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Here is an essay on ‘India’s Nuclear Policy’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. भारत की परमाणु नीति (India’s Nuclear Policy):
परमाणु नि:शस्त्रीकरण की दिशा में सन् 1968 की ‘अणु अप्रसार सन्धि’ (Non-Proliferation Treaty) एक महत्वपूर्ण दस्तावेज मानी जाती है, लेकिन भारत ने इस अप्रचुरण (नॉन-प्रोलिफरेशन) सन्धि पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया ।
इसके लिए भारत ने दो मुख्य तर्कों को अपना आधार बनाया:
पहला तर्क यह था कि:
इस सन्धि में इस बात की कोई व्यवस्था नहीं की गयी है कि चीन की परमाणु शक्ति से भारत की सुरक्षा किस प्रकार सुनिश्चित हो सकेगी और;
दूसरा तर्क यह था कि:
इस सन्धि पर हस्ताक्षर करने का अर्थ यह होता है कि भारत अपने विकसित परमाणु अनुसन्धान के आधार पर परमाणु शक्ति का शान्तिपूर्ण उपयोग नहीं कर सकता था । दूसरे तर्क का महत्व 18 मई, 1974 को और भी खुलकर हमारे सामने आया, जबकि भारत ने शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए एक भूमिगत परमाणु परीक्षण किया ।
यह परमाणु विस्फोट इसलिए किया गया था कि भारत को यह जानकारी हो सके कि परमाणु शक्ति के क्या-क्या शान्तिपूर्ण उपयोग हो सकते हैं और परमाणु शक्ति की सहायता से भारत अपने विकास कार्यों को किस प्रकार आगे बढ़ा सकता है ?
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इस विस्फोट से भारत के किसी भी उस वचन का खण्डन नहीं हुआ जो भारत समय-समय पर परमाणु शक्ति के उपयोग के बारे में अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को देता रहा है । पहली बात तो यह है कि मास्को परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (1963) में भी भूमिगत परीक्षणों पर कोई रोक नहीं लगायी गयी है और इसलिए भारत को इस बात के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता कि उसने मास्को सन्धि पर हस्ताक्षर करके भी उस सन्धि का अतिक्रमण किया है ।
दूसरी बात यह है कि परमाणु परीक्षण करने के बाद भारत ने यह बात बिल्कुल साफ कर दी थी कि भारत अपनी परमाणु शक्ति का उपयोग परमाणु अस्त्र बनाने में कभी नहीं करेगा । फिर भी भारत के परमाणु विस्फोट के विरुद्ध पाकिस्तान जैसे कुछ गिने-चुने देशों ने रोष प्रकट किया । परन्तु सोवियत संघ, यूगोस्लाविया, फ्रांस और अनेक विकासशील देशों ने अलग-अलग कारणों से भारत के परमाणु विस्फोट का स्वागत किया ।
भारतीय विस्फोट का सबसे बड़ा महत्व यह है कि इससे परमाणु शक्ति पर वर्षों से चले आ रहे महाशक्तियों के एकाधिकार को आघात पहुंचा । इसके अतिरिक्त इस विस्फोट का यह महत्व भी है कि भारत के परमाणु समुदाय में दाखिल होने से परमाणु देशों की एक नयी श्रेणी का जन्म हुआ ।
अब तक जो परमाणु देश रहे उन सभी देशों ने विध्वंसक हथियारों का निर्माण करने में अपनी शक्ति का उपयोग किया, परन्तु भारत किसी भी स्थिति में शस्त्र निर्माण के लिए परमाणु शक्ति का उपयोग करने के पक्ष में नहीं है ।
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यह सच है कि महाशक्तियां भी समय-समय पर परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण उपयोग की आवश्यकता पर जोर देती रही हैं । उनकी यह प्रवृत्ति रही है कि परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में किए जाने वाले अनुसंधान की सम्पूर्ण प्रक्रिया पर उनका एकाधिकार बना रहे ताकि यदि विकासशील देश शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु शक्ति का उपयोग करना चाहें तो भी उन्हें महाशक्तियों पर आश्रित रहना पड़े ।
नाभिकीय आयुधों के प्रसार को रोकने और पूर्ण निरस्त्रीकरण के प्रति भारत का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही साफ रहा है और इसे संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्दर और बाहर समय-समय पर स्पष्ट किया जा चुका है । भारत की दृष्टि में परमाणु अप्रसार सन्धि जिसे 5 मार्च, 1970 से लागू किया गया है भेदभावपूर्ण है, असमानता पर आधारित है तथा एकपक्षीय और अपूर्ण है ।
भारत का मानना है कि नाभिकीय आयुधों के प्रसार को रोकने और पूर्ण निरस्त्रीकरण के उद्देश्य की पूर्ति के लिए क्षेत्रीय नहीं, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किए जाने चाहिए । परमाणु अप्रसार सन्धि का मौजूदा ढांचा भेदभावपूर्ण है और नाभिकीय शक्तियों के हितों का पोषण करता है लेकिन दूसरी ओर नाभिकीय खतरे के साथ जी रहे भारत जैसे अनाभिकीय आयुध वाले देशों के वाजिब हितों की अनदेखी करता है ।
भारत के अनुसार वे कारण आज भी बुने हुए हैं जिनकी वजह से भारत ने अब तक इस सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं किए । बल्कि अब मध्य एशियाई गणतन्त्रों में व्याप्त राजनीतिक अनिश्चितता और स्वयं अमेरिका द्वारा पाकिस्तान के पास नाभिकीय आयुध होने की पुष्टि किए जाने से परमाणु अप्रसार सन्धि के सवाल पर भारत के पास और भी चौकसी के अलावा और कोई चारा नहीं रहा गया है ।
अमेरिका स्वयं इस तथ्य से परिचित है कि भारत नाभिकीय आयुध बनाने की दिशा में कोई कार्य नहीं कर रहा है लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में इस विकल्प का पूरी तरह परित्याग भी नहीं कर सकता । भारत की चीन से तुलना करना भी बेमानी है ।
हालांकि चीन ने परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर करने का फैसला किया है, फिर भी भारत अपनी इस धारणा पर टिका है कि यह सन्धि परमाणु शक्तियों के मुकाबले गैर-परमाणु देशों के साथ भेदभाव पर आधारित है ।
परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर के बावजूद चीन एक ताकतवर परमाणु देश ही रहेगा, क्योंकि परमाणु अप्रसार सन्धि भावी हथियारों पर ही रोक लगाती है और फिर चीन की सुरक्षा को ऐसा कोई खतरा भी नहीं जैसा भारत को है । जब तक परमाणु शक्तियां अपने भण्डारों को समाप्त करने का फैसला नहीं करतीं तब तक अप्रसार सन्धि से सिर्फ उनके एकाधिकार की पुष्टि ही होगी ।
अक्टूबर, 1992 में हरारे में हुए राष्ट्रमण्डलीय देशों के शासनाध्यक्षों के सम्मेलन के दौरान भारत के प्रधानमन्त्री नरसिम्हा राव से एक विदेशी पत्रकार ने पूछा था कि यदि अन्य देश अणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर करने के लिए तैयार हो जायें तो क्या भारत भी हस्ताक्षर करने के लिए तैयार हो जाएगा ?
