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Here is an essay on ‘Ideology’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Ideology’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay Contents:
- विचारधारा: अभिप्राय (Introduction to Ideology)
- विचारधारा से तात्पर्य (Meaning of the Term Ideology)
- राष्ट्रीय शक्ति के तत्व के रूप में विचारधारा (Ideology as an Element of National Power)
- विचारधारा के बारे में मॉरगेन्थाऊ के विचार (Morgenthau’s View on Ideology)
- विचारधारा और हित (Ideology and Interest)
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा की भूमिका (Role of Ideology in International Politics)
Essay # 1. विचारधारा: अभिप्राय (Introduction to Ideology):
विचार और विचारधाराएं शक्ति के अवयवों का प्रत्ययात्मक भाग है । भूगोल और जनसंख्या राष्ट्रीय शक्ति के ऐसे तत्व हैं जिनके अस्तित्व को हम देख सकते हैं जबकि राष्ट्रीय शक्ति के कुछ ऐसे तत्व भी हैं जिनके अस्तित्व का हम केवल अनुभव कर सकते है । ये तत्व भौतिक न होकर मानवीय तत्व हैं जिनमें नेतृत्व मनोबल और विचारधारा प्रमुख हैं ।
विचारधारा शब्द का प्रयोग दो भिन्न अर्थों में किया जाता है । पहले अर्थ में विचारधारा विचारों एवं विश्वासों का ऐसा समुच्चय है जो एक सुनिश्चित विश्व दृष्टि पर आधारित हो और अपने को अपने आप में पूर्ण मानती हो तथा विश्व की सारी वास्तविकता की व्याख्या करने का आधार प्रदान करने का दावा करती है ।
इस अर्थ में विचारधारा मनुष्य की प्रकृति के बारे में कुछ अभिग्रह लेकर चलती है और उनके आधार पर मनुष्य के इतिहास का एक सिद्धान्त आचरण की एक नैतिक नियमावली त्यागमय कर्तव्य भावना और कर्म का एक कार्यक्रम पेश करती है ।
दूसरे अर्थ में- विचारधारा को विदेश नीति के वास्तविक उद्देश्य छिपाने का आवरण कहा जा सकता है । इस अर्थ में प्रयोग करने पर विचारधारा विदेश नीति के तात्कालिक लक्ष्य के रूप में शक्ति प्राप्ति के बारे में तत्पर होती है । पैडलफोर्ड एवं लिंकन के अनुसार- ”विचारधारा आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक मूल्यों तथा लक्ष्यों से सम्बन्धित विचारों का निकाय है जो इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कार्यों की योजना तैयार करती है ।”
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स्नाइडर एवं विल्सन ने लिखा है- “एक विचारधारा जीवन, समाज और शासन के प्रति निश्चित विचारों का वह समूह है जिनका प्रचार मुख्यतया योजनाबद्ध सामाजिक राजनीतिक धार्मिक नारों के प्रतिपादन के रूप में अथवा युद्धकालीन नारों के रूप में निरन्तर उपदेशात्मक रूप में इस प्रकार किया गया है कि, वह एक विशिष्ट समाज समुदाय दल अथवा राष्ट्र के विशिष्ट विश्वास ही बन गए हैं ।”
विचारधारा राष्ट्रीय शक्ति का तत्व है । आज सम्पूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति विचारधारा के आधार पर ही लोकतान्त्रिक और साम्यवादी गुटों में विभाजित है । विचारधाराएं राष्ट्र के लोगों को जोड़ने में सीमेण्ट का कार्य करती हैं । विचारधारा से लोगों में समर्पण की भावना उत्पन्न होती है ।
विचारधाराएं समुदाय की भूमिका पर बल देती हैं और व्यक्ति की भूमिका को गौण मानती हैं । विचारधारा सरकार को अपने नागरिकों का समर्थन प्राप्त करने में मदद देती है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति मूलत: शक्ति पर आधारित है, तथापि नग्न शक्ति को मनोवैज्ञानिक तथा नैतिक दृष्टि से जनता तथा राष्ट्रों द्वारा ग्राह्य बनाना वैचारिकी का ही मुख्य काम है ।
