ADVERTISEMENTS:
Here is an essay on ‘Indo-Ceylon Relations’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. भारतीय प्रवासियों की समस्या:
श्रीलंका भारत के दक्षिण में स्थित एक छोटा द्वीप है जिसका क्षेत्रफल 25.332 वर्ग मील तथा जनसंख्या (2012) 21.28 मिलियन है । सांस्कृतिक दृष्टि से श्रीलंका भारत के साथ जुड़ा हुआ है । यहां पर रहने वाले भारतीय तमिलनाडु के मूल निवासी हैं । श्रीलंका के अधिकांश निवासी बौद्ध धर्मावलम्बी हैं ।
हिन्द महासागर में भारत के समीप होने के कारण सैनिक एवं सामरिक दृष्टि से श्रीलंका का भारत के लिए अत्यधिक महत्व है । भारत और श्रीलंका एक-दूसरे के पड़ोसी देश हैं, किन्तु उनके सम्बन्ध पड़ोसियों के सम्बन्धों से अधिक गहरे हैं ।
श्रीलंका भारतीय उपमहाद्वीप का ही एक अंग है, अत: इसका राजनीतिक महत्व ही नहीं बल्कि औद्योगिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक महत्व भी है । भारत से श्रीलंका की दूरी पाक जलडमरूमध्य पार करके बहुत कम समय में तय की जा सकती है । आधा घण्टे से कम की उड़ान में कोई भी भारत से श्रीलंका पहुंच सकता है अथवा श्रीलंका से भारत आ सकता है । किन्तु वहां पहुंचकर उसे ऐसा नहीं लगता कि वह किसी अन्य देश में पहुंच गया है ।
दक्षिण भारत की जलवायु एवं संस्कृति की बहुत-सी विशेषताएं वहां पर दिखायी देती हैं । वैसे भी भारत एवं श्रीलंका के सम्बन्ध सदियों पुराने हैं । मौर्य सम्राट अशोक के युग में भी श्रीलंका और भारत के बीच गहरे सम्बन्ध थे ।
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने ही पुत्र को श्रीलंका भेजा था और इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह बौद्ध धर्म की सुदृढ़ नींव श्रीलंका में रखने में सफल हुआ था । आज भी श्रीलंका के अधिकतर लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं और वे प्राचीन भारत के ऋषियों के कृत्यों से प्रेरणा प्राप्त करते हैं ।
21.28 मिलियन जनसंख्या का यह देश भारत से दक्षिण में पाक जलडमरूमध्य से पृथक् होता है । इसके पश्चिम में पाक जलडमरूमध्य एवं मन्नार की खाड़ी है । पूरब एवं उत्तर में बंगाल की खाड़ी एवं दक्षिण में हिन्द महासागर है ।
विश्व के इस भू-भाग के अन्य देशों की तरह श्रीलंका भी उपनिवेशीकरण का शिकार हुआ और 150 वर्ष से अधिक समय तक विदेशी शक्तियों के प्रभुत्व में रहा । सर्वप्रथम पुर्तगालियों ने इस देश पर अपना अधिकार किया, उसके बाद डच लोगों ने, किन्तु कालान्तर में इनका स्थान अंग्रेजों ने ले लिया ।
ADVERTISEMENTS:
अंग्रेजों ने अपनी विश्व-प्रसिद्ध नीति ‘फूट डालो और शासन करो’ का यहां भी उपयोग किया और वे श्रीलंका की जनसंख्या के दो बड़े समूहों में आपस में वैमनस्य बनाये रखने में सफल रहे । यहां पर बहुमत सिंहली भाषा-भाषियों का है, किन्तु तमिल भाषा-भाषी लोग अल्पमत में होते हुए भी काफी प्रभाव रखते हैं ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में श्रीलंका का विशिष्ट महत्व है । हिन्द महासागर में से गुजरने वाले सभी जलमार्गों का यह केन्द्र है । इसी सामरिक स्थिति के कारण अंग्रेज इसे छोड़ना नहीं चाहते थे । भारत और श्रीलंका औपनिवेशिक दासता के एक लम्बे समय तक शिकार रहे ।
दोनों ही देश लगभग साथ-साथ स्वाधीन हुए । श्रीलंका के राष्ट्रीय स्वाधीनता के आन्दोलन को भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन से प्रेरणा मिली । श्रीलंका की सरकार ने भी भारत सरकार के समान गुटनिरपेक्षता की नीति को स्वीकार किया । भारत की भांति श्रीलंका की नीति अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में शान्तिवाद गुटनिरपेक्षता सह-अस्तित्व और दूसरे देशों से मित्रतापूर्ण सम्बन्धों की रही ।
भारत की भांति श्रीलंका भी राष्ट्रमण्डल का सदस्य बना । कोलम्बो योजना के अन्तर्गत जिसकी रचना 1950 में कोलम्बो में राष्ट्रमण्डलीय प्रधानमंत्रियों के सम्मेलन में की गयी थी दोनों देशों ने आर्थिक क्षेत्र में पूर्ण सहयोग किया है । भारत और श्रीलंका में मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध होने पर भी समय-समय पर कुछ घटनाएं घटित होती रही हैं जिससे दोनों देशों के बीच मतभेद उभरकर सामने आये ।
ADVERTISEMENTS:
भारत और श्रीलंका के मध्य विवाद का प्रमुख मसला भारतीय प्रवासियों को लेकर उत्पन्न हुआ । श्रीलंका के अधिकांश भारतीय प्रवासी (लगभग 10 लाख) चाय और रबड़ की खेती पर काम करवाने के लिए लाये गये थे । ये श्रमिक सस्ते थे और इनमें से अधिकांश दक्षिण भारत से ले जाये गये थे ।
1948 में श्रीलंका के स्वतन्त्र होने तक यह ब्रिटिश नागरिकों के रूप में समान अधिकारों एवं मताधिकार का लाभ उठाते थे परन्तु शीघ्र ही 1948 के सीलोन नागरिकता अधिनियम एवं सीलोन संसदीय अधिनियम (1949) के द्वारा इन्हें मताधिकार से वंचित कर दिया गया ।
नागरिकता प्राप्त करने के लिए उन्हें यह प्रमाणित करना पड़ता था कि उनके माता-पिता या वे स्वयं श्रीलंका में जन्मे थे और 1939 से लगातार श्रीलंका में ही निवास कर रहे हैं । इस प्रकार श्रीलंका सरकार का विचार सम्भवत: यह था कि कम-से-कम भारतीयों को श्रीलंका की नागरिकता प्राप्त हो सके ।
इसके पीछे मुख्य कारण ये थे:
(i) बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण श्रीलंका में आर्थिक दबाव अनुभव होने लगा था और सिंहली लोग चाहते थे कि प्रवासी भारतीय यहां से चले जायें तो उनको रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त होने लगें ।
(ii) प्रवासी भारतीय अपनी कमाई का बड़ा भाग भारत भेज देते थे । श्रीलंका के विदेशी विनिमय पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता था ।
(iii) भारतीय प्रवासी वर्षों से श्रीलंका में रहने के बाद भी भारत को ही अपना देश मानते थे ।
(iv) प्रवासी भारतीयों की बड़ी संख्या चुनावों को अत्यधिक प्रभावित करती थी । इसीलिए 1949 के निर्वाचन कानून द्वारा उन्हें मताधिकार से वंचित कर दिया गया ।
उपर्युक्त कारणों के बावजूद भी प्रवासी भारतीयों के प्रति श्रीलंका सरकार का व्यवहार आपत्तिजनक और अन्यायपूर्ण था । प्रवासी भारतीय श्रमिकों को जिनके श्रम से श्रीलंका ने आर्थिक उन्नति की और यूरोपीय पूंजीपतियों के कोष भरे अब श्रीलंका से बहिष्कृत करने का प्रयास किया जा रहा था ।
समस्या और भी अधिक गम्भीर तब हो गयी जब श्रीलंका सरकार ने काण्टेशन लेबर एवं विदेशी व्यावसायिक संगठनों का राष्ट्रीयकरण करने की नीति प्रकट की । अशिक्षित भारतीय श्रमिकों के साथ यह अन्याय था अतएव भारत सरकार के लिए हस्तक्षेप करना आवश्यक हो गया ।
