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Here is essay on ‘Indo-China Relations’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. भारत-चीन सम्बन्ध (Indo-China Relations):
स्वतन्त्रता के बाद भारत और चीन के सम्बन्धों की कहानी भारतीय नेताओं की आदशवादिता, स्वप्नदर्शिता और अदूरदर्शिता तथा चीनी विश्वासघात की कहानी है ।
भारत की चीन सम्बन्धी नीति निम्नलिखित तत्वों पर आधारित रही है:
प्रथम:
यह विश्वास था कि प्राचीन काल से ही भारत और चीन के मध्य घनिष्ट सांस्कृतिक और व्यापारिक सम्बन्ध विद्यमान थे । बौद्ध धर्म की जन्मभूमि भारत चीन का एक प्रकार से धर्म गुरु है और चीन उसका सम्मान करेगा ।
दूसरे:
चीन को अपनी स्वतन्त्रता और अखण्डता की रक्षा के लिए पाश्चात्य और जापानी साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक भीषण और दीर्घ संघर्ष करना पड़ा था । इससे भारत में उसके प्रति गहरी सहानुभूति उत्पन्न हो गयी थी ।
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तीसरे:
यह माना जाता था कि चीन ने भारत पर कभी आक्रमण नहीं किया है और न कभी करेगा और वह कभी आक्रमण करना भी चाहेगा तो उत्तर की दुर्गम हिमालय पर्वतमाला उसे कभी ऐसा नहीं करने देगी ।
चौथे:
भारतीय विदेश नीति के प्रधान निर्माता पण्डित नेहरू और उनके विश्वस्त परामर्शदाता रक्षामन्त्री कृष्ण मेनन चीन विशेषत: साम्यवादी चीन, के प्रति गहरी सहानुभूति रखते थे और चीन के साथ मैत्री को असंलग्नता की नीति की आधारशिला मानते थे । भारत और चीन न केवल पडोसी राष्ट्र हैं अपितु उनमें प्राचीन काल से ही सांस्कृतिक सम्बन्ध चले आ रहे थे जिसका इतिहास साक्षी है ।
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जब दोनों विदेशी आधिपत्य में चले गये तो इनके ये सम्बन्ध टूट गये । 1947 में भारत स्वतन्त्र हुआ और उधर 1949 में कोमिन्तांग सरकार के पतन के बाद चीन में साम्यवादी सरकार की स्थापना हुई । साम्यवादी शासन की स्थापना के बाद ही यह महसूस किया गया कि चीन के साथ भारत के मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना का मार्ग अनेक कठिनाइयों से भरा हुआ है ।
Essay # 2. भारत-चीन मैत्री के मार्ग में कठिनाइयां:
भारत-चीन मैत्री के मार्ग में निम्नलिखित कठिनाइयां महसूस की गयीं:
प्रथम:
भारत की राजनीतिक आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्थाएं तथा संस्थाएं चीनी साम्यवादी प्रणाली और उसकी संस्थाओं से भिन्न हैं ।
द्वितीय:
भारत की विदेश नीति शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व एवं पंचशील के सिद्धान्तों पर आधारित है । भारत की नीति साम्राज्यवादी या विस्तारवादी नहीं है । भारत अपनी शक्ति से किसी को आतंकित नहीं करना चाहता । दूसरी ओर साम्यवादी चीन के इरादे आक्रामक, साम्राज्यवादी और विस्तारवादी हैं ।
इसकी इच्छाएं एशिया में एकाधिकार की हैं और उसके साधन तोड़-फोड़ आतंक क्रान्ति कपट और हिंसा हैं । माओ नीति शक्ति को ‘बन्दुक की नली’ से प्राप्त करती है ।
तृतीय:
एशिया में भारत जनसंख्या शक्ति और प्राकृतिक साधनों में चीन का प्रतिद्वन्द्वी बनने की क्षमता रखता है । चीन को यह पसन्द नहीं है कि भारत उसका प्रतिद्वन्द्वी बने । यह विश्व को यह बताना चाहता है कि भारत एशिया का एक कमजोर देश है और उसकी स्थिति दूसरे दर्जे की है । भारत का शक्ति के रूप में उभरना उसका आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होना और राजनीतिक सुदृढ़ता प्राप्त करना चीन के लिए ईर्ष्या द्वेष और वैमनस्य का कारण है ।
Essay # 3. भारत-चीन सम्बन्धों का इतिहास:
भारत-चीन सम्बन्धों के इतिहास को सुविधा की दृष्टि से तीन भागों में बांटा जा सकता है:
(1) भारत-चीन सम्बन्ध-प्रमोद काल (Honey Moon Period),
(2) भारत-चीन सम्बन्ध-टकराव और तनाव का काल (The Period of Conflict),
(3) भारत-चीन सम्बन्ध-संवाद काल (The Period of Dialogue) ।
(1) भारत-चीन सम्बन्ध-प्रमोद काल (1949-57):
चीन के प्रति भारत का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही मित्रतापूर्ण रहा है । हमारे स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों से ही नेहरू भारत और चीन की मित्रता पर बल देते रहे थे । सन् 1942 में च्यांग काई शेक ने भारत की यात्रा की थी जिससे भारत में चीन के जापानी साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष के प्रति सहानुभूति की एक लहर फैल गयी ।