कोई भी राज्य अपने दावों की पूर्ति शक्ति सामर्थ्य के आधार पर नहीं वरन् एक विशिष्ट सिद्धान्त की दुहाई देकर करता है । मॉरगेन्थाऊ लिखते हैं जो राष्ट्र विचारधाराओं को त्यागकर स्पष्ट रूप से यह कह दे कि वह शक्ति चाहता है और इसी कारण अन्य राष्ट्रों की समान महत्वाकांक्षाओं का विरोध करेगा तो वह इस शक्ति संघर्ष में अपने को निश्चित रूप से बहुत ही अहितकर परिस्थिति में पाएगा ।
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अर्थात् अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विदेश नीति निर्माता और उसे कार्यान्वित करने के लिए जिम्मेदार लोग अपने राजनीतिक कार्यों का सच्चा स्वरूप राजनीतिक विचारधारा के मुखौटे के पीछे छिपाने की कोशिश करते हैं ।
एक सरकार जिसकी वैदेशिक नीति अपनी जनता के बौद्धिक विचार पद्धतियां हर विचार की भांति वे अस हैं जो एक राष्ट्र की हिम्मत को बढ़ाकर उसके साथ ही उस राष्ट्र की शक्ति बढ़ा सकते हैं और इस कार्य द्वारा ही विरोधी की हिम्मत को पस्त कर देते हैं ।
अमरीकी राष्ट्रपति बुडरो विल्सन के चौदह सूत्रों (विचारधारा) ने प्रथम, विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों की विजय में अत्यधिक योगदान दिया था वह मित्र राष्ट्रों की हिम्मत को बढ़ाकर तथा धुरी राष्ट्रों की हिम्मत को पस्त करके अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा के महत्व की प्रतिष्ठा का विलक्षण उदाहरण है ।
ब्रिटिश प्रधानमन्त्री लायड जार्ज तथा अमरीकी राष्ट्रपति विल्सन ने कहा कि वे प्रथम, विश्वयुद्ध लोकतन्त्र और राष्ट्रीय आत्म-निर्णय जैसी उदार विचारधाराओं की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं । हिटलर को सूझा कि यह राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का सिद्धान्त (विचारधारा) अपनी राज्य विस्तार की नीतियों के आवरण के रूप में प्रयोग किया जा सकता है ।
इस सिद्धान्त के आधार पर ही चैकोस्लोवाकिया और पोलैण्ड के जर्मन अल्पसंख्यकों ने चैकोस्लोवाकिया और पोलैण्ड के राष्ट्रीय अस्तित्व को कमजोर करने की कोशिश की । बाद में, वार्साय की सन्धि को यथापूर्व स्थिति के लाभान्वितों के पास अपने लाभों की रक्षा करने के लिए कोई विचारधारा नहीं थी । राष्ट्रीय शक्ति में तत्व के रूप में विचारधारा राष्ट्र के सदस्यों के मनोबल को निर्मित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है ।
विचारधारा के माध्यम से लोगों में राष्ट्रीय लक्ष्यों के औचित्य में आस्था उत्पन्न होती है । हिटलर ने जब ‘नयी व्यवस्था’ का नारा दिया तो जर्मन जनता में युद्ध के औचित्य के सम्बन्ध में एक विश्वास उत्पन्न हो गया । साम्यवादी विचारधारा के सामाजिक आर्थिक न्याय पर आधारित दर्शन से विभिन्न प्रकार की सोवियत राष्ट्रीयताओं को एकता के सूत्र में पिरोने में मदद मिली ।
हिटलर ने विचारधारा के महत्व का लाभ उठाया और विदेशों में पंचमार्गियों (Fifth-Column) को संगठित किया । उपनिवेशों की जनता में राष्ट्रवाद स्वाधीनता की प्रेरणा देता था । विचारधारा शब्द समकालीन सभी शक्तिशाली विचारधाराओं यथा सर्वाधिकारवाद, साम्यवाद, फासीवाद, नाजीवाद, मार्क्सवाद, समाजवाद, उदारवाद आदि अनेक वादों के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है ।
लोकतन्त्र भी इस दृष्टि से एक विचार पद्धति ही है । मॉरगेन्थाऊ की दृष्टि से साम्राज्यवाद यदि एक सैद्धान्तिक वैचारिकी है तो बीसवीं शताब्दी के सबसे प्रेरक सिद्धान्त राष्ट्रवाद को भी सैद्धान्तिक वैचारिकी मानना होगा ।
Essay # 2. विचारधारा से तात्पर्य (Meaning of the Term Ideology):