प्रधानमन्त्री राव ने स्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया- ”अणु अप्रसार सन्धि पर भारत का रुख सुस्पष्ट है । वह दूसरों की देखादेखी इस सन्धि पर हस्ताक्षर कदापि नहीं करेगा । यदि उसने हस्ताक्षर करने का निर्णय किया तो वह इससे पहले अपने हितों और अपने भविष्य को सुरक्षित रखते हुए मामले के औचित्य पर पूरी तरह से विचार करेगा ।”
भारत का दृष्टिकोण अब भी इस दर्शन से निर्देशित है कि समयबद्ध ढंग से नाभिकीय शस्त्रों को समाप्त करने की वचनबद्धता अनिवार्य है । इस सन्दर्भ में भारत ने यह मांग की है कि नाभिकीय हथियारों के परीक्षण पर रोक लगाई जाए नाभिकीय अस्त्रों के निर्माण के उद्देश्य से विखण्डनीय सामग्री को मौजूदा स्थिति में जहां के तहां रोक दिया जाए और नाभिकीय अस्त्रों का प्रयोग करने या उसके प्रयोग की धमकी देने के निषेध के लिए एक अभिसमय सम्पन्न किया जाए और नाभिकीय अस्त्रों वाले राज्यों को लेकर बहुपक्षीय बातचीत की जाए जिसका उद्देश्य एक अन्तर्राष्ट्रीय साक्ष्यांकन व्यवस्था के अन्तर्गत पहले नाभिकीय अस्त्रों को कम करने और फिर इन्हें पूरी तरह समाप्त करने के लिए बातचीत करना हो ।
भारत द्वारा न्यूयार्क समीक्षा सम्मेलन का बहिष्कार:
सन् 1970 में अणु अप्रसार संधि (N.P.T.) अस्तित्व में आई थी । संधि के प्रावधानों के अनुसार 25 वर्ष बाद इसकी समीक्षा होनी थी । अत: 17 अप्रैल, 1995 से न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में लगभग चार सप्ताह का एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ ।
सम्मेलन में 178 देशों ने भाग लिया । सम्मेलन के निर्णयानुसार संधि को अनिश्चितकाल के लिए आगे लागू कर दिया गया । अपने विरोध को प्रखरता से दर्ज करवाने के लिए भारत ने इस न्यूयार्क समीक्षा सम्मेलन का बहिष्कार किया । वस्तुत: भारत ने इस संधि के भेदभावपूर्ण चरित्र का प्रारम्भ से ही विरोध किया है ।
भारत द्वारा सी.टी.बी.टी. पर हस्ताक्षर से इन्कार:
जून, 1996 में भारत ने सी.टी.बी.टी. अर्थात् व्यापक परमाणु परीक्षण रोक सन्धि पर हस्ताक्षर करने से स्पष्ट इकार कर दिया । भारत के अनुसार सी.टी.बी.टी. का प्रस्तावित दस्तावेज अपने वर्तमान स्वरूप में भेदभावपूर्ण, खामियों से भरा व बेहद अपूर्ण है । इससे भारत के व्यापक राष्ट्रीय व सुरक्षा हितों की पुष्टि नहीं होती । भारत के रुख से स्पष्ट है कि वह अपने राष्ट्रीय सुरक्षा हितों में अपने एटमी विकल्प को खुला रखेगा ।
भारत ने ‘व्यापक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि’ (C.T.B.T.) की सार्वभौतिक नाभिकीय निरस्त्रीकरण की एक क्रमिक प्रक्रिया के रूप में कल्पना की थी जिससे एक समयबद्ध रूपरेखा के भीतर सभी नाभिकीय हथियारों के पूर्णत: नष्ट होने का मार्ग प्रशस्त हो सके ।
भारत का यह भी विश्वास है कि व्यापक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि का उद्देश्य मात्र विस्फोटों के परीक्षण को बन्द करना नहीं था अपितु नाभिकीय हथियारों के गुणात्मक विकास और उनके परिष्करण को विस्फोट अथवा अन्य माध्यमों से रोकना था । व्यापक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि पर भारत के दृष्टिकोण पर आधारित संशोधनों पर ठोस भारतीय मूल प्रस्ताव 26 जनवरी, 1996 को पेश किए गए ।
भारतीय प्रस्तावों का आशय व्यापक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि को एक सहमत समयावधि के भीतर नाभिकीय हथियारों को समाप्त करने के साथ जोड़ना है । चूंकि भारतीय प्रस्तावों पर ध्यान नहीं दिया गया इसलिए भारत ने 20 जून, 1996 को इस आशा का एक ठोस वक्तव्य दिया कि भारत व्यापक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि को इसके वर्तमान रूप में स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि इसमें सार्वभौमिक नाभिकीय निरस्त्रीकरण की दिशा में एक उपाय के रूप में विचार नहीं किया गया है और यह भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में भी नहीं है ।
भारत का नाभिकीय विकल्प राष्ट्रीय सुरक्षा का एक अंग है और जब तक अन्य देश अपने हथियारों को एक समयबद्ध कार्यक्रम के भीतर समाप्त करने में अपनी अनिच्छा बनाए रखेंगे भारत अपने विकल्प पर कोई दबाव स्वीकार नहीं करेगा । जेनेवा में नि:शस्त्रीकरण के बारे में चल रहे 61 देशों के सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमण्डल की नेता अरुंधती घोष ने स्पष्ट कहा कि- ”भारत ऐसी सी.टी.बी.टी. पर ‘न अभी, न ही बाद में’ हस्ताक्षर करेगा ।”
अन्तर्राष्ट्रीय कानून और बहुपक्षीय सन्धि वार्ता में इस सन्धि को ‘लागू करने’ की यह शर्त असाधारण लगती है कि यह तभी लागू होगी जब भारत सहित अन्य 44 देश इसका अनुसमर्थन कर देंगे । भारत ने स्पष्ट कर दिया कि भारत के इस विषय पर स्पष्ट रवैये के बावजूद इस तरह के उल्लेख से भारत सी.टी.बी.टी. प्रारूप को स्वीकार किए जाने का विरोध करने के लिए बाध्य होगा ।
संयुक्त राष्ट्र महासभा के पुन: शुरू हुए 50वें सत्र में आस्ट्रेलिया ने जेनेवा में बातचीत के दौरान जिस मसौदा सन्धि पर मतैक्य नहीं हुआ था, उस मसौदे से मिलते-जुलते मसौदे का सन्धि पाठ पारित करने का एक संकल्प रखा ।
