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Here is an essay on ‘Human Rights’ especially written for school and college students in Hindi language.
प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक तथा लेखक जीन जैक्स रूसो ने आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व लिखा था, “मनुष्य स्वतन्त्र पैदा हुआ है, पर हर जगह व जंजीरों में जकड़ा हुआ है ।” अपनी इस सूक्ति में रूसो ने शोषण तथा असमानता के बन्धनों में जकड़े हुए जनसाधारण की स्वतन्त्र होने की और स्वाधीनता, आजादी तथा समानता का बेहतर जीवन प्राप्त करने की आकांक्षा को व्यक्त किया था ।
वास्तव में, अनेक सामाजिक विचारक तथा राजनीतिक आन्दोलन बहुत समय से मनुष्य को उन जंजीरों से मुक्त कराने का, जिनमें वह जकड़ा रहा है, उन्हें उन अधिकारों का उपभोग करते हुए देखने का प्रयत्न करते रहे हैं जिन्हें रूसो स्वाभाविक, अभिन्न तथा अविभाज्य समझते थे ।
अधिकार सामाजिक जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं जिनके बिना न तो व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है और न ही समाज के लिए उपयोगी कार्य कर सकता है । अधिकारों के बिना मानव जीवन के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती है ।
राज्य का सर्वोत्तम लक्ष्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास है, राज्य के द्वारा व्यक्ति को कतिपय सुविधाएं प्रदान की जाती हैं और राज्य के द्वारा व्यक्ति को प्रदान की जाने वाली इन बाहरी सुविधाओं का नाम ही अधिकार है । अमरीकी तथा फ्रांसीसी क्रान्तियों के पश्चात् मानव अधिकारों की जो घोषणा हुई उसके द्वारा मानव के महत्वपूर्ण अधिकारों को स्वीकार किया गया ।
सन् 1941 ई. में अमरीकी कांग्रेस को दिए गए सन्देश में अमरीका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने चार स्वतन्त्रताओं पर बल दिया था – भाषण तथा विचार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, धर्म तथा विश्वास की स्वतन्त्रता, अभाव से स्वतन्त्रता तथा भय से स्वतन्त्रता – ये सभी अधिकार विश्व में हर स्थान पर सभी को प्राप्त होने चाहिए ।
अटलाण्टिक चार्टर से लेकर द्वितीय महायुद्ध समाप्त होने के पूर्व अनेक सम्मेलनों में मित्र-राष्ट्रों के द्वारा मानवीय अधिकारों तथा आधारभूत स्वतन्त्रताओं पर बार-बार बल दिया गया । विश्व शान्ति तथा सुरक्षा को बनाए रखने के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन बनाने के प्राथमिक सुझाव 1944 में डंबार्टन ओक्स सम्मेलन में स्वीकार किए गए थे ।
उस समय यह कल्पना नहीं की गयी थी कि मानव अधिकारों तथा मूलभूत स्वतन्त्रताओं के सम्मान को बढ़ावा तथा प्रोत्साहन देने को इस प्रस्तावित संगठन का एक बुनियादी उद्देश्य निर्धारित किया जाए । लेकिन जब दूसरे महायुद्ध के बाद 1945 में संयुक्त राष्ट्रसंघ का घोषणा-पत्र तैयार करने के लिए सैनफ्रांसिस्को सम्मेलन हुआ तो सोवियत संघ के प्रतिनिधि मण्डल की पहलकदमी पर ही घोषणा-पत्र तैयार करने वालों ने मानव अधिकारों तथा मूलभूत स्वतन्त्रताओं के सम्मान से सम्बन्धित प्रावधानों की आवश्यकताओं को स्वीकार किया था ।
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संयुक्त राष्ट्र संघ तथा मानव अधिकार (United Nations and Human Rights):
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में मानव अधिकार सम्बन्धी पृथक् घोषणा तो नहीं शामिल है लेकिन चार्टर में अनेक स्थानों पर मानव का स्पष्ट उल्लेख किया गया है । मानव अधिकारों को राज्यों के बीच संगठित सहयोग स्थापित करने तथा संयुक्ता राष्ट्र संघ के चार्टर उद्देश्यों को क्रियान्वित करने के लिए आवश्यक समझा गया ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में मानव अधिकार के सम्बन्ध में निम्नलिखित सन्दर्भ मिलता है:
1. चार्टर की प्रस्तावना में- ”मानव के मौलिक अधिकारों, मानव के व्यक्तित्व के गौरव तथा महत्व में तथा पुरुष एवं स्त्रियों के समान अधिकारों में” विश्वास प्रकट किया गया है ।
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2. अनुच्छेद 1 के अन्तर्गत चार्टर के उद्देश्य का वर्णन इस प्रकार किया गया है- ”मानव अधिकारों के प्रति सम्मान को बढ़ावा देना, तथा जाति, लिंग, भाषा या धर्म के बिना किसी भेद-भाव के मूलभूत अधिकारों का बढ़ावा देना तथा प्रोत्साहित करना ।”
3. अनुच्छेद 13 में महासभा के द्वारा- ”जाति, लिंग, भाषा या धर्म के भेदभाव के बिना सभी को मानव अधिकार तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं की प्राप्ति में सहायता देने” की व्यवस्था है ।
4. अनुच्छेद 55 में यह प्रावधान है कि- संयुक्त राष्ट्र संघ ”जाति, लिंग, भाषा अथवा धर्म के भेदभाव के बिना सभी के लिए मानव अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं को” बढ़ावा देगा ।
5. अनुच्छेद 56 में उपबन्ध है कि- सभी सदस्य राज्य मानव अधिकारों तथा मानव स्वतन्त्रताओं की प्राप्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र को अपना सहयोग प्रदान करेंगे ।
6. अनुच्छेद 62 के अन्तर्गत- आर्थिक और सामाजिक परिषद के द्वारा ”सभी के लिए मानव अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं के प्रति सम्मान की भावना बढ़ाने तथा उनके पालन के सम्बन्ध में सिफारिश करने” की व्यवस्था है ।
संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर में पहली बार मानव अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं की सुरक्षा पर बल दिया गया है । चार्टर के अन्तर्गत संयुक्त राष्ट्र को मानव अधिकारों के सम्बन्ध में केवल प्रोत्साहन देने का ही अधिकार है, कोई कार्यवाही करने का अधिकार नहीं है ।
चार्टर के अन्तर्गत मानव अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रताओं का केवल उल्लेख है, परन्तु इनकी कोई व्याख्या नहीं की गयी है । वास्तव में, चार्टर इस सम्बन्ध में राष्ट्रों के मध्य सहयोग को अधिक आवश्यक मानता है । संयुक्त राष्ट्र कार्यक्रमों का उद्देश्य जाति, लिंग, भाषा तथा धर्म के भेदभाव के बिना सब लोगों के मानव अधिकारों तथा मूल स्वतन्त्रताओं में वृद्धि करना तथा उनके प्रति सम्मान का भाव जगाना है ।
मानव अधिकारों पर अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्र (International Covenants on Human Rights):
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के समय से ही मानव अधिकारों के अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्र के लिए कार्य प्रारम्भ हो गया था । इसी उद्देश्य से महासभा ने मानव अधिकार आयोग को दो प्रतिज्ञापत्र तैयार करने का काम सौंपा – एक, नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों के सम्बन्ध में, तथा दूसरा, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों के सम्बन्ध में ।
