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Here is an essay on ‘Globalisation’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Globalisation’ especially written for school and college students in Hindi language.
20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन का दौर प्रारम्भ हुआ । शीतयुद्ध के अन्त, सोवियत संघ के विघटन, पूर्वी यूरोप से साम्यवाद के अवसान, जर्मनी के एकीकरण और उदीयमान एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था ने विश्व को ‘नई विश्व व्यंवस्था’ (New World Order) की ओर धकेला ।
‘नई विश्व व्यवस्था’ अवधारणा को संबल प्रदान किया विश्व अर्थव्यवस्था में दृश्य-अदृश्य आने वाले बदलावों ने । ‘नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था’ की मांग की जाने लगी । भूमण्डलीकरण, आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण, बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था, निगमीकरण, प्रतिस्पर्द्धात्मक और खुली अर्थव्यवस्था जैसे नारे गूंजने लगे ।
अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप की वित्तीय और व्यापारिक संस्थाओं का महत्व बढ़ने लगा । अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन जैसे निकाय अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के निर्धारण में प्रभावी भूमिका का निर्वाह करने लगे ।
भूमण्डलीकरण: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
भूमण्डलीकरण का एक दौर आज से एक शतक पहले भी आया था । यह चरण 1870 के आस-पास शुरू होकर 1914 के आते-आते अचानक रुक गया था । तब की विश्व अर्थव्यवस्था कई मायनों में आज की अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था से मिलती है । 19वीं शताब्दी के अन्त में भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के माध्यम से विश्व अर्थव्यवस्था आज की तरह ही संगठित हुई थी ।
आज ओ.ई.सी.डी. में शामिल 16 प्रमुख औद्योगिक देशों का सकल घरेलू उत्पाद वर्ष 1900 के 18.2 प्रतिशत के मुकाबले 1913 में 21.2 प्रतिशत हो गया था । हालांकि उन दिनों व्यापार कर आज के मुकाबले काफी ऊंचे थे । अन्तर्राष्ट्रीय निवेश की भी यही कहानी थी । 1913 में विश्व उत्पाद का 9 प्रतिशत हिस्सा निवेश में लगा हुआ था ।
स्थिर कीमतों पर 1914 में यह निवेश 1980 में लगे निवेश का 4/5 हिस्सा था । अन्तर्राष्ट्रीय वित्त बाजार की स्थितियां भी एक जैसी थीं । उन दिनों दो देशों के बीच सामान पूंजी और श्रम के आवागमन पर लगभग कोई रोक नहीं थी ।
भाप के जहाजों, रेलों और तारों के द्वारा यातायात तथा संचार में भारी बदलाव आए थे । उद्योगों में नई-नई प्रबन्ध और उत्पादन तकनीकें अपनाई जा रही थीं । आज के अमरीकी प्रभुत्व के समान उन दिनों ब्रिटेन का विश्व पर राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व बना हुआ था तथा पाउण्ड स्टरलिंग अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा की भूमिका निभा रहा था । पासपोर्ट का प्रचलन नहीं था ।
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उन दिनों बड़े पैमाने पर श्रमिकों का अन्तर्राष्ट्रीय प्रवाह हुआ । सन् 1830 से लेकर अगले 50 वर्षों तक 5 करोड़ भारतीय और चीनी अमेरिका, कैरेबियन, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण-पूर्व एशिया और दूर-दराज के देशों में खानों, खेतों और निर्माण कार्यों में इकरारनामों के अन्तर्गत काम करने पहुंचे ।
इसके बाद 1870 और 1914 के दौरान यूरोप से बड़े पैमाने पर अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिकों का अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, दक्षिण अफ्रीका, अर्जेण्टीना और ब्राजील की ओर प्रवास हुआ । द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की गतिविधियां ब्रेटनवुड्स व्यवस्था से संचालित होने लगीं । जुलाई, 1944 में चालीस देशों के प्रतिनिधि नई अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा प्रणाली के निर्माण के लिए न्यू हैम्पशायर के ब्रेटनवुड्स नामक स्थान पर एकत्र हुए थे ।
अधिकांश देशों का मत था कि पुरानी मौद्रिक व्यवस्था जो मुख्यतया बाजार की ताकतों पर निर्भर थी, अब अप्रासंगिक साबित हो चुकी है और आगे सभी सरकारों को मिल जुलकर अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा व्यवस्था के प्रबन्धन की जिम्मेदारी लेनी होगी ।
संयुक्त राज्य अमेरिका, जो उस दौर में प्रमुख आर्थिक एवं सैनिक शक्ति के रूप में अवतरित हुआ था, ने युद्धोत्तर काल में नई मौद्रिक व्यवस्था स्थापित करने की प्राथमिक जिम्मेदारी ली थी । नई मौद्रिक व्यवस्था का उद्देश्य आर्थिक राष्ट्रवाद की रोकथाम तथा बढ़ते हुए अन्तर्राष्ट्रीय मेलजोल के सन्दर्भ में मुक्त व्यापार को प्रोत्साहित करना था ।