आधुनिक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ‘विचारधारा’ का विशेष प्रभाव तथा महत्व है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा को यथार्थवादी तत्व माना गया है, क्योंकि यह राष्ट्रीय शक्ति का प्रेरक तत्व है । विचारधारा को विश्व राजनीति में न केवल अशान्ति उत्पन्न करने वाला तत्व माना गया है, अपितु विरोधमूलक विचारधाराओं के परिणाम अन्ततोगत्वा युद्ध ही होते हैं जिससे अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में दरार और तनाव उत्पन्न होते हैं ।
प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रधान कारण विचारधाराओं की टकराहट ही थी । आधुनिक समय में ‘विचार’ और ‘विचारधारा’ शब्द अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के शब्दकोश में सामान्य-से जान पड़ते हैं । हमें यह पता है कि राष्ट्र और उनकी जनता को आजकल विभाजित करने वाले प्रमुख मुद्दे मोटे रूप से वैचारिक स्वरूप के हैं । राष्ट्रों में युद्ध के प्रमुख कारण विरोधमूलक विचारधाराएं हैं ।
वास्तव में विचारधारा क्या है । यह ‘विचार’, ‘विश्वास’ और ‘सिद्धान्त’ से किस प्रकार भिन्न है । यह शक्ति का प्रमुख चर कैसे है ? विश्व राजनीति में विचारधारा अशान्ति उत्पन्न करने वाला तत्व क्यों माना जाता है ? विचार और विचारधाराएं शक्ति के अवयवों का प्रत्ययात्मक भाग है ।
भूगोल और जनसंख्या राष्ट्रीय शक्ति के ऐसे तत्व है जिनके अस्तित्व को हम देख सकते हैं जबकि राष्ट्रीय शक्ति के कुछ ऐसे तत्व भी हैं जिनके अस्तित्व का हम केवल अनुभव कर सकते हैं । ये तत्व भौतिक न होकर मानवीय तत्व हैं जिनमें नेतृत्व, मनोबल और विचारधारा प्रमुख हैं ।
विचारधारा शब्द का प्रयोग दो भिन्न अर्थों में किया जाता हे । पहले अर्थ में विचारधारा विचारों एवं विश्वासों का ऐसा समुच्चय है जो एक सुनिश्चित विश्व दृष्टि पर आधारित हो और अपने को अपने आप में पूर्ण मानती हो तथा विश्व की सारी वास्तविकता की व्याख्या करने का आधार प्रदान करने का दावा करती है ।
इस अर्थ में विचारधारा मनुष्य की प्रकृति के बारे में कुछ अभिग्रह लेकर चलती है और उनके आधार पर मनुष्य के इतिहास का एक सिद्धान्त आचरण की एक नैतिक नियमावली त्यागमय कर्तव्य भावना और कर्म का एक कार्यक्रम पेश करती है । दूसरे अर्थ में विचारधारा को विदेश नीति के वास्तविक उद्देश्य छिपाने का आवरण कहा जा सकता है ।
इस अर्थ में प्रयोग करने पर विचारधारा विदेश नीति के तात्कालिक लक्ष्य के रूप में शक्ति प्राप्ति के बारे में तत्पर होती है । पैडलफोर्ड एवं लिंकन के अनुसार- “विचारधारा आर्थिक सामाजिक एवं राजनीतिक मूल्यों तथा लक्ष्यों से सम्बन्धित विचारों का निकाय है जो इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कार्यों की योजना तैयार करती है ।”
स्नाइडर एवं विल्सन ने लिखा है- ”एक विचारधारा जीवन समाज और शासन के प्रति निश्चित विचारों का वह समूह है जिनका प्रचार मुख्यतया योजनाबद्ध सामाजिक राजनीतिक धार्मिक नारों के प्रतिपादन के रूप में अथवा युद्धकालीन नारों के रूप में निरन्तर उपदेशात्मक रूप में इस प्रकार किया गया है कि वह एक विशिष्ट समाज समुदाय दल अथवा राष्ट्र के विशिष्ट विश्वास ही बन गए हैं ।”
चार्ल्स श्लाइचर के अनुसार- विचारधारा व्यक्ति में अमूर्त विचारों की व्यवस्था है । ये विचार वास्तविकता को स्पष्ट करते हैं तथा मूल्यात्मक लक्ष्यों की अभिव्यक्ति करते हैं । ऐसी सामाजिक व्यवस्था की प्राप्ति करने अथवा बनाए रखने का प्रयास करते हैं, जिसमें उनके विश्वास के अनुसार लक्ष्यों को श्रेष्ठ रूप में स्वीकार किया जा सके और विभिन्न राष्ट्र समान विश्वास दृष्टिकोण व राजनीतिक जीवन के समान लक्ष्यों के कारण चुनौती मिलने पर संगठित हो जाते हैं ।
Essay # 3. राष्ट्रीय शक्ति के तत्व के रूप में विचारधारा (Ideology as an Element of National Power):