इन प्रतिज्ञापत्रों का आशय मानव अधिकारों की और अधिक स्पष्ट व्याख्या करना तथा उनके पालन करवाने की व्यवस्था करना था । इन प्रसंविदाओं का उद्देश्य यह था कि महासभा की स्वीकृति के पश्चात् इन्हें सदस्य राज्यों के समुख सन्धिपत्र के रूप में पेश किया जायेगा तथा जो राज्य इस पर हस्ताक्षर कर देंगे उन पर ये बाध्यकारी रूप से लागू होंगे ।
हस्ताक्षर करने वाले राष्ट्रों को अपने-अपने देश में आवश्यक कानून बनाने तथा उन्हें लागू करने की व्यवस्था करनी होगी । 16 दिसम्बर, 1966 को अपने प्रस्ताव के द्वारा महासभा ने मानव अधिकार सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्रों को राज्यों के हस्ताक्षर तथा पुष्टि के लिए प्रस्तुत किया, जिसमें अनेक मानव अधिकारों तथा मूल स्वतन्त्रताओं की अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा की व्यवस्था की गयी है ।
इन अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्रों में दो प्रसंविदाएं तथा एक ऐच्छिक प्रोटोकोल है, जो इस प्रकार हैं:
i. नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा (International Covenant on Civil and Political Rights) ।
ii. आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्र (International Covenant on Economic, Social and Cultural Rights) ।
iii. राजनीतिक अधिकारों सम्बन्धी प्रसंविदा की वैकल्पिक व्यवस्था (Optional Protocol to the International Covenant on Civil and Political Rights) (ऐच्छिक प्रोटोकोल) ।
16 दिसम्बर, 1966 को महासभा ने सर्वसम्मति से इन प्रतिज्ञापत्रों को अपनाया । 19 दिसम्बर, 1966 को इन प्रतिज्ञापत्रों को हस्ताक्षर के लिए रखा गया था । प्रत्येक प्रतिज्ञापत्र के लिए 35 राज्यों द्वारा अनुसमर्थन होना आवश्यक था ।
ऐच्छिक प्रोटोकोल के लागू होने के लिए यह आवश्यक था कि नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों के प्रतिज्ञापत्र के लागू होने के बाद 10 राज्यों द्वारा अनुसमर्थन किया जाये । इसे महासभा द्वारा 66 मतों से पारित किया गया, 12 राज्यों ने विरुद्ध मत दिया तथा 38 राज्यों ने मतदान में भाग नहीं लिया ।
दिसम्बर 2000 तक आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों के प्रतिज्ञापत्र का 146 राज्यों ने अनुसमर्थन कर दिया था, नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों के प्रतिज्ञापत्र का 147 राज्यों ने अनुसमर्थन कर दिया था तथा 80 राज्यों ने ऐच्छिक प्रोटोकोल का अनुसमर्थन कर दिया था ।
23 मार्च, 1976 को ‘नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्र, 1966’ लागू हो गया, क्योंकि उक्त तिथि को निर्धारित राज्यों की संख्या ने इसका अनुसमर्थन कर दिया । इसके पूर्व 3 जनवरी, 1976 को ‘आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों सम्बन्धी प्रतिज्ञापत्र, 1966’ का निर्धारित राज्यों की संख्या ने अनुसमर्थन कर दिया था तथा यह उक्त तिथि से लागू हो गया था । ये दोनों प्रसंविदाएं मानव अधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा 1948 पर आधारित हैं ।
मानवीय अधिकारों की सार्वभौम घोषणा, उपर्युक्त दोनों प्रतिज्ञापत्र तथा ऐच्छिक प्रोटोकोल (Optional Protocol) मिलकर ‘मानब अधिकारों का अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्र’ कहलाते हैं ।
‘आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों सम्बन्धी प्रतिज्ञापत्र’ द्वारा जिन मानवाधिकारों को प्रोत्साहित एवं संरक्षित किया गया है, वे तीन प्रकार के हैं:
a. न्यायपूर्ण और उचित परिस्थितियों में काम का अधिकार,
b. सामाजिक संरक्षण, उचित जीवन स्तर और शारीरिक एवं मानसिक सुख के लिए उपलब्ध किए जा सकने वाले उच्चतम स्तरों का अधिकार,
c. शिक्षा और सांस्कृतिक स्वतन्त्रता एवं वैज्ञानिक प्रगति से मिले लाभों का आनन्द लेने का अधिकार ।
प्रतिज्ञापत्र में इन अधिकारों को बिना किसी भेदभाव के मुहैया कराने की बात कही गई है । इन प्रतिज्ञापत्रों को अपनी मन्जूरी देने वाले देश समय-समय पर आर्थिक और सामाजिक परिषद को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते रहते हैं ।
एक 18 सदस्यीय आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार समिति के सदस्य इस परिषद को प्रतिज्ञापत्रों के क्रियान्वयन, रिपोर्ट के अध्ययन और सम्बन्धित सरकारों के प्रतिनिधियों से बातचीत में मदद देते हैं । इस समिति द्वारा दी गई टिप्पणियां सम्बन्धित देशों को प्रतिज्ञापत्रों के क्रियान्वयन में मदद देने के साथ उनके द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्टों में खामियों की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं । यह समिति रिपोर्टों पर विचार-विमर्श करके परिषद को अपनी सिफारिशें भी पेश करती है ।
‘नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों के प्रतिज्ञापत्र’ का सम्बन्ध घूमने-फिरने की आजादी, कानून के समक्ष समानता, निर्दोषिता की धारणा, विवेक तथा धर्म की आजादी, मत तथा अभिव्यक्ति, शान्तिपूर्वक संगठित होने की आजादी, संगति की आजादी, सार्वजनिक मामलों और निर्वाचनों में भाग लेना तथा अल्पसंख्यकों के अधिकार से है ।
यह स्वेच्छाचारिता से जीवन से वंचित करने, उत्पीड़न या क्रूर अथवा निम्नस्तरीय व्यवहार या दण्ड, दासता तथा बेगार, मनमानी गिरफ्तारी या नजरबन्दी और एकान्तिकता में मनमाना व्यवधान, युद्ध-प्रचार तथा भेदभाव या हिंसा को प्रोत्साहन देने वाली जाति या धर्मगत धृणा को समर्थित करने का निषेध करता है ।
इस प्रतिज्ञापत्र के अन्तर्गत भी एक 18 सदस्यीय मानवाधिकार समिति का गठन किया गया है जो इससे सम्बन्धित देशों द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्टों पर विचार करती है । इन रिपोर्टों के जरिये यह देखा जाता है कि सम्बन्धित देश में प्रतिज्ञापत्र के प्रावधानों को लागू करने के लिए किस तरह के कदम उठाये गए हैं ।
यह समिति प्रतिज्ञापत्र से सम्बन्धित देशों को उनके द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्टों के आधार पर अपनी सिफारिशों पेश करती है । इसके अतिरिक्त यह समिति प्रतिज्ञापत्र को लागू करने में मदद देने के उद्देश्य से सरकारों की अपनी टिप्पणियों के जरिये मदद भी करती है । कई बार यह समिति किसी एक देश द्वारा किसी अन्य देश के प्रतिज्ञापत्र को लागू न करने सम्बन्धी शिकायत पर भी विचार कर सकती है ।
नागरिक और राजनीतिक अधिकारों सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्र में दो प्रोटोकोल हैं । पहले वैकल्पिक प्रोटोकोल (1966) में व्यक्ति को अपील दायर करने का अधिकार देने सम्बन्धी प्रक्रियाओं की व्यवस्था है । दूसरे वैकल्पिक प्रोटोकोल (1989) का उद्देश्य मृत्युदंड की व्यवस्था समाप्त कराना है और इसमें 43 पक्ष राज्य शामिल हैं ।