चीन में साम्यवादी दल की विजय के बाद भारत-चीन सम्बन्ध और भी घनिष्ठ हो गये । अक्टूबर, 1949 में चीन में साम्यवादी क्रान्ति का भारत ने स्वागत किया । गैर-साम्यवादी देशों में भारत ही पहला देश था जिसने चीन को राजनयिक मान्यता प्रदान की ।
अमरीका की नाराजगी की कीमत पर भी भारत ने कोरियाई युद्ध में चीन का समर्थन किया । यू.एन.ओ में भारत ने उस प्रस्ताव का विरोध किया जिसमें चीन को आक्रान्ता घोषित किया गया था । सितम्बर, 1950 में सेनफ्रांसिस्को में 49 राष्ट्रों के साथ होने वाली जापानी सन्धि में भारत इसलिए शामिल नहीं हुआ क्योंकि चीन को उसमें शामिल नहीं किया गया था । संयुक्त राष्ट्र संघ में चीन को मान्यता दिलाने का भारत ने भरसक प्रयत्न किया ।
भारत ने उस समय भी चीन को मान्यता दिलाने का प्रयास किया जब चीन का भारत के प्रति दृष्टिकोण शत्रुतापूर्ण था । भारत ने अमरीका की उन नीतियों की सर्वदा आलोचना की जो चीन को अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों या संस्थाओं में ‘उचित स्थान’ दिलाने में बाधा प्रस्तुत करती थीं ।
सन् 1954-57 का काल भारत-चीन सम्बन्धों में प्रमोद काल कहलाता है । 29 जून, 1954 को दोनों राष्ट्रों के मध्य एक 8-वर्षीय व्यापारिक समझौता हुआ जिसके अन्तर्गत भारत ने तिब्बत से अपने ‘अतिरिक्त देशीय अधिकारों’ को चीन को सौंप दिया ।
इस व्यापारिक समझौते की प्रस्तावना, में ही पंचशील के सिद्धान्तों की रचना की गयी थी । भारत ने तिब्बत में चीन की प्रभुसत्ता को स्वीकार कर लिया । जून 1954 में जब चीन के तत्कालीन प्रधानमन्त्री चाऊ-एन-लाई भारत आये तो संयुक्त विज्ञप्ति में पंचशील के सिद्धान्तों पर बल दिया गया ।
अक्टूबर 1954 में पण्डित नेहरू ने भी चीन की यात्रा की । अप्रैल, 1955 में बाण्डुंग सम्मेलन में नेहरू और चाऊ-एन-लाइ, ने पूर्ण सहयोग के साथ कार्य किया । बाद में गोवा के प्रश्न पर भी चीन ने भारत का साथ दिया और क्यूमाये और मात्सू टापुओं पर भारत ने चीन का समर्थन किया ।
पामर के शब्दों में- ”साम्यवादी चीन के प्रति नेहरू और उनके सहयोगियों का दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से तुष्टिकारी था ।” विन्सैण्ट शौयब के अनुसार, ”चीनियों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध कायम करने का जितना प्रयास नेहरू ने किया सम्भवत: विश्व में उतना किसी ने भी नहीं किया ।” स्वतन्त्र भारत में ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ का नारा बहुत लोकप्रिय रहा ।
(2) भारत-चीन सम्बन्ध-टकराव और तनाव का काल (1957-1978):
पंचशील और बाण्डुंग सम्मेलन को भारतीय कूटनीति की महान् सफलताएं माना गया था, परन्तु वस्तुत: वे भारतीय कूटनीति की पराजय सिद्ध हुए । तध्य तो यह है कि भारत की चीन सम्बन्धी नीति जिन धारणाओं पर आधारित थी वे धारणाएं ही भ्रान्तिपूर्ण सिद्ध हुईं ।
भारत और चीन के प्राचीन सम्बन्धों की घनिष्टता को अत्यधिक बढ़ा-चढ़ाकर देखा गया था । साम्राज्यवाद के विरुद्ध उसके संघर्ष के प्रति सहानुभूति के प्रवाह में बहकर यह भुला दिया गया था कि चीनी लोग प्राचीन काल से ही चीन को विश्व सभ्यता का केन्द्र मानते आये हैं और एक विस्तारवादी नीति में विश्वास करते रहे हैं ।
भारत पर उनके भूतकाल में आक्रमण न करने का कारण उनकी शान्तिप्रियता नहीं वरन् हिमालय की दुर्गम पर्वतमालाएं थीं । परन्तु 20वीं शताब्दी में एक ओर तो विज्ञान की प्रगति ने उनकी अगमता को काफी कम कर दिया और दूसरी ओर तिब्बत को चीन को सौंप देने की गलती कर भारत ने भारत पर चीन के हमले को सरल बना दिया ।
इसके अतिरिक्त, भारतीय विदेश नीति के निर्माता यह भूल गये कि द्वितीय विश्व-युद्ध के पश्चात् एशिया और अफ्रीका के जागरण से उत्पन्न हुई परिस्थितियों में भारत और चीन के मध्य एशिया और अफ्रीका विशेषत: दक्षिणी-पूर्वी एशिया, के नेतृत्व के लिए संघर्ष होना अनिवार्य ही था ।
तिब्बत समस्या:
तिब्बत भारत का पड़ोसी राज्य है । इसके उत्तर में चीनी सिक्यांग स्थित है ।