इस समस्या के समाधान के लिए भारत सरकार ने श्रीलंका सरकार से वार्ता प्रारम्भ की । लम्बी वार्ता के परिणामस्वरूप जनवरी 1954 में जान कोटलेवाला नई दिल्ली आये और नेहरू के साथ उनका एक समझौता हुआ जिसे नेहरू-कोटलेवाला समझौता कहते हैं ।
इसकी शर्तें निम्न प्रकार थीं:
(a) श्रीलंका की सरकार उन सभी भारतीय मूल के लोगों के नाम रजिस्टर करेगी जो श्रीलंका में स्थायी रूप से रहने के इच्छुक हैं ।
(b) जो श्रीलंका की नागरिकता नहीं चाहते उन्हें भारत वापस भेज दिया जायेगा ।
(c) भारत से श्रीलंका को अवैध अप्रवास सख्तीपूर्वक रोका जायेगा ।
(d) नागरिकता प्राप्त करने के लिए दो वर्षों से जो आवेदन-पत्र पड़े हैं उनका निर्णय सरकार जल्द करेगी ।
(e) भारतीयों के लिए श्रीलंका में एक अलग चुनाव रजिस्टर बनेगा जिसके आधार पर वे निश्चित संख्या में अपने प्रतिनिधि चुनेंगे ।
(f) जिन भारतवासियों को श्रीलंका में नागरिकता नहीं दी जा सकेगी उन्हें विदेशी के रूप में रहने की सुविधा दी जायेगी ।
श्रीलंका की सरकार ने इस समझौते का ईमानदारी से पालन नहीं किया और भारतीय मूल के बहुत सारे व्यक्तियों को नागरिकताविहीन बना दिया । मार्च 1954 में श्रीलंका सरकार ने भारतीय मूल के नागरिकों के ‘निवास आइघ पत्रों’ (रेजीडेन्स परमिट्स) का नवीनीकरण स्थगित करने की आज्ञा दे दी और इस प्रकार श्रीलंका में वर्षों से बसे हुए नागरिकों को अवैध निवासी बना दिया ।
यह सब दिल्ली समझौते की भावना के विरुद्ध था । इसके उत्तर में भारत सरकार ने भी जुलाई, 1954 से श्रीलंका से भारत आने के लिए वीसा प्राप्त करना आवश्यक कर दिया । इसके पूर्व वीसा प्राप्त करना आवश्यक नहीं था ।
भारत सरकार की ओर से भारतीय उच्चायुक्त ने श्रीलंका को चेतावनी दी कि भारत सरकार केवल उन्हीं व्यक्तियों को भारतीय नागरिकों के रूप में स्वीकार करेगी जिन्होंने स्वेच्छा से इसके लिए आवेदन किया है और ऐसे व्यक्तियों को फिर श्रीलंका के बगीचों एवं अन्य खेतियों पर भी काम करने की अनुमति नहीं दी जायेगी ।
राज्यविहीन नागरिकों की स्थिति पर दोनों सरकारों में मूलभूत अन्तर था । श्रीलंका सरकार इन्हें तब तक भारतीय नागरिक कहती थी जब तक वह उन्हें अपना नागरिक न मान ले । भारत सरकार के दृष्टिकोण से केवल वे ही व्यक्ति भारतीय नागरिक थे जिनके पास सदैव से भारतीय पासपोर्ट अथवा अनुमति पत्र थे और जिन्होंने भारतीय उच्चायुक्त के औफिस में अपने को पंजीकृत करा लिया था शेष व्यक्ति राज्यविहीन थे ।
इसी प्रकार बड़ी संख्या में राज्यविहीन व्यक्तियों की समस्या उत्पन्न हो गयी । इससे भारत और श्रीलंका के सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न हो गयी । 1956 के भाषा विवाद से यह कटुता और बढ़ गयी । श्रीलंका सरकार ने यह आरोप लगाया कि इन दंगों के पीछे भारत का हाथ था । परन्तु भण्डारनायके के प्रधानमन्त्रित्व (1956-59) में भारत और श्रीलंका सम्बन्धों में सुधार हुआ ।
भण्डारनायके नेहरू के प्रशंसक और मित्र थे वे गुटनिरपेक्षता की नीति में विश्वास करते थे और भारत को श्रीलंका का एक बड़ा मित्र-राष्ट्र मानते थे । उनकी हत्या के बाद श्रीमती भण्डारनायके (1960-77) के कार्यकाल में भी भारत-श्रीलंका सम्बन्ध मधुर रहे ।
इसी कारण अक्टूबर 1964 में भारतीय प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री और श्रीमती भण्डारनायके के बीच एक समझौता हुआ जिसमें निम्न बातें मुख्य थीं:
(1) श्रीलंका में रह रहे वे सभी भारतीय नागरिक जो अभी तक किसी भी देश के नागरिक नहीं हैं वे भारत या श्रीलंका में से किसी भी देश की नागरिकता अपनायें ।
(2) यह अनुमान था कि श्रीलंका में ऐसे 9,75,000 व्यक्ति हैं जो राष्ट्रीयताविहीन हैं । समझौते के अनुसार यह तय किया गया कि इनमें से 5,25,000 व्यक्तियों को भारत और 3,00,000 व्यक्तियों को श्रीलंका अपनी नागरिकता प्रदान करे और 1,50,000 व्यक्तियों की नागरिकता की समस्या को एक अन्य समझौतों द्वारा सुलझा दिया जायेगा ।
(3) आने वाले 15 वर्षों में यह कार्य पूरा कर लिया जाये ।
(4) भारत आने वाले प्रवासियों को वे सभी सुविधाएं प्राप्त होंगी जो किसी भी अन्य विदेशी को प्राप्त होती हैं लेकिन उन्हें विदेशों में धन भेजने की सुविधा नहीं होगी ।
(5) भारतीय अपनी कमाई हुई पूंजी को भारत ले जा सकेंगे लेकिन उसकी सीमा चार हजार से कम नहीं होनी चाहिए ।
इस समझौते में एक कमी यह रह गयी कि 1,50,000 राष्ट्रीयताविहीन व्यक्तियों की नागरिकता का सन्तोषपूर्ण निर्णय नहीं हो पाया । लेकिन जनवरी 1974 में जब श्रीलंका की प्रधानमन्त्री श्रीमती भण्डारनायके भारत आयीं तो शेष 1,50,000 राष्ट्रीयताविहीन व्यक्तियों की नागरिकता का भी निर्णय हो गया । एक समझौते के अनुसार दोनों देशों ने आधे-आधे यानी 75-75 हजार व्यक्तियों को अपनी-अपनी नागरिकता देना स्वीकार कर लिया ।
Essay # 2. कच्छदीव टापू का मसला:
भारत-श्रीलंका के बीच दूसरा मसला कच्छदीव से सम्बन्धित रहा है । कच्छदीव भारत और श्रीलंका के समुद्री तटों के बीच 200 एकड़ का एक छोटा-सा द्वीप है जिसमें नागफनी के अतिरिक्त और कुछ नहीं उगता । यहां जनसंख्या नहीं के बराबर है और आस-पास मछुआरे मछली जरूर पकड़ते हैं ।
दोनों देश इस भूखण्ड पर अपना आधिपत्य जताते थे । विवाद इसलिए और भी बढ़ गया क्योंकि इस द्वीप के आस-पास तेल के काफी बड़े भण्डार होने की आशा की जाती थी । भारत ने एक महान् पड़ोसी देश की परम्परा का निर्वाह करते हुए इस छोटे-से द्वीप के कारण दोनों देशों के बीच विवाद को लम्बा खींचना उपयुक्त नहीं समझा ।
28 जून 1974 को दोनों देशों में एक समझौता हुआ जिसके अनुसार कच्छदीव टापू पर भारत ने श्रीलंका की प्रभुसत्ता को स्वीकार कर लिया । जनता सरकार और भारत-श्रीलंका सम्बन्ध-जनता सरकार ने श्रीलंका से सम्बन्ध बढ़ाने के लिए ईमानदारी भरा प्रयल किया ।
श्रीलंका के विदेशमन्त्री हमीद अप्रैल 1978 में भारत आये और उसके बाद अकबर 1978 में जयवर्द्धने ने स्वयं भारत की यात्रा की । उन्होंने प्रवासी भारतीयों की समस्या शीघ्र सुलझाने का आश्वासन दिया किन्तु 35 करोड़ रुपए के भुगतान-असन्तुलन पर चिन्ता भी व्यक्त की । उन्होंने भारतीय पूंजी के विनियोग का स्वागत किया तथा दोनों देशों के सर्वविध आर्थिक सहयोग की कामना की ।
मुक्त व्यापार क्षेत्र स्थापित करने के प्रस्ताव पर भी ध्यान दिया गया । दोनों देशों की विदेश नीति का विश्व मामलों के बारे में लगभग समान दृष्टिकोण था हालांकि कैम्प डेविड समझौते के बारे में जयवर्द्धने सरकार का रुख भारत की तरह आलोचनात्मक नहीं था ।