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के बारे में बहुधा कहा जाता है कि यह महासभा द्वारा पारित घोषणा होने के कारण बन्धनकारी नहीं है । अत: अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय का बहुत समय से यह प्रयास रहा है कि मानव अधिकारों के विषय में कुछ अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय या सन्धि की जाये जिससे मानव अधिकारों को विधिवत् प्रोत्साहित तथा कार्यान्वित किया जा सके । अत: उपर्युक्त वर्णित प्रतिज्ञापत्रों का लागू होना एक महान् उपलब्धि है । संयुता राष्ट्र चार्टर में वर्णित मानव अधिकारों को प्रोत्साहन देने की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम है ।
मानवाधिकारों पर विश्व सम्मेलन:
मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के 20 वर्षों बाद संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 1968 को अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार वर्ष घोषित किया । इस वर्ष का सबसे महत्वपूर्ण आयोजन तेहरान में आयोजित मानवाधिकारों पर एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन था जिसमें एक कार्यक्रम और एक मुख्य घोषणा का अनुमोदन किया गया ।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रायोजित अब तक का सबसे बड़ा अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार सम्मेलन (जिसमें 170 से अधिक देशों, 841 गैर-सरकारी संगठनों और बड़ी संख्या में विशेष रूप से आमंत्रित लोगों तथा पर्यवेक्षकों ने हिस्सा लिया) 25 जून, 1993 को आस्ट्रिया की राजधानी वियना में सम्पन्न हुआ ।
सम्मेलन के औपचारिक समापन सत्र में पारित वियना घोषणा में संयुक्त राष्ट्र से अपील की गई कि अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकारों और ऐसी स्थितियों को बढ़ावा देने के लिए, जिनके तहत विश्वव्यापी स्तर पर मानवाधिकारों पर निगरानी रखी जा सके और उनकी रक्षा की जा सके, मानवाधिकार दशक’ मनाने की घोषणा की जाये ।
घोषणा में संयुक्त राष्ट्र महासभा से यह सिफारिश भी की गई कि मानवाधिकार उच्चायुक्त का पद बनाया जाये, ताकि वियना घोषणा और संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न घोषणाओं में तय किये गये मानवाधिकार कार्यक्रमों को लागू करने तथा उन पर निगरानी रखी जा सके ।
वियना घोषणा में अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय का आह्वान किया गया कि आतंकवाद की बुराई से निबटने के लिए आवश्यक उपाय तत्काल किये जायें । घोषणा में संकेत किया गया है कि आतंकवाद और नशीली दवाओं की तस्करी के बीच सम्बन्ध है ।
इन दोनों से ही मानवाधिकारों, लोकतन्त्र और राष्ट्रों की क्षेत्रीय अखण्डता को खतरा है । इसमें रंगभेद और जातीय भेदभाव के चिरकालिक अवशेषों की भी निंदा की गई है । घोषणा में आत्मनिर्णय के अधिकार को भी मंजूरी दी गई है ।
अन्तत: वियना सम्मेलन की घोषणा में इस बिन्दु पर प्रकाश डाला गया है कि लोकतन्त्र, विकास और मानवाधिकार परस्पर-सम्बद्ध अवधारणाएं और आदर्श हैं, अत: सम्मेलन ने विकास को बुनियादी या मौलिक मानवाधिकार के रूप में मान्यता प्रदान की है जिसको बढ़ावा देना संयुक्त राष्ट्र और इसके सदस्यों का दायित्व है ।
मानव अधिकार : संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका:
मानवाधिकारों से सम्बन्धित अन्य कनवेंशन:
मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा से प्रेरणा लेकर संयुक्त राष्ट्र के भीतर विभिन्न मुद्दों पर लगभग 80 कनवेंशन और घोषणाएं की गई हैं । छह कनवेंशन में तो विशेषज्ञ संस्थाएं गठित की गई हैं, जो सम्बद्ध देशों द्वारा सन्धि में निर्धारित अधिकारों के समुचित परिपालन की निगरानी करती हैं । जब देश इन सन्धियों का अनुमोदन करके उनमें शामिल होते हैं, तो वे अपने मानवाधिकार कानूनों और प्रक्रियाओं की स्वतन्त्र संगठनों द्वारा समीक्षा कराने की भी सहमति व्यक्त करते हैं ।
नरसंहार की रोकथाम और सजा के बारे में कनवेंशन (1948) यह सीधे दूसरे विश्वयुद्ध की ज्यादतियों को देखकर की गई और इसमें नरसंहार को ऐसा जघन्य अपराध बताया गया कि जिसका इरादा किसी राष्ट्रवादी, जातीय, नस्लवादी या धार्मिक समूह को नष्ट करना और देशों को दोषी व्यक्तियों को कानून के सामने लाने के लिए वचनबद्ध करना है । इस पर 132 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं ।
शरणार्थियों की स्थिति के बारे में कनवेंशन (1951) में शरणार्थियों के अधिकारों को परिभाषित किया गया है, विशेषकर उनको ऐसे देशों में न लौटाए जाने का उल्लेख है जहां खतरा और जोखिम होने के कारण वे लौटना नहीं चाहते तथा काम करने के अधिकार, शिक्षा पाने के अधिकार, सार्वजनिक सहायता और सामाजिक सुरक्षा पाने के अधिकार, और यात्रा कागजात प्राप्त करने के अधिकार सहित, दैनिक जीवन के विभिन्न पहलुओं की व्यवस्था बताई गई है ।
इसमें 137 पक्ष-राज्य हैं । शरणार्थियों की स्थिति के बारे में प्रोटोकोल (1967) में इस कनवेंशन को समूचे विश्व में समान रूप से लागू करने की पक्की व्यवस्था दी गई है । यह मूल रूप से द्वितीय विश्वयुद्ध के शरणार्थियों के लिए बनाई गई थी । इस प्रोटोकोल में 136 पक्ष-राज्य हैं ।
हर प्रकार का रंगभेद (नस्लभेद) समाप्त करने के बारे में अन्तर्राष्ट्रीय कनवेंशन (1966) पर सबसे ज्यादा 157 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं । यह इस तर्क से शुरू होती है कि रंगभेद के आधार पर किसी नस्ल को श्रेष्ठ मान लेने की नीति अनुचित, वैज्ञानिक दृष्टि से गलत और नेतिक तथा कानूनी दृष्टि से निन्दनीय है तथा इसमें रंगभेद या नस्लभेद की व्याख्या करके सदस्य देशों से वचन लिया गया है कि वे कानून और व्यवहार, दोनों स्तरों पर इसे समाप्त करेंगे ।
इस कनवेंशन के तहत एक निगरानी व्यवस्था ”रंगभेद समाप्त करने सम्बन्धी समिति” भी गठित की गई, जो सदस्य देशों की रिपोर्टों और सन्धि के उल्लंघन के बारे में व्यक्तिगत शिकायतों पर विचार करती है ।
महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के भेदभाव समाप्त करने सम्बन्धी कनवेंशन (1979) पर 166 देशों के हस्ताक्षर हैं और इसमें कानून की नजर से महिलाओं को समानता दिए जाने की गारण्टी है तथा राजनीतिक एवं सार्वजनिक जीवन, राष्ट्रीयता, शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, विवाह और परिवार बसाने के मामलों में महिलाओं के प्रति भेदभाव दूर करने के विशेष उपाय सुझाए गए हैं ।
इस कनवेंशन के तहत महिलाओं के प्रति भेदभाव समाप्त करने सम्बन्धी समिति का गठन किया गया है जो इस कनवेंशन को लागू कराने की निगरानी करती है और सदस्य-देशों की रिपोर्टों पर विचार करती है । इस कनवेंशन के उल्लंघन की शिकायतें लोग व्यक्तिगत रूप से भेज सकते हैं ।
