ADVERTISEMENTS:
Here is an essay on ‘India and the U.N.O.’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘India and the U.N.O.’ especially written for school and college students in Hindi language.
India and the U.N.O.
Essay Contents:
- भारत: संयुक्त राष्ट्रसंघ का एक प्रारम्भिक सदस्य (India: One of the Original Members of the U.N.O.)
- संयुक्त राष्ट्र चार्टर के उद्देश्य एवं सिद्धान्त भारतीय विदेश नीति के उद्देश्यों एवं सिद्धान्तों के अनुकूल (The Objects and Principles of the U.N. Charter are alike the Objects and Principles of India’s Foreign Policy)
- संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न अंगों में भारत की भूमिका (India’s Role in the Various Organs of the U.N.O.)
- संयुक्त राष्ट्र संघ की नीतियों के क्रियान्वयन में भारत की भूमिका (India’s Role in the Implementation of the Policies of the U.N.O.)
- संयुक्त राष्ट्र शान्ति स्थापना कार्यो में भारत का योगदान (India’s Role in the Peace Keeping Functions of the U.N.O.)
Essay # 1. भारत: संयुक्त राष्ट्रसंघ का एक प्रारम्भिक सदस्य (India: One of the Original Members of the U.N.O.):
भारत संयुक्त राष्ट्र के 51 प्रारम्भिक सदस्यों में से एक है । सन् 1945 में यद्यपि भारत स्वतन्त्र नहीं था परन्तु द्वितीय विश्व-युद्ध के समय एक मित्र राष्ट्र होने के कारण उसने सेनफ्रान्सिस्को सम्मेलन में भाग लिया । इस तथ्य के बावजूद कि सेनफ्रान्सिस्को सम्मेलन ने भारत के प्रस्ताव को अधिक नहीं माना फिर भी भारत ने घोषणा-पत्र के अन्तिम रूप का पूरी तरह समर्थन किया ।
ऐसा करने के कुछ महत्वपूर्ण कारण थे:
पहला:
घोषणा-पत्र का लक्ष्य विश्व-शान्ति को आगे बढ़ाना था तथा एक दूसरे युद्ध की व्यापक विभीषिका को रोकने के अतिरिक्त शान्ति के लिए लम्बे समय में भोजन, वस मकान और शिक्षा की बुनियादी आवश्यकता को प्राप्त करना था ।
दूसरा:
ADVERTISEMENTS:
जैसा कि जवाहरलाल नेहरू ने संकेत किया कि भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के साथ अपने को इसीलिए सम्बद्ध किया, क्योंकि यह राष्ट्रसंघ की अपेक्षा अधिक व्यापक व अच्छा था । संयुक्त राष्ट्र घोषणा-पत्र राष्ट्रसंघ के प्रतिज्ञा-पत्र का संवैधानिक सुधरा हुआ रूप ही नहीं था अपितु इसको राज्यों की एक बहुत बड़ी संख्या का समर्थन भी प्राप्त था जिसमें संयुक्त राज्य अमरीका जिसने राष्ट्रसंघ में शामिल होने से इन्कार कर दिया था इटली तथा जापान जिन्होंने उसका बहिष्कार किया था तथा सोवियत संघ जिसे निष्कासित कर दिया गया था, भी शामिल थे ।
तीसरे:
संयुक्त राष्ट्रसंघ के घोषणा-पत्र की लगभग सर्वतोन्मुखी प्रकृति ने संस्था को भारत की अन्तर्राष्ट्रीय आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का एक उचित मंच बना दिया, जिसकी भारतीय भूमिका के सही मूल्यांकन के लिए सही समझ आवश्यक है ।
संयुक्त राष्ट्र महासभा की प्रथम बैठक में ही भारत ने यह स्पष्ट कर दिया कि विश्व संस्था में वह एक नयी शक्ति एवं एक नये दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करता है । संयुक्त राष्ट्र एवं अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के प्रति भारत के अटूट विश्वास की व्याख्या करते हुए सन् 1946 में जवाहरलाल नेहरू ने कहा था- ”संयुक्त राष्ट्र के घोषणा पत्र के प्रति भारत का दृष्टिकोण हृदय तथा कार्यों से पूर्ण सहयोग एवं बिना संकोचपूर्ण समर्थन का है । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भारत उसकी सभी गतिविधियों में भाग लेगा जिससे उसकी भोगोहिक स्थिति आबादी और शान्तिपूर्ण उन्नति में सहयोग मिल सके ।”
ADVERTISEMENTS:
Essay # 2. संयुक्त राष्ट्र चार्टर के उद्देश्य एवं सिद्धान्त भारतीय विदेश नीति के उद्देश्यों एवं सिद्धान्तों के अनुकूल (The Objects and Principles of the U.N. Charter are alike the Objects and Principles of India’s Foreign Policy):
ADVERTISEMENTS:
संयुक्त राष्ट्र चार्टर के उद्देश्यों एवं सिद्धान्तों तथा भारतीय विदेश नीति के अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में निर्धारित उद्देश्यों एवं सिद्धान्तों में किसी प्रकार का विरोधाभास नहीं है । संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्य उद्देश्य हैं-अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा कायम रखना; अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का शान्तिपूर्ण समाधान करना सामाजिक आर्थिक सांस्कृतिक एवं मानवीय क्षेत्रों में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहित एवं पुष्ट करना ।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 51 में कहा गया है कि राज्य:
i. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि का,