10 सितम्बर, 1996 को आस्ट्रेलिया के संकल्प पर हुए मतदान में भारत ने भूटान और लीबिया के साथ संकल्प का विरोध किया जबकि क्यूबा, तन्जानिया, लेबनान, सीरिया और मॉरीशस ने मतदान में भाग नहीं लिया । 158 देशों ने इस संकल्प के पक्ष में मत दिया ।
मतदान से पूर्व आम बहस हुई जिसमें नाभिकीय निरस्त्रीकरण के मुद्दे पर अनेक देशों ने अपने विचार प्रस्तुत किये । अनेक गुटनिरपेक्ष देशों ने एक समयबद्ध कार्यक्रम के भीतर नाभिकीय शस्त्रों को समाप्त करने की आवश्यकता पर बल दिया । 11 सितम्बर, 1996 को संसद में अपने स्वत: वक्तव्य में विदेशमन्त्री ने दोहराया कि भारत सन्धि पर अपना विरोध जारी रखेगा और इसके वर्तमान स्वरूप पर हस्ताक्षर नहीं करेगा ।
भारत द्वारा पोखरण में परमाणु परीक्षण (मई, 1998):
19 मार्च, 1998 को श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा गठबन्धन की सरकार सत्तारूढ़ हुई । गठबन्धन सरकार की नीतियों का राष्ट्रीय एजेण्डा जारी करते हुए श्री वाजपेयी ने विदेश नीति के बारे में कहा कि उनकी सरकार परमाणु नीति की समीक्षा करेगी एवं सभी विकल्प खुले रखेगी ।
भारत ने 11 एवं 13 मई, 1998 को अन्तर्राष्ट्रीय दबावों की परवाह नहीं करते हुए अपनी आणविक क्षमता को प्रमाणित कर दिया । राजस्थान के पोखरण क्षेत्र में कुल मिलाकर पांच परमाणु बमों का सफल भूमिगत परीक्षण करके देशवासियों को नया सुरक्षा कवच उपलब्ध कराया ।
भारत द्वारा 11 मई को तीन प्रकार के परमाणु परीक्षण किए गए थे:
i. थर्मोन्यूक्लियर परीक्षण,
ii. फिजन परीक्षण तथा
iii. लो-यील्ड परीक्षण ।
इन तीन परीक्षणों को बहुत ही नियन्त्रित ढंग तथा रेडियोधर्मी किरणों के प्रभाव को रोकते हुए करके भारत ने अपनी परमाणु अस्त्र बनाने की क्षमता को प्रदर्शित कर दिया । 13 मई को सब-किलोटन पद्धति के माध्यम से दो और परीक्षण करके भारत ने 500 से 1,000 किलोग्राम के परमाणु बम बनाने की क्षमता का प्रदर्शन किया ।
प्रधानमन्त्री ने घोषणा की कि भारत एक बड़े बम के साथ परमाणु हथियारों से सम्पन्न राष्ट्र बन गया है । प्रधानमन्त्री के वैज्ञानिक सलाहकार डॉ. अब्दुल कलाम के अनुसार पोखरण में किए गए पांच परमाणु परीक्षणों से भारत ने कम्प्युटर डिजाइनों के माध्यम से ही नए आणविक अस्त्रों का डिजाइन तैयार करने की क्षमता का विकास कर लिया है ।
डॉ. कलाम ने बताया कि भारत परमाणु क्षमता की तकनीकी दृष्टि से आत्मनिर्भर है । पांचों परमाणु परीक्षणों मैं प्रयुक्त की गई प्रक्रियात्मक सामग्री भी पूरी तरह स्वदेशी थी । भारत के अग्नि और पृथ्वी जैसे प्रक्षेपास्त्र आणविक अस्त्रों को आसानी से अपने साथ के जा सकते है ।
इन आणविक परीक्षणों के सन्दर्भ में प्रधानमन्त्री के प्रधान सचिव बृजेश मिश्र ने कहा कि भारत के सामने आणविक खतरा है । भारत का पड़ोस का वातावरण आणविक खतरों से भरा है । इन परीक्षणों का मुख्य उद्देश्य भारत के लोगों को देश की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त करना है ।
उनको यह विश्वास दिलाना है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के सम्बन्ध में देश के हितों को सर्वोपरि रखा गया है । ”इन परीक्षणों से किसी विधिक दायित्व का उल्लंघन नहीं हुआ तथा वे परीक्षण गम्भीर सुरक्षा आवश्यकताओं तथा एक तकनीकी अनिवार्यता के कारण किये गये ।”
देश की अन्दरूनी राजनीति में वाजपेयी ने वह कर दिखाया जिसे करने की हिम्मत कोई प्रधानमन्त्री अन्तर्राष्ट्रीय दबाव के कारण पहले नहीं जुटा पाया । परमाणु परीक्षणों के बारे में अन्तर्राष्ट्रीय प्रक्रिया तीव्र और तीखी रही । पाकिस्तान ने मात्र 17 दिन बाद 6 परीक्षण कर अपने लडाकू तेवर दिखा दिए ।
”पाकिस्तान द्वारा परमाणु परीक्षण किये जाने के निर्णय से इस बात की पुष्टि हो गई जिसका व्यापक स्तर पर विश्वास किया जाता था कि पाकिस्तान एक प्रच्छन्न नाभिकीय हथियार कार्यक्रम चला रहा था ।” अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने कठोर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिए तथा जापान, नीदरलैण्ड्स, डेनमार्क, स्वीडन व कुछ अन्य देशों ने भारत को द्विपक्षीय सहायता रोक दी । आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड ने नई दिल्ली से अपने उच्चायुक्तों को वापस बुलाने की घोषणा की ।
संक्षेप में ताजा परमाणु परीक्षणों के द्वारा महाशक्ति के क्लब में पहुंचने की कोशिश में भारत ने अपनी साधु सन्तों वाली छवि त्याग दी और राष्ट्रीय हितों को साधने के लिए यथार्थवादी मार्ग का अवलम्बन किया ।
इस प्रकार पोखरण-II के अन्तर्गत भारत द्वारा किए गए छ: परमाणु परीक्षणों ने भारत की परमाणु नीति में आमूल परिवर्तन ला दिया:
सर्वप्रथम:
भारत ने एक लम्बे अन्तराल तक इन्तजार (1974) के बाद अपने ‘शान्तिपूर्ण उद्देश्यों हेतु सीमित’ एवं ‘विकल्प खुला रखने’ वाले परमाणु कार्यक्रमों को छोड़कर अन्तत: परमाणु शस्त्र सम्पन्नता प्राप्त कर ली ।
द्वितीय:
इन परीक्षणों के माध्यम से भारत ने अपनी परमाणु हथियार बनाने की क्षमता का भी प्रदर्शन कर दिया ।
तृतीय:
ये परीक्षण केवल परमाणु क्षमता ही नहीं, अपितु भारत की तकनीकी क्षमता प्रदर्शन हेतु भी मील का पत्थर साबित हुए ।
चतुर्थ:
इन परीक्षणों के माध्यम से भारत ने ‘प्रयोगशाला परीक्षण’ अथवा ‘कम्प्युटर स्टीमुलेशन’ क्षमता भी प्राप्त कर ली ।
पंचम:
