओर ध्यान दिया और उनका साथ दिया । 22 दिसम्बर को रेडियो तथा टेलीविजन केन्द्रों पर अधिकार कर लिया गया और राष्ट्रपति के प्रासाद को घेर लिया गया ।
चाडसेस्क्यू तथा उनकी पत्नी एलिना ने लूट-खसोट के अरबों डॉलर लेकर भाग निकलने का प्रयत्न किया परन्तु बुखारेस्ट से 100 किलोमीटर पश्चिमोत्तर में तिर्गुविस्ते नगर में वे पकड़े गए । उन पर सैनिक न्यायालय में मुकदमा चलाया गया ।
उन पर नरसंहार, राज्य के विध्वंस सार्वजनिक सम्पत्ति की चोरी तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विनाश के आरोप थे । न्यायालय ने उन्हें मृत्युदण्ड दिया । तानाशाह के पतन के पश्चात् भी बुखारेस्ट में लड़ाई एक सप्ताह और चलती रही । सत्ता की बागडोर संभालने वाली राष्ट्रीय मुक्ति समिति ने घोषणा की कि क्रान्ति के इस महायज्ञ में 60,000 से भी अधिक लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी और तीन लाख से अधिक हताहत हुए ।
चाडसेस्क्यू 22 मार्च, 1965 को सर्वोच्च पद पर आसीन हुआ और 24 वर्ष से भी अधिक समय तक बागडोर संभाले रहा । इस चौथाई शती में उसके परिवार के सदस्य लगभग सभी महत्वपूर्ण पदों को हथियाए रहे और उन्होंने समाजवाद को भाई-भतीजावाद का पर्याय बना दिया । उसकी पली एलिना पोलिट ब्यूरो की सदस्या और प्रथम उपप्रधानमन्त्री थी ।
मार्क्सवादी तानाशाह संगमरमर के महलों में रहता शा । रोमन सम्राटों की तरह विलासिता का जीवन व्यतीत करता था । उसने स्विस बैंकों में 40 करोड़ डॉलर मूल्य का सोना जमा कर रखा था । 23 मई, 1990 को शासनारूढ़ नेशनल साल्वेशन फ्रन्ट ने रोमानिया के प्रथम स्वतन्त्र चुनावों में भारी विजय प्राप्त की तथा इयान इलिएस्क्यू 86 प्रतिशत के भारी बहुमत से राष्ट्रपति चुने गए ।
पूर्वी जर्मनी:
अक्टूबर, 1989 में जब प्राग ने पश्चिमी जर्मनी के साथ लगी अपनी सीमाएं खोल दीं तो पूर्वी जर्मनी से लोगों का निष्क्रमण बढ़ गया । एरिक होनेकर के राज्य में हजारों लोग सड़कों पर निकल आए और उन्होंने सुधारों की माग की ।
लिपजिग में 3 अक्टूबर, 1989 के दिन पिछले 36 वर्षों के इतिहास में हुए सबसे विशाल ऐतिहासिक प्रदर्शन ने लोकतन्त्र की ज्वाला को प्रज्वलित कर दिया । 18 अक्टूबर, 1989 को इस स्टालिनवादी नेता का तख्ता उलट दिया गया ।
उन्हें तथा पोलिट ब्यूरो के उनके तीन साथियों को बन्दी बना लिया गया और उन पर देशद्रोह भ्रष्टाचार तथा कुशासन के आरोप लगाए गए । 7 नवम्बर, 1989 को लिपजिग ड्रेसडन तथा शेरिन में विरोध की बाढ़ के बाद क्रेज की कम्युनिस्ट सरकार ने त्यागपत्र दे दिया ।
लगभग 8 लाख विरोधकर्ताओं ने सड़कों पर पदयात्रा की और स्वतन्त्र चुनावों तथा कम्युनिस्ट तानाशाही की समाप्ति की मांग की । 18 मार्च, 1990 को पूर्वी जर्मनी में स्वतन्त्र चुनाव कराए गए । क्रिश्चियन डेमोक्रेटों तथा सम्बद्ध दलों ने 4817 प्रतिशत मत बटोरकर 193 स्थान प्राप्त किए । कम्युनिस्टों को मात्र 65 स्थान तथा 16.33 प्रतिशत मत मिले । अप्रैल, 1990 में क्रिश्चियन डेमोक्रेटों और सोशल डेमोक्रेटों की मिली-जुली सरकार ने पदभार ग्रहण किया । इस प्रकार पूर्वी जर्मनी से साम्यवाद को विदाई दे दी गयी ।
चेकोस्लोवाकिया:
1948 में चेकोस्लोवाकिया की इच्छा के विरुद्ध उस पर कम्युनिज्म थोप दिया गया । चेकोस्लोवाकिया की अर्थव्यवस्था को सोवियत संघ मूलत: अपनी अर्थव्यवस्था की जागीरदारी समझता था । कम्युनिस्ट व्यवस्था में वहां खाद्यान्न का अभाव हो गया, अन्धाधुन्ध मुद्रास्फीति हुई और वस्तु भण्डारों पर लम्बी-लम्बी पंक्तियां लगने लगीं । दुब्चेक जैसे नेता 1968 में ही यह मानने लगे थे कि कम्युनिज्म की विचारधारा लोगों की दशा सुधारने में असफल रही ।
दुब्चेक के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर सुधार का आन्दोलन एक नए सिद्धान्त की स्थापना के लिए अग्रसर हुआ जिसमें लेनिनवाद का लगभग पूरा ही खण्डन कर दिया गया था । सुधारकों ने मानवीयतापूर्ण कम्युनिज्य का आग्रह किया ।
सोवियत भड़कावे में आकर रूढ़िवादी कम्युनिस्ट शत्रुवत् हो गए । 21 अगस्त, 1948 को लाल सेना के टैंक प्राग में घुस आए । दुब्चेक तथा उनकी सरकार के सदस्यों को बन्दी बना लिया गया । जून, 1977 में बर्लिन में 27 कम्युनिस्ट पार्टियों के सम्मेलन में चेकोस्लोवाकिया के कुछ नेताओं द्वारा प्रारूपित एक पत्र परिचालित किया गया । उसमें दमन की समाप्ति और लोकतत्रीय अधिकारों की पुन: स्थापना का आह्वान किया गया ।
चेकोस्लोवाकिया में ‘चार्टर-77’ नामक एक गुट खड़ा हो गया । चार्टर के 45 हस्ताक्षरकर्ताओं ने मांग की कि दो सैन्य गुटों के विघटन के बारे में नाटो तथा वारसा सन्धि वाले देशों के बीच सीधी वार्ता हो, सोवियत तथा अमरीकी सेनाओं को उनके सहयोगी देशों के राज्य क्षेत्रों से हटा लिया जाए यूरोप में परमाणु-हित क्षेत्र की स्थापना की जाए, आर्थिक सहयोग के बारे में पूरब तथा पश्चिम के बीच समझौता हो और दोनों जर्मनियों का पुन: एकीकरण हो ।
कुछ ही वर्षों में चार्टर-77 पर हस्ताक्षरकर्ताओं की संख्या बढ्कर 1,200 तक पहुंच गयी । ‘चार्टर-77’ उस नागरिक मंच का अग्रदूत बना जिसने 1989 में लोकतन्त्र के जनआन्दोलन को आगे बढ़ाया । 17 नवम्बर, 1989 को प्राग में 30 हजार से भी अधिक लोगों ने प्रदर्शन किया और कम्युनिस्ट सरकार के त्यागपत्र की मांग की ।
उनके उद्घोष वाक्य थे: “स्वतन्त्रता दो-स्वतन्त्रता दो, स्वतन्त्र दो, चुनाव कराओ हमें नहीं चाहिए कम्यूनिस्ट पार्टी, चालीस वर्ष बहुत होते हैं याक्स अब तुम्हारे दिन लद चुके है ।” 29 नवम्बर, 1989 को चेकोस्लोवाक संसद ने अनुच्छेद 4 को निरस्त कर दिया जो सोवियत संविधान के अनुच्छेद 6 की भांति ही दल की मार्गदर्शी भूमिका को अनिवार्य ठहराता था ।
उसने अनुच्छेद 16 को भी निरस्त कर दिया जो विद्यालयों में मार्क्सवाद-लेनिनवाद का अध्ययन अनिवार्य बनाता था । ‘चार्टर-77’ के एक संस्थापक वाक्लाव हावेल ने दिसम्बर 1989 में चेकोस्लोवाकिया के राष्ट्रपति का पदभार ग्रहण किया ।
11 जून, 1990 को नागरिक मंच आन्दोलन (सिविक फोरम मूवमेंट) ने चेकोस्लोवाकिया के प्रथम स्वतन्त्र चुनाव में डाले गए कुल मतों के 46 प्रतिशत से अधिक प्राप्त करके चुनाव जीत लिया । कम्युनिस्ट पार्टी उससे कहीं नीचे 13.6 प्रतिशत मत पाकर द्वितीय स्थान पर रही ।
बुल्गारिया:
बुल्गारिया में 7 वर्षीय जिव्कोव को कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष पद से और फिर राष्ट्रपति पद से हटा दिया गया । जिव्कोव ने वहां पर 35 वर्ष से भी अधिक समय तक शासन किया । 16 जनवरी, 1990 को बुल्गारिया की संसद ने एक संविधान संशोधर्ने का अनुमोदन करके सत्ता पर कम्युनिस्ट पार्टी के एकाधिकार को समाप्त कर दिया और स्वतन्त्र चुनावों का द्वार खोल दिया ।