फरवरी 1978 में मोरारजी देसाई ने श्रीलंका की यात्रा की तथा प्रवासी भारतीयों की नागरिकता से सम्बन्धित प्रक्रिया की स्वयं जाकर देखभाल की । मोरारजी की इस श्रीलंका यात्रा से दोनों देशों में मधुरता का संचार हुआ, इसमें संदेह नहीं है ।
किन्तु श्रीलंका के तमिलों की समस्या के बारे में कटुता ज्यों-की-त्यों बनी रही । मोरारजी ने श्रीलंका के तमिलों को यह सलाह दी कि वे अलगाववाद को छोड़े और सिंहलियों के साथ मिल-जुलकर रहें । जनता सरकार की इतनी बड़ी उदारता के बाद भी संयुक्त राष्ट्र महासभा में श्रीलंका का वोट पाकिस्तान के ‘परमाणु मुक्त क्षेत्र’ प्रस्ताव के पक्ष में पड़ा ।
Essay # 3. श्रीलंका की जातीय (तमिल) समस्या एवं भारत-श्रीलंका सम्बन्ध:
1982-2001 में भारत-श्रीलंका सम्बन्धों को प्रभावित करने वाला मुख्य मुद्दा श्रीलंका का तमिल अल्पसंख्यक समुदाय है । श्रीलंका की 21.28 मिलियन की जनसंख्या में 74% सिंहली, 13% श्रीलंका के तमिल, 6% भारत मूल के तमिल और शेष अन्य लोग हैं ।
तमिल श्रीलंका के उत्तर में जाफना जिले में रहते हैं । तमिल लोग धर्म से हिन्दू कहलाते हैं और सिंहली बौद्ध । अनेक कारणों से श्रीलंका के तमिलों में असुरक्षा, अविश्वास और आतंक की भावना विद्यमान रही है । जयवर्द्धने की सरकार ने तमिलों के विरुद्ध घोर भेदभावपूर्ण नीतियां अपनायीं ।
आतंकवादियों के दमन के नाम पर निर्दोष लोगों की सामूहिक हत्या की जाने लगी । 1977 के बाद चार बड़े दंगे एवं 1983-85 का नरसंहार, आदि ने तमिल नृवंशियों को बाध्य कर दिया कि या तो वे समुद्र में कूद पड़े या समुद्र पार कर भारत आ जायें ।
श्रीलंका के तमिलों के वर्तमान आन्दोलन का मूल कारण बहुसंख्यक सिंहलियों द्वारा की गयी भेदभाव की नीति है । एक तरफ देश के आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में सिंहली शासक वर्ग का एकाधिकार है और दूसरी तरफ बौद्ध धर्म को देश का राष्ट्रीय धर्म बना दिया गया है और सिंहली भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया गया है ।
दूसरी तरफ तमिलों की निम्नलिखित शिकायतें हैं:
(a) सरकारी नौकरियों में भर्ती के वक्त तथा विश्वविद्यालयों में प्रवेश के वक्त उनके साथ भेदभाव किया जाता है ।
(b) सरकार तमिल क्षेत्रों में सिंहली किसानों को जानबूझकर बसा रही है ताकि तमिल लोग ‘घर’ में ही अल्पसंख्यक हो जायें ।
(c) तमिलों के संगठन की शक्ति को तोड़ने के लिए सरकार तमिल अल्पसंख्यकों को देश के दूसरे हिस्सों में जबर्दस्ती बिखेर रही है ।
(d) उग्रवादियों का सफाया करने के बहाने जयवर्द्धने सरकार ‘सरकारी आतंकवाद’ फेला रही है ।
श्रीलंका के तमिल समुदाय ने अपने आपको (TULF) ‘तमिल यूनाइटेड लिबरेशन फ्रण्ट’ नाम के राजनीतिक संगठन में संगठित कर रखा है और इसके माध्यम से समय-समय पर वह अपने असन्तोष को अभिव्यक्त भी करता रहता है ।
तमिलों के कुछ उग्रवादी संगठन ‘ईलम’ (ऐलाम-Ealam) नाम के एक पृथक् राष्ट्र के निर्माण की बात करते हैं परन्तु तमिलों का प्रमुख संगठन ‘तुल्फ’ (TULF) स्वायत्तता की ही मांग करता है । यह संगठन श्रीलंका को विभाजित नहीं करना चाहता, परन्तु यह तमिलों के लिए एक स्वतन्त्र देश के नागरिकों की तरह सम्मानित जीवन अवश्य प्राप्त करना चाहता है । यही मुद्दा तमिल आन्दोलन का मूल आधार है ।
श्रीलंका की घटनाओं से भारत के चिन्तित होने के कारण:
श्रीलंका के तमिल अल्पसंख्यक समुदाय की समस्या उसका आन्तरिक मामला है और भारत श्रीका के आन्तरिक मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता । भारत ‘ईलम’ (पृथक् तमिल राज्य) की धारणा का समर्थक नहीं है वह संगठित और अखण्ड श्रीलंका ही बनाये रखना चाहता है । तथापि अनेक कारणों से वहां पर होने वाली घटनाओं के प्रति भारत का चिन्तित होना स्वाभाविक है ।
भारत की चिन्ता के निम्नलिखित कारण हैं:
(i) श्रीलंका की घटनाएं तमिलों पर अत्याचार भारत प्के तमिल समुदाय (दक्षिणी राज्यों) को उत्तेजित करते हैं ।
(ii) भारत का उन घटनाओं से चिन्तित होना स्वाभाविक है जब सिंहली बहुसंख्यक श्रीलंका के तमिल अल्पसंख्यक समुदाय की आर्थिक और व्यापारिक सम्पन्नता को नष्ट-भ्रष्ट कर उन्हें विपन्न बनाने का प्रयास करता है ।
(iii) जब नरसंहार से बचने के लिए एक लाख शरणार्थी भारत में शरण लेते हैं ।
(iv) जब जयवर्द्धने सरकार तमिल समस्या को अलस्टर पंजाब या कश्मीर समस्याओं से जोड़ने का प्रयास करती है ।
(v) जब श्रीलंका सरकार तमिल उग्रवादियों को सबक सिखाने के लिए इजरायल की खुफिया संस्थाओं ‘शिनबेत’ और ‘मोसाद’ को श्रीलंका की सेनाओं और पुलिस को प्रशिक्षण देने के लिए भाड़े पर रखती है ।
(vi) जब श्रीलंका सरकार निर्गुट नीति को ताक पर रखकर अमरीका को प्रसन्न करने के लिए इजरायल से राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करती है ।
(vii) जब श्रीलंका सरकार भारत को डराने के लिए त्रिकोमल्ली बन्दरगाह में अमरीकी नौसेना जहाजों और युद्धपोतों को सुविधाएं देने के लिए वार्ताएं करती है ।
जयवर्द्धने की सरकार ने तमिलों के विरुद्ध घोर भेदभावपूर्ण नीतियां अपनायीं आतंकवादियों के दमन के नाम पर निर्दोष लोगों की सामूहिक हत्या की जाने लगी । जुलाई 1983 में तमिल आतंकवादियों ने 13 सैनिक मार डाले । इस पर श्रीलंका की सिंहली सेना पागल हो उठी और सैकड़ों निर्दोष तमिलों को गोलियों से भून डाला ।
सरकारी जेलों में बन्दी तमिलों की नृशंस हत्या कर दी गयी । उनके घर और दुकानें जला दी गयीं । श्रीलंका के ये अत्याचार इतने भयंकर थे कि स्वयं श्रीलंका को यह आशंका होने लगी कि भारत उस पर आक्रमण कर सकता है । उसने इसके विरुद्ध अमरीका ब्रिटेन पाकिस्तान और बांग्लादेश से सैनिक सहायता का आश्वासन मांगा । जबकि भारत की इस प्रकार की कोई कार्यवाही करने की इच्छा नहीं रही । स्व. श्रीमती इन्दिरा गांधी ने तो ‘श्रीलंका से दूर रहने का सिद्धान्त’ (Hands Off Sri Lanka) प्रतिपादित किया था ।
तमिल समस्या के समाधान में भारतीय सहयोग:
तमिल समस्या का समाधान करने हेतु भारत शुरू से ही बातचीत का रास्ता अपनाता रहा है । जुलाई 1983 से जी. पार्थसारथी भारतीय प्रधानमन्त्री के विशेष दूत के रूप में कोलम्बो में बातचीत करते रहे ।
श्रीलंका के राष्ट्रपति जयवर्द्ध ने की जून 1984 और जून 1985 में दिल्ली में भारतीय प्रधानमन्त्री के साथ शिखर वार्ताएं आयोजित की गयीं । भूटान की राजधानी थिम्पू में श्रीलंका की समस्या के शान्तिमय हल के लिए पहली बार 8 जुलाई से और पुन: 12 अगस्त से वार्ताएं हुईं । परन्तु ये वार्ताएं विफल रहीं ।