इनके माध्यम से सामरिक रूय से अब भारत को क्षेत्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सन्दर्भों में. प्रभावित करने की शक्ति भी प्राप्त हो गई है ।
षष्ठ:
अब भारत की स्थिति परमाणु क्षेत्र में शस्त्र नियन्त्रण एवं निरस्त्रीकरण की प्रक्रिया को बदलने वाले राष्ट्र के रूप में भी स्थापित हो गई है ।
अन्तत: भारत को अब राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु परमाणु अस्त्र बटन के नियन्त्रण एवं कमान की पद्धति विकसित करने की अनिवार्यता हो गई । इन परीक्षणों ने भारत की स्थिति परमाणु ‘प्रवेश द्वार पर खड़े’ राष्ट्र से परमाणु हथियार सम्पन्न राष्ट्र की बना दी है ।
एक प्रश्न पूछा जाता हैं-परमाणु राष्ट्र बनने से सम्बन्धित कठोर निर्णय लेकर भारत ने क्या हासिल किया ? इन उपलब्धियों को संक्षेप में इस प्रकार बताया जाता है:
पहला:
अपने हितों की खातिर अकेले किसी पथ पर चलना राष्ट्र तथा उस देश के नागरिकों की क्षमता की पहचान है । यह स्वतन्त्रता तथा क्षेत्रीय अखण्डता की रक्षा तथा उस पर टिके रहने की इच्छाशक्ति की कसौटी है । सम्भवत: इस अग्निपरीक्षा से क्षमता या सामर्थ्य का पता चलता है ।
दूसरे:
विशेषज्ञों और सत्ता संरचना के स्तम्भों को छोड्कर भारत के लोग अपनी वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकीय क्षमताओं के बारे में चिन्तित तथा अनिश्चित हैं । परमाणु विकल्प खुला रखने के सिद्धान्त से वे भ्रमित हैं । इन परीक्षणों से भारत के लोग निश्चित रूप से भारत की क्षमतओं तथा सम्भाव्यताओं से सन्तुष्ट हैं ।
तीसरे:
इन परीक्षणों से भारत की विदेश और रक्षा नीतियों के प्रति आत्मविश्वास तथा निर्णय लेने की शक्ति जाग्रत होती है । इस घटना से भारत में सकारात्मक मनोवैज्ञानिक तथा भावनात्मक दबाव महसूस किया गया है, हालांकि इस घटना को मापा नहीं जा सकता है ।
चौथे:
हमने अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को यह स्पष्ट सन्देश दिया कि हम परमाणु शक्ति-सम्पन्न राष्ट्र हैं तथा हमने सन्तोषजनक स्तर तक अपनी क्षमताएं देशज रूप से तैयार की हैं । यह एक आधारभूत वास्तविकता है तथा हमारी परमाणु शक्ति-सम्पन्न राष्ट्र के रूप में स्थिति के बारे में भले ही कानूनी तौर पर टालमटोल की जाए, परन्तु इस पर विश्व को राजी होना पड़ेगा । क्योंकि 1 जनवरी, 1968 से पहले हमारे पास परमाणु क्षमता नहीं थी ।
पांचवें:
इस उपलब्धि से विश्व तथा हमारी जनता को यह संकेत भी मिलता है कि चौबीस वर्ष तक पाबन्दियों के बावजूद यदि हमने संयम बरता तथा अनुशासन में रहे तो इसका अर्थ यह नहीं कि हम दुर्बल हैं या हमारे पास प्रौद्योगिकीय क्षमता का अभाव है । हमने अपनी इच्छा से संयम बरता तथा अपनी शक्ति और सम्भाव्यताओं के बारे में अच्छी तरह से जानकारी के आधार पर अपना रास्ता चुना ।
छठवें:
हमने चारों ओर सामरिक और सुरक्षा माहौल के प्रति अपनी साख की नींव रखी ।
सातवें:
हमने राजनीतिक अर्थ में परमाणु शक्तियों के बीच सामरिक सन्तुलन को बदल दिया । हमने एशियाई ताकतों के बीच सम्बन्धों के समीकरण भी बदल दिए ।
आठवें:
हमारी इस प्रौद्योगिकीय क्षमता से शान्तिपूर्ण प्रयोजनों की पूर्ति होगी तथा आर्थिक विकास में भी योगदान मिलेगा । अन्तत: किसी भी नई ग्लोबल व्यवस्था में भारत एक शक्ति होगा । भारत भावी ग्लोबल सुरक्षा के लिए अन्तर्राष्ट्रीय अनुमानों की अवहेलना नहीं कर सकता ।
भारत की परमाणु नीति:
भारत ने घोषणा की कि उसकी नाभिकीय (परमाणु) नीति निम्नलिखित होगी:
a. भारत एक न्यूनतम नाभिकीय निवारक बनाये रखेगा ।
b. भारत की किसी खुले उद्देश्य के कार्यक्रम अथवा शस्त्रों की किसी होड़ में शामिल होने की मांग नहीं है ।
c. भारत नाभिकीय हथियारों का पहले प्रयोग न करने और नाभिकीय हथियार सहित राष्ट्रों के विरुद्ध प्रयोग न करने की नीति का अनुमोदन करता है ।
d. 13 मई, 1998 को नाभिकीय परीक्षणों पर एक स्थगन की घोषणा की गई । अभी भारत व्यापक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि सहित व्यापक मसलों पर प्रमुख वार्ताकारों के साथ बातचीत कर रहा है । वह इन चर्चाओं को एक सफल निष्कर्ष पर पहुंचाने के लिए तैयार है ताकि व्यापक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि के लागू होने में सितम्बर, 1999 से अधिक विलम्ब न हो ।
e. भारत निरस्त्रीकरण सम्मेलन में सच्ची भावना से नाभिकीय हथियार तथा अन्य नाभिकीय विस्फोटक यन्त्र के निर्माण के उद्देश्य से विखण्डनीय सामग्री के उत्पादन पर रोक लगाने के लिए एक सन्धि पर वार्ताओं में शमिल है ।
f. भारत अप्रसार के प्रति अपनी वचनबद्धता प्रदर्शित करने के लिए नाभिकीय हथियार निर्माण सामग्री एवं औद्योगिकी का हस्तान्तरण नहीं करेगा तथा निर्यात नियन्त्रण की एक कठोर प्रणाली का पालन करेगा ।
g. भारत का नाभिकीय शस्रागार नागरिक अधिकार और नियन्त्रण में है ।
h. एक राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् की स्थापना की गई तथा इसे सामरिक प्रतिरक्षा की समीक्षा करने के लिए कहा गया है ।
परमाणु निरस्त्रीकरण पर महासभा में 26 सितम्बर, 2013 को आयोजित एक उच्च स्तरीय बैठक में भाग लेते हुए भारत के विदेश मन्त्री ने एक समयबद्ध तरीके से परमाणु निरस्त्रीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए राजीव गांधी कार्ययोजना के मुख्य सिद्धान्तों पर आधारित परमाणु निरस्त्रीकरण हेतु भारत के निरन्तर सहयोग की पुरजोर तरीके से अभिपुष्टि की ।