4 दशकों के बाद देश में पहला स्वतन्त्र चुनाव सितम्बर 1990 में हुआ और 11-सदस्यीय कापरिट प्रेसीडेन्सी सत्ता के लिए निर्वाचित हुई । संक्षेप में पूर्वी यूरोप में मार्क्सवाद असफल रहा । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से गोर्बाच्योव के शासन में आने तक के काल तक दरअसल पूर्वी यूरोप में सोवियत संघ का अप्रत्यक्ष साम्राज्य था । 1989-90 में पूर्वी यूरोप में उथल-पुथल मच गयी साम्यवाद का दुर्ग बिना किसी रक्तपात के ढह गया । पूर्वी यूरोप में लोकतन्त्र की हवा बहने लगी ।
iii. बर्लिन की दीवार का ढहना:
9 नवम्बर, 1989 को एक युगान्तरकारी घटना हुई जब पूर्वी जर्मनी ने अपने नागरिकों को पश्चिम जर्मनी के साथ की अपनी सीमा पार करने की खुली छूट देकर अपने ही हाथों बनायी बर्लिन दीवार और जानलेवा सीमान्त बाड़ को अर्थहीन बना दिया ।
तब से न केवल एक विभाजित देश की अविभाज्य जनता का भावभीना पुनर्मिलन हो रहा है मध्य यूरोप के चेहरे पर से शीतयुद्ध का सबसे कलुषित कलंक भी धुलने लगा है । बर्लिन दीवार के निर्माता होनेकर को अक्टूबर 1989 में पूर्वी जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी के नेता पद से अपदस्थ कर दिया गया था । होनेकर के पतन के तीन सप्ताह के अन्दर बर्लिन दीवार का भी पतन हो गया ।
बर्लिन दीवार जब बनी थी उस समय से हर वर्ष लगभग दो लाख पूर्व जर्मनवासी पश्चिम की तरफ भाग रहे थे । यह भी क्या संयोग है कि 1961 के बाद 1989 ऐसा पहला वर्ष है जब एक ही वर्ष में दो लाख से अधिक जर्मन नागरिक पश्चिम जर्मनी चले गए ।
देश पलायन को रोकने के लिए बनी बर्लिन दीवार को 28 वर्ष बाद देश पलायन ही ले डूबा । इस दीवार को आठ जगहों पर तोड़कर सीमा पारगमन की नयी चौकियां बनायी गयीं । लगभग 5 लाख पूर्वी जर्मनवासियों ने 11 नवम्बर को सीमा पार करके पश्चिम जर्मनी के नगरों की यात्रा की । जर्मनवासियों का यह पुनर्मिलन था । दोस्त मित्र और रिश्तेदार ही नहीं अपरिचित लोग भी गले मिले मिलकर रोने या गाने लगे ।
iv. जर्मनी का एकीकरण:
द्वितीय महायुद्ध के बाद दो हिस्सों में विभाजित जर्मनी 45 वर्ष 4 माह पश्चात् 3 अक्टूबर, 1990 को पुन: एक राष्ट्र के रूप में अवतरित हुआ । बिना युद्ध और संघर्ष की त्रासदी को झेले दो राज्यों को ऐसा हर्षोल्लासपूर्ण एकीकरण आधुनिक इतिहास में विस्मयकारी घटना के रूप में याद किया जाएगा ।
जर्मनी का एकीकरण द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप की सबसे अभूतपूर्व बड़ी घटना है । भाषा, संस्कृति और रक्त सम्बन्धों से जुड़ा जर्मनी अब एक है । एकीकृत जर्मनी को अब अधिकाधिक तौर पर ‘जर्मन संघीय गणराज्य’ के नाम से जाना जाएगा ।
जर्मन एकीकरण के प्रश्न पर एक जमाने में पूर्वी जर्मनी के नेता एरिक होनेकर ने कहा था कि आग और पानी का मेल हो ही नहीं सकता लेकिन जर्मनी के लोगों में देश के विभाजन का दु:ख कितना गहरा था इसका अनुमान केवल इस बात से लगाया जा सकता है कि विभाजन के बाद उन्होंने राष्ट्रीय दिवस इसलिए मनाना बन्द कर दिया था कि जब राष्ट्र ही एक नहीं रहा तो राष्ट्रीय दिवस कैसा ?