भारत को अंग्रेजों से तिब्बत के सम्बन्ध में निम्न अधिकार उत्तराधिकार में मिले:
(I) ल्हासा में एक भारतीय राजनीतिक एजेण्ट रख सकना ।
(II) ग्यान्तसे, गंगटोक और यातुंग में व्यापारिक एजेन्सी स्थापित रख सकना ।
(III) ग्यान्तसे के व्यापार मार्ग पर डाक एवं तार के दफ्तर रखना ।
(IV) ग्यान्तसे में एक छोटा-सा सैनिक दस्ता रखना जो व्यापार मार्ग की रक्षा कर सके ।
चीन सदियों से तिब्बत पर अपना अधिकार जताता आ रहा था । चीन की नयी साम्यवादी सरकार ने स्थापना के साथ ही तिब्बत पर अपना अधिकार घोषित कर दिया और तिब्बत को अपने राज्य का अंग बताया । 1 जनवरी, 1950 को चीन सरकार ने तिब्बत को स्वतन्त्र कराने की घोषणा कर दी 1 भारत सरकार ने परिवर्तित परिस्थिति में चीन से वार्ता कर लेना ही उचित समझा ।
दिसम्बर 1953 में यह वार्ता प्रारम्भ हुई । पंचशील के आधार पर एक समझौता दोनों देशों के बीच कर लिया गया । इसके अन्तर्गत भारत को तिब्बत में व्यापार एजेन्सियां स्थापित करने का और तीर्थ-यात्राओं तथा अन्य नागरिकों द्वारा तिब्बत की यात्रा कर सकना मुख्य रूप से निश्चित किया गया ।
भारत सरकार यातुंग एवं ग्यान्तसे से अपने सैनिक हटाने के लिए सहमत हो गयी । तिब्बत पर चीन की सार्वभौमिकता स्वीकार करने की भारतीय नीति की संसद में कटु आलोचना हुई जबकि प्रधानमन्त्री नेहरू ने इसे पूर्णतया उचित ठहराया । उनके मतानुसार तिब्बत पर पहले से ही चीन का सार्वभौमिक अधिकार था और ब्रिटिश शासन तक ने इसे चुनौती नहीं दी थी ।
जब तक चीन दुर्बल और अविकसित था तब तक उसने अधिकार का उपयोग नहीं किया, पर एक नयी महाशक्ति के रूप में उभरने के पश्चात् वह कैसे किसी अन्य देश (भारत) की सेनाएं तिब्बत में रहना सहन कर सकता था ? अतएव सम्मानपूर्वक हट जाना ही उचित था ।
25 जून, 1954 को चीन के प्रधानमन्त्री जेनेवा से पीकिंग जाते समय भारत पधारे । भारत और चीन के प्रधानमन्त्रियों ने अपनी संयुक्त घोषणा में पंचशील के प्रति दुबारा अपना विश्वास प्रकट किया । 18 अक्टूबर, 1954 को नेहरू पीकिंग की यात्रा पर गये । इसके बाद 28 नवम्बर, 1956 से 10 दिसम्बर, 1956 तक चाऊ-एन-लाई ने भारत की यात्रा की । उन्होंने भारतीय संसद को सम्बोधित किया तथा बार-बार भारत एवं चीन की मित्रता का उल्लेख किया ।
एक बार पुन: चीन के प्रधानमन्त्री ने पंचशील में विश्वास प्रकट करने के साथ अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के लिए शक्ति प्रयोग करने की निन्दा की । इस प्रकार 1956 तक भारत एवं चीन के बीच उत्तम राजनीतिक सम्बन्ध थे । इसी वर्ष तिब्बत के खम्पा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर चीनी शासन के विरुद्ध विद्रोह हो गया जो 1959 तक चलता रहा ।
इस विद्रोह को दलाईलामा का समर्थन प्राप्त था । चीन सरकार ने कठोरता के साथ इस विद्रोह को कुचल डाला । 31 मार्च, 1959 को दलाईलामा ने 8 व्यक्तियों के दल के साथ भारत में राजनीतिक शरण ली । इसके पश्चात् एक बड़ी संख्या में तिब्बती शरणार्थी भारत आये ।
इन सबको मसूरी के पास बसा दिया गया । चीन की सरकार ने इसे शत्रुतापूर्ण कार्य बताया । वस्तुत: इसी समय से भारत और चीन के सम्बन्ध कुछ-कुछ बिगड़ना प्रारम्भ हो गये । इस सम्बन्ध में ज्ञातव्य है कि अभी हाल ही में (5 जनवरी, 2000) को तिब्बती धर्मगुरु करमापा ने भारत में शरण ली जिसकी पुष्टि 3 दिन बाद तिब्बती प्रशासन ने की । करमापा को शरण देने के विरुद्ध चीन ने अपना रोष प्रकट किया और उसे शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के पांच सिद्धान्तों का उल्लंघन माना ।
भारत-चीन सीमा-विवाद:
इधर दूसरी तरफ भारत और चीन के मध्य सीमा को लेकर कटु विवाद प्रारम्भ हो चुका था । 1950-51 में साम्यवादी चीन के नक्शे में भारत के एक बड़े भाग को चीन का अंग दिखाया गया था । जब भारत सरकार ने चीन का ध्यान इस ओर दिलाया तो यह कहकर मामला टाल दिया गया कि ये नक्शे कोमिन्तांग सरकार के पुराने नक्शे हैं ।
चीन की नयी सरकार को इतना समय नहीं मिला है कि वह इनमें उपयुक्त संशोधन कर सके । समय मिलते ही इन नक्शों को ठीक कर दिया जाएगा । जून 1954 में भारत एवं चीन के मध्य तिब्बत को लेकर समझौता हुआ तब वार्ता हेतु चुने गये विषयों में सीमा-विवाद का कहीं प्रश्न ही न था ।
