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Here is an essay on ‘Indo-American Relations’ especially written for school and college students in Hindi language.
स्वाधीनता से पूर्व भारत और अमरीका में कोई विशेष सम्पर्क नहीं था, क्योंकि ये देश बहुत दूर स्थित हैं और फिर भारत में अंग्रेज शासक जान-बूझकर भारत को दूसरे देशों के सम्पर्क में नहीं आने देना चाहते थे । अमरीका स्वयं द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व तक विश्व राजनीति में पार्थक्यवादी नीति का अनुसरण करता आ रहा था ।
बहुत कम संख्या में अमरीकी यात्री भारत आते थे, क्योंकि एक तो अमरीका को उस समय चीन और जापान को छोड़कर किसी एशियाई देश में रुचि नहीं थी, दूसरे भारत की गरीबी, अशिक्षा, अन्धविश्वास, आदि को लेकर विचित्र कहानियां अमरीका में प्रचलित थीं ।
यह सच है कि स्वतन्त्रता के पूर्व कुछ अमरीकी पत्रकार तथा लेखक भारत आए थे और उन्होंने भारत की गरीबी और पिछड़ेपन को चित्रित करने का प्रयास भी किया था । मिस मेयो द्वारा लिखित पुस्तक ‘मदर इण्डिया’ इसका प्रमाण है । तथापि सत्य यह है कि दोनों देशों के सांस्कृतिक, सामाजिक सम्बन्ध भी नाममात्र के थे ।
भारतीय विद्यार्थियों को भी अमरीका में अध्ययन के लिए हतोत्साहित किया जाता था । संयुक्त राज्य अमरीका का आप्रवास नियम प्रत्यक्ष रूप से भारत विरोधी था । इस नियम ने नागरिक के रूप में अमरीका में बसने के लिए भारतीयों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था ।
स्वामी विवेकानन्द और रामतीर्थ ने अमरीका जाकर अपने भाषणों द्वारा भारतीय धर्म तथा संस्कृति के बारे में फैली अनेक भ्रान्तियों को दूर किया । 1893 में स्वामी विवेकानन्द अमरीका गए जहां शिकागो में उन्होंने सर्वधर्म सम्मेलन में भाषण दिया ।
शिकागो धर्म सम्मेलन से पूर्व उनकी भेंट हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के विख्यात प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट से हुई । प्रो. राइट ने स्वामीजी को धर्म सम्मेलन के सभापति के नाम एक परिचय पत्र दिया । इस पत्र में डॉ. राइट ने यह लिखा था- ”यहां एक ऐसा व्यक्ति है जो अपने यहां के सारे विद्वान प्रोफेसरों की इकट्ठी विद्वत्ता से भी कहीं अधिक विद्वान है ।” विवेकानन्द का भाषण भारत की सार्वदेशिकता और विशाल हृदयता से ओत-प्रोत था जिसने वहां के हर श्रोता को मुग्ध कर दिया ।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भारत और अमरीका एक-दूसरे के सम्पर्क में आने लगे । भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के कई नेता अमरीका को लोकतन्त्र और स्वतन्त्रता का महान समर्थक समझते थे । 1911 में लाला हरदयाल ने अमरीका में गदर पार्टी की स्थापना की । 1917 में अमरीका में निवास करने वाले कतिपय भारतीयों ने एक इण्डियन होमरूल लीग की स्थापना की । 1927 में कुछ भारतीयों ने इण्डिया लीग नामक एक दूसरी संस्थ संयुक्त राज्य अमरीका में स्थापित की थी ।
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1943 में भारतीय स्वाधीनता राष्ट्रीय समिति की स्थापना वाशिंगटन में हुई थी । 1929 में सी.एफ. एण्ड्रूज तथा श्रीमती सरोजिनी नायडू ने भारतीय समस्या के प्रति अमरीकी जनता से सहानुभूति प्राप्त करने के लिए अमरीका का दौरा भी किया । ऐसा कहा जाता है कि उनकी यात्रा के परिणामस्वरूप भारतीय मामलों में अमरीकी जनता की अभिरुचि बढ़ी ।
भारत अमरीका को अब तक लोकतन्त्र और राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के समर्थक राष्ट्र के रूप में देखता था किन्तु 1927 के ब्रूसेल्स सम्मेलन में भारत का भ्रम टूट गया । लैटिन अमरीका देशों से कमाए प्रतिनिधियों ने जवाहर लाल नेहरू को बताया कि लैटिन अमरीका में संयुक्त राज्य अमरीका साम्राज्यवादी नीति का ही सहारा लिए हुए है ।
भारत लौटने के बाद कांग्रेस को दिए गए प्रतिवेदन में नेहरू ने लिखा- “भविष्य की सबसे गम्भीर समस्या अमरीकी साम्राज्यवाद होने जा रहा है ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दिन अब लद चुके हैं ।” भारत के कतिपय क्षेत्रों में यह धारणा प्रचलित है कि अमरीका के राष्ट्रपति स्वर्गीय रूजवेल्ट ने भारत को स्वतन्त्रता दिलाने में इंग्लैण्ड पर दबाव डालकर महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी ।
अमरीका की इस तथाकथित भूमिका को यदाकदा गौरवान्वित भी किया गया है, किन्तु वास्तव में देखा जाए तो यह धारणा निरे भ्रम पर आधारित है । भारत की आजादी की लड़ाई में अमरीकी प्रशासन ने कोई ऐसा रचनात्मक योगदान नहीं दिया जिसे भारतीय इतिहास में गौरवमय स्थान दिया जा सकता हो ।
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स्वर्गीय राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने भारत को बहुत सीमित औपनिवेशिक स्वराज देने की बात कही थी । सीमित दायरे में इसलिए कि अमरीकी नेताओं का मन्तव्य इने-गिने भारतीयों को प्रशासन का भागीदार बनाकर ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति अधिक वफादार बनाने से था ।
इसके अतिरिक्त उन्हें कोई सरोकार नहीं था । रूजवेल्ट ने यह भी कहा था कि- ”भगवान के लिए मुझे इस विवाद में मत धकेलो । यह मेरा काम नहीं है ।” लुई फिशर का तो यहां तक कहना था कि, ”स्वर्गीय राष्ट्रपति ने चर्चिल को जो पत्र लिखा था वह कभी प्रेषित ही नहीं किया गया ।”
इससे पूर्व भी अमरीकी प्रशासन ने भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के प्रति सहानुभूति दर्शाई हो इसका उल्लेख नहीं मिलता । बल्कि इसके विपरीत उनका यह दृष्टिकोण था कि इंग्लैण्ड के लोग इस पिछड़े हुए भू-भाग को सभ्य बनाने में जुटे हुए हैं ।
गैर-सरकारी क्षेत्र में कतिपय बुद्धिजीवियों ने भारत की स्वतन्त्रता की समस्या पर अवश्य दिलचस्पी दिखाई थी लेकिन वहां के प्रशासन ने इस भूभाग की राजनीतिक उथल-पुथल के प्रति सदा अनभिज्ञ रहना ही उचित समझा ।
सन् 1942 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ (भारतीय क्रान्ति) को कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार ने अमरीकी फौजों का उपयोग किया तो अमरीकी सरकार ने इसका विरोध नहीं किया । इससे भारतीय नेताओं को बड़ी निराशा हुई । 1945 के सेनफ्रांसिस्को सम्मेलन में जहां सोवियत विदेशमन्त्री ने स्पष्ट रूप से भारत को स्वतन्त्रता दिए जाने का समर्थन किया, वहां अमरीकन प्रतिनिधि ने कुछ भी नहीं कहा ।
भारत में सन् 1943 के महाकाल की घटना भी अमरीकी बेरुखी का ज्वलन्त उदाहरण है । यह महाकाल भारतीय इतिहास की एक प्रत्नयकारी घटना थी जिसमें लगभग तीस लाख लोगों को खाद्यान्न के अभाव में अपने प्राण गंवाने पड़े लेकिन इन संकट की घड़ियों में अमरीकी प्रशासन ने भारत को किसी भी तरह की सहायता देना उचित नहीं समझा ।
अमरीकी प्रशासन के इस बेरुखीपूर्ण रवैये के पीछे कारण स्पष्ट था । वह अपने मित्र इंग्लैण्ड को अप्रसन्न करना अथवा पशोपेश में डालना नहीं चाहता था । सन् 1946 में भारत को लगभग ऐसी ही स्थिति का पुन: सामना करना पड़ा ।
संकट की इन घड़ियों में भी ट्रूमैन प्रशासन का रवैया सहयोग का न होकर बेपरवाही का था । भारतीय खाद्यान्न प्रतिनिधित्व के अध्यक्ष रामास्वामी मुदालियर के बार-बार अनुनय-विनय के उपरान्त भी अमरीका की ओर से सहायता उपलब्ध नहीं हुई ।
अन्तरिम सरकार के गठन (1946) के तुरन्त पश्चात् भारत के प्रधानमन्त्री नेहरू ने अपने रेडियो भाषण में अमरीका के लोगों को बधाई सन्देश देते हुए यह आशा व्यक्त की थी कि अमरीका अन्तर्राष्ट्रीय जगत् में जिसे नियति ने प्रमुख स्थान दिया है अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा ।
इतना ही नहीं नेहरू ने भारत की संविधान निर्मात्री सभा में अमरीकी लोकतन्त्र और शासन-व्यवस्था की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी । भारत के साथ सहयोग और मैत्री की चाह अमरीकी क्षेत्र में भी विद्यमान थी । साम्यवादी चीन के उद्भव के पश्चात् भारत जैसे महादेश को मित्र बनाना अमरीका के लिए भी महत्वपूर्ण था ।
सन् 1950 में न्यूयार्क टाइम्स ने एशिया में साम्यवादी ज्वारभाटे को प्रतिबन्धित करने में भारत को एकमात्र नियन्त्रक शक्ति के रूप में देखा था । पत्र ने लिखा था कि, “एशिया के विद्यमान संघर्ष में नेहरू का समर्थन कई सैनिक डिवीजनों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है ।”
उपर्युक्त पृष्ठभूमि में भारत-अमरीकी सम्बन्धों का ढांचा खड़ा करने का प्रयत्न किया गया । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भारत-अमरीकी सम्बन्धों को सामान्य एवं मधुर बनाने की इच्छा दोनों ही देशों के नीति निर्माताओं के मन में होने के बावजूद अनेक मुद्दों पर मतभेद उभर कर सामने आने लगे ।
1947 के बाद भारत-अमरीकी सम्बन्धों की विकास यात्रा का निम्न प्रकार से अध्ययन करना अधिक सुविधाजनक होगा:
1. नेहरू युग और भारत-अमरीका सम्बन्ध ।
2. लाल बहादुर शास्त्री और भारत-अमरीका सम्बन्ध ।
3. श्रीमती इन्दिरा गांधी और भारत-अमरीका सम्बन्ध ।
4. जनता सरकार और भारत-अमरीका सम्बन्ध ।
5. राजीव गांधी और भारत-अमरीका सम्बन्ध ।
6. वी.पी. सिंह-चन्द्रशेखर और भारत-अमरीका सम्बन्ध ।
7. पी.वी. नरसिम्हा राव और भारत-अमरीका सम्बन्ध ।
8. एच.डी. देवेगौडा-इन्द्र कुमार गुजराल और भारत-अमरीका सम्बन्ध ।
9. अटल बिहारी वाजपेयी और भारत-अमरीका सम्बन्ध ।
10. डॉ. मनमोहन सिंह और भारत-अमरीका सम्बन्ध ।
1. नेहरू युग और भारत-अमरीका सम्बन्ध (1947-64) (Nehru And Indo-American Relation: 1947:64):
नेहरू युग में भारत-अमरीकी सम्बन्धों की नींव पड़ी । नेहरू का व्यक्तित्व और दर्शन अमरीकी नीति निर्माताओं की समझ से परे रहा । अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर उनकी समझ ह्वाइट हाउस और पेण्टागन से भिन्न थी, अत: ट्रूमैन, आइजनहावर, डलेस, कैनेडी और जॉनसन के लिए वे पेचीदा व्यक्तित्व ही बने रहे ।
नेहरू के बारे में आइजनहावर ने लिखा भी था कि- ”पण्डित नेहरू का व्यक्तित्व दुर्बोध और उपनिवेशवादी है ।” नेहरू को उन्होंने एक बुद्धिजीवी कुलीन और आत्मश्लाघी के रूप में ही देखा, भारत और एशिया की उभरती आकांक्षाओं के प्रतीक के रूप में नहीं ।
द्वितीय महायुद्ध के बाद वस्तुत: विश्व के इन दो लोकतान्त्रिक देशों के बीच एकदूसरे के मानस को समझने और तदनुसार नए परिप्रेक्ष्य में एका-दूसरे की भूमिका को स्वीकार करने की मनोवृति का अभाव रहा । स्वतन्त्र भारत की गुट-निरपेक्ष नीति प्रारम्भिक काल में अमरीकी शासकों की समझ से परे रही तो दूसरी ओर तीसरी दुनिया में अमरीका की महत्वाकांक्षी भूमिका भारत के लिए स्वीकार करना कठिन था ।
नेहरू के जीवनी लेखक डॉ. एस. गोपाल ने सन् 1949 में नेहरू द्वारा की गई अमरीका यात्रा के उपरान्त उनकी मनोव्यथा को व्यक्त करते हुए उन्हें उद्धृत किया है- “उन्होंने हर तरह मेरा स्वागत किया मगर वे मुझसे कृतज्ञता और सद्भाव से अधिक ‘कुछ’ चाहते थे और यह ‘कुछ’ मैं उन्हें नहीं दे सकता था । यह ‘कुछ’ न पाकर अमरीका को बड़ा क्षोभ हुआ । उसका स्वार्थपूर्ण सहानुभूति का जादू भारत से अपनी नीतियों की सौदेबाजी नहीं करा सका था ।”
नेहरू युग में भारत-अमरीकी मतभेद निम्न प्रश्नों (मुद्दों) पर उभरकर सामने आए:
i. साम्यबाद एवं साम्यवादी गुट:
साम्यवाद एवं साम्यवादी गुट के प्रति दोनों देशों के दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न थे । वस्तुत युद्धोत्तर काल में अमरीकी विदेश नीति का मूल आधार ही ‘साम्यवाद के प्रसार को रोकना रहा’ है । साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए अमरीका ने युद्धोतर काल में उन्हीं फासीवादी और तानाशाही शासनों का समर्थन किया जिनके विरुद्ध उसने द्वितीय महायुद्ध में भाग लिया था ।
इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए अमरीका ने अपने आपको ‘विश्व का पहरेदार’ बना लिया और सन्धियों व नाटो जेसे सैनिक संगठनों के निर्माण द्वारा साम्यवाद के प्रसार को रोकने का प्रयास किया । जो राष्ट्र समझौतों या सैनिक संगठनों के माध्यम से अमरीका से सम्बद्ध नहीं हुआ उसे विरोधी या ‘शत्रु’ या ‘सोवियत संघ का पिछलग्गू’ की संज्ञा दी गई । जॉन फोस्टर डलेस ने स्पष्ट कहा था कि ‘जो हमारे साथ नहीं वह हमारे विरुद्ध है ।’ दूसरी ओर भारत न तो स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय और न उसके बाद साम्यवादी हाथी से भयभीत था ।