7 नवम्बर, 1989 को होनेकर का पूर्वी जर्मनी की सत्ता से अपदस्थ होना 9 नवम्बर, 1989 को बर्लिन की दीवार का पतन 18 मार्च, 1990 में पूर्वी जर्मनी में पहली बार स्वतन्त्र चुनाव होना और 1 जुलाई, 1990 को दोनों जर्मनियों का आर्थिक एकीकरण ऐसी घटनाएं थीं जिन्होंने जर्मन एकीकरण का रास्ता साफ कर दिया ।
इसके बाद 12 सितम्बर 1990 को विश्व-युद्ध के चारों साथी देशों-ब्रिटेन अमेरिका फ्रांस और सोवियत संघ ने एक समझौते द्वारा बर्लिन पर अपने कब्जे के शेष अधिकारों को भी समाप्त कर दिया । एकीकरण के बाद पूर्वी जर्मनी संयुक्त राष्ट्र संघ या अन्य अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का सदस्य नहीं रहा और विभिन्न देशों में कार्यरत उसके दूतावास ने भी तुरन्त काम करना बन्द कर दिया ।
जर्मनी के एकीकरण द्वारा चांसलर हेल्मुट कोल ने जर्मनी और विश्व इतिहास में हमेशा के लिए अपना स्थान बना लिया है । जर्मन जनता की नजरों में हेल्मुट कोल बिस्मार्क की तरह महान नेता हैं जिन्होंने जर्मनी को उसका लुप्त गौरव और आत्मसम्मान प्रदान किया ।
यद्यपि चान्सलर कोल ने कहा है कि एकीकृत जर्मनी के आलोचकों को अपने मन से यह आशंकाएं निकाल देनी चाहिए कि वह विश्व मंच पर धौंस जमाने वाले अधिक सम्पन्न और शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरकर सामने आएगा ।
किन्तु इतना निश्चित है कि अगली शताब्दी में जर्मनी को एक महाशक्ति के रूप में उभरने से रोक पाना असम्भव होगा । अमेरिका और जापान के बाद पश्चिमी जर्मनी विदेशी व्यापार में सबसे सम्पन्न देश है । एकीकरण के बाद वह जल्दी ही अपने सभी यूरोपीय पड़ोसियों को पीछे छोड़ देगा । जापान भी अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण जर्मनी के दबदबे को कम नहीं कर पाएगा-वह एशिया के बाजार पर राज तो करेगा परन्तु इस धुरी की शक्ति बर्लिन ही रहेगा ।
v. शीत-युद्ध का अन्त:
1989 में विश्व इतिहास में युगान्तरकारी मोड आया । शीत-युद्ध के मूल कारणों की समाप्ति हो गयी । जुलाई, 1990 में नाटो शिखर सम्मेलन में राष्ट्रपति बुश ने कहा कि नाटो एवं वारसा पैक्ट देशों के बीच शीतयुद्ध अब समाप्त हो चुका है ।
19 नवम्बर, 1990 को पेरिस में नाटो व वारसा सन्धि देशों के उपशासनाध्यक्षों ने एक ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किए । इस सन्धि द्वारा यूरोप में शीत-युद्ध को समाप्त कर दिया गया । बर्लिन की दीवार का पतन जर्मनी का एकीकरण वारसा पैक्ट को भंग करना आदि ऐसी घटनाएं थीं जिनसे शीतयुद्ध अतीत की वस्तु बन गया । शीत-युद्ध के अन्त का मुख्य कारण सोवियत संघ में उभरता हुआ आर्थिक एवं राजनीतिक संकट था ।
vi. सोवियत संघ का विघटन:
सोवियत संघ क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व का सबसे बड़ा देश था । यह एशिया और यूरोप महाद्वीपों में फैला हुआ था । इस देश का विस्तार बाल्टिक सागर से प्रशान्त महासागर तक 9,600 किसी से अधिक तथा उत्तर से दक्षिण 4,800 किमी से अधिक था । सोवियत संघ की सीमाओं में 15 संघीय गणतन्त्र 20 स्वायत्तशासी गणतन्त्र तथा 8 स्वायत्तशास्त्री क्षेत्र सम्मिलित थे ।
सोवियत संघ और सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाच्योव के पतन का आरम्भ तो 19 अगस्त, 1991 के असफल षड़यन्त्र से ही हो गया था पर इसका ठोस प्रमाण दिसम्बर, 1991 में मिला जब गोर्बाच्योव और बोरिस येल्तसिन ने एक समझौते द्वारा सोवियत संघ के सभी केन्द्रीय संस्थानों को समाप्त करने का निर्णय लिया था ।
गोर्बाच्योव ने पार्टी के महासचिव पद से त्यागपत्र दे दिया इसकी केन्द्रीय समिति को भंग कर दिया पार्टी की जायदाद का राष्ट्रीयकरण कर दिया और 25 दिसम्बर, 1991 को सोवियत संघ का औपचारिक रूप से विघटन कर दिया गया तथा उसके सभी गणराज्य स्वतन्त्र हो गए ।
महाकाय सोवियत संघ के सरहदी क्षेत्रों में जब जातीयता के तूफान ने अंगड़ाई ली तो गोरे रूसियों के महान साम्राज्य की चूलें हिलने लगीं । सोवियत संघ में अलगाववाद की खुली लहर की एक वजह तो गोर्बाच्योव की उदारवादी नीतियां तो थीं ही इसका काफी श्रेय पूर्वी यूरोप में हुई राजनीतिक उथल-पुथल को भी है । सोवियत संघ की अल्पसंख्यक जातियां पूछती थीं कि यदि चेकोस्लोवाकिया पूर्वी जर्मनी पोलैण्ड और हंगरी के लोग रूसी जुए को उतार फेंक सकते हैं तो हम क्यों नहीं ?