उत्पीड़न और अन्य अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या दण्ड रोकने सम्बन्धी कनवेंशन (1984) पर 123 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं । इसमें उत्पीड़न को अन्तर्राष्ट्रीय अपराध माना गया है, इसकी रोकथाम का उत्तरदायित्व सदस्य-देशों का बताया गया है और उनसे अपेक्षा की गई है कि वे दोषियों को दण्डित करेंगे ।
अत्याचार या उत्पीड़न को उचित ठहराने की किन्हीं भी असाधारण परिस्थितियों को स्वीकार नहीं किया जा सकता और न ही अत्याचारी यह कहकर बच सकता है कि उसने आदेश मानने के लिए उत्पीड़न किया । इस कनवेंशन के तहत गठित निगरानी संस्था अत्याचार (उत्पीड़न) निवारण समिति सदस्य देशों की रिपोर्टों पर विचार करती है और उन देशों के खिलाफ कार्यवाही शुरू कर सकती है जहां, उसके विचार में, अत्याचारों का सिलसिला जारी है ।
बाल अधिकारों के बारे में कनबेंशन (1989) में बच्चों की कमजोर स्थिति को स्वीकार किया गया है और बच्चों को सभी प्रकार के मानवाधिकार दिए जाने के बारे में व्यापक आचार संहिता निर्धारित की गई है । इस कनवेंशन में बच्चों को भेदभाव से बचाने की पक्की गारण्टी देते हुए स्वीकार किया गया है कि जो भी कार्य किए जाएं उसमें बच्चों के हित सुरक्षित रहने चाहिए । शरणार्थी, विकलांग या अल्पसंख्यक समुदायों के बच्चों की ओर विशेष ध्यान दिए जाने को कहा गया है ।
सदस्य-देशों को बच्चों की ओर विशेष ध्यान दिए जाने को कहा गया है । सदस्य-देशों को बच्चों के अस्तित्व, विकास, संरक्षण और सहयोग की पक्की व्यवस्था करनी है । इस कनवेंशन पर सबसे ज्यादा 191 देशों ने हस्ताक्षर किए । बाल अधिकार समिति इस सन्धि के क्रियान्वयन पर निगरानी रखने के लिए गठित की गई है और यह समिति सदस्य देशों की रिपोर्टों पर भी विचार करती है ।
सभी विस्थापित श्रमिकों और उनके परिवारजन के अधिकारों की रक्षा के बारे में अन्तर्राष्ट्रीय कनवेंशन (1990) में विस्थापित श्रमिकों के मूल अधिकारों और विस्थापना की समूची प्रक्रिया के दौरान उनके हितों की रक्षा करने के उपायों को परिभाषित किया गया है, चाहे वे कानूनी विस्थापित हों या गैरकानूनी ।
दुर्भाग्य से यह सन्धि अभी लागू नहीं हुई, क्योंकि सिर्फ 15 देशों ने ही अभी तक इस पर हस्ताक्षर किए हैं । इसके लागू होने पर निगरानी समिति गठित की जाएगी । सार्वभौमिक घोषणा और संयुक्त राष्ट्र के अन्य दस्तावेजों से प्रेरित होकर अनेक क्षेत्रीय समझौते भी हुए हैं जैसे, मानवाधिकारों के बारे में यूरोपीय कनवेंशन, मानवाधिकारों के बारे में अमरीकी कनवेंशन और मानव तथा लोक अधिकारों का अफ्रीकी चार्टर ।
अन्य मानक:
इनके अतिरिक्त भी संयुक्त राष्ट्र ने मानवाधिकारों की रक्षा के बारे में कई अन्य मानक और नियम स्वीकार किए हैं । ये ‘घोषणाएं’, ‘आचार’ संहिताएं’, ‘सिद्धान्त’ आदि सब्धियां नहीं हैं जिन पर सदस्य देशों ने हस्ताक्षर किए हों, बल्कि इनका बहुत गहरा प्रभाव है, क्योंकि सदस्य-देशों ने पूरी सावधानी से तैयार करने के बाद इन्हें स्वीकार किया है ।
इनमें से सबसे महत्वपूर्ण हैं:
धर्म और विश्वास पर आधारित हर प्रकार के असंयम और भेदभाव की समाप्ति की घोषणा (1991) में सभी को सोचने और किसी भी धर्म को अपनाने का अधिकार दिया गया है और यह भी अधिकार दिया गया है कि धर्म या अन्य विश्वासों के नाम पर उनसे कोई भेदभाव नहीं होगा ।
विकास के अधिकार के बारे में घोषणा (1986) में इस अधिकार को ”मूल अधिकार या मानवाधिकार माना गया है तथा हर व्यक्ति और सभी देशों को इसमें शामिल होने, अपना योगदान करने और सभी आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विकास का लाभ पाने का अधिकार है जिनमें सभी मानवाधिकार और मूल अधिकार पूरी तरह प्राप्त किए जा सकते हैं ।”
इसमें यह भी कहा गया है कि- ”विकास के समान अवसर पाना देशों और व्यक्तियों का अधिकार है ।” राष्ट्रीय या नस्ली, धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यक समुदायों के व्यक्तियों के अधिकारों की धोषणा (1992) में अल्पसंख्यकों को अपनी संस्कृति अपनाने; अपना धर्म मानने और धार्मिक कृत्य करने; अपनी भाषा का प्रयोग करने और अपने देश सहित किसी भी देश को छोड़ने तथा अपने देश में लौटने के अधिकार प्रदान किए गए हैं । इस घोषणा में सम्बद्ध देशों से इन अधिकारों की रक्षा करने और इन्हें बढ़ावा देने का आग्रह किया गया है ।
मानवाधिकार प्रतिरक्षकों के बारे में घोषणा (1998) में विश्व भर के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को मान्यता देने और उनके कार्य को प्रोत्साहन एवं संरक्षण प्रदान करने की बात शामिल है । इसमें सभी के व्यक्तिगत एवं सामूहिक अधिकारों का उल्लेख है जिसके अन्तर्गत राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर मानवाधिकारों के संरक्षण और प्रोत्साहन तथा मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ शान्तिपूर्ण गतिविधियां चलाने के प्रयास किए जा सकते हैं । सरकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की हिंसा, धमकी, बदले की कार्यवाही और दबाव से रक्षा करनी है ।
अन्य महत्वपूर्ण गैर-सन्धि मानकों में शामिल हैं कैदियों के प्रति व्यवहार के लिए मानक न्यूनतम नियम (1957), न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के मूल सिद्धान्त (1985), किसी भी तरह की हिरासत, नजरबन्दी अथवा कैद के दौरान सभी व्यक्तियों की सुरक्षा के सिद्धान्त (1988) और सभी व्यक्तियों को जबरन लापता होने से सुरक्षा प्रदान करने की घोषणा (1992) ।
मानवाधिकार आयोग:
आर्थिक और सामाजिक परिषद् द्वारा 1946 में स्थापित मानवाधिकार आयोग महासभा को मानवाधिकारों से सम्बन्धित मुद्दों पर अपने प्रस्ताव, सिफारिशें और जांच रिपोर्ट प्रस्तुत करता है । बाद के वर्षों में यह आयोग संयुक्त राष्ट्र का मानवाधिकारों के सम्बन्ध में एक प्रमुख मंच बनकर उभरा ।
इस आयोग में देशों, अन्त: शासकीय और गैर सरकारी संगठनों को अपनी बातें रखने का अवसर मिलता है । इस आयोग में 53 सदस्य देश शामिल हैं । इन देशों को 3 वर्ष की अवधि के लिए चुना जाता है । इस आयोग की हर वर्ष 6 सप्ताह के लिए जेनेवा में बैठक आयोजित की जाती है ।
आर्थिक और सामाजिक परिषद ने 1946 में इस आयोग की मदद के लिए एक उप-आयोग गठित किया था जिसका काम अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव को रोकना और उनका संरक्षण करना है । इस उप-आयोग में विश्व के सभी क्षेत्रों के 26 विशेषज्ञों को शामिल किया गया है और यह नस्ली, धार्मिक, जातीय और भाषायी अल्पसंख्यकों के विरुद्ध भेदभाव को रोकने और उन्हें संरक्षण प्रदान करने से सम्बन्धित मुद्दों की जांच और उन पर अपनी सिफारिशें पेश करता है ।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त का गठन:
20 दिसम्बर, 1993 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने मानवाधिकारों की रक्षा के लिए एक मानवाधिकार उच्चायुक्त का गठन किया । मानवाधिकार उच्चायुक्त का पद गठित करने को पश्चिमी देश अपनी जीत मान रहे हैं, लेकिन यह अमरीकी मानवाधिकार संगठनों और विकासशील देशों के बीच समझौते के कारण ही हुआ है ।
