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Here is an essay on ‘Foreign Policy’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Foreign Policy’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on Foreign Policy
Essay Contents:
- विदेश नीति: अर्थ एवं परिभाषाएँ (Foreign Policy: Meaning and Definition)
- विदेश नीति: अध्ययन के दृष्टिकोण (Approaches to Foreign Policies)
- विदेश नीति के निर्धारक तत्व (Determinants of Foreign Policy)
- विदेश नीति के लक्ष्य (Goals of Foreign Policy)
- विदेश नीति के उपकरण (Instruments of Foreign Policy)
- विदेश नीति: निर्धारण प्रक्रिया (Process of Making the Foreign Policy)
- विदेश नीति के रुझान (Nature of Foreign Policy)
Essay # 1. विदेश नीति: अर्थ एवं परिभाषाएँ (Foreign Policy: Meaning and Definition):
एक राज्य अन्य राज्यों से किस प्रकार के सम्बन्ध रखकर अपना राष्ट्रीय हित प्राप्त कर सकता है यही विदेश नीति का मुख्य प्रयोजन होता है । दूसरे राज्यों से अपने सम्बन्धों के स्वरूप स्थिर करने के निर्णयों का कार्यान्वयन ही विदेश नीति है । जे. आर. चाइल्डस ने इसे ‘वैदेशिक सम्बन्धों का सारभूत तत्व (The Substance of Foreign Relations) माना है, और राजनय (Diplomacy) को विदेश नीति को क्रियान्वित करने की प्रक्रिया कहा हे ।
प्रो. हिल के अनुसार- ”विदेश नीति अन्य देशों के साथ अपने हितों को बढ़ाने के लिए किये जाने वाले किसी राष्ट्र के प्रयासों का समुच्चय है ।”
श्लाइचर के शब्दों में- “अपने व्यापक अर्थ में विदेश नीति उन उद्देश्यों योजनाओं तथा क्रियाओं का सामूहिक रूप है, जो एक राज्य अपने बाह्य सम्बन्धों को संचालित करने के लिए करता है ।”
जार्ज मौडेल्स्कि ने विदेश नीति की परिभाषा करते हुए लिखा है- ”विदेश नीति उन क्रियाकलापों का समुच्चय है जो किसी समुदाय ने अन्य राज्यों का व्यवहार बदलने के लिंए और अपने क्रियाकलापों को अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति के साथ समायोजित करने के लिए विकसित किया था ।”
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रोडी तथा क्रिस्टल के अनुसार- “विदेश नीति के अन्तर्गत ऐसे सामान्य सिद्धान्तों का निर्धारण और कार्यान्वयन सम्मिलित है जो किसी राज्य के व्यवहार को उस समय प्रभावित करते हैं जब वह अपने महत्वपूर्ण हितों की रक्षा अथवा संवर्द्धन के लिए दूसरे राज्यों से बातचीत चलाता है ।”
फैलिक्स ग्रीस के शब्दों में- ”अपने क्रियात्मक रूप में विदेश नीति एक सरकार की दूसरी सरकार के प्रति एक राज्य द्वारा दूसरे राज्य के प्रति अथवा एक सरकार द्वारा एक अन्तर्राष्ट्रीय संघ के प्रति अपनायी गयी विशिष्ट क्रिया पद्धति (System of actions) है ।”
अमरीकी राजदूत हजगिब्सन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘विदेश नीति की राहें’ (The Road to Foreign Policy) में लिखा है कि विदेश नीति नियोजन (Planning) है । उनके मत में विदेश नीति जानकारी और अनुभव पर आधारित एक सर्वतोमुखी व्यापक योजना है, जिसके अनुसार एक देश विश्व के अन्य देशों के साथ अपने सम्बन्धों का संचालन करता है । विदेश नीति का उद्देश्य अपने राष्ट्रीय हितों का विकास और संरक्षण करना होता है ।
हैण्डरसन के अनुसार- ”विदेश नीति राष्ट्रीय परम्पराओं से संचालित होती है । समस्याओं का अलग-अलग समाधान विदेश नीति नहीं हैं । विदेश नीति एक स्थायी नीति होती है जो राष्ट्रीय जीवन मूल्यों तथा सांस्कृतिक परिवेश से निर्मित होती है ।”
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बुकिंग शोध संस्थान के मत में- “विदेश नीति एक देश द्वारा दूसरे देश के साथ अपने सम्बन्धों में पालन की जाने वाली एक संश्लिष्ट (Complex) और गतिशील राजनीति विद्या (Course) है । राष्ट्र की विदेश नीति उसकी विदेश नीतियों के समस्त योग से अधिक होती है क्योंकि विदेश नीति में उस राष्ट्र की वचनबद्धता, हितों और लक्ष्यों का वर्तमान स्वरूप तथा उसके द्वारा घोषित उचित आचरण के (आदर्श) सिद्धान्त भी निहित होते है ।”
इन परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि, विदेश नीति राज्यों की गतिविधियों का एक व्यवस्थित रूप है, जिनका विकास दीर्घकालीन अनुभव के आधार पर राज्य द्वारा किया जाता है, और जिसका उद्देश्य दूसरे राज्यों के व्यवहार अथवा आचरण को अपने हितों के अनुरूप परिवर्तित करना है, और यदि यह सम्भव न हो तो अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का आकलन करते हुए स्वयं अपने व्यवहार में ऐसा परिवर्तन लाना है, जिससे अन्य राज्यों के व्यवहार अथवा क्रियाकलापों के साथ तालमेल बैठ सके ।
Essay # 2. विदेश नीति: अध्ययन के दृष्टिकोण (Approaches to Foreign Policy):
किसी भी देश की विदेश नीति का किस दृष्टिकोण से मूल्यांकन किया जाये यह प्रश्न सदैव विवादास्पद रहा है । इस प्रश्न के प्रत्युतर में विदेश नीति के विभिन्न विद्वानों-विशेषज्ञों ने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किये हैं । इन सभी दृष्टिकोणों के बारे में यहां जानकारी प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है । इस कारण जो मुख्य-मुख्य दृष्टिकोण हैं उनके बारे में चर्चा करना समीचीन होगा ।
विदेश नीति के बारे में प्रमुख रूप से चार दृष्टिकोण निम्नांकित हैं:
(1) सैद्धान्तिक दृष्टिकोण,
(2) विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण,
(3) मार्क्सवादी दृष्टिकोण और
(4) ऐतिहासिक या वर्णनात्मक दृष्टिकोण ।
इनके बारे में विस्तृत विश्लेषण निम्नांकित है:
(1) सैद्धान्तिक दृष्टिकोण:
सैद्धान्तिक दृष्टिकोण के समर्थकों की मान्यता है कि, राज्यों तथा उनके मुकाबले शेष विश्व की नीतियां मात्र प्रचलित राजनीतिक सामाजिक और धार्मिक विश्वासों की अभिव्यक्तियां हैं । इस दृष्टिकोण को अपनाने वाले विद्वान विदेश नीतियों को प्रजातान्त्रिक या सर्वाधिकारवादी उदारवादी या समाजवादी शान्तिप्रिय या आक्रामक, इत्यादि रूपों में वर्गीकृत करते हैं ।
यह दृष्टिकोण वैदेशिक सम्बन्धों व्यवहारों या आचरण को मुख्यत: मनोवैज्ञानिक रूप में स्वीकार करता है । नेताओं या सरकारों के सिद्धान्तों और उद्देश्यों को नीति के एक पूर्ण निर्धारक तत्व के रूप में नहीं तो भी आवश्यक तत्व के रूप में स्वीकार करता है ।
इस सिद्धान्त के अनुसार एक लोकतान्त्रिक शासन एक विशिष्ट प्रकार की विदेश नीति का अनुसरण करता है तो एक निरंकुश तन्त्र भिन्न प्रकार की नीति को अपनाता है । इसी प्रकार एक साम्यवादी सरकार एक विशिष्ट प्रकार की नीति अपनाती है तो प्रजातान्त्रिक समाजवादी सरकार भिन्न प्रकार की नीति का अनुसरण करती है । इसका तात्पर्य यह है कि इस सैद्धान्तिक या वैचारिक दृष्टिकोण में विदेश नीति एक सक्रिय राजनीतिक नेताओं की आस्थाओं और रुचियों के अनुसार निर्धारित होती है ।
सैद्धान्तिक दृष्टिकोण का घटता प्रभाव:
विदेशी नीति के इस सैद्धान्तिक दृष्टिकोण का प्रभाव दिनोंदिन क्षीण होता जा रहा है । इस सिद्धान्त के आलोचकों का तर्क है कि आधुनिक विश्व के देशों की सरकारें चाहे वे निरंकुश हों या लोकतान्त्रिक पूंजीवादी हों या समाजवादी-सभी सैद्धान्तिक तौर पर लोकतन्त्र और शोषण के विरोध की बातें करती हैं किन्तु व्यवहार में उनमें से कुछ सरकारें कम हद तक अधिनायकवादी एवं शोषक होती हैं ? तो कुछ ज्यादा मात्रा में अर्थात् सिद्धान्त का लिबास ओढ़कर शेष विश्व को आदर्शवाद का उपदेश देती हैं अन्यथा व्यवहार में ठोस एवं महत्वपूर्ण राष्ट्रीय हितों की येनकेन-प्रकारेण पूर्ति करती हैं ।