भारत के लिए ‘साम्यवादी हौआ’ चिन्ता का इतना अधिक विषय नहीं जितना कि उसके लिए आर्थिक विकास का मुद्दा था । अपने आर्थिक विकास के लिए भारत को न केवल विदेशी आर्थिक सहायता की आवश्यकता थी, अपितु यन्त्रों और तकनीशियनों र्को भी आवश्यकता थी । अत: भारत दोनों महाशक्तियों से मैत्री चाहता था दोनों से आर्थिक सहायता चाहता था । अत: भारत ने अपनी निर्गुट नीति के कारण साम्यवाद के विरुद्ध अमरीका की भांति कभी कठोर दृष्टिकोण नहीं अपनाया ।
ii. उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद:
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भारत की विदेश नीति की एक प्रमुख विशेषता उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद एवं रंगभेद की कटु आलोचना करना रहा है । इसके विपरीत अमरीका ने औपनिवेशिक शक्तियों का समर्थक बनकर तीसरी दुनिया के राष्ट्रों में अपनी छवि को धूमिल कर दिया । उसकी सारी राजनीति और हित ब्रिटेन, फ्रांस पुर्तगाल स्पेन हॉलैण्ड जैसे पूर्व साम्राज्यवादी राष्ट्रों के साथ जुड़े हुए हैं ।
iii. गुट-निरपेक्षता:
नेहरू के नेतृत्व में भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति का वरण किया । भारत ने एशिया और अफ्रीका के राष्ट्रों को संगठित करने का प्रयत्न किया और वह गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों का नेतृत्व करने में सफल हो गया । अमरीकी विदेश नीति निर्धारकों को भारत की यह भूमिका कुछ रुचिकर नहीं लगी और वे इसको शंका की दृष्टि से देखने लगे ।
अमरीका को भारत एक जबरदस्त प्रतिरोधी के रूप में नजर आने लगा जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अमरीका से टक्कर लेने लगा था । तात्कालिक उपराष्ट्रपति निक्सन ने पाकिस्तान को सैनिक सहायता देने के लिए इसी बुनियाद पर जोरदार सिफारिश की थी कि, ‘उससे जवाहरलाल नेहरू के भारत के सुदृढ़ तटस्थतावाद का मुकाबला हो सकेगा ।’
iv. सैनिक गुटबन्दियां:
अमरीका ने शीत-युद्ध की राजनीति में साम्यवाद के परिरोधन हेतु द्विपक्षीय अथवा बहुपक्षीय सुरक्षा व्यवस्थाओं तथा सैनिक सन्धियों एवं मैत्रियों का निर्माण किया । इनमें प्रमुख हैं: रीओ सन्धि, नाटो सन्धि, एन्जस सन्धि, सीटो सन्धि आदि ।
इन सैनिक संगठनों तथा सन्धियों का मूल उद्देश्य सोवियत गुट को इस बात की चुनौती देना था कि हस्ताक्षरकर्ताओं में से किसी एक पर आक्रमण सब पर आक्रमण समझा जाएगा । पामर व पर्किन्स के अनुसार- ”साम्यवाद को रोकने के लिए अमरीका ने अपने आपको न केवल परम्परागत तथा नवीनतम शस्त्रों से सुसज्जित किया बल्कि अन्य राष्ट्रों को प्रत्येक प्रकार की सहायता देकर सैनिक अड्डे स्थापित करके सैनिक संगठन बनाकर एवं समझौते करके ‘स्वतन्त्र विश्व’ की स्थापना की, जिसकी सहायता से वह साम्यवादी गुट से टक्कर ले सेंके एवं शीत-युद्ध में उसकी स्थिति दृढ़ हो सके ।”
इसके विपरीत भारत हर प्रकार के युद्ध का विरोधी है चाहे वह गर्म युद्ध हो चाहे शीत-युद्ध । इसीलिए भारत ने सेनिक अड्डों की स्थापना का सैनिक समझौतों का एवं बड़ी शक्तियों द्वारा छोटे राष्ट्रों को सैनिक सहायता दिए जाने का विरोध किया ।
29 मार्च, 1956 को इन सैनिक सन्धियों की आलोचना करते हुए पण्डित नेहरू ने लोकसभा में कहा था, ”यह स्पष्ट है कि बगदाद पैक्ट ओर सीटो जैसी सैनिक सन्धियों की धारणा एक गलत और खतरनाक धारणा है यह नुकसानदेह धारणा भी है । इससे सभी गलत प्रवृत्तियों को बल मिलता है तथा अच्छी प्रवृत्तियां अवरुद्ध होती हैं ।” भारतीय दृष्टिकोण से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में गुटों का निर्माण विश्व-शान्ति एवं सुरक्षा के लिए हानिकारक है ।
v. कश्मीर:
दिसम्बर, 1947 में भारत ने कश्मीर विवाद संयुक्त राष्ट्र संघ के समाधान के लिए प्रस्तुत किया तो अमरीका ने भारत के विरुद्ध पाकिस्तान के पक्ष का समर्थन किया । प्रारम्भ में अमरीकी प्रतिनिधि ने संयुक्त राष्ट्र संघ में स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया था कि कश्मीर का भारत में विलय पूर्ण तथा. विधिवत् है, परन्तु बाद में अमरीका सहित पश्चिमी देशों ने सुरक्षा परिषद् में भारत विरोधी प्रस्ताव पारित कराने का प्रयत्न किया ।
अमरीका ने कश्मीर समस्या की तुलना जूनागढ़ से कर इसे हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष कहकर ओर भी उलझन में डाल दिया । यह कदम अमरीका ने अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर उठाया क्योंकि सोवियत संघ को घेरने के लिए पाकिस्तान में वह सैनिक अड्डे स्थापित करना चाहता था ।
vi. चीन में साम्यवादी क्रान्ति और भारत द्वारा मान्यता:
1949 में चीन में साम्यवादी क्रान्ति हो गई जो कि अमरीका की बहुत बड़ी कूटनीतिक हार थी । अमरीका चीन को साम्यवादी बनने से न रोक सका । अमरीका ने यह कोशिश की कि भारत चीन को मान्यता प्रदान नहीं करे परन्तु भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. नेहरू ने अपनी असंलग्नता की नीति और स्वतन्त्र निर्णय लेने की क्षमता का परिचय देते हुए दिसम्बर, 1949 में ही साम्यवादी चीन को मान्यता प्रदान कर दी । इसके साथ ही अमरीका की इच्छा के विपरीत जनवादी चीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलाने के लिए भी भारत ने प्रतिवर्ष प्रस्ताव लाना आरम्भ कर दिया ।
vii. कोरिया युद्ध:
कोरिया युद्ध (1950) के दौरान भारत ने प्रारम्भ में तो उत्तरी कोरिया को आक्रमणकारी घोषित किया और सुरक्षा परिषद् में अमरीकन प्रस्ताव का समर्थन भी किया लेकिन अमरीका की आशा के विपरीत भारत ने इस कार्यवाही के लिए अपना सैनिक दस्ता देने से इन्कार कर दिया क्योंकि वह युद्ध को और भड़काना नहीं चाहता था ।
जब अमरीकन कमान के नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र संघ की सेना ने 38० अक्षांश रेखा को पार कर उत्तरी कोरिया पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया तब भारत ने अमरीका के इस कुप्रयास की भर्त्सना की । सुरक्षा परिषद् के चीन को आक्रमणकारी घोषित करने के अमरीकी प्रस्ताव का भारत ने विरोध किया ।
viii. जापान के साथ सन्धि:
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् जापान के साथ सन्धि के प्रश्न पर भी दोनों देश सहमत नहीं हो सके । 20 जुलाई, 1951 में अमरीका ने जापान के विरुद्ध युद्ध में भाग लेने वाले राज्यों को जापान के साथ की जाने वाली सन्धि का प्रारूप भेजा और इस पर विचार-विमर्श करने के लिए सेनफ्रांसिस्को में होने वाले एक सम्मेलन में उन्हें निमन्त्रित भी किया ।
भारत ने इस प्रारूप को अत्यन्त कठोर और अपमानजनक बतलाते हुए 30 जुलाई को एक पत्र अमरीका भेजा । भारत ने इस पत्र में बोनिन तथा रयुकू द्वीपों पर अमरीकी संरक्षण का विरोध किया । इन्हें जापान को वापस करने और जापान से विदेशी सेना हटाने का भी प्रस्ताव रखा ।
अमरीका ने ये प्रस्ताव स्वीकार नहीं किए तब भारत ने सेनफ्रांसिस्को सम्मेलन में सम्मिलित न होने का तथा जापान से एक पृथकृ सन्धि करने का निर्णय लिया । 9 जून, 1952 को भारत ने जापान से पृथक् सन्धि भी कर ली जिससे अमरीका ने असन्तोष का अनुभव किया ।
ix. हिन्द चीन:
हिन्द चीन की समस्या पर भी दोनों देशों में मतभेद तीव्रता से प्रकट हुए । जहां भारत इस समस्या को शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाने के पक्ष में था वहीं अमरीका सैनिक शक्ति का प्रयोग करना चाहता था । प्रारम्भ में फ्रांस सरकार ने हिन्द चीन में अपना उपनिवेश बनाए रखने के लिए अमरीका की सहायता मांगी थी ।
साम्यवादियों से इस प्रदेश को बचाए रखने के लिए अमरीका ने तुरंत यह सहायता देना स्वीकार कर लिया । भारत ने इसका विरोध किया । नेहरू ने तत्काल युद्ध बन्द कर देने का सुझाव देते हुए समझौते के लिए एक छ: सूत्री प्रस्ताव रखा । अमरीका इसके लिए सहमत नहीं हुआ ।
कुछ समय पश्चात् हिन्द चीन में युद्ध-विराम सन्धि हुई । समस्या के सामाधान के लिए जेनेवा मे एक सम्मेलन हुआ । भारत के प्रतिनिधि ने इसमें महत्वपूर्ण काम किया और हिन्द चीन के सम्बन्ध में अमरीका की अनिच्छा के बावजूद भी एक समझौता हो गया ।
x. भारत-पाक सम्बन्ध और अमरीकी दृष्टिकोण:
भारत अरि अमरीका के बीच सम्बन्धों में मई, 1954 में उस समय अत्यधिक कटुता उत्पन्न हो गई जब अमरीका ने भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान के साथ एक सैनिक समझौता करके उसे बहुत अधिक मात्रा में सैन्य सामग्री देना शुरू कर दिया जबकि भारत-पाक सम्बन्ध पहले से ही तनावपूर्ण स्थिति में थे ।
भारत द्वारा अमरीका की इस कार्यवाही का विरोध किए जाने पर अमरीका ने यह कहना शुरू कर दिया कि पाकिस्तान द्वारा इन हथियारों का प्रयोग साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए किया जाएगा, परन्तु 1965 व 1971 के भारत-पाक युद्धों में भारत के विरुद्ध अमरीका द्वारा प्रदत्त इन शस्त्रास्त्रों का प्रयोग किया गया, जिसके कारण अमरीका के मनसूबों का पर्दाफाश हो गया और भविष्य की घटनाओं ने यह प्रमाणित कर दिया कि अमरीका ने पाकिस्तान को भारत से युद्ध के समय प्रयोग में लाने के लिए इन हथियारों को दिया था । इतना ही नहीं अमरीका ने 1954 में पाकिस्तान को सीटो और सेण्टो जैसे प्रादेशिक सैनिक संगठनों का सदस्य भी बना लिया । आइजनहावर-डलेस नीति का स्वयं अमरीका में विरोध हुआ ।
xi. तिब्बत के बारे में:
तिबत के सम्बन्ध में भारत ने चीन से जो सन्धि की उसे भी अमरीका ने अनुचित समझा और इसे भारत का साम्यवाद के प्रति समर्पण माना । इसी प्रकार 1955 में जब सोवियत नेताओं ने भारत की यात्रा की तब भी अमरीकन समाचार-पत्रों ने इस आशय से विचार प्रकट किए थे कि भारत सच्चे अर्थों में असंलग्न या गुट-निरपेक्ष नहीं हे और उसने गुप्त रीति से अपने को साम्यवादी गुट से मिला लिया है ।
xii. गोवा का प्रश्न:
1961 में गोवा के मामले पर भी दोनों देशों के सम्बन्धों में विकृति आई । भारत सरकार अपने इस क्षेत्र को पुर्तगाल की अधीनता से स्वतन्त्र कराने के लिए अत्यधिक प्रयत्नशील रही । भारत के लिए गोवा को पुर्तगाली उपनिवेशवाद से मुक्त करना उसके एकीकरण और राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से सर्वाधिक महत्व का प्रश्न था ।
भारत इसका समाधान मैत्रीपूर्ण वार्ता के द्वारा ही करना चाहता था, किन्तु पुर्तगाल सरकार ने कोई सहयोग नहीं दिया । इस विषय में अमरीका का दृष्टिकोण विचित्र रूप से भारत के विरुद्ध रहा । गोवा का स्वतन्त्रता आन्दोलन अमरीका में बड़ी आलोचना का विषय बना ।
इसका मुख्य कारण यही था कि पुर्तगाल नाटो का सदस्य था और अमरीका अपने मित्र को नाराज नहीं करना चाहता था । अमरीकी समाचार-पत्रों में यहां तक कहा गया कि ”गोवा निवासी स्वयं पुर्तगाल का स्वामित्व पसन्द करते हैं । भारत को ही हिंसा एवं खून खराबी की स्थिति उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी ठहराया गया ।”
अमरीका के प्रतिनिधि एडलर्स स्टेवंसन ने गोवा पर भारत की कार्यवाही को आक्रमण की संज्ञा दी थी । संयुक्त राष्ट्र संघ में उनका भाषण अत्यन्त कटु और भारत पर तीव्र प्रहार से परिपूर्ण था । अमरीकी विदेश सचिव जॉन फोस्टर डलेस ने तो गोवा को ‘पुर्तगाल के एक प्रान्त की संज्ञा दी थी ।’ इससे भारतीय भावनाओं को अत्यन्त ठेस पहुंची ।
xiii. भारत रंगभेद नीति का सर्वदा विरोधी रहा, जबकि अमरीका ने रंगभेद नीति का समर्थन किया ।
भारत और अमरीका के मध्य सहयोग के आधार:
नेहरू युग में कई सारे मसलों पर भारत और अमरीका में मतभेद के बावजूद कतिपय क्षेत्रों में पर्याप्त सहयोग का आधार मौजूद था । इस सम्बन्ध में नेहरू का स्पष्ट मत था कि “दोनों देश लोकतान्त्रिक संस्थाओं और लोकतान्त्रिक जीवन पद्धति के प्रति समान विश्वास रखते हैं और शान्ति एवं स्वतन्त्रता की रक्षा करने के लिए कृत संकल्प हैं । ऐसी स्थिति में इन दोनों के बीच मैत्री और पारस्परिक सहयोग होना अत्यन्त स्वाभाविक है ।”