ii. राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानपूर्ण सम्बन्धों को बनाये रखने का,
iii. संगठित लोगों के एक-दूसरे से व्यवहारों में अन्तर्राष्ट्रीय विधि और सन्धि-बाध्यताओं के प्रति आदर बढ़ाने का और
iv. अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा निपटाने के लिए प्रोत्साहन देने का प्रयास करेगा ।
इस प्रकार भारतीय संविधान में नीति निदेशक सिद्धान्तों वाले अध्याय में भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ में अपनी प्रबल आस्था को महत्वपूर्ण स्थान दिया है । इसी कारण भारत अपनी पहली अन्तर्राष्ट्रीय समस्या-कश्मीर का मामला-संयुक्त राष्ट्र संघ के समक्ष ले गया ।
Essay # 3. संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न अंगों में भारत की भूमिका (India’s Role in the Various Organs of the U.N.O.):
संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न अंगों में अपना स्थान बनाकर भारत ने सक्रिय भूमिका निभायी है । भारत 1950-51, 1965-66, 1972-73, 1977-78, 1984-85, 1991- 92 और 2011-12 वर्षों में सुरक्षा परिषद् का सदस्य निर्वाचित हो चुका है ।
संयुक्त राष्ट्र के दूसरे महत्वपूर्ण अंग आर्थिक-सामाजिक परिषद् में 2015-17 के लिए भारत को 10वीं बार सदस्य चुना गया । भारत संयुक्त राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार आयोग, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की अधिशासी परिषद्, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग तथा संयुक्त राष्ट्र नारकोटिक औषध द्रव्य के लिए पुन: निर्वाचित हुआ ।
न्याय परिषद् में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । उसने उपनिवेशवाद विरोधी रुख अपनाकर पराधीन देशों की स्वाधीनता पर बल दिया । सन् 1958 में पश्चिमी अफ्रीका में जो निरीक्षक मण्डल भेजा गया भारत उसका एक महत्वपूर्ण सदस्य था ।
भारत यूनेस्को के संस्थापक सदस्यों में से एक है । इसके सभी सम्मेलनों में भारत ने सम्मिलित होकर महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है । अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन खाद्य एवं कृषि संगठन तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन में भारत ने सक्रिय भूमिका निभायी है ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यक्रमों को भारत ने बड़ी तन्मयता से लागू किया है । भारत में स्वास्थ्य गांवों की सफाई परिवार एवं बाल कल्याण कार्यक्रम इसी की प्रेरणा से चल रहे हैं । संयुक्त राष्ट्र बाल आपात कोष का प्रादेशिक कार्यालय भी भारत में है ।
मार्च 1968 में नई दिल्ली में द्वितीय अंकटाड सम्मेलन आयोजित किया गया । अन्तर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और विकास बैंक का भारत संस्थापक सदस्य है । स्थापना के समय इसकी पूंजी में भारत का 5वां सबसे बड़ा भाग था । भारत को संयुक्त राष्ट्र महासभा के 49वें सत्र के उपाध्यक्ष के रूप में और स्थायी विकास आयोग के उपाध्यक्ष केरूप में भी निर्वाचित किया गया है ।
Essay # 4. संयुक्त राष्ट्र संघ की नीतियों के क्रियान्वयन में भारत की भूमिका (India’s Role in the Implementation of the Policies of the U.N.O.):
संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रमुख उद्देश्य हैं:
विश्व-शान्ति, नि:शस्त्रीकरण, साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद की समाप्ति, जातिभेद तथा रंगभेद नीति का विरोध तथा अन्तर्राष्ट्रीय कानून की प्रतिष्ठा स्थापित करना । भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के इन उद्देश्यों और नीतियों के क्रियान्वयन में सक्रिय भूमिका का निर्वाह कर रहा है क्योंकि ये नीतियां भारतीय विदेश नीति के आदर्शों एवं लक्ष्यों से मेल खाती हैं ।
प्रधानमन्त्री श्री नरसिम्हा राव ने 21 जनवरी, 1991 को सुरक्षा परिषद् की शिखर बैठक में भाग लिया । इस बैठक का केन्द्रीय विषय ”अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा बनाए रखने में सुरक्षा परिषद् का दायित्व” था । इस बैठक के अन्त में सुरक्षा परिषद् के अध्यक्ष ने एक वक्तव्य पढ़ा जिसमें शांति स्थापना तथा शांति बनाए रखने, सामूहिक सुरक्षा निरस्त्रीकरण और शस्त्र नियन्त्रण के सम्बन्ध में इसकी भूमिका का उल्लेख था ।
बैठक में भारतीय प्रधानमन्त्री ने अनेक सार्वभौमिक मुद्दों तथा इन मुद्दों को सुलझाने में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका पर भारत तथा गुट-निरपेक्ष विकासशील देशों के नजरिए को प्रभावपूर्ण ढंग से रखा । 27 सितम्बर, 2014 को महासभा के अपने सम्बोधन में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने सुरक्षा परिषद् के विस्तार की अपील करते हुए संयुक्त राष्ट्र को सुदृढ़ बनाने में भारत के पूर्ण सहयोग का भरोसा दिलाया ।
भारत द्वारा उपनिवेशवाद के अन्मूलन की मांग:
परतन्त्रता के युग में ही भारत ने एशिया एवं अफ्रीका के सभी राष्ट्रों को उपनिवेशवाद से मुक्त कराने का संकल्प किया था, अत: स्वाधीनता प्राप्ति के बाद उसने अपने कर्तव्य का पालन करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ से पराधीन राष्ट्रों को स्वतन्त्रता एवं न्याय दिलाने के लिए स्पष्ट और शक्तिशाली मांग प्रस्तुत की ।
भारत ने उपनिवेशवाद की भर्त्सना करते हुए उसे मानव गरिमा का अपमान तथा एशिया एवं अफ्रीका में पिछड़ेपन और गरीबी का कारण बताया । उसको एक ऐसी व्यवस्था निरूपित किया जो उसके प्रवर्तकों एवं शोषितों दोनों को ही तुच्छ बनाती है ।
उसने यह भी कहा कि उपनिवेशवाद शान्ति एवं प्रगति के लिए बाधक तथा संयुक्त राष्ट्र घोषणा-पत्र का उल्लंघन है । भारत ने उपनिवेशों और उनकी जनता को स्वतन्त्र करने की मांग करते हुए अन्य सदस्य राष्ट्रों के साथ मिलकर एक प्रस्ताव रखा जिसे सन् 1950 में संयुक्त राष्ट्र ने स्वीकार कर लिया ।
संयुक्त राष्ट्र ने सन् 1961 में इस प्रस्ताव के क्रियान्वयन की जांच करने के लिए एक विशेष समिति का गठन किया । भारत इस समिति का एक सदस्य है और उसने उसके कार्यों में सक्रिय भाग लिया हे । भारत ने इण्डोनेशिया, मलाया, लीबिया ट्यूनीशिया साइप्रस, अल्जीरिया आदि की स्वतन्त्रता का प्रबल समर्थन किया । संयुक्त राष्ट्र में भारत द्वारा उपनिवेशवाद के विरुद्ध तथा सभी के लिए स्वतन्त्रता के अभियान का ही परिणाम था कि 50 वर्षों में 60 से अधिक उपनिवेशों को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई ।
भारत द्वारा नस्लवाद एवं रंगभेद नीति का विरोध:
जातिभेद एवं नस्लवाद की नीति मानव गरिमा एवं विश्व-शान्ति के लिए एक बड़ा अभिशाप है, जिसके विरुद्ध भारत निरन्तर संघर्ष कर रहा है विशेष रूप से रंगभेद नीति के विरुद्ध, जिसे दक्षिणी अफ्रीका की अल्पमत गोरी सरकार अपना रही है ।
सन् 1946 में महासभा के प्रथम अधिवेशन में ही भारत ने दक्षिणी अफ्रीका के भारतीय मूल के निवासियों के प्रति अपनायी जा रही जातिभेद नीति का प्रश्न उठाया था । महासभा ने एक प्रस्ताव पारित करके जातिभेद को संयुक्त राष्ट्र घोषणा-पत्र का विरोधी घोषित कर दिया ।
इस प्रस्ताव से दक्षिणी अफ्रीका के उन लोगों में बल आशा तथा उत्साह का संचार हुआ जो जातिभेद के विरुद्ध संघर्ष में जुटे हुए थे । भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के सभी प्रस्तावों को पूर्ण रूप से कार्यान्वित करने के लिए दक्षिण अफ्रीका सरकार से कूटनीतिक आर्थिक और वाणिज्य सम्बन्धों का विच्छेद कर लिया ।
सन् 1946 में ही भारत ने प्रिटोरिया से अपने उच्चायुक्त को वापस बुला लिया और उसके विरुद्ध आर्थिक अनुशास्तियों को लागू कर दिया । भारत के सद्प्रयत्नों से ही 6 नवम्बर, 1962 को महासभा ने यह प्रस्ताव पारित किया जिसमें सदस्य राज्यों से कूटनीतिक सम्बन्धों के विच्छेद करने सहित विविध कदम उठाने के लिए प्रार्थना की गयी थी- ”दक्षिणी अफ्रीका के माल का बहिष्कार किया जाये और उसे माल शस्त्रों और गोला-बारूद सहित निर्यात न किया जाये ।”
4 नवम्बर, 1977 को सुरक्षा परिषद् ने दक्षिण अफ्रीका की अस्त्रों और सम्बद्ध चीजों की पूर्ति पर प्रतिबन्ध लगाने वाले जिस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पारित किया उसे भारत के अनुरोध पर ही लीबिया ने विधिवत रूप से प्रस्तुत किया था ।
जब दक्षिणी अफ्रीका की सरकार ने दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका के प्रदेशाधीन क्षेत्र को संयुक्त राष्ट्र ट्रस्टीशिप व्यवस्था को सौंपना अस्वीकार कर दिया तब भारत ने दक्षिण अफ्रीका के इस कार्य की कानूनी वैधता को चुनौती दी थी । यहां तक कि दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद नीति (Policy of Aparthied) के खिलाफ अन्तर्राष्ट्रीय जनमत को जाग्रत करने के लिए भारत ने 1986 के राष्ट्रमण्डलीय खेलों का बहिष्कार किया ।
संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के स्थायी प्रतिनिधियों ने रंगभेद नीति के विरुद्ध विश्व जनमत का निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । भारत रंगभेद के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र विशेष समिति का संरक्षक है । भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा भारी बहुमत से पारित रंगभेद सम्बन्धी संकल्पों की रूपरेखा बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
भारत द्वारा नि:शस्त्रीकरण के प्रयासों का समर्थन:
संयुक्त राष्ट्र संघ का एक उद्देश्य नि:शस्त्रीकरण रहा है । भारत ने संयुक्त राष्ट्र के इस प्रयास में सदैव अपना सक्रिय योगदान दिया है । भारत की दृढ़ आस्था है कि नि:शस्त्रीकरण द्वारा जो धन शेष बचता है उसका उपयोग विकास एवं प्रगति में किया जाये । अपनी नीति के अनुकूल भारत परमाणु शक्ति का उपयोग केवल शान्तिपूर्ण कार्यों में ही करने के लिए कृतसंकल्प है । यथार्थ में परमाणु शक्ति के शान्तिपूर्ण एवं रचनात्मक उपयोगों के लिए परमाणु शक्ति जुटाने का सुझाव पं जवाहरलाल नेहरू की प्रेरणा पर पहली बार भारत ने ही संयुक्त राष्ट्र में प्रस्तुत किया था ।
