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Here is an essay on ‘Imperialism’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Imperialism’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on Imperialism
Essay Contents:
- साम्राज्यवाद की परिभाषाएं (Meaning and Definitions of Imperialism)
- साम्राज्यवाद के मूल तत्व तथा विशेषताएं (Basic Elements and Characteristics of Imperialism)
- साम्राज्यवाद का विकास (Growth of Imperialism)
- साम्राज्यवाद के तीन प्रलोभन (Three Inducements to Imperialism)
- साम्राज्यवाद के तीन लक्ष्य (Three Goals of Imperialism)
- साम्राज्यवाद के तीन साधन (Three Methods of Imperialism)
- साम्राज्यवाद से राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि (Imperialism: Instrument for the Promotion of National Interest)
- साम्राज्यवाद: मूल्याकन (Estimate of Imperialism)
Essay # 1. साम्राज्यवाद की परिभाषाएं (Meaning and Definitions of Imperialism):
मानव समाज में साम्राज्यवाद की परम्परा मनुष्य के राजनीतिक जीवन के साथ आरम्भ हुई है । यह सम्भवत: मानव समाज की प्राचीनतम व्यवस्था है, क्योंकि पुराने समय में महत्वाकांक्षी राजा अपने राज्य की संकीर्ण सीमाओं से सन्तुष्ट न होकर चारों ओर पड़ोसी राजाओं पर हमले करके उन्हें अपना वशवर्ती बनाते हुए अपने राज्य को साम्राज्य में परिवर्तित किया करते थे ।
प्राचीन भारतीय साहित्य में हमें ब्राह्मण ग्रन्थों के समय से चक्रवर्ती बनने वाले और राजसूय यइा करने वाले राजाओं के वर्णन मिलते हैं । जिस राजा के रथ का चक्र अपने राज्य की सीमाओं से बाहर जितने बड़े प्रदेश में निर्बाध गति से चलता था और जितने राजा उसका प्रभुत्व स्वीकार करते थे वह उन सभी प्रदेशों का चक्रवर्ती सम्राट कहलाता था ।
महाभारत में युधिष्ठिर द्वारा चारों दिशाओं में अपने भाइयों को भेजकर दिग्विजय करने के उपरान्त राजसूय यज्ञ करने का और राजाओं द्वारा लायी गयी भेंटों का विस्तृत वर्णन मिलता है । पुराने जमाने में मिस्र बेबीलोन असीरिया ईरान यूनान चीन के शक्तिशाली और महत्वाकांक्षी राजाओं ने तथा मध्ययुग में चोल और मुगल राजाओं ने और वर्तमान युग में अंग्रेजों ने विशाल साम्राज्य स्थापित किए ।
सातवीं शताब्दी में अरबों ने और उसके बाद मंगोलों तथा तुर्कों ने और सोलहवीं शताब्दी में स्पेन, पुर्तगाल, हॉलैण्ड, इंग्लैण्ड और फ्रांस ने विश्वव्यापी साम्राज्य स्थापित किए । यह स्पष्ट है कि जब कोई राजा या राज्य सैनिक शक्ति द्वारा अथवा अन्य उपायों से अपनी सत्ता और प्रभुत्व का विस्तार अपने राज्य की सीमाओं से बाहर करने लगता है तो वह राज्य साम्राज्य का रूप धारण करता है और उसकी यह नीति साम्राज्यवादी कहलाती है ।
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इसमें एक जाति अथवा राष्ट्र का शासन करने वाला वर्ग बलपूर्वक अन्य जातियों और राष्ट्रों की स्वतन्त्रता का अपहरण करके उन पर अपना राजनीतिक आधिपत्य स्थापित कर लेता है, उनकी सम्पत्ति, भूमि, उद्योगों, व्यापार, आदि का प्रयोग अपने स्वार्थ (राष्ट्रीय हित) और लाभ के लिए करने लगता है ।
साम्राज्यवाद का मूल तत्व एक राज्य द्वारा दूसरे राज्यों पर अपनी शक्ति का विस्तार है। आधुनिक काल में ‘साम्राज्यवाद’ शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है: पहला, आर्थिक और दूसरा, राजनीतिक । आर्थिक साम्राज्यवाद का तात्पर्य एक देश द्वारा दूसरे देश के आर्थिक शोषण तथा स्वामित्व से है । राजनीतिक साम्राज्य से एक देश द्वारा दूसरे देश के राजनीतिक शोषण का बोध होता है ।