नेहरू युग में दोनों देशों के नागरिकों का सम्पर्क सर्वदा बना रहा । हजारों की संख्या में भारतीय नागरिक कार्यों के लिए, शिक्षा या प्रशिक्षण के लिए व्यापार या भ्रमण के लिए अमरीकी जाते रहे और इसी प्रकार अमरीका के नागरिक भी भारत आते रहे । अनेक भारतीय विश्वविद्यालयों में अमरीकी विषयों का अध्ययन शुरू हुआ तथा अमरीकी विश्वविद्यालयों में भारतीय विषयों का अध्ययन-अध्यापन दिलचस्पी से प्रारम्भ हुआ ।
अक्टूबर 1949 में पं. जवाहर लाल नेहरू ने अमरीका की यात्रा की वहां उनका भावभीना स्वागत हुआ । 1951 में चेस्टर बोल्स अमरीकी राजदूत बनकर भारत आए और 1951 और 1954 तक दोनों देशों के पारस्परिक सम्बन्धों में पर्याप्त सुधार हुआ । अमरीका ने भारत को आर्थिक सहायता देना शुरू किया और भारत की प्रथम पंचवर्षीय योजना की सफलता की कामना की ।
सन् 1956 में स्वेज संकट के समय अमरीका द्वारा अपनाई गई नीति का भारत ने संमर्थन किया । सन् 1956 में नेहरू ने अपनी दूसरी अमरीका यात्रा की । नेहरू का सर्वत्र अमरीका में स्वागत हुआ । इसके तीन वर्ष बाद (1959) अमरीकी राष्ट्रपति आइजनहावर भारत यात्रा पर आए ।
भारतीय जनता के आतिथ्यसत्कार से वे अत्यधिक प्रभावित होकर अपने देश लौटे और यह अनुमान लगाया जाने लगा’ कि दोनों देशों के बीच सहयोग का एक नया अध्याय प्रारम्भ होगा । भारत और अमरीका के बीच मई 1960 में चार वर्ष की अवधि के लिए पी. एल. 480 नामक एक समझौता हुआ, जिसके अन्तर्गत अमरीका ने भारत को पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न भेजने का आश्वासन दिया । 1961 में नेहरू ने अपनी तीसरी अमरीका यात्रा की ।
नवम्बर, 1960 में जॉन एफ. कैनेडी अमरीका के राष्ट्रपति बने और उनके नेतृत्व में अमरीका ने अपनी विदेश नीति में अत्यन्त साहसपूर्ण और दूरगामी परिवर्तन किए । उनसे पूर्व अमरीका यह बात मानने के लिए तैयार नहीं था कि कोई राष्ट्र साम्यवाद और लोकतन्त्र के संघर्ष में तटस्थ रह सकता है ।
कैनेडी ने गुट-निरपेक्षता को मान्यता दी और भारत-अमरीकी सम्बन्धों को मधुरिमा प्रदान की । कांग्रेस के समुख अपने प्रथम भाषण में कैनेडी ने नेहरू के उच्च आदर्शवाद की सार्वजनिक रूप से प्रशंसा की । राष्ट्रपति बनने के पूर्व ही कैनेडी भारत समर्थक थे । उन्होंने सीनेटर के रूप में अमरीका द्वारा पाकिस्तान को दी जाने वाली सैनिक सहायता का तीव्र विरोध किया था ।
अक्टूबर, 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया तब भारत के अनुरोध पर कैनेडी ने बिना किसी शर्त के पर्याप्त मात्रा में भारत को युद्ध सामग्री भेजी । कैनेडी का स्पष्ट मत था कि ”हम चाहते हैं कि लाल चीन और भारत की इस प्रतिस्पर्द्धा में भारत विजयी हो । हम चाहते हैं कि, मुक्त और उभरते हुए एशिया का नेतृत्व मुक्त और उभरता हुआ भारत करे ।”
निष्कर्षत:
नेहरू युग में अमरीका ने भारत के साथ दोहरी नीति अपनाई-एक तरफ तो भारत के साथ दबाव की नीति अपनाई तो दूसरी ओर भारत के साथ विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग भी किया । अमरीका की इस दोहरी नीति के पीछे अमरीकन राजनीतिज्ञों का मूल उद्देश्य भारत को किसी ढंग से अपने खेमे में लाना था ।
2. लाल बहादुर शास्त्री और भारत-अमरीका सम्बन्ध (1964-65) (Lal Bahadur Shastri And Indo-American Relations: 1964-65):
7 दिसम्बर, 1964 को भारत एवं अमरीका के बीच नई दिल्ली में एक समझौता हुआ जिसके अनुसार अमरीका ने भारत को तारापुर में आणविक शक्ति का संयन्त्र स्थापित करने के लिए आठ करोड़ डॉलर दिए ।
1964 में भारत के विभिन्न भागों में भारत ब्रिटेन ऑस्ट्रेलिया और अमरीका के वायु सैनिकों ने सम्मिलित रूप से शैक्षणिक अभ्यास किए । 1964 में भारत में खाद्यान्न का विकट संकट उपस्थित होने पर भी पी.एल. 480 के अन्तर्गत अमरीका ने बड़ी मात्रा में खाद्यान्नों की पूर्ति की किन्तु 1965 में भारत-अमरीकी सम्बन्धों में तनाव आया ।
लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व में भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति का दृढ़ता के साथ पालन किया और इसी नीति को उन्होंने अपेक्षाकृत अधिक यथार्थवादी स्वरूप प्रदान किया । इसी नीति का अनुसरण करते हुए जब शास्त्री युग में अमरीका ने उत्तरी वियतनाम पर भारी मात्रा में बम वर्षा करना शुरू कर दिया तो भारत ने इसकी कटु आलोचना की जिसके कारण अमरीका में भारत के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया हुई ।
इस अमरीकी प्रतिक्रिया का स्पष्ट प्रमाण था शास्त्री को दिया गया अमरीकी यात्रा का आमन्त्रण वापस लेना । अमरीकी राष्ट्रपति जॉनसन से निमन्त्रण पाकर शास्त्री ने मई 1965 में संयुक्त राज्य की यात्रा का कार्यक्रम बनाया था ।
पर वियतनाम युद्ध के अधिक व्यापक रूप धारण कर लेने, पर भारत अपनी आलोचनात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करने से अपने आपको नहीं रोक पाया । फलत: जॉनसन प्रशासन ने जो इस विषय पर अत्यधिक संवेदनशील था, भारतीय प्रधानमन्त्री को दिया गया आमन्त्रण वापस ले लिया । भारत के लिए यह एक बहुत बड़ा राष्ट्रीय अपमान था ।
1965 में भारत-पाक युद्ध के दौरान पाकिस्तान द्वारा भारत के विरुद्ध अमरीकन शस्त्रास्त्रों के प्रयोग के कारण भी भारत-अमरीकी सम्बन्धों में उग्रता पैदा हो गई । इस युद्ध के दौरान अमरीका का रुख भारत विरोधी रहा ।
यह उल्लेखनीय है कि 1965 में अमरीका द्वारा भारत-पाक युद्ध के दौरान 6 जहाजों में भारत के लिए जो सामग्री भेजी गई थी उसे अमरीका ने भारतीय तट से केवल 15 किलोमीटर दूरी से वापस बुला लिया । इतना ही नहीं जब पाकिस्तान ने अमरीकन शस्त्रास्त्रों का भारत के विरुद्ध प्रयोग किया तो अमरीका ने पाकिस्तान की इस कार्यवाही पर कोई आपत्ति नहीं की ।
इसके साथ ही दोनों देशों (भारत पाकिस्तान) को सैनिक साज-सामान और आर्थिक सहायता भी स्थगित करने का निर्णय लिया । उस समय भारत में खाद्यान्नों का भारी संकट उत्पन्न हो रहा था । इस परिप्रेक्ष्य में अमरीकी सहायता के अन्तर्गत खाद्यान्नों की आपूर्ति बन्द करने की धमकी हर दृष्टि से कठोर एवं निर्मम थी ।
3. श्रीमती इन्दिरा गांधी और भारत-अमरीका सम्बन्ध (1966-77 तथा 1980-84) (MRS. Gandhi And Indo-American Relations, 1966-77 & 1980-84):
10 जून, 1966 को लाल बहादुर शास्त्री के देहान्त के बाद श्रीमती इन्दिरा गांधी भारत की प्रधानमन्त्री बनीं । इन्दिरा गांधी युग में अमरीका के साथ भारत के सम्बन्ध नफरत भरी मुहब्बत की विशेष भावना से प्रभावित रहे हैं ।
राष्ट्रपति जॉनसन ने भारत-अमरीकी सम्बन्धों में सुधार की दृष्टि से श्रीमती गांधी से अमरीका यात्रा का अनुरोध किया जिसे स्वीकार कर 18 मार्च, 1967 को भारतीय प्रधानमन्त्री ने अमरीका की यात्रा की । भारतीय प्रधानमन्त्री की इस यात्रा से यह आशा की जाती थी कि दोनों देशों के बीच सहयोग का एक नया अध्याय शुरू होगा, किन्तु अमरीका की दबाव नीति के कारण कोई अनुकूल परिणाम नहीं निकला ।
अमरीकन दबाव के कारण भारत को रुपए का अवमूल्यन करना पड़ा । भारत-पाक युद्ध के बाद अमरीका ने बन्द की गई आर्थिक सहायता को पुन: आरम्भ किया किन्तु भारत को अमरीका द्वारा दी जाने वाली यह आर्थिक सहायता नगण्य थी ।
उल्लेखनीय है कि सन् 1968 में अमरीका ने भारत को जो आर्थिक सहायता स्वीकृत की वह पिछले 20 वर्षों की तुलना में सबसे कम थी जिसके कारण भारत की योजनाओं पर प्रतिकूल असर पड़ा । अप्रैल, 1967 में नागा विद्रोही फीजो को अमरीका में आश्रय दिया गया और 1967 में यह रहस्य पता चला कि भारत में अनेक संगठनों के माध्यम से सी.आई.ए. भारत विरोधी कार्यवाही में संलग्न है ।
पश्चिमी एशिया संघर्ष (1967) तथा वियतनाम युद्ध के मुद्दों पर भारत अमरीकी दृष्टिकोणों में व्यापक अन्तर उभर कर सामने आया । भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ में अरब राष्ट्रों के पक्ष का समर्थन किया जबकि अमरीका ने इजरायल को प्रबल समर्थन दिया ।
1969-70 में वियतनाम के प्रश्न को लेकर दोनों देशों के बीच तनाव काफी बढ़ गया । यद्यपि 1969 में राष्ट्रपति निक्सन भारत आए, किन्तु भारत की वियतनाम नीति में वे कोई परिवर्तन नहीं करवा पाए । भारत उत्तर वियतनाम पर अमरीकी बमवर्षा का विरोधी रहा ।
1970 में भारत ने उत्तरी वियतनाम (हनोई) के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित कर लिए, जबकि दक्षिण वियतनाम (सैगान) के विषय में ऐसा निर्णय नहीं लिया । 1970 में भारत सरकार द्वारा भारत में तिरुवनन्तपुरम एवं लखनऊ में स्थित अमरीकन सांस्कृतिक केन्द्र बन्द करवा दिए, क्योंकि ऐसी शंका थी कि इन केन्द्रों के माध्यम से कुछ अवांछित कार्य किए जाते हैं ।
स्वाभाविक रूप से अमरीकन सरकार इससे अप्रसन्न हुई । इसी समय में कम्बोडिया में अमरीकन फौजों के प्रवेश का भारत ने विरोध किया । इस प्रकार दोनों देशों के बीच मतभेद बढ़ते गए । अमरीकन सरकार द्वारा प्रकाशित भारत के नक्शों ने भारतीय संसद एवं लोकमत को क्रोधित कर दिया ।
भारत स्थित अमरीकन सूचना केन्द्र के एक प्रकाशन ‘संयुक्त राष्ट्र के बीस वर्ष’ (United Nations at 20) में भारत का क्षेत्रफल 30,46,232 वर्ग किलोमीटर बताया गया था । इस क्षेत्रफल में जम्मू एवं कश्मीर का भाग सम्मिलित नहीं किया गया था । संयुक्त राष्ट्र सांख्यिकी वार्षिक पत्रिका, 1965 (U.N. Statistical Year Book, 1965) में भी ऐसा ही प्रकाशित किया गया था ।
भारतीय सर्वेक्षण के अनुसार भारत का क्षेत्रफल 1 जनवरी, 1966 को 32,68,090 वर्ग किलोमीटर था । 5 अगस्त, 1970 को इस विषय पर भारत सरकार का ध्यान संसद में आकर्षित किया गया और इस प्रकाशन पर आपत्ति प्रकट की गई । प्रत्युतर में विदेश उपमन्त्री दिनेशसिंह ने कहा कि अमरीकन सरकार को इस सम्बन्ध में विरोध पत्र भेजा जा चुका है । अमरीका का यह कार्य भारतीय मैत्री के विरोध में ही था ।
बांग्लादेश संकट और अमरीकी भूमिका:
1971 में बांग्ला देश संकट एवं भारत-पाक युद्ध में अमरीकी भूमिका विचित्र रही । 25 मार्च, 1971 को पाकिस्तान की याह्या खां सरकार के आदेश से पाकिस्तानी सेना ने पाकिस्तानी आतंक से पीड़ित पूर्वी पाकिस्तान की जनता पर खुलेआम अत्याचार करना शुरू कर दिया । इस आतंक से पीड़ित पूर्वी पाकिस्तान के लगभग एक करोड़ शरणार्थियों के भरण-पोषण का भार भारत पर आ पड़ा । भारत ने अमरीका से शिकायत की कि पाकिस्तान अमरीकी हथियारों का दुरुपयोग कर रहा है ।
भारत ने अमरीका से आग्रह किया कि पाकिस्तान अमरीका के प्रभाव क्षेत्र में है, इसलिए निक्सन सरकार पाकिस्तान पर दबाव डाले कि वह बांग्लादेश में अत्याचार बन्द करे ताकि बांग्लादेश के शरणार्थियों का भारत में आना बन्द हो । अमरीका ने इसे पाकिस्तान का आन्तरिक मामला बताकर टाल दिया और पाकिस्तान को सैनिक एवं अन्य सहायता मिलती रही ।
भारतीय दृष्टिकोण को समझाने हेतु 6 नवम्बर, 1970 को प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी अमरीका गईं किन्तु राष्ट्रपति निक्सन ने इन्दिरा गांधी के तर्कों को गम्भीरता से नहीं लिया । अगस्त, 1971 में भारत-सोवियत संघ के बीच मैत्री सन्धि हो जाने पर अमरीकन विदेश नीति को एक गहरा आघात लगा । 3 दिसम्बर, 1971 को भारत एवं पाकिस्तान के मध्य युद्ध प्रारम्भ हो गया ।
युद्ध प्रारम्भ होने के बाद अमरीका ने युद्ध प्रारम्भ करने का सम्पूर्ण दोष भारत पर लगाते हुए आर्थिक सहायता बन्द करने की धमकी दी । जबकि पाकिस्तान को दी जाने वाली सहायता जारी रही । इस समय अमरीका ने सुरक्षा परिषद् में भारत विरोधी प्रस्ताव प्रस्तुत किए, किन्तु सोवियत संघ के वीटो के कारण वे निरस्त हो गए ।
अमरीका ने न केवल पाकिस्तान को राजनयिक समर्थन प्रदान किया वरन् भारत के विरुद्ध ‘युद्धपोत राजनय’ (Gun Boat Diplomacy) का प्रयोग करते हुए सातवां जहाजी बेड़ा बंगाल की खाड़ी में भेजकर भारत को प्रत्यक्षत: धमकी दी । 15 दिसम्बर, 1971 को अणु शस्त्र सम्पन्न यह बेड़ा टोकिन की खाड़ी से बंगाल की खाड़ी में आया ।
भारतीय राजदूत एल.के.झा ने अमरीका को चेतावनी देते हुए कहा कि ”पूर्वी पाकिस्तान से पश्चिमी पाकिस्तान की सेनाओं को इस बेड़े के द्वारा निकालने का प्रयास शत्रुतापूर्ण कार्य माना जाएगा क्योंकि यही सेना पश्चिमी मोर्चे पर भारत के विरुद्ध लड़ेगी ।” इस प्रकार बांग्लादेश संकट के समय पाकिस्तान का खुला समर्थन करके सुरक्षा परिषद् में भारत विरोधी नीति अपनाकर तथा सातवां बेड़ा भेजकर अमरीका ने भारत-अमरीकी सम्बन्धों में तनाव पैदा किया ।