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यह संकल्पना की गई कि एक उदार आर्थिक प्रणाली, जो अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग पर आधारित होगी, स्थायी एवं टिकाऊ विश्व शान्ति की गारण्टी दे सकती है । संयुता राज्य अमेरिका और ग्रेट ब्रिटेन द्वारा प्रवर्तित अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक प्रबन्धन की नई प्रणाली की योजना विश्व की पहली सामूहिक अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली बन गई । इससे अन्तर्राष्ट्रिय व्यापार के संवर्द्धन, आर्थिक विकास और विश्व के विकसित बाजार अर्थव्यवस्थाओं के बीच राजनीतिक सामजस्य का मार्ग प्रशस्त हुआ ।
उत्तर-ब्रेटनवुड्स युग में विश्व अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटी – क्षेत्रीय आर्थिक उपव्यवस्थाओं का विकास तथा बहुराष्ट्रीय निगमों का विस्तार । क्षेत्रीय आर्थिक क्रियाकलापों की शुरुआत पूंजीवादी औद्योगिक विश्व के केन्द्र अर्थात् पश्चिमी यूरोप के देशों में हुई थी । 1990 के दशक में यूरोपीय अर्थव्यवस्था साझे बाजार से शुरू होकर यूरोपियन संघ के रूप में परिवर्तित हो गई । प्रशान्त क्षेत्र और दक्षिण-पूर्व एशिया में ऐसी ही आर्थिक व्यवस्थाएं प्रकट हुईं ।
न्यूयार्क, टोक्यो और लन्दन में वित्तीय एवं प्रतिभूति बाजारों का उद्भव क्षेत्रीय एवं अन्तर क्षेत्रीय गठबन्धन के द्वारा भूमण्डलीकरण के लक्षण हैं । बहुराष्ट्रीय निगम भूमण्डलीकरण के कारण और प्रभाव दोनों हैं । विश्व बाजार एवं अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक तन्त्र के उदय ने अन्तर्राष्ट्रीय फर्मों के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया ।
27 वर्षों बाद 15 अगस्त, 1971 को अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने ब्रेटनवुड्स व्यवस्था के अन्त की घोषणा कर दी । साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि संयुक्त राज्य अमेरिका अब अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था के नियमों एवं प्रक्रियाओं का अनुपालन नहीं करेगा । तेल संकट, बाजार व्यवस्था का बढ़ता असन्तुलन और औद्योगिक देशों की विकास दर में ह्रास – ये ही वे कारण हैं, जिनसे 1990 के दशक में भूमण्डलीकरण की शुरुआत हुई ।
भूमण्डलीकरण या वैश्वीकरण: अभिप्राय:
भूमण्डलीकरण शब्द आज अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में गुंजायमान है । यह शब्द व्यापार अवसरों की जीवन्तता एवं उनके विस्तार का द्योतक है । भूमण्डलीकरण वस्तुत: व्यापारिक क्रिया-कलापों, विशेषकर विपणन सम्बन्धी क्रियाओं का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करना है जिसमें सपूर्ण विश्व बाजार को एक ही क्षेत्र के रूप में देखा जाता है ।
दूसरे शब्दों में, भूमण्डलीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें विश्व बाजारों के मध्य पारस्परिक निर्भरता उत्पन्न होती है और व्यापार देश की सीमाओं में प्रतिबन्धित न रहकर विश्व व्यापार में निहित तुलनात्मक लागत लाभ दशाओं का विदोहन करने की दिशा में अग्रसर होता है ।
भूमण्डलीकरण का अर्थ पूर्ण रूप से पारस्परिक सम्बद्ध विश्व बाजार (Interconnected World Market) न होकर विश्व के विभिन्न देशों में व्यापार के उदारीकरण, पूंजी निवेश तथा सेवाओं की प्रचुरता के कारण बाजारों में सम्बन्ध (Interconnections of Markets) करना भर होता है । भूमण्डलीकरण के इस अर्थ में इस व्यवस्था को ‘मुक्त बाजार पूंजीवाद’ का पर्याय मान लिया जाता है ।
डॉ. बिमल जालान के अनुसार- ”भूमण्डलीकरण शब्द का प्रयोग कई तरह से हुआ है । एक अर्थ तो शाब्दिक है कि अब राष्ट्रों के बीच भौगोलिक दूरी बेमानी हो चुकी है । दुनिया काफी छोटी हो चुकी है और कोई भी देश अपना नुकसान करके ही शेष विश्व से खुद को अलग-थलग रख सकता है । भूमण्डलीकरण का दूसरा अर्थ ठीक उल्टा निकाला जा रहा है । इसके अनुसार यह देशी हितों की जगह दूसरे देशों और बहुराष्ट्रीय निगमों के हितों को ऊपर रखने वाले नीतिगत बदलाव का नाम है ।”
भूमण्डलीकरण (वैश्वीकरण) एकरूपता एवं समरूपता की वह प्रक्रिया है जिसमें सपूर्ण विश्व सिमट कर एक हो जाता है । एक देश की सीमा से बाहर अन्य देशों में वस्तुओं एवं सेवाओं का लेन-देन करने वाले अन्तर्राष्ट्रीय निगमों अथवा बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ देश के उद्योगों की सम्बद्धता भूमण्डलीकरण है । कतिपय विद्वानों के अनुसार पूरी दुनिया को एक भूमण्डलीय गांव (Global Village) के रूप में मानने की अवधारणा ही वैश्वीकरण अथवा भूमण्डलीकरण है ।
सामान्यतया इसमें निम्नांकित तत्व सम्मिलित होते हैं:
1. संसार के विभिन्न देशों में बिना किसी अवरोध के विभिन्न वस्तुओं का आदान-प्रदान सम्भव बनाने के लिए व्यापार अवरोधों को कम करना;