राष्ट्रीय हितों की पूर्ति करते समय सरकारें यह नहीं देखतीं कि उनका सैद्धान्तिक रूप से घोषित उद्देश्य क्या है और किन गलत साधनों के जरिये अपनी आस्थाओं का अतिक्रमण करके वह विदेश नीतियां क्रियान्वित कर रही हैं ।
अमरीकी विदेश नीति का ही उदाहरण लें । अमरीका एक लोकतान्त्रिक देश है और दुनिया के लोकतान्त्रिक देशों को यथासम्भव सहायता देना उसका घोषित उद्देश्य है लेकिन वह लोकतान्त्रिक भारत के विरुद्ध अधिनायकवादी पाकिस्तान की मदद करता आया है । इस प्रकार विदेश नीति के सैद्धान्तिक दृष्टिकोण की प्रासंगिकता धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है ।
(2) विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण:
पिछले कुछ वर्षो से अनेक विद्वानों ने विदेश नीति के सैद्धान्तिक दृष्टिकोण के औचित्य पर प्रश्न-चिन्ह लगा दिया है, तब से विदेश नीति के कई विशेषज्ञों ने विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण अपनाया है । इस सिद्धान्त के समर्थकों की मान्यता है कि, विश्व सरकारें विदेश नीति के निर्धारण और क्रियान्वयन में राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि मानती हैं एवं अपने सामाजिक व राजनीतिक दर्शन धार्मिक दृष्टिकोण तथा सैद्धान्तिक विचारों को गौण इसलिए तो कहा गया है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में किसी भी देश का न तो कोई स्थायी शत्रु होता है और न स्थायी मित्र स्थायी सिर्फ राष्ट्रीय हित होते हैं ।
अर्थात् कोई भी देश राष्ट्रहितों की हर कीमत पर रक्षा करता है भले ही उसे अपने घोषित सिद्धान्तों का अतिक्रमण ही क्यों न करना पडे । स्वयं अपने देश का ही उदाहरण लें । भारतीय विदेश नीति का एक प्रमुख उद्देश्य विश्वशान्ति एवं सुरक्षा रहा है । वह शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की वकालत करता है ।
उसकी मान्यता है कि राष्ट्रों के बीच विचारों का हल युद्ध के द्वारा न होकर शान्तिपूर्ण वार्ता के द्वारा हो लेकिन जब 1962 में साम्यवादी चीन ने भारत पर बर्बर सैनिक आक्रमण कर दिया तो भारत ने उस युद्ध का जवाब भी युद्ध से ही दिया ।
अत: जहां स्थूल राष्ट्रीय हितों की रक्षा का सवाल हो कोई भी देश वैचारिक आदर्श को गौण मानता है और राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि । इस प्रकार विदेश नीति का विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से अधिक प्रासंगिक माना जाता है लेकिन इस व्याख्या के साथ-साथ यह भी स्पष्ट कर देना समीचीन होगा कि यह जरूरी नहीं कि हर समय राष्ट्रीय हितों और सिद्धान्तों में टकराव हो अनेक बार विश्व सरकारें घोषित सिद्धान्तों पर आधारित विदेश नीति का निर्धारण एवं क्रियान्वयन करती हैं ।
(3) मार्क्सवादी दृष्टिकोण:
विदेश नीति के प्रति मार्क्सवादी दृष्टिकोण अत्यन्त निराला है । मार्क्सवाद के जनक कार्ल मार्क्स ने किसी भी नीति के मूल्यांकन के लिए मार्क्सवादी दृष्टिकोण दिया है । यदि विदेश नीति के क्षेत्र में इस दृष्टिकोण को अपनाया जाये तो इसे मार्क्सवादी दृष्टिकोण की संज्ञा दी जायेगी ।
मार्क्सवाद की विदेश नीति के सम्बन्ध में अनेक धारणाएं हैं । मसलन एक साम्यवादी देश दूसरे साम्यवादी देश की मदद करता है । पूंजीवादी देश गरीब देशों का आर्थिक शोषण करते हैं । पूंजीवादी देशों की विदेश नीति साम्राज्यवादी नीतियां अपनाती है । इसी प्रकार की अन्य कई धारणाएं हैं जिनके आधार पर किसी भी देश की विदेश नीति का मार्क्सवादी दृष्टिकोण के आधार पर मूल्यांकन किया जाता है ।
मार्क्सवादी दृष्टिकोण के अन्तर्विरोध:
मार्क्स ने जो दृष्टिकोण दिया, उसे आगे के मार्क्सवादी चिन्तकों ने जहां एक ओर उसका विस्तार से विश्लेषण किया वहीं दूसरी ओर उस मार्क्सवादी दृष्टिकोण में आशिक परिवर्तन भी किये । साम्यवादी सोवियत संघ और चीन में सैद्धान्तिक मतभेद होने के कारण मार्क्सवादी दृष्टिकोण का प्रभाव और भी घटता जा रहा है । सोवियत संघ के राष्ट्रपति ब्रेझनेव ”एशियन सेक्यूरिटी प्लान” का विचार प्रस्तुत करते थे तो साम्यवादी चीन उसे मार्क्सवादी सिद्धान्तों के खिलाफ बताता था ।
इसी प्रकार जब माओ ने अपनी ‘थ्री वर्ल्ड थीसिस’ में सोवियत संघ को प्रथम विश्व में रखकर उसको शोषक और अधीनस्थतावादी बताया तो सोवियत संघ ने माओ की इसके लिए आलोचना की । मार्क्सवादी दृष्टिकोण में मतभिन्नता आने से अब इस दृष्टिकोण का महत्व दिनों-दिन घटता जा रहा है ।
(4) ऐतिहासिक या वर्णनात्मक दृष्टिकोण:
परम्परागत रीति से विदेश नीति के अध्ययन का यह भी एक दृष्टिकोण है । इस दृष्टिकोण वाले चिन्तकों की मान्यता है कि हमें कूटनीति का अध्ययन यथासम्भव अधिक से अधिक परिशुद्धता से करना चाहिए । वर्णनात्मक दृष्टिकोण को अपनाने वाले अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार में रुचि नहीं रखते। वे सामयिक घटनाओं पर विचार करने से कतराते हैं ।
वे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में घटनाक्रम के तिथिवार वर्णन में विश्वास करते हैं । असल में यह दृष्टिकोण अत्यन्त पुराना है और एकांगी भी । इस दृष्टिकोण की मुख्य कमजोरी यह है कि यह राजनीतिक शक्ति और विदेश नीति के आपसी सम्बन्धों का महत्व कम करके आंकता है । इन्हीं कारणों से इस दृष्टिकोण का महत्व एकदम कम हो गया है ।
विदेश नीति के विभिन्न दृष्टिकोणों का मूल्यांकन:
विदेश नीति के उपयुक्त चारों दृष्टिकोणों-सैद्धान्तिक, विश्लेषणात्मक, मार्क्सवादी और वर्णनात्मक – के विवेचन के बाद यह कहना उचित होगा कि इनमें से कोई भी दृष्टिकोण अपने आप में पूर्ण नहीं है । हरेक दृष्टिकोण के कुछ गुण हैं तो कुछ अवगुण हैं । विदेश नीति आधुनिक युग में इतनी अधिक जटिल है कि उसको इन दृष्टिकोणों के बनावटी सैद्धान्तिक सांचों में नहीं ढाला जा सकता ।
Essay # 3. विदेश नीति के निर्धारक तत्व (Determinants of Foreign Policy):
विदेश नीति के इन निर्धारक तत्वों के बारे में विस्तृत विश्लेषण निम्नांकित हैं:
(1) जनसंख्या:
जनसंख्या विदेश नीति के क्षेत्र में एक प्रमुख तत्व है । विदेश नीति निर्धारण में जनसंख्या के तथ्य को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है । डेविड वाइटल के अनुसार- ”किसी देश के क्षेत्रफल और उसकी जनसंख्या के आधार पर यह निश्चित क्रिया जा सकता है कि वह देश महाशक्ति है या छोटा राष्ट्र ।”
जनसंख्या के महत्व का मूल्यांकन दो दृष्टिकोणों से किया जाता है-जनसंख्या और गुणात्मक पहलू । चीन और भारत जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़े देश हैं जिस कारण वे विशाल स्थल सेना रखने में समर्थ हैं । वे विशाल मानव-स्रोत को गुणात्मक दृष्टि से भी मजबूत कर सकते हैं ।
जनसंख्या का गुणात्मक पहलू भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है । जनसंख्या की संख्यात्मक दृष्टि से अमरीका और जापान हालांकि चीन और भारत से छोटे हैं, किन्तु जनसंख्या की गुणात्मक दृष्टि से काफी बड़े हैं । गुणात्मक दृष्टि से सम्पन्न जनसंख्या वाले जापान, अमरीका, जर्मनी और ब्रिटेन विश्व में महत्वपूर्ण स्थिति बनाये हुए हैं ।
साथ ही यह उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि, जहां संख्यात्मक दृष्टि से बड़ी जनसंख्या वाला देश यदि अपने देशवासियों को गुणात्मक स्तर से समुन्नत कर दे तो वह विश्व में एक बड़ी शक्ति का स्थान ले लेगा । इस प्रकार विदेश नीति में जनसंख्या (संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों दृष्टिकोण से) एक महत्वपूर्ण तत्व है ।
(2) भौगोलिक स्थिति:
किसी भी देश की भौगोलिक स्थिति विदेश नीति निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । यह स्थायी तत्व है जिसमें अधिकांशतया परिवर्तन नहीं होता । भारत की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि उसे स्थल सेना नौसेना तथा वायुसेना तीनों का अपार व्यय सहन करना पड़ रहा है ।
नेपाल कि भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि, उसे नौसेना रखने की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि उसकी कोई भी सीमा समुद्र से लगी हुई नहीं है । इस प्रकार किसी देश की भौगोलिक स्थिति से उत्पन्न समस्याओं का कभी-कभी सामना करना पड़ता है तो कभी-कभी अन्य देश को उससे उत्पन्न फायदे भी अर्जित होते हैं । अत: भौगोलिक स्थिति विदेश नीति में एक प्रमुख स्थायी निर्धारक तत्व है, जिसकी विश्व का कोई भी राष्ट्र उपेक्षा नहीं कर सकता ।
(3) प्राकृतिक सम्पदा:
प्राकृतिक सम्पदा भी भौगोलिक स्थिति की तरह कमोवेश एक निश्चित और स्थायी तत्व है, लेकिन ऐसा नहीं है कि इसमें परिवर्तन हो ही नहीं । प्राकृतिक सम्पदा दोहन के बाद समाप्त हो सकती है । जैसा कि आजकल यह कहा जा जा रहा है कि, चालीस-पचास वर्षों में विश्व की तेल सम्पदा समाप्त हो जायेगी जिस कारण तेल का कोई नया विकल्प ढूंढा जाना चाहिए ।
प्राकृतिक सम्पदा की बहुलता के कारण ही आज अमरीका अत्यधिक समृद्ध राष्ट्र है । वह इतना अधिक सम्पन्न है कि विश्व के गरीब राष्ट्रों को विदेशी मदद देकर उनको अपने खेमे की ओर आकर्षित करता है अर्थात् प्राकृतिक साधनों के बल पर ही अमरीका छोटे देशों की विदेश नीतियों को अपने पक्ष में प्रभावित करता है ।
दूसरा दिलचस्प उदाहरण अरब देशों का है जो ‘तेल’ जैसी महत्वपूर्ण वस्तु के बल पर बड़ी शक्तियों की अर्थव्यवस्था तक को व्यापक रूप में प्रभावित कर रहे हैं । इसकी प्रतिक्रिया में अमरीका रूस और समस्त बड़ी शक्तियां इन अरब देशों से अच्छे सम्बन्ध कायम करने की कोशिश करती हैं । इस प्रकार विदेश नीति निर्धारण में प्राकृतिक सम्पदा के तत्व की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका है ।
(4) औद्योगिक स्रोत और क्षमता:
विदेश नीति निर्धारण में औद्योगिक स्रोत और क्षमता एक प्रभावशाली तत्व है । विज्ञान और टेकॉन्लोजी के इस आधुनिक युग में औद्योगीकरण के चरण तेजी से बढ़ते जा रहे हैं । ओद्योगिक रूप से समृद्ध देशों में अमरीका ओर जापान के नाम बरबस ही लिए जाते हैं । अमरीका आज सारी विश्व राजनीति को प्रभावित करता है । इसका कारण ही उसकी औद्योगिक क्षमता है ।
एक समय अमरीका को शत्रु समझने वाला देश चीन अब अमरीका से अपने औद्योगिक विकास के लिए मदद ले रहा है । अमरीका और जापान के अनेक देशों में उद्योग-धन्धे हैं जिनसे वे अरबों डॉलर प्रतिवर्ष कमाने के साथ-साथ उन देशों के आन्तरिक घटनाक्रम को भी अपने पक्ष में बनाते हैं ।
भारत भी औद्योगिक दृष्टि से विकसित होने के कारण विकासशील देशों को औद्योगिक मदद दे रहा है । औद्योगिक रूप से विकसित देश अन्य देशों को औद्योगिक मदद देकर उनकी विदेश नीतियों को प्रभावित करते हैं ।
(5) सैनिक शक्ति:
आधुनिक युग में विश्व राष्ट्रों के बीच शस्त्रों की होड़ दिनों-दिन बढ़ रही है । शस्त्रीकरण की इस प्रवृत्ति का मूल कारण राष्ट्रीय सुरक्षा और दुनिया में शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरने की महत्वाकांक्षा है । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमरीका और सोवियत संघ दोनों शक्तिशाली राष्ट्र माने जाते रहे हैं । इसका सबसे प्रमुख कारण दोनों की अपार सैनिक शक्ति रही है ।
विश्व के अन्य राष्ट्र इन दोनों महाशक्तियों का उनकी सैनिक शक्ति के कारण सम्मान करते रहे हैं । अन्य राष्ट्र इनसे हथियार खरीदते हैं । एक समय था जब अमरीका द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के प्रारम्भिक वर्षों में सैनिक दृष्टि से सबसे ज्यादा शक्तिशाली राष्ट्र था और इसी कारण विश्व के अन्य राष्ट्र उसके खेमे के अन्दर चले गये, किन्तु जब कुछ वर्षों बाद सैनिक क्षेत्र में सोवियत संघ ने अमरीका के समक्ष क्षमता प्राप्त कर ली तो अनेक देश सोवियत छाता का सहारा लेने दौड़ पड़े । आइनिस क्लॉंड ने भी शक्ति के अपने विश्लेषण का मुख्य विषय सैनिक पहलू को ही माना है । इससे स्पष्ट है कि विदेश नीति निर्माण में सैनिक शक्ति का अत्यन्त महत्व है ।
(6) भाषा, धर्म, नस्त और संस्कृति:
विदेशी नीति के क्षेत्र में भाषा, धर्म, नस्ल, और संस्कृति की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका होती है । भाषा और नस्त के कारण ही सीमान्त प्रदेश के पठानों के मसले को लेकर अफगानिस्तान और पाकिस्तान के सम्बन्ध खराब रहे हैं । रंगभेद की नीति के कारण दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार को विश्व के राष्ट्रों ने अलग-थलग डाल दिया था । अरब-इजरायल युद्ध के पीछे धर्म एक प्रमुख कारण रहा है ।
विदेश नीति में भाषा के महत्व का आज के युग में अंग्रेजी की लोकप्रियता से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । जिन देशों में भाषा धर्म नस्ल और संस्कृति में साम्यता हो उनमें सहयोग करने की प्रवृत्ति पायी जाती है ।
धर्म के नाम पर मुस्लिम देश एक हो रहे हैं । इसी प्रकार ईसाई धर्म के नाम पर अनेक पश्चिमी देशों में एकता पायी जाती है, अत: स्पष्ट है कि विदेश नीति के क्षेत्र में भाषा, धर्म नस्त और सांस्कृतिक परम्पराए महत्वपूर्ण तत्व हैं ।
(7) विचारधारा:
किसी भी देश का समाज किसी राजनीतिक आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था पर आधारित होता है । यह व्यवस्था उस देश की विचारधारा से प्रभावित होती है उस देश की बनने वाली विदेश नीति में भी इसी विचारधारा की प्रमुख भूमिका होती है ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यदि हम अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि विचारधारा के आधार पर विश्व अमरीका और सोवियत संघ के अलग-अलग नेतृत्व में विभाजित हो गया । अमरीका ने पूंजीवादी विचारधारा का नेतृत्व किया तो सोवियत संघ ने साम्यवादी विचारधारा का ।
दोनों ने विश्व के अन्य देशों में अपनी-अपनी विचारधारा को फैलाने की नीति अपनायी । अमरीका ने सोवियत साम्यवाद के प्रसार को रोकने के प्रयास किये तो सोवियत संघ ने अमरीकी पूंजीवाद के । इसी प्रकार अन्य देश भी विदेश नीति निर्धारण में अपनी विचारधारा के सिद्धान्तों को अपनाते हैं ।
भारत अशोक और बुद्ध के जमाने से शान्तिप्रिय राष्ट्र रहा है । भारत द्वारा विदेश नीति के निर्धारण में शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व का सिद्धान्त उसकी विचारधारा की अमिट छाप को स्पष्ट करता है । वैसे अनेक विद्वानों ने यह कहा है कि विदेश नीति में विचारधारा की भूमिका क्षीण हो गयी है, किन्तु असल में ऐसा नहीं है । हां, वर्तमान में विचारधारा की भूमिका कम जरूर हुई है लेकिन अभी भी उसके महत्व को नकारना बुद्धिमत्ता नहीं होगी ।
(8) नीति-निर्माता:
विदेश नीति-निर्धारण में नीति-निर्माता एक प्रमुख मानवीय तत्व है । इसके अन्तर्गत प्रमुख रूप से राजनेताओं, विदेश मन्त्रालय के अधिकारियों तथा कूटनीतिज्ञों को सम्मिलित किया जाता है । नीति-निर्माता विदेश नीति का निर्माण करते हैं । विदेश नीति-निर्माण के दौरान उसके प्रमुख तत्वों का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करना उनकी प्रमुख जिम्मेदारी है, अत: नीति-निर्माता वह विशिष्ट वर्ग है जो देश की विदेश नीति के निर्धारण में सक्रिय भाग लेता है ।
(9) विश्व जनमत:
विदेश नीति के क्षेत्र में विश्व जनमत की प्रभावशाली भूमिका होती है । विश्व के किसी भी देश में संकट होने पर अन्य देशों की उस पर प्रतिक्रिया जरूर होगी । इसका प्रमुख कारण यह है कि अन्तर्निर्भरता के वर्तमान युग में किसी भी देश की विदेश नीति अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के साथ अन्त क्रिया करती है ।
कोई भी देश विदेश नीति-निर्माण के समय विश्व जनमत के अनुकूल या प्रतिकूल होने की सम्भावना पर विचार करता है । इसके अलावा आजकल विश्व के राष्ट्र विश्व जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए अनेक प्रकार के प्रचारात्मक कार्य करते हैं ताकि विश्व समुदाय में उसके मित्र राष्ट्र ज्यादा हों और शान्तिपूर्ण परिस्थितियों में वह चहुंमुखी आन्तरिक विकास कर सके ।
विदेश नीति के क्षेत्र में विश्व जनमत किस प्रकार प्रभावी भूमिका अदा करता है, इसका उदाहरण 1956 में ब्रिटेन फ्रांस और इजरायल द्वारा स्वेज संकट के बाद मिस्र पर किये गये अपने आक्रमण को वापस लेना है । इस आक्रमण को वापस लेने का कारण यह था कि इस बर्बर सैनिक आक्रमण के विरुद्ध विश्व जनमत ने उग्र रोष एवं विरोध व्यक्त किया था । अमरीका विश्व जनमत के कारण ही वियतनाम पर बमबारी रोकने को बाध्य हुआ । इस प्रकार विदेश नीति पर विश्व लोकमत का गहरा असर पड़ता है ।
(10) विश्व संगठन:
हरेक देश की घोषित विदेश नीति विश्वशान्ति और सुरक्षा की स्थापना के समर्थन की हामी होती है । किसी भी विश्व संगठन की स्थापना का उद्देश्य भी विश्वशान्ति और सुरक्षा कायम करना होता है । इस कारण राष्ट्र विश्व संगठन के सदस्य बन जाते हैं ।
उनका किसी अन्य देश से विवाद होने की अवस्था में वे इस विश्व संगठन से अपेक्षा रखते हैं कि यह विवाद के समाधान में सक्रिय भूमिका निभाये । दूसरी तरफ सदस्य राष्ट्र भी विश्व संगठन के उद्देश्यों और सिद्धान्तों तथा निर्णयों में बंध जाता है । 1945 में स्थापित संयुक्त राष्ट्र संघ का ही उदाहरण लें ।
इसके सदस्य राष्ट्र इसके चार्टर और घोषणा-पत्र से बंधे हुए हैं तथा वे उनके विभिन्न निर्णयों का पालन करते हैं । इस प्रकार विश्व-संगठन की सदस्यता स्वीकार करने के बाद सदस्य देश की विदेश नीति मर्यादित हो जाती है । अत: इसे विदेश नीति का एक तत्व माना जाता है ।
(11) सम्बद्ध देशों की प्रतिक्रिया:
हरेक देश विदेश नीति निर्माण के दौरान इस बाद को सदैव ध्यान में रखता है कि किसी विशेष नीति के अपनाने से सम्बद्ध देशों की प्रतिक्रिया क्या होगी ? उसे किस हद तक कौन-सी नीति अपनानी चाहिए । ताकि सम्बद्ध देश कम-से-कम नाराज हों । इन बातों पर बिना विचार किये किसी भी निर्णय के भयंकर परिणाम हो सकते हैं ।
यह बात अमरीका द्वारा चीन के साथ सम्बन्ध सुधारने के उदाहरण से अधिक स्पष्ट हो जायेगी । अमरीका ने साम्यवादी चीन से सम्बन्ध सुधारते वक्त ताइवान और सोवियत संघ जैसे सम्बद्ध देशों की प्रतिक्रिया का जरूर ख्याल किया होगा । ताइवान अमरीका का मित्र है और चीन का शत्रु, दूसरी तरफ चीन सोवियत संघ का शत्रु था ।
ऐसी परिस्थितियों में अमरीका ने चीन से सम्बन्ध सुधारने के पहले इस पर जरूर विचार किया होगा कि कहीं इस कदम से उसके सोवियत संघ और ताइवान पर प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं पड़ेगा । यदि प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा तो वह किस हद तक होगा और उसके बारे में अमरीका को कौन-से सम्भावित कदम उठाने पडेंगे । इस प्रकार सम्बद्ध देशों की प्रतिक्रिया विदेश नीति का एक प्रमुख तत्व है ।
Essay # 4. विदेश नीति के लक्ष्य (Goals of Foreign Policy):
किसी भी विदेश नीति के कुछ खास लक्ष्य होते हैं । यदि इन लक्ष्यों को संक्षेप में व्यक्त करने को कहा जाये तो मोटे तौर पर यह मानना उचित होगा कि विदेश नीति का लक्ष्य है- ”राष्ट्रीय हितों की प्राप्ति पूर्ति एवं रक्षा ।” लेकिन राष्ट्रहित शब्द अब तक भी सुस्पष्ट ढंग से परिभाषित नहीं हो पाया है ।
इसकी अस्पष्टता पर टिप्पणी करते हुए, के. जे. होल्सती ने ‘लक्ष्य’ शब्द का प्रयोग किया है । उन्होंने ‘लक्ष्य’ की परिभाषा करते हुए कहा है कि- ”भविष्य की वह वांछित स्थिति जिसे राज्य सरकारें अपने नीति-निर्माताओं द्वारा निर्धारित नीतियों के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपने प्रभाव के प्रयोग द्वारा दूसरे राज्य के व्यवहार को बदल कर अथवा उसे पूर्ववत् बनाये रख कर प्राप्त करना चाहती हैं ।”
यहां स्पष्ट कर देना उचित होगा कि यह जरूरी नहीं कि किसी देश की विदेश नीति के लक्ष्य सदैव वही बने रहें । आवश्यकतानुसार विश्व राष्ट्रों की विदेश नीतियों के लक्ष्य बदलते रहते हैं । फिर भी यह कहा जा सकता हे कि विदेश नीति के लक्ष्यों में आमतौर पर मूलभूत परिवर्तन किन्हीं विशेष परिस्थितियों और आवश्यकताओं के दौरान ही होता है ।
विदेश नीति के विभिन्न लक्ष्यों को अनेक विद्वानों ने अल्पकालीन मध्यवर्ती तथा दीर्घकालीन की श्रेणियों में विभाजित कर विश्लेषित किया है, किन्तु उनको इस प्रकार विभाजित नहीं किया जा सकता क्योंकि विदेश नीति के लक्ष्यों का दायरा इतना लम्बा-चौडा है कि, इस प्रकार की श्रेणियोंमें उनको रखने पर जड़ता की ही बू आती है । विदेश नीति गतिशील है और उसके लक्ष्य भी । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के बदलते परिप्रेक्ष्य में विदेश नीति के लक्ष्य भी उस मौजूदा वातावरण में अपने को ढालने का प्रयास करते हैं ।
इस स्पष्टीकरण के साथ विदेश नीति के लक्ष्यों का निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत अध्ययन करना उचित होगा:
(1) राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा:
स्टेनले हॉफमैन की मान्यता है कि आज के जमाने में राष्ट्र के अस्तित्व की रक्षा सदैव दांव पर लगी रहती है । इस कारण विश्व के सभी राष्ट्रों की विदेश नीति का सर्वप्रथम उद्देश्य उनकी राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा करना होता है ताकि उनकी अखण्डता बनी रहे । कोई भी राष्ट्र नहीं चाहता कि दूसरा राष्ट्र उस पर हमला कर दे ।
राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा के बाद ही राष्ट्र अपने आन्तरिक विकास का लक्ष्य पूरा कर पाते हैं । राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विश्व के सभी राष्ट्र सेना का गठन करते हैं तथा बाह्य आक्रमण के संकट के दौरान सेना अपनी राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा के लिए जी-जान लगा देती है । इस प्रकार हरेक राष्ट्र की विदेश नीति का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा होती है ।
(2) विश्वशान्ति और सुरक्षा की स्थापना:
विश्व के अनेक राष्ट्र शान्तिप्रिय हैं इस कारण उनकी विदेश नीति का एक प्रमुख लक्ष्य विश्वशान्ति और सुरक्षा स्थापित करना होता है । विश्वशान्ति और सुरक्षा के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जहां वे स्वयं युद्ध का सहारा नहीं लेते वहीं विश्व के किसी भी भाग में युद्ध भड़कने पर उसकी आग को जल्दी शान्त करने के लिए अपना सहयोग देने की तत्पर रहते हैं ।
किन्हीं राष्ट्रों से तनावपूर्ण सम्बन्ध की स्थिति में वे संकट के समाधान में मदद करते हैं । वर्तमान युग में बढ़ती शस्त्रों की होड़ को विभिन्न उपायों द्वारा रोकने का प्रयत्न आदि भी करते हैं ताकि विश्वशान्ति और सुरक्षा के समक्ष कोई खतरा उत्पन्न ही न हो । भारत सहित विश्व के अनेक देशों की विदेश नीति का एक प्रमुख लक्ष्य विश्वशान्ति और सुरक्षा की स्थापना है ।
(3) चहुंमुखी आन्तरिक विकास:
विश्व के समस्त राष्ट्रों की यह महत्वाकांक्षा होती है कि चहुंमुखी आन्तरिक विकास को प्राप्त करें । इसी कारण इन राष्ट्रों की विदेश नीति का एक प्रमुख लक्ष्य चहुंमुखी आन्तरिक विकास करना बन जाता है । विदेश नीति राष्ट्रहितों की पूर्ति करती है और आन्तरिक विकास उससे घनिष्ट रूप से जुड़ा हुआ है ।
चहुंमुखी आन्तरिक विकास के लिए राष्ट्र आपस में अनेक प्रकार के लेन-देन और समझौतों को सम्पादित करते हैं । इस प्रकार विश्व के सभी राष्ट्रों की विदेश नीति का प्रमुख लक्ष्य चहुंमुखी आन्तरिक विकास करना होता है । भारत ने विदेशी सम्पर्क और सहयोग के जरिये ही अपना औद्योगिक विकास किया है ।
(4) आर्थिक उद्देश्य:
वर्तमान समय में ‘अर्थ’ का अत्यन्त महत्व है और इसी कारण आधुनिक युग को ‘अर्थप्रधान युग’ की संज्ञा तक दे दी गयी है । ऐसी परिस्थितियों में किसी भी देश की विदेश नीति द्वारा आर्थिक उद्देश्यों की उपेक्षा नहीं की जा सकती । हरेक देश आर्थिक रूप से सक्षम बनना चाहता है और यह तब ही सम्भव हो सकता है जब विदेश नीति के आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति में ठोस कदम उठाये जायें ।
भारत अपने आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तीसरी दुनिया के देशों को मशीनरी व साज-सामान बेचता है । तेल निर्यातक देश ओपेक संगठन बनाकर तेल के ज्यादा से ज्यादा दाम वसूल कर अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करते हैं । अनेक बड़ी शक्तियां दूसरे देशों में पूंजी निवेश करके आर्थिक मुनाफा कमाती हैं । इस प्रकार आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में सभी देशों की विदेश नीति सदैव सक्रिय रहती है ।
(5) वैचारिक उद्देश्य:
हरेक राष्ट्र की अपनी एक विचारधारा होती है जिसके आधार पर वह अपने कार्यों का सम्पादन करता है । मसलन अमरीकी विदेश नीति पूंजीवादी लोकतन्त्र पर आधारित है । अमरीका की विदेश नीति का लक्ष्य यह रहता है कि विश्व राष्ट्रों में लोकतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था हो तथा इस शासन-व्यवस्था को अपनाने वाले देश मुक्त अर्थव्यवस्था का मार्ग अपनायें ।
इसके विपरीत सोवियत संघ की विदेश नीति साम्यवादी दर्शन पर आधारित थी जिस कारण उसकी विदेश नीति का वैचारिक लक्ष्य था-विश्व में साम्यवाद का प्रचार । इस प्रकार राष्ट्रों की विदेश नीतियों के वैचारिक लक्ष्य होते हैं ।
(6) सैनिक दृष्टि से शक्तिशाली बनना:
आज के युग में किसी भी राष्ट्र द्वारा सैनिक दृष्टि से मजबूत होना अनिवार्य-सा हो गया है । अन्यथा शत्रु-राष्ट्र उस पर सैनिक हमला कर अवैध रूप से कब्जा कर सकते हैं । इसी दृष्टि से विश्व की विदेश नीति का एक प्रमुख लक्ष्य सैनिक दृष्टि से शक्तिशाली बनना होता है । इसके लिए वे सैनिक शस्त्रों का निर्माण करते हैं तथा आवश्यक शस्त्रों के अभाव में बड़े राष्ट्रों से शस्त्र खरीदते हैं ।
(7) राष्ट्रीय स्वाधीनता की रक्षा करना:
हरेक स्वतन्त्र राष्ट्र चाहता है कि, वह अपनी राष्ट्रीय स्वाधीनता को बनाये रखे । द्वितीय विश्वयुद्ध कें बाद एशिया, अफ्रीका, लैटिन, अमरीका के अनेक देशों ने राष्ट्रीय स्वाधीनता पाने के लिए औपनिवेशिक दासता के खिलाफ संघर्ष किया ।
स्वतन्त्र होने पर अधिकांश देशों ने गुटनिरपेक्ष नीति अपनायी ताकि वे बड़े राष्ट्रों के प्रभाव से मुक्त होकर स्वतन्त्रता का मार्ग अपना सकें । इस प्रकार राष्ट्रीय स्वाधीनता का लक्ष्य अनेक छोटे एवं गरीब देशों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।
(8) धार्मिक उद्देश्य:
अनेक राष्ट्रों की विदेश नीतियों के धार्मिक उद्देश्य भी होते हैं । अधिकांश मुस्लिम बहुसंख्यक जनसंख्या वाले राष्ट्रों की आधारशिला धर्म पर ही रखी गयी । धर्म की समरूपता होने के कारण अधिकांश मुस्लिम राष्ट्रों की विदेश नीति का धार्मिक उद्देश्य उनमें ‘एकता’ स्थापित करना होता है ।
संकट के समय वे एक-दूसरे की मदद करते है एक मंच बनाकर वे धार्मिक उद्देश्य प्राप्त करने का भी प्रयास करते हैं । भारत में हिन्दू-मुस्लिम दंगा होने पर पाकिस्तान द्वारा भारत में मुक्ति समुदाय के पक्ष में आवाज उठाना धार्मिक उद्देश्य बन गया है ।
(9) सांस्कृतिक उद्देश्य:
हरेक राष्ट्र की अपनी सभ्यता और संस्कृति होती है । वह विदेश में अपनी संस्कृति के प्रसार के लिए कार्य करता है । इस सांस्कृतिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह विदेशों में सांस्कृतिक प्रतिनिधिमण्डल भेजता है और साहित्य बांटता है, ताकि सांस्कृतिक प्रभाव के द्वारा अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति कर सके ।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने अपनी पुस्तक “भारतीय विदेश नीति: नये दिशा संकेत” में भारत के लिए सांस्कृतिक विदेश नीति का एक वैकल्पिक ढांचा प्रस्तुत किया है । उनके अनुसार- ”इस समय आग्नेय एशिया पश्चिमी एशिया तथा लैटिन अमरीका में ऐसे लगभग 25 देश हैं जहां भारतीय सांस्कृतिक दूतावासों की स्थापना अविलम्ब की जानी चाहिए ।
इन दूतावासों का काम उन देशों में भारतीय भाषा, वेश-भूषा, भोजन, भजन, और भेषज की कूटनीति चलाना होना चाहिए । भारतीय भाषाओं के प्रशिक्षण केन्द्र विदेशियों को तो भारत से जोड़ेंगे ही प्रवासी भारतीयों के मन में भारत के प्रति अनुराग को भी तरोताजा रखेंगे ।”
Essay # 5. विदेश नीति के उपकरण (Instruments of Foreign Policy):
कोई भी देश अपनी विदेश नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अनेक उपकरणों का सहारा लेता है । ये उपकरण वे साधन हैं जिनकी सहायता से सम्बन्धित देश राष्ट्रहितों की पूर्ति करते हैं । भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न उपकरणों का सहारा लिया जाता है । अनेक बार एक साथ कई उपकरणों को प्रयोग में लाया जाता है ।
विदेश नीति के निर्धारण और क्रियान्वयन के दौरान प्रयुक्त किये जाने वाले प्रमुख उपकरण निम्न हैं:
(1) सन्धि-वार्ता:
जब दो या उससे ज्यादा राष्ट्रों के बीच विवाद हो तो उसका समाधान खोजने के लिए सम्बन्धित पक्ष सन्धि-वार्ता आयोजित करते हैं । इन सन्धि-वार्ताओं में सम्बन्धित देशों के प्रतिनिधि विचार-विमर्श करते हैं ताकि किन्हीं निर्णयों पर पहुंचकर विवाद के समाधान के रूप में सन्धि की जा सके ।
ये वार्ताएं कभी-कभी कई दिनों व महीनों तक चलती हैं और अनेक बार तो विभिन्न चरणों में होती हैं । इन वार्ताओं के बाद जरूरी नहीं कि विवाद के समाधान के रूप में सन्धि हो ही जाये । अनेक बार वार्ताएं असफल भी हो जाती हैं ।
कुछ सन्धि वार्ताएं गुप्त होती हैं और कुछ बाकायदा खुले रूप में जिसके अन्तर्गत सम्बन्धित सन्धि वार्ता के प्रवक्ता विश्व को जनप्रचार के साधनों के माध्यम से समय-समय पर वार्ता की प्रगति के बारे में जानकारी देते हैं । अत: सन्धि वार्ता विदेश नीति का एक ऐसा उपकरण है जिसके द्वारा विवाद में उलझे राष्ट्र समाधान खोजने के लिए विचारों का आदान-प्रदान कर किन्हीं निर्णयों तक पहुंचने का प्रयास करते हैं ।
(2) सन्धि:
सन्धि वार्ता के दौरान यदि विवाद के बारे में किन्हीं निश्चित निर्णय पर सहमति हो जाती है तो सम्बन्धित पक्ष सन्धि पर हस्ताक्षर कर लेते है । सन्धि एक ऐसा दस्तावेज है जिसमें समझौते की शर्तों का स्पष्ट उल्लेख किया जाता है ।
अच्छी सन्धि का सर्वप्रथम गुण उसकी स्पष्टता होता है ताकि हस्ताक्षरकर्ता देशों में उसके विश्लेषण के बारे में मतभेदों की गुंजाइश न रहे । प्राचीन काल से ही विभिन्न राष्ट्र सन्धि करते आये हैं । प्रथम विश्वयुद्ध के बाद की गयी वार्साय की सन्धि विदेश नीति के एक उपकरण के रूप में एक अच्छा उदाहरण है ।
(3) क्षेत्रीय सुरक्षा सन्धि:
अनेक बार विश्व के किसी कोने के देश क्षेत्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से सन्धि करते हैं । यह सन्धि उनकी विदेश नीतियों के उपकरण का कार्य करती है । इस क्षेत्रीय सुरक्षा सन्धि के द्वारा क्षेत्र विशेष के देश जहां एक ओर आपस में सहयोग करते हैं वहीं दूसरी ओर बाहरी खतरे के समय एकजुट होकर उनका सामना करते हैं ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमरीका ने पश्चिमी यूरोप के देशों को अपने गठजोड़ के अन्तर्गत लेकर साम्यवादी खतरे का मुकाबला करने के लिए क्षेत्रीय सुरक्षा सन्धि करके ‘नाटो’ नामक सैनिक संगठन की स्थापना की । इसी प्रकार सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप के देशों को अपने साथ लेकर पूंजीवादी खतरे का मुकाबला करने के लिए ‘वारसा’ सन्धि की । ‘सेण्टो’ और ‘सीटो’ संगठनों की स्थापना भी क्षेत्रीय सुरक्षा सन्धियों के द्वारा हुई ।
(4) आर्थिक सहयोग संगठनों की स्थापन:
विदेश नीति के उपकरण के रूप में आर्थिक सहयोग संगठन का प्रयोग भी किया जाता है । किन्हीं समान हितों से प्रेरित होकर कुछ देश ऐसा आर्थिक संगठन बना लेते हैं । ऐसे संगठन के माध्यम से सदस्य देश अपनी विदेश नीतियों के लक्ष्यों की पूर्ति के लिए आपसी आर्थिक सहयोग करते हैं । यूरोपीय आर्थिक समुदाय कॉमन फार्म और ग्रुप-8 को ऐसे आर्थिक सहयोग संगठनों की श्रेणी में रखा जाता है ।
(5) युद्ध:
अनेक देश युद्ध को अपनी विदेश नीति के उपकरण के रूप में उपयोग करते हैं । इसके अन्तर्गत युद्ध की धमकी देना, युद्ध लड़ना और शत्रु देश द्वारा आक्रमण करने पर उसके साथ युद्ध लड़ना सम्मिलित है । युद्ध के द्वारा सम्बन्धित पक्ष अपनी विदेश नीति के लक्ष्यों को पूरा करने के प्रयास में लगे रहते हैं । युद्ध की दृष्टि से सदैव तैयार रहने के लिए राष्ट्र सैनिक तैयारियां करते हैं और असीमित व्यय करते हैं ।
कुछ राष्ट्र तो विवादों के समाधान के लिए अन्य शान्तिपूर्ण उपायों के बजाय युद्ध को ही प्राथमिकता देते हैं । मसलन भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान जो अपनी विदेश नीति की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए भारत पर 1947,1965 और 1971 में तीन बार सैनिक आक्रमण कर चुका है ।
शान्तिप्रिय भारत को भी इस हमले का मुकाबला तथा स्कूल राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए मजबूरीवश युद्ध का सहारा लेना पड़ा । इस प्रकार युद्ध विदेश नीति के उपकरण के रूप में उपयोग किया जाता है । आज स्थिति यह है कि, युद्ध लड़ना पड़े या नहीं किन्तु विश्व के समस्त राष्ट्र युद्ध के सम्भावित खतरे से आशंकित रहते हैं और सैनिक तैयारी अवश्य करते हैं ।
(6) दौत्य कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना:
दौत्य सम्बन्धों का अर्थ दो राष्ट्रों के बीच कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना से है । इसके अन्तर्गत राष्ट्र एक-दूसरे की राजधानियों में अपने राजदूतावास खोलते हैं । इन दूतावासों में राजदूत और अनेक अन्य कूटनीतिक अधिकारी रहते हैं ।
दोनों देशों के बीच चहुंमुखी सम्बन्धों की स्थापना में ये कूटनीतिक अधिकारी सहायक एवं माध्यम की भूमिका अदा करते हैं । आधुनिक विश्व की अन्तर्निर्भरता को देखते हुए विदेश नीति के उपकरण के रूप में अन्य राष्ट्रों के बीच दौत्य कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना का महत्व दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है ।
(7) नयी सरकारों और नवोदित देशों को मान्यता देना:
नयी सरकारों और नवोदित देशों को मान्यता देना भी विदेश नीति का एक प्रमुख उपकरण है । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अनेक अफ्रो-एशियाई और लैटिन अमरीकी देशों का औपनिवेशिक शासन की दासता के पंजे से स्वतन्त्र होकर नवोदित देश के रूप में उदय हुआ ।
तत्कालीन स्वतन्त्र देशों ने उन नवोदित देशों की नयी सरकारों को मान्यता दी । इस मान्यता के बाद ही मान्यता देने वाले तथा तथा मान्यता प्राप्त करने वाले देश के बीच कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित होते हैं । कभी-कभी मान्यता का प्रश्न नवोदित देश और नयी सरकारों के लिए विदेश नीति में अत्यन्त ही जटिल परिस्थिति पैदा कर देता है ।
1949 में चीन में साम्यवादी क्रान्ति के उपरान्त अमरीका ने पीकिंग स्थित साम्यवादी सरकार को मान्यता प्रदान नहीं की । इसके विपरीत, फार्मोसा वाली च्यांग-काई-शेक की सरकार को उसने चीन की असली सरकार के रूप में मान्यता प्रदान की ।
बहुत लम्बे समय तक अमरीका ने साम्यवादी चीन की सरकार को विश्व समुदाय में अकेला छोड़ देने के लक्ष्य के रूप में इस मान्यता के प्रश्न को विदेश नीति के उपकरण के रूप में प्रयोग किया । बाद में अमरीका ने पीकिंग स्थित साम्यवादी सरकार को चीन की असली सरकार के रूप में मान्यता दे दी ।
यह भी उसने तब किया जब अमरीका को लगा की चीन की साम्यवादी सरकार को मान्यता देने से उसकी सोवियत संघ के साथ सौदेबाजी की स्थिति मजबूत हो जायेगी । इस प्रकार मान्यता को विदेश नीति के उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जाता है ।
(8) कूटनीतिक सम्बन्धों को भंग करना:
कूट नीतिक सम्बन्धों को भंग या विच्छिन्न करना भी विदेश नीति का प्रमुख उपकरण है । कूटनीतिक सम्बन्धों को भंग करने का कदम अत्यन्त नाजुक और सीमित परिस्थितियों में ही उठाया जाता है । इस कदम को उठाने वाला देश इसके द्वारा दूसरे देश के प्रति अपनी नाराजगी और विरोध प्रकट करता है ।
कूटनीतिक सम्बन्धों को भंग करने के अन्तर्गत दोनों देश एक-दूसरे की राजधानियों से अपने राजदूत वापस बुला लेते हैं और राजदूतावास हटा लेते हैं । इसका प्रभाव यह पड़ता है कि, दोनों देशों के बीच बातचीत का एक प्रमुख माध्यम नहीं रहता है ।
इसके अभाव में मजबूरीवश सम्बन्धित राष्ट्र किसी तीसरे देश की मध्यस्थता का आश्रय लेते है । स्पष्ट है कि, कूटनीतिक सम्बन्धों के अभाव में दोनों देशों को बातचीत प्रारम्भ करने के लिए अनेक अड़चनें उठानी पड़ती हैं । एक बार कूटनीतिक सम्बन्ध विच्छिन्न कर पुन: स्थापित तभी होते है जब सम्बद्ध देशों में विवाद के प्रति थोड़ी सहमति हो जाये ।
सोवियत संघ ने इजरायल के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध-विच्छेद इसलिए किये ताकि अरब देशों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करके वह अपने ज्यूल राष्ट्रीय हितों की पूर्ति कर सके । अर्थात् सोवियत संघ ने इजराइल के साथ कूटनीतिक सम्बन्धों को तोड़कर उसका विदेश नीति के एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया ।
जब 1962 में चीन ने भारत पर सैनिक हमला किया तो दोनों देशों ने अपने राजदूत स्वदेश बुला लिये अर्थात् इस कदम के द्वारा दोनों ने एक-दूसरे के प्रति नाराजगी और विरोध जाहिर किया । फरवरी, 1976 में भारत और चीन ने पुन: कूटनीतिक सम्बन्ध तब स्थापित किये जब दोनों में यह आम सहमति हो गयी कि उनके मतभेदों को शान्तिपूर्ण उपायों से सुलझाया जा सकता है । इस प्रकार कूटनीतिक सम्बन्धों को भंग करना विदेश नीति का प्रमुख उपकरण है ।
(9) विरोध-पत्र या चेतावनी देना:
किसी एक देश द्वारा दूसरे देश को विरोध-पत्र लिखना या चेतावनी देना भी विदेश नीति का महत्वपूर्ण उपकरण है । हालांकि यह कूटनीतिक सम्बन्धों को भंग करने से हल्का कदम अवश्य है किन्तु इसका इस्तेमाल विश्व के राष्ट्र आये-दिन करते रहते हैं ।
विरोध-पत्रों या चेतावनियों के जरिये देश अपने खिलाफ चल रहे देश के प्रति नाराजगी एवं विरोध अत्यन्त ही परिष्कृत तरीके से व्यक्त करता है भद्दे व्यवहार या गन्दे शब्दों में नहीं । विरोध-पत्रों या चेतावनियों की भाषा अत्यन्त संयत परिष्कृत एवं कभी-कभी अस्पष्ट और दो अर्थ वाली होती है ।