उन्होंने इस बात पर बल दिया कि एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति के तौर पर भारत की एक विश्वसनीय जूनतम रोकथाम नीति और पहले प्रयोग न करने सम्बन्धी अपनी दृढ़ता है और वह परमाणु हथियारों की होड़ सहित किसी भी हथियारों के होड़ में शामिल होने से इन्कार करता है ।
Essay # 2. आणविक निरस्त्रीकरण की दिशा में किए गए प्रयत्न (Efforts in the Direction of Nuclear Disarmament):
आणविक निरस्त्रीकरण की दिशा में कतिपय महत्वपूर्ण प्रयल भी प्रारम्भ हुए । इस दिशा में 1963 की अणु परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि और 1968 की परमाणु अप्रसार सन्धि (Non-Proliferation Treaty, 1968) उल्लेखनीय हैं ।
5 अगस्त, 1963 को तीन अणुशक्ति सम्पन्न राष्ट्रों के विदेशमन्त्रियों ने मास्को में संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव की उपस्थिति में अणु परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि के अनुसार हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्रों ने अपने अधिकार-क्षेत्र में विद्यमान किसी भी प्रदेश के वायुमण्डल में बाह्य अन्तरिक्ष में प्रादेशिक अथवा महासमुद्रों के जल में कोई भी आणविक विस्फोट न करने का संकल्प लिया ।
1 जुलाई, 1968 को परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर हुए एवं उसी दिन अमरीका ब्रिटेन सोवियत संघ तथा 50 से अधिक राष्ट्रों ने उस पर हस्ताक्षर कर दिए । यह सन्धि 5 मार्च, 1970 से लागू कर दी गई । सन् 1968 में हुई सन्धि पर अब तक 150 देश हस्ताक्षर कर चुके हैं । इस सन्धि में ग्यारह धाराएं हैं ।
इस सन्धि के अन्तर्गत यह व्यवस्था है कि कोई भी अणुशक्ति वाले राष्ट्र अकेले या मिलकर अपने शस्त्र किसी भी अन्य राष्ट्रों का न देंगे । गैर-अणुशक्ति वाले देशों को अणु आयुध वाले राष्ट्रों से किसी भी प्रकार के आणविक अस प्राप्त करने का कोई प्रयास नहीं करना चाहिए ।
सन्धि पर हस्ताक्षर करने वाला प्रत्येक राष्ट्र आणविक शस्त्रों की होड़ को समाप्त करने तथा आणविक निरस्त्रीकरण को प्रभावशाली बनाने के लिए अपने उत्तरदायित्व को पालन करने के लिए बाध्य है । इस सन्धि के प्रारूप पर सबसे अधिक आपत्ति फ्रांस, इटली, पश्चिमी जर्मनी और भारत को थी ।
भारत ने कई कारणों से अब तक इस सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं जिसके परिणामस्वरूप उसे कई बार अमरीका आदि परमाणु क्लब के सदस्यों की कड़ी आलोचना का सामना भी करना पड़ा है । भारत के एक प्रमुख साप्ताहिक दिनमान ने इस सन्धि का विवेचन करते हुए लिखा- “भारत को परमाणु अस सम्पन्न चीन से जबरदस्त खतरा है और प्रस्तावित सन्धि इस खतरे को दूर नहीं कर सकती । कुल मिलाकर प्रस्तावित सन्धि का महत्व इतना रह जाता है कि सोवियत संघ और अमरीका अपने किसी भक्त राष्ट्र को परमाणु शस्त्र न देने के विषय में सहमत हो गये हैं और इस बात का पुष्ट प्रमाण यह है कि वे यह मानने लगे हैं कि भक्तों और चेलों को भुलाकर सीधे आपस में बांटकर खा लेना ज्यादा सुविधाजनक रहेगा और लाभप्रद भी । अगर प्रस्तावित सन्धि पर सम्बद्ध राष्ट्रों ने हस्ताक्षर कर दिए तो परमाणु अस्त्र सम्पन्न होने के नाते सोवियत संघ और अमरीका दो बड़े राष्ट्र पद पर कुछ और इत्मीनान से प्रतिष्ठित हो जाएंगे । निरीक्षण और नियन्त्रण सम्बन्धी व्यवस्था हो जाने पर वे वैज्ञानिक और औद्योगिक दृष्टि से विकसित किन्तु परमाणु असविहीन राष्ट्रों के परमाणु शक्ति कार्यक्रमों की जासूसी खुलेआम और विधिवत् कर सकेंगे ।”
Essay # 3. परमाणु बटन का प्रबन्ध (कंट्रोल कमांड, कम्युनिकेशन, कम्प्यूटिंग, इंटेलीजेंस एण्ड इन्फॉरमेशन): सी 4 आई 2 की घोषणा:
भारत ने प्रतिरक्षा क्षेत्र में महत्वपूर्ण पहल करते हुए अपनी पहली सामरिक परमाणु व मिसाइल कमान प्राधिकरण का 4 जनवरी, 2003 को गठन किया । प्राधिकरण में राजनीतिक परिषद् व कार्यकारी परिषद् शामिल होंगी । राजनीतिक परिषद् के प्रमुख प्रधान मन्त्री होंगे तथा परमाणु हथियारों के उपयोग सम्बन्धी अधिकार केवल इसी परिषद् के पास होंगे । वस्तुत: परमाणु बटन अब प्रधानमन्त्री के हाथ में रहेगा ।
परमाणु हथियारों का इस्तेमाल पहले हमले के बजाय जवाबी कार्यवाही के रूप में किया जाएगा । मन्त्रिमण्डलीय सुरक्षा समिति की 4 जनवरी, 2003 को प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में दो घंटे तक चली बैठक में यह निर्णय किया गया ।
बैठक में परमाणु तथा सामरिक बलों के प्रबन्धन एवं प्रशासन के लिए कमांडर-इन-चीफ (प्रमुख कमांडर) की नियुक्ति की स्वीकृति दे दी गई । यह जानकारी बैठक के बाद जारी एक बयान में दी गई । पोखरण (द्वितीय) में परमाणु परीक्षणों के पांच वर्ष तथा पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ की गैर परम्परागत युद्ध की धमकी के कुछ दिनों बाद भारत ने परमाणु कमान के गठन की घोषणा की ।
मन्त्रिमण्डलीय समिति ने स्थिति की समीक्षा की तथा किसी भी सम्भावित स्थिति में जवाबी परमाणु हमलों के लिए वैकल्पिक कमान शृंखला की व्यवस्था का भी अनुमोदन कर दिया । भारत ने 8 सूत्री परमाणु सिद्धान्त की भी घोषणा की । बयान में कहा गया कि भारत परमाणु हथियारों का पहले इस्तेमाल नहीं करेगा लेकिन भारतीय क्षेत्र में या दुनिया में कहीं भी भारतीय बलों पर परमाणु हमला होने पर जवाब के अन्तर्गत परमाणु विकल्प का इस्तेमाल होगा ।