पश्चिमी देश उच्चायुक्त को काफी शक्तिशाली बनाये जाने के अलावा उसे जांच का अधिकार देना चाहते थे, जबकि विकासशील देशों को आशंका थी कि इस बहाने पश्चिमी देश अपने मानवाधिकार और लोकतन्त्र के विचार तथा संस्कृति उन पर थोपना चाहते हैं । विकासशील देश उच्चायुक्त के कम अधिकारों के पक्षधर थे ताकि उनकी राष्ट्रीय सम्प्रभुता और आर्थिक विकास के अधिकारों पर आंच न आए ।
उच्चायुक्त का पद उप-महासचिव के स्तर का रखा गया है तथा उसका कार्यकाल 4 वर्ष था । उच्चायुक्त का मुख्यालय जेनेवा में तथा उसकी एक शाखा पार्क में भी रखी गई ।
मानवाधिकार केन्द्र (Centre for Human Rights):
मानवाधिकार केन्द्र का उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र के अंगों को मानवाधिकारों के प्रोत्साहन और संरक्षण के काम में मदद देना, सम्बन्धित अंगों द्वारा अनुरोध करने पर शोध कार्य करना और मानवाधिकारों से सम्बन्धित सूचना को प्रकाशित एवं प्रसारित करना है ।
यह केन्द्र अनेक मानवाधिकार संगठनों, जैसे मानवाधिकार आयोग और अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभाव को रोकने और उनसे संरक्षण से सम्बन्धित उप-आयोग की मदद करता है । जेनेवा में स्थित इस केन्द्र में मानवाधिकारों के लिए उप-महासचिव का कार्यालय और 5 शाखाओं के अतिरिक्त मानवाधिकारों से सम्बन्धित उच्चायुक्त का कार्यालय शामिल है । इस केन्द्र की संचार शाखा कथित रूप से हुए मानवाधिकार उल्लंघनों के बारे में मिली सूचनाओं की जांच करती है ।
विशेष कार्य-पद्धति शाखा इन सूचनाओं के आधार पर जांच दलों, जैसे कार्यदल और विशेष रैपर्टियर्स, को नियुक्त करती है और क्षेत्रीय प्रतिनिधिमण्डलों की यात्राओं का आयोजन करती है । एक अन्य शाखा अन्तर्राष्ट्रीय संधियों और सम्मेलनों की मानवाधिकारों के क्रियान्वयन के सम्बन्ध में निगरानी करती है, जबकि कानूनी और भेदभाव निवारण शाखा अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दस्तावेज तैयार करने के साथ अध्ययन और रिपोर्टे तैयार करने का काम करती है ।
तकनीकी ओर सलाहकार सेवा शाखा तकनीकी मदद देने के साथ सलाहकारी सेवाओं के प्रशासन का काम देखती है । वर्ष 1994 में अनुरोधों के आधार पर 37 देशों को तकनीकी मदद उपलब्ध कराई गई । इस केन्द्र के ग्वाटेमाला, कम्बोडिया, बुरुण्डी, क्रोशिया, रुआंडा और मलावी में क्षेत्रीय कार्यालय हैं ।
विशेष प्रतिवेदक और कार्यदल:
मानवाधिकारों से जुड़े विशेष प्रतिवेदक और कार्यदल मानवाधिकार संरक्षण, उल्हंघनों की छानबीन और व्यक्तिगत मामलों तथा आपात् स्थितियों में हस्तक्षेप करके निम्न भूमिका निभाते हैं । इन स्वतन्त्र मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और कार्यदलों की नियुक्ति मानवाधिकार आयोग और आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् करती है और ये आयोग, परिषद् तथा महासचिव को रिपोर्ट भेजते हैं ।
रिपोर्ट तैयार करने में ये व्यक्तिगत सन्देश और स्वैच्छिक संगठनों से मिली जानकारी सहित सभी साधनों का इस्तेमाल करते हैं । इनका अधिकांश शोधकार्य फील्ड में होता है, वे अधिकारियों और उल्लंघनों के शिकार लोगों के साक्षात्कार लेते हैं और मौके पर से सबूत एकत्र करते हैं ।
सरकारों के साथ सर्वोच्च स्तर पर पूछताछ के लिए तुरन्त कार्यवाही प्रक्रिया अपनाते हैं । इनकी रिपोर्ट सार्वजनिक कर दी जाती है जिससे उल्लंघनों का प्रचार और सरकारों को अपने दायित्व का बोध भी हो जाता है । ये विशेषज्ञ खास देशों की मानवाधिकार स्थिति अथवा विश्व भर में कहीं होने वाले मानवाधिकार उल्लंघनों की रिपोर्ट का विश्लेषण और प्रचार करते हैं ।
A. खास देशों के लिए नियुक्त विशेष प्रतिवेदक और प्रतिनिधि इस समय अफगानिस्तान, बुरुण्डी, कम्बोडिया, कांगो लोकतान्त्रिक गणराज्य, इक्वेटोरियल गिनी, हैटी, ईरान, इराक, म्यांमार, फिलिस्तीन अधिकृत क्षेत्रों, रुआण्डा, सोमालिया और सूडान के बारे में रिपोर्ट तैयार करते हैं । साथ ही महासचिव से अनुरोध किया गया है कि साइप्रस, पूर्वी तिमोर, कोसोवो, और अरब अधिकृत क्षेत्रों के बारे में भी रिपोर्ट तैयार कराई जाए ।
B. विषय-आधारित विशेष प्रतिवेदक प्रतिनिधि और कार्यदल इस समय लोगों के जबरन या अनिच्छा से लापता होने, तुरन्त फांसी देने, उत्पीड़न, जबरन नजरबन्दी, रंगभेद या नस्लभेद अपनाने, महिलाओं पर अत्याचार, बच्चों को बेचने, धार्मिक असहिष्णुता, आन्तरिक विस्थापित व्यक्तियों, विस्थापितों, मानवाधिकारों संरक्षकों, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, न्यायपालिका की स्वतन्त्रता, शिकार लोगों की भरपाई, भाड़े के विदेशी सैनिकों, ढांचागत संयोजन और विदेशी ऋण, अत्यधिक निर्धनता, विकास के अधिकार, शिक्षा के अधिकार, भोजन के अधिकार, आवास के अधिकार तथा जहाजरानी और विषैले तथा खतरनाक उत्पाद तथा अपचय को डम्प करने के कुप्रभावों के बारे में रिपोर्ट तैयार करते हैं ।
संयुक्त राष्ट्र संघ : मानवाधिकार को संरक्षण एवं प्रोत्साहन:
मानवाधिकारों के संरक्षण और उनको प्रोत्साहन देने में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका अनवरत बढ़ती रही है, लेकिन मुख्य समादेश यही रहता है : मूलभूत घटकों, यानी ”संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों के लोगों” का मानवीय सम्मान सुनिश्चित करना जिनके लिए चार्टर तैयार किया गया था ।
अन्तर्राष्ट्रीय तन्त्र के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र अनेक मोर्चों पर सक्रिय है:
वैश्विक विवेक के रूप में:
संयुक्त राष्ट्र ने देशों द्वारा स्वीकार्य आचरण के अन्तर्राष्ट्रीय मानक स्थापित करने की शुराआत कर दी है और यह इन मानकों का उल्लंघन करने वाली मानवाधिकार गतिविधियों पर अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यान केन्द्रित करता है । मानवाधिकार घोषणाओं और समझौतों को महासभा स्वीकृति देती है जिससे उनका महत्व भी स्पष्ट हो जाता है ।
कानून-निर्माता के रूप में:
अन्तर्राष्ट्रीय कानून को अभूतपूर्व ढंग से संहिताबद्ध किया गया है । महिलाओं, बच्चों, कैदियों और नजरबन्दियों तथा मानसिक रूप से विकलांगों के बारे में मानवाधिकार और नरसंहार, रंगभेद तथा उत्पीड़न जैसे उल्लंघन अब अन्तर्राष्ट्रीय कानून का बड़ा भाग बन चुके हैं जो पहले केवल देशों के सम्बन्धों पर ही विशेष रूप से केन्द्रित रहते थे ।
निगरानी व्यवस्था के रूप में:
संयुक्त राष्ट्र यह सुनिश्चित करने में भी मुख्य भूमिका अदा करता है कि मानवाधिकारों की मात्र सिद्धान्त के तौर पर परिभाषा करके इतिश्री न मान ली जाए बल्कि उन्हें व्यवहार तथा आचरण में भी अपनाया जाए ।
नागरिक और राजनीतिक अधिकारों और आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों के बारे में अन्तर्राष्ट्रीय कोवेनेन्ट या समझौता (1966) उन आरम्भिक समझौतों के उदाहरण हैं जिनमें अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं को देशों में अपनी वचनबद्धता के पालन सम्बन्धी गतिविधियों की निगरानी का अधिकार प्राप्त हुआ है ।