2. आधुनिक प्रौद्योगिकी का निर्बाध प्रवाह सम्भव बनाने हेतु उपयुक्त वातावरण बनाना;
3. विभिन्न राष्ट्रों में पूंजी का स्वतन्त्र प्रवाह सम्भव बनाने हेतु आवश्यक परिस्थितियां पैदा करना;
4. संसार के विभिन्न देशों में श्रम का निर्बाध प्रवाह सम्भव बनाना ।
संक्षेप में भूमण्डलीकरण राष्ट्रों की राजनीतिक सीमाओं के आर-पार आर्थिक लेन-देन की प्रक्रियाओं और उनके प्रबन्धन का प्रवाह है । विश्व अर्थव्यवस्था में आया खुलापन, आपसी जुड़ाव और परस्पर निर्भरता के फैलाव को भूमण्डलीकरण कहा जाता है ।
भूमण्डलीकरण से अभिप्राय है अन्मुक्त बाजार एवं प्रतिस्पर्द्धा (Open Market and Competition); राष्ट्रिय अर्थव्यवस्थाओं का विश्व अर्थव्यवस्था के साथ समायोजन (Adjustment of National Economy with that of the World Economy); राष्ट्रिय बाजारों को अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में परिवर्तित करना (It is conversion of a national market into international one which facilitates the International mobility of factors of production or commodities thereby taking the best benefit of the factors of production)
दूसरे शब्दों में, इसे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण की प्रक्रिया कहा जा सकता है । उन्मुक्त व्यापार की इस व्यवस्था के पीछे सोच यह है कि अमरीका कम्प्यूटर जैसे माल उत्पादित करे जो उसके लिए सुलभ है और भारत चावल जैसे माल उत्पादित करे जो उसके लिए सुलभ है । भारत चावल निर्यात करके कम्पूटर आयात करेगा जिससे दोनों देशों को लाभ होगा ।
मानव विकास रिपोर्ट, 2000 ने भूमण्डलीकरण को निम्नांकित चार विशेषताओं द्वारा परिभाषित किया है:
I. नये बाजार (New Markets):
विदेशी विनिमय और पूंजी बाजार वैश्वीय स्तर पर जुड़े हुए हैं और ये बाजार चौबीसों घण्टे काम करते हैं । इनके लिए भौतिक दूरियां कोई अर्थ नहीं रखतीं ।
II. नये उपकरण (New Tools):
आज के विश्व में लोगों के लिए कई नए उपकरण (Tools) आ गए हैं । इनमें इन्टरनेट लिंक्स, सेल्यूलर फोन्स और मीडिया तन्त्र सम्मिलित हैं ।
III. नये एक्टर या कर्ता (New Actors):
वैश्वीकरण की प्रक्रिया ऐसी है जिसमें कार्यों का सम्पादन करने के लिए कई कर्ता हैं । इन कर्ताओं में विश्व व्यापार संगठन (WTO), गैर सरकारी संगठन, रेडक्रॉस आदि सम्मिलित हैं ।
IV. नये नियम (New Rules):
अब सारे काम संविदा (Contract) के माध्यम से होते हैं । बहुराष्ट्रीय कम्पनियां विश्व भर के राष्ट्र-राज्यों के साथ सीधा व्यापार समझौता करते हैं । हमारे देश में अमेरिकी बहुराष्ट्रीय एनरोन कम्पनी ने महाराष्ट्र सरकार के साथ बिजली की आपूर्ति के लिए समझौता किया था । इसी तरह के समझौते अन्य देशों के साथ भी होने हैं । ये कतिपय नये नियम हैं, जो वैश्वीकरण के आर्थिक और सांस्कृतिक, कार्यक्रमों को लागू करने में सहायता देते हैं ।
मानव विकास की यह रिपोर्ट बताती है कि अपने नये अवतार में वैश्वीकरण अधिक शक्तिशाली बन गया है । इसे अधिक स्पष्ट करते हुए रिपोर्ट कहती है – वैश्वीय बाजार, वैश्वीय तकनीकी तन्त्र, वैश्वीय विचार और वैश्वीय सुदृढ़ता, यह आशा की जा सकती है, विश्व भर के लोगों को समृद्धि देंगे । लोगों के बीच की पारस्परिकता और अन्तनिर्भरता में यह आशा की जाती है कि लोग साझा मूल्यों में विश्वास स्थापित करेंगे और दुनिया भर के लोगों का विकास होगा ।
भूमण्डलीकरण: विशेषताएं:
आज जिस ‘भूमण्डलीकरण’ की हम चर्चा करते हैं उसका उद्भव लगभग 25 वर्ष पूर्व बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रहारों और अनुदारवादी आन्दोलन में मिलता है जिसने पश्चिमी दुनिया को अपने शिकंजे में जकड़ लिया था और जिसके प्रणेता ब्रिटेन की थैचर, जर्मनी के कोहल और अमरीका के रोनाल्ड रीगन थे ।
बहुराष्ट्रीय निगम और बैंक पूरी दुनिया में अपने चरण बढ़ाने लगे और पूंजी एवं मुद्रा पर लगे नियन्त्रणों को तोड़ते हुए विनिवेश और व्यापार के लिए मुक्त द्वार का नारा बुलन्द करने लगे । उनका तर्क था कि मुक्त बाजार से विकास दर में वृद्धि होगी, विकास से निर्धनता में कमी आएगी और निर्धनता में कमी लोकतन्त्र के विकास एवं सुदृढता में सहायक होगी ।
उन्होंने ‘विश्व व्यापार संगठन’ का निर्माण किया और ‘बाजारोन्मुख मुक्त अर्थव्यवस्था’ को आगे बढ़ाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक की भूमिका में इस प्रकार बदलाव की अपेक्षा की ताकि वे ‘वाशिंगटन सर्वानुमति’ को आगे बढ़ा सकें । भूमण्डलीकरण की कुछ ऐसी विशेषताएं जिससे ऐसा लगता है कि, एक नए प्रकार की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था की स्थापना की तरफ हम प्रवृत हो रहे हैं ।
ये विशेषताएं इस प्रकार हैं:
a. यातायात और संचार साधनों में हुए क्रान्तिकारी विकास के चलते भौगोलिक दूरियां सिमट गई हैं । अब न केवल व्यापार, तकनीकी एवं सेवा क्षेत्र, बल्कि लोगों का भी सीमा पार आवागमन सस्ता एवं सुगम हो गया है । कम्प्यूटर और इण्टरनेट भी तेजी से विश्व को जोड़ रहा है ।
b. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की दूर दराज पहुंच ने एक ग्लोबल संस्कृति की स्थापना कर दी है । जीन्स, टीशर्ट, फास्ट-फूड, पाप संगीत, हॉलीवुड फिल्म एवं सैटेलाइट टेलीविजन की संस्कृति आज के हर नवयुवक की संस्कृति है, चाहे वह दुनिया के किसी भी कोने से हो । उपभोक्तावाद भी आज एक तरह से समूचे विश्व की संस्कृति बन गया है । इतना ही नहीं, भ्रष्टाचार एवं अपराध करने के तरीके भी अब सारे विश्व में एक से हो गए हैं ।
c. श्रम बाजार विश्वव्यापी हो गया है । वर्ष 1965 में लगभग 7 करोड़ 50 लाख लोग एक देश से दूसरे देश में रोजगार की दृष्टि से प्रवासित हुए थे जिनकी संख्या वर्ष 1999 तक बढ्कर 12 करोड़ हो गई ।
d. श्रम बाजार की मांगों को पूरा करने के कई व्यवस्थित माध्यम तैयार हो गए हैं । श्रम निर्यातक देशों में ऐसे कई ब्रोकर एव एजेण्ट सक्रिय हैं, जो वैध एवं अवैध दोनों तरीकों से लोगों को विदेशों में काम दिलवाते हैं । श्रम आयातक देशों में पुराने प्रवासियों के ऐसे नेटवर्क हैं जो नए प्रवासियों का दिशा निर्देश तथा इनकी हर सम्भव सहायता करते हैं ।
e. शिक्षा का भूमण्डलीकरण हो गया है । अमरीका जैसे औद्योगिक देशों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने जो विदेशी विद्यार्थी जाते हैं, उनमें से अधिकांश वहीं रह जाते हैं । दूसरी तरफ आज अनेक विकासशील देशों के शिक्षा संस्थानों के पाठ्यक्रम भी विश्वस्तरीय हो गए हैं जिससे यहां शिक्षा प्राप्त कर रहे विद्यार्थी विश्व में कहीं भी रोजगार पा सकते हैं ।
f. ब्रेनड्रेन से शुरू हुई पेशेवरों की आवाजाही ने काफी जोर पकड़ लिया है । आज वैज्ञानिक, डॉक्टर, इन्जीनियर और शिक्षाविद् तो विदेशों की तरफ खिंच ही रहे हैं, साथ ही वकील, वास्तुविद, एकाउण्टैण्ट, प्रबन्धक, बैंकर एवं कम्प्यूटर विशेषज्ञ आदि का विदेश आवागमन भी अब पूंजी प्रवाह की तरह लचीला हो गया है ।
g. बहुराष्ट्रीय कभनियां, जिनके द्वारा पहले उत्पादित वस्तुएं, सेवा, तकनीक, पूंजी आदि की आवाजाही होती थी, आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर रोजगार प्रदायक की भूमिका निभा रहे हैं । भिन्न-भिन्न देशों से विशेषज्ञों, प्रबन्धकों, कुशल-अर्द्धकुशल श्रमिकों आदि की नियुक्ति इन निगमों द्वारा की जाती है । इन नियुक्त कर्मचारियों को विश्व भर में फैले निगम की विभिन्न शाखाओं में नियुक्त किया जाता है । इस तरह यह प्रक्रिया भी श्रम प्रवाह को बढ़ावा देती है ।
यू.एन.डी.पी. की ”ह्यूमैन डवलपमेंट रिपोर्ट” में भूमण्डलीकरण के तीन कर्ताओं का उल्लेख किया गया:
प्रथम:
‘विश्व व्यापार संगठन’ जो सदस्य देशों की राष्ट्रीय सरकारों के ऊपर अपना वर्चस्व एवं प्रभुता रखता है ।
द्वितीय:
बहुराष्ट्रीय कम्पनियां जिनकी आर्थिक क्षमता अनेक राष्ट्र राज्यों की कुल सम्पत्ति से ज्यादा है तथा
तृतीय:
अन्तर्राष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन, जिनका तानाबाना समूचे विश्व में फैला हुआ है । ये तीनों मिलकर भूमण्डलीकरण को अपनी इच्छित दिशा देते हैं ।
भूमण्डलीकरण के लाभ:
सितम्बर, 2000 में विश्व के नेताओं ने संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच से अपनी सहस्राब्दि घोषणा में जोर दिया था कि वैश्वीकरण (भूमण्डलीकरण) को सुनिश्चित करना सबको शक्तिशाली बनाने की दिशा में एक ठोस कदम है ।
महासचिव कोफी अन्नान ने ”हम दुनिया के लोग : 21वीं शताब्दी में संयुत्त राष्ट्र की भूमिका” शीर्षक अपनी सहस्राब्दि रिपोर्ट में कहा था कि, ”यदि वैश्वीकरण को सफल होना है तो जनता को यह महसूस होना चाहिए कि वह भी इसमें शामिल है ।”
महासचिव ने कहा कि वैश्वीकरण के लाभ स्पष्ट हैं- अधिक तेज गति से विकास, रहन-सहन का उच्चतर स्तर, देशों और व्यक्तियों के लिए नए-नए अवसर…। अपनी तरफ से संयुक्त राष्ट्र को “यह सुनिश्चित करना होगा कि वैश्वीकरण से केवल कुछ को नहीं, बल्कि सबको लाभ मिले, अवसर कुछ विशेष लोगों को ही नहीं बल्कि प्रत्येक मानव को प्रत्येक जगह मिले ।”
अन्नान ने कहा कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को वैश्विक ‘कारपोरेट नागरिकता’ कि अवधारणा से नियंत्रित होना चाहिए और जहां भी वे कार्यरत हैं वहां उनकी कार्यप्रणाली अच्छी होनी चाहिए । न्यायोचित श्रम मानदण्ड प्रवर्तित किए जाएं; मानवाधिकारों के प्रति आदर बरता जाए और पर्यावरण की रक्षा की जाए ।
भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया के तीव्र विस्तार ने विश्व अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण बदलाव ला दिए हैं । आज विश्व उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सहयोगी फर्मों के बीच हो रहा है । 1970-90 के दशकों के मध्य तक विश्व सकल घरेलू उत्पाद में विश्व व्यापार का हिस्सा 12 प्रतिशत से बढ़कर 18 प्रतिशत हो गया । अन्तर्राष्ट्रीय निवेश के प्रतिशत में भी बढ़ोतरी हुई । 1980-96 के बीच प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 4.8 प्रतिशत से बढ़कर 10.6 प्रतिशत हो गया ।
इसके अतिरिक्त अन्तर्राष्ट्रीय वित्त क्षेत्र का भी विकास हुआ । व्यापार और निवेश क्षेत्र पर वित्तीय क्षेत्र हावी हो चुका है । विदेशी मुद्रा बाजार का विस्तार भी चौंकाने वाला है । 1996 के आंकड़े बाताते हैं कि इस बाजार में प्रतिदिन 1200 अरब डॉलर का लेन-देन होता है, जबकि 1983 में यह आंकड़ा 60 अरब डॉलर था ।
भूमण्डलीकरण की यह प्रक्रिया अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक लेनदेन पर लगी रोक के हटने से शुरू हुई । विश्व अर्थव्यवस्था में कई तरह की रुकावटें दूर होने से भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया के लिए रास्ता साफ हुआ है, व्यापार के क्षेत्र में खुलापन आया है और विदेशी निवेश के प्रति उदारता बढ़ी है । साथ ही वित्तीय क्षेत्र में भी उदार नीतियां अपनाई जा रही हैं ।
जेट विमान, कम्प्यूटर, उपग्रह, इण्टरनेट सूचना तकनीक की बजह से देशकाल की सीमाएं खत्म हो गई हैं । औद्योगिक संगठनों में नई प्रबन्ध व्यवस्थाओं के विकास ने भी भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया को गति प्रदान की है । इसके अतिरिक्त संयुक्त राज्य अमेरिका की राजनीतिक प्रभुता (वर्चस्व) ने भी भूमण्डलीकरण को बल प्रदान किया है, क्योंकि भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया के लिए एक महाशक्ति का प्रभुत्व जरूरी है जिसकी मुद्रा से अन्तर्राष्ट्रीय बाजार का संचालन होता है । यह भूमिका अमरीकी डॉलर निभा रहा है ।
”राष्ट्रीय सम्प्रभुताएं एक तरह से सीमाविहीन होने लगी हैं । विभिन्न देशों की सीमाओं का अब सिर्फ भौगोलिक महत्व रह गया है । जब दुनिया ही सिकुड़ कर एक गांव बन गई हो तो आप यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि गांव के किसी एक घर में आग लगे तो दूसरे घर उससे चिन्तित नहीं होंगे । जैसे दुनिया सिकुड़ी है वैसे ही सम्प्रभुता, स्वायत्तता और स्वतन्त्रता की परिभाषाएं भी सिकुड़ी हैं । संचार क्रान्ति और भूमण्डलीकरण ने विभिन्न जातीयताओं, नस्लों और अस्मिताओं को एक नए तरह की गतिशीलता और सतर्कता प्रदान की है ।”
भूमण्डलीकरण और विकासशील देश:
संयुक्त राष्ट्र महासचिव कोफी अन्नान ने संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दि रिपोर्ट (सितम्बर, 2000) में स्पष्ट कहा है कि वैश्वीकरण के प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं शुरू हो गई हैं, क्योंकि ये लाभ बहुत असमान रूप से वितरित हैं क्योंकि वैश्विक बाजार को अभी तक सहभागी सामाजिक लक्ष्यों पर आधारित नियमों के अधीन नहीं किया गया है ।
यह सर्वविदित है कि जहां पिछले 25 वर्षों में भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है वहीं अन्तर्राष्ट्रीय श्रम प्रवास में स्पष्ट कमी आई है । भूमण्डलीकरण का संस्थागत ढांचा भेदभाव से भरा है । एक तरफ तो यह प्रावधान है कि राष्ट्रों की सीमाएं व्यापार या पूंजी प्रवाह में बाधक न बनें, दूसरी ओर तकनीक या श्रम प्रवाह की राह में अड़चनें डाली जा रही हैं ।
यह उम्मीद की जाती है कि विकासशील देश अपने बाजार अमीर देशों के लिए खोल दें तथा पूंजी का निवेश अपने यहां होने दें, लेकिन बदले में विकसित देशों से तकनीक तथा निर्विघ्न श्रम प्रवाह की मांग न करें ।
आज भी विकसित देशों में प्रवासियों के प्रति नकारात्मक रवैया वहां की राजनीतिक और सामाजिक सोच में गहरे बैठा है । ऐसा माना जाता है कि प्रवासी वहां के मूल निवासियों के राजनीतिक वर्चस्व में सेंध लगा देंगे या फिर सामाजिक और सांस्कृतिक एकता पर हमला कर देंगे ।
कुछ ऐसी मान्यताएं भी हैं जिनका ठोस आधार नहीं है, लेकिन नस्लवाद की राजनीति करने वालों को वे एक हथियार पकड़ा देती हैं, जैसे कि प्रवासी मूल निवासियों से रोजगार के अवसर छीन लेंगे या फिर कल्याण योजनाओं में उनको भी हिस्सेदारी देनी पड़ेगी, आदि । इसके अलावा प्रवास सम्बन्धी कानून भी प्रतिबन्धों से भरे पड़े हैं ।
दूतावास भी प्रवास पर कई तरह की रोक लगाते हैं । भूमण्डलीकरण का प्रसार अगर विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच आय की खाई को पाटने का काम करे तो निश्चित तौर पर प्रवास का दबाव कम रहेगा ।
दूसरी ओर, यदि यह प्रक्रिया आय की असमानता को बढ़ाएगी तो प्रवास का दबाव भी बढ़ जाएगा । यह भूमण्डलीकरण विकासशील देशों में गरीबी कम करने, रोजगार बढ़ाने और लोगों का जीवन स्तर उठाने में मदद करता है तो भी प्रवास का दबाव कम रहेगा । इसके विपरीत यदि परिणाम गरीबी, बेरोजगारी, असमानता और निम्न जीवन स्तर रहा तो यह दबाव अधिक रहेगा ।
इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि पिछले 25 वर्षों में भूमण्डलीकरण के चलते राष्ट्रों और लोगों के आय स्तरों के बीच की खाई गहराती गई है । आय वितरण की असमानताएं भी बढ़ी हैं । लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और पूर्व समाजवादी देशों में गरीबी बढ़ी है ।
संगठित क्षेत्रों में रोजगार के अवसर कम हुए हैं इसलिए ज्यादातर श्रमिक असंगठित क्षेत्रों में काम करने पर मजबूर हैं जहां उत्पादकता और मजदूरी स्तर निम्न है । श्रम और उत्पादन की किस्म भी घटिया है । संयुक्त राष्ट्र के 193 देशों में से यह भूमण्डलीकरण कोई दो-ढाई देशों को छोड़कर बाकी सबको निर्धन से निर्धनतम बनाता जा रहा है । आज से 40 वर्ष पहले विश्व के समृद्धतम 20 देशों की प्रति व्यक्ति आमदनी विश्व के विपन्नतम 20 देशों की आमदनी से 20 गुना ज्यादा थी ।
अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग, आर्थिक तकनीकी और वित्तीय सहायता के चार दशकों बाद इन विपन्नतम देशों की प्रति व्यक्ति आय 37 गुना कम हो गई है । जाहिर है आर्थिक सहायता और उसके साथ-साथ लुभावनी बनायी गई नीतियां, विकास की दिशा इन गरीब देशों को रास नहीं आयी । इन गरीब देशों के निर्धनतम 20 प्रतिशत की हालत तो अपने देश के सबसे धनाढ्य 20 प्रतिशत लोगों के मुकाबले भी काफी बिगड़ी है ।
गैट समझौते के चौथे अध्याय में विकासशील देशों के लिए विशेष प्रावधान किए गए थे । तीसरी दुनिया के सन् 1970 तक की बढ़त इन प्रयासों के द्वारा देखकर धनी देश चौंक पड़े । अब गैट के 23 देशों की जगह विश्व व्यापार संगठन में 150 देश स्वेच्छा से सम्मिलित हुए हैं और इनमें से 80 प्रतिशत यानी 115 देश गरीब देश हैं ।
परन्तु इसमें चौथे अध्याय जैसे किसी प्रावधान का समावेश नहीं है । ‘सहायता’ के बदले व्यापार के द्वारा तीव्र विकास यात्रा का सपना विश्व व्यापार संगठन की गैट बराबरी पूर्ण व्यवस्था ने चकनाचूर कर दिया है । अब तो इस संगठन की लाठी के द्वारा तीसरी दुनिया का बाजार धनी देशों की कम्पनियों की गिरफ्त में आ गया है और मुकदमेबाजी के द्वारा असमान शर्तें थोपी जा रही हैं ।
भूमण्डलीकरण ने कुछ ही लोगों, प्रान्तों और राष्ट्रों के लिए लाभ के ऐसे अवसर खोले हैं जिनकी तीन दशक पहले कल्पना नहीं की जा सकती थी । इस दौड़ में अमीर एवं विकसित देशों की जीत हुई है । जिस वर्ग को लाभ पहुंचा है वह सम्पत्तिशाली, उच्च शिक्षित पेशेवर, प्रबन्धन तकनीक का ज्ञाता और मुनाफे के लिए जगह-जगह पहुंचने में सक्षम है ।
दूसरी तरफ छोटे-मोटे काम करने वाले, जोखिम न उठाने वाले और किराए की तकनीक अपनाने वाले नुकसान में रहे हैं । भूमण्डलीकरण के इस दौर में जीतने वाले राष्ट्रों में संयुक्त राज्य अमेरिका, पश्चिमी यूरोप, जापान, पूर्व एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया का नाम आता है और पिछड़ने वाले देशों में लैटिन अमेरिका, अफ्रीका, पश्चिमी एशिया, पूर्व एशिया और दक्षिण एशिया क्षेत्र के देश हैं ।
भूमण्डलीकरण के दौर में विश्व व्यापार संगठन जैसे निकायों के दायरे में वे मामले भी आ गए जो आर्थिक गतिविधियों और सामाजिक सम्बन्धों को भी प्रभावित करते हैं और पूरी तरह संप्रभु राष्ट्रों के अधिकार क्षेत्र में ही आते हैं । इसे भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया का नाम दिया गया जिसका उद्देश्य सदस्य राष्ट्रों की सम्प्रभुता का हनन करना, उनके अधिकारों को सीमित करना है ।
भूमण्डलीकरण की व्यवस्था में स्वतन्त्र व्यापारिक उद्यमों का तो गला घोंटा जा रहा है । विकासशील देशों की तो बात छोड़े स्वयं विकसित देशों में स्थानीय व्यापारिक हितों के समक्ष भी जबर्दस्त संकट पैदा हो गया है और उनके पास बहुराष्ट्रीय निगमों के महत्वहीन पिछलग्गू के रूप में काम करने के सिवाय कोई विकल्प ही नहीं बचा है ।
पूर्वी एशियाई देशों में वित्तीय उथल-पुथल के बाद तो भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया के भयावह परिणाम सभी विकासशील देशों की समझ में अच्छी तरह आ गए हैं । इस उथल-पुथल का कारण राष्ट्रपारीय निगमों का सट्टेबाजी से भरा कारोबार है । और तो और, दक्षिण कोरिया भी जिसे तीसरी दुनिया के समक्ष विकास और स्थिरता का आदर्श उदाहरण बताकर प्रचारित किया जा रहा था और जिसे हाल ही विकसित देशों की जमात में शामिल कर लिया गया था, बुरी तरह प्रभावित हुआ है ।
पूर्वी एशिया के देश तो नव-औपनिवेशिक दासता की स्थिति में वापस धकेले जाने का खतरा महसूस करने लगे । पूर्वी एशियाई देशों को मौजूदा संकट से उबारने के लिए दी जाने वाली सहायता के साथ विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन ने आपस में मिल-जुलकर ऐसी कड़ी शर्तें थोपीं कि उनसे जन असन्तोष भड़क गया ।