जवाबी परमाणु हमला व्यापक होगा तथा इससे होने वाले नुकसान का अनुमान नहीं लगाया जा सकेगा । परमाणु सिद्धान्त में कहा गया है कि राजनीतिक नेतृत्व ही परमाणु कमान प्राधिकरण के माध्यम से जवाबी परमाणु हमलों के लिए अधिकृत कर सकेगा ।
परमाणु कमान की कार्यकारी परिषद् की अध्यक्षता राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार करेंगे । परमाणु सिद्धान्त में विश्वसनीय न्यूनतम परमाणु प्रतिरोधक का निर्माण व उसे बरकरार रखना शामिल है । परमाणु सिद्धान्त के प्रारूप पर मन्त्रिमण्डल की सुरक्षा समिति की दो बैठकों में विचार-विमर्श किया तथा इसे अन्तिम रूप दिया गया ।
परमाणु सिद्धान्त में गैर परमाणु हथियार वाले देशों के विरुद्ध परमाणु हथियारों का इस्तेमाल नहीं करने की बात भी कही गई है लेकिन साथ ही दोहराया गया है, कि भारत के खिलाफ या भारतीय बलों पर कहीं भी जैविक या रासायनिक हथियारों से बड़ा हमला होने पर देश जवाबी परमाणु हमले के विकल्प का इस्तेमाल करेगा ।
इसके अलावा परमाणु एवं प्रक्षेपास्त्र से सम्बन्धित सामग्री तथा प्रौद्योगिकी के निर्यात पर कड़ा नियन्त्रण, विखंडनीय सामग्री कटौती संधि में भागीदारी एवं परमाणु परीक्षणों पर स्वैच्छिक रोक जारी रखना शामिल है । भारत ने परमाणु हथियार मुक्त विश्व के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त की है तथा कहा कि वह प्रमाणित व भेदभाव रहित परमाणु निरस्त्रीकरण के द्वारा यह लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रतिबद्ध है ।
Essay # 4. भारत-संयुक्त राज्य अमरीका असैन्य नाभिकीय सहयोग समझौता:
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की जुलाई, 2005 में वाशिंगटन यात्रा के दौरान 18 जुलाई, 2005 को राष्ट्रपति जॉर्ज डबल्यू. बुश तथा प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के बीच भारत में शान्तिपूर्ण कार्यों हेतु नाभिकीय ऊर्जा के विकास एवं प्रयोग पर भारत-अमरीकी सहयोग को आगे बढ़ाने पर एक सहमति कायम हुई थी ।
इस सहमति को अन्तत: विधिक स्वरूप प्रदान करते हुए 2 मार्च, 2006 को नई दिल्ली में ‘भारत-संयुक्त राज्य अमरीका असैन्य नाभिकीय सहयोग समझौते’ पर राष्ट्रपति बुश तथा प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने हस्ताक्षर किए ।
इस समझौते के प्रमुख बिन्दु निम्न प्रकार हैं:
i. भारत अपने नाभिकीय रिएक्टरों को सैन्य कार्यों (नाभिकीय हथियारों का विकास एवं अनुसंधान) तथा असैन्य कार्यों (नाभिकीय विद्युत उत्पादन तथा अन्य शान्तिपूर्ण उपयोग) के आधार पर वगीकृत करेगा ।
ii. भारत वर्ष 2014 तक चरणबद्ध कार्यक्रम के अन्तर्गत अपने विद्यमान 22 नाभिकीय रिएक्टरों में से 14 नाभिकीय रिएक्टरों को अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी के सुरक्षा मानकों के दायरे में लाकर इन रिएक्टरों को निरीक्षण एवं सुदूर अनुश्रवण के लिए खोल देगा ।
iii. भविष्य में स्थापित होने वाले रिएक्टरों को सैन्य अथवा असैन्य वर्ग में रखने का अधिकार भारत का होगा ।
iv. यह समझौता परमाणु बम बनाने या कम-से-कम इसे बनाने की क्षमता रखने के भारत के अधिकार को स्वीकार करता है ।
v. भारत अपने फास्ट-ब्रीडर रिएक्टरों को अन्तर्राष्ट्रीय निरीक्षण एवं अनुश्रवण के दायरे से बाहर रखने के लिए स्वतंत्र है ।
vi. नाभिकीय ईंधन, नाभिकीय ऊर्जा विकास से सम्बन्धित सामग्री तथा नाभिकीय हथियारों और नाभिकीय विद्युत प्लाण्टों के निर्यात के मामले में भारत नाभिकीय आपूर्तिकर्ता समूह के मानकों को अपनाएगा ।
vii. इसके बदले में संयुक्त राज्य अमरीका भारत के असैन्य नाभिकीय रिएक्टरों को संवर्द्वित यूरेनियम (ईंधन) की आपूर्ति जारी रखेगा । इसके लिए संयुक्त राज्य अमरीका अपने नाभिकीय अप्रसार नियमों एवं कानूनों को संशोधित करेगा । इतना ही नहीं संयुक्त राज्य अमरीका अपने प्रभाव वाले नाभिकीय आपूर्तिकर्ता समूह के देशों को नए नाभिकीय अप्रसार नियमों के अनुरूप भारत को नाभिकीय ईंधन, नाभिकीय विद्युत गृहों की स्थापना हेतु आवश्यक प्लाण्ट तथा उपकरणों की आपूर्ति करने के लिए सहमत करेगा ।
viii. भारत किसी भी स्तर पर अपनी नाभिकीय ऊर्जा क्षमताओं को असैन्य एवं शान्तिपूर्ण कार्यों से सैन्य कार्यों हेतु विवर्तित नहीं करेगा ।
ix. नाभिकीय ईंधन की आपूर्ति में किसी भी स्तर पर कोई बाधा उत्पन्न करने पर भारत इस समझौते की अन्य शर्तों को मानने के लिए बाध्य है ।
x. यह समझौता भारत को अपना न्यूनतम सामरिक संहारक कार्यक्रम जारी रखने का भी अधिकार प्रदान करता है ।
इस प्रकार यह सहयोग समझौता भारत-अमरीकी सम्बन्धों के इतिहास में अभूतपूर्व है । फ्रांस,रूस,ब्रिटेन,जापान आदि बड़ी शक्तियों ने इस समझौते का स्वागत किया । शान्ति के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी के महानिदेशक डॉ. मोहम्मद-अल-बारदेयी ने भी इस समझौते को मान्यता प्रदान कर दी ।
इस समझौते से नाभिकीय क्षमता रखने वाले देश फ्रांस तथा रूस जहां भारत में नाभिकीय विद्युत संयन्त्र लगाए जाने में अपनी भूमिका एवं सम्भाव्यता को देखते हैं, वहीं ऑस्ट्रेलिया जैसे देश यूरेनियम आदि की आपूर्ति हेतु भारत को अच्छा ग्राहक मानते हुए इसे व्यापार बढ़ोतरी का एक साधन मानते हैं ।