चीन-अमरीकी सांठगांठ:
राष्ट्रपति निक्सन के पदारूढ़ होने के बाद (1969) चीन से मैत्री सम्बन्ध स्थापित करने के अमरीकी निर्णय से भारत में चीन के प्रभाव को कम करने के लिए भारत को अमरीकी सहायता का प्रश्न स्वत: ही समाप्त हो गया ।
इसके विपरीत अमरीका ने शीघ्र ही चीन को दक्षिण एशिया में एक प्रभुत्वपूर्ण सत्ता के रूप में स्वीकार कर लिया । अमरीका ने चीन द्वारा पाकिस्तान को सहायता देकर भारत के प्रभाव को कम करने की चेष्टा का समर्थन ही किया ।
बांग्लादेश संकट के समय हेनरी किसिंजर ने अमरीका स्थित भारतीय राजदूत एल.के.झा को स्पष्ट रूप से बताया कि यदि चीन ने इस्लामाबाद की तरफ से किसी भी भारत-पाक युद्ध में हस्तक्षेप किया तो भारत को अमरीकी सहायता की तनिक भी आशा नहीं रखनी चाहिए ।
फरवरी, 1972 में निक्सन चीन गए । निक्सन ने वहां भारत की आलोचना की । निक्सन-चाऊ वार्ता पर श्रीमती गांधी ने चेतावनी दी कि अमरीका और चीन ने मिलकर एशिया के भविष्य के बारे में कोई निर्णय किया तो अन्य एशियाई राष्ट्र उसे स्वीकार नहीं करेंगे ।
निक्सन की यात्रा की समाप्ति पर जारी की गई संयुक्त विज्ञप्ति में पाक क्षेत्र से भारतीय सेनाओं की वापसी और जम्मू-कश्मीर की जनता को आत्म-निर्णय का अधिकार देने की मांग की । भारत ने इसे अपने आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप की संज्ञा देकर इसका कड़ा विरोध किया ।
डियागोगार्शिया में अमरीकी अड्डा:
डियागोगार्शिया हिन्द महासागर में एक छोटा सा टापू है, जो कि ब्रिटेन के अधिकार में था । बाद में इसे अमरीका ने खरीद लिया । 1974 में अमरीका ने इस द्वीप में अपना एक अत्यधिक आधुनिक नौ सैनिक अड्डा बनाने का निश्चय किया ।
इससे भारत की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो गया और भारत-अमरीकी सम्बन्धों में कटुता आ गई । 8 फरवरी, 1974 को श्रीमती गांधी ने कहा, “हिन्द महासागर में परमाणु अड्डे की स्थापना संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्तावों के विरुद्ध है । इस प्रकार के कदमों से आमतौर पर संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती हे ।”
मई 1974 में भारत ने पोखरण में आणविक परीक्षण कर अपना नाम अणुशक्ति सम्पन्न राष्ट्रों की श्रेणी में लिखा दिया तो अमरीका में इसके विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई । फरवरी 1975 में अमरीका ने पाकिस्तान को मिसाइल्स, बमवर्षक विमान व अन्य शस्त्रास्त्र देने का निर्णय किया जिसके कारण भारत में अमरीका के प्रति तीव्र रोष उत्पन्न हुआ ।
फिर भी ऐसा लगता है कि 1972 के बाद भारत-अमरीकी सम्बन्धों को सुधारने के प्रयत्न प्रारम्भ हुए । अक्टूबर, 1972 में विदेश मन्त्री स्वर्णसिंह ने अमरीका की यात्रा की और राज्य सचिव विलियम रोजर्स से लम्बी बातचीत की ।
जनवरी 1973 में प्रसिद्ध अमरीकी बुद्धिजीवी डेनियल पैट्रिक मोयनिहन को भारत में अमरीकी राजदूत नियुक्त किया गया । इसी समय एक अन्य कार्य से भी अमरीकी सद्भावना का परिचय मिला । 18 फरवरी, 1974 को पी.एल. 480 की जो अमरीकी धनराशि भारत में बकाया थी उसके सम्बन्ध में समझौता करते हुए अमरीका ने भारत को 1,664 करोड़ रुपए की धनराशि अनुदान के रूप में दे दी । अक्टूबर 1974 में अमरीकी विदेश सचिव डी. किसिंगर ने भारत की यात्रा की ।
जनता शासन के बाद श्रीमती गांधी 1980 में पुन: प्रधानमन्त्री बनीं । अमरीका ने मार्च 1980 में पाकिस्तान को 40 करोड़ डॉलर मूल्य के हथियारों की आपूर्ति का निश्चय किया जिसे भारत ने दक्षिण एशिया में तनाव बढ़ाने वाली कार्यवाही कहा ।
जून 1980 में अमरीकी राष्ट्रपति कार्टर ने तारापुर परमाणु बिजलीघर के लिए समृद्ध यूरेनियम की आपूर्ति करने के सरकारी आदेश पर हस्ताक्षर कर दिए किन्तु अमरीकी सीनेट प्रतिनिधि सभा की विदेश सम्बन्ध समितियों ने भारत को 38 टन यूरेनियम देने से इन्कार कर दिया ।
अमरीकी कांग्रेस की यह कार्यवाही भारत के प्रति अमैत्रीपूर्ण तथा अमरीका व भारत के बीच 1963 में हुई सन्धि के विपरीत थी । अमरीकी राष्ट्रपति रीगन के निमन्त्रण पर 27 जुलाई, 1982 को श्रीमती इन्दिरा गांधी 9 दिन की अमरीका यात्रा पर गईं । श्रीमती गांधी की इस यात्रा से दोनों देशों के सम्बन्धों में कुछ नरमी आई ।
इस यात्रा के परिणामस्वरूप अमरीका इस बात से सहमत हो गया कि भारत अपनी तारापुर परमाणु भट्टी के लिए ईंधन फ्रांस से ले सकता है । श्रीमती गांधी ने राष्ट्रपति रीगन को पाकिस्तान को अमरीकी हथियारों की आपूर्ति अफगानिस्तान और पश्चिम एशिया संकट आदि मुद्दों पर भारत के दृष्टिकोण के पीछे निहित कारणों की विस्तृत जानकारी दी ।
श्रीमती गांधी ने यह भ्रम दूर करने का प्रयास किया कि भारत का झुकाव सोवियत संघ की ओर है और यह देश अमरीका विरोधी है । सन् 1981-82 की घटनाओं ने यह साबित कर दिया था कि भारत सोवियत संघ का पिछलग्गू नहीं है ।
भारत ने अफगान प्रश्न पर सोवियत संघ की भर्त्सना नहीं की लेकिन उसने सोवियत फौजों के वहां अनन्त काल तक पड़े रहने की वकालत भी नहीं की । इसी प्रकार कम्पूचिया की हेग सामरिन सरकार को मान्यता अवश्य दी किन्तु वियतनामी फौजों की वापसी की भी मांग की ।
इस पृष्ठभूमि में जून 1983 से भारत-अमरीका संयुक्त आयोग की बैठक हुई जिसमें पारस्परिक सहयोग के विस्तार पर विचार किया गया । 15 मई, 1984 को अमरीकी उपराष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने भारत की चार दिवसीय यात्रा की । जॉर्ज बुश ने स्वीकार किया कि अनेक मुद्दों पर भारत व अमरीका के बीच मतभेद हैं, इसके बावजूद आर्थिक सांस्कृतिक वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्रों में सहयोग बढ़ रहा है ।
4. जनता सरकार और भारत-अमरीका सम्बन्ध (Janta Govt And Indo-American Relations):
जनता पार्टी के घटकों की पुरानी राजनीति को देखते हुए ऐसा लगता था कि यदि जनता पार्टी सत्तारूढ़ हुई तो अमरीका के साथ भारत के सम्बन्धों में गुणात्मक परिवर्तन होंगे । जब 1977 के चुनाव के दौरान जनता पार्टी के नेता ‘असली’ या ‘सच्ची’ गुट-निरपेक्षता की बात करते तो उक्त सम्भावना अधिक पुष्ट होती थी ।
न्यूयार्क टाइम्स ने जनता पार्टी की जीत को दुनिया के ‘सभी लोकतन्त्रों के लिए प्रेरणादायक’ बताते हुए कहा कि अमरीका के प्रति सत्तारूढ़ दल का रुख ‘मैत्रीपूर्ण’ होगा तथा सोवियत संघ के प्रति उसका रुख ठण्डा पड़ जाएगा ।
प्रधानमन्त्री पद के लिए मोरारजी के नाम की घोषणा होते ही भारत के प्रति अमरीकी उत्साह में पहले से भी अधिक वृद्धि हुई । राष्ट्रपति कार्टर ने मोरारजी को बधाई सन्देश भेजते हुए कहा हम दोनों मिलकर विश्व-शान्ति न्याय तथा आर्थिक प्रगति के समान लक्ष्यों को पूरा करने के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं । अमरीका के नीति निर्माताओं के बीच यह माना जाने लगा कि कार्टर और देसाई के स्वभाव इतने मिलते-जुलते हैं कि दोनों देशों के सम्बन्धों में अपूर्व वृद्धि होगी ।
पिछले कई वर्षों से श्रीमती इन्दिरा गांधी और अमरीकी प्रशासन के जैसे रिश्ते रहे थे उनकी तुलना में मोरारजी के लिए जैसा उत्साह प्रदर्शित किया जा रहा था उसके प्रकाश में यह आसानी से कहा जा सकता था कि जनता सरकार ‘सच्ची’ गुट-निरपेक्षता के नाम पर अमरीका परस्त नीति चलाएगी लेकिन उत्साह का यह दौर एक हफ्ते भी न चला होगा कि अमरीकी नीति निर्माताओं को यह पता चल गया कि अमरीकी सहायता प्राप्त करने के लिए भारत पहले की तरह लालायित नहीं है तथा परमाणु अप्रसार सन्धि के मामले में भी भारत की राय को बदलवा पाना आसान नहीं है ।
कार्टर प्रशासन ने भारत में जन्मे अमरीकी विद्वान डॉ. रॉबर्ट गोहीन को तथा जनता सरकार ने वैयक्तिक स्वतन्त्रता के प्रसिद्ध पक्षधर ननी पालखीवाला को अपना राजदूत बनाकर भेजा, लेकिन इसके परिणामस्वरूप दोनों देशों के राजनीतिक सम्बन्धों में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ हो ऐसा प्रतीत नहीं होता ।
1 जनवरी, 1978 को राष्ट्रपति कार्टर भारत आए । कार्टर ने अपनी मां श्रीमती लिलियन कार्टर के भारत प्रवास को याद करते हुए इस देश के प्रति विशेष आत्मीयता प्रकट की तथा दोनों देशों के पारस्परिक विश्वासों मान्यताओं तथा दायित्वों के आधार पर सम्बन्धों को प्रगाढ़तर बनानने की अपील की ।
इसमें सन्देह नहीं कि कार्टर देसाई और संजीव रेड्डी के भाषणों में दोनों देशों के लिए जो उद्गार प्रकट हुए थे वे सच्चे ही थे किन्तु 2 जनवरी के दिन मोरारजी से बातचीत करने के बाद कार्टर ने अपने विदेश मन्त्री वैन्स के कान में जो कुछ फुसफुसाया उसने कार्टर की भारत यात्रा का मजा किरकिरा कर दिया तथा यह बता दिया कि कोमल भावनाओं और मधुर शब्दों से राष्ट्रों के सम्बन्धों के बीच खड़े यथार्थों को ढहाना आसान नहीं है ।
कार्टर ने वैन्स से कहा कि ”मैंने उनको (श्री देसाई को) कहा था कि अब मैं परमाणु ईंधन भेजने की अनुमति दे दूंगा । ऐसा लगता है कि इस बात का उन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ । अमरीका पहुंचकर मैं सोचता हूं कि हमें उन्हें एक पत्र और लिख देना चाहिए सरल और बिल्कुल दो टूक ।”
यह बात कार्टर ने वैन्स के कान में फुसफुसायी थी लेकिन एक अमरीकन रिपोर्टर के टेप रेकार्डर ने इसे फीते में कैद कर लिया । जब यह बात सार्वजनिक तौर पर फैल गई तो कार्टर और देसाई ने अपने-अपने तरीके से लीपापोती करने की कोशिश की ।
सच्चाई यह है कि मोरारजी ने कार्टर को यह बता दिया था कि भारत केवल तारापुर और राजस्थान के परमाणु संयन्त्रों के लिए पूर्व सहमत निगरानी शर्तों को ही मान सकता है लेकिन ये शर्तें वह अन्य संयन्त्रों के बारे में नहीं मानेगा । इसी प्रकार भारत अपने संयन्त्रों पर न तो अन्तर्राष्ट्रीय निगरानी स्वीकार करेगा और न ही वह परमाणु अप्रसार सन्धि पर दस्तखत करेगा ।
कार्टर की भारत यात्रा समाप्त होने के दो दिन बाद ही मोरारजी ने अमरीकी सीनेटरों के एक प्रतिनिधि मण्डल को दो टूक शब्दों में कहा कि यदि भारत को परिशोधित यूरेनियम नहीं मिला तो बहुत कठिनाई होगी लेकिन वह इस कठिनाई को सत्याग्रह की भावना से झेलेगा तथा कुछ वैकल्पिक प्रबन्ध भी करेगा ।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक के शब्दों में, “कुल मिलाकर यह स्पष्ट हो गया कि यदि ‘सच्ची’ गुट-निरपेक्षता का मतलब भारतीय परमाणु संयन्त्रों को अमरीकी निगरानी में रख देना लगाया जा रहा था तो ऐसी सच्ची गुट-निरपेक्षता को जनता सरकार ने ठुकरा दिया ।” जनता सरकार की इस दृढ़ता की प्रशंसा भारतीय साम्यवादी दल ने भी की ।
इसका यह अभिप्राय नहीं कि कार्टर की भारत यात्रा सर्वथा निष्फल रही । जहां तक दोनों देशों में सहयोग का प्रश्न है कार्टर के प्रवास के दौरान ही भारत-अमरीकी संयुक्त आयोग की बैठक हुई जिसमें तीन क्षेत्रों-आर्थिक और व्यापारिक विज्ञान और तकनीक तथा शिक्षा और संस्कृति-में सहयोग बढ़ाने के निर्णय हुए ।
अमरीका ने अपने ‘लैण्डसेट उपग्रह’ की सुविधाएं भारत को प्रदान करने का वायदा किया पूर्वी नदियों को जलशक्ति के दोहन में सहायता करने का आश्वासन दिया तथा अन्तरिक्ष प्रयोगों के लिए ‘नासा’ की अनेक सुविधाएं देने का संकल्प प्रकट किया ।
उद्योग कृषि तथा शिक्षा क्षेत्र में भी सहयोग की अनेक नई योजनाएं स्वीकृत हुईं । भारत को 6 करोड़ डॉलर की सहायता देने का प्रस्ताव कांग्रेस पहले ही पारित कर चुकी थी । जून, 1978 में प्रधानमन्त्री देसाई तथा विदेशी मन्त्री वाजपेयी ने अमरीका की यात्रा की । इस यात्रा के दौरान यह स्पष्ट हो गया कि जनता सरकार भारत की परम्परागत गुट-निरपेक्षता की नीति को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है ।
सेनफ्रान्सिस्को में ‘वर्ल्ड अफेयर्स कौन्सिल’ को सम्बोधित करते हुए श्री देसाई ने कहा ”हमारी गुट-निरपेक्षता सिर्फ नीति ही नहीं है यह एक धर्म है । इसके द्वारा हमें अन्तर्राष्ट्रीय मामलों को गुण-दोष के आधार पर परखने में सहायता मिलती है ।” श्री वाजपेयी ने एक दूसरी सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि भारत न पश्चिम समर्थक है न पूर्व समर्थक लेकिन वह भारत समर्थक है ।