राज्यों की यह सामान्य नीति रही है कि वे किसी न किसी रूपमें अपना विस्तार करें । राज्यों का अपने प्रभाव और नियन्त्रण को इस प्रकार से फैलाना ही साम्राज्यवाद कहा जाएगा । इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के नवीनतम 15वें संस्करण में इनका लक्ष्य इस प्रकार किया गया है: ”यह राज्य की ऐसी नीति है जिसका उद्देश्य अपने राज्य की सीमाओं से बाहर रहने वाली ऐसी जनता पर अपना नियन्त्रण स्थापित करना होता है जो सामान्य रूप से ऐसे नियन्त्रण को स्वीकार करने के लिए अनिच्छुक है।”
रिचर्ड सट्टन ने इसके विस्तारवादी तत्व पर बल देते हुए लिखा है, ”साम्राज्यवाद ऐसी राष्ट्रीय नीति है जो दूसरे देश अथवा इसकी सम्पत्ति पर अपनी शक्ति अथवा नियन्त्रण का विस्तार करना चाहती है।” इस प्रकार का साम्राज्यवादी विस्तार करने में वही राज्य या शासक समर्थ होते हैं जो किसी प्रकार की तकनीकी दृष्टि से आगे बड़े हुए होते हैं । उनके पास लड़ने के लिए अच्छे हथियार योग्य नेतृत्व, उकृष्ट संगठन शक्ति, अपूर्व उत्साह, आदि के वैयक्तिक गुण होते हैं ।
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बाबर भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना इसलिए कर सका कि वह अपने साथ एक नवीन अस-तोपें लाया था । अंग्रेजों ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना इंग्लैण्ड से सेनाएं लाकर नहीं की अपितु यहां भारतीयों को भर्ती किया, उन्हें कवायद-ड्रिल, आदि सिखाकर यूरोपियन ढंग से लड़ने की कलाओं में प्रशिक्षित करके तथा इस भांति प्रशिक्षित सेनाओं की शक्ति से भारत जीता ।
अत: साम्राज्यवादी देश की एक बड़ी विशेषता तकनीकी ढंग से उकृष्ट होना है । इंसाइक्कोपीडिया अमेरिकाना में लिखा है- ”साम्राज्यवाद तकनीकी दृष्टि से आगे बड़े हुए समाज द्वारा पिछड़े हुए समाज पर अपने प्रभुत्व का विस्तार करना है ।”
प्रो. हॉजेस ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की दृष्टि से इसकी परिभाषा करते हुए लिखा है कि- ”साम्राज्यवाद का उद्देश्य विश्वशान्ति की दृष्टि से अधिक उन्नत देशों के हित की दृष्टि से पिछड़ी हुई जातियों पर प्रभुत्व स्थापित करना है ।”
वर्तमान समय में चूंकि यूरोपियन जातियों ने सामान्य रूप से एशिया और अफ्रीका की जातियों पर प्रभुत्व स्थापित किया है, अत: इस दृष्टि से लक्ष्य करते हुए साम्राज्यवाद के स्वरूप की विशद् विवेचना करने वाले पार्कर टी. मून ने लिखा है कि- “साम्राज्यवाद यूरोपियन राष्ट्रों द्वारा अपने से सर्वथा भिन्न गैर-यूरोपियन जातियों पर प्रभुत्व स्थापित करना है ।” प्रो. शूमां ने लिखा है कि- ”शक्ति और हिंसा द्वारा अधीनस्थ जनता पर विदेशी शासन का लादा जाना ही साम्राज्यवाद है ।” एच. जी. वेल्स के अनुसार- ”एक राष्ट्रीय राज्य का विश्वव्यापक बनने के लिए प्रयत्नशील होना ही साम्राज्यवाद है ।”
Essay # 2. साम्राज्यवाद के मूल तत्व तथा विशेषताएं (Basic Elements and Characteristics of Imperialism):
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर साम्राज्यवाद की निम्न विशेषताएं स्पष्ट होती हैं:
(1) साम्राज्यवाद अपने राज्य की सीमाएं बढ़ाने में विश्वास करता है ।
(2) साम्राज्यवाद का उद्देश्य होता है अन्य देशों को अपने अधीन करके उनका शोषण करना ।
(3) वर्तमान में साम्राज्यवाद का उद्देश्य मुख्यतया आर्थिक शोषण होता है परन्तु कभी-कभी सैनिक व राजनीतिक शोषण भी हो सकता है ।
(4) साम्राज्यवाद के अन्तर्गत विविध राष्ट्रीय इकाइयों पर एक ही राष्ट्र का आधिपत्य होता है ।
(5) साम्राज्यवाद का सम्बन्ध राष्ट्र की विदेश नीति से है ।
(6) साम्राज्यवादी देश अपने अधीनस्थ राष्ट्रों के हितों की उपेक्षा करते हुए अपने हितों को प्रधान्य देते हैं । जब भारत ब्रिटिश साम्राज्य का अंग था तो भारत सरकार भारतीय हितों की उपेक्षा करते हुए इंग्लैण्ड के हितों को अधिक महत्व देती थी ।