विचारधारा राष्ट्रीय शक्ति का तत्व है । आज सम्पूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति विचारधारा के आधार पर ही लोकतान्त्रिक और साम्यवादी गुटों में विभाजित है । विचारधारा राष्ट्र के लोगों को जोड़ने में सीमेण्ट का कार्य करती है । विचारधारा से लोगों में समर्पण की भावना उत्पन्न होती है । विचारधाराएं समुदाय की भूमिका पर बल देती हैं और व्यक्ति की भूमिका को गौण मानती हैं ।
विचारधारा सरकार को अपने नागरिकों का समर्थन प्राप्त करने में मदद देती है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति मूलत: शक्ति पर आधारित है, तथापि नग्न शक्ति को मनोवैज्ञानिक तथा नैतिक दृष्टि से जनता तथा राष्ट्रों द्वारा ग्राह्य बनाना वैचारिकी का मुख्य काम है । कोई भी राज्य अपने दावों की पूर्ति सामर्थ्य के आधार पर नहीं, वरन् एक विशिष्ट सिद्धान्त की दुहाई देकर करता है ।
मॉरगेन्थाऊ लिखते हैं- ”जो राष्ट्र विचारधाराओं को त्यागकर स्पष्ट रूप से यह कह दे कि वह शक्ति चाहता है और इसी कारण अन्य राष्ट्रों की समान महत्वाकांक्षाओं का विरोध करेगा तो वह इस शक्ति संघर्ष में अपने को निश्चित रूप से एक बहुत ही अहितकर परिस्थिति में पाएगा ।”
अर्थात् अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विदेश नीति निर्माता और उसे कार्यान्वित करने के लिए जिम्मेदार लोग अपने राजनीतिक कार्यों का सच्चा स्वरूप राजनीतिक विचारधारा के मुखौटे के पीछे छिपाने की कोशिश करते हैं ।
एक सरकार जिसकी वैदेशिक नीति अपनी जनता के बौद्धिक विश्वासों तथा नैतिक मूल्यों के प्रति आकर्षण का भाव पैदा करती है, उस विरोधी वैदेशिक नीति के ऊपर अगणित लाभ प्राप्त कर लेती है, जो उन लक्ष्यों को चुनने में सफल नहीं हो पायी है ।
विचार पद्धतियां, हर विचार की भांति वे अस्त्र हैं, जो एक राष्ट्र की हिम्मत को बढ़ाकर उसके साथ ही साथ उस राष्ट्र की शक्ति बढ़ा सकते हैं और इस कार्य द्वारा ही विरोधी की हिम्मत को पस्त कर देते हैं । अमरीकी राष्ट्रपति बुडरो विल्सन के चौदह सूत्रों (विचारधारा) ने प्रथम विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों की विजय में अत्यधिक योगदान दिया था यह मित्र राष्ट्रों की हिम्मत को बढ़ाकर तथा धुरी राष्ट्रों की हिम्मत को पस्त करके अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा के महत्व की प्रतिष्ठा का विलक्षण उदाहरण है ।
ब्रिटिश प्रधानमन्त्री लायड जार्ज तथा अमरीकी राष्ट्रपति विल्सन ने कहा कि वे प्रथम विश्वयुद्ध लोकतन्त्र और राष्ट्रीय आत्म-निर्णय जैसी उदार विचारधाराओं की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं । हिटलर को सूझा कि यह राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का सिद्धान्त (विचारधारा) अपनी राज्य विस्तार की नीतियों के आवरण के रूप में प्रयोग-किया जा सकता है ।
इस सिद्धान्त के आधार पर ही चैकोस्लोवाकिया और पोलैण्ड के जर्मन अल्पसंख्यकों ने चैकोस्लोवाकिया और पोलैण्ड के राष्ट्रीय अस्तित्व को कमजोर करने की कोशिश की । बाद में वार्साय की सन्धि को यथापूर्व स्थिति के लाभान्वितों के पास अपने लाभों की रक्षा करने के लिए कोई विचारधारा नहीं थी ।
राष्ट्रीय शक्ति के तत्व के रूप में विचारधारा राष्ट्र के सदस्यों के मनोबल को निर्मित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है । विचारधारा के माध्यम से लोगों में राष्ट्रीय लक्ष्यों के औचित्य में आस्था उत्पन्न होती है । हिटलर ने जब ‘नयी अवस्था’ का नारा दिया तो जर्मन जनता में युद्ध के औचित्य के सम्बन्ध में एक विश्वास उत्पन्न हो गया ।
साम्यवादी विचारधारा के सामाजिक आर्थिक न्याय पर आधारित दर्शन से विभिन्न प्रकार की सोवियत राष्ट्रीयताओं को एकता के सूत्र में पिरोने में मदद मिली । हिटलर ने विचारधारा के महत्व का लाभ उठाया और विदेशों में पंचमार्गियों (Fifth-Column) को संगठित किया ।