अगस्त, 1980 में भारत के अनेक शहरों में हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए तो पाकिस्तान के शासक वर्ग ने भारत सरकार पर इन दंगों का दोष मढ़ दिया । इसकी प्रतिक्रिया में भारत ने पाकिस्तानी सरकार को संयत भाषा में एक विरोध-पत्र लिखा जिसमें कहा गया कि यह भारत का आन्तरिक मामला है और इसमें किसी अन्य देश का हस्तक्षेप सहन नहीं किया जायेगा ।
अगस्त, 1980 में पोलैण्ड में सोवियत समर्थक श्रमिकों ने सरकार के खिलाफ हड़ताल कर अपनी मांगें स्वीकार करवा लीं । अमरीका तथा अनेक पश्चिम यूरोपीय देशों ने पोलैण्ड के श्रमिकों का समर्थन किया तथा इस घटना को साम्यवादी व्यवस्था की हार करार दिया ।
इसके विरुद्ध सोवियत संघ ने अमरीका सहित पश्चिमी देशों की सरकारों को सार्वजनिक चेतावनी जारी की कि पोलैण्ड में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करें । चेतावनी में यह भी कहा कि सोवियत संघ पोलैण्ड में पश्चिमी देशों के किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप और दुष्प्रचार को सहन नहीं करेगा । इसका प्रभाव यह पड़ा कि पश्चिमी खेमा अपनी प्रतिक्रिया में थोड़ा सजग और संयत हो गया । इस प्रकार विरोध-पत्र एवं चेतावनियां विदेश नीति के प्रभावशाली उपकरण के रूप में प्रयोग में लायी जाती हैं ।
(10) अन्य देशों से आर्थिक सम्बन्ध:
विदेश नीति के अन्य देशों से आर्थिक सम्बन्ध कायम करने के उपकरण के रूप में किसी देश द्वारा अन्य देश में पूंजी न्यस्त करना उसके बौण्ड खरीदना प्रत्यक्ष आर्थिक सहायता प्रदान करना, औद्योगीकरण एवं पुनर्निर्माण में सहयोग देना महत्वपूर्ण रूप से उल्लेखनीय हैं ।
वस्तुत: आज की विश्व राजनीति में ‘अर्थ’ विदेश नीति का एक आधारभूत तथ्य की तरह स्थापित हो गया है । आज विश्व राजनीति अर्थकेन्द्रित हो गयी है । द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् यूरोपीय देशों की ध्वस्त अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण के लिए अमरीका ने मार्शल योजना तैयार की जो लोक-कल्याण के उद्देश्य से कम और अमरीकी विदेश नीति के राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के दृष्टिकोण से ज्यादा प्रेरित थी ।
आज विश्व की बड़ी शक्तियां तीसरी दुनिया के गरीब देशों में पूंजी निवेश करने के साथ-साथ अपने राजनीतिक तथा अन्य उद्देश्य भी पूरा करती हैं । बड़ी शक्तियों द्वारा छोटे देशों को आर्थिक सहायता भी राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित होती है । अर्थात् इस प्रकार के आर्थिक सम्बन्ध विदेश नीति के उपकरण के रूप में कार्य करते हैं ।
(11) अन्य देशों के साथ सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, शैक्षणिक आदि सम्बन्ध:
आधुनिक युग के बारे में कहा जाता है कि, दुनिया धीरे-धीरे बहुत छोटी होती जा रही है । इसका अर्थ यही है कि विश्व के देश एक-दूसरे के साथ चहुंमुखी स्तर पर ही सम्बन्ध स्थापित करने में लगे हुए हैं । पहले राष्ट्र में सरकारी स्तर पर ही सम्बन्ध हुआ करते थे किन्तु आजकल एक देश की जनता भी दूसरे देशों की जनता के साथ राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, शैक्षणिक आदि तमाम क्षेत्रों में घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित करने में लगी रहती है और विश्व की आधुनिक सरकारें सम्बन्धों के इस आदान-प्रदान की इजाजत ही नहीं देतीं बल्कि इसे अनेक बार प्रोत्साहित भी करती हैं ।
जीवन के चहुंमुखी क्षेत्रों में सम्बन्धों की स्थापना विदेश नीति के एक प्रमुख उपकरण की भूमिका अदा करती है । चहुंमुखी क्षेत्रों में सम्बन्ध सरकारों के राजनीतिक सम्बन्धों को मैत्रीपूर्ण बनाने में मदद करते हैं । इस सन्दर्भ में चीन की ‘पिंग पोंग कूटनीति’ का उदाहरण दिलचस्प है ।
चीन ने पिंग पोंग खेल प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए अमरीकी खिलाड़ियों को आमन्त्रित कर अमरीका-चीन सम्बन्ध सुधारने का एक नया युग प्रारम्भ किया । इस प्रकार जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में दो देशों के बीच सम्बन्धों की स्थापना को विदेश नीति के उपकरण के रूप में प्रयुक्त किया जाता है ।
(12) विश्व संगठन का उपयोग:
विश्व समुदाय आमतौर पर शान्ति और सुरक्षा के वातावरण में रहना चाहता है । इसके लिए जब भी किसी विश्व संगठन के निर्माण का प्रस्ताव आता है तो एक बहुत बड़ी संख्या में राष्ट्र उसके सदस्य बनने को तैयार हो जाते हैं । विश्व संगठन विश्वशान्ति और सुरक्षा बनाये रखने के साथ-साथ सदस्य राष्ट्रों में आपसी विवादों का हल भी छूने का प्रयास करता है ।
सदस्य राष्ट्र स्वयं विवाद की स्थिति में विश्व संगठन के माध्यम से संगठन का इस्तेमाल करते हैं । जब 1947 में पाकिस्तान ने भारत के कश्मीर राज्य पर अपना दावा पेश किया तो भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे विशाल संगठन को इस विवाद का हल छूने के लिए कहा ।
इसी प्रकार अरब देश इजराइल अधिकृत भूमि को उससे खाली करवाने के लिए अनेक बार संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में इसके लिए प्रस्ताव पारित करवा चुके हैं । अर्थात् अरब देश संयुक्त राष्ट्र संघ के समर्थन से इजरायल पर दबाव डलवा कर अपनी भूमि पर से उसका कब्जा हटवाना चाहते हैं । इस प्रकार राष्ट्र विश्व संगठन का विदेश नीति के उपकरण के रूप में इस्तेमाल करते हैं ।
(13) गुप्तचर विभाग:
विज्ञान और टेक्नोलोजी के बढ़ते चरणों के इस आधुनिक युग में ‘ज्ञान’ का महत्व दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है । किसी भी देश का गुप्तचर विभाग अन्य देशों में हो रहे घटनाक्रम की जानकारी रखता है तथा संकटकालीन स्थिति में गुप्तचर विभाग अपनी सरकार को उस संकट के बारे में प्रामाणिक एवं विश्वसनीय जानकारी देता है । इसके आधार पर वह देश उस संकट विशेष के बारे में विदेश नीति का निर्धारण करता है ।
अमरीका की सी. आई. ए. और सोवियत संघ की के. जी. बी. विश्व के प्रमुख गुप्तचर संगठन कहे जा सकते हैं । ये खुफिया संगठन कभी-कभी अन्य देशों में षडयन्त्र कर विरोधी शासन का तख्ता तक पलट देते हैं । गुप्तचर विभाग अत्यन्त सजग रहता है, क्योंकि उस पर अपने देश के राष्ट्रीय हितों की हर कीमत पर पूर्ति करने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है । इसी कारण गुप्तचर विभाग का विदेश नीति निर्धारकों के लिए आंख और कान जैसा महत्व है । इस प्रकार गुप्तचर विभाग विदेश नीति का एक प्रमुख उपकरण है ।
Essay # 6. विदेश नीति : निर्धारण प्रक्रिया (Process of Making the Foreign Policy):
विदेश नीति निर्धारण प्रक्रिया का तात्पर्य किसी देश के वैदेशिक मामलों में भी निर्णय किन के द्वारा लिया जाता है और यह निर्णय किस प्रकार प्रक्रिया के दौर से गुजरता है से है । प्राचीन विश्व के अधिकांश देशों में समस्त शक्तियां राज्य के हाथों में केन्द्रित होती थीं जिससे विदेश नीति के निर्धारण की प्रक्रिया आसान थी ।
राजा अपने चन्द दरबारियों तथा सलाहकारों से परामर्श करके जल्दी ही निर्णय ले लेता था लेकिन आज विश्व बदल गया है । विश्व-राष्ट्रों में अब पहले की तरह न तो सर्व-शक्तिमान राजा रहे और न ही वह पुरानी विश्व राजनीति जिसमें राष्ट्रों के बीच अन्तर्क्रिया एव अन्तर्निर्भरता कम थी ।
विज्ञान एवं टेक्नोलोजी के वर्तमान युग में विश्व के राष्ट्रों में हरेक स्तर पर अन्तर्क्रिया और अन्तर्निर्भरता बढ़ रही है जिस कारण राष्ट्रों की विदेश नीति के निर्धारण की प्रक्रिया अपेक्षाकृत लम्बी एवं अत्यन्त जटिल हो गयी है । उसे विभिन्न चरणों से होकर गुजरना पड़ता है । आज अमरीका या रूस के राष्ट्रपति मनमानी विदेश नीति निर्धारित नहीं कर सकते ।