श्रीलंका सरकार समस्या का समाधान सैनिक शक्ति के बल पर निकालने का प्रयत्न करती रही जबकि भारत बातचीत के जरिये समस्या का हल करने की सलाह देता रहा है । श्रीलंका ने भारत पर यह भी आरोप लगाया कि आतंकवादी चुनौती तमिलनाडु सरकार द्वारा समर्थित आन्दोलन से शुरू होती है । इससे सद्प्रयास कमजोर होते हैं और विश्वसनीयता घटती है ।
श्रीलंका सरकार ने तमिल विद्रोहियों का सफाया करने के लिए जनवरी 1987 में जाफना की आर्थिक नाकेबन्दी की, मई 1987 में श्रीलंका की सेना ने जाफना पर चौतरफा हमले भी किये । भारत ने तमिल नरसंहार पर ‘दु:ख’ जाहिर किया और ‘जातीय संहार’ की भर्त्सना की ।
भारतीय कूटनीति अचानक संघर्ष की मुद्रा में आ गयी और भारत ने 1 जून, 1987 को मानवीय आधार पर जाफना की पीड़ित जनता के लिए राहत सामग्री भेजने की घोषणा की । भारतीय नौकाएं भारतीय रेडक्रॉस के झण्डे के नीचे राहत सामग्री लेकर 3 जून, 1987 को जाफना की ओर रवाना हुईं ।
परन्तु श्रीलंका के नौसैनिक बेड़े ने नौकाओं को श्रीलंका की जल सीमा में घुसने नहीं दिया । यह भारत के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया । अत: भारत ने 5 जून, 1987 को खाद्य सामग्री और दवाएं जाफना प्रायद्वीप पर विमान से गिराने का निर्णय किया ।
इन विमानों की चौकसी के लिए जंगी विमान (मिराज-2000) गये । कोलम्बो ने इन विमानों का प्रतिरोध नहीं किया और विमान राहत सामग्री पहुंचाकर वापस भारत लौट आये । श्रीलंका ने भारत की हवाई राहत की तीखी आलोचना की ।
इसे श्रीलंका की सीमा और सम्प्रभुता तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार के खुले उल्लंघन की संज्ञा दी । हवाई राहत का एक गम्भीर परिणाम यह निकला कि इसने श्रीलंका की जातीय समस्या को भारत-श्रीलंका समस्या में परिवर्तित कर दिया ।
राजीव-जयबर्द्धने समझौता:
29 जुलाई, 1987 भारत के प्रधानमन्त्री राजीव गांधी और श्रीलंका के राष्ट्रपति जयवर्द्धने के बीच कोलम्बो में 29 जुलाई, 1987 को एक 18-सूत्री समझौता हुआ । चूंकि यह समझौता कोलम्बो में हुआ इसीलिए इसे ‘कोलम्बो समझौता’ भी कहते हैं ।
इस समझौते की मुख्य शर्ते निम्न हैं:
(1) उपद्रवग्रस्त उत्तरी प्रान्त में 48 घण्टों के भीतर युद्ध-विराम ।
(2) तमिल उग्रवादियों द्वारा 72 घण्टों में हथियार डालना ।
(3) उत्तरी प्रान्त में यह तय करने के लिए कि क्या लोग उंत्तरी प्रान्त के साथ विलय चाहते हैं, वर्ष के अन्त तक जनमत संग्रह करना; जनमत संग्रह के समय भारतीय निर्वाचन आयोग का एक सदस्य उपस्थित रहेगा ।
(4) प्रान्तीय परिषदों के लिए अगले तीन माह में चुनाव और हर हालत में दिसम्बर तक चुनाव ।
(5) एकीकृत उत्तर-पूर्वी प्रान्तीय परिषद् के चुनावों के लिए भारतीय पर्यवेक्षक आमन्त्रित किये जायेंगे ।
(6) उत्तर-पूर्वी प्रान्त के लिए एक गवर्नर, मन्त्रि परिषद् व विधान परिषद् का गठन ।
(7) भारत सरकार इस समझौते के कार्यान्वयन की गारण्टी देगी । भारतीय क्षेत्र का प्रयोग किसी ऐसी गतिविधि के लिए नहीं किया जायेगा, जो श्रीलंका की एकता व अखण्डता को हानि पहुंचाने वाली हो ।
(8) भारतीय नौसेना और तटरक्षक दल श्रीलंका के अधिकारियों के साथ इस बात के लिए सहयोग करेंगे कि तमिल उग्रवादियों की गतिविधियों को किसी प्रकार प्रभावित नहीं करें ।
(9) भारत श्रीलंका के उन नागरिकों को वापस भेज देगा जो आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त पाये जायेंगे ।
(10) भारत में श्रीलंका के शरणार्थियों को श्रीलंका सरकार वापस ले लेगी ।
(11) श्रीलंका में गिरफ्तार राजनीतिक लोगों को छोड़ दिया जायेगा और उन्हें क्षमा कर दिया जायेगा ।
(12) भारत, श्रीलंका की सेनाओं को इस समझौते के कार्यान्वयन हेतु, जब कभी आवश्यक हो प्रशिक्षण सुविधाएं तथा सैनिक साज-सामान देगा ।
(13) इजरायल, ब्रिटेन, अमरीका और पाकिस्तान के सैनिक तथा खुफिया ऐसोसिएशन की द्वीप में उपस्थिति का पता लगाने के लिए संयुक्त सलाहकार मशीनरी की स्थापना होगी ।
(14) श्रीलंका विदेशी प्रसारण निगमों से अपने सम्बन्धों को यह सुनिश्चित करने के लिए समीक्षा करेगा कि उन्हें प्रदान की गयी सुविधाएं सैनिक अथवा गुप्तचर कार्यों के लिए नहीं प्रयोग की जायें ।
राजीव-जयवर्द्धने समझौते को ‘बेमिसाल’ और ‘ऐतिहासिक’ समझौता कहा गया । राजीव गांधी के अनुसार यह ‘20वीं सदी का सबसे बड़ा समझौता’ है । यह समझौता श्रीलंका की एकता और अखण्डता की गारण्टी देता है ।
समझौता तमिल होमलैण्ड का जिक्र किये बिना पूर्वी और उत्तरी प्रान्तों का तमिलों के ‘आदतन आवास’ का क्षेत्र स्वीकार करता है जहां उनकी अपनी निर्वाचित प्रान्तीय परिषद् होगी अपना गवर्नर मुख्यमन्त्री और मन्त्रिमण्डल होगा । समझौता दक्षिण एशिया में शान्ति स्थापित करने और विदेशी हस्तक्षेप को नेस्तनाबूद करने का प्रयत्न है ।
श्रीलंका की बहुसंख्यक सिंहली जनता ने समझौते का तीव्र विरोध किया । प्रधानमन्त्री प्रेमदासा व आन्तरिक सुरक्षा मन्त्री अतुलत मुदारी ने इससे अपने को पूर्णत: अलग रखा । राजीव गांधी की कोलम्बो यात्रा के समय वहां करफ्यू लगा हुआ था । बाद में भी कई जगह हिंसक वारदातों द्वारा सिंहली लोगों ने समझौते के विरुद्ध आक्रोश प्रकट किया । आलोचकों ने इसे श्रीलंका की सार्वभौमिकता के विरुद्ध एवं असम्मानजनक समझौता कहा ।
आलोचकों के अनुसार समझौता भारत और श्रीलंका सरकारों के बीच हुआ, अलग तमिल राज्य की लड़ाई वाले तमिल कट्टरपंथी संगठनों के साथ नहीं । ईलम पीपुल्स रिवोल्युशनरी फ्रण्ट के अधिकृत प्रवक्ता कन्नीस्वरन के अनुसार- ”सिर्फ समझौते पर दस्तखत होने पर से समस्या हल हो जायेगी इसमें सन्देह है ।”
फिर भी, इस समझौते को दोनों देशों के नेताओं के साहस और सूझबूझ का परिणाम कहना समीचीन है । समझौता भारत की कूटनीतिक सफलता है । इसने श्रीलंका का कम-से-कम राष्ट्रपति जयवर्द्धने का, पाकिस्तान व पश्चिम की ओर झुकाव खत्म कर उन्हें भारतीय प्रभामण्डल में खींच लिया ।
Essay # 4. श्रीलंका में भारतीय शान्ति सेनाएं:
राजीव-जयवर्द्धने समझौते के अन्तर्गत भारतीय शान्ति सेनाएं श्रीलंका भेजी गयीं । भारतीय सेना के चौथे और 54वें डिवीजन के 50 हजार जवान जाफना में फैल गये । शान्ति सेना का उद्देश्य तमिल मुक्ति चीतों के गढ़ जाफना को घेरकर उन्हें आलसमर्पण के लिए बाध्य करना था । मुक्ति चीतों ने राजीव-जयवर्द्धने समझौता स्वीकार नहीं किया ।
जाफना को मुक्त कराने में आयी तमाम मुश्किलों के बावजूद इस उपलब्धि को शान्ति सेना के एक अधिकारी ने ‘एक वाहियात लड़ाई और वह भी दूसरों के लिए लड़ी गयी’ बताया । भाजपा नेता जसवन्तसिंह के अनुसार पहली बार भारतीय फौजों को एक ऐसी कार्यवाही में लगा दिया गया जहां उन्हें पता ही नहीं चल रहा कि वे अपनी जान की जोखिम क्यों उठा रही हैं ?