(7) साम्राज्यवाद स्थापित करने वाले देश के पास अधीनस्थ राज्यों की अपेक्षा तकनीकी दृष्टि से उत्कृष्ट कोटि के अस्त्र-शस्त्र रणनीति कौशल अधिक पूंजी और उत्पादन के उन्नत साधन होते हैं ।
(8) मॉरगेन्थाऊ के अनुसार जिन राज्यों के पास शक्ति का बाहुल्य है वे प्रत्येक क्षेत्र में अपनी शक्ति बढ़ाने का प्रयत्न करेंगे । ऐसे राज्यों की नीति होगी रिवीजनिस्ट या परिवर्तनकारी ।
किसी परिवर्तनवादी राज्य की शक्ति विस्तार की लालसा जब अपनी चरम सीमा पर पहुंचकर दूसरों का शोषण करने लगती है तब वह राज्य साम्राज्यवादी नीति अपनाने लगता है । यथास्थितिवादी राज्य इस बात का प्रयत्न करते हैं कि मौजूदा शक्ति सन्तुलन में कोई परिवर्तन न हो और इस सन्तुलन में उनकी जो भी स्थिति हो वह बराबर बनी रहे परन्तु परिवर्तनवादी राज्य मौजूदा शक्ति सन्तुलन को उलटकर और अधिक शक्ति प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं ।
Essay # 3. साम्राज्यवाद का विकास (Growth of Imperialism):
साम्राज्यवाद के विकास को मोटे तौर से प्राचीन और अर्वाचीन नामक दो युगों में बांटा जाता है । 15 वीं शताब्दी तक प्राचीन साम्राज्यवाद का तथा उसके बाद से अब तक का अर्वाचीन साम्राज्यवाद का युग माना जाता है ।
प्राचीन साम्राज्यवाद के सबसे पुराने उदाहरण हमें मिस्र, मैसोपोटामिया, भारत, चीन, यूनान तथा ईरान में मिलते हैं । ये सब राजनीतिक साम्राज्य थे । ईसा की तीसरी शताब्दी ई. पू. से रोमन साम्राज्यवाद का उत्कर्ष हुआ । 7वीं शताब्दी में अरबों का विश्वव्यापी साम्राज्य बना । उसमें इस्लाम को सारे विश्व में फैला देने की प्रबल महत्वाकांक्षा थी ।
अपने अधिकतम उत्कर्ष के समय खलीफाओं का शासन स्पेन से शिध तक विशाल प्रदेश पर विस्तीर्ण था । इन सभी साम्राज्यों में धर्म भाषा और जाति की दृष्टि से बड़ी विविधता रखने वाले अनेक प्रकार के समुदाय थे । ये सब सैनिक शक्ति से एक सूत्र में आबद्ध किए गए थे । इनमें पूरी शासन सत्ता का केन्द्रीकरण था और साम्राज्य में रहने वाली विभिन्न जातियों और अंगों का केन्द्रीय सत्ता में कोई प्रभावशाली प्रतिनिधित्व नहीं था ।
16वीं शताब्दी से अर्वाचीन साम्राज्यवाद का श्रीगणेश हुआ । यह प्रधान रूप से आर्थिक कारणों से आरम्भ हुआ । इसका नारा था- “साम्राज्यवाद का झण्डा व्यापार का अनुगमन करता है या व्यापार झण्डे का अनुगमन करता है ।” औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप यूरोप के व्यापारियों ने पिछड़े देशों में साम्राज्यों की स्थापना की ।
यूरोप की अनेक व्यापारिक कम्पनियां एशिया और अफ्रीका के देशों में कार्य करने लगीं । भारत के साथ व्यापार के लिए अंग्रेजों ने 1600 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी स्थापित की । इसी प्रकार कम्पनियां डचों ओर फ्रेंचों ने भी स्थापित कीं । इनसे भी पहले स्पेन और पुर्तगाल ने अमरीका महाद्वीप और पूर्वी देशों में अपने व्यापारिक अड्डे व साम्राज्य बनाए ।
सन् 1880 तक अफ्रीका महाद्वीप का अधिकांश भाग स्वतन्त्र था । उसके बाद इसके विभिन्न प्रदेशों को अपने साम्राज्य का अंग बनाने के लिए यूरोप के देशों में प्रबल होड़ हुई । प्रथम विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले पश्चिमी देशों के साम्राज्यवाद का उत्कर्ष उपर्युक्त चित्र से स्पष्ट हो जाता है ।
इस समय सबसे बड़ा साम्राज्य ग्रेट-ब्रिटेन का था । इसमें समूचे भू-मण्डल की चौथाई जनसंख्या और निवास योग्य धरती का चतुर्थांश सम्मिलित था । इसमें अंग्रेज लोगों की संख्या कितनी कम थी यह इस बात से स्पष्ट हो जाएगा कि इसमें एक अंग्रेज के पीछे 30 काली जातियों तथा अन्य जातियों के सदस्य थे । इसमें 31 करोड़ भारतीय, 4 करोड़ अफ्रीका के काले लोग, 60 लाख अरब तथा मलय एवं 10 लाख चीनी और 1 लाख कनाडा के रेड इण्डियन थे ।