vii. वारसा सन्धि को भंग करना:
1955 में वारसा पैक्ट पर हस्ताक्षर हुए । यह सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के 7 साम्यवादी राष्ट्रों का सैनिक गठबन्धन था । इस सन्धि की भूमिका में यूरोप में सामूहिक सुरक्षा की पद्धति को स्थापित करने पर बल दिया गया । शीतयुद्ध के अन्त के साथ वारसा पैक्ट भी समाप्ति की ओर अग्रसर हुआ । 1 जुलाई, 1991 को वारसा पैक्ट समाप्त करने का समझौता हो गया ।
viii. नाटो की नई भूमिका पर विचार:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विश्लेषकों का अनुमान था कि वारसा सन्धि के समाप्त हो जाने पर नाटो स्वयमेव अप्रासंगिक हो जाएगा तथा सोवियत संघ की समाप्ति के बाद तो नाटो की स्थापना की पृष्ठभूमि ही समाप्त हो जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ ।
सोवियत संघ के विघटन के बाद कुछ वर्षों तक नाटो शान्त रहा, यह शान्ति कूटनीतिक शान्ति थी । 1997 में नाटो एकदम सक्रिय हो गया । इसने वारसा सन्धि के तीन पूर्व सदस्यों हंगरी पोलैण्ड व चेक गणराज्य को अपनी सदस्यता दे दी । इस कार्यवाही ने नाटो की नीयत पर अनेक सवाल खड़े कर दिए ।
सोवियत संघ के उत्तराधिकारी रूसी संघ ने नाटो के इस विस्तार का तीव्र प्रतिवाद किया । 24 मार्च, 1999 को जब यूरो-अमरीकी सैनिक संगठन नाटो ने बिना संयुक्त राष्ट्र संघ की स्वीकृति प्राप्त किए यूगोस्लाविया पर बमबारी शुरू कर दी तो सर्वत्र नाटो को आलोचना का शिकार बनना पड़ा ।
निश्चय ही यूगोस्लाविया की समक्षता का नाटो ने हनन किया । एक तरफ नाटो की सदस्य संख्या बढ़ रही है तो दूसरी ओर उसके बजट में भी वृद्धि हो रही है । शीत युद्धोत्तर दुनिया में नाटो एकमात्र ताकतवर सैन्य गठबन्धन है । अपने मूल उद्देश्यों के अतिरिक्त आज नाटो की सेना यूरोप से बाहर भी तैनात है ।
ix. बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था:
1917 में बोल्शेविक क्रान्ति के बाद सोवियत संघ ने मार्क्सवाद-लेनिनवाद की अवधारणा के अन्तर्गत अपनी औद्योगिक और सैन्य शक्ति को मजबूत किया । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूर्वी यूरोप के देश भी साम्यवादी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के अन्तर्गत आ गए । साम्यवादी अर्थव्यवस्था के परिणामस्वरूप सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में आर्थिक विकास की गति मन्द रही ।
सोवियत संघ कृषि के क्षेत्र में असफल रहा । कृषि में असफलता का मुख्य कारण था-प्रेरकता का अभाव । जब कुछ वर्ष पूर्व प्रयोग के तौर पर सोवियत अधिकारियों ने कृषकों को छोटे-छोटे फार्म संगठित कृषि के लिए आबंटित किए तो उत्पादन अभूतपूर्व ढंग से बढ़ा ।
इसी प्रकार साम्यवादी ढांचे के विकास ने पिछले कई दशकों में अपने नागरिकों को खाली दुकानें उपलब्ध करायीं और जो भी सामान उपलब्ध हुआ पश्चिम की तुलना में घटिया गुणवत्ता का था । पश्चिमी यूरोप की तुलना में सोवियत संघ के नागरिकों का जीवन-स्तर काफी नीचा था । 80 के दशक में सोवियत अर्थव्यवस्था चरमराने लगी । हंगरी, पोलैण्ड, बुल्गारिया पर विदेशी ऋण त्वरित गति से बढ़ रहा था ।
जब सोवियत संघ में उपभोक्ता वस्तुओं की उत्पादन और वितरण की स्थिति बिगड़कर चरमराहट की सीमा पर पहुंच गयी तो आर्थिक सुधार की आवाज हर तरफ से गूंजने लगी । एक के बाद एक देश में साम्यवादी दलों का आधिपत्य समाप्त होने लगा । हर साम्यवादी देश बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था और स्वतन्त्र राजनीतिक प्रणाली को अपनाने लगा ।
गोर्बाच्योव के आर्थिक सहयोगी, स्तानिस्तव शातालिन ने इन परिस्थितियों का सामना करने के लिए केन्द्रोन्मुख योजना की समाप्ति निजी सम्पत्ति का निर्माण बाजारोन्मुख मूल्य का निर्धारण और आर्थिक योजना का विकेन्द्रीकरण जैसे कदम उठाए ।