दोनों भारतीय नेताओं ने अमरीकी जनता को यह बताने का प्रयत्न किया कि भारत की परमाणु नीति शान्तिपूर्ण है, किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि वह परमाणु अप्रसार सन्धि पर दस्तखत करने के लिए तैयार हो जाएगा ।
मोरारजी ने एक दूर-दर्शन भेंट वार्ता में कहा कि, ”यह सन्धि भेदभावपूर्ण है तथा हमारे आत्मसम्मान के विरुद्ध है ।” यदि अमरीकी कांग्रेस अमरीका के सारे परमाणु संयन्त्रों को अन्तर्राष्ट्रीय निगरानी के लिए खोल दे तो हम भी अपने संयन्त्रों को खोल देंगे ।
कार्टर ने मोरारजी को स्पष्ट रूप से आश्वस्त किया कि, ”अमरीकी कानून के तहत वे तारापुर संयन्त्र को परमाणु ईंधन देते रहने तथा भारत के साथ परमाणु सहयोग जारी रखने का भरसक प्रयत्न करेंगे ।” इससे स्पष्ट हो जाता है कि परमाणु प्रश्न पर दोनों पक्षों में केवल कामचलाऊ सहमति ही हुई । न भारत ने अपना दृष्टिकोण बदला और न अमरीका ने ‘नया अध्याय शुरू’ किया ।
मोरारजी देसाई ने विभिन्न अवसरों पर अपनी स्पष्टवादिता के द्वारा यह बता दिया कि जनता सरकार अमरीका की हर बात को उचित नहीं मानती । हिन्दमहासागर क्षेत्र में से फौजी अड्डे हटाने की बात श्री देसाई ने जोरदार ढंग से कही तो जाइर तथा अन्य अफ्रीकी देशों के मामले में साफ-साफ कहा कि यदि वहां रूसी और क्यूबाई हस्तक्षेप की बात ठीक है तो पश्चिमी देशों के हस्तक्षेप का रूसी आरोप भी ठीक ही है ।
अफ्रीका को दोनों तरफ से हस्तक्षेप से मुक्त किया जाना चाहिए । इसी प्रकार अफगानिस्तान में हुई खल्की क्रान्ति के बारे में अमरीका की हां में हां मिलाने के बजाए श्री देसाई ने उसे अफगानिस्तान का आन्तरिक मामला बताया तथा भारत-अफगान सम्बन्धों के सामान्य रहने पर बल दिया ।
उत्तर-दक्षिण संवाद तथा नई विश्व अर्थव्यवस्था के प्रश्न पर भी श्री देसाई ने समृद्ध राष्ट्रों के उपभोक्तावाद तथा लालची रवैये की कड़ी आलोचना की । उन्होंने सोवियत संघ में मानव अधिकारों के प्रश्न पर कार्टर की राय को केवल सैद्धान्तिक तौर पर सही माना लेकिन व्यवहार में अनुपयोगी बताया ।
इसी प्रकार श्री देसाई ने सितम्बर, 1978 में कैम्प डेविड में हुए मिस्र-इजरायल समझौते का स्वागत जरूर किया किन्तु कार्टर और सादात को लिखे जवाबी पत्रों में उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि जब तक फिलिस्तीनियों के अधिकारों को मान्यता नहीं मिलती तथा इजराइल सारी अधिकृत अरब जमीन खाली नहीं करता पश्चिम एशिया में शान्ति स्थापित नहीं हो सकती । संक्षेप में, जनता सरकार की विदेश नीति अमरीकापरस्त नहीं कही जा सकती ।
5. राजीव गांधी और भारत-अमरीका सम्बन्ध (Rajeev Gandhi And Indo-American Relations):
अक्टूबर 1984 में राजीव गांधी भारत के प्रधानमन्त्री बने । राजीव गांधी चाहते थे कि भारत और अमरीका के बीच पुराने मतभेद समाप्त हों और सकारात्मक सहयोग स्थापित हो । नवम्बर 1984 में भारत और अमरीका में उच्च तकनीकी हस्तान्तरण सम्बन्धी एक समझौता हुआ । इस समझौते में पहली बार अमरीका ने भारत की यह शर्त स्वीकार की कि अगर भारत अमरीका से कई तकनीक खरीदकर अपने देश में ले आता है तो वह किसी भी विदेशी जांच-पड़ताल को बर्दाश्त नहीं करेगा ।
अमरीकी प्रशासन ने भारत को तीन महत्वपूर्ण क्षेत्रों में संवेदनशील सैनिक तकनीक जारी करने का निर्णय किया । इस प्रकार जारी की गई तकनीक में भारतीय सशस्त्र सेना के लिए सुपर कम्प्यूटर भारतीय नौसेना के फ्रिगेटों के लिए डेटा डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम तथा भारतीय वायुसेना के हल्के युद्धक विमान के लिए जनरल इलेक्ट्रिक 404 इंजन शामिल हैं ।
जून 1985 में प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने अमरीका की यात्रा की । रीगन ने राजीव गांधी का स्वागत करते हुए उनकी यात्रा को सन् 1949 में जवाहर लाल नेहरू की ‘खोज यात्रा’ से जोड़ा । श्री गांधी ने राष्ट्रपति रीगन से अनुरोध किया कि वे पाकिस्तान पर अपने परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए दबाव डालें । इसके उत्तर में रीगन ने कहा कि अमरीका को भी पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम से चिन्ता है ।
13 जून, को श्री गांधी ने कांग्रेस के संयुक्त अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए हिन्द महासागर और पड़ोसी देशों को दी जाने वाली हथियारों की आपूर्ति से उत्पन्न होने वाले खतरों की चर्चा की । यहां यह ध्यान देने योग्य बात है कि अमरीकी कांग्रेस के संयुक्त अधिवेशन को सम्बोधित करने का विशेषाधिकार प्राप्त करने वाले श्री गांधी द्वितीय भारतीय नेता थे । प्रथम नेता पं. जवाहर लाल नेहरू थे ।
इसी भाषण में श्री गांधी ने अमरीका के ‘स्टारवार’ कार्यक्रम की कटु आलोचना की थी । श्री गांधी ने अमरीका में ‘भारत महोत्सव’ का उद्घाटन किया और द्विपक्षीय व्यापार एवं प्रौद्योगिकी में सहयोग बढ़ाने के लिए यथेष्ट सम्भावना के प्रति आशा व्यक्त की ।
श्री गांधी की इस यात्रा के पश्चात् दोनों देशों के मध्य उच्चस्तरीय शिष्टमण्डलों का आदान-प्रदान भी किया गया । संयुक्त राष्ट्र संघ की 40वी वर्षगांठ के अवसर पर श्री गांधी ने 21 अक्टूबर, 1985 से अमरीका की यात्रा की । 23 अक्टूबर, को जब श्री गांधी की राष्ट्रपति रीगन से भेंट हुई तो पाकिस्तान के परमाणु अस्त्र बनाने के कार्यक्रम पर अपने देश की चिन्ता बताई ।
साथ ही उन्होंने अमरीका द्वारा पाकिस्तान को निरन्तर दी जा रही अमरीकी हथियारों की आपूर्ति के विषय में भी भारत की चिन्ता से उन्हें अवगत कराया । 18 जुलाई, 1986 को अमरीकी विदेश विभाग के एक प्रवक्ता ने कहा कि अमरीका खालिस्तान की मांग का समर्थन नहीं करता ।
1987 में अमरीकी संसद की विदेश मामलों की सीमित ने स्वीकृत विदेशी सहायता विधेयक के अन्तर्गत भारत को अमरीकी सहायता में लगभग आधी कटौती कर दी । भारत को दी जानी वाली 6 करोड़ डॉलर की सहायता लगभग 3.5 डॉलर की दी गई ।
यही नहीं भारत से कहा गया कि वह इजराइल से सम्बन्ध सुधारे । इधर राजीव गांधी व इंका अमरीका की खुलकर आलोचना करने लगे । राजीव गांधी का कहना था कि अमरीका भारत में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने का प्रयास कर रहा है । इंका सांसदों ने सी.आई.ए पर आरोप लगाया कि वह देश में गड़बड़ करा रही है ।
9 सितम्बर, 1987 को नई दिल्ली में अमरीकी राजदूत गुंथर डीन्स व विदेश सचिव के.पी.एस. मेनन ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए । इसके अन्तर्गत अमरीका कुछ शर्तों पर भारत को सुपर कम्प्यूटर देने पर सहमत हो गया । भारत को द क्रे एक्स एम पी-14 सुपर कम्प्यूटर अक्टूबर 1988 को प्राप्त हुए और इन्हें नई दिल्ली में भारतीय मौसम विज्ञान के परिसर में राष्ट्रीय मध्यम रेंज मौसम पूर्वानुमान केन्द्र में संस्थापित किया गया ।
अक्टूबर, 1987 में प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने अमरीका की यात्रा की और राष्ट्रपति रीगन व रक्षा सचिव वाइन बर्जर आदि अमरीकी नेताओं से भेंट की । बातचीत में पाकिस्तान द्वारा बनाए जा रहे परमाणु बम व अमरीकी सैन्य सहायता आदि मुद्दों पर बातचीत हुई ।
बाद में विदेशी मामलों पर अमरीकी सीनेट की विनियोग उप-समिति ने एक महत्वपूर्ण फैसला लेकर आणविक मसले पर भारत व पाकिस्तान को एक ही श्रेणी में रख दिया तथा संशोधन स्वीकार कर दोनों देशों को उच्च प्रौद्योगिकीकरण के हस्तान्तरण तथा अमरीकी समर्थित बहुउद्देश्यीय सहायता पर प्रतिबन्ध लगा दिया ।
यह प्रतिबन्ध इस नतीजे पर पहुंचने के बाद लगाया गया कि दोनों देश आणविक शस्त्र बनाने का सामान एकत्र कर रहे हैं और यह अमरीकी विदेश सहायता कानून का उल्लंघन है । भारत के अमरीका में राजदूत ने रीगन प्रशासन से इस प्रस्तावित संशोधन के बारे में कड़ा विरोध प्रकट किया और इसे भारत विरोधी कार्यवाही कहा ।
भारत का कहना था कि उसका परमाणु कार्यक्रम शान्तिपूर्ण उद्देश्य के लिए है जबकि पाकिस्तान की तैयारी परमाणु बम बनाने की दिशा में चल रही है । ऐसी स्थिति में पाकिस्तान व भारत को बराबरी का दर्जा देना भारत के साथ अन्याय है ।
6. वी.पी. सिंह-चन्द्रशेखर और भारत-अमरीका सम्बन्ध (V.P. Singh-Chandra Shekher And Indo-American Relations):
विश्वनाथ प्रताप सिंह और चन्द्रशेखर (दिसम्बर 1989 से जून 1991 तक) लगभग डेढ़ वर्ष प्रधानमन्त्री रहे । इस अवधि मे भारत-अमरीकी सम्बन्ध सामान्य बने रहे । अमरीका भारत का सबसे बड़ा व्यापार भागीदार रहा । भारतीय निर्यातों की उसकी हिस्सेदारी 18.5 प्रतिशत और अपने आयातों के लिए लगभग 11.5 प्रतिशत रही ।
अमरीका ने अप्रैल 1991 में स्पेशल 301 के अन्तर्गत भारत पर प्रतिबन्ध लगाने का निर्णय लिया बाद में इसे स्थगित कर दिया गया । खाड़ी संकट के दिनों में भारत ने आन्तरिक राजनीति के दबाव में अमरीकी विमानों को ईंधन भरने से रोका जिसे अमरीका ने पसन्द नहीं किया ।
7. पी.वी. नरसिम्हा राव और भारत-अमरीका सम्बन्ध (P.V. Narsimha Rao And Indo-American Relations):
शीत-युद्ध के समाप्त हो जाने से अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन आया । इससे भारत-अमरीकी सम्बन्धों पर रचनात्मक प्रभाव पड़ा और द्विपक्षीय सम्बन्धों को मजबूत बनाने के प्रयल प्रारम्भ हुए । संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के सदस्यों की शिखर बैठक के दौरान प्रधानमन्त्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने न्यूयार्क में राष्ट्रपति बुश से मुलाकात की ।
रक्षा क्षेत्र में एक-दूसरे के देशों की उच्च स्तरीय यात्राएं की गईं । अमरीकी सेना के प्रशान्त कमाण्ड और अमरीकी कमाण्डर-इन-चीफ प्रशान्त कमाण्ड ने भारत की यात्रा की । भारत के नौ-सेना प्रमुख की अमरीकी यात्रा के बाद अमरीकी नौ-सेना कार्यों के प्रमुख ने भारत की यात्रा की ।
अगस्त, 1991 में भारत के सेनाध्यक्ष ने अमरीका की यात्रा की फिर भारत के रक्षामन्त्री शरद पवार ने अमरीका की यात्रा की तथा हिन्द महासागर में भारत-अमरीकी नौ-सेना के संयुक्त अभ्यास की स्वीकृति दी गई । भारत और अमरीका ने 10 से 15 मई, 1995 तक एक संयुक्त नौ-सेना अभ्यास मलाबार II भी किया ।
अमरीका ने भारत द्वारा प्रारम्भ किए गए, आर्थिक उदारीकरण उपायों का स्वागत किया इस प्रक्रिया को उत्साहित किया और बहुपक्षीय संस्थाओं से ऋण के लिए भारत के अनुरोध का समर्थन किया । मई, 1994 में भारत के प्रधानमन्त्री पी.वी. नरसिम्हा राव की अमरीका यात्रा के बाद भारत-अमरीकी सम्बन्धों का तीव्रता से विकास हुआ और उनमें विविधता आई ।
1994-95 के दौरान वाणिज्यिक तथा आर्थिक क्रियाकलाप भारत-अमरीका सहयोग के प्रमुख क्षेत्र थे । भारत में सीधे निवेश करने वाले देशों में अमरीका सबसे बड़ा निवेशक रहा । जिसके द्वारा 1991 से 1994 तक अमरीका से वास्तविक सीधा निवेश 2,039 मिलियन रुपए का था ।
1994 में द्विपक्षीय व्यापार लगभग 2,400 करोड़ रुपए का हो गया जिसमें भारतीय निर्यात 16,700 करोड़ का था । जनवरी-सितम्बर, 1995 की अवधि में अमरीका से 3 करोड़ रुपए का निवेश अनुमोदित हुआ । भारत ने बदले परिप्रेक्ष्य में अपनी विदेशी नीति में परिवर्तन किए ।
इजरायल के साथ राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित किए एवं परम्परागत नीति में परिवर्तन का संयुक्त राष्ट्र संघ में लौकर्षी एवं टेनेर विमान विस्फोट के लिए जिम्मेदार लीबियाई आरोपियों को सौंपने के अमरीका फ्रांस एवं ब्रिटेन के प्रस्ताव के पक्ष में मत दिया ।
भारत द्वारा पश्चिम एशिया सम्बन्धी नीतियों के परिवर्तन का संकेत तब मिला जब उसने संयुक्त राष्ट्र संघ के सन् 1975 के इजरायल विरोधी प्रस्ताव को रह करने सम्बन्धी अमरीका समर्थित नए प्रस्ताव का समर्थन किया ।
इन सबके बावजूद अनेक मुद्दों पर भारत-अमरीकी मतभेद उभरकर सामने आए । अमरीका चाहता था कि भारत परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर कर दे और दक्षिण एशिया को परमाणु मुक्त क्षेत्र बनाने के लिए अमरीका द्वारा प्रस्तावित पांच देशों के सम्मेलन में भाग ले ।