लगभग 1,100 जवान और अधिकारी मारे गये और तीस हजार घायल हुए । भारतीय जवानों का मानना था कि वह एक शान्ति सेना न होकर विद्रोहियों (Insurgency) से लड़ने वाली सेना दिखायी पड़ने लगी थी ।
जयवर्द्धने ने अपनी कूटनीति से भारतीय सेना को तमिल उग्रवादियों से भिड़ा दिया । भारतीय उन्हीं लोगों को मार रहे थे जिंनका भारत से खून का रिश्ता था । भारत श्रीलंका के राष्ट्रपति जयवर्द्धने की गन्दगी साफ करने में लगा हुआ था । श्रीलंका के सैनिक अपने ठिकानों पर आराम कर रहे थे और भारतीय सैनिक उनकी लड़ाई लड़ रहे थे ।
दक्षिणी कमान के प्रमुख ले. जनरल देपिन्द्रसिंह ने स्वीकार किया है कि ”जहां तक भारतीय सेना का सवाल है छापामार युद्ध से उसका पाला पहली बार पड़ा ।” आलोचकों का कहना था कि ”भारत श्रीलंका में उलझ गया है कहीं यह भारत का ‘वियतनाम’ सिद्ध न हो ।
श्रीलंका में अपनी सेनाएं भेजकर भारत ने बहुत बड़ा कदम उठाया एक तरह से यह जरूरी भी था क्योंकि भारत पहल न करता तो भारत विरोधी ताकतें जयवर्द्धने की ‘मदद’ के लिए तैयार बैठी थीं । भारत ने हिम्मत करके शेर की सवारी का निर्णय किया तो उसकी जोखिम भी गले लगानी ही होगी ।
श्रीलंका में भेजी गयी भारतीय सेनाओं की तुलना अफगानिस्तान में भेजी गयी रूसी सेनाओं या ग्रेनाडा में उतारी गयी अमरीकी सेनाओं से नहीं की जा सकती । भारत ने अपनी सेनाएं द्विपक्षीय रजामन्दी के बाद भेजीं तथा भारतीय सेनाएं श्रीलंका के राष्ट्रपति के निर्देश पर ही काम कर रही थीं ।
भारतीय सेनाएं श्रीलंका में उस दिन तक रहीं जब तक वहां की सरकार उनकी जरूरत समझती थी । भारतीय शान्ति सेनाओं का उद्देश्य श्रीलंका में शान्ति का माहौल बनाने एवं तनाव दूर करने में सहायता करना था । नवभारत टाइम्स के सम्पादक राजेन्द्र माथुर के अनुसार- ”श्रीलंका की किस्मत संवारने के लिए जैसा रचनात्मक दखल भारत ने किया वैसा 1947 के बाद भारत ने इस उपमहाद्वीप में और कहीं नहीं किया ।”
प्रेमदासा ने राष्ट्रपति बनने के साथ ही भारत सरकार से शान्ति सेना की वापसी का अनुरोध किया । अत: जनवरी 1989 से भारतीय शान्ति सेना की वापसी श्रीलंका से शुरू हो गयी । यह वापसी कई चरणों में हुई । मार्च 1990 तक शान्ति सेना की सभी टुकड़ियां भारत लौट आईं ।
केन्द्र में राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार की स्थापना के साथ भारत की श्रीलंका नीति में परिवर्तन आया । राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार ने ‘शान्ति सेनाओं की वापसी’ और ‘श्रीलंका के तमिलों की सुरक्षा’ के मुद्दों को एक-दूसरे से अलग करके जातीय समस्या को हल करने की जिम्मेदारी श्रीलंका पर डाल दी ।
भारतीय शान्ति सेना तमिलों में आम सहमति का निर्माण करने में नितान्त असफल रही । सर्वप्रथम भारत ने एल.टी.टी.ई. (Liberation Tigers of Tamil Elam) के विरुद्ध अन्य तमिल आतंकवादियों के संगठनों को हथियारों की आपूर्ति की । तत्पश्चात् तमिल क्षेत्रों में ‘तमिल यूनाइटेड लिबरेशन फ्रण्ट’ (TULF) तथा ‘पीपुल्स लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन ऑफ तमिल ईलम’ (PLOTE) के साथ राजनीतिक प्रक्रिया पुन: प्रारम्भ करने का प्रयास किया ।
जब भारत राजनीतिक एवं सैनिक दृष्टि से लिट्टे को नियन्त्रण में लाने में असफल रहा और जब उसे यह अनुभव होने लगा कि उत्तरी-पूर्वी प्रान्तीय परिषद् के चुनाव में और अधिक विलम्ब होने से भारत-श्रीलंका समझौता निष्प्रभावी होता जा रहा है तो इसने ईलम, पीपुल्स रिवोल्यूशनरी फ्रण्ट को लिट्टे के विकल्प के रूप में खड़ा करने का प्रयास किया ।
इस प्रकार तमिल समस्या का निराकरण करने के स्थान पर भारत ने तमिलों के विभिन्न वर्गों में मतभेदों को और उभार दिया । तमिल क्षेत्रों के बाहर भारतीय शान्ति सेना की गतिविधियों ने सिंहली-बौद्ध राष्ट्रवाद को उभारने में अहम् भूमिका निभाई ।
जयवर्द्धने के पश्चात् प्रेमदासा के श्रीलंका का राष्ट्रपति बनते ही यह मांग बड़े प्रभावी ढंग से उठायी गयी कि किसी भी तरह भारतीय शान्ति सेना को द्वीप से बाहर निकाला जाये भले ही इसके लिए उन्हें लिट्टे से समझौता करना पड़े । राष्ट्रपति प्रेमदासा के पास भी सिंहलियों को प्रसन्न करने का एकमात्र यही विकल्प था ।
इसी प्रयास में उन्होंने लिट्टे और जे.वी.पी. दोनों के साथ सामंजस्य स्थापित करने की प्रक्रिया आरम्भ की । लिट्टे ने राष्ट्रपति की इस पहल का सहज ही स्वागत किया क्योंकि वह भी भारतीय शान्ति सेना को द्वीप से निकालने का पक्षधर था ।
भारतीय सेना को श्रीलंका की आन्तरिक समस्याओं पर काबू पाने के लिए जाना चाहिए था या नहीं, इस पर दो मत हो सकते हैं लेकिन इतना तो हुआ ही है कि श्रीलंका में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया शुरू हुई और उसमें भारतीय सेना का योगदान भी रहा है ।
Essay # 5. एल.टी.टी.ई. का एलिफेंट दर्रे पर कब्जा और भारत का सैनिक हस्तक्षेप से इन्कार (अप्रैल-जून, 2000):
अप्रैल-मई 2000 में कभी खत्म न होने वाला जातीय संघर्ष श्रीलंका में फिर तेज हो गया । पांच वर्ष पहले श्रीलंका की सेना ने खूंखार तमिल चीतों (एल.टी.टी.ई.) को उत्तरी जाफना वाली उनकी मांद से खदेड़ दिया था । लेकिन मई-जून 2000 में एल.टी.टी.ई. ने अलग तमिल राष्ट्र के अपने 20 वर्ष पुराने खूनी अभियान में अब तक का सबसे बड़ा हमला करके लस्त-पस्त श्रीलंकाई सैनिकों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया ।
जाफना की तरफ एल.टी.टी.ई के बढ़ने और सैन्य ठिकानों पर भारी हमले के कारण राष्ट्रपति चन्द्रिका कुमारतुंगा को मजबूरन इमरजेंसी जैसी स्थिति की घोषणा करनी पड़ी । एल.टी.टी.ई. के पक्ष में सबसे अनूठा बदलाव सामरिक महत्व के एलिफेंट दर्रा गैरिसन पर 27 अप्रैल, 2000 को कब्जे से आया । एलिफेंट दर्रा जाफना प्रायद्वीप का प्रवेशद्वार है और उसकी सुरक्षा के लिए अति महत्वपूर्ण माना जाता है ।
इस बीच श्रीलंका सरकार अपने सैनिकों के लिए अस्त्र-शस्त्र की तेजी से खरीदारी करने लगी । उसने 17 वर्ष बाद इजरायल से राजनयिक सम्बन्ध जल्दबाजी में बहाल करके उससे तत्काल पांच ‘केफिर’ लड़ाकू विमान भेजने की गुजारिश की । भारत ने सैनिक हस्तक्षेप या हथियार बेचने से मना कर दिया तो श्रीलंका सरकार ने बख्तरबन्द गाड़ियों और तोप के गोलों एवं हथगोलों के लिए पाकिस्तान चीन और रूस से आग्रह किया ।
Essay # 6. भारत का दृष्टिकोण:
श्रीलंका की जातीय समस्या के सम्बन्ध में भारत ने सावधानी की नीति अपनाते हुए कहा है:
(i) एल.टी.टी.ई. के जाफना की ओर बढ़ने और घरेलू स्थितियों की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए भारत ने सैनिक हस्तक्षेप या श्रीलंका सरकार को हथियार बेचने से इन्कार किया ।