भारत के डॉ.जे.एच. भाभा को परमाणु शक्ति के शान्तिपूर्ण उपयोगों पर आयोजित प्रथम संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया था । सन् 1963 ई. में जब परीक्षणों पर आंशिक प्रतिबन्ध की सन्धि हुई तो उस पर सर्वप्रथम हस्ताक्षर करने वालों में भारत भी था । संयुक्त राष्ट्र में नि:शस्त्रीकरण के सन्दर्भ में भारत ने समय-समय पर महत्वपूर्ण सुझाव प्रस्तुत किये हैं ।
सन् 1958 में महासभा के 13वें अधिवेशन में भारत ने दो प्रस्तावों पर बल दिया:
प्रथम:
समझौता होने की अवधि तक आणविक आयुधों के परीक्षण तुरन्त बन्द कर दिये जायें तथा
दूसरा:
आकस्मिक आक्रमण बन्द करने की सम्भावना के प्रश्न पर विचार किया जाये ।
महासभा ने नि:शस्त्रीकरण के सम्बन्ध में समझौता होने तक भारत का आणविक विस्फोट बन्द करने का सुझाव भारी बहुमत से स्वीकार कर लिया जिसका सोवियत संघ, अमरीका तथा ब्रिटेन आदि ने बहुत समय तक पालन भी किया ।
जून, 1968 में संयुक्त राष्ट्र में प्रस्तावित परमाणु अप्रसार सन्धि पर भारत ने कतिपय कारणों से हस्ताक्षर करने से इकार कर दिया । भारत ने मांग की कि उक्त सन्धि में कतिपय सुधार किये जाने चाहिए, ताकि जो राष्ट्र परमाणु अस्त्र सम्पन्न हैं, वे अब परमाणु अस्त्रों का निर्माण नहीं करेंगे तथा जिन राष्ट्रों के पास परमाणु अस्त्रों नहीं हैं, या जिनमें परमाणु अस्त्रों के निर्माण की क्षमता नहीं है, उन्हें परमाणु सम्पन्न देशों से किसी भी प्रकार का भय नहीं होना चाहिए, साथ ही परमाणु शक्ति सम्पन्न बड़े राष्ट्र यह घोषणा करें कि वे इस तरह के अस्त्रों का संग्रह न करके विश्व को शान्ति से रहने देंगे ।
संयुक्त राष्ट्र महासभा के 45वें सत्र में भारत ने नि:शस्त्रीकरण से सम्बद्ध दो संकल्प रखे:
पहले संकल्प का नाम:
”वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी विकास तथा अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा पर उसका प्रभाव” है ।
दूसरे संकल्प का नाम:
”नाभिकीय अस्त्रों के प्रयोग पर प्रतिबन्ध से सम्बद्ध अभिसमय” है जिसमें नाभिकीय युद्ध से पृथ्वी पर जीवन को उत्पन्न खतरे की ओर ध्यान दिलाते हुए ऐसे युद्ध को रोकने के तात्कालिक कार्य की ओर ध्यान दिलाया गया है ।
1991 के दौरान भारत तीन मुख्य बहुपक्षीय निरस्त्रीकरण मैचों पर अग्रणीय भूमिका निभाता रहा । वे मुख्य बहुपक्षीय निरस्त्रीकरण मंच हैं: जेनेवा में निरस्त्रीकरण सम्मेलन संयुक्त राष्ट्र निरस्त्रीकरण आयोग तथा संयुक्त राष्ट्र महासभा की प्रथम समिति । इसके अतिरिक्त जेनेवा में 9 से 27 सितम्बर, 1991 तक आयोजित तृतीय जैविकीय अस्त्र समीक्षा सम्मेलन में भी भारत ने महत्वपूर्ण योगदान किया ।
जनवरी 1993 में रासायनिक अस्त्र अभिसमय हस्ताक्षर के लिए खुल गया । भारत 131 अन्य देशों के साथ अभिसमय पर हस्ताक्षर करने वाले प्रथम देशों में एक बन गया । सीटीबीटी पर भारत ने हस्ताक्षर करने से इकार कर दिया क्योंकि भारत के अनुसार व्यापक परीक्षण-प्रतिबन्ध सन्धि (सी.टी.बी.टी.) को सार्थक बनाने के लिए यह जरूरी हे कि इसे विश्वव्यापी निरस्त्रीकरण के साथ जोड़ा जाए ।
1998 के दौरान भारत ने निरस्त्रीकरण सम्मेलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । अन्य विकासशील देशों के साथ-साथ भारत ने नाभिकीय निरस्त्रीकरण पर वार्ता आरम्भ करने पर बल दिया, जो सम्मेलन के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता का विषय रहा है ।
संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक सहायता एवं तकनीकी सहयोग कार्यक्रमों में भारत का योगदान:
भारत का विश्वास है कि विश्व के अधिकांश लोगों की आवश्यकताएं, बीमारी एवं निरक्षरता आदि समाप्त कर दी जायें तो देशों में फैली आपसी द्वेष एवं अशान्ति की भावना सरलता से समाप्त हो जायेगी । संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् तथा अन्य सहायक संस्थाओं के माध्यम से भारत अर्द्धविकसित राष्ट्रों के विकास की समस्याओं पर आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् का ध्यान आकर्षित करता रहा है ।
भारत आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् के संस्थापकों में से एक है । इस परिषद् के आधार पर ही थोड़े समय में अनेक विश्व संस्थाओं का गठन हुआ । इसमें खाद्य तथा कृषि संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन प्रमुख हैं ।
इनके अतिरिक्त अनेक विशेष एजेन्सियां, संयुक्त राष्ट्र विशेष निधि, पुनर्निर्माण तथा विकास के लिए अन्तर्राष्ट्रीय बैंक, संयुक्त राष्ट्र बाल संकट काल निधि, विश्व खाद्य कार्यक्रम तथा अनेक एजेन्सियां हैं । ये सभी संयुक्त राष्ट्र के विशाल कार्यक्षेत्र में आती हैं ।