भारत ने स्पष्ट कर दिया कि वह वर्तमान स्थिति में परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं करेगा । यह सन्धि समानता पर आधारित नहीं है । भारत को रॉकेट प्रौद्योगिकी न देने के लिए रूस पर अमरीका ने दबाव डाला ।
अमरीका का कहना था कि यह अनुबन्ध (रूसी अन्तरिक्ष एजेन्सी ग्लेव कास्मास तथा भारतीय अन्तरिक्ष अअधान संगठन इसरो) प्रक्षेपास्त्र प्रौद्योगिकी अप्रसार सन्धि का उल्लंघन है जबकि भारत के अनुसार यह सौदा ऐसे रॉकेट बूस्टरों का था जिनका सैनिक प्रयोग हो ही नहीं सकता ।
भारत ने अपने प्रक्षेपास्त्र ‘अग्नि’ का परीक्षण अमरीकी दबाव में ही लम्बे समय तक रोके रखा । अमरीका ने भारत को अमरीकी मण्डियों से गेहूं क्रय करने में बाधाएं डालीं । राष्ट्रपति लिंटन ने ऐसी संस्थाओं को पत्र लिखे जो अमरीका में बैठकर भारत विरोधी मंसूबे बनाती हैं । इस आशय का पहला पत्र उन्होंने वाशिंगटन स्थित कश्मीरी-अमरीकन काउन्सिल के सर्वेसर्वा डॉ. गुलाम नबी फाई को लिखा था ।
यह संस्था कश्मीर के भारत में विलय का विरोध करती है । राष्ट्रपति क्लिंटन ने इस संस्था के साथ मिलकर कश्मीर में शान्ति व्यवस्था बहाल करने का प्रस्ताव रखा । दूसरा पत्र क्विंटन ने डेमोक्रेटिक पार्टी के सांसद गेरी कानॅडिट के पत्र में उत्तर में लिखा ।
इसमें उन्होंने पंजाब में उग्रवादियों और भारत सरकार के बीच तनाव की चर्चा की और सिखों के मानवाधिकारों की सुरक्षा की बात कही । राष्ट्रपति के इन पत्रों को भारत विरोधी तत्व अपने हित में प्रयोग करने लगे । इससे भारत में क्षोभ होना स्वाभाविक था । इसी परिप्रेक्ष्य में भारत के गृहमन्त्री एस.वी. चह्वाण ने 2 मार्च, 1994 को लोकसभा में अमरीका पर कश्मीर मामले में हस्तक्षेप का आरोप लगाया और कहा कि अमरीका को भारत में कश्मीर के विलय अथवा मानवाधिकारों के बारे में प्रश्न उठाने का कोई अधिकार नहीं है ।
8. एच.डी. देवेगौडा-इन्द्रकुमार गुजराल और भारत-अमरीका सम्बन्ध (H.D. Devegoda-Indra Kumar Gujral and Indo-American Relations):
एच.डी. देवेगौडा की सरकार ने विश्वास मत प्राप्त कर लेने के बाद व्यापक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (सी.टी.बी.टी.) के मसौदे पर हस्ताक्षर करने से इकार कर अमरीका के महाशक्तिपन को चुनौती दे डाली ।
अमरीका की ओर से उसे आर्थिक प्रतिबन्धों की धमकी दी गई विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के असहयोग की भी धमकी दी गई । उसे कहा गया कि विश्व बैंक द्वारा चल रहे वे 93 प्रकल्प खटाई में पड़ जाएंगे जिनकी कीमत 162 अरब डॉलर है ।
सी.टी.बी.टी. पर भारतीय दृष्टिकोण से यूरो-अमरीकी देश अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर सफलतापूर्वक यह प्रचार कर सके कि आणविक निरस्त्रीकरण के कार्य में भारत अड़ंगे लगा रहा है । फलत: हम सुरक्षा परिषद् की अस्थायी सीट के लिए बुरी तरह पराजित हुए ।
भारत एवं रूस के बीच सुधरते रिश्तों से अमरीका काफी चिन्तित हो उठा । पहले उसने भारत को क्रायोजेनिक रॉकेट इनिन सप्लाई न करने के लिए रूस पर दबाव डाला था । इस बार उसने रूस द्वारा भारत को दो परमाणु रिएक्टर के बेचने का विरोध किया ।
अमरीका भारत की परमाणु प्रक्षेपास्त्र एवं नौसैनिक नवीनीकरण के कार्यक्रमों को लेकर काफी चिन्तित दिखलाई दिया, अत: यह उसकी गूढ़ कूटनीति रही कि वह भारत को व्यापारिक पूंजी निवेश एवं प्रतिरक्षा के क्षेत्रों में अमरीकी सहयोग की दुहाई देते हुए उसकी बढ़ती सैनिक शक्ति को कमजोर करे ।
लिटन प्रशासन ने भारत के कड़े विरोध एवं आपत्तियों के बावजूद भी ब्राऊन संशोधन कानून 1996 के अन्तर्गत पाकिस्तान को 368 मिलियन अमरीकी डॉलर के आधुनिकतम हथियार, जैसे ओरियन विमान (टोह लेने वाले), हारपून प्रक्षेपास्त्र एवं एफ-16 कलपुर्जों का हस्तान्तरण किया जो निश्चित रूप से भारत की प्रतिरक्षा के लिए चिन्ता का विषय बना ।
अमरीका ने विश्व व्यापार संगठन का सम्मेलन (1996) में भारत पर अपने पैटेन्ट अधिनियम (1970) को डब्ल्यू.टी.ओ के प्रावधानों के अन्तर्गत शीघ्रातिशीघ्र संशोधित करने के लिए दबाव डाला । यदि भारत द्वारा ऐसा नहीं किया गया तो वह मिकी केन्टोर की 1994 की रिपोर्ट के अन्तर्गत भारत के खिलाफ सुपर-301 एवं स्पेशल-301 के अन्तर्गत कार्यवाही करने की भी धमकी देता आ रहा है ।
इन्द्रकुमार गुजराल के प्रधानमन्त्री बनने के बाद जून, 1997 में भारत और अमरीका के बीच एक महत्वपूर्ण प्रत्यर्पण सन्धि पर हस्ताक्षर हुए । इस सन्धि के अन्तर्गत दोनों ही देश एक-दूसरे द्वारा वांछित ऐसे भगोड़े अभियुक्तों व अपराधियों का प्रत्यर्पण करेंगे जो एक वर्ष से अधिक की सजा के पात्र हों चाहे उनकी नागरिकता कोई भी हो ।
संयुक्त राष्ट्र महासभा के 52वें वार्षिक अधिवेशन को सम्बोधित करने के लिए अमरीका गए प्रधानमन्त्री इन्द्रकुमार गुजराल की अमरीकी राष्ट्रपति बिल लिंटन के साथ 30 मिनट तक (सितम्बर 1997) महत्वपूर्ण वार्ता हुई । गुजराल-क्लिंटन वार्ता मूलत: द्विपक्षीय मुद्दों पर केन्द्रित रही ।
9. अटल बिहारी वाजपेयी और भारत-अमरीका सम्बन्ध (Atal Bihari Vajpai and Indo-American Relations):
श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी भाजपा गठबंधन सरकार की परमाणु नीति से अमरीकी प्रशासन चिन्तित हो उठा गठबंधन सरकार ने परमाणु नीति की पुनर्समीक्षा की घोषणा की तो अमरीकी अधिकारियों ने चेतावनी दी कि यदि भारत ने परमाणु हथियारों का परीक्षण किया तो उसके खिलाफ स्वत: दण्डात्मक प्रतिबन्ध लागू हो जाएंगे ।
जब भारत ने 11 एवं 13 मई, 1998 को सफल परमाणु परीक्षण कर आणविक शक्ति बनने के अपने अडिग निश्चय को प्रकट कर दिया तो अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने कठोर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिए । लिंटन ने परीक्षणों को ‘खतरनाक गलती’ बताते हुए भर्स्सना की ।
उन्होंने 1994 के अमरीकी परमाणु अप्रसार कानून के अन्तर्गत प्रतिबन्धों की घोषणा की जिससे सभी द्विपक्षीय सैन्य व आर्थिक मदद तथा भारतीय कम्पनियों को अमरीकी बैंकों से ऋण बन्द हो गए । क्लिंटन ने भारत से यह घोषणा भी करने के लिए कहा कि वह और परमाणु परीक्षण नहीं करेगा तथा बिना कोई शर्त लगाए सी.टी.बी.टी. पर हस्ताक्षर कर दे ।
अमेरिका ने पी-5 तथा जी-8 की बैठकों में भारत के नाभिकीय परीक्षणों की आलोचना करने के लिए पहल की । बाद में अमरीका भारत की सुरक्षा चिन्ताओं को समझने लगा और भारत के विरुद्ध लगाए गए प्रतिबन्धों को आशिक रूप से उठाने की घोषणा की ।
अमरीका ने पाकिस्तान पर दबाव डालते हुए करगिल से अपनी सेना हटाने को कहा । अमरीकी प्रशासन का मानना है कि इस घुसपैठ की योजना पाक सेना ने छापामारों और अफगानी तालिबान के साथ मिलकर बनाई थी ।
अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन की भारत यात्रा:
22 वर्षों बाद किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने 21 मार्च, 2000 से 5 दिवसीय भारत की यात्रा की । इस यात्रा को भारत-अमेरिका सम्बन्धों में एक मोड़ माना जाता है । अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की भारत यात्रा की औपचारिक शुरुआत के पहले दिन क्लिंटन तथा प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने विभिन्न क्षेत्रों में आपसी सहयोग बढ़ाए जाने सम्बन्धी एक दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए ।
इस दस्तावेज में जिसे दृष्टिकोण पत्र 2000 नाम दिया गया, भारत-अमरीका के आपसी सम्बन्धों को प्रगाढ़ बनाने के लिए आठ-सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की गई । दोनों देशों के शासनाध्यक्षों के बीच नियमित रूप से शिखर बैठक सुरक्षा तथा परमाणु अप्रसार पर चल रही बातचीत को गति प्रदान करने, आपसी सम्बन्धों एवं अन्य मुद्दों की समीक्षा करने और आतंकवाद से और अधिक कारगर ढंग से मिलकर निपटने पर सहमति व्यक्त की ।
तीन पृष्ठ के दृष्टिकोण पत्र में इस बात पर बल दिया गया कि दोनों देश एशिया तथा विश्व में सामरिक स्थिरता के लिए आपस में तथा अन्य देशों के साथ मिलकर नियमित रूप से सम्पर्क रखेंगे तथा काम करेंगे ।
दोनों देशों के बीच मतभेदों का विषय बने परमाणु मुद्दों के बारे में दृष्टिकोण पत्र में कहा गया कि अमरीका का मानना है कि भारत को परमाणु हथियार नहीं रखने चाहिए जबकि भारत का कहना है कि वह अपनी सुरक्षा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर विश्वसनीय न्यूनतम परमाणु प्रतिरोधक अपनाए हुए है लेकिन दोनों ही देशों ने इस मामले में अपना पक्ष रखते हुए परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने के लिए काम करने के लिए प्रतिबद्धता दोहराई ।
दस्तावेज में दोनों ही देशों ने कहा कि वे परमाणु क्षेत्रों में अपने मतभेदों को कम करेंगे तथा परमाणु अप्रसार तथा सुरक्षा मुद्दों पर अपनी समझ-बूझ बढ़ाएंगे । दोनों देशों ने लोकतन्त्र के लिए अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करते हुए इस वर्ष लोकतन्त्रों के अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय की शुरुआत करने में सहयोग करने पर भी सहमति दी ।
दृष्टिकोण पत्र पर अमरीका ने भारत के आर्थिक उदारवाद तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी क्षेत्र में हुई प्रगति की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उभयपक्षीय व्यापार निवेश तथा विशेष तौर पर सूचना पर आधारित उद्योग तथा उच्च प्रौद्योगिकी वाले क्षेत्रों के व्यापार बढ़ाने के रास्तों में आने वाली अड़चनों को हटाने की प्रतिबद्धता व्यक्त की ।
अन्य क्षेत्रों में संस्थागत संवाद कायम करने के उद्देश्य से किए गए ठोस निर्णयों के अन्तर्गत दोनों पक्षों ने विदेश मन्त्री स्तर पर आपसी सम्बन्धों पर व्यापक बातचीत करने का भी निर्णय किया । इस बातचीत की एक महत्वपूर्ण बात यह होगी कि दोनों पक्ष एशियाई सुरक्षा पर भी बातचीत करेंगे । साझा बयान में गरीबी, भूख तथा बीमारी से लड़ने की दोनों देशों की प्रतिबद्धता दोहराई गई तथा आर्थिक प्रगति एवं पर्यावरण संरक्षण की चुनौतियां का मुकाबला करने के लिए मिलकर काम करने का बल दिया गया ।
राष्ट्रपति लिटन ने भारत के इस रुख को सही बताया कि जब तक नियन्त्रण रेखा का सम्मान न हो और उग्रवादी हिंसा को काबू में न किया जाए भारत-पाक वार्ता नहीं हो सकती । प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने स्पष्ट कर दिया कि सुरक्षा परिदृश्य के लिहाज से भारत के लिए यह जरूरी है कि वह न्यूनतम परमाणु प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखे ।
राष्ट्रपति के.आर.नारायणन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता के लिए अमरीका का समर्थन मांगा । राष्ट्रपति ने कहा भारत की यह मांग न केवल उसके विशाल आकार जनसंख्या आर्थिक और तकनीकी स्थिति को देखते हुए न्यायोचित है बल्कि विश्व संगठन को दी गई सेवाओं के मद्देनजर भी वाजिब है । राष्ट्रपति क्लिंटन ने भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव कम करने के लिए चार सूत्री फार्मूला पेश किया-नियन्त्रण रेखा का आदर, संयम बरतना, बातचीत फिर से शुरू करना तथा हिंसा एवं आतंकवाद की समाप्ति ।
राष्ट्रपति क्लिंटन पाकिस्तान में (25 मार्च, 2000):
राष्ट्रपति क्लिंटन भारत की पाँच दिन की यात्रा समाप्त कर 25 मार्च, 2000 को विमान से इस्तामाबाद पहुंचे । लिटन ने कश्मीर मसले के समाधान में मध्यस्थता करने की पाकिस्तान की अपील खारिज करते हुए देश में सेना द्वारा सत्ता सम्भालने पर उसे जमकर लताड़ लगाई ।
उन्होंने सीमा पार जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देने के खिलाफ भी पाकिस्तान को दो टूक चेतावनी दी और कहा कि नियन्त्रण रेखा के पार नागरिकों पर हमलों को पाकिस्तान का समर्थन जारी रहा तो पाकिस्तान अमरीकी समर्थन खो देगा ।
अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि पाकिस्तान भारत के साथ बातचीत बहाल करने के लिए अनुकूल माहौल बनाए । टेलीविजन पर जनता के नाम सम्बोधन में कठोर शब्दों का इस्तेमाल करते हुए क्लिंटन ने कहा, ”यह युग उन लोगों को पुरस्कृत नहीं करता जो खून से सरहदों की लकीर दुबारा खींचने का फिजूल का प्रयास करते हैं । यह युग उनका है जो सरहदों से आगे देखकर वाणिज्य और व्यापार में साझीदार बनाना चाहते हैं ।”