अब भूतपूर्व सोवियत गणराज्यों तथा पूर्वी यूरोप के देशों में बाजार व्यवस्था को लागू कर दिया गया है । सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण का आन्दोलन जोर पकड़ता जा रहा है । संक्षेप में, आर्थिक विकास के पूंजीवादी मॉडल को स्वीकार कर लिया गया है ।
x. यूगोस्लाविया का विघटन:
यूगोस्लाविया निर्गुट आन्दोलन के संस्थापक राज्यों में से एक है । यूगोस्लाविया के तत्कालीन राष्ट्रपति मार्शल टीटी ने भारत के प्रधानमन्त्री पं. नेहरू तथा मिल के राष्ट्रपति कर्नल नासिर के साथ मिलकर निर्गुट आन्दोलन को जन्म दिया था ।
1989-90 में भी यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति इस आन्दोलन के अध्यक्ष चुने गए । इस आन्दोलन के कारण यूगोस्लाविया की प्रतिष्ठा विश्व राजनीति में शिखर पर प्रतिष्ठित हुई । शीतयुद्ध के काल में पूर्वी यूरोप के राज्यों में यूगोस्लाविया एकमात्र उदारवादी राष्ट्र रहा है । वह सोवियत संघ के गुट से पृथक् रहकर स्वतन्त्र रूप से अपनी समाजवादी नीतियों को क्रियान्वित करता रहा ।
अब वही यूगोस्लाविया आन्तरिक संघर्षों झगड़ों दंगों तथा जातीय विवादों के चंगुल में फंसकर विघटन के कगार पर पहुंच गया है । अपने पड़ोसी देशों में आयी लोकतान्त्रिक क्रान्तियों की आधी में यूगोस्लाविया पूर्णत: अलग-थलग पड़ गया और राष्ट्रवादी उफान से उत्पन्न जातीय धृणा का शिकार होकर विघटन की ओर उन्मुख हुआ ।
1946 के संविधान द्वारा 6 गणराज्यों: सर्बिया, क्रोशिया, स्लोवेनिया, मेसोडोनिया, मोन्टेनिग्रो व बोस्निया-हर्जेगोविना का संघीय गणराज्य घोषित किया गया था । वस्तुत: यूगोस्लाविया एक ऐसा राष्ट्र है जहां कई राष्ट्रीयताओं के लोग निवास करते हें कई धर्म मतावलम्बी भी यहां हैं ।
प्रारम्भ में लोगों में पारस्परिक सद्भावना थी किन्तु अब स्थिति में परिवर्तन आया है पारस्परिक सद्भावना का स्थान विद्वेष धृणा व अविश्वास ने ले लिया है । यूगोस्लाविया के विघटन की प्रक्रिया जुलाई 1990 में उस समय प्रारम्भ हुई जब इसके एक गणराज्य सर्बिया के स्वायत्तशास्त्री प्रान्त कोसोवो की अल्बानियाई जाति ने सर्बिया से अपनी पृथक् स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी ।
अगस्त, 1990 में क्रोशिया के मात्र 12 प्रतिशत सर्बियों ने स्वशासन की मांग को लेकर हुए जनमत संग्रह में सफलता प्राप्त कर ली । सितम्बर में ही सर्बिया के सान्दजाक क्षेत्र में सर्बियों और मुसलमानों के दंगे भड़क उठे तथा जातीय राष्ट्रवादी धृणा अपनी चरम सीमा पर पहुंच गयी ।
बोस्निया के मुसलमानों ने भी घोषणा कर दी कि यदि स्लोवेनिया और क्रोशिया ने यूगोस्लाविया महासंघ से सम्बन्ध विच्छेद किया तो वह भी महासंघ से पृथक् हो जाएंगे । वर्षीय साम्यवादी शासन के बाद 1990-91 में यह देश लोकतन्त्र की ओर अग्रसर हुआ और यहां 1990 के विद्रोह के बाद संघीय गणराज्य बन गया ।
किन्तु राष्ट्रवाद की आधी से साम्यवाद के ध्वस्त होने के साथ-साथ यूगोस्लाविया का भी विघटन हो गया । 1991 में विघटित यूगोस्लाविया में पांच अन्तर्राष्ट्रीय इकाइयां अस्तित्व में आयीं । नए यूगोस्लाविया संघीय गणराज्य में सर्बिया और मोटेनिग्रो बने रह गये ।
चार अन्य राज्यों ने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया और स्लोवानिया क्रोशिया बोस्निया, हर्जेगोविना को अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के बहुत-से राष्ट्रों ने मान्यता प्रदान कर दी । मेसेडोनिया को भी एक-एक कर राज्य मान्यता प्रदान करते गये । आपसी लड़ाई व संकुचित राष्ट्रवाद ने कुछ समय पूर्व के सम्पन्न हरे-भरे यूगोस्लाविया को बर्बाद कर दिया ।