भारत को कृषि अर्थतन्त्र के निर्माण में खाद्य एवं कृषि संगठन से तकनीकी सहायता मिली है । यूनेस्को के संस्थापक सदस्य होने के नाते भारत ने द्विपक्षीय यातायात में मुख्य रूप से हाथ बटाया जो अन्तर्राष्ट्रीय समझ एवं दो सरकारों के मध्य सहयोग के लिए एक नींव का काम करता है ।
इसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के सदस्य के रूप में भारत आरम्भ से ही संगठन के उद्देश्यों के विकास पर बल देता रहा है । इस संगठन की प्रशासनिक संस्था में भारत एक स्थायी सदस्य है । भारत अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के माध्यम से तकनीकी सहायता के आदान-प्रदान पर दृढ़ आस्था रखता है ।
इस दृष्टिकोण से वह संयुक्त राष्ट्र के तकनीकी सहायता के विस्तृत कार्यक्रम में पूर्ण रूप से भाग लेता रहता है । यूएनडीपी में भारत का वार्षिक अंशदान 4.5 मिलियन अमरीकी डॉलर है जो विकासशील देशों से सबसे अधिक है ।
भारत महासभा, ई.सी.ओ.एस.ओ.सी. तथा मानवाधिकार आयोग में सामाजिक तथा मानवीय मसलों पर विचार-विमर्श के दौरान सक्रिय भूमिका निभाता रहा है । इन मसलों पर भारत की नीति मानवाधिकार तथा सामाजिक न्याय और लोकतन्त्र के प्रति उसकी गहरी प्रतिबद्धता कानून के शासन तथा मानवाधिकारों के संरक्षण तथा संवर्द्धन और मूलभूत उन्मुक्तियों जैसे मसलों पर उसकी सिद्धान्तगत स्थिति पर आधारित रही है ।
संयुक्त राष्ट्र महासभा के 48वें अधिवेशन में इस आशय का एक प्रस्ताव कि आतंकवाद मानवाधिकारों के रास्ते का एक रोड़ा है, सर्वसम्मति से पारित हुआ जिसे दूसरे देशों के साथ मिलकर भारत ने पेश किया था और वर्ष 1993-94 के दौरान भारतीय राजनय की महत्वपूर्ण उपलब्धि है ।
Essay # 5. संयुक्त राष्ट्र शान्ति स्थापना कार्यो में भारत का योगदान (India’s Role in the Peace Keeping Functions of the U.N.O.):
संयुक्त राष्ट्रसंघ का मूल ध्येय अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बनाये रखना तथा अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान की व्यवस्था करना है । इस दृष्टि से भारत ने प्रारम्भ से ही संयुक्त राष्ट्रसंघ को सहयोग प्रदान किया है ।
कोरिया समस्या के समाधान में भारत का योगदान:
25 जून, 1950 को संयुक्त राष्ट्र को सूचना दी गयी कि उत्तरी कोरिया की सेनाओं ने दक्षिणी कोरिया के गणराज्य पर आक्रमण किया है । उसी दिन सुरक्षा परिषद् की बैठक हुई और उसमें यह घोषणा की गयी कि इस सशस्त्र आक्रमण से शान्ति भंग हुई है ।
सुरक्षा परिषद् ने युद्ध-विराम की मांग की, परन्तु दो-तीन दिन तक युद्ध चलते रहने पर परिषद् ने सिफारिश की कि संघ के सदस्यगण कोरियाई गणराज्य को सशस्त्र आक्रमण का मुकाबला करने के लिए तथा उस क्षेत्र में शान्ति की स्थापना करने में सहायता दें ।
27 जून, 1950 को संघ ने यह घोषणा की कि उसने अपनी वायु तथा जल सेनाओं को और बाद में स्थल सेनाओं को भी दक्षिणी कोरिया की सहायता के लिए आज्ञा दे दी है । यह एक सच्चाई है कि कोरिया की समस्या के समाधान में भारत के सक्रिय योगदान से तीसरे महायुद्ध को टाला जा सका है । भारत की निष्पक्ष, किन्तु रचनात्मक भूमिका से उसकी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा बढ़ी ।
उत्तरी कोरिया को आक्रमणकारी घोषित करने के बाद भी भारत ने सैनिक कार्यवाही में भाग नहीं लिया । भारत ने युद्ध में तटस्थता की नीति का अनुसरण करते हुए शान्ति की स्थापना में मध्यस्थता के लिए भी प्रयास किया ।
उसने संयुक्त राष्ट्र की सेनाओं द्वारा 38वीं समानान्तर रेखा को पार किये जाने का विरोध किया । भारत ने संयुक्त राष्ट्र में अमरीका के उस प्रस्ताव का विरोध किया जिसमें साम्यवादी चीन को आक्रान्ता घोषित किया गया था ।
कोरिया की समस्या सुलझाने के लिए भारत ने चीन को संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधित्व प्रदान करने का प्रस्ताव रखा । कोरिया में शान्ति स्थापित करने के लिए भारत ने दोनों पक्षों को अपने अथक् प्रयासों से सहमत किया ।
युद्ध-विराम सन्धि के मार्ग में आने वाली युद्धबन्दियों की अदला-बदली की बाधा को दूर करने के लिए भारत का योगदान ऐतिहासिक महत्व रखता है । यह बात उल्लेखनीय है कि भारत के प्रयास के फलस्वरूप ही 27 जुलाई, 1953 को पानमुन जोन में कोरिया युद्ध-विराम सन्धि पर हस्ताक्षर हुए ।
युद्धबन्दियों की समस्या को हल करने के लिए पांच तटस्थ राष्ट्रों का एक आयोग नियुक्त किया गया जिसकी भारत ने ही अध्यक्षता की । इस सन्दर्भ में भारत के जनरल थिमैया का योगदान अत्यधिक महत्व रखता है ।
तटस्थ राष्ट्रों के आयोग के अध्यक्ष के रूप में भारत पर तीन उत्तरदायित्व डाले गये:
1. भारत इस आयोग का अध्यक्ष नियुक्त हुआ और इसे आयोग के कार्य पूर्ण कराने का भार सौंपा गया ।
2. भारत को युद्धबन्दियों की देखभाल एवं सुरक्षा का भार सौंपा गया ।