उपनिवेशों की जनता में राष्ट्रवाद स्वाधीनता की प्रेरणा देता था । विचारधारा शब्द समकालीन सभी शक्तिशाली विचारधाराओं यथा सर्वाधिकार, साम्यवाद, फासीवाद, नाजीवाद, मार्क्सवाद, समाजवाद, उदारवाद, आदि अनेक वादों के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है । लोकतन्त्र भी इस दृष्टि से एक विचार पद्धति ही है । मॉरगेन्थाऊ की दृष्टि से साम्राज्यवाद यदि सैद्धान्तिक वैचारिकी है तो बीसवीं शताब्दी के सबसे प्रेरक सिद्धान्त राष्ट्रवाद को भी सैद्धान्तिक वैचारिकी मानना होगा ।
Essay # 4. विचारधारा के बारे में मॉरगेन्थाऊ के विचार (Morgenthau’s View on Ideology):
मॉरगेन्थाऊ ने ‘विचारधारा’ का विश्लेषण विदेश नीति के सन्दर्भ में किया है । वे स्पष्ट लिखते हैं कि- ”कुछ विशेष प्रकार की विचारधाराएं कुछ विशेष प्रकार की अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों से जुड़ी हुई होती हैं ।”
इस दृष्टि से वे तीन प्रकार की विचारधांराएं मानते हैं:
(1) यथास्थिति की विचारधारा,
(2) साम्राज्यवाद की विचारधारा,
(3) अस्पष्ट विचारधाराएं ।
पहले प्रकार की विचारधारा को ‘यथास्थिति की विचारधारा’ (Ideology of Status Quo) की संज्ञा प्रदान की है । यथापूर्व स्थिति की नीति में विश्वास करने वाले राष्ट्र अपने व्यवहार को विचारधाराओं के आवरण में छिपाना नहीं चाहते । मॉरगेन्थाऊ का कथन है कि, जो देश यथापूर्व स्थिति की नीति अपनाता है वह उस शक्ति की रक्षा का प्रयत्न करता है जो उसको प्राप्त है ।
यह बात विशेष रूप से तब होती है जब भूभागीय यथापूर्व स्थिति का संरक्षण नैतिक या कानूनी आक्षेप से मुक्त हो । स्विट्जरलैण्ड, डेनमार्क, नॉर्वे, स्वीडन जैसे अपनी विदेशी नीति को यथापूर्व स्थिति में रखने वाली नीति के रूप में व्यक्त कर सकते हैं क्योंकि इनकी यथापूर्व स्थिति को न्यायोचित मान लिया गया है ।
दूसरी तरफ ब्रिटेन, फ्रांस, यूगोस्लाविया, चैकोस्लोवाकिया और रूमानिया, जो कि दोनों विश्वयुद्धों के दौरान मुख्यत: यथापूर्व स्थिति की नीति का अनुसरण करते रहे अपनी विदेश नीतियों के लिए खुलकर यह घोषणा नहीं कर सकते थे कि वे भविष्य में यथापूर्व स्थिति की विदेश नीति में आस्था रखेंगे ।
क्योंकि सन् 1919 की यथापूर्व स्थिति की कानूनी यथार्थता स्वयं इन राष्ट्रों के आन्तरिक व बाह्य क्षेत्रों में चुनौती का शिकार बन चुकी थी अत: उन्हें उन आदर्श सिद्धान्तों को गढ़ना आवश्यक हो गया जो कि इन चुनौतियों का सामना कर सकें ।
इसलिए इन राष्ट्रों ने एक और नयी विचारधारा का निर्माण किया जिसे शान्ति और अन्तर्राष्ट्रीय कानून की विचारधारा कहते हैं । शान्ति व अन्तर्राष्ट्रीय कानून के आदर्श यथापूर्व स्थिति की नीति की सेवा में विशिष्ट रूप की विचार पद्धतियां हैं क्योंकि साम्राज्यवादी नीतियां यथापूर्व स्थिति में गड़बड़ी पैदा करके प्राय: युद्ध की ओर अग्रसर होती हैं और उन्हें युद्ध की सम्भावना को सदा अपने दृष्टिकोण के सम्मुख रखना होता है ।
अपनी यथापूर्व स्थिति को शान्तिवाद की शब्दावली में घोषित कर एक राजनीतिज्ञ अपने साम्राज्यवादी विरोधियों के ऊपर युद्धप्रियता का कलंक मढ़ देता है । अन्तर्राष्ट्रीय कानून की दुहाई किसी विदेश नीति के पल में सदैव यथापूर्व स्थिति की नीति के वैचारिक आवरण के रूप में प्रयुक्त होती है ।
कानून साधारणत: और अन्तर्राष्ट्रीय कानून विशेषकर एक स्थिर सामाजिक शक्ति है । वह शक्ति का एक विशेष वितरण निर्धारित करता है तथा उसे विशेष ठोस परिस्थितियों में स्थिर रखने में मानदण्ड तथा पद्धतियां प्रस्तुत करता है ।
यथापूर्व स्थिति की नीति का समर्थन करने के लिए राष्ट्र संघ और संयुक्ता राष्ट्र संघ जैसे अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का भी प्रयोग किया जाता है । यह नीति सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था की ओर भी प्रेरित हो सकती है क्योंकि यथापूर्व स्थिति के समर्थक देश इसे बदलने वाले देशों के विरुद्ध संगठित हो सकते हैं ।