केवल अफ्रीका में ही फ्रांस के पास 41.50 लाख वर्ग मील, इंग्लैण्ड के पास 35 लाख वर्ग मील जर्मनी के पास 10 लाख वर्ग मील और इटली बेलिजयम पुर्तगाल जैसे छोटे राज्यों में प्रत्येक के पास 10 लाख वर्ग मील के प्रदेश थे ।
अफ्रीका के केवल दो राज्य ही यूरोपियन राज्यों के साम्राज्यवाद से मुक्त रह पाए थे-एक तो एबीसीनिया का राज्य जिसे इटली ने 1896 में अपने साम्राज्य में लाने का विफल प्रयत्न किया था और दूसरा लाइबेरिया जिसे संयुक्त राज्य अमरीका ने स्वतन्त्रता प्रदान की ।
प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति पर राष्ट्रसंघ की स्थापना होने पर युद्ध में पराजित जर्मनी, टर्की, आदि के विभिन्न उपनिवेश तथा प्रदेश मित्रराष्ट्रों ने मैण्डेट के रूप में प्राप्त किए । यह पुराने साम्राज्यवाद का नवीन रूप था । इस व्यवस्था में राष्ट्रसंघ की ओर से इन प्रदेशों का शासन ब्रिटेन, फ्रांस, आदि को इस दृष्टि से दिया गया कि वे इन्हें स्वशासन करने की दृष्टि से योग्य बनाएं और इनके शासन की रिपोर्ट राष्ट्रसंघ को प्रतिवर्ष देते रहें ।
ब्रिटेन को टांगानिका, पैलेस्टाइन और इराक के, फ्रांस को सीरिया और दक्षिणी अफ्रीका के, दक्षिणी अफ्रीका को जर्मन-दक्षिणी पश्चिमी अफ्रीका के प्रदेश मिले । यूरोपियन शक्तियों का अनुसरण करते हुए जापान ने 1930 के बाद मंचूरिया के चीनी प्रदेश पर अधिकार कर लिया ।
इस समय विश्व की 84 प्रतिशत भूमि गोरी जातियों के साम्राज्यवाद का शिकार बन चुकी थी, जबकि पहले इनके पास 9 प्रतिशत भूमि ही थी । औद्योगिक क्रान्ति ने राष्ट्रीय स्पर्द्धा की भावना को तीव्र किया । यूरोपीय देशों को कच्चा माल चाहिए था और तैयार माल बेचने के लिए बाजार चाहिए थे । इस प्रकार साम्राज्यवाद ने आर्थिक स्वरूप ग्रहण किया ।
यूरोप के व्यापारी धन-लाभ के लिए पूंजी लगाने लगे जिससे उन्हें अधिक लाभ होने लगा । उपनिवेशों में व्यापार तथा विनियोग की सुविधा के साथ-साथ राजनीतिक और प्रशासनिक नियन्त्रण भी स्थापित किया गया । इस प्रकार पूंजीवाद से साम्राज्यवाद की स्थापना हुई ।
कालान्तर में पूंजीवाद के साथ-साथ साम्राज्यवाद का सम्बन्ध राष्ट्रीय गौरव और सैनिकवाद से भी जुड गया । बड़ा साम्राज्य सैनिक दृष्टि से उपयोगी था और उससे राष्ट्रीय अहं की तुष्टि होती थी । मुसोलिनी का कहना था कि फासिस्टवाद के लिए सीमा विस्तार अथवा साम्राज्यवाद अनिवार्य है क्योंकि इसके अभाव में राष्ट्र की आत्मा क्षीण हो जाती है ।
आज साम्राज्यवाद ने ‘डॉलर साम्राज्यवाद’ तथा ‘सांस्कृतिक साम्राज्यवाद’ का रूप ग्रहण कर लिया है । बड़ी शक्तियां आर्थिक सहायता और सांस्कृतिक सहयोग के नाम पर अपना प्रभाव-क्षेत्र बढ़ाने में लगी हुई हैं । कतिपय विद्वान ‘साम्यवाद’ को नूतन साम्राज्यवाद कहकर पुकारते हैं ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद साम्राज्यवाद का बड़ी तेजी से हास हुआ है क्योंकि प्रधान साम्राज्यवादी देशों-इंग्लैण्ड तथा फ्रांस-की शक्ति दूसरे विश्वयुद्ध में इतनी क्षीण हो गयी कि वे अब सैनिक बल से उपनिवेशों पर अधिकार रखने में असमर्थ हो गए । द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के 25 वर्षों के भीतर ही अधिकांश उपनिवेश स्वतन्त्र हो गए । 1947 से 1963 के बीच में ब्रिटिश साम्राज्य के 75 करोड़ व्यक्ति स्वाधीन हुए ।
Essay # 4. साम्राज्यवाद के तीन प्रलोभन (Three Inducements to Imperialism):
मॉरगेन्थाऊ ने साम्राज्यवाद के तीन प्रलोभनों की चर्चा की है:
(1) विजयी युद्ध (Victorious War):