मानवाधिकार आयोग के सन्धि संगठनों, विशेष प्रतिवेदकों और कार्यदलों में से प्रत्येक के अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के परिपालन पर नजर रखने की छानबीन की अलग प्रक्रियाएं और तन्त्र हैं । विशेष मामलों में उनके फैसलों का अपना महत्व होता है जिनकी सरकारें आसानी से अवज्ञा नहीं कर पातीं ।
मुख्य केन्द्र बिन्दु के रूप में:
ओ.एच.सी.एच.आर. (Office of the High Commissioner for Human Rights) को मानवाधिकारों के उल्लंघनों की सूचनाएं समूहों (ग्रुप) और व्यक्तियों से प्राप्त होती हैं । हर वर्ष 1,00,000 से ज्यादा शिकायतें मिलती हैं । वह कनवेंशन और संकल्पों द्वारा निर्धारित प्रक्रियाओं के क्रियान्वयन को ध्यान में रखते हुए इन शिकायतों को उपयुक्त संयुक्त राष्ट्र निकायों के पास भेज देता है । तुरन्त हस्तक्षेप के अनुरोध फैक्स (41 22-917 9003) और ई-मेल (webadmin(dot)chr(at)unog(dot)ch) के जरिए ओ.एच.सी.एच.आर. को भेज सकते हैं ।
बचाव पक्ष के रूप में:
जब किसी प्रतिवेदक या किसी कार्यदल के अध्यक्ष को इस आशय की सूचना मिलती है कि मानवाधिकारों का कोई गम्भीर उल्लंघन होने वाला है, जैसे कि उत्पीड़न या कानूनी अधिकार के बिना किसी को फांसी देना, तो वह सम्बन्धित देश को तुरन्त सन्देश भेजकर कथित शिकार व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा की गारण्टी करने की अपील करते हुए हालात का खुलासा करने का अनुरोध करता है ।
इस तरह की अपीलें विशेष तौर पर उत्पीड़न या मनमाने ढंग से मृत्यु दण्ड देने के मामलों में विशेष प्रतिवेदकों, साथ ही लोगों को गायब करने और निरंकुश तरीके से नजरबन्दी के मामलों में कार्यदलों द्वारा की जाती हैं ।
शोधकर्ता के रूप में:
संयुक्त राष्ट्र द्वारा मानवाधिकारों के मुद्दों पर एकत्र आंकड़ों को मानवाधिकार कानूनों के विकास और क्रियान्वयन से अलग नहीं रखा जा सकता । उदाहरण के लिए, विभिन्न देशों के अध्ययन के आधार पर देशीय लोगों के अधिकारों के संरक्षण सम्बन्धी दस्तावेज का मसौदा तैयार किया जा सका है ।
ओ.एच.सी.एच.आर. संयुक्त राष्ट्र निकायों द्वारा मानवाधिकार मुद्दों पर मांगी गई रिपोर्ट और अध्ययन तैयार करता है, और संकेत देता है कि किस तरह की नीतियां, प्रणालियां और संस्थाएं बनाई जाएं जो मानवाधिकारों के प्रति सम्मान बढ़ा सकती हैं ।
अपील मंच के रूप में:
नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के अन्तर्राष्ट्रीय कोवेनेन्ट के पहले वैकल्पिक प्रोटोकोल, सभी प्रकार के रंगभेद, नस्लभेद समाप्त करने की अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि, उत्पीड़न विरोधी कनवेंशन और महिलाओं के हर प्रकार के भेदभाव समाप्त करने के कनवेंशन के अन्तर्गत लोग उन सरकारों के खिलाफ शिकायतें भेज सकते हैं जिन्होंने अपील प्रक्रिया स्वीकार की है और जहां सभी घरेलू उपाय आजमाए जा चुके हैं ।
साथ ही, मानवाधिकार आयोग द्वारा स्थापित प्रक्रियाओं के तहत स्वयं आयोग, इसका उप-आयोग और उनके कार्यदल, गैर-सरकारी संगठनों या व्यक्तियों से हर वर्ष प्राप्त होने वाली बेहिसाब शिकायतों की सुनवाई करते हैं ।
तथ्य पता लगाने वाले के रूप में:
मानवाधिकार आयोग ने किसी भी खास देश में मानवाधिकार उल्लंघनों की घटनाओं पर नजर रखने और उनकी रिपोर्ट भेजने के लिए तत्र स्थापित किया है । राजनीतिक दृष्टि से सम्वेदनशील, मानवीय एवं कभी-कभी खतरनाक हो सकने वाले कार्य के लिए गठित तन्त्र में विशेष सम्पर्क अधिकारी/प्रतिनिधि या कार्यदल रहते हैं ।
ये लोग तथ्य जानने के लिए आंकड़े एकत्र करते हैं, स्थानीय ग्रुपों से सम्पर्क बनाते हैं, सरकार की अनुमति मिलने पर मौके पर जाकर स्थिति का जायजा लेते हैं और मानवाधिकारों की प्रतिष्ठा बढ़ाने और उनके पालन की व्यवस्था को मजबूत बनाने के उपायों का सुझाव देते हैं ।
विवेकशील राजनयिक के रूप में:
महासचिव और मानवाधिकार उच्चायुक्त कैदियों की रिहाई, मृत्युदण्ड की जगह साधारण कैद की सजा लागू कराने और अन्य मुद्दों पर सदस्य देशों के साथ मानवाधिकार मुद्दों पर अत्यन्त गोपनीय ढंग से बातचीत करते हैं ।
मानवाधिकार आयोग उल्लंघनों के गम्भीर रूप धारण करने से रोकने में सहयोग के लिए स्थिति का जायजा लेने के उद्देश्य से महासचिव से हस्तक्षेप करने अथवा कोई विशेषज्ञ भेजने का अनुरोध कर सकता है । महासचिव अपने पद के प्रभाव का इस्तेमाल करके शान्त कूटनीति के इन तरीकों पर अमल करते हैं ताकि संयुक्त राष्ट्र संघ अपनी चिन्ता को उचित ठहरा सके ।
मानव अधिकारों का उल्लंघन : यथार्थ स्थिति (Violation of Human Rights: Actual Position):
यों तो मानवता की दुहाई देकर नागरिकों के मूलभूत अधिकारों की बात अनेक सरकारों की तरफ से उठी है, लेकिन अधिसंख्य सरकारें इस क्षेत्र में अपनी दोगली नीति के कारण असफल रही हैं । यहां तक कि लोकतन्त्री अमरीका तथा ब्रिटेन भी इस क्षेत्र में अपने राष्ट्रीय हितों के कारण अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानव अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस सफलताएं हासिल नहीं कर पाए ।
अपने यहां लोकतन्त्री ढांचे को कायम करते हुए ब्रिटेन ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर असीमित शोषण किया । ब्रिटेन के भूतपूर्व विदेश मन्त्री डॉ. आवेन ईरान में हो रहे अत्याचार के बारे में मानते थे कि वहां उनके देश के लिए ‘मानवाधिकार’ मुद्दे से ईरानी ‘तेल’ ज्यादा महत्वपूर्ण है ।
अमरीका की नव-उपनिवेशवादी नीतियां पहले ही काफी बदनाम हो चुकी हैं, इसके बावजूद अभी तक उसकी मानवाधिकार नीति में एकरूपता नहीं पायी जाती । सोवियत रूस के विरुद्ध अमरीकी प्रशासन मानवाधिकार हनन के मुद्दे को लेकर बोलता रहा, किन्तु साम्यवादी चीन में इस प्रश्न को लेकर वह राजनीतिक चुप्पी साधे रहा ।
इसके अतिरिक्त, साम्यवादी देशों में तो मानव अधिकार की धारणा ही दूसरी है जो लोकतन्त्र में उसकी रक्षा से तालमेल नहीं रखती । वैसे भी कुछ मिलाकर साम्यवादी देशों में मानवाधिकार हनन की यथार्थता को नकारा नहीं जा सकता । अफ्रो-एशियाई तथा लातीनी अमरीका के अधिसंख्य देशों में तानाशाही शासन है जिस कारण वहां की सरकारों तथा शासकों से इस सम्बन्ध में अधिक अपेक्षा रखना व्यर्थ है ।
इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग का कार्यक्षेत्र उसकी आयु बढ़ने के साथ ही संकुचित होता जा रहा है । वह अपने इस उद्देश्य को प्राप्त करने में प्राय: विफल रहा है जिसके लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने उसका गठन किया था ।