(ii) श्रीलंका से कहा कि वह उसकी एकता और अखण्डता का पक्षधर है और सिद्धान्त रूप से ईलम विरोध करता है ।
(iii) श्रीलंका को बताया कि उसे किसी से हथियार खरीदने पर आपत्ति नहीं है, लेकिन अगर किसी तीसरे देश की सेना को बुलाया जाता है तो यह उसके हितों के खिलाफ होगा ।
(iv) वह मध्यस्थता करने को तैयार है बशर्ते सभी पक्ष इसके लिए राजी हों ।
भारत के विदेशमन्त्री जसवन्त सिंह ने 11 जून, 2000 को कोलम्बो में राष्ट्रपति कुमारतुंगा और श्रीलंका के विदेशमन्त्री लक्ष्मण कादिरगमर के साथ वार्ता में जिन मुद्दों पर विचार-विमर्श किया उनमें श्रीलंका समस्या के हल में भारत सरकार की अवधारणा और भावी शान्ति प्रक्रिया में भारत की भूमिका के मुद्दे शामिल थे ।
भारत ने श्रीलंका को मानवीय सहायता के रूप में 10 करोड़ डॉलर के ऋण की पेशकश की । जसवन्त सिंह ने सैन्य दखल अथवा किसी भी तरह की सैनिक सहायता से स्पष्ट इकार करते हुए राजनीतिक हल के द्वारा स्थायी शान्ति बहाल करने में श्रीलंका को भारत के पूरे समर्थन का भरोसा दिलाया ।
श्रीलंका की राष्ट्रपति श्रीमती चन्द्रिका कुमारतुंगे की फरवरी 2001 में संपन्न चार दिन की भारत यात्रा के दौरान श्रीलंका की लिट्टे समस्या के मामले में दोनों देशों के बीच जहां बेहतर समझबूझ विकसित हुई वहीं दक्षेस के बैठकों के सम्बन्ध में चल रहे गतिरोध को तोड़ने में भी मदद मिली है ।
श्रीमती कुमारने ने लिट्टे समस्या के सन्दर्भ में श्रीलंका में शान्ति स्थापना के लिए सरकार द्वारा की जा रही पहल की जानकारी देते हुए भारत के प्रधानमन्त्री को इस मामले में नॉर्वे द्वारा की जा रही मध्यस्थता से उन्हें अवगत कराया ।
दिसम्बर 2001 में सम्पन्न संसदीय चुनावों के बाद नव निर्वाचित प्रधानमन्त्री विक्रम सिंघे ने पहली विदेश यात्रा भारत की ही की है । भारतीय नेताओं के साथ (22-24 दिसम्बर) उनकी वार्ताएं श्रीलंका की तमिल समस्या के समाधान पर ही मुख्य रूप से केन्द्रित रही ।
नार्वे की मध्यस्थता से श्रीलंका सरकार व तमिल विद्रोहियों के संगठन ‘लिट्टे’ के मद्य एक अनिश्चितकालीन युद्ध विराम समझौता 23 फरवरी, 2002 से प्रभावी हो गया है । 1994 के पश्चात् पहली बार शांति बनाए रखने के लिए दोनों पक्षों ने किसी औपचारिक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं ।
नार्वे की मध्यस्थता में हुए इस शांति समझौते को भारत ने पर्दे के पीछे से प्रभावित किया । 22 फरवरी को हुए संघर्ष विराम के इस समझौते को सबसे पहले भारत व जापान ने अपना सार्वजनिक समर्थन दिया । श्रीलंका में शान्ति की उम्मीद जगाने वाला युद्ध-विराम लगभग 16 महीनों के उतार-चढ़ाव के बाद संकट की स्थिति में पहुंच गया । टोक्यो में आयोजित दाता देशों के सम्मेलन में अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय की अनेक अपीलों के बावजूद लिट्टे (लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम) अनुपस्थित रहा ।
इस प्रमुख विद्रोही संगठन को शान्ति वार्ता में लौटाने में अब प्रतिष्ठित विदेशी प्रतिनिधि भी असरदार सिद्ध नहीं हो रहे हैं । टोक्यो वार्ता से पहले जापान के शान्ति दूत यासूशी अकाशी और यूरोप के कुछ प्रतिनिधियों ने श्रीलंका के दौरे कर यहां तक कि लिट्टे नियन्त्रित क्षेत्रों में जाकर उसे मनाने के प्रयास भी किए ।
टोक्यो वार्ता के बाद कोलम्बो सहित अमरीकी दूतावास ने लिट्टे से शान्ति वार्ता में फिर भाग लेने के लिए अपील जारी की है इससे भी विशेष उम्मीद नहीं है । सच बात तो यह है जब से लिट्टे ने शान्ति वार्ता से अपने को अस्थाई तौर पर अलग करने की घोषणा की श्रीलंका में शान्ति स्थापना की सम्भावना निरन्तर धूमिल पड़ती रही है ।
श्रीलंका के नए प्रधानमन्त्री महिंद्रा राजपक्षे जुलाई, 2004 में तीन दिन की भारत यात्रा पर आए । नवम्बर 2004 में राष्ट्रपति कुमारतुंग भारत यात्रा पर आईं । मछुआरों सम्बन्धी मामलों के लिए एक संयुक्त कार्यदल के गठन तथा द्विपक्षीय रक्षा सहयोग समझौते के साथ-साथ पलाकी में एयरफील्ड के नवीकरण हेतु सहमति पत्र पर हस्ताक्षर के लिए दोनों देश सहमत हुए । भारत श्रीलंकाई नौसेना के युद्धपोत सयूरा को ‘रिफिट’ करने हेतु भी सहमत हुआ है ।
श्रीलंका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे 27-30 दिसम्बर, 2005 को भारत की यात्रा पर रहे । प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह के साथ 28 दिसम्बर, 2005 को सम्पन्न उनकी वार्ता इस बात पर केन्द्रित रही कि भंग पड़ी शान्ति प्रक्रिया को शीघ्र प्रारम्भ किया जाये ताकि लिट्टे के साथ श्रीलंका सरकार के संघर्ष विराम को बल मिल सके ।
संयुक्त घोषणा पत्र में यह भी कहा गया कि दोनों देश सेतु समुद्रम परियोजना के पर्यावरणीय प्रभावों के अध्ययन एवं निगरानी हेतु सहमत हैं । वर्ष 2005 में सुनामी के पश्चात् भारत सरकार द्वारा श्रीलंका में राहत कार्यों के लिए आपरेशन ‘रेनबो’ चलाया गया । जनवरी 2006 से साफ्टा के अन्तर्गत दोनों देशों के व्यापारिक सम्बन्ध काफी मजबूत हुए हैं ।
राष्ट्रपति राजपक्षे ने 8-11 जून, 2010 को भारत की राजकीय यात्रा की । यात्रा के दौरान दोनों पक्षों द्वारा एक संयुक्त घोषणा जारी की गई जिसमें श्रीलंका के साथ हमारे संबंधों के सभी पहलू शामिल थे । दोनों पक्ष संपर्क बढ़ाने आर्थिक समाकलन और निकट विकासात्मक सहयोग को बढ़ावा देने के प्रति वचनबद्ध थे ।
भारत और श्रीलंका जाफना और हंबनटोटा में भारत का प्रधान कौंसलावास स्थापित करने पर सहमत हुए । दोनों देश कोलंबो और तूतीकोरिन तथा तलाइमन्नार और रामेश वरम के बीच नौका सेवा प्रारंभ करने पर सहमत हुए ।
इस यात्रा के दौरान निम्नलिखित करारा/समझौता ज्ञापन पर भी हस्ताक्षर किये गए:
(a) भारत और श्रीलंका के बीच लघु विकास योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए भारतीय अनुदान सहायता संबंधी समझौता ज्ञापन का नवीकरण ।
(b) सजायाफ्ता कैदियों के स्थानांतरण संबंधी समझौता ज्ञापन ।
(c) आपराधिक मामलों में परस्पर विधिक सहायता पर संधि ।
(d) बट्टिकलोवा में महिला व्यापार सुविधा केन्द्र एवं सामुदायिक शिक्षण केन्द्र की स्थापना से संबंधित समझौता ज्ञापन ।
(e) सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम (सी.ई.पी.) का नवीकरण ।
(f) अंतर संबंध विद्युत ग्रिड संबंधी समझौता ज्ञापन ।
विदेश सचिव श्रीमती निरूपमा राव ने 31 अगस्त-2 सितम्बर, 2010 को श्रीलंका की यात्रा की । अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने उत्तरी श्रीलंका का व्यापक दौरा किया और आतरिक रूप से विस्थापित व्यक्तियों (आई.डी.पी.एस.) के पुनर्स्थापना में हुई प्रगति का मुआयना करने के लिए मलयतिबु, त्रिनकोमाली, वावुनिया, क्रिलीनोची और जाफना की यात्रा की और भारत सरकार की सहायता से चलाई गई विभिन्न परियोजनाओं की समीक्षा की ।