इस समझौते को 27 जुलाई, 2007 को अमरीकी कांग्रेस के निचले सदन प्रतिनिधि सभा ने तथा 17 नवम्बर, 2007 को सीनेट ने स्वीकृति दे दी । समझौते के प्रभावी होने के लिए विधेयक के सीनेट संस्करण को प्रतिनिधि सभा द्वारा पारित संस्करण के साथ एकरूप करना आवश्यक था ।
अत: दिसम्बर, 2006 में राष्ट्रपति बुश एवं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच जुलाई, 2005 एवं मार्च 2006 में सम्पन्न परमाणु सहयोग समझौते को कार्यान्वित करने के लिए आवश्यक विधेयक को अमरीकी कांग्रेस ने पारित कर दिया ।
राष्ट्रपति बुश ने 18 दिसम्बर, 2006 को न्यूयार्क में एक विशेष समारोह में इस पर हस्ताक्षर किए जिससे यूनाइटेड स्टेट्स-इण्डिया पीसफुल एटामिक एनर्जी कोऑपरेशन ऐक्ट, 2006 नामक कानून (हेनरी हाइड कानून) अस्तित्व में आया ।
इससे तीन दशक के अन्तराल के पश्चात् एक बार पुन: भारत व अमरीका के बीच असैनिक परमाणु सहयोग शुरू होने का मार्ग प्रशस्त हुआ । किन्तु इसके लिए 45 सदस्यीय न्यूक्लीपर सप्लायर्स ग्रुप (NSG) की स्वीकृति भी आवश्यक है जिसे भारत को असैनिक नाभिकीय सहायता प्रदान करने के लिए अपने सदस्यों हेतु दिशा-निर्देशों को उदार बनाना होगा । एनएसजी की सहमति के बाद ही अमरीका सहित इसका कोई सदस्य देश भारत को असैनिक उद्देश्यों के लिए नाभिकीय सहायता उपलब्ध करा सकेगा ।
भारत-अमरीका असैन्य परमाणु संधि के अन्तर्गत समझौता 123 के मसौदे को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की राजनीतिक मामलों की समिति व सुरक्षा पर मंत्रिमण्डलीय समिति की संयुक्त बैठक में 25 जुलाई, 2007 को स्वीकृति प्रदान कर दी गई ।
इस समझौते का अनुमोदन अमरीकी प्रतिनिधि सभा तथा सीनेट द्वारा कर दिए जाने तथा नाभिकीय अप्रसार कानूनो को तद्नुसार संशोधित कर दिए जाने के साथ ही भारत में नाभिकीय संयन्त्र स्थापित करने की माँग में तेजी आने से अमरीका नाभिकीय रिएक्टर निर्माण उद्योग में नई जान फेंकेगा ।
जहां तक भारत का प्रश्न है तो इस समझौते के माध्यम से वह नाभिकीय विद्युत उत्पादन क्षमता (वर्तमान में मात्र 3,360 मेगावाट) में सकारात्मक तरीके से वृद्धि कर सकेगा । इससे हाइड्रोकार्बन पेट्रोलियम उत्पादों की बढ़ती मांग के दबाव को एक सीमा तक कम किया जा सकेगा ।
कूटनीतिक दृष्टि से इस समझौते के माध्यम से संयुक्त राज्य अमरीका ने विशव को यह संकेत तो दे ही दिया है कि सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण दक्षिण, दक्षिण-पूर्व तथा पूर्वी एशिया में भारत को अपने साथ रखकर इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बनाए रखते हुए चीन तथा रूस के बीच बढ़ती निकटता से उपजने वाली किसी भी सम्भावित चुनौती का सामना कर सकता है ।
अब तक भारत 8 देशों से असैन्य परमाणु करार कर चुका है जिनमें फ्रांस अमरीका रूस, कजाकिस्तान, नामीबीया, अर्जेन्टीना एवं कनाडा प्रमुख हैं । जहां तक भारत के भीतर राजनीतिक एवं नाभिकीय ऊर्जा विशेषज्ञों के स्तर पर इस समझौते का विरोध किए जाने का प्रश्न है तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, समाजवादी पार्टी अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थों के कारण इस समझौते का विरोध करने लगीं ।
नाभिकीय ऊर्जा क्षेत्र के विशेषज्ञ भी इस समझौते को दीर्घकाल में भारत के हित में नहीं मानते । परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष अनिल काकोदकर ने स्पष्ट शब्दों में यह आशंका व्यक्त की कि भारत के नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम को सैन्य एवं असैन्य वर्गों में विभाजित करना कोई आसान कार्य नहीं है ।
इस प्रकार के समझौते द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय निगरानी की व्यवस्था भारत को अपनी सामरिक नाभिकीय क्षमता विकसित करने के मार्ग में बाधा ही उत्पन्न करेगी । हमारे शास्त्रों में प्रलय और शिव के ताण्डव का विवरण है । इसका सूक्ष्म रूप हमने जापान में देख लिया । भूकम्प, सुनामी और ज्वालामुखी के साथ-साथ जो सबसे भयानक हुआ वह है न्यूक्लियर पावर प्लाण्ट्स का टूट जाना और विकिरण का फैल जाना । रूस के चेर्नोबिल में जो हुआ वह तो विश्व से छुपा लिया गया, पर जापान ने पूरे विश्व की आंखें खोल दीं ।
सबसे ज्यादा डर तो अंमरीका के सीनेटर जो लीबरमैन को लगा जिन्होंने अमरीकी सरकार को नए न्यूक्लियर पावर प्लाण्ट लगाने के लिए मना किया । मालूम हो कि अमरीका में पिछले तीस वर्षों से एक भी नया न्यूक्लियर पावर प्लाण्ट नहीं लगा है । वहां लगे 114 रिएक्टर को भी धीरे-धीरे बन्द करने के बारे में सोचा जा रहा है । शायद यह जानकारी ही उन लोगों को दुबारा सोचने पर मजबूर कर देगी, जो अमरीका-भारत असैन्य परमाणु करार पर इतरा रहे थे और अभी भी इतराते हें ।
जापान में भूकम्प व सुनामी की वजह से क्षतिग्रस्त फुकुशीमा संयंत्र जब बनाया गया तो उसे 79 तीव्रता के भूकम्प और 65 मीटर की सुनामी झेलने की शक्ति पर डिजाइन किया गया, लेकिन जब भूकम्प और सुनामी इस सीमा को लांघ गए तो विश्व की आंखें खुलीं । हमारे प्रधानमन्त्री ने संसद में कह तो दिया कि भारत के परमाणु संयंत्र सुरक्षित हैं लेकिन वे यह भी कह गए कि इस बात की जांच फिर भी की जाएगी कि वह कितने सुरक्षित हैं ।