भारत में यही समझा गया कि समस्त विवाद हल हो चुके हैं । परन्तु शीघ्र ही 17 जुलाई, 1954 को चीन ने एक पत्र द्वारा भारत पर आरोप लगाया कि भारतीय सेना ने बूजे नामक चीनी स्थान पर अवैध अधिकार कर लिया है ।
बूजे भारत में बड़ाहोती के नाम से प्रसिद्ध था । चीन के विरोध-पत्र का उत्तर देते हुए भारत सरकार ने लिख दिया कि- ”यह स्थान भारतीय प्रदेश में है और यहां भारतीय सीमा सुरक्षा सेना की चौकी है ।” 1954 से ही चीन ने सीमा के विभिन्न भारतीय प्रदेशों में अपने सैनिक दस्ते और टुकड़ियां भेजनी आरम्भ कीं । 23 जनवरी, 1959 के पत्र में चीनी सरकार ने लिखा कि भारत और चीन के मध्य कभी भी सीमाओं का निर्धारण नहीं हुआ और तथाकथित सीमाएं चीन के विरुद्ध किये गये साम्राज्यवादी षडयन्त्र का परिणाम मात्र हैं ।
भारत पर चीन का आक्रमण:
अक्टूबर, 1962 में भारत पर साम्यवादी चीन ने बड़े पैमाने पर आक्रमण कर दिया । इससे पूर्व 12 जुलाई, 1962 को लद्दाख में गलवान नदी की घाटी की भारतीय चौकी को चीनियों ने अपने घेरे में लिया । 8 सितम्बर को चीनी सेनाओं ने मैकमहोन रेखा पार करके भारतीय सीमा में प्रवेश किया । 20 अक्टूबर, 1962 को चीनी सेनाओं ने उत्तर-पूर्वी सीमान्त तथा लद्दाख के मोर्चे पर एक साथ बड़े पैमाने पर आक्रमण किया ।
टिड्डी दल की भांति वे भारतीय चौकियों पर टूट पड़े । 21 नवम्बर, 1962 को चीन ने एकाएक अपनी ओर से एकपक्षीय युद्ध-विराम की घोषणा कर दी और युद्ध समाप्त हो गया । चीन ने जीते हुए भारतीय प्रदेशों को भी खाली करना प्रारम्भ कर दिया और भारत के कुछ सैनिक साजो-सामान को भी वापस कर दिया ।
चीन द्वारा भारत पर आक्रमण के कारण:
डॉ.वी.पी. दत्त के अनुसार चीन के भारत पर आक्रमण के तीन उद्देश्य थे:
(i) अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना ।
(ii) भारत की निर्बलता को प्रदर्शित करना ।
(iii) उसे अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपमानित करना ।
संक्षेप में, चीन द्वारा भारत पर आक्रमण के निम्नलिखित कारण थे:
(a) चीन विस्तारवाद की नीति का प्रदर्शन करना चाहता था ।
(b) चीन की इच्छा थी कि वह भारत को लोकतन्त्रात्मक पद्धति से उन्नति करने में सफल न होने दे, उस पर युद्ध का बोझ डाल दे ।
(c) तिब्बत के प्रति भारतीय नीति से चीन नाराज था । दलाईलामा को शरण देने के कारण उसे हमसे रोष था ।
(d) उसका उद्देश्य भारत को बदनाम करना था, एशिया में चीन को सर्वोच्च शक्ति बनने की आकांक्षा तथा भारत को नीचा दिखाने की इच्छा थी ।
चीन के एक-पक्षीय युद्ध-विराम के कारण:
चीन ने एक-पक्षीय युद्ध-विराम की घोषणा करके सबको स्तब्ध कर दिया । युद्ध बन्द कर देने के कारणों के सम्बन्ध में बड़ा मतभेद है ।
फिर भी मोटे तौर से निम्नलिखित कारण हो सकते हैं:
(I) चीन अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपनी सद्भावना प्रकट करना चाहता था कि चीन युद्ध प्रेमी नहीं बल्कि उसे बाध्य होकर लड़ाई लड़नी पड़ी थी ।
(II) चीन को अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में सफलता मिल गयी थी । सैनिक दृष्टि से चीन ने भारत को हराकर भारतीय प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया और भारत की निर्बलता जग-प्रसिद्ध हो गयी थी ।
(III) सर्दी बढ़ जाने से सैनिकों को सामान पहुंचाने के लम्बे मार्ग पार करना कठिन होता जा रहा था, जिससे चीन अधिक समय तक युद्ध जारी नहीं रख सकता था ।
(IV) भारत को अमरीका और ब्रिटेन से भारी मात्रा में सैनिक सहायता तेजी से प्राप्त होने लगी थी ।
(V) सोवियत संघ चीन के इस आक्रमण को उचित नहीं समझता था ।
(VI) चीन इस तथ्य से परिचित था कि भारत पर प्रभुत्व जमाना आसान नहीं है । वह केवल अपनी शक्ति प्रदर्शित करके एशिया में अपने नेतृत्व का दावा प्रमाणित करना चाहता था ।
भारत की पराजय के कारण:
इस युद्ध में भारत की पराजय के निम्नलिखित कारण हैं:
(1) भौगोलिक स्थिति चीन के पक्ष में थी । चीनी, तिब्बत के ऊंचे पठार तथा चोटियों से आक्रमण करते थे जबकि भारतीयों को निचली घाटियों से हिमालय की ऊंची चोटियों तक चढ़कर अपने मोर्चे की रक्षा करने का कठिन काम करना पड़ा ।
(2) चीनियों ने इस युद्ध की तैयारी बहुत समय पूर्व से कर रखी थी जबकि भारत इसके लिए तैयार ही न था ।