उन्होंने पूर्वी प्रांत में त्रिन्कोमाली की भी यात्रा की और पूर्वी प्रांत के गवर्नर से मुलाकात की और उनसे पूर्वी प्रांत में भारत सरकार की सहायता से चलाई गइं विभिन्न परियोजनाओं पर चर्चा की । अपनी यात्रा के दौरान विभिन्न द्विपक्षीय मुद्दों की समीक्षा करने के लिए उन्होंने श्रीलंका के राष्ट्रपति विदेश मंत्री तथा श्रीलंका सरकार के अधिकारियों से मुलाकात की । राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने 19वें राष्ट्रमंडल खेल के समापन समारोह में भाग लेने के लिए 14-15 अक्टूबर 2010 को पुन: नई दिल्ली की यात्रा की ।
भारत सरकार ने जून 2010 में श्रीलंका के राष्ट्रपति की भारत यात्रा के दौरान घोषित प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए त्रिकोमाली में सामपुर विद्युत परियोजना के लिए श्रीलंका सरकार को 200 मिलियन अमरीकी डॉलर की ऋण शृंखला भी प्रदान की है ।
यह परियोजना नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरशन तथा सीलोन विद्युत बोर्ड के बीच एक संयुक्त उद्यम है । इस ऋण शृंखला का उपयोग सामपुर में एक जेटी के निर्माण तथा सामपुर से हबारना तक पारेषण लाइनों का निर्माण किया जाएगा ।
श्रीलंका में ऋण शृंखला के अन्तर्गत पहले से ही चल रही परियोजनाओं में सन्तोषजनक प्रगति हुई है । कोलम्बो से मातरा तक दक्षिण रेलवे कॉरीडोर में ट्रैक बिछाने का कार्य अप्रैल 2012 में पूरा हो गया था । इस खण्ड को 19 अप्रैल, 2012 वाणिज्यिक यातायात के लिए खोल दिया गया था ।
इस परियोजना के लिए रोलिंग स्टॉक तथा अन्य मदों की आपूर्ति अगस्त 2012 में पूरी हो गई थी । 416.39 मिलियन अमरीकी डॉलर की ऋण शृंखला के अन्तर्गत ओमान्ताई-पल्लई, मैदाबाछैया-मधु, मधुचर्च-तलाई मन्नार क्षेत्रों में रेलवे परियोजना के कार्यान्वयन में अच्छी प्रगति हुई है ।
पल्लई-कांकेसंतुराई रेलवे लाइन पर ट्रैक बिछाने (146.34 मिलियन अमरीकी डॉलर) तथा उत्तरी रेलवे लाइन के लिए सिंगनल तथा दूरसंचार उपस्करों (86.52 मिलियन अमरीकी डॉलर) की आपूर्ति का कार्य भी शुरू हो चुका है ।
भारत ने मानवाधिकार परिषद् में श्रीलंका के विरुद्ध लाए गए प्रस्ताव के पक्ष में मत दिया:
मानवाधिकारों के हनन के लिए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् में श्रीलंका के विरुद्ध लाए गए एक निन्दा प्रस्ताव के पक्ष में मत देने वाले देशों में भारत भी शामिल रहा है । तमिलों के उग्रवादी संगठन ‘लिट्टे’ से संघर्ष के दौरान ‘युद्ध अपराध’ को लेकर मानवाधिकार मामलों की संयुक्त राष्ट्र की शीर्ष समिति द्वारा लाए गए अमरीका द्वारा प्रायोजित इस प्रस्ताव का पश्चिमी देशों ने जहां समर्थन किया, वहीं चीन, पाकिस्तान व बांग्लादेश जैसे एशियाई देशों ने प्रस्ताव के विरोध में मत दिया ।
मानवाधिकार परिषद् में 22 मार्च, 2012 को हुए इस मतदान में 24 देशों ने प्रस्ताव के पक्ष में मत दिया, जबकि 15 देशों में इसके विरोध में मत दिया । 8 देश तटस्थ रहे । प्रस्ताव पारित होने से श्रीलंका को अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर शर्मिन्दगी झेलनी पड़ी है ।
उल्लेखनीय है कि भारत शुरू में श्रीलंका के विरोध में लाए गए प्रस्ताव पर मतदान करने का इच्छुक नहीं था, किन्तु समझा जाता है कि तमिलनाडु के राजनीतिक दलों के दबाव में उसने इस मामले में श्रीलंका के विरुद्ध मतदान किया है । यूपीए सरकार में शामिल द्रमुक (DMK) ने इस मामले में केन्द्र पर दबाव बनाते हुए सरकार से अपने मन्त्रियों को वापस बुलाने तक की धमकी दे दी थी ।
वर्ष 2009 से भारत सरकार ने आवासन, अवसंरचना, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, मत्स्य पालन उद्योग, हस्तशिल्प संस्कृति और खेलों सहित श्रीलंका के तमिल समुदाय को लक्षित करते हुए श्रीलंका में अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों को शामिल करने में विकास परियोजनाओं को क्रियान्वित किया है ।
सरकार क्षेत्रीय सम्पर्क में वृद्धि करने के अतिरिक्त संघर्ष-प्रभावित क्षेत्रों में व्यापार तथा निवेश हेतु सम्भावनाओं के सृजन के लिए सटीक प्रयासों में भी शामिल है । ऋण तथा अनुदान सहित द्विपक्षीय सहायता की कुल मात्रा लगभग 8,000 करोड़ रुपए है ।
श्रीलंका भारत सरकार द्वारा विस्तारित विकास क्रेडिट के मुख्य प्राप्तकर्ताओं में से एक है । वर्तमान में भारत सरकार श्रीलंका में उत्तरी रेल पुन: निर्माण परियोजना के लिए श्रीलंका की सरकार को लगभग 800 मिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य की रियायती ऋण सुविधा प्रदान कर रही है ।
भारत और श्रीलंका ने पिछले दशक में तेजी से बढ़ने वाले द्विपक्षीय व्यापार और कई प्रमुख भारतीय निजी क्षेत्र की कम्पनियों द्वारा श्रीलंका में निवेश और उपस्थिति स्थापित करने के साथ घनिष्ठ व्यापार और निवेश सम्बन्ध स्थापित किए हैं । अब श्रीलंका दक्षिण एशिया में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदारों में से एक है जबकि भारत श्रीलंका का विश्व में सबसे बड़ा व्यापार भागीदार है ।
दोनों देशों के बीच व्यापार 2000 में 600 मिलियन अमेरिकी डॉलर से तेजी से बढ्कर द्विपक्षीय एफटीए लागू होने के पश्चात् 2013 में 3.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया है । जहां तक श्रीलंका में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और पर्यटकों का प्रश्न है भारत सबसे बड़ा स्रोत देश है । आज भारत श्रीलंका में सर्वोच्च दो निवेशकों में से एक है जिसका संचयी निवेश 2003 से 800 मिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक है ।
शिक्षा भारत तथा श्रीलंका के बीच सहयोग का एक अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र है । अब भारत श्रीलंका के योग्य छात्रों को वार्षिक रूप से लगभग 300 छात्रवृतियां प्रदान करता है । इसके अतिरिक्त भारतीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग योजना और कोलम्बो योजना के अन्तर्गत भारत विभिन्न तकनीकी और व्यावसायिक विषयों में लघु एवं मध्यम अवधि वाले प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों के लिए श्रीलंका के नागरिकों को वार्षिक रूप से लगभग 200 स्लॉंट प्रदान करता है ।
निष्कर्ष:
श्रीलंका में तमिलों के लिए अलग ‘तमिल-ईलम’ के गठन हेतु विगत तीन दशकों से हिंसक आन्दोलन चला रहे लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (LTTE लिट्टे) का पूर्ण सफाया करने का दावा श्रीलंका सरकार ने मई 2009 में किया ।
‘लिट्टे’ के प्रमुख वेलुपिल्लई प्रभाकरन (Vellupillai Prabhakaran) के अन्त के साथ ही इस आन्दोलन पर पूर्ण विजय की घोषणा श्रीलंका के राष्ट्रपति महिन्द्रा राजपक्षे ने 19 मई, 2009 को की । लिट्टे व श्रीलंका सरकार के बीच नॉर्वे की मध्यस्थता से लागू संघर्ष विराम को समाप्त कर श्रीलंका सरकार ने लिट्टे के विरुद्ध ताजा सैन्य कार्यवाही जनवरी 2008 में शुरू कर दी थी ।