अब भारत की बात करें । आज भारत में 20 रिएक्टर सक्रिय हैं, 6 बनाए जा रहे हैं और 22 नए रिएक्टर बनाने पर विचार चल रहा है अर्थात् देश के कुल ऊर्जा उत्पादन का 2.2 प्रतिशत ही हम अणु ऊर्जा से प्राप्त कर रहे हैं तो 28 और संयंत्र लगाकर वह भी बीस वर्ष बाद हम लगभग पांच हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन बढ़ा सकते हैं ।
आवश्यकता तो 1.50 लाख मेगावाट की आज ही है । तो क्यों करोड़ों-अरबों रुपए लगाकर हम यह जोखिम मोल ले रहे हैं ? और वह भी उस देश में जहां भ्रष्टाचार हर सरकारी इमारत की नींव ही कच्ची बनाता है, पुल गिर जाता है, हम कोई गारंटी नहीं ले सकते कि हमारे संयंत्र 8 रिक्टर स्केल के भूकम्प और 10 मीटर की सुनामी को झेल पाएंगे ।
प्रधानमन्त्री का यह बयान कि सरकार सभी संयंत्रों का ‘स्ट्रेस टेस्ट’ करा रही है हास्यास्पद है क्योंकि बनी हुई इमारत का वास्तविक ‘स्ट्रेस टेस्ट’ उसे तोड़े बिना नहीं हो सकता । हां, अनुमान लगाया जा सकता है कि संयंत्र कितना सुरक्षित है ।
इस देश का वास्तव में भगवान ही मालिक है जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय के एक जज साहब ने कहा । यहां इंजीनियर और डॉक्टर भी अपनी तकनीकी बात ब्यूरोक्रेसी और राजनीति के माध्यम से ही कहते हैं । हम जानते हैं अमरीका जानता है 8 कि अणु ऊर्जा भविष्य की ऊर्जा क्रान्ति नहीं है ।
हां, यह जरूर है कि अणु ऊर्जा को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता क्योंकि इसमें ऊर्जा उत्पादन के साथ-साथ और कारण भी हैं । अमरीका अपने कैलिफोर्निया स्थित रेगिस्सन में बहुत तेजी से सौर ऊर्जा पर कार्य कर रहा है । वह जानता है कि भविष्य की ऊर्जा सौर ऊर्जा है । अगर हम अमरीका को भारत में सौर ऊर्जा पर पैसा लगाने को कहें तो अणु ऊर्जा पर लगने वाले सारे पैसे का शायद 10 प्रतिशत ही काफी होगा इतने से ही हमें पूरी बिजली मिल जाएगी लेकिन हमारा ध्यान इस ओर नहीं है ।
सौर ऊर्जा की नीति आज तक पूर्ण रूप से नहीं बनाई गई । शायद इसमें भी भ्रष्टाचार घुस गया है । इस वर्ष के बजट में वैकल्पिक ऊर्जा के लिए 200 करोड़ रुपए का प्रावधान ही प्रधानमन्त्री ने रखा है । जो ताकत हमारी सरकार ने अणु समझौता करने पर लगाई थी अगर उसकी आधी ताकत भी गैर-परम्परागत विद्युत संयंत्रों पर लगाई जाती तो भारत खासकर राजस्थान काफी अधिक ऊर्जा प्राप्त कर सकता था ।
हमने तो अपने अणु संयंत्र बिना यह जांच किए ऐसे स्थानों पर लगाने शुरू कर दिए जो क्षेत्र भूकम्प संभावी है । जैतापुर (महाराष्ट्र) का क्षेत्र सिसमिक जोन-3 में आता है, पर धरती की मेग्नेटिक धुरी की बदलती स्थिति से सिसमिक जोन की तीव्रता दोगुनी हो जाती है, जैसा कि जापान में हुआ जहां सम्भावना 5.0 तीव्रता की मानी जाती है, पर भूकम्प आया 9.0 तीव्रता का ।
परमाणु क्षतिपूर्ति दायित्व विधेयक, 2010:
भारत में परमाणु संयंत्रों की स्थापना के बाद होने वाली सम्भावित दुर्घटनाओं के होने पर क्षतिपूर्ति का दायित्व किस पर तथा कितना होगा, इसके निर्धारण के लिए कानून की आवश्यकता थी । ‘प्राइस एण्डरसन एक्ट’ के अनुसार अमरीका में किसी तरह की परमाणु दुर्घटना होने पर इन कम्पनियों के सिर पर भारी जुर्माने की तलवार लटकती रहती है । केन्द्रीय सरकार ने लम्बे समय से सरकार एवं विपक्ष के मध्य विवाद का विषय रहे ‘नाभिकीय दुर्घटना दायित्व विधेयक, 2010’ को अगस्त 2010 में संसद से पारित करा लिया ।
मूलत: इस विधेयक में नाभिकीय दुर्घटना की स्थिति में क्षतिपूर्ति की अधिकतम सीमा 500 करोड़ रुपए प्रस्तावित की गई थी जिसे बाद में 1500 करोड़ रुपए कर दिया गया । इस विधेयक के अन्तर्गत अगर कहीं परमाणु हादसा हुआ तो एटमी प्लांट के सप्लायर पर भी कार्यवाही करने का प्रावधान किया गया है ताकि परमाणु सप्लायर्स देश की कम्पनियां हमें घटिया प्रौद्योगिकी एवं खराब तथा सस्ते उपकरण प्रदान न कर सके ।
निष्कर्ष:
भारत की परमाणु नीति में निरन्तर परिवर्तन होता रहा है । स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारत की नीति पूर्ण निरस्त्रीकरण के पक्ष में थी । उसने परमाणु शक्ति का विकास बम निर्माण करने के लिए नहीं, अपितु विकास कार्यों में परमाणु के प्रयोग के लिए किया ।
श्रीमती इन्दिरा गांधी का विचार था कि ”राष्ट्रीय हित में आवश्यक होने पर भारत सरकार शान्तिपूर्ण परमाणु विस्फोट करने में कोई संकोच नहीं करेगी । जनता सरकार ने शान्तिपूर्ण कार्यो में भी परमाणु परीक्षण बन्द कर दिए थे ।
मोरारजी देसाई ने 1978 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में स्पष्ट कहा था कि- ”भारत किसी भी हालत में परमाणु अस्त्र नहीं बनाएगा भले ही विश्व के सभी देशों के पास अस्त्र हो जाएं ।” परन्तु चीन और पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रमों के कारण भारत की सुरक्षा खतरे में पड़ने लगी ।
परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर न करने का निर्णय हमने अपने आधारभूत उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए किया । उसके बाद आने वाली सरकारों ने भारत के परमाणु विकल्प को सुरक्षित रखने के लिए राष्ट्रीय इच्छा को ध्यान में रखते हुए आवश्यक कदम उठाए । सी.टी.बी.टी. पर परमाणु विकल्प खुले रखे थे । हमने केवल इस विकल्प का उपयोग किया है ।