यह एक तथ्य है कि आज समूचे विश्व में मानव अधिकारों का व्यापक स्तर पर हनन हो रहा है, किन्तु मानवाधिकार आयोग कुछ पक्षपातपूर्ण रपटें प्रकाशित करने के अलावा कुछ नहीं कर पाया है । आयोग की विफलता सम्भवत: उतनी नहीं अखरती जितना अखरने वाले यह तथ्य हैं कि वह अब तक सही बात को कहने का साहस भी नहीं जुटा पाया ।
53-सदस्यीय आयोग का मत है कि इजरायल, दक्षिण अफ्रीका और चीले ही ऐसे देश हैं जो यातना देने, विरोधियों को कुचलने और राजनीतिक शत्रुओं को बन्दी बनाने की नीति पर लगातार चल रहे हैं । उसने न केवल उन हजारों लोगों को अनदेखा किया है जिन्हें ईरान, चीन और इण्डोनेशिया में अपनी राजनीतिक गतिविधियों के कारण हत्याओं समेत तरह-तरह की शारीरिक यातनाएं भोगनी पड़ रही हैं, बल्कि इस तथ्य को भी नजरअन्दाज कर दिया कि विश्व भर में सौ से भी अधिक ऐसे देश भी हैं जहां की सरकारें किसी-न-किसी रूप में मानवाधिकारों का हनन कर रही हैं ।
इस सन्दर्भ में ‘एमनेस्टी इण्टरनेशनल’ की मानवाधिकार के सम्बन्ध में प्रकाशित रपटें कई महत्वपूर्ण तथ्य सामने लाती हैं । रपट में कहा गया कि दिसम्बर 1948 में स्वीकृत मानवाधिकार घोषणा-पत्र के बावजूद विश्व के अधिसंख्य देशों में मानवाधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है ।
सभी बड़ी सरकारें और विभिन्न राजनीतिक विचारधारा समूहों से सम्बद्ध देश मानवाधिकारों का हनन करते रहे हैं । जुलाई को लन्दन में जारी अपनी 1995 की वार्षिक रिपोर्ट में विश्व के 150 देशों में मानवाधिकार की स्थिति की समीक्षा की गई है ।
इसमें उग्रवादी संगठनों के साथ-साथ राज्य के सरकारी दमन तन्त्र को भी निशाना बनाया गया है । इसमें सभी दक्षिण एशियाई देशों सहित विश्व के कुल 141 देशों पर मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाया गया है । एमनेस्टी की रिपोर्ट में भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की प्रशंसा की गई है ।
एमनेस्टी की वर्ष 1994-95 की रिपोर्ट में अमरीका में मानव अधिकारों के हनन की जो तस्वीर पेश की गई है वह बहुत चिन्ताजनक है । अमरीका विश्व के अन्य देशों को मानव अधिकारों की रक्षा के उपदेश देता रहता है, लेकिन स्वयं अपने घर में वह न तो पुलिस को ज्यादती करने से रोक पाया और न ही अपने कानूनों से मानव अधिकार का हनन करने वाले प्रावधानों को निकाल पाया ।
एमनेस्टी की रिपोर्ट में पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों पर गम्भीर चिन्ता व्यक्त की गई है । अमरीकी जेलों में बन्दियों की हालत को शोचनीय बताते हुए उसे सुधारने के लिए कहा गया है । एमनेस्टी का कहना है कि अमरीका के कई राज्यों में अपराधों की एक बहुत बड़ी संख्या के लिए मृत्युदण्ड का विधान है, जबकि अन्य देशों में उन अपराधों के लिए इतनी कड़ी सजा नहीं दी जाती । नस्लवादी भेदभाव आज भी वहां खत्म नहीं हुआ है ।
वर्ष 2003 में विश्व के 63 देशों में कम-से-कम 2756 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई, पर इसमें से केवल 28 देशों के कम-से-कम 1146 लोगों को ही मृत्युदण्ड दिया गया । एमनेस्टी इण्टरनेशनल की वर्ष 2004 की रिपोर्ट के अनुसार गतवर्ष 84 प्रतिशत मृत्युदण्ड चीन, ईरान, वियतनाम और अमेरिका में दिया गया ।
रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष के अन्त तक विश्व के 77 देशों ने मृत्युदण्ड का प्रावधान खत्म कर दिया था, लेकिन 15 देशों ने इसे केवल युद्ध अपराधों तक सीमित रखा है । रिपोर्ट के अनुसार सरकार द्वारा लोगों को गैर कानूनी ढंग से मारे जाने की घटनाएं 47 देशों में हुईं, जबकि राज्य द्वारा लोगों को गायब करने की घटनाएं 28 देशों में हुईं ।
विश्व के 34 देशों में सेना ने हिंसा और हत्या की कार्यवाही की जिनमें भारत, पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका भी शामिल हैं । एमनेस्टी इन्टरनेशनल की वर्ष 2012 की रिपोर्ट के अनुसार, 91 देशों में आज भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध है और 101 देशों में लोगों को दर्दनाक पीड़ा दी जाती है ।
55 सशस्त्र संगठन/सरकारें बच्चों को सैनिक के रूप में काम लेती हैं । आज भी 18,750 लोग मृत्युदण्ड की सजा पाए हुए हैं । ईरान, उत्तरी कोरिया, सऊदी अरब एवं सोमालिया में सार्वजनिक तौर से लोगों को फांसी दी जाती है ।
चीन में हजारों लोगों को मौत की सजा दी जाती है, किन्तु उनकी संख्या नहीं बताई जाती है । एमनेस्टी के अनुसार, मानव अधिकारों के उल्लंघन के 60 प्रतिशत मामले लघु एवं हल्के हथियारों से होना पाया गया है ।
एमनेस्टी रिपोर्ट 2013 को ‘दि स्टेट ऑफ दि वर्ल्ड ह्यूमन राइट्स’ के नाम से प्रकाशित किया गया है । रिपोर्ट के अनुसार, 112 देशों में नागरिकों को यातनाएं दी जाती हैं, 110 देशों में नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को प्रतिबन्धित किया गया है तथा वर्ष 2012 के प्रारम्भ में 12 मिलियन लोग राज्यविहीन स्थिति में थे ।
कुल मिलाकर ‘एमनेस्टी’ की रपट यह स्पष्ट करती है कि मानवाधिकारों की दुहाई देने वाले विश्व के लगभग सभी शासक गिरोह न केवल राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धियों पर वरन् हर असहमत नागरिक पर अत्याचार करने में एक से बढ़कर एक हैं । 19 नवम्बर, 2010 को संयुक्त राष्ट्र महासभा की मानवाधिकार सम्बन्धी एक समिति ने तीन अलग-अलग प्रस्ताव पारित कर ईरान, म्यांमार व उत्तर कोरिया में मानवाधिकार उल्लंघन की कड़ी निन्दा की ।
भारत में मानव अधिकार:
2011 की जनगणना पर आश्रित आंकड़ों के अनुसार (25.96 प्रतिशत) भारतीय निरक्षर हैं । अनुमान है कि वर्तमान समय में 6-14 वर्ष तक की आयु के 63 मिलियन बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं; जहां तक स्वास्थ्य का सम्बन्ध है 135 मिलियन लोगों के लिए अभी तक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र सुलभ नहीं हैं जबकि 226 मिलियन लोगों के लिए निरापद पेयजल का अभाव है तथा 640 मिलियन लोगों के लिए प्रारम्भिक आरोग्यदायक सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं ।
15 से 49 वर्ष के बीच की आयु वाली 88 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं रक्ताल्पता से पीड़ित हैं । जहां तक भोजन तथा पोषण की बात है 62 मिलियन, 5 वर्ष से कम आयु के बच्चे कुपोषणग्रस्त हैं; जहां तक बच्चों की बात है 16 वर्ष से कम आयु के लगभग एक-तिहाई बच्चे बाल श्रमिक के रूप में काम करते हैं – अनेक संकटापन्न उद्योगों में लगे हुए हैं ।
निर्धनता तथा आय के सम्बन्ध में स्थिति यह है कि विश्व के एक-तिहाई निर्धन व्यक्ति भारत में रहते हैं । स्थिति की जटिलता राज्यों के मध्य विस्तृत असमानताओं से संयुक्त है । इस प्रकार केरल में 7 वर्ष की आयु से ऊपर की 93.91 प्रतिशत जनसंख्या साक्षर है, जबकि बिहार, राजस्थान, उत्तर प्रदेश के तुलनीय आंकड़े क्रमश: 63.82 प्रतिशत, 67.06 प्रतिशत तथा 69.72 प्रतिशत हैं ।
भारत के लोगों ने स्वतन्त्रता के बाद मानव अधिकारों पर हुए जो प्रहार सहन किए उनमें से कोई भी इतना घृणास्पद नहीं था जितने शारद आतंकवादियों द्वारा योजनाबद्ध तरीके से किए जा रहे हिंसात्मक अपराध हैं ।