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भारी बहुमत से यूगोस्लाविया जिसमें सर्बिया और मोन्टेनिग्रो रह गये, को बहिष्कृत कर दिया तथा उसे नए सिरे से सदस्यता के लिए आवेदन करने के लिए कहा । अत: 1 नवम्बर, 2000 को महासभा ने सुरक्षा परिषद की सिफारिश के आधार पर यूगोस्लाविया संघीय गणराज्य के राष्ट्रपति के अनुरोध पर संयुक्त राष्ट्र का सदस्य स्वीकार करते हुए एक संकल्प पारित किया ।
3 जून, 2006 को मोटेनिग्रो ने स्वयं को स्वतंत्र एवं समृध ‘रिपब्लिक ऑफ मोन्टेनिग्रो’ घोषित करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के 1, सदस्य के रूप में संघ की सदस्यता ग्रहण कर ली । कोसोवो को सर्बिया से पृथक् करने की रणनीति के तहत अमरीकी नेतृत्व में नाटो ने सर्बिया पर ग्यारह सप्ताह तक (मार्च-मई, 1999) बमबारी की ।
3 जून, 1999 को रूस के अथक् प्रयत्नों एवं नाटो के हाथों हुए प्रहारों के कारण अमरीका तथा यूगोस्लाविया ने कोसोवो शान्ति योजना को स्वीकार कर लिया । संयुक्त राष्ट्र संघ के निदेशन में अन्तर्राष्ट्रीय सेना कोसोवो में तैनात की गई जिसमें रूस की सेना भी है ।
xi. चेकोस्लोवाकिया का विभाजन:
लगभग 75 वर्ष पूर्व तक एक देश के रूप में रहने के बाद भूतपूर्व चेकोस्लोवाकिया का औपचारिक रूप से दो गणराज्यों-चेक गणराज्य तथा स्तोवाकिया गणराज्य में विभाजन हो गया । महत्वपूर्ण बात यह है कि विभाजन शान्तिपूर्ण ढंग से पूरा हो गया ।
यूरोप: एकीकरण की दिशा में बढ़ते कदम (Europe : Steps towards Integration):
यूरोप में सोवियत संघ का अवसान जितनी बड़ी घटना है, यूरोपीय संघ का उद्भव भी उतनी ही बड़ी करामात है । 1992 से प्रारम्भ होकर 2009 तक यूरोप के एकीकरण की इस प्रक्रिया को सम्पन्न होना है । अभी लगता है कि सोवियत संघ के पतन के कारण विश्व एक-ध्रुवीय हो गया है ।
लेकिन 9 व 10 दिसम्बर, 1991 को मेश्ट्रिच में यूरोपीय समुदाय की जो सफल बैठक हुई उसने द्वितीय ध्रुव का सांगोपांग गर्भाधान कर दिया जिसके अनुसार 1 जनवरी, 1994 को स्वतन्त्र यूरोपीय मुद्रा संस्थान की स्थापना हुई ।
1999 में संयुक्त यूरोपीय मुद्रा का औपचारिक चलन प्रारम्भ हुआ तथा यूरोपीय राष्ट्रों की पृथक्-पृथक् मुद्राएं समाप्त हो गई । 1 जनवरी, 2002 से यूरोपीय संघ के 15 में से 12 सदस्य देशों ने अपने यहां साझा मुद्रा यूरो का चलन शुरू किया ।
‘यूरो’ के संचालन पर नियन्त्रण रखने के लिए जून, 1998 में फ्रैंकफर्ट में यूरोपियन सेन्ट्रल बैंक की औपचारिक स्थापना कर दी गई । यूरोप की साझी मुद्रा ‘यूरो’ के उदय से यूरोप का केवल व्यापार ही सुदृढ़ नहीं होगा बल्कि यूरोप विश्व का एक बड़ा पूंजी बाजार बनकर अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर एक नई शक्ति के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करेगा ।
मेस्ट्रिच घोषणा में राजनीतिक संघ, साझी विदेश नीति, साझी प्रतिरक्षा व संयुक्त यूरोपीय संसद को भी प्रारूपित किया गया है । नीस (फ्रांस) में दिसम्बर 2000 में यूरोपीय संघ के इतिहास की सबसे लम्बी शिखर बैठक में लगभग 18 घण्टे की बहस के बाद संघ के विस्तार एवं सुधार की महत्वाकांक्षी योजना पर सहमति हुई ।
16 अप्रैल, 2003 को यूरोपीय संघ में शामिल होने के लिए दस नए राष्ट्रों ने हस्ताक्षर किए । इनमें से अधिकतर पूर्व साम्यवादी देश है । पोलैण्ड, हंगरी, स्लोवेनिया, लिथुआनिया, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया, एस्तोनिया, लातविया, साइप्रस और माल्टा मई, 2004 में यूरोपीय संघ के विधिवत् सदस्य बन गये ।
13 दिसम्बर, 2007 को 27 सदस्यीय यूरोपीय संघ के सदस्यों ने संघ की निर्णय प्रक्रिया सुधार के लिए एक महत्वपूर्ण सन्धि पर हस्ताक्षर किए । लिस्बन सन्धि के नाम से चर्चित यह सुधार सन्धि संघ के उस प्रस्तावित संविधान के स्थान पर लाई गई है जिसे फ्रांस व नीदरलैण्ड में 2005 में जनमत संग्रह द्वारा खारिज कर दिया गया था ।