भीषण सैन्य कार्यवाही से ‘लिट्टे’ को पीछे धकेलते हुए उसके नियन्त्रण वाले कई शहरों व महत्वपूर्ण ठिकानों पर श्रीलंकाई सेना का कब्जा मजबूत होता गया । लिट्टे के नियन्त्रण वाले उत्तर-पश्चिमी तटीय क्षेत्र पर पूर्ण नियन्त्रण का दावा श्रीलंकाई सेना ने नवम्बर 2008 में ही किया था ।
पूनेरिन (Ponneryn), जाफना किलिनोच्चि (Kilinochchi) व मुलाइतिवु (Mullaitivu) आदि शहरों पर सेना के कब्जे के बाद लिट्टे विद्रोही संघर्ष के अन्तिम दौर में पूर्वोत्तर में हिन्दमहासागर के तटीय क्षेत्र में महज 300 मीटर के दायरे में सिमट कर रह गए थे ।
अन्तिम दौर की लड़ाई में प्रभाकरन सेना के मिसाइली हमले में 18 मई 2009 को उस समय मारा गया जब एक एम्बुलेंस में सवार होकर वह ‘वार जोन’ से निकलने का प्रयास कर रहा था । ‘लिट्टे’ के दो सीनियर कमाण्डर भी उसके साथ ही इस हमले में मारे गए ।
इसके साथ ही लिट्टे के विरुद्ध श्रीलंकाई सेना का अभियान समाप्त हो गया । अन्तिम दौर की लड़ाई में मरने वालों में प्रभाकरन का 24 वर्षीय पुत्र चार्ल्स एंटनी (लिट्टे की एयरविंग का प्रमुख) वी. नादेसन (लिट्टे के राजनीतिक मामलों का प्रमुख) पुलिलवेदन (शान्ति सचिवालय का प्रमुख) पोट्टू अम्मान (खुफिया विभाग का प्रमुख) व रमेश (सैन्य प्रमुख) आदि भी शामिल थे ।
‘लिट्टे’ के हिंसक आन्दोलन की वजह से लगभग 70 हजार लोगों की जानें अब तक जा चुकी थीं । विश्व में आत्मघाती हमलों की शुरुआत लिट्टे ने ही सर्वप्रथम की थी । भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी की हत्या के पीछे भी लिट्टे का ही हाथ रहा है तथा लिट्टे प्रमुख प्रभाकरन व इसके खुफिया प्रमुख पोट्टू अम्मान इस मामले के आरोपियों में शामिल थे जिसके चलते इनके प्रत्यर्पण की मांग भी भारत सरकार ने श्रीलंका से की थी ।
‘लिट्टे’ पर विजय के पश्चात् श्रीलंका के राष्ट्रपति महिन्द्रा राजपक्षे ने गत 19 मई को संसद में कहा कि उनकी सरकार सैन्य समाधान को अन्तिम समाधान के रूप में स्वीकार नहीं करती तथा उनका मकसद सभी समुदायों को समान अधिकार सुलभ कराना है । उन्होंने कहा कि ‘लिट्टे’ के विरुद्ध उनकी कोई लड़ाई नहीं है तथा उनका उद्देश्य तमिलों को लिट्टे के चंगुल से मुक्त कराना है ।
तमिल लोगों का दिल जीतने के प्रयास के अन्तर्गत तमिल भाषा में टिपणी करते हुए उन्होंने तमिल भाषियों की रक्षा की जिम्मेदारी भी की । श्रीलंकाई राष्ट्रपति ने स्वीकार किया कि देश के अन्य लोगों की तरह तमिलों को आजादी का अधिकार देना आवश्यक है । उन्होंने कहा कि तमिलों को जिस राजनीतिक समाधान की आवश्यकता है वह उन्हें जल्द दिया जाना जरूरी है । यह समाधान आयातित न होकर अपने ही देश का होने पर उन्होंने बल दिया ।
वर्ष 2009 में श्रीलंका में लिट्टे के अधिकांश उग्रवादियों का सफाया हो चुका है । इस युद्ध में हजारों तमिल नागरिकों को भी अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और कई हजार लोग बेघर हो गए । इससे एक बड़ी मानवीय समस्या पैदा हो गई है ।
सामरिक दृष्टि से देखें तो लिट्टे के साथ युद्ध खत्म होने का भारत और चीन पर अलग-अलग असर पड़ा है । मौजूदा परिदृश्य में भारत तटस्थ लगता है जो कुछ खास कर पाने की स्थिति में नहीं है । इसका असर हमारे क्षेत्रीय महाशक्ति बनने के मन्सबों पर पड़ना लाजिमी है । यह कहा जा रहा है कि भारत सरकार ने श्रीलंका को लिट्टे के खिलाफ युद्ध के लिए हथियार और गोला बारूद नहीं दिया ।
भारत सरकार के अस्पष्ट रुख अपनाने के कारण चीन को भारत की कीमत पर श्रीलंका में अपना असर बढ़ाने का अवसर मिल गया । श्रीलंका और हिन्द महासागर में चीन के बढ़ते असर को अविलम्ब गम्भीरता से लेने की भारत को जरूरत है क्योंकि इसमें हमारी सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण निहितार्थ है । चीन श्रीलंका को लिट्टे के खिलाफ हथियारों आदि की मदद देकर कोलम्बो के लिए अनुकूल देश बन गया है और भारत मात्र पड़ोसी जो दलदल में फंस गया है ।
चीन और श्रीलंका दो वर्ष से विभिन्न मुद्दों पर आपस में बतियाते रहे हैं । चीन ने श्रीलंका की अर्थव्यवस्था में भारी निवेश कर स्वदेशी अर्थव्यवस्था के वहां प्रवेश का रास्ता खोला हे । चीन ने श्रीलंका के बुनियादी ढांचे में भारी निवेश किया है । इसके तहत उसने नोरोच्चोलाई विद्युत संयत्र के लिए मदद दी है जिसका काम अगले वर्ष पूरा होने वाला है ।
चीन हाम्बनटोटा बन्दरगाह के निर्माण में भी मदद दे रहा है । इस बन्दरगाह के निर्माण से श्रीलंका व्यस्त समुद्री मार्ग से जुड़ जाएगा । साथ ही चीन का हिन्द महासागर के मध्य में एक ठिकाना हो जाएगा जिससे उसकी दक्षिणी चीन समुद्र के बन्दरगाहों पर निर्भरता घट जाएगी जिनके स्वामित्व पर अनसुलझे विवाद हैं ।
ADVERTISEMENTS:
इस बन्दरगाह का काम पूरा होने पर इसमें कण्टेनर क्षेत्र पेट्रोल आपूर्ति प्रणाली तेलशोधक कारखाना, हवाई अड्डा आदि सुविधाएं उपलब्ध होंगी जिससे यह यातायात और व्यापार का बड़ा केन्द्र बन जाएगा । चीन श्रीलंका में अन्य बन्दरगाहों के विकास में भी मदद दे रहा है! इससे चीन को व्यापार और उसकी नौसेना को सैनिक उद्देश्यों से अड्डे मिल जाएंगे ।
चीन, श्रीलंका को लड़ाकू जैट विमान परिष्कृत रडार और विमानभेदी तोपों समेत बड़ी तादाद में हथियार कम कीमत पर दे रहा है । पिछले वर्ष श्रीलंका ने चीन के साथ 3 करोड़ 76 लाख डॉलर का हथियारों का सौदा किया था । यह सौदा लिट्टे से चल रहे युद्ध को ध्यान में रखकर किया गया था ।
चीन की यात्रा के दौरान श्रीलंका के रक्षामन्त्री जी. राजपक्षे ने ‘आतंकवाद के खिलाफ युद्ध’ में दृढ़ समर्थन के लिए बीजिंग का आभार जताया था । ऐसी भी सूचनाएं हैं कि चीन ने युद्ध के दौरान श्रीलंका को छह लडाकू जैट विमान मुफ्त उपलब्ध कराए थे ।
श्रीलंका सरकार द्वारा लिट्टे के खिलाफ संघर्ष के दौरान उठाए गए कुछ सख्त कदमों पर सुरक्षा परिषद् में चर्चा रोकने के लिए चीन ने वीटो का इस्तेमाल भी किया था । श्रीलंका में बढ़ते चीन के प्रभाव और वहां बन्दरगाहों के निर्माण आदि के लिए चीनी विशेषज्ञों की उपस्थिति भारत के लिए चिन्ता का विषय है क्योंकि इससे भारत की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है ।
अभी तक तो श्रीलंका सरकार से हमने तमिल शरणार्थियों के पुनर्वास और उनके भविष्य में दर्जे के मानवीय पहलुओं पर ही बातचीत की है । हमें अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखकर उससे जुड़े मुद्दों पर भी कोलम्बो से बात करनी चाहिए जिससे क्षेत्र में हमारे राष्ट्रीय हित सुरक्षित रह सकें ।