युद्ध में विजय प्राप्त करने वाले राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अपनी शक्ति स्थिति को बदलने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, भले ही युद्ध प्रारम्भ होते समय उनकी स्थिति कैसी और कुछ भी क्यों न रही हो । इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जबकि रक्षात्मक युद्ध भी साम्राज्यवादी युद्धों में परिवर्तित हो गए । प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् वार्साय सन्धि और उसकी उपसन्धियों का रूप साम्राज्यवादी बन गया था क्योंकि इसने युद्ध से पूर्व की यथास्थिति में परिवर्तन किया था ।
(2) पराजित युद्ध (Lost War):
युद्ध में पराजय भी साम्राज्य के निर्माण में सहायक बनती है । पराजित राष्ट्र अपनी निम्न स्थिति को स्थायी रूप से ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं होते तथा पुन: शक्ति प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं । युद्ध में विजयी राष्ट्र साम्राज्यवादी बनते हैं, तो पराजित राष्ट्र भी खोए साम्राज्य को पाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं । सन् 1933 से द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति तक जर्मनी की साम्राज्यवादी नीति ऐसी ही भयानक प्रतिक्रिया की नीति थी ।
(3) कमजोरी (Weakness):
कमजोर राज्य शक्तिशाली राज्यों के लिए साम्राज्य निर्माण का आह्वान हैं । ऐसे क्षेत्र जिनमें कोई भी शक्तिशाली राष्ट्र नहीं होता (राजनीतिक शक्ति शून्य की स्थिति) उपनिवेश निर्माण के आकर्षक स्थल होते हैं । हिटलर ने 1940 में यह स्पष्ट अनुभव कर लिया था कि यूरोप में उसका मुकाबला करने योग्य कोई शक्ति नहीं है । सोवियत संघ का पूर्वी यूरोप के देशों पर आधिपत्य भी इसी शक्ति-शून्यता का ही परिणाम था ।
Essay # 5. साम्राज्यवाद के तीन लक्ष्य (Three Goals of Imperialism):
मॉरगेन्थाऊ के अनुसार, साम्राज्यवाद तीन विशेष परिस्थितियों से उपजता है । इसी कारण साम्राज्यवाद तीन विशेष लक्ष्यों की ओर अग्रसर होता है । साम्राज्यवाद का लक्ष्य सम्पूर्ण धरती के राजनीतिक रूप से संगठित प्रदेशों के ऊपर प्रभुत्व स्थापित करना होता है अर्थात् एक विश्वव्यापी साम्राज्य स्थापित करना या फिर एक महाद्वीपीय सीमा के अन्तर्गत साम्राज्य अथवा नायकत्व की ओर लक्षित हो सकता है या फिर वह पूर्णरूप से स्थानीय क्षेत्र में प्रभुत्व को अपना लक्ष्य बना सकता है ।
संक्षेप में, क्षेत्रीय विस्तार की दृष्टि से साम्राज्यवाद के तीन लक्ष्य हो सकते है:
(1) विश्व साम्राज्य (World Empire):
जब एक शक्तिशाली राष्ट्र सम्पूर्ण विश्व पर आधिपत्य स्थापित करना चाहता है और अपने साम्राज्य-विस्तार की किसी भी सीमा को स्वीकार नहीं करना चाहता तो विश्व साम्राज्यवाद होता है । सिकन्दर महान्, रोमन साम्राज्य, 7वीं-8वीं शताब्दी में अरब, नैपोलियन तथा हिटलर की साम्राज्यलिप्सा विश्वव्यापी थी । इनके साम्राज्य विस्तार की कोई तर्कसंगत सीमा नहीं होती और इनके बढ़ते साम्राज्य को न रोका जाए तो इनका उद्देश्य पूरे अन्तर्राष्ट्रीय जगत पर एकाधिपत्य करना होता है ।
(2) महाद्वीपीय साम्राज्य (Continental Empire):
एक निश्चित सीमा प्रदेश में अपने राष्ट्र की शक्ति को सुदृढ़ करना महाद्वीपीय साम्राज्यवाद कहा जा सकता है । यूरोप के राष्ट्रों ने समय-समय पर इसी नीति का पालन किया है । लुई चौदहवां, नेपोलियन तृतीय तथा विलियम द्वितीय का लक्ष्य पूर्ण यूरोप पर आधिपत्य स्थापित करना था । अमरीकी साम्राज्यवाद भी 19वीं शताब्दी में कुछ इसी प्रकार का था । मुनरो सिद्धान्त भी एक निश्चित क्षेत्र पर अपना प्रभाव स्थापित करने का सिद्धान्त था ।
(3) स्थानीय साम्राज्यवाद (Local Preponderance):
18वीं और 19वीं शताब्दी में यूरोप के कई सम्राटों की नीतियां स्थानीय साम्राज्य की नीतियां थीं । फ्रेडरिक महान्, लुई पन्द्रहवां, पीटर महान् तथा कैथरीन द्वितीय की परराष्ट्र नीतियां स्थानीय साम्राज्यवाद की नीतियां थीं । 19वीं शताब्दी में बिस्मार्क ने इस नीति का सफलतापूर्वक संचालन किया और निश्चित क्षेत्र में प्रशा की शक्ति को सुदृढ़ किया ।