यह सन्धि दिसम्बर, 2009 से लागू कर दी गई है । सन्धि के क्रियान्वयन से यूरोपीय संघ की ऐसी व्यवस्था उभरेगी जिससे एकीकरण का मार्ग सरल होगा । यूरोपीय समुदाय के 28 देशों का आर्थिक संगठन शेष पश्चिमी व पूर्वी यूरोपीय देशों को भी अपनी तरफ आकर्षित कर रहा है ।
अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में यूरो एक सुदृढ़ वैकल्पिक मुद्रा के रूप में उभरकर सामने आई है । यह विश्व का सबसे समृद्ध बाजार होगा विश्व का 40 प्रतिशत व्यापार यहीं अभिकेन्द्रित होगा । 1992 में इसकी प्रक्रिया प्रारम्भ हुई यह पूंजी व टेक्नोलॉजी का सबसे बड़ा स्रोत होगा । नया यूरोप अमरीका के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगा क्योंकि सैनिक क्षमता को छोड्कर बाकी सभी दृष्टियों से अमरीका को दरकिनार करने की ताकत इस यूरोपीय संघ में होगी ।
यूरोपीय आर्थिक संकट (European Economic Crisis):
यूनान का आर्थिक संकट समूचे यूरोप का संकट माना जा रहा है और इस बार सवाल बैंकों के डूबने का नहीं बल्कि देशों के दिवालिया होने का है । यूनान से शुरू हुआ कर्ज संकट स्पेन, पुर्तगाल, इटली, आयरलैण्ड और रोमानिया समेत पूरे यूरोप को तबाही के आगोश में ले चुका है ।
विश्व के अमीर देशों में गिना जाने वाला यूनान 2000 से 2007 तक प्रतिशत की विकास दर के साथ यूरोप की सबसे तेज गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्था था, किन्तु 2008 के आर्थिक भूचाल में यूनानी अर्थव्यवस्था के दो प्रमुख स्तम्भ-नौवहन और पर्यटन बुरी तरह बर्बाद हो गए ।
यूरोपीय संघ और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव में यूनान सरकार ने सार्वजनिक खर्चों में कटौती करने निजीकरण और कर्मचारियों की छंटनी करने और सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा योजनाओं के बजट में कमी करने जैसे कदम उठाने शुरू कर दिए ।
ADVERTISEMENTS:
यूरोपीय कर्ज संकट धीरे-धीरे दूसरे देशों में फैलने लगा । पुर्तगाल ने कर्ज संकट से निपटने के लिए बेल आउट पैकेज की मांग की साथ में स्पेन भी सहायता की माग कर रहा है । इसके बाद आयरलैण्ड में भी कर्ज संकट छा गया ।
यूरोपीय जोन को दिवालिया होने से बचाने के लिए यूरोपीय संघ ने बड़ा कदम उठाया । यूरो जोन के कर्ज में डूबे देशों को बचाने के लिए ईयू ने 700 अरब यूरो का भारी पैकेज तैयार किया जिसका उपयोग इन देशों के वित्तीय स्थायित्व के लिए किया जाएगा ।
कुल मिलाकर यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्था से जर्मनी, नीदरलैण्ड और पोलैण्ड जैसे देशों की अर्थव्यवस्था सुधरी है । यूनानी संकट के प्रत्युत्तर में यूरोजोन सदस्य देशों ने अस्थाई उपाय के रूप में मई, 2010 में यूरोपीय वित्तीय स्थिरीकरण सुविधा (ईएफएसएफ) और यूरोपीय वित्तीय स्थिरीकरण तन्त्र (ईएफएसएम) स्थापित किए ।
यूरोपीय स्थिरीकरण तन्त्र (ईएसएम) नामक एक नया स्थाई तन्त्र जो 2013 के मध्य में ईएफएसएफ की अवधि समाप्त होने पर इसका स्थान लेगा पर नवम्बर 2010 में यूरो जोन वित्त मन्त्रियों द्वारा सहमति हो गई थी तथा जिसे 16-17 दिसम्बर, 2010 को आयोजित यूरोपीय परिषद् की बैठक में अनुमोदित कर दिया गया था ।
जैसाकि लिस्बन सन्धि में प्रावधान किया गया है यूरोपीय संघ ने औपचारिक तौर पर 1 दिसम्बर, 2010 को यूरोपीय विदेशी कार्य सेवा (ईईएएस) भी प्रारम्भ की है । ईईएएस के यूरोपीय सदस्य देशों के बीच विदेश नीति के बेहतर समन्वय में सहायता करने की उम्मीद है और इससे यूरोपीय संघ द्वारा विश्व स्तर पर बड़ी भूमिका निभाने में आसानी होगी ।