जम्मू-कश्मीर राज्य में आतंक के वातावरण के कारण लगभग 30,000 कश्मीरी पण्डित घाटी छोड़ने को मजबूर हुए हैं । 13.775 से अधिक सिविलियनों और 4,690 सुरक्षा बलों के कार्मिकों की जानें गयी हैं । वर्ष 2008 से 2009 के दौरान 9 राज्यों में उग्रवाद के अन्तर्गत क्रमश: 721 एवं 908 व्यक्ति मारे गए । 1 अप्रैल, 2014 से 31 दिसम्बर, 2014 तक की अवधि के दौरान न्यायिक हिरासत में हुई मौतों के कुल 3,707 मामले हुए ।
जेलों में भीड़, ज्यादातर विचाराधीन कैदियों की भारी संख्या की वजह से होती है, जो मानव गरिमा को अत्यधिक विसंगतिपूर्ण बनाती रही है । विभिन्न बन्दीगृहों में बन्द कैदियों की संख्या 3,85,135 विचाराधीन कैदी हैं । इनका प्रतिशत कुल कैदियों का 66.2 प्रतिशत से अधिक बैठता है ।
विचाराधीन कैदियों में अधिक संख्या समाज के गरीब वर्ग के लोगों की है जो गांवों से सम्बन्धित हैं । भारत के राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अधिकारियों द्वारा मेरठ जेल का दौरा किए जाने पर वहां लगभग 3,000 लोग जेल में बन्द पाए गए, जबकि उस जेल की घोषित क्षमता 650 व्यक्तियों के रखे जाने की है ।
संविधान के अनुच्छेद 23, 24, 39 (द) एवं (च) और 41, 45 तथा 47 के होते हुए एवं 1948 से लेकर 1986 तक 12 अधिनियम पारित किए जाने के बाद भी बालश्रम की समस्या बनी हुई है और आज लगभग 2 मिलियन बच्चे संकटापन्न उद्योगों में काम कर रहे हैं ।
हाथ से मैले की सफाई मानव गरिमा के प्रति घोर आपराधिक तरीका है ओर स्वाधीनता के 69 वर्ष बीत जाने के बाद भी इस अपमानजनक प्रचलन को जिसमें हाथ से मैला साफ किया जाता है, हमारे देश में अभी तक जारी रखा गया है ।
उपर्युक्त विवेचन से यह तात्पर्य नहीं है कि भारतवासी मानव अधिकारों की दृष्टि से बेपरवाह हैं । वस्तुत: तथ्य यह है कि भारत के लोगों का अपने नागरिक तथा राजनैतिक अधिकारों का उपयोग करने के लिए विस्मयकारी लगाव है तथा जब कभी इन अधिकारों को कम करने का प्रयास किया जाता है तो वे अधीर हो उठते हैं ।
मानवाधिकारों की दृष्टि से भारत की स्थिति एवं योगदान का मूल्यांकन निम्नांकित पंक्तियों में किया जा सकता है:
a. भारत ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार, आर्थिक एवं सामाजिक परिषद और महासभा के अधिवेशनों में मानवाधिकार के मुद्दों पर सक्रिय रूप से भाग लिया ।
b. भारत अब 16 अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों में शामिल है जिन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में तैयार किया गया था । इनमें प्रमुख हैं – अन्तर्राष्ट्रीय, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार प्रसंविदा, अन्तर्राष्ट्रीय सिविल तथा राजनीतिक अधिकार प्रसंविदा, बच्चों के अधिकार विषयक प्रसंविदा, महिलाओं के राजनीतिक अधिकार विषयक प्रसंविदा ।
c. भारत के प्रमुख व्यक्ति मानवाधिकार निकायों में महत्वपूर्ण सदस्यों के रूप में उल्लेखनीय कार्य करते रहे हैं । मानवाधिकार समिति में पी.एन.भगवती, जातीय भेदभाव समाप्त करने से सम्बद्ध समिति में श्रीमती शान्ति सादिक अली, निरंकुश नजरबन्दी कार्यकारी दल में कपिल सिब्बल की महत्वपूर्ण भूमिका रही है ।
d. भारतीय संसद ने राष्ट्रीय मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 पारित किया जिसके अन्तर्गत राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग गठित किया गया है । जो व्यक्ति भारत के उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधिपति रहा हो वही आयोग का अध्यक्ष बन सकता है ।
e. कतिपय राज्यों, यथा – पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, असम, तमिलनाडु, गुजरात, राजस्थान, मणिपुर, केरल, पंजाब और जम्मू-कश्मीर में राज्यस्तरीय मानव अधिकार आयोग गठित किए जा चुके हैं ।
f. मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 की धारा 30 में “मानव अधिकारों के उल्लंघन सम्बन्धी अपराधों को शीघ्र सुनवाई उपलब्ध कराने के लिए मानव अधिकार न्यायालय अधिसूचित करने की परिकल्पना की गई है ।” आन्ध्र प्रदेश, असम, सिक्किम, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में इस प्रकार के न्यायालय स्थापित किए गए हैं ।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग पर बढ़ता हुआ विश्वास और दु:ख कष्टों के निवारण की लालसा इसको उत्तरोत्तर मिल रही शिकायतों की संख्या से ही परिलक्षित हो जाती है । स्थापना के पहले 6 महीनों में इसे 496 शिकायतें मिलीं जबकि 1 अप्रैल, 2014 से 31 दिसम्बर, 2014 तक की अवधि में आयोग को 86,155 शिकायतें मिलीं । वर्ष 2010 के दौरान 65,827 मामले आयोग ने विचारार्थ दर्ज किए ।
1 जनवरी, 2014 से 31 दिसम्बर, 2014 तक की अवधि के दौरान न्यायिक हिरासत में हुई मौतों की कुल संख्या 4,033 थी और पुलिस हिरासत में हुई मृत्यु के 326 मामलों सहित हिरासत में हुई मृत्यु के कुल 5,439 मामलों में कार्यवाही की गई ।
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निष्कर्ष:
पामर तथा पर्किन्स ने ठीक ही लिखा है कि- ”विश्व के कुछ ही भागों में मानव अधिकार तथा आधारभूत स्वतन्त्रताएं वास्तव में सुरक्षित हैं, अधिकांश क्षेत्रों में तो अभी इनका कोई अर्थ नहीं है ।” संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों के बावजूद मानवाधिकारों के उल्लंघन की व्यापक घटनाएं बराबर हो रही हैं ।
मानवाधिकारों की वैश्विक घोषणा के पांच दशक बीत जाने के बावजूद विश्व भर की मुख्य खबरों में मानवाधिकारों के व्यापक उल्लंघनों की घटनाएं छाई रहती हैं । पर कुछ हद तक मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ाने के प्रयासों, समस्यामूलक क्षेत्रों की निगरानी, खासकर बच्चों के प्रति दुर्व्यवहार, महिलाओं के प्रति हिंसा और दुर्व्यवहार रोकने के प्रयासों को कुल स्थिति में आए सुधारों को श्रेय दिया जाता है ।
वास्तव में, मानवाधिकारों को संरक्षण और बढ़ावा देने के उपाय तो पहले से कहीं ज्यादा मजबूत हैं और उन्हें सामाजिक न्याय, आर्थिक विकास तथा लोकतन्त्र के लिए चल रहे संघर्ष से ज्यादा जोड़ा जा रहा है । संयुक्त राष्ट्र सुधार कार्यक्रम में महासचिव कोफी अन्नान ने घोषणा की थी कि मानवाधिकारों का मुद्दा संगठन के विविधतापूर्ण दायित्वों में हमेशा प्रमुख रहेगा तथा इन अधिकारों को संरक्षण और बढ़ावा देने की बात सभी नीतियों और कार्यक्रमों में शामिल की जाएगी ।
मानवाधिकार तो संयुक्त राष्ट्र के दैनिक कार्यों के अनिवार्य अंग बनते जा रहे हैं । मानवाधिकार उच्चायुक्त की जोरदार कार्यवाही और संयुक्त राष्ट्र के भागीदारों के बीच सहयोग तथा तालमेल बढ़ाने के लिए किए गए उपाय मानवाधिकारों के लिए संघर्ष में संयुक्त राष्ट्र प्रणाली की योग्यता और कुशलता बढ़ाने के ठोस प्रयासों की अभिव्यक्ति हैं ।