इसी बात पर रिजर्व बैंक के गवर्नर बिमल जालान ने अपनी हाल में प्रकाशित पुस्तक ‘इण्डियाज इकॉनोमी इन द न्यू मिलेनियम’ में जोर दिया है । वे कहते हैं कि- ‘विश्व के पूंजी बाजार के एकीकरण से बाजार में कुशलता आई है परन्तु साथ-साथ इससे विकासशील देशों के समक्ष अधिक खतरा एवं अरक्षा भी उत्पन्न हो गई है ।’
वे बताते हैं कि पूर्वी एशिया की बैंकिंग व्यवस्था लगभग विश्व स्तर की ही थी परन्तु फिर भी वे संकटग्रस्त हो गए चूंकि वे विश्व अर्थव्यवस्था से गहराई से जुड़े हुए थे । उन्होंने इस जुड़ाव के खतरे से बचाव की पर्याप्त सावधानी नहीं बरती थी । विश्व पूंजी बाजार में हल्की-सी उथल-पुथल से उनकी अर्थव्यवस्थाएं हिल गईं ।
पूर्वी एशिया की तुलना में भारत एशियाई संकट से बहुत कम प्रभावित हुआ, क्योंकि हमारा अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था से जुड़ाव कम था । इसी क्रम में वे कहते हैं कि देश के बैंकों का पूर्ण निजीकरण नहीं होना चाहिए । इससे सरकार का बैंकों पर नियन्त्रण कम होगा । संकट के समय उनके व्यवहार पर नियन्त्रण रखना कठिन हो जाएगा । जालान की दृष्टि में बैंकों के निजीकरण से लाभ कम और खतरा ज्यादा होता है ।
सितम्बर 2008 से लगातार तेज हो रहे आर्थिक मन्दी के थपेड़ों से अपनी ढहती अर्थव्यवस्थाओं को बचाने के लिए विकसित देशों ने जो कदम उठाए, उन्होंने दुनिया को गैर-वैश्वीकरण के दौर में ढकेल दिया है । 26 फरवरी, 2009 को बजट भाषण के दौरान अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने विदेशों से आउटसोर्सिंग करने वाली कम्पनियों को टैक्स रियायतों का लाभ नहीं देने का ऐलान किया ।
अमरीकी अर्थव्यवस्था में गति पैदा करने के लिए ओबामा सरकार के 900 अरब डॉलर के राहत पैकेज ने वैश्वीकरण के समक्ष चिंताएं पैदा कर दी हैं । इस राहत पैकेज में बाइ अमरीकन यानी अमरीकी वस्तुओं को खरीदने पर बल देने की नीति से दुनियाभर में खुली अर्थव्यवस्था के समक्ष चुनौतियां उत्पन्न हो गई हैं । कहा जा रहा है कि ओबामा के पहले बजट में भारी सब्सिडियों के कारण लगभग 1.75 खरब डॉलर का घाटा होगा, जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का सबसे बड़ा घाटा होगा ।
यूरोपीय समुदाय से जुड़े 27 देशों ने भी वैश्विक मन्दी से निपटने के लिए संरक्षणवाद को हवा दे दी है । अमरीका और ब्रिटेन जैसे कई देशों में भारतीय युवाओं की नौकरियों के लिए गतिरोध तैयार किए जा रहे हैं । अमरीका में वित्त वर्ष 2009 में जिन एक लाख 63 हजार गैर आब्रजक कुशल कामगारों ने एच 1 बी बीजा के लिए आवेदन किया, उनमें से एक लाख भारतीय थे ।
अमरीकी ने एच 1 बी वीजा देने की सीमा 65 हजार वार्षिक तय कर दी है । इसी तरह ब्रिटेन ने भी भारत तथा दूसरे गैर यूरोपीय देशों के पेशेवरों पर वीजा सम्बन्धी और कड़ी शर्तें लगाने की योजना बनाई है ताकि नौकरियों में स्थानीय लोगों के अवसर बढ़ सकें ।
विभिन्न वस्तुओं के स्वतन्त्र आवागमन तथा श्रमबल को रोकने के लिए जिस तरह से प्रतिबन्ध लगाए जा रहे हैं, उसके कारण भारत सहित विकासशील देशों को काफी नुकसान हो रहा है । अक्टूबर, 2008 से फरवरी, 2009 तक विदेशों में काम कर रहे लगभग 20 हजार भारतीय नौकरी गंवाने के बाद स्वदेश लौट आए हैं । स्थिति यह है कि अब तक डब्ल्यूटीओ का एजेण्डा एवं उसके परिणाम दोनों ही विकासशील देशों के अनुकूल नहीं हैं ।
अमरीका, यूरोपीय संघ और जापान जैसे विकसित देश अपने यहां कृषि को दी जा रही भारी क्षतिपूर्ति में परिवर्तन किए बिना कृषि व्यापार समझौते को मूर्तरूप देने का दुराग्रह करते रहे हैं । दुनिया के विकासशील देश गैट और फिर डब्ल्यूटीओ जैसे वैश्विक संगठनों की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहे थे कि इन वैश्विक संगठनों से उनके विकास को नई दिशाएं मिलेगी, लेकिन अब विकासशील देश अपने को ठगा हुआ अनुभव कर रहे हैं ।
ये देश देख रहे हैं कि वैश्विक नियमों के पालन के मद्देनजर उन्होंने जिन विकसित देशों के लिए अपने बाजारों को खोल दिया, वे ही विकसित देश संरक्षणकारी नीतियों के अन्तर्गत विकासशील देशों के लिए अपने बाजारों को बन्द कर रहे हैं । दुनिया में स्वतन्त्रापूर्वक कारोबार की सम्भावना घट गई है । दुनिया में पूंजी का प्रवाह सीमित हो गया है ।
ढहते हुए वैश्वीकरण की चुनौतियों के बीच भारत सहित विकासशील देशों को डब्ल्यूटीओ के अन्तर्गत यह जोरदार आवाज उठानी होगी कि विकसित देशों का अपने उद्योग- कारोबार को नियमों के विपरीत भारी क्षतिपूर्ति देना और आउटसोर्सिंग जैसी सेवाओं की राह में अड़चनें पैदा करना उचित नहीं है ।
भूमण्डलीकरण और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध: प्रभाव:
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और अन्तर्राष्ट्रीय वित्त व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में भूमण्डलीकरण के निम्नांकित प्रभावों (परिणामों) की चर्चा की जाती है:
1. संयुक्त राष्ट्र संघ और उससे सम्बन्धित अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय और व्यापारिक संस्थाओं की भूमिका और महत्व में वृद्धि हुई है ।
2. ‘विश्व व्यापार संगठन’ जेसे ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना हुई जो विश्व व्यापार के क्षेत्र में पुलिसमैन की भूमिका का निर्वाह करने लगा है । कहने के लिए तो विश्व व्यापार संगठन की स्थापना बहुपक्षीय सिद्धान्त के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिए की गई है, लेकिन हकीकत यह है कि यह संगठन सामूहिक और अलग-अलग तौर पर विकासशील देशों के अर्थतन्त्र, समाज और राजनीति पर प्रभुत्व जमाने का माध्यम है ।
3. भूमण्डलीकरण से बहुराष्ट्रीय निगमों को खुली छूट मिल गई है और बहुराष्ट्रीय निगम निर्धन राष्ट्रों पर धनी राष्ट्रों के नव उपनिवेशीय नियन्त्रण के वाहक हैं ।
4. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी निवेश के लिए देश के दरवाजे खोलने का मतलब गरीब देशों और अमीर देशों को बकरी और बाघ की तरह एक ही घाट का पानी पीने की व्यवस्था करना है । और ऐसी दोस्ती में अमीर देश गरीब देशों से मुनाफा लेंगे ही । राजनीतिक अर्थ में विश्व व्यापार में भागीदारी बढ़ाने का मतलब अमीर देशों पर निर्भरता बढ़ाना है, जो अन्तत: राजनीतिक निर्भरता और सामाजिक-राजनीतिक कीमत चुकाने तक जाता है ।
5. भूमण्डलीकरण प्रक्रिया के फलस्वरूप जिन संस्थाओं का उदय हुआ है, वे सभी राष्ट्र-राज्य की शक्ति और सत्ता से बाहर हैं । यहां तक कि भूमण्डलीकृत होते अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में, राष्ट्र-राज्य एकमात्र अभिकर्ता (Actors) नहीं रह गए हैं, अब अनेक अभिकर्ता भी हैं जो नई उभरती व्यवस्था में प्रमुख भूमिका निभाते हैं । गैर सरकारी संगठन, पर्यावरण सम्बन्धी आन्दोलन, बहुराष्ट्रीय निगम, जातीय राष्ट्रीयताएं तथा बहुराज्यीय अथवा क्षेत्रीय संगठन शामिल हैं ।
6. भूमण्डलीकृत विश्व में नए अभिकर्ताओं की भूमिका निरंतर बढ़ी है, शायद इसलिए कि आर्थिक, राजनीतिक और संचार अवसंरचनाओं की संख्या में बहुत वृद्धि हुई है । इन संरचनाओं या जालों (Networks) ने राष्ट्र-राज्यों की सीमाओं को खुला कर दिया है तथा उनके आर-पार लोगों, वस्तुओं, सेवाओं, विचारों तथा सूचनाओं का आवागमन अत्यन्त सरल हो गया है ।
7. भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया ने न केवल अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को विस्तृत बना दिया है, बल्कि वे अधिक सघन भी हो गई हैं, क्योंकि अब न केवल अभिकर्ताओं की संख्या बढ़ी है तथा विस्तृत व्यवस्था (जाल) एक-दूसरे को प्रभावित कर रहे हैं बल्कि अधिक महत्वपूर्ण यह है कि इनमें से प्रत्येक जो दूसरों पर प्रभाव डालता है वह गुणवत्ता में पहले से कहीं अधिक श्रेष्ठ है ।
ADVERTISEMENTS:
विश्वव्यापी संचार व्यवस्था, बहुराष्ट्रीय निगमों के उत्पाद तथा बड़ी संख्या में लोगों का संसार के एक भाग से दूसरे में आवागमन, इन सबने विश्वस्तर पर लोगों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक रुझानों को भी प्रभावित किया है ।
8. बढ़ते हुए आर्थिक भूमण्डलीकरण ने घरेलू अर्थव्यवस्थाओं को न केवल एक-दूसरे पर निर्भर बना दिया है, परन्तु वे काफी हद तक बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा किए जाने वाले पूंजी निवेश पर भी निर्भर हो गई हैं ।
9. राष्ट्र-राज्य की सम्प्रभुता के लिए भूमण्डलीकरण को इसलिए खतरा माना जाता है, क्योंकि राष्ट्रों की सरकारों पर अन्तर्राष्ट्रीय संधियों तथा समझौतों को लागू करने के लिए दबाव डाला जाता है जिसमें अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को प्रसन्नता होती है । इसके कारण राष्ट्रीय सरकारों को बहुराष्ट्रीय संधियों द्वारा विभिन्न मुद्दों पर निर्धारित मानदण्डों तथा उनकी मांगों के सामने झुकना पड़ता है ।
“भूमण्डलीकरण संप्रभुता की पारम्परिक परिधियों पर मौलिक आघात है…यह, संप्रभुता के राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय दोनों रूपों में परिवर्तन का कारण है…इसने समक्षता के दो तत्वों ‘सत्ता’ एवं ‘स्वायत्तता’ में नया समीकरण बनाया है ।”
”सम्प्रभु राज्य अब आंतरिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय दोनों क्षेत्रों में नया रूप ग्रहण कर रहा है । ऐसा वह अपनी कुछ पारम्परिक क्षमताओं में कमी करके कर रहा है…आज का सम्प्रभु राज्य कुछ क्षमताओं को त्यागकर, कुछ नई क्षमताओं (सामर्थ्य) को प्राप्त कर रहा है । जहां यह अपने कुछ कर्तव्यों को अन्तर्राष्ट्रीय और पारराष्ट्रीय संस्थाओं को हस्तान्तरित कर रहा है, वहीं दूसरी ओर यह इन संस्थाओं के प्रभावी क्रियान्वयन पर निगरानी की नई सत्ता या नए अधिकार प्राप्त कर रहा है ।”