3. भारतीय रेडक्रास दल को युद्धबन्दियों से सम्बन्धित सपूर्ण चिकिस्ता कार्य सौंपा गया ।
युद्धबन्दी प्रत्यावर्तन आयोग के अध्यक्ष जनरल थिमैया थे । वैकल्पिक अध्यक्ष हेग में भारत के राजदूत बी.एन.चक्रवर्ती थे । भारतीय अभिरक्षक दल के अध्यक्ष मेजर जनरल थोराट थे । सितम्बर के अन्त में इस दल ने अपना कार्य प्रारम्भ किया । इस दल में 5,000 व्यक्ति रेडक्रास दल को मिलाकर सम्मिलित थे ।
भारतीय दल ने बड़ी दृढ़ता एवं निष्पक्षता से अपना कार्य किया, यद्यपि उसमें उसे बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा क्योंकि युद्ध-विराम की शर्तों का दोनों दलों द्वारा पूर्ण रूप से पालन नहीं किया जा रहा था । जनवरी 1954 में दोनों दलों ने सारे युद्धबन्दियों को मुक्त करने का निश्चय किया । आयोग ने बाईस हजार युद्धबन्दी संयुक्त राष्ट्र संघ की कमान को सौंपे ।
कोरिया में भारत ने अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य किया । दो पक्षों के मध्य युद्ध-विराम को लेकर जो तनाव था उसे भारत ही अपनी तटस्थ एवं गुट-निरपेक्षता की नीति के कारण कम कर सका । भारत के इस कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी ।
हिन्द चीन की समस्या और भारत:
द्वितीय महायुद्ध से पूर्व हिन्द चीन पर फ्रांस का अधिकार था, परन्तु युद्ध में इसे जापान ने जीत लिया । जापान के आत्म-समर्पण के समय हिन्द चीन के उत्तरी भाग पर राष्ट्रवादी चीन ने तथा दक्षिणी भाग पर ब्रिटेन ने अधिकार कर लिया । फ्रांस ने दक्षिणी भाग ब्रिटेन से प्राप्त कर लिया ।
वियतनाम में स्वाधीनता-प्राप्ति के लिए वियनमिन्ह नामक संस्था की स्थापना हुई जिसने फ्रांस से मुक्ति पाने के लिए संघर्ष प्रारम्भ कर दिया । चीन में साम्यवादी शासन स्थापित हो जाने पर सन् 1949 में वियनमिन्ह सेना ने साम्यवादी सहयोग के आधार पर फ्रांस की सेनाओं पर भयंकर आक्रमण कर दिया ।
साम्यवादी प्रसार को रोकने के लिए अमरीका ने फ्रांस की सहायता की । पांच वर्ष तक युद्ध चलता रहा । 5 अप्रैल 1954 को अमरीकी सीनेट ने हिन्द चीन को साम्यवादियों के हाथ में जाने से रोकने का दृढ़ संकल्प किया । ऐसे संकटपूर्ण समय पर भारत ने युद्ध रोकने एवं दोनों पक्षों के मध्य समझौता कराने का हर सम्भव प्रयास किया । अमरीकी हस्तक्षेप से अन्तर्राष्ट्रीय संकट उत्पन्न हो गया था ।
25 अप्रैल सन् 1954 को भारत के प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने हिन्द चीन की समस्या के शान्तिपूर्ण समाधान के लिए जेनेवा सम्मेलन के विचार हेतु महत्वपूर्ण प्रस्ताव प्रस्तुत किया । उनका आग्रह था कि समस्त राष्ट्रों को चाहिए कि वे शान्ति एवं सन्धि सम्पन्न करने का वातावरण उत्पन्न करें ।
श्री नेहरू चाहते थे कि युद्ध-विराम के प्रश्न पर सबसे पहले विचार किया जाये एवं फ्रांस को हिन्द चीन की पूर्ण स्वतन्त्रता को शीघ्र ही स्वीकार कर लेना चाहिए । उनका यह भी अनुरोध था कि फ्रांस एवं हिन्द चीन स्वयं सीधी वार्ता करें ताकि युद्ध के वातावरण का अन्त हो सके ।
पं. नेहरू ने यह सलाह दी कि अमरीका सोवियत संघ ब्रिटेन तथा चीन एक ऐसा समझौता करें जिसमें यह निश्चय किया जाये कि युद्धरत पक्षों को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से कहीं से किसी भी तरह की सहायता न मिले । उनका विचार था कि जेनेवा सम्मेलन की प्रगति की रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र को दी जाये एवं समझौता करने के लिए उनकी सहायता भी आमन्त्रित की जाये ।
26 अप्रैल, 1954 से 27 जुलाई, 1954 तक जेनेवा सम्मेलन चला । अमरीका की अनिच्छा के कारण भारत इस सम्मेलन का सदस्य नहीं बनाया गया । भारत को आमन्त्रित न करने का कारण यह था कि भारत सम्मेलन की गतिविधियों पर दृष्टि रखने एवं सम्मेलन के बाहर रहकर शान्ति प्रयासों में सहायता देने की दृष्टि से जेनेवा भेजा ।
कृष्णमेनन ने वास्तव में यहां महत्वपूर्ण कार्य किया । विभिन्न राष्ट्रों के अध्यक्षों एवं प्रतिनिधियों से मिलकर उन्होंने ऐसे मतभेद भी दूर करवा दिये जिनसे वार्ता टूट जाने की सम्भावना उत्पन्न हो गयी थी । फ्रांस के एक राजनीतिज्ञ ने कृष्णमेनन को जोड़ने वाली जंजीर कहा । फ्रांस के प्रधानमन्त्री ने फ्रेंच नेशनल असेम्बली में समझौते के प्रयासों के लिए भारत की प्रशंसा की ।
21 जुलाई, 1954 को जेनेवा सम्मेलन में साम्यवादी चीन की उपस्थिति में युद्ध-विराम समझौते पर हस्ताक्षर हो गये, जिसके उपरान्त हिन्द चीन की राजनीतिक समस्याओं का समाधान करने के लिए तीन सदस्यों का एक अन्तर्राष्ट्रीय आयोग निर्मित किया गया जिसकी अध्यक्षता भारत को स्वीकार करनी पड़ी ।
कुवैत समस्या और भारत:
2 अगस्त, 1990 को कुवैत पर इराक के हमले के कारण संयुक्त राष्ट्रसंघ में खाड़ी संकट का मुद्दा छाया रहा । भारत ने कुवैत से इराक की फौजों की बिना शर्त वापसी तथा कुवैत की सम्प्रभुता तथा स्वाधीनता की बहाली की मांग की । भारत ने सुरक्षा परिषद् के संकल्पों के क्रियान्वयन के लिए अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय का साथ दिया ।