मॉरगेन्थाऊ के शब्दों में- ”इस प्रकार की स्थानीय साम्राज्यवादी नीति महाद्वीपीय साम्राज्यवाद तथा विश्व साम्राज्यवाद में वही अन्तर है जो कि बिस्मार्क विलियम द्वितीय तथा हिटलर की वैदेशिक नीतियों का अन्तर है । बिस्मार्क मध्य यूरोप में जर्मनी का प्रभुत्व स्थापित करना चाहता था विलियम तमाम यूरोप में व हिटलर सम्पूर्ण जगत में ।”
इसी प्रकार रूस द्वारा फिनलैण्ड पूर्वी यूरोप, बाल्कान तथा ईरान पर नियन्त्रण का प्रयत्न स्थानीय साम्राज्यवाद के उदाहरण हैं । यह एक शासन की शक्ति और इच्छा पर निर्भर करता है कि वह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को ध्यान में रखते हुए किस प्रकार के साम्राज्य का निर्माण करे ।
Essay # 6. साम्राज्यवाद के तीन साधन (Three Methods of Imperialism):
मॉरगेन्थाऊ के अनुसार- जिस प्रकार विशेष परिस्थितिवश तीन प्रकार का साम्राज्यवाद उदित होता है तथा अपने लक्ष्य के अनुसार भी तीन प्रकार के साम्राज्यवाद होते हैं, उसी प्रकार साम्राज्यवादी नीतियों के साधन में भी तीन प्रकार की विभिन्नताएं स्थापित करना चाहिए-इन साधनों को मुख्यतया, सैनिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के नाम से पुकारा जाता है ।
वास्तव में तो सैनिक साम्राज्यवाद सैनिक विजय लक्षित करता है, आर्थिक साम्राज्यवाद अन्य लोगों का आर्थिक शोषण तथा सांस्कृतिक साम्राज्यवाद एक प्रकार की संस्कृति का दूसरी संस्कृति द्वारा हटाया जाना लक्षित करता है, परन्तु ये सब सदा एक ही साम्राज्यवादी लक्ष्य के साधन के रूप में काम करते हैं । वह लक्ष्य यथापूर्व स्थिति पलट देना (Overthrow of the Status Quo) होता है अर्थात् साम्राज्यवादी राष्ट्र तथा उसके होने वाले शिकार के शक्ति सम्बन्धों को पलट देना ।
(1) सैनिक साम्राज्यवाद (Military Imperialism):
सैनिक साम्राज्यवाद साम्राज्य निर्माण का सबसे स्पष्ट प्राचीन तथा दमनकारी तरीका है । सैनिक साम्राज्यवाद प्रत्यक्ष सैनिक आक्रमण के द्वारा अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । आधुनिक युग में इस तरीके का हिटलर, मुसोलिनी तथा तोजों ने प्रयोग किया था ।
एक साम्राज्यवादी राष्ट्र के दृष्टिकोण से इस पद्धति का लाभ यह है कि, सैनिक विजय के फलस्वरूप जो नए शक्ति सम्बन्ध स्थापित होते है उन्हें पराजित राष्ट्र द्वारा भड़काए हुए अन्य युद्ध द्वारा ही बदला जा सकता है और इस युद्ध में सफलता की सम्भावना प्राय: उस पराजित राष्ट्र की उतनी नहीं होती जितनी साम्राज्यवादी राष्ट्र की होती है ।
साधारणतया इस भांति का साम्राज्य-निर्माण युद्ध और अधिक युद्ध का परिणाम होता है । सिकन्दर, नैपोलियन एवं हिटलर सभी ने साम्राज्य-निर्माण में युद्ध का सहारा लिया । यह ठीक है कि युद्ध से साम्राज्य का निर्माण होता है तो युद्ध में पराजय से साम्राज्य का विघटन भी हो जाता है ।
(2) आर्थिक साम्राज्यवाद (Economic Imperialism):
आर्थिक साम्राज्यवाद सैनिक साम्राज्यवाद की भांति प्रभावशाली नहीं है, तथापि यह अविकसित देशों की घरेलू और विदेशी नीतियों को नियन्त्रित करने तथा उनका आर्थिक शोषण करने का प्रच्छन्न तरीका है । यह औद्योगिक युग और पूंजीवाद की देन है । इसका आधुनिक उदाहरण ‘डॉलर साम्राज्यवाद’ है ।
अरब जगत में ब्रिटिश प्रभुता आर्थिक नीतियों की उपज थी जिसे ‘तेल कूटनीति’ कहा जाता है । आर्थिक साम्राज्यवाद में यह आवश्यक नहीं कि एक देश विजयी और दूसरा अधीन हो । दो पूर्ण स्वाधीन राष्ट्रों में भी यह सम्बन्ध हो सकता है । एक देश यहां क्षेत्रीय विजय से नहीं आर्थिक नियन्त्रण से दूसरे देश की समस्त नीतियों का नियन्त्रण कर सकता है ।