कोलम्बो प्रस्ताव:
भारत और चीन के इस युद्ध से एशिया और अफ्रीका के कुछ मित्र-राज्यों ने दोनों देशों के सीमा-विवाद को हल करवाना चाहा । इन देशों ने श्रीलंका की राजधानी कोलम्बो में 10 दिसम्बर से 12 दिसम्बर, 1962 तक एक सम्मेलन किया । इस सम्मेलन में म्यांमार, कम्बोडिया, श्रीलंका, घाना, इण्डोनेशिया तथा संयुक्त अरब गणराज्य के प्रतिनिधियों ने भाग लिया । भारत ने इस प्रस्तावों के बारे में कोई स्पष्ट प्रक्रिया व्यक्त नहीं की ।
कोलम्बो प्रस्ताव के पांच सूत्र इस प्रकार हैं:
(i) वर्तमान नियन्त्रण रेखा भारत-चीन विवाद के समाधान का आधार मानी जाय ।
(ii) (a) पश्चिमी क्षेत्र में चीन वर्तमान रेखा से 20 किलोमीटर पीछे अपनी सैनिक चौकियां हटा ले जैसा कि चाऊ-एन-लाई स्वयं पं. नेहरू को अपने 21 तथा 23 नवम्बर के पत्र में लिख चुके हैं ।
(b) भारत इस क्षेत्र में अपनी वर्तमान स्थिति को बनाये रखे ।
(c) समस्या के अन्तिम समाधान होने तक भारत और चीन इस क्षेत्र को विसैन्यीकृत रखें और इस क्षेत्र का निरीक्षण दोनों देशों के असैनिक अधिकारी करें ।
(iii) पूर्वी क्षेत्र में वर्तमान नियन्त्रण रेखा को युद्ध-विराम रेखा माना जाय ।
(iv) मध्य क्षेत्र में सीमा का निश्चय शान्तिपूर्ण साधनों से किया जाय ।
(v) इन प्रस्तावों की स्वीकृति से दोनों देशों के बीच परस्पर वार्ता के द्वारा निर्णय ले सकते हैं ।
चीन-पाकिस्तान सम्बन्ध:
1962 के भारत-चीन युद्ध का जो भी परिणाम समक्ष आया उसमें सबसे महत्वपूर्ण चीन और पाकिस्तान का सम्बन्ध रहा । पाकिस्तान ने भारत के अव्वल दर्जे के शत्रु की हैसियत से चीन से हाथ मिलाया और उसने कराकोरम क्षेत्र में चीन को स्थायी रूप से बसा दिया ।
पाकिस्तान ने पाक अधिकृत कश्मीर का लगभग 5,180 वर्ग किमी का भूभाग चीन को सौंप दिया । इसके बाद से चीन और पाकिस्तान की दोस्ती बहुत ही प्रगाढ़ हो गयी । चीन ने पाकिस्तान को सैनिक सहायता दी । चीन के आणविक वैज्ञानिक पाकिस्तान के लिए क्वेटा अणु संयत्र में काम करते रहे । 16 सितम्बर, 1965 को चीनी सरकार ने भारत सरकार को अल्टीमेटम दिया । बांग्लादेश संकट के समय भी चीन भारत को लगातार धमकियां देता रहा ।
(3) भारत-चीन सम्बन्ध-संवाद काल (1978-2016):
भारत में जनता सरकार के सत्तारूढ़ होने और चीन में माओत्तर नेताओं द्वारा बागडोर संभाले जाने के बाद दोनों देशों ने विगत बातों को भूलकर नये सिरे से मधुर सम्बन्ध स्थापित करने की दिशा में प्रयास किये ।
अनेक कूटनीतिक माध्यमों से भारत को पीकिंग से इस बात के संकेत मिले कि वह भारत के साथ सम्बन्ध सुधारने का इच्छुक है । 1975 में टेबिल-टेनिस की प्रतियोगिता कोलकाता में हुई जिसमें चीनी खिलाड़ियों के एक दल ने भाग लिया ।
जनवरी 1978 में वांग-पिंग-नान के नेतृत्व में एक उच्च-स्तरीय चीनी प्रतिनिधिमण्डल भारत आया । इसके बाद व्यापार-वाणिज्य प्रतिनिधिमण्डलों का दौरा हुआ और दोनों देशों के बीच 1978 में 1 करोड़ 20 लाख का व्यापार हुआ ।
सितम्बर 1978 में चीन के कृषि वैज्ञानिकों ने भारत की यात्रा की और पार्क में विदेशमन्त्री वाजपेयी ने चीनी विदेश मन्त्री हुआंग हुआ से भेंट की । 1 अक्टूबर, 1978 को चीन की स्थापना की 29वां वर्षगांठ पर उपराष्ट्रपति बी.डी. जत्ती उपस्थित थे ।
नवम्बर 1978 में मृणालिनी साराभाई के नेतृत्व में भारतीय नृत्य मण्डली का चीन में भव्य स्वागत किया गया । 12 फरवरी, 1979 से प्रारम्भ होने वाली अपनी चीन यात्रा को विदेश मन्त्री वाजपेयी ने ‘टोही मिशन’ की संज्ञा दी थी ।
विदेश मन्त्री वाजपेयी के अनुसार उनकी पीकिंग यात्रा का उद्देश्य लेन-देन करना नहीं अपितु यह जानना था कि इतने वर्षों के बिगड़े सम्बन्ध के बाद आज चीन में हवा क्या है ? वाजपेयी की चीन यात्रा में सीमा-विवाद का हल नहीं छा जा सका क्योंकि यह पेचीदा मामला था ।
वाजपेयी को चीन आने का निमन्त्रण देकर चीन ने जहां भारत को पुचकारने का प्रयास किया वहां यात्रा के समय को वियतनाम पर आक्रमण के लिए चुनकर उसने भारत को परोक्ष धमकी भी दे दी और उसे 1962 के आक्रमण की याद भी दिला दी ।