क्लिंटन ने कहा कि कश्मीर मामले का कोई सेनिक समाधान नहीं हो सकता । क्लिंटन ने पाकिस्तान को दो टूक शब्दों में कहा कि यदि उसने हिंसा का समर्थन किया तो उसे अलग-थलग होने का खतरा उठाना पड़ेगा ।
क्लिंटन ने सैनिक प्रशासक जनरल परवेज मुशर्रफ से कहा कि उनके देश का परमाणु हथियार कार्यक्रम सिर्फ धन की बर्बादी है…भारत के साथ परमाणु हथियारों की दौड़ में शामिल होना राष्ट्र की सम्पत्ति का अनाप-शनाप व्यय है । उन्होंने पाकिस्तान को सीटीबीटी पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा ।
क्लिंटन की भारत यात्रा: नए दिशा संकेत:
i. भारत और अमरीका का ‘दृष्टिकोण-2000’ नामक घोषणापत्र अमरीका के नए इरादों को प्रकट करता है ।
ii. क्लिंटन ने स्पष्ट कर दिया कि अमरीका भारत के साथ आगे निरन्तर संवाद रखना चाहता है । साथ ही अमरीका भारत की सुरक्षा सम्बन्धी चिन्ताओं को भी समझ रहा है ।
iii. क्लिंटन ने हिंसा का विरोध करते हुए पाकिस्तान को भी यह संदेश दिया कि वह कश्मीर में नियन्त्रण रेखा का सम्मान करे ।
iv. भारतीय बाजार का खुला होना अमरीका अपने आर्थिक हित में मानता है । साथ ही सूचना प्रौद्योगिकी सॉफ्टवेयर और ज्ञान आधारित क्षेत्रों में पहल को भी अमेरिका व्यवसाय की दृष्टि से अपना पूरक मानने लगा है ।
v. अमरीका दक्षिण एशिया क्षेत्र में स्थिरता व शान्ति बनाए रखना चाहता है । साथ ही किसी भी सम्भावित परमाणु टकराव को भी रोकना चाहता है…।
क्लिंटन की इस यात्रा में जहा अनेक महत्वपूर्ण बातों पर सहमति हुई, वहां कई मुद्दों पर असहमति बनी रही । जैसे, भारत सीटीबीटी पर उसके वर्तमान रूप में हस्ताक्षर करने को सहमत नहीं हुआ । उसने अपने प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को स्थगित करना भी नहीं माना ।
परमाणु अप्रसार सन्धि और परमाणु सामग्री के निर्यात पर रोक सम्बन्धी विषयों पर भी सीधे समझोते नहीं हो सके । लेकिन, दोनों देशों ने एक-दूसरे के दृष्टिकोण को ऐसे टकराव का मुद्दा नहीं बनाया कि जैसे मैत्री और समझ-बूझ के नए युग का शुभारम्भ करने में बाधक माना जाए । कुल मिलाकर अमरीका के राष्ट्रपति की यह यात्रा विश्व में भारत के समुचित महत्व को स्थापित करती है ।
प्रधानमन्त्री वाजपेयी की अमरीका यात्रा (सितम्बर 2000):
भारत के प्रधानमन्त्री सितम्बर 2000 में 11 दिन की अमरीका यात्रा पर रहे । अमरीका प्रवास के दौरान 13-17 सितम्बर तक वह अमरीकी सरकार के मेहमान थे । 14 सितम्बर को उन्होंने अमरीकी कांग्रेस के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को सम्बोधित किया ।
विकास के मामले में भारत-अमरीकी सम्बन्धों का आह्वान करते हुए इस मामले में एक व्यापक वैश्विक वार्ता (Global Dialogue On Development) का आयोजन नई दिल्ली में करने की भी उन्होंने पेशकश की । अमरीकी सांसदों को उन्होंने बताया कि विश्व का कोई अन्य देश आतंकवादी हिंसा का उतना शिकार नहीं हुआ है जितना भारत को गत दो दशकों में होना पड़ा है । आतंकवाद से लड़ने के लिए उन्होंने भारत व अमरीका के बीच नजदीकी सहयोग का आह्वान किया ।
परमाणु अप्रसार पर बोलते हुए वाजपेयी ने सीटीबीटी पर भारत के हस्ताक्षर का कोई आश्वासन दिए बिना कहा कि अप्रसार के अमरीकी प्रयासों में भारत कोई बाधक बनना नहीं चाहता । उन्होंने स्पष्ट किया कि भारत इस मामले में अमरीका की चिन्ता समझता है तथा यह चाहता है कि अमरीका भी भारत की सुरक्षा चिन्ताओं को समझे ।
अफगानिस्तान के तालिबान प्रशासन द्वारा आतंकवादियों को दी जा रही शरण व सहायता के मुद्दे पर भारत-अमरीकी संवाद को जारी रखने को दोनों देशों में सहमति हुई । अमरीका ने संकल्प जताया कि वह कश्मीर विवाद में हस्तक्षेप नहीं करेगा और भारत ने इस बात के लिए सहमति दी कि सीटीबीटी पर हस्ताक्षर करने तक परमाणु परीक्षणों पर स्वघोषित रोक को वह जारी रखेगा ।
पारस्परिक आर्थिक सहयोग बढ़ाने के उद्देश्य से दोनों देशों के बीच ऊर्जा, ई-कामर्स व बैंकिंग क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए 6 अरब डॉलर के पांच व्यावसायिक समझौतों पर हस्ताक्षर भी इस यात्रा के दौरान सम्पन्न का ।
रॉबर्ट डॉ. ब्लेकविल की नियुक्ति:
मार्च 2001 में बुश प्रशासन ने रोबर्ट डॉ. ब्लेकविल को भारत में नया अमरीकी राजदूत नियुक्त किया । राष्ट्रपति बुश के अनुसार, ”ब्लेकविल यह जानते हैं कि विदेश नीति की मेरी विषय सूची में भारत का महत्वपूर्ण स्थान है ।”
भारत द्वारा विदेश सेवा में उच्चतम पद पर आरूढ़ ललित मानसिंह की संयुक्त राज्य में राजदूत पद पर नियुक्ति यह इंगित करती है कि वाजपेयी प्रशासन अमरीका से प्रगाढ़ संवाद कायम करने हेतु कितना उन्तुक है ?
बिदेशी मन्त्री जसवंत सिंह को ओवल कार्यालय आने का निमन्त्रण:
अप्रैल 2001 में राष्ट्रपति बुश राजनयिक औपचारिकताओं को दरकिनार करते हुए ह्वाइट हाउस के उस कक्ष में पहुंच गए जहां उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भारतीय विदेश मन्त्री जसवंत सिंह के साथ विचार विमर्श कर रहे थे उन्होंने निर्धारित कार्यक्रम से परे भारतीय मेहमान को अपने ओवल कार्यालय में मुलाकात के लिए आमन्त्रित किया । राष्ट्रपति के इस कदम को अमरीका के इस विचार की अभिव्यक्ति माना जा रहा है कि भारत एशिया में उसका एक महत्वपूर्ण सहयोगी है । भारत ने राष्ट्रपति बुश की नई अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था (एन.एम.डी.) का सबसे पहले खुला और पूरा समर्थन किया ।
आतंकवाद उन्मूलन के लिए अमरीका को सहयोग:
प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने राष्ट्रपति बुश को भरोसा दिलाया कि 11 सितम्बर, 2001 को अमरीका पर जो आतंकवादी हमले हुए हैं उनकी जांच में तथा आतंकवाद के खासे के लिए अन्तर्राष्ट्रीय प्रयासों में भारत अपना पूरा योगदान देगा ।
नवम्बर, 2001 को अमरीकी राष्ट्रपति बुश के साथ प्रधानमन्त्री वाजपेयी की वार्ता ह्वाइट हाउस में हुई । जून 2003 में जी-8 शिखर सम्मेलन में वाजपेयी की भेंट राष्ट्रपति बुश से हुई और बुश ने भरोसा दिखाया कि आतंकवाद के खासे के लिए वे जनरल मुशर्रफ को समझाएंगे ।
प्रोटोकॉल तोड़ राष्ट्रपति बुश आडवाणी से मिले:
10 जून, 2003 को अमरीकी राष्ट्रपति प्रोटोकॉल को दरकिनार करते हुए भारत के उपप्रधानमन्त्री लालकृष्ण आडवाणी से बातचीत करने पहुंचे । बुश की आडवाणी से हुई इस अप्रत्याशित मुलाकात को अमरीका की नजर में भारत के बढ़ते राजनीतिक एवं कूटनीतिक महत्व के रूप में देखा जाने लगा । बुश आडवाणी से मिलने उस समय पहुंचे जब ह्वाइट हाउस में उनकी अमरीका की राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार कोंडालीया राइस से बातचीत चल रही थी ।
पाकिस्तान और गैर-नाटो सहयोगी का दर्जा:
मार्च, 2004 में अमरीकी विदेश मन्त्री कोलिन पावेल ने इस्लामाबाद में घोषणा की कि अमरीका पाकिस्तान को महत्वपूर्ण गैर-नाटो सहयोगी का दर्जा देगा जिससे दोनों देशों के बीच सैन्य सम्बन्धों को बढ़ावा मिलेगा । नटवर सिंह के शब्दों में, “इस्लामाबाद में कोलिन पावेल ने भारत के चेहरे पर खुलेआम राजनय का चांटा मारा है ।
पावेल ने इतनी सदाशयता भी नहीं दिखाई कि वे भारत को इस मामले में भरोसे में लेते ।” अमरीका में नए वीजा कानून का सबसे ज्यादा प्रभाव भारतीयों पर: 16 जुलाई, 2004 से अमरीका में काम के लिए दिए जाने वाले वीजा के नवीकरणों के लिए कड़े नियम लागू किए गए । इन नए नियमों का सबसे ज्यादा प्रभाव अमरीका में काम करने वाले भारतीयों पर पड़ेगा ।
पाकिस्तान को एफ-16 विमान:
भारत और पाकिस्तान के सम्बन्ध सुधर रहे हैं और दोनों देशों की जनता के बीच मेलमिलाप नई ऊंचाइयां छू रहा है । ऐसे समय में अमरीका ने भारतीय उप महाद्वीप को एक बार फिर हथियारों की दौड़ में धकेल दिया । बुश प्रशासन ने एफ-16 विमान पाकिस्तान को देने का निर्णय किया और भारत के समक्ष अत्याधुनिक एफ-18 विमान देने का प्रस्ताव रखा ।
इससे दक्षिण एशिया के रक्षा पर्यावरण पर विपरीत असर पड़ना तय था । भारत की नाराजगी दूर करने के लिए अमरीका ने दोनों देशों के बीच सामरिक साझेदारी मजबूत करने की इच्छा व्यक्त की । पन्द्रह वर्ष से पाकिस्तान को एफ-16 विमानों की आपूर्ति का मामला अटका हुआ था । अब बुश प्रशासन ने ये विमान पाकिस्तान को देने का निर्णय करके एक तरह से आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अमरीका का साथ देने के एवज में जनरल परवेज मुशर्रफ को पुरस्कार दिया ।
एफ-16 विमान उत्कृष्ट लड़ाकू विमान है और यह कई प्रकार से काम आ सकता है । आकाशीय लड़ाई और हवा से जमीन पर हमले में इसकी क्षमता प्रमाणित हो चुकी है । यह अपेक्षाकृत कम लागत और उच्च क्षमता की हथियार प्रणाली हे ।
हवाई लड़ाई में एफ-16 की युद्ध क्षमता और ‘कॉम्बेट रेडियस’ किसी भी अन्य लड़ाकू विमान से ज्यादा है । यह किसी भी मौसम में अपने लक्ष्य को खोज सकता है और उड़ रहे किसी विमान की पहचान कर सकता है । हवा से जमीन पर लड़ाई के दौरान एफ-16 आठ सौ साठ किलोमीटर से ज्यादा दूर तक उड़ सकता है अपने हथियारों के द्वारा निशाना लगा सकता है । दुश्मन के विमान से बचाव कर सकता है और पुन अपने स्थान पर पहुंच सकता है ।
10. डॉ. मनमोहन सिंह और भारत-अमरीका सम्बन्ध (Dr. Manmohan Singh and Indo-American Relations):
डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भारत-अमरीकी सम्बन्धों में प्रगाढ़ता गर्मजोशी और नई सक्रियता आयी । अप्रैल 2005 में भारतीय विदेश मन्त्री नटवरसिंह अमेरिका यात्रा पर गये । इस दौरान राष्ट्रपति बुश ने द्विपक्षीय सम्बन्धों में नई गर्मजोशी का संकेत देते हुए कहा कि अमेरिका भारत को एक वैश्विक शक्ति मानता है । 14 अप्रैल, 2005 को भारत ने अमरीका के साथ ऐतिहासिक हवाई सेवा समझौता किया जिससे दोनों देशों के बीच उड़ान सम्बन्धी सभी अड़चनें दूर हो सकेंगी ।
28 जून, 2005 को पारस्परिक रक्षा सम्बन्धों को नये आयाम प्रदान करते हुए भारत व अमरीका ने एक नये रक्षा सहयोग समझौते पर वाशिंगटन में हस्ताक्षर किये । ‘न्यू फ्रेमवर्क फॉर दि यूएस-इंडिया डिफेंस रिलेशनशिप’ शीर्षक वाले इस समझौते में दोनों देशों के मध्य अगले 10 वर्षों के लिए सुरक्षा सहयोग की रूपरेखा निर्धारित की गई ।
दोनों देशों के साझा सुरक्षा हितों पर बल देते हुए इसमें कहा गया है कि दोनों देशों के रक्षा प्रतिष्ठान संयुक्त अभ्यास व आदान-प्रदान करेंगे साझा हित होने पर बहुराष्ट्रीय अभियानों में मिल-जुलकर काम करेंगे तथा सुरक्षा को बढ़ावा देने व आतंकवाद को परास्त करने के लिए सेनाओं की क्षमता मजबूत करेंगे ।
प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह की अमरीका यात्रा (1 जुलाई, 2005) के दौरान दोनों देशों के नेताओं के बीच हुई शिखर वार्ता मैं अमेरिका ने भारत को विश्व मंच पर आर्थिक सामरिक व बौद्धिक सम्पदा के क्षेत्र में एक उभरती शक्ति के रूप में मान्यता देते हुए जिस तरह समझौते किये वह अपने आप में ऐतिहासिक है ।
18 जुलाई, 2005 को भारत-अमेरिका के द्वारा जारी साझा बयान का सबसे महत्वपूर्ण भाग नाभिकीय ऊर्जा समझौता है । भारत ने जब पहली बार 1974 में परमाणु विस्फोट किया था तबसे अमेरिका ने भारत को किसी भी प्रकार के नाभिकीय क्षेत्र में सहयोग देने से मना कर दिया था तथा कई तरह के अन्य प्रतिबन्ध भी लगाये गये थे । लेकिन अब इस समझौते से वे पाबंदियां खत्म हो जायेंगी और भारत-अमरीका परमाणु ऊर्जा के मामले में एक-दूसरे के सहयोगी बन जायेंगे ।
1-3 मार्च, 2006 को अपने देश के उच्चस्तरीय प्रतिनिधि मण्डल के साथ अमरीका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश भारत की यात्रा पर रहे। प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह के साथ बातचीत के बाद जारी संयुक्त घोषणा-पत्र में भारत व अमरीका के परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग को 18 जुलाई, 2005 के समझौते के कार्यान्वयन के प्रति प्रतिबद्धता दोनों पक्षों ने व्यक्त की ।
इस समझौते के तहत भारत अपने सैन्य व असैन्य उपयोग वाले परमाणु संयंत्रों को अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) की निगरानी के अधीन लाने को सहमत हुआ है । इससे असैन्य परमाणु संयंत्रों के लिए अमरीका के साथ-साथ ‘नाभिकीय आपूर्ति समूह’ का सहयोग भारत को प्राप्त हो सकेगा ।
परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में हुई ताजा सहमति के अन्तर्गत भारत अपने कुल 22 मौजूदा परमाणु संयंत्रों में से 14 को अन्तर्राष्ट्रीय निगरानी के अधीन लायेगा; कोई भी फास्ट ब्रीडर रिएक्टर निगरानी में नहीं लाया जाएगा तथा भविष्य में स्थापित होने वाले किसी रिएक्टर की श्रेणी (सैन्य अथवा असैन्य) तय करने का अधिकार भारत का होगा ।
अमरीकी कांग्रेस के निचले सदन प्रतिनिधि सभा ने भारत के साथ बनी परमाणु सहमति को स्वीकृति दे दी । अमरीकी सीनेट ने भी भारी बहुमत से 17 नवम्बर, 2006 को समझौते की पुष्टि कर दी । सीनेटर जोसेफ बिडेन ने इस समझौते को राष्ट्रपति बुश की सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजनयिक व सामरिक पहल बताया ।
दूसरी ओर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 27 जुलाई, 2006 को संसद को बताया कि भारत परमाणु समझौते में किसी तरह के फेरबदल को स्वीकार नहीं करेगा । वस्तुत: इस समझौते पर अमल के लिए अमेरिका के परमाणु सहयोग सम्बन्धी कानून में संशोधन जरूरी है । मौजूदा अमरीकी कानून ऐसे किसी देश को परमाणु तकनीक देने से रोकता है जिसने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं । भारत ऐसा ही देश है ।
उल्लेखनीय है कि इस समझौते से भारत को अमेरिकी असैन्य नाभिकीय, तकनीक और नाभिकीय ईंधन उपलब्ध हो सकेगा । बदले में उसे अपने 14 असैन्य परमाणु रिएक्टरों को अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की निगरानी में रखना होगा ।
दिसम्बर 2006 में अमरीकी राष्ट्रपति बुश एवं भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच जुलाई 2005 व मार्च 2006 में सम्पन्न परमाणु सहयोग समझौते को कार्यान्वित करने के लिए आवश्यक विधेयक को अमरीकी कांग्रेस ने पारित कर दिया जिससे यूनाइटेड देइस-इण्डिया पीसफुल एटॉमिक एनर्जी कोऑपरेशन ऐक्ट, 2006 नाम का कानून (हेनरी हाइड कानून) अस्तित्व में आ गया ।
इससे तीन दशक के अन्तराल के पश्चात् एक बार पुन: भारत व अमरीका के बीच असैनिक परमाणु सहयोग शुरू होने का मार्ग प्रशस्त हो गया । किंन्तु इसके लिए 45 सदस्यीय न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (NSG) की स्वीकृति भी आवश्यक होगी जिसे भारत को असैनिक नाभिकीय सहायता प्रदान करने के लिए अपने सदस्यों के लिए दिशा-निर्देशों को उदार बनाना होगा ।
एनएसजी की सहमति के बाद ही अमरीका सहित इसका कोई सदस्य देश भारत को असैनिक उद्देश्यों के लिए नाभिकीय सहायता उपलब्ध करा सकेगा । एनएसजी की सहमति के बाद अमरीका अपने उपयुक्त नए कानून के अन्तर्गत भारत को असैनिक उद्देश्य के लिए परमाणु सहायता उपलब्ध कराने के लिए द्विपक्षीय समझौता (123 समझौता) सम्पन्न कर सकेगा ।
भारत में विपक्ष को सर्वाधिक चिंता इस शर्त की है कि अमरीकी राष्ट्रपति हर वर्ष भारत के परमाणु कार्यक्रम के बारे में कांग्रेस को एक रिपोर्ट पेश करेंगे । इस प्रकार अमरीकी कांग्रेस भारत के साथ भेदभाव को जारी रखने का प्रावधान जोड़ देगी और भारत को परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र का समान दर्जा मिलने के बजाय दूसरा दर्जा मिलेगा ।
अमरीकी राष्ट्रपति भारत के परमाणु कार्यक्रम पर पूरी निगाह रखेंगे । कुछ वैज्ञानिक उस प्रावधान से आहत हैं जिससे भारत के सभी परमाणु प्रतिष्ठान, सैनिक प्रतिष्ठान भी, अन्तर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की निगरानी में आ जाएंगे । ईंधन आपूर्ति बनाए रखने की कोई गारंटी नहीं है और उसे कभी भी रोका जा सकेगा ।
सबसे बड़ी बात यह है, कि समझौता दो समान परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों के बीच न होकर ऐसा है जिसमें एक पक्ष देने वाला है और दूसरा लेने वाला । इसके अतिरिक्त समझौते से बाहर निकलने का सुष्पष्ट प्रावधान भी नहीं हे ।
परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में इस सहमति के अतिरिक्त कृषि अन्तरिक्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी ऊर्जा स्वास्थ्य आदि के सम्बन्ध में कई अन्य समझौतों पर हस्ताक्षर भी दोनों पक्षों में हुए हैं । भारत और अमरीका के बीच परमाणु समझौते से दोनों देशों के द्विपक्षीय सम्बन्धों में नया मोड़ कई मसलों पर नई पहल के दरवाजे खुले हैं । राष्ट्रपति बुश के शब्दों में, “हमारे सम्बन्ध नाटकीय ढंग से बदल गये हैं…हमारे बीच अब रणनीतिक साझीदारी है…।”
भारत-अमरीका असैनिक नाभिकीय करार पर 10 अक्टूबर, 2008 को वाशिंगटन में हस्ताक्षर किया जाना प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की जुलाई, 2005 में अमरीका की यात्रा के दौरान घोषित असैनिक नाभिकीय ऊर्जा पहल की निष्पत्ति थी । भारत ने अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अभिकरण के साथ 1 अगस्त, 2008 को भारत विशेष सुरक्षोपाय करार सफलतापूर्वक सम्पन्न किया जिससे अमरीका के लिए एन.एस.जी. दिशानिर्देशों के समंजन के लिए 45 सदस्यीय नाभिकीय आपूर्तिकर्ता समूह से सम्पर्क साधने का मार्ग खुल गया ।
फलत: अमरीकी प्रतिनिधि सभा ने 28 सितम्बर, 2008 को तथा सीनेट ने 1 अक्टूबर, 2008 को करार से सम्बन्धित बिल को स्वीकृति दे दी 18 अक्टूबर, 2008 को राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने अमरीकी कांग्रेस द्वारा अनुमोदित भारत-अमरीका असैनिक नाभिकीय करार पर हस्ताक्षर कर इसे कानून बना दिया ।
नवम्बर, 2009 में डॉ. मनमोहन सिंह ने अमरीका की चार दिवसीय यात्रा की । स्वागत समारोह में राष्ट्रपति ओबामा ने कहा कि वह ऐसा भविष्य बनाना चाहते हैं, जिसमें भारत अपरिहार्य हो । उन्होंने भारत को परमाणु शक्ति के रूप में स्वीकार किया तथा भारत के साथ अमरीका के असैन्य परमाणु सहयोग समझौते के कार्यान्वयन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की । इस अवसर पर प्रधानमन्त्री और अमरीकी राष्ट्रपति ने भारत-अमरीकी साझेदारी के एक नए चरण की शुरुआत की और इसे ‘वैश्विक रणनीतिक साझेदारी’ बताया ।
राष्ट्रपति ओबामा की भारत यात्रा (6-8 नवम्बर, 2010):
अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा 6-8 नवम्बर, 2010 को भारत की यात्रा पर रहे । यात्रा के पहले ही दिन दोनों देशों की कम्पनियों के बीच बीस ऐसे समझौते सम्पन्न हुए जिनसे अमरीका में रोजगार के लगभग 50 हजार नए अवसर सृजित हो सकेंगे ।
अमरीका-भारत बिजनेस काउंसिल द्वारा आयोजित उद्यमियों की बैठक को सम्बोधित करते हुए राष्ट्रपति ओबामा ने ‘रक्षा अनुसन्धान और विकास संगठन’ ‘भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन’ एवं ‘भारत डायनेमिक्स लि.’ पर से प्रतिबन्ध हटाने की घोषणा की ।
राष्ट्रपति ने 45 सदस्यीय नाभिकीय आपूर्तिकर्ता समूह में भारत की पूर्ण सदस्यता के लिए अमरीकी समर्थन की घोषणा भी की । संसद के सेदल हॉल में दोनों सदनों के सदस्यों को सम्बोधित करते हुए भारत के लिए सुरक्षा परिषद् की सदस्यता हेतु अमरीकी समर्थन की भी उन्होंने घोषणा की ।
भारत के प्रधानमन्त्री और अमरीका के राष्ट्रपति ने इस बात की पुष्टि की कि भारत-अमरीका भागीदारी न सिर्फ दोनों देशों के लिए बल्कि 21वीं सदी में वैश्विक स्थिरता और समृद्धि के लिए अपरिहार्य है । भारत तथा संयुक्त राज्य ने आतंकवाद तथा अफगानिस्तान व पाकिस्तान में हिंसक उग्रवाद के लिए सुरक्षित समझे जाने वाले क्षेत्रों तथा उनकी आधारभूत संरचना को समाप्त किए जाने की आवश्यकता की पुन-पुष्टि की ।
उन्होंने सुरक्षित एवं सभी खतरों से मुक्त व स्थिर एशिया-प्रशान्त बनाने तथा अन्तर्राष्ट्रीय समुद्री क्षेत्रों में नौवहन की स्वतन्त्रता तथा अबाधित विधिसम्मत व्यापार सुनिश्चित करने की दिशा में अपनी रुचि की पुनर्पुष्टि की । दोनों देशों ने स्वापक पदार्थों की तस्करी समुद्री डकैती से रक्षा तथा समुद्री सुरक्षा मानवीय सहायता तथा आपदा राहत से सम्बन्धित विषयों पर आदान-प्रदान तथा सूचनाओं की भागीदारी की ।
उन्होंने समुद्री डकैती का मुकाबला करने सम्बन्धी प्रयासों में समन्वयन बढ़ाने पर भी अपनी सहमति प्रकट की । साइबर परामर्श ढांचे के अन्तर्गत 4 जून, 2012 को वाशिंगटन में साइबर सुरक्षा सहयोग बढ़ाया गया । दोनों देशों की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषदों ने बहुविध साइबर मुद्दों के सम्बन्ध में विचारों तथा सर्वोत्तम पद्धतियों का आदान-प्रदान किया ।
भारत एवं संयुक्त राज्य के कम्प्युटर आपातकालीन अनुक्रिया दल (सी.ई.आर.टी.) ने साइबर सुरक्षा विषयक चुनौतियों के सम्बन्ध में परस्पर अन्त क्रिया तथा सूचनाओं का आदान-प्रदान जारी रखा । दोनों देशों ने एक नए कार्यचालन समूह का गठन किया ताकि साइबर अन्तरिक्ष तथा वैश्विक इंटरनेट अभिशासन के मुद्दों पर विचार-विमर्श किया जा सके । इस समूह की पहली बैठक 31 जुलाई, 2012 को नई दिल्ली में आयोजित की गई थी ।
अधिकाधिक रक्षा व्यापार, संयुक्त सैनिक अभ्यासों कार्मिकों के विनिमय प्रौद्योगिकी अन्तरण तथा समुद्री सुरक्षा एवं समुद्री डकैती के विरुद्ध संघर्ष जैसे क्षेत्रों में सहयोग के द्वारा रक्षा सहयोग में वृद्धि की गई । भारतीय संयुक्त राज्य रक्षा नीति समूह की 12वीं बैठक फरवरी, 2012 में नई दिल्ली में आयोजित की गई थी और संयुक्त राज्य के अवर रक्षा नीति मन्त्री जेम्स मिलर ने इस बैठक में भाग लिया था । संयुक्त तकनीकी समूह की 14वीं बैठक नई दिल्ली में मार्च 2012 में आयोजित की गई थी ।
प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह की अमरीका यात्रा:
प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 26 से 30 सितम्बर 2013 तक संयुक्त राज्य अमरीका की यात्रा की और 27 सितम्बर, 2013 को अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से तृतीय शिखर सम्मेलन स्तरीय बैठक में बातचीत की । दोनों नेताओं ने पिछले दशक में भारत-अमरीकी सम्बन्धों में होने वाले सकारात्मक परिवर्तन का स्वागत किया तथा इस पर सहमति व्यक्त की कि आने वाले वर्षों में साझा लोकतान्त्रिक मूल्यों के आधार पर रणनीतिक भागीदारी को और सुदृढ़ किया जाएगा तथा इस सम्बन्ध में अनेक क्षेत्रों में पहले ही गहन कार्य शुरू कर दिया गया है ।
इस शिखर-स्तरीय बैठक में लिए गए मुख्य निर्णयों में सह-विकास और सह-निर्माण के सन्दर्भ में द्विपक्षीय रक्षा सम्बन्धों का विस्तार; हिन्द महासागर क्षेत्र को शामिल करने के लिए रणनीतिक परामर्श में वृद्धि; जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में संयुक्त कार्य समूह गठित करना और एच.एफ.सी. के उपयोग के चरण को कम करना तथा द्विपक्षीय निवेश सन्धि के परिणाम को गति प्रदान करना शामिल है ।
दोनों नेताओं ने गुजरात में परमाणु विद्यत् संयंत्र का निर्माण करने के लिए प्रारम्भिक वाणिज्यिक संविदा को अन्तिम रूप देने और नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में नई पहल को शुरू करने सहित ऊर्जा के सम्बन्ध में बढ़ते सहयोग का स्वागत किया ।
ADVERTISEMENTS:
रणनीतिक वार्ता:
विदेश मन्त्री श्री सलमान खुर्शीद और अमरीकी राज्य सचिव श्री जॉन एफ. कैरी ने 24 जून, 2013 को नई दिल्ली में भारत-अमरीकी रणनीतिक संवाद की चतुर्थ बैठक की सह-अध्यक्षता की । इन्होंने द्विपक्षीय सम्बन्धों में प्राप्त की गई प्रगति की समीक्षा की और ऊर्जा, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, शिक्षा, रक्षा, साइबर सुरक्षा तथा आतंकवाद रोधी कार्यक्रमों में द्विपक्षीय सहयोग को और सुदृढ़ करने के बारे में सहमति व्यक्त की ।
दोनों पक्षों ने नागरिक परमाणु करार के पूर्णत: कार्यान्वयन के लिए प्रतिबद्धता को दोहराया और चार बहु-पक्षीय निर्यात नियन्त्रण व्यवस्था में भारत की सदस्यता के लिए साथ मिलकर कार्य करने के बारे में सहमति व्यक्त की ।
असैनिक परमाणु सहयोग:
भारत और सयुक्त राज्य अमरीका ने गुजरात में परमाणु विद्युत् संयन्त्र विकसित करने के लिए सितम्बर 2013 में भारतीय परमाणु विद्युत निगम लिमिटेड (एन पी सी आई एल) और वेस्टिंग हाउस के मध्य प्रारम्भिक संविदा पर हस्ताक्षर करके द्विपक्षीय नागरिक परमाणु सहयोग के वाणिज्यिक कार्यान्वयन के सम्बन्ध में प्रगति प्राप्त की है ।