एशिया अफ्रीका और लैटिन अमरीका के अनेक राज्यों की अर्थव्यवस्था पश्चिमी राज्यों द्वारा नियन्त्रित है । बहुराष्ट्रीय निगमों के माध्यम से इन पिछड़े देशों में पश्चिमी राष्ट्रों की पूंजी लगी हुई है । इस प्रकार के पूंजी नियोजन से कई लाभ हैं, इससे राष्ट्रीय पूंजीपतियों को बड़ा मुनाफा मिलता है इससे आवश्यक कच्चा माल सस्ते दामों पर प्राप्त हो जाता है वस्तुओं के निर्यात के लिए मण्डियां मिल जाती हैं तथा अन्य राज्यों की अर्थव्यवस्था को नियन्त्रित करने का साधन मिल जाता है ।
(3) सांस्कृतिक साम्राज्यवाद (Cultural Imperialism):
सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का लक्ष्य भू-क्षेत्रों की विजय अथवा आर्थिक जीवन का नियन्त्रण नहीं होता बल्कि लोगों के मस्तिष्कों पर विजय पाकर उन्हें नियन्त्रित करना होता है ताकि उनके माध्यम से दो राष्ट्रों के बीच शक्ति सम्बन्धों को पलट दिया जाए ।
यदि हम कल्पना करें कि ‘क’ राज्य की संस्कृति और विशेषकर उसकी राजनीतिक विचारधारा अपने तमाम ठोस साम्राज्यवादी लक्ष्यों के साथ ‘ख’ राज्य के तमाम नागरिकों के मस्तिष्कों को उसकी नीति के निर्धारण के लिए जीत लेती है तो ‘क’ की विजय किसी भी सैनिक विजेता अथवा आर्थिक स्वामी से कहीं अधिक पूर्ण होगी ।
विशेषकर यह नियन्त्रण समाज के उस वर्ग पर होता है, जो उस देश का शासन एवं नीति-निर्माता नेतृत्व वर्ग होता है । साधारणतया सांस्कृतिक साम्राज्यवाद सैनिक अथवा आर्थिक साम्राज्यवाद के सहायक के रूप में आता है ।
इसका एक प्रमुख आधुनिक उदाहरण है ‘पांचवीं पंक्ति’ (The Fifth Column) जिसका प्रयोग द्वितीय महायुद्ध के पूर्व आस्ट्रिया में किया गया, जबकि वहां की नाजीवादी सरकार ने जर्मन फौजों को देश पर कब्जा करने के लिए आमन्त्रित किया ।
नाजियों की पांचवीं पंक्ति ने फ्रांस और नार्वे में भी काफी सफलता प्राप्त की क्योंकि वहां की सरकार के भीतर और बाहर अनेक प्रभावशाली नागरिक देशद्रोही बन गए । वे नाजी दर्शन और उनके अन्तर्राष्ट्रीय लक्ष्यों के अनुयायी हो गए ।
मॉरगेन्थाऊ ने 1917 के बाद संसार के विभिन्न देशों में साम्यवादी विचारधारा के प्रसार को सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की अभिव्यक्ति माना हैम । संयुक्त राज्य अमरीका जब एशिया और अफ्रीका के देशों में अपने साहित्य का विशाल मात्रा में प्रचार करता है तो उसका मुख्य लक्ष्य सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का प्रसार होता है ।
सांस्कृतिक साम्राज्यवाद उपनिवेशवादी नीतियों में अभिवृद्धि के लिए ही अपनाया गया था । इसका उद्देश्य दूसरे देशों की जनता के आत्मसम्मान को नष्ट करना तथा हमेशा के लिए उनमें गुलामी की भावना को भरना है ।
Essay # 7. साम्राज्यवाद से राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि (Imperialism: Instrument for the Promotion of National Interest):
साम्राज्यवाद से राष्ट्रीय हितों में अभिवृद्धि इस प्रकार होती:
(1) आर्थिक लाभ:
साम्राज्य-निर्माण करने वाले देश को आर्थिक लाभ होता है । उपनिवेश कच्चा माल प्रदान करते हैं और तैयार माल बेचने के लिए बाजार का भी कार्य करते हैं । साम्राज्यवादी देश प्राय: आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बन जाते हैं ।
(2) शक्ति-निर्माण:
साम्राज्य सुरक्षा का भी कार्य करते हैं और शक्ति-निर्माण भी करते हैं । ब्रिटेन की शक्ति का आधार ब्रिटिश साम्राज्य था । उपनिवेशों से सैनिक प्राप्त हो सकते हैं । वस्तुत: अधीनस्थ देशों की सैन्य-शक्ति व उसके अन्य साधन साम्राज्यवादी शक्ति के अपने हो जाते हैं ।
(3) अविकसित देशों का कल्याण:
वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान को अविकसित देशों में पहुंचाना, असभ्य और बर्बर को सभ्य बनाना, अपने श्रेष्ठ ज्ञान से अविकसित देशों की भूसम्पदा को प्रकाश में लाना, आदि साम्राज्यवाद के लाभ हैं । साम्राज्यवाद के समर्थन में यह कहा जाता है कि उसने आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी हुई अफ्रीका तथा एशिया की जातियों को विज्ञान एवं आधुनिक प्रौद्योगिकी के साधनों से समृद्ध बनाया ।
Essay # 8. साम्राज्यवाद: मूल्याकन (Estimate of Imperialism):
साम्राज्यवाद प्रधान रूप से आर्थिक शोषण का एक बड़ा साधन रहा । पिछली शताब्दी में जे. आर. सीली तथा जे. ए. क्रैब जैसे ब्रिटिश इतिहासकारों ने एवं जे. ए. डबल्यू. बर्जेस तथा फ्रेंकलिन एच. गिडिंग्स जैसे अमरीकी समाजशासियों ने ब्रिटिश, अमरीकी और जर्मन साम्राज्यवादों का बड़ा गुणगान किया । साम्राज्यवाद के समर्थक उसके लाभों का भले ही अतिरंजित चित्रण करें किन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि साम्राज्यवाद ने विजित प्रदेशों को आर्थिक राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से बड़ी हानि पहुंचायी है ।
इसकी प्रधान हानियां और दोष निम्नलिखित हैं:
(i) सांस्कृतिक और नैतिक पतन का कारण:
साम्राज्यवाद पराधीन देश के नैतिक और सांस्कृतिक पतन के लिए उत्तरदायी है । साम्राज्यवादी देश अपनी सभ्यता और संस्कृति को पराधीन जातियों पर लादने लगते हैं । फलस्वरूप पराधीन जातियों की निजी सभ्यता और संस्कृति नष्ट हो जाती है । अत : नैतिकता के आधार पर कभी भी साम्राज्यवाद का समर्थन नहीं किया जा सकता ।
(ii) युद्ध और सैन्यवाद को प्रश्रय:
साम्राज्यवाद युद्ध और सैन्यवाद को प्रश्रय देता है । युद्ध से ही साम्राज्यों का निर्माण होता है और साम्राज्य-निर्माण के बाद भी सेना द्वारा ही उस पर आधिपत्य रखा जाता है । पहले तो यूरोपियन जातियां अपने साम्राज्य स्थापित करने के लिए एशिया-अफ्रीका की जातियों से लड़ी ।
शुरू में साम्राज्य-निर्माण के लिए इतना खून बहाना पड़ा कि एक आधुनिक लेखक के शब्दों में साम्राज्यवाद का पथ रक्तरंजित है । इसके बाद विजेता देशों में अपने उपनिवेशों को बढ़ाने और बनाए रखने के लिए आपस में भी युद्ध होते हैं ।
साम्राज्यवाद के कारण हुए युद्धों के कुछ उदाहरण हैं- 1892 में अमरीका का स्पेन के विरुद्ध युद्ध, 1899-1902 का ग्रेट ब्रिटेन-बोअर युद्ध, 1899-1902 का रूस-जापान युद्ध, 1911-12 का इटली-तुर्की युद्ध । प्रथम तथा द्वितीय विश्वयुद्धों का एक बड़ा कारण जर्मनी व इटली की साम्राज्यलिक्षा थी । साम्राज्यवाद बहुत समय तक विश्वशान्ति के लिए बड़ा खतरा बना रहा है ।
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(iii) शोषण व परतन्त्रता का हेतु:
साम्राज्यवाद के कारण कतिपय देशों को गुलाम बनाया जाता है । वहां के निवासियों पर अमानुषिक अत्याचार किए जाते हैं और उनका शोषण होता है । इस प्रकार साम्राज्य मानवता के लिए घातक है ।
(iv) अधीनस्थ देशों का आर्थिक शोषण:
साम्राज्यवादी देशों का साम्राज्य बनाने का प्रधान उद्देश्य अपने अधीनस्थ प्रदेशों का शोषण तथा उनकी सम्पत्ति का लाभ उठाना है । द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले तक ब्रिटेन की समृद्धि का प्रधान कारण उसके भारत जैसे विजित प्रदेश थे । उनका भारत में शासन करने का प्रधान ध्येय भारत की सम्पत्ति को लूटना था ।
पार्कर मून ने लिखा है कि- “अंग्रेजों का भारत में प्रवेश करने और यहां बने रहने का प्रधान कारण भारत को लाभ पहुंचाना नहीं अपितु ग्रेट ब्रिटेन को लाभ पहुंचाना था ।” इस प्रकार साम्राज्यवाद अधीनस्थ देशों की आर्थिक बरबादी, मानसिक दासता, नैतिकता एवं चारित्रिक अध:पतन, राजनीतिक गुलामी और सांस्कृतिक सम्पदा के विध्वंस का प्रधान कारण होता है ।