चीन द्वारा 17 फरवरी, 1979 को वियतनाम पर आक्रमण किये जाने से वाजपेयी अपनी चीन यात्रा को अधूरी छोड्कर स्वदेश आ गये । वाजपेयी की चीन यात्रा से यह स्पष्ट हो गया कि जब तक सीमा सम्बन्धी मामले और कश्मीर से सम्बन्धित कुछ प्रश्नों पर सन्तोषजनक समझौता नहीं हो जाता तब तक चीन के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकेंगे ।
अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि से भी चीन के साथ फिर से बातचीत शुरू करने के कई कारण दिखायी देते हैं । चीन एक बड़ा पड़ोसी एशियाई देश है । उसके साथ सदा तनाव बने रहने की स्थिति दोनों देशों के लिए अप्रिय और अहितकर है । अगर दोनों मिल बैठें तो विश्व राजनीति में एशिया का प्रभाव बढ़ना अवश्यम्भावी है ।
इसके अतिरिक्त, तनाव की स्थिति में सैनिक तैयारी पर जो व्यय होता है वह मेल-जोल बढ़ने पर काफी कम हो जायेगा । दूसरी ओर भारत की यह मांग है कि विश्व में तनाव कम करने की दिशा में जो कार्यवाही हो रही है वह तब तक कारगर नहीं होगी जब तक उसमें चीन जैसे बड़े एशियाई देशों को यथेष्ट स्थान नहीं दिया जायेगा । जब भारत अन्तर्राष्ट्रीय प्रयासों में चीन को यथोचित स्थान दिलाने का पक्षधर है तो उसका स्वयं चीन से मुंह फेरे खड़े रहना प्रत्यक्षत: असंगत होगा ।
उधर चीन भारत की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाने के लिए अनेक आन्तरिक और बाह्य कारणों से विवश है । चीन में ऐसे आसार दिखायी दे रहे हैं कि पुराने माओवादी रवैये से हटकर कुछ नये विकल्पों को आजमाया जाये । इसी सन्दर्भ में चीन ने अपनी विदेश नीति के क्षेत्र में भी पुनर्विचार करना आवश्यक समझा ।
चीन जानता है कि भारत प्रभाव-क्षेत्र की राजनीति और महाशक्तियों के प्रसार का विरोधी है इसलिए भारत के साथ मिलकर ही एक सक्षम एशियाई व्यक्तित्व का निर्माण हो सकता है जिससे कि एशिया में बड़ी शक्तियों के प्रसार और प्रतिस्पर्द्धा को रोका जा सकता है । इसलिए भारत के साथ सम्बन्धों को सुधारने की कार्यवाही चीन के राष्ट्रहित में है ।
मार्शल टीटो की अन्त्येष्टि के अवसर पर श्रीमती गांधी ने चीन के विदेश मन्त्री हुआ कुआ फेंग से वार्ता की । फेंग ने जून 1981 में भारत की यात्रा की और सीमा विवाद सहित सभी प्रकार के सम्बन्धों के सामान्यीकरण हेतु वे वार्ता के लिए राजी हो गये ।
चीन की सरकार ने भारतीय यात्रियों को मानसरोवर तथा कैलाश पर्वत जाने की अनुमति भी दे दी । भारत और चीन में विवादों के समाधान के लिए 1982-87 के मध्य कुल मिलाकर वार्ताओं के आठ दौर हुए । दोनों पक्षों ने यह विश्वास प्रकट किया कि 40 करोड़ रुपए के आपसी व्यापार में कई गुना वृद्धि की गुन्जाइश है । भारत में आयोजित एशियाई खेलों में चीनी दल ने भाग लिया ।
1980 में चीन की ओर से यह बात अवश्य सामने आयी थी कि लद्दाख में अक्साईचिन में चीन द्वारा छीन ली गयी 37,000 वर्ग किलोमीटर भूमि पर भारत चीन का अधिकार मान ले तो चीन पूर्वी क्षेत्र में मैकमहोन रेखा स्वीकार करने को तैयार है ।
उसके तत्काल बाद 1981 में जब राष्ट्र संघ नियन्त्रित जनसंख्या सम्मेलन में भारत के संसदीय प्रतिनिधि मण्डल में अरुणाचल प्रदेश के स्पीकर का नाम शामिल किया गया तो चीन ने इंकार कर दिया । बाद में उन्हें वीजा दे दिया गया और उसके बाद भारत-चीन वार्ता के पहले और दूसरे दौर सम्पन्न हो गये ।
लेकिन दिसम्बर 1982 में नवें एशियाई खेलों के समापन पर चीन ने पुन: तहलका मचाया कि समापन समारोह में अरुणाचल प्रदेश के नर्तक दल क्यों सम्मिलित किये गये ? इस बार भारत के विरोध का भी चीन ने कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं दिया । भारत ने इस पर 11 दिसम्बर, 1982 को कोटनीस समारोह में जाने वाले भारतीय प्रतिनिधिमण्डल की यात्रा भी रद्द कर दी ।
यहां यह उल्लेखनीय है कि चीन द्वारा पूर्व में मैकमहोन रेखा को स्वीकार करने का मतलब यही निकलता था कि नेफा अर्थात् अरुणाचल में वह भारत के दावे को मानता है । स्मरण रहे कि 1962 में चीन ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया था व अपना दावा जताया था । भारत ने उसके बाद 1972 में अरुणाचल को अपने राज्य (केन्द्र शासित प्रदेश) का दर्जा प्रदान किया था ।
यदि चीन मैक्महोन रेखा को स्वीकार करने को तैयार है तो अरुणाचल के प्रश्न को लेकर बार-बार क्यों तूफान मचा रहा है । इधर भारत के लिए स्थिति बुरी थी । 1982 में प्रकाशित चीनी मानचित्रों में भी उन सभी भारतीय प्रदेशों को चीनी प्रदेश बताया गया जिन पर चीन अपना निराधार दावा करता रहा है ।