दूसरे प्रकार की विचारधाराओं को मॉरगेन्थाऊ ने ‘साम्राज्यबाद की विचारधारा’ (Ideologies of Imperialism) घोषित किया है । साम्राज्यवादी नीति को सदा ही एक विचारधारा की आवश्यकता होती है । उसे यह प्रमाणित करना होता है कि वह जिस यथास्थिति को पलटना चाहता है वह पलट देने लायक है और इसके बाद शक्ति का जो नए सिरे से वितरण किया जाएगा वह नैतिक एव न्यायपूर्ण होगा ।
साम्राज्यवादी विचारधाराएं अन्तर्राष्ट्रीय कानून की दुहाई न देकर, एक ऐसे उच्च कानून (प्राकृतिक विधि) की दुहाई देती हैं जो कि न्याय की आवश्यकताओं की पूर्ति करता हो । नाजी जर्मनी ने वार्साय की सन्धि की यथा-पूर्व स्थिति परिवर्तित करने की मांग मुख्यत: समानता के सिद्धान्त की दुहाई देकर की थी ।
साम्राज्यवाद को विचारधारा की सबसे अधिक आवश्यकता है क्योंकि उसे राज्यों को जीतने के लिए बहाने की आवश्यकता होती है, जो उसके औचित्य का प्रतिपादन कर सके । ‘सफेद लोगों का बोझ’ (Whitemen’s Burden), ‘राष्ट्रीय कर्तव्य’ (National Mission), ‘पवित्र विश्वास’ (Sacred Trust), ‘क्रिश्चियन कर्तव्य’ (Christian Duty) आदि साम्राज्यवादी वैचारिक नारों ने सभ्यता को पुष्ट करने की दुहाई दी या उपनिवेश को पिछड़ेपन से मुक्त कराने की या धार्मिक कर्तव्य पूरा करने की दुहाई दी ।
जापान की पूर्वी एशिया के लिए ‘संयुक्त धन का क्षेत्र’ (Co-Prosperity Zone) की विचारधारा मानवतावादी आवरण के वैसे ही आवरणों का द्योतक थी । नेपोलियन का साम्राज्यवाद यूरोप भर में ‘स्वतन्त्रता समानता व भ्रातृत्व’ की पताका फहराते हुए प्रसारित हो गया था ।
चार्ल्स डारविन और हर्बर्ट स्पेंसर के प्रभाव में आकर साम्राज्यवाद की विचारधाराओं ने जैविकीय तर्क पेश किए । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में लागू करने पर ‘सर्वशक्तिशाली के जीवित रहने की उपयुक्तता’ का सिद्धान्त एक शक्तिशाली राष्ट्र की दुर्बल राष्ट्र के उपर उच्चता में स्वभावत: परिणत हो जाता है ।
साम्यवाद, फासिस्टवाद, नाजीवाद तथा जापानी साम्राज्यवाद ने इन जीव वैज्ञानिक विचारधाराओं को एक नया क्रान्तिकारी मोड़ दे दिया । जर्मन जनता एक क्षेत्रहीन जनता है जो यदि रहने योग्य स्थान प्राप्त न कर पायी तो उसका दम घुटता रहेगा और यदि उसे कच्चा माल प्राप्त न हो पाया तो भूखों मर जाएगी ।
तीसरे प्रकार की विचारधाराएं वे हैं, जिन्हें मॉरगेन्थाऊ ‘अस्पष्ट विचारधाराओं’ (Ambiguous Ideologies) के नाम से पुकारता है । चूंकि ये विचारधाराएं आक्रमणकारी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तथा साथ ही में यथास्थिति को कायम रखने के लिए प्रयोग में लायी जा सकती हैं इसलिए इन्हें अस्पष्ट विचारधाराएं कहा गया है ।
हमारे युग में ऐसी तीन विचारधाराएं पनपी हैं-राष्ट्रीय आत्म-निर्णय की विचारधारा शान्ति की विचारधारा और संयुक्त राष्ट्र की विचारधारा । राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के सिद्धान्त की कल्पना राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने पेश की थी ।
आपने मध्य यूरोप के राष्ट्रिक समूहों की विदेशी आधिपत्य से मुक्ति को उचित ठहराया था । वैचारिक दृष्टि से यह सिद्धान्त साम्राज्यवाद का विरोधी था । हिटलर को सूझा कि यह राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का सिद्धान्त अपनी राज्य विस्तार की नीतियों के आवरण के रूप में प्रयोग किया जा सकता है ।