कम्बोडिया और भारत:
कम्बोडिया के मसले के सम्बन्ध में की गई पहलकदमियों की परिणति 23 अक्टूबर, 1991 को पेरिस में एक व्यापक शांति समझौते में हुई तब से संयुक्त राष्ट्र ने कम्बोडिया में संयुक्त राष्ट्र कार्मिकों की बड़े पैमाने पर तैनाती करने की दिशा में कदम उठाये हैं ।
कम्बोडिया में संयुक्त राष्ट्र अग्रिम दल तैनात किया गया जिसमें भारत ने भी अपना योगदान दिया । भारत ने कम्बोडिया के लिए संयुक्त राष्ट्र संक्रमणकालीन प्राधिकरण में भी भाग लिया । इस कार्य के लिए उसने सभी रैंकों के लगभग 1,300 सैनिक वहां भेजे ।
संयुक्त राष्ट्र के अन्य कार्यो में भारत का योगदान:
भारत ने संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न कार्यो में समय-समय पर सहयोग प्रदान किया है । भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ के झण्डे के अन्तर्गत सबसे पहला और सबसे बड़ा सैन्य समूह कोरिया में 1950 में भेजा गया । 6,112 लोगों का यह समूह 1954 तक वहां रहा । इसी प्रकार 1954 से 1970 तक भारत ने हिन्दचीन में लगभग सैनिक तैनात किए थे । मिस्र, लेबनान, इराक, ईरान में भारतीय शान्ति सैनिक भेजे गए थे ।
सन् 1956 ई. में भारत ने स्वेज संकट के समाधान हेतु संयुक्त राष्ट्र के अनुरोध पर संयुक्त राष्ट्र की आपात्कालीन सेना में अपने सैनिक भेजे । इसी तरह का सहयोग भारत ने कांगो के संकट के समय संयुक्त राष्ट्र की आपात्कालीन सेना में अपने सैनिक भेज कर किया ।
संयुक्त राष्ट्र के अनुरोध पर भारत ने सोमालिया में संयुक्त राष्ट्र कार्यवाही के लिए लगभग 1955 सैनिकों की एक ब्रिगेड भेजी जिसमें सभी रैंकों केलोग थे । भारत ने मोजाम्बिक में भी संयुक्त राष्ट्र कार्यवाही के लिए सैनिक भेजकर योगदान दिया जिसमें सभी रैंकों के लगभग 973 लोग थे ।
भारत ने एक बटालियन टुकड़ी संयुक्त राष्ट्र अंगोला वेरीफिकेशन मिशन पर जुलाई 1995 में भेजी । वर्ष 1996-97 के दौरान लगभग 1100 भारतीय सैनिक, स्टाफ अधिकारी और सैनिक पर्यवेक्षक अंगोला में तैनात रहे । भारत ने संयुक्त राष्ट्र, इराक कुवैत पर्यवेक्षक मिशन और लाइबेरिया में संयुक्त राष्ट्र पर्यवेक्षक मिशन के लिए सैनिक पर्यवेक्षक उपलब्ध कराए । बोस्निया और हर्जेगोविना में भी संयुक्त राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय कार्यबल के लिए भारतीय पुलिस पर्यवेक्षक तैनात किए गए ।
भारत ने संयुक्त राष्ट्र रवांडा सहायता मिशन, पर एक थल सेना बटालियन भेजी जिसमें 800 सैनिक और एक आन्दोलन नियन्त्रण यूनिट शामिल थी । भारत ने संयुक्त राष्ट्र हैती सहायता मिशन चरण-11 पर केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल की एक कम्पनी भेजी । नवम्बर, 1998 में दक्षिणी लेबनान में भारतीय इन्फैन्ट्री बटालियन के शामिल हो जाने से भारत संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना में दूसरा सबसे बड़ा सैनिक सहायता देने वाला देश बन गया ।
मई, 2005 में भारतीय सेना ने जवानों और अधिकारियों के एक बड़े दल के सूडान में तैनात किए जाने के साथ ही भारत संयुक्त राष्ट्र शान्ति सेना में सबसे अधिक योगदान करने वाला देश बन गया । मार्च 2000 में उपद्रवग्रस्त पश्चिम अफ्रीकी राष्ट्र सिएरा लियोन में शान्ति स्थापना के लिए तैनात संयुक्त राष्ट्र शान्ति सेना के कार्य में सहयोग के लिए भारतीय वायुसेना की एक टुकड़ी को ग्रुप कैप्टेन बी.एस.सिवाच के नेतृत्व में शामिल किया गया ।
कुल मिलाकर, भारत संयुक्त राष्ट्र शान्ति स्थापना कार्यों में सबसे बड़ा योगदान देने वाला देश रहा है और उसने अभी तक संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् द्वारा अधिदेशित 69 शान्ति स्थापना मिशनों में से 48 में 1,80,000 सैनिकों से ज्यादा को भेजा है ।
हाल ही में, भारत संयुक्त राष्ट्र शान्ति स्थापना के लिए सैन्य दल भेजने वाला तीसरा सबसे बड़ा योगदान देने वाला राष्ट्र रहा है, जिसके दस संयुक्त राष्ट्र शान्ति स्थापना मिशनों में 7,884 सेना और पुलिस कर्मी नियोजित हैं ।
मुख्य शान्ति स्थापना कार्यों में भारत की उपस्थिति में डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो (4035), दक्षिणी सूडान (2073), लेबनान (885), हेती (429), लाइबेरिया (250) और सीरिया इजरायल सीमा पर गोलन हाइट्स (190) शामिल हैं । चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में भारतीय सैनिकों और पुलिसकर्मियों द्वारा उच्च स्तरीय निष्पादन ने उन्हें विश्व भर में ख्याति प्रदान की ।
संयुक्त राष्ट्र संघ की निधि में भारत का आर्थिक अंशदान:
आर्थिक दृष्टि से भारत एक सम्पन्न राष्ट्र नहीं है, फिर भी आज भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के उन 48 सदस्यों में से एक है जिसने उसके व्यय के लिए अपने हिस्से का समूचा बकाया अंशदान चुकता कर दिया है।
संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दि शिखर सम्मेलन में भारत के प्रधानमन्त्री श्री वाजपेयी का सम्बोधन:
21वीं सदी में संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका पर विचार करने के लिए 6-8 सितम्बर, 2000 को सम्पन्न संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दि सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए भारत के प्रधानमन्त्री ने आतंकवाद के विरुद्ध संयुक्त कार्यवाही करने, संयुक्त राष्ट्र संघ की संरचना में सुधार करने तथा निर्धनता निवारण के लिए नई वैश्विक पहल करने का अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से आह्वान किया । सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के लिए भारत का पक्ष प्रस्तुत करते हुए उन्होंने भेदभाव रहित विश्वव्यापी परमाणु नि:शस्त्रीकरण पर बल दिया ।
निष्कर्ष:
भारत ने शान्ति स्थापना, नि:शस्त्रीकरण, उपनिवेशवाद के उन्मूलन, नवीन सदस्यों के विश्व संस्था में प्रवेश, आदि प्रश्नों पर संयुक्त राष्ट्र के साथ पूर्ण सहयोग किया एवं उसके आदर्शों में अपना विश्वास प्रकट किया । वस्तुत: भारत की विदेश नीति के लक्ष्य संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों से मिलते-जुलते हैं । भारत युद्ध से स्वयं बचना चाहता है और दूसरे देशों को भी इस भयंकर स्थिति से बचाना चाहता है ।
भारत का यह स्पष्ट मत है कि विश्व-शान्ति की कल्पना संयुक्त राष्ट्र संघ के बिना नहीं की जा सकती । यही एक ऐसी संस्था है जो विश्व को भय, अभाव व रोग से मुक्ति दिला सकती है । भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा किये गये शान्तिमय कार्यों, वैज्ञानिक अनुसन्धानों और आर्थिक एवं सामाजिक कार्यों में हिस्सा लिया है ।
भारत ही सम्भवत: एकमात्र ऐसा देश है, जिसने संयुक्त राष्ट्र संघ की उपेक्षा या उल्लंघना नहीं की । उदाहरणार्थ, कश्मीर के प्रश्न पर भारत ने यू.एन.ओ. के प्रस्तावों को स्वीकार किया है । पाकिस्तान के आक्रमणकारी होते हुए भी भारत ने यू.एन.ओ. की विराम सन्धियों के प्रस्तावों को स्वीकार किया है । यू.एन.ओ. की मांग पर भारत की शान्ति सेनाएं कोरिया, मिस्र और कांगो भेजी गयीं ।
भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के भिन्न-भिन्न अंगों का सक्रिय सदस्य भी रहा है । भारत छ: बार सुरक्षा परिषद् का सदस्य रहा है । संयुक्त राष्ट्र संघ को विश्वव्यापी बनाने में भारत की भूमिका अद्वितीय रही है । भारत संयुक्त राष्ट्र के शान्ति स्थापना बजट में अपना प्रादेशात्मक अंशदान देता रहा है और उसने संयुक्त राष्ट्र के शान्ति प्रयासों के रूप में कार्मिकों को भेजकर तथा वित्तीय अंशदान देकर काफी योगदान दिया है ।
ADVERTISEMENTS:
संयुक्त राष्ट्र में भारत के योगदान के परिप्रेक्ष्य में ही यह मांग की जा रही है कि सुरक्षा परिषद् का पुनर्गठन करते समय भारत को भी उसके स्थायी सदस्यों की श्रेणी में दर्जा प्रदान किया जाए । संयुक्त राष्ट्र महासभा के वे सत्र में आम बहस के दौरान अपने भाषण में भारतीय प्रतिनिधिमण्डल के नेता विदेश मन्त्री श्री प्रणव मुखर्जी ने कहा कि जनसंख्या, अर्थव्यवस्था का आकार, अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा कायम रखने में तथा शान्ति स्थापना में योगदान अथवा भावी क्षमताएं कोई भी मानदण्ड क्यों न हो-भारत सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बनने का पात्र है ।
प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 24 सितम्बर, 1998 को संयुक्त राष्ट्र महासभा को अपने सम्बोधन में मांग की कि विकासशील विश्व की हित चिंताओं को प्रतिलक्षित करने के लिए सुरक्षा परिषद में और प्रतिनिधित्व दिया जाए । उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि भारत इसके लिए योग्य और सामर्थ्यवान है और वह स्थायी सदस्यता के उत्तरदायित्व निभाने के लिए तैयार है ।
संयुक्त राष्ट्र महासभा में 23 सितम्बर, 2004 को अपने सम्बोधन में डॉ. मनमोहन सिंह ने सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी को प्रबलता से प्रस्तुत करते हुए कहा कि महत्वपूर्ण विषयों पर व्यापक प्रभाव वाले निर्णय करने वाली इस संस्था से विश्व की बड़ी जनसंख्या को अलग नहीं किया जा सकता ।
9 जून, 2005 को भारत समेत गुप-4 के सदस्य देशों ने सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता के लिए औपचारिक रूप से दावेदारी पेश की, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से वीटो के अधिकार पर दावा फिलहाल छोड़ दिया ।
ग्रुप-4 के सदस्य देशों ने अपने नए प्रस्ताव में 15 वर्ष तक वीटो के अधिकार का उपयोग न करने की बात कही तथा सुरक्षा परिषद् के 6 स्थायी और 4 अस्थायी सदस्य और बनाने का प्रस्ताव किया ।