विदेश नीति निर्धारण प्रक्रिया के दो पहलू हैं: निर्णय तथा उसका कार्यान्वयन । विदेश नीति निर्धारण के दौरान दोनों पहलुओं पर सोचा जाता है कि, क्या निर्णय लिया जाये और उसका कार्यान्वयन कैसे हो ? विदेश नीति निर्धारण प्रक्रिया में दो प्रकार के अभिकरण होते हैं जो उसमें हिस्सा लेते हैं ।
ये हैं- सरकारी अभिकरण और गैर-सरकारी अभिकरण । ये अभिकरण विदेश नीति निर्धारण करते हैं और उसका कार्यान्वयन भी । ध्यान रखने योग्य बात यह है कि अन्तिम निर्णय नीति निर्धारण प्रक्रिया के दौर से गुजरता है जिसमें सरकारी अभिकरण प्रत्यक्ष रूप से भाग लेते हैं ।
इनके बारे में विस्तृत विवेचन निम्नांकित है:
सरकारी अभिकरण:
सरकारी अभिकरण में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका दोनों को सम्मिलित किया जा सकता है । चाहे देश लोकतान्त्रीय हो या साम्यवादी वहां सरकार के ये दोनों अंग जरूर होंगे । कार्यपालिका के अंगों में प्रमुख रूप से प्रधानमन्त्री या/और राष्ट्रपति सम्बन्धित मन्त्रीगण तथा अन्तर्विभागीय संगठन के नाम गिनाये जा सकते हें । व्यवस्थापिका के अन्तर्गत संसद के सदस्यों की सम्बन्धित संसदीय समितियों को रखा जा सकता है ।
सरकार के ये अग विदेश नीति निर्धारण की प्रक्रिया में सक्रिय एवं निर्णयात्मक रूप में भाग लेते हैं । प्रधानमन्त्री सरकार का प्रमुख होता है और विदेशमन्त्री विदेश नीति का । इनसे जुड़ा हुआ होता है देश का विदेश मन्त्रालय ।
रक्षा मन्त्रालय से भी इनका सम्बन्ध रहता है । विदेश नीति निर्धारण के समय कार्यपालिका के सदस्यों की सक्रिय एवं निर्णयात्मक भूमिका का कारण यह है कि ये जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं जिन पर देश को चलाने का उत्तरदायित्व होता है ।
व्यवस्थापिका में जनता द्वारा चुने हुए वे सभी प्रतिनिधि आते हैं भले ही वे कार्यपालिका के सदस्य हों या नहीं । ये जन प्रतिनिधि सदन में विदेशी मामलों में बहस के द्वारा अपनी राय प्रकट करते हैं और सरकार द्वारा विदेश नीति निर्धारण को प्रभावित करते है । इस प्रकार सरकारी अभिकरणों की विदेश नीति निर्धारण प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका होती है ।
गैर-सरकारी अभिकरण:
विदेश नीति निर्धारण में गैर-सरकारी अभिकरण हालांकि नीति विषयक निर्णय नहीं लेते किन्तु नीति निर्धारण प्रक्रिया को काफी हद तक प्रभावित जरूर करते हैं । सरकार इनके विचारों की एकदम उपेक्षा कदापि नहीं कर सकती । गैर-सरकारी अभिकरण के अन्तर्गत राजनीतिक दल हित-समूह जनमत एवं विशेषज्ञों को रखा जा सकता है ।
ये विदेश नीति निर्धारण में सरकारी निर्णय को प्रभावित करते है । लोकतन्त्र के इन गैर-सरकारी अभिकरणों की विदेश नीति निर्धारण प्रक्रिया में अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय भूमिका की गुंजाइश होती है, क्योंकि ऐसी शासन-व्यवस्था में शक्ति का विकेन्द्रीकरण और विरोधी पक्ष को अपनी बात कहने का मौका दिया जाता है ।
मसलन हरेक राजनीतिक दल की अपनी एक विचारधारा होती है, जिसके अनुसार चलकर वह राष्ट्र-निर्माण का कार्य सम्पन्न करना चाहता है । हरेक राजनीतिक दल की विदेश मामलों में भी अपनी एक दृष्टि होती है । विकसित हित समूह भी अपने-अपने हितों के अनुसार किसी विशेष प्रकार की विदेश नीति की वकालत करते हैं । विदेशी मामलों में जनमत भी जाग्रत रहता है ।
विषय-विशेषज्ञ तो विदेशी मामलों पर रेडियो, टेलीविजन और समाचार-पत्रों के माध्यम से अपनी राय तो व्यक्त करते ही हैं । सरकार विदेश नीति निर्धारण प्रक्रिया के दौरान इन गैर-सरकारी अभिकरणों के सभी मतान्तरों को दृष्टिगत रखते हुए ही निर्णय लेती है ताकि सर्वसम्मत विदेश नीति निर्धारण का कार्यान्वयन पूरी ताकत से किया जा सके ।
हरेक सरकार इन गैर-सरकारी अभिकरणों की आलोचना से बचना चाहती है, जिस कारण वह उनके मत के एकदम विपरीत कम ही मामलों में निर्णय लेती है । इस प्रकार विदेश नीति निर्धारण प्रक्रिया में गैर-सरकारी अभिकरणों की सक्रिय एवं अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका होती है ।
Essay # 7. विदेश नीति के रुझान (Nature of Foreign Policy):
विदेश नीति के रुझान का पता किसी देश द्वारा विश्व के अन्य देशों के प्रति अपनायी गयी नीतियों को विश्वव्यापी राजनीति के सन्दर्भ में रखकर लगाया जा सकता है । विश्व राष्ट्रों की विदेश नीति के रुझान को अनेक श्रेणियों में बांटा जा सकता है किन्तु स्थानाभाव के कारण यहां यही उचित होगा कि हम विदेश नीति ने प्रमुख रुझानों का ही अध्ययन करें ।
मोटे तौर पर आधुनिक विश्व राजनीति में विश्व राष्ट्रों की विदेश नीतियों में तीन प्रकार के रुझान पाये जाते हैं:
(i) अलगाववादी रुझान,
(ii) गुटनिरपेक्ष रुझान और
(iii) अधीनस्थतावादी रुझान ।
इनका संक्षेप में विवेचन निम्नांकित हैं:
(i) अलगाववादी रुझान:
किसी राष्ट्र द्वारा विदेश नीति के अलगाववादी रुझान अपनाने का कतई अर्थ यह नहीं है कि वह राष्ट्र विश्व के अन्य राष्ट्रों से किसी प्रकार के सम्बन्ध रखे ही नहीं असल में इसका अर्थ यह है कि वह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की उलझनों से अपने आपको दूर रखता है ।
वह न तो किसी राष्ट्र की तरफदारी करता है और न ही विरोध । वैसे अलगाववादी रुझान अपनाने वाला राष्ट्र ऐसी नीति किन्हीं विशेष कारणों से अपनाता है । अमरीका ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इस अलगाववादी रुझान को कुछ वर्षों तक अपनाया था ।
(ii) गुटनिरपेक्ष रुझान:
गुटनिरपेक्ष रुझान अपनाने वाला राष्ट्र विश्व राजनीति में गुटबाजी की राजनीति से अपने आपको दूर रखता है । गुटनिरपेक्ष राष्ट्र स्वतन्त्र विदेश नीति का पालन करते हैं । वे बड़ी शक्तियों द्वारा प्रवर्तित सैनिक संगठनों में भाग नहीं लेते ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भारत सहित अनेक अफ्रो-एशियाई एवं लातीनी अमरीकी देशों ने अपनी विदेश नीति के क्षेत्र में गुटनिरपेक्ष रुझान को अपनाया । क्योंकि वे जहां एक ओर विश्व को गुटों में विभक्त नहीं करना चाहते थे वहीं दूसरी ओर बड़ी शक्तियों के प्रभाव से मुक्त स्वतन्त्र विदेश नीति का क्रियान्वयन करना चाहते थे ।
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(iii) अधीनस्थतावादी रुझान:
अधीनस्थतावादी रुझान का अर्थ किसी देश द्वारा दूसरे देश की विदेश नीति पर वर्चस्व स्थापित करना है । इसके द्वारा बड़े देश छोटे देशों पर अप्रत्यक्ष रूप से वर्चस्व स्थापित करते हैं और छोटे देश इस स्थिति को स्वीकार कर लेते हैं ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् अमरीका तथा सोवियत संघ ने क्रमश: अपने पूंजीवादी तथा साम्यवादी खेमे की ओर विश्व राष्ट्रों को आकर्षित कर वर्चस्व स्थापित किया । दोनों महाशक्तियों ने उनकी अधीनस्थता स्वीकार करने वालों को सैनिक एवं आर्थिक मदद प्रदान की । अमरीका ने ‘नाटो’, ‘सीटो’ और ‘सेण्टो’ द्वारा इन सैनिक संगठनों के द्वारा सदस्य राष्ट्रों पर वर्चस्व स्थापित किया । इस प्रकार विश्व के अनेक राष्ट्रों की विदेश नीति का रुझान अधीनस्थतावादी होता है ।
निष्कर्ष:
विदेश नीति निर्माताओं को दूरदर्शी होना चाहिए । प्रत्येक विदेश मत्रालय में एक नियोजन विभाग अवश्य होना चाहिए जिसका मुख्य कार्य आगामी घटनाक्रम का आभास देना होता है । दूरदर्शिता के आधार पर घटनाओं का पूर्वानुमान लगा लेना ही विदेश नीति का मुख्य लक्ष्य है ।