इस सिद्धान्त के आधार पर उसने पोलैण्ड और चैकोस्लोवाकिया के जर्मन अल्पसंख्यकों को उकसाया । संयुक्त राष्ट्र संघ को द्वितीय विश्वयुद्ध की विजय के उपरान्त स्थापित यथापूर्व स्थिति की रक्षा के क्षेत्र में संगठित किया गया था किन्तु यह पाया गया कि, संयुक्त राष्ट्र संघ की विचारधारा की विभिन्न राष्ट्र अपने-अपने ढंग से व्याख्या करने लगे ।
प्रत्येक राष्ट्र संयुक्त राष्ट्र संघ का पूर्ण पोषक दृष्टिगोचर होता है और सभी राष्ट्र विदेश नीति के पक्ष में चार्टर की धाराओं की दुहाई देते हैं । इन नीतियों के विरोधाभासी होने के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ कइा सन्दर्भ अपनी स्वय की नीति को न्यायसंगत प्रमाणित करने के लिए और साथ ही उन नीतियों के वास्तविक चरित्र को ढांपने के लिए वैचारिक साधन बन जाता है ।
इसी प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद शान्ति की अस्पष्ट विचारधारा भी अस्तित्व में आयी । शान्तिमय इरादों के बारे में जो घोषणाएं अक्सर की जाती हैं वे आमतौर से किसी विदेश नीति के बुनियादी उद्देश्य छिपाने के लिए प्रयुक्त मुखौटे ही होती हैं ।
अपने विरोधियों को बदनाम करने के लिए उन्हें ‘शान्तिविरोधी’, ‘शान्तिघाती’, एवं ‘शान्तिविध्वंसक’ कहने का रिवाज हो गया है । शान्ति की विचारधारा के आधार पर एक देश दो महत्वपूर्ण राजनीतिक कार्य करता है: प्रथम, वह अपनी वास्तविक नीति के उद्देश्य को छिपाना चाहता है, और द्वितीय, वह अपनी नीतियों के लिए सर्वत्र सद्भावना प्राप्त करना चाहता है ।
Essay # 5. विचारधारा और हित (Ideology and Interest):
विचारधारा और हित दो भिन्न विचार हैं । ‘हित’ का आशय उस वस्तु से है जिससे वह सम्बन्धित है या जिसे वह अपने लिए महत्वपूर्ण समझता है या वह वस्तु जिसके साथ वह सम्बन्धित है तब अपने लिए महत्वपूर्ण समझता है । विचारधारा भावात्मक है जो व्यक्ति को ढीले रूप से जोड़ती है ।
यह सम्बन्ध घनिष्ट हो सकता है अगर यह हित से उत्पन्न होता है । सामूहिक विचारधारा (Group Ideology) अधिक भावात्मक और अस्पष्ट है जबकि सामूहिक हित के साथ ऐसी बात नहीं है । सामूहिक हित स्पष्ट और सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत होता है । राष्ट्रीय सुरक्षा का विचार सामूहिक हित की श्रेणी में रखा जा सकता है ।
इस थोड़ी-सी भिन्नता के बावजूद विचारधारा और हित परस्पर सम्बन्धित हैं । प्रत्येक दूसरे को कई रूपों में प्रभावित करता है । श्लाइचर के मतानुसार- ”प्रत्येक दूसरे को प्रभावित करता हुआ प्रतीत होता है क्योंकि हित विचारधारा का निर्धारण कर सकता है तथा विचारधारा द्वारा निर्धारित भी हो सकता है । वे एक-दूसरे में विलीन होते हैं, यद्यपि दोनों एक नहीं है । प्रत्येक का सापेक्ष प्रभाव जहां वे नही मिलते वहां वे परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर अवश्य होते हैं ।”
विचारधारा और हित में इस प्रकार एक समरूपता है, एक घनिष्ट सम्बन्ध है, जिससे इन्हें अलग नहीं किया जा सकता । राष्ट्र अपने हितों के आधार पर ही अपनी विचारधारा का गठन करते हैं । यूरोप में अमरीका के हित ‘साम्यवाद के सीमितिकरण’ व प्रजातन्त्र की रक्षा की विचारधारा द्वारा उचित ठहराए गए हैं ।
विभिन्न राज्यों द्वारा विचारधारा का प्रयोग अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में किसी घटना को उचित या अनुचित ठहराने के लिए भी किया जाता है दूसरे राष्ट्र को प्रादेशिक भूमि पर आधिपत्य (संयुक्त राज्य अमरीका द्वारा फिलीपाइन्स पर आधिपत्य) मानवतावादी विचारधारा के आधार पर उचित सिद्ध किया जाता है । फिलीपाइन्स को उसने सभ्य बनाने, ईसाई धर्म का प्रचार करने तथा बर्बरों को शिक्षित करने के लिए अधीन बनाया था ।
Essay # 6. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा की भूमिका (Role of Ideology in International Politics):
20वीं शताब्दी की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का आधारभूत प्रभावक तत्व विचारधारा रहा है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा की भूमिका और प्रभाव निम्न प्रकार से देखा जा सकता है:
(1) विचारधारा में वह शक्ति है जो असंगठित और अव्यवस्थित गतिविधि को एक सशक्त और संगठित राजनीतिक आन्दोलन में बदल देती है । जैसे नाजीवाद और फासीवाद का विश्व में प्रसार ।
(2) विचारधारा विभिन्न राष्ट्रीयता वाले देशों को एकता के सूत्र में बांधकर सैनिक शक्ति का सृजन करती है । जैसे अटलांटिक चार्टर में निहित सिद्धान्तों के आधार पर ही द्वितीय महायुद्धकाल में मित्र राष्ट्रों की एकता धुरी राष्ट्रों के विरुद्ध हुई थी ।
(3) विचारधारा आक्रमण और विस्तारवादी गतिविधियों को भी प्रोत्साहित करती है जिससे युद्ध होते हैं । पाकिस्तान में इस्लामिक विचारधारा की कट्टरता के कारण उसने भारत पर 1965 व 1971 में आक्रमण किया ।
(4) प्रतियोगी विचारधाराएं मनमुटाव एवं वैमनस्य को जन्म देती हैं । शीतयुद्ध विचारधाराओं के संघर्ष का परिणाम था जिससे द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संकट उभरे ।
(5) विचारधारा में कट्टरता के तत्व आ जाने से कूटनीतिक समझौते तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन की उपयोगिता असम्भव हो जाती है ।
(6) यह विदेश नीति को कठोर बनाती है, जैसे 1945 के बाद अमरीकी विदेश नीति ‘साम्यवाद के अवरोधन’ के लिए दृढ़ संकल्प रही ।
पामर व पर्किस के शब्दों में, “विचारधाराएं वास्तव में अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष का शक्तिशाली साधन होती हैं, किन्तु वे सभी संघर्षों के शान्तिपूर्ण समाधान के कार्यों को बहुत जटिल बना देती हैं ।”
निष्कर्षत:
विचारधारा को शक्ति प्राप्ति के उद्देश्य की सिद्धि साधन के रूप में सदा प्रयोग किया जाता रहा है । यदि विचारधारा में घोषित शक्ति उद्देश्यों और आचरण में दृष्टिगोचर होने वाले असली उद्देश्यों के बीच का अन्तर न पहचाना जाए तो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के यथार्थ स्वरूप को समझ सकना कठिन है ।
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इसलिए किसी विदेश नीति के वास्तविक रूप का अध्ययन वैचारिक दिखावे और आचरण में अपनायी गयी नीतियों के असली उद्देश्य के बीच स्पष्ट अन्तर के आधार पर करना अपरिहार्य है । सोवियत संघ के विघटन के बाद ऐसा लगने लगा है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा का महत्व घटता जा रहा है ।
इससे पूर्व ‘विचारधारा के अन्त’ (End of Ideology) का सिद्धान्त भी प्रचलित हुआ था । आज लगभग सभी पश्चिमी देशों में विभिन्न राजनीतिक दलों में वैचारिक अन्तर समाप्त हो गए हैं । आज समाजवाद तथा पूंजीवाद दोनों का उद्देश्य एक औद्योगिक समाज की स्थापना है तथा ये दोनों एक उद्देश्य की प्राप्ति के केवल दो तरीके हैं ।
दोनों प्रकार की अर्थव्यवस्थाओं में कोई विशेष अन्तर नहीं रह गया है तथा इन दोनों व्यवस्थाओं में राज्य ‘औद्योगिक राज्य’ बन गया है । पूंजीवाद की प्रकृति बदल गई है तथा अब पश्चिमी समाज ‘पूंजीवाद के बाद के समाज’ (Post Capitalist Societies) है ।
पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्थाएं तथा उन्नत समाजवादी देशों की अर्थ व्यवस्थाएं अब एक-समान हो गई हैं, क्योंकि ये दोनों ही औद्योगिक समाज हैं । तकनीकी तथा वैज्ञानिक उन्नति ने दोनों समाजों के अन्तर को मिटा दिया है । समाजवादी तथा पूंजीवादी समाजों की समस्याएं वैचारिक नहीं हैं बल्कि तकनीकी, वैज्ञानिक तथा प्रशासनिक हैं ।
सामाजिक क्रान्ति मुख्य सवाल नहीं है, बल्कि मुख्य समस्या सामाजिक इंजीनियरी (Social Engineering) की है । संक्षेप में, समाजवाद तथा पूंजीवाद दोनों में परिवर्तन आ जाने के कारण दोनों विचारधाराएं खत्म हो गई हैं ।