इस क्रम में सिक्किम को भी वह भारतीय प्रदेश नहीं मानता । चीन सिक्किम, कश्मीर व सीमा-विवाद पर अपनी पूर्व नीति बदले बिना ही भारत से सम्बन्ध सुधारना चाहता है । वह इस प्रक्रिया में कहीं भी प्रतिबद्ध नहीं होना चाहता है ।
दोनों देशों के बीच 19 जुलाई, 1986 को बीजिंग में वार्ता का सातवां दौर शुरू हुआ । इस वार्ता में चीन द्वारा 30 जून, 1986 को भारतीय सीमा में की गयी घुसपैठ पर चिन्ता व्यक्त की गयी । अगस्त 1986 में विदेश-राजमन्त्री के.आर. नारायणन् ने राज्यसभा को बताया कि चीन ने भारतीय क्षेत्र सुमदुरोंग चु घाटी (Sumdurong chu Valley) में एक हेलीपेड का निर्माण किया है । कुछ हेलीकोप्टर यहां आकर रुके ।
चीन ने जिन स्थानों पर अतिक्रमण कर रखा है वहां झोपड़िया, आदि बनाने की गतिविधियां जारी हैं । श्री नारायणन् ने स्पष्ट किया कि वार्ता के सातवें दौर में दोनों देशों की सीमाओं के सम्बन्ध में जो गतिरोध हैं, उनमें बहुत कम प्रगति हुई है ।
चीन ने न्यूनाधिक तौर पर यह तो स्वीकार कर लिया है कि मैक्महोन रेखा वास्तविक नियन्त्रण रेखा है, किन्तु भारत का कथन है कि यह रेखा दोनों देशों के बीच सीमा रेखा है । 20 फरवरी, 1987 को भारत ने जब अरुणाचल प्रदेश को भारतीय संघ का 24वां राज्य घोषित किया तो 21 फरवरी, 1987 को चीनी विदेश मन्त्रालय के एक प्रवक्ता ने कहा कि भारत की इस कार्यवाही से चीन की प्रादेशिक अखण्डता और प्रभुसत्ता का गम्भीर उल्लंघन हुआ है । दूसरी तरफ भारत ने चीन के इस विरोध को भारत के घरेलू मामले में हस्तक्षेप की संज्ञा दी ।
भारत व चीन के बीच सीमा-वार्ता का आठवां दौर 17 नवम्बर, 1987 को नई दिल्ली में समाप्त हुआ । वार्ता समाप्ति के बाद जारी विज्ञप्ति में कहा गया कि जहां तक सीमा के प्रश्न का सम्बन्ध है दोनों पक्षों के बीच यथास्थिति बनी हुई है । पूर्व की भांति दोनों पक्ष इस बात पर सहमत थे कि इस समस्या का हल शान्ति से किया जाए और कोई ऐसा कार्य न हो जिससे दोनों के बीच तनाव पैदा हो ।
प्रधानमन्त्री राजीव गांधी की चीन यात्रा (दिसम्बर 1988) और सीमा-विवाद हल करने के लिए संयुक्त कार्यदल का गठन:
19-23 दिसम्बर, 1988 को भारत के प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने 5 दिन के लिए चीन की यात्रा की । पिछले 34 वर्ष में भारत के किसी प्रधानमन्त्री की यह पहली चीन यात्रा थी । राजीव गांधी की चीन के राष्ट्रपति यांग शानकुन चीन के प्रधानमन्त्री लिंग पेंग तथा चीन के शीर्ष नेता शिया पिंग से लम्बी बातचीत हुई ।
देंग ने प्रधानमन्त्री गांधी से कहा कि- ”आपकी बीजिंग यात्रा से अब हमें अतीत भूल कर आपसी सम्बन्धों में एक नयी शुरुआत करनी चाहिए ।” राजीव गांधी के अनुसार- ”हमने चीन के साथ अपने सम्बन्धों को नये सिरे से शुरू करके मैत्री को सुदृढ़ करने का निश्चय किया है ।”
प्रधानमन्त्री राजीव गांधी की चीन यात्रा की एक और बड़ी उपलब्धि आर्थिक वैज्ञानिक तकनीकी व सांस्कृतिक सहयोग बढ़ाने के लिए संयुक्त आयोग का गठन है । इसे भारत-चीन सम्बन्धों के सुधार में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है ।
दोनों देशों के बीच एक संयुक्त समिति भी गठित करने का फैसला किया गया जो कि विज्ञान-प्रद्योगिकी तथा आर्थिक क्षेत्र में दोनों देशों के बीच सहयोग की सम्भावनाओं का पता लगायेगी । दोनों देशों के बीच नागरिक उड्डयन सेवाओं तथा विज्ञान व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उच्चस्तरीय सहयोग व सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए कतिपय समझौतों पर भी हस्ताक्षर हुए ।
वायु सेवाओं के सम्बन्ध में किये गये समझौते के अन्तर्गत दोनों देश नई दिल्ली और पीकिंग के बीच सीधी विमान सेवाएं शुरू करने के मुद्दे पर सिद्धान्त रूप से सहमत हो गये । दोनों देशों के बीच सीधी टेलीफोन सेवा भी इस ऐतिहासिक यात्रा के अवसर पर शुरू हो गयी ।
चीनी प्रधानमन्त्री की भारत यात्रा:
11 दिसम्बर, 1991 को चीन के प्रधानमन्त्री ली फंग एक उच्चस्तरीय दल के साथ दिवसीय यात्रा पर नई दिल्ली आये । वे 31 वर्ष बाद भारत आने वाले प्रथम चीनी प्रधानमन्त्री थे । इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच तीन समझौतों पर हस्ताक्षर हुए । ये समझौते हैं-शंघाई तथा बम्बई में वाणिज्य दूतावास खुलेंगे, दोनों देशों के बीच सीमा व्यापार शुरू होगा तथा चीन व भारत अन्तरिक्ष अनुसंधान, विज्ञान एवं तकनीकी क्षेत्र में पारस्परिक सहयोग करेंगे ।
सीमा सम्बन्धी महत्वपूर्ण प्रश्न पर चीन और भारत ने इस बात की आवश्यकता दोहराई कि इस प्रश्न का शीघ्र और परस्पर स्वीकार्य समाधान छा जाये और जब तक कोई अन्तिम समाधान नहीं छू लिया जाता तब तक सीमावर्ती क्षेत्रों को तनाव मुक्त रखा जाये ।
तिब्बत के मसले पर चीन के प्रधानमन्त्री ने कहा कि चीन दलाईलामा के साथ तिब्बत की स्वतन्त्रता के मसले को छोड्कर शेष सभी मसलों पर बातचीत करने को तैयार है । भारत ने अपनी चिरस्थायी और सतत स्थिति को दोहराया कि तिब्बत चीन का एक स्वायत्त क्षेत्र है और वह तिब्बत के लोगों को भारत में चीन विरोधी राजनीतिक गतिविधियों की अनुमति नहीं देगा ।
राष्ट्रपति वेंकटरमन की चीन यात्रा:
17 मई, 1992 को भारत के राष्ट्रपति श्री आर.वेंकटरमन चीन के राष्ट्रपति श्री यांग शांकुन के निमन्त्रण पर 6 दिन की सरकारी यात्रा पर चीन गये । श्री वेंकटरमन पहले भारतीय राष्ट्राध्यक्ष थे जो चीन की यात्रा पर गये ।
यह यात्रा इस बात का प्रमाण है कि पिछले कुछ वर्षों से भारत-चीन सम्बन्धों में धीरे-धीरे सुधार हो रहा है । उल्लेखनीय है कि चीनी राष्ट्रपति श्री यांग ने श्री वेंकटरमन से बातचीत के दौरान ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ युग की याद दिलायी और भारतीय राष्ट्रपति को आश्वासन दिया कि चीन गहरी और अटूट मित्रता निभायेगा । श्री यांग ने राष्ट्रपति वेंकटरमन की यात्रा को ‘बड़ी उपलब्धि’ बताया ।
प्रधानमन्त्री पी.वी. नरसिंह राव की चीन यात्रा (सितम्बर 1993) और वास्तविक नियन्त्रण रेखा पर शान्ति बनाये रखने का समझौता:
सितम्बर 1993 में प्रधानमन्त्री पी.वी. नरसिंह राव की चीन यात्रा ने द्विपक्षीय सम्बन्धों की रचनात्मक प्रवृत्ति को बल दिया । इस यात्रा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि भारत-चीन सीमा क्षेत्रों में वास्तविक नियन्त्रण रेखा पर शान्ति और अमन बनाये रखने के सम्बन्ध में हुआ समझौता है । यह एक ऐसा समझौता है जिसमें वास्तविक नियन्त्रण रेखा पर शान्ति और समरसता का सुनिश्चय करने की एक रूपरेखा निर्धारित है ।
इसके अन्तर्गत भारत और चीन इस बात पर सहमत हुए कि वे सीमा के सवाल के सम्बन्ध में अपनी-अपनी स्थितियों को किसी भी तरह प्रभावित किए बिना वास्तविक नियन्त्रण रेखा पर शान्ति बनाए रखेंगे । इस समझौते को कार्यान्वित करने के सम्बन्ध में गठित संयुक्त कार्य दल की सहायता करने के लिए जो भारत-चीन विशेषज्ञ दल गठित किया गया उसकी पहली बैठक फरवरी 1994 में नई दिल्ली में हुई । ऐसा माना जाता है कि वास्तविक नियन्त्रण रेखा पर शान्ति बनाये रखने से चीन के साथ सीमा विवाद सुलझने में मदद मिलेगी ।
चीन में भारत महोत्सव:
मई-जून 1994 के दौरान चीन में भारत महोत्सव आयोजित हुआ । यह चीन में होने वाला किसी विदेशी राष्ट्र का पहला महोत्सव था ।
चीन के राष्ट्रपति जियांग जेमिन की भारत यात्रा:
चीन के राष्ट्रपति जियांग झेमिन की 28 नवम्बर से 1 दिसम्बर, 1996 तक की भारत यात्रा उच्चतम स्तर पर वार्ता की प्रक्रिया का एक अंग थी । चीनी राष्ट्रपति की इस यात्रा की उल्लेखनीय उपलब्धि भारत-चीन सीमावर्ती क्षेत्रों में वास्तविक नियन्त्रण रेखा पर सैन्य क्षेत्र में विश्वासोत्पादक उपायों से सम्बद्ध सन्धि सम्पन्न करना है ।
इसके अतिरिक्त दोनों देशों ने तीन अन्य समझौतों पर भी हस्ताक्षर किए । इनमें से एक समझौता जून 1997 में हांगकांग पर से ब्रिटेन का पट्टा समाप्त होने के बाद वहां भारतीय वाणिज्य दूतावास को बनाए रखने के बारे में था ।
हवाई सेवा हेतु भारत व चीन में समझौता:
मई 1997 में भारत व चीन ने एक द्विपक्षीय विमानन समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसके परिणामस्वरूप दोनों देशों के बीच सीधी विमान सेवा प्रारम्भ हो जाएगी । समझौते के अन्तर्गत दोनों देश अधिकतम 2-2 विमान सेवा कम्पनियों को दोनों देशों के मध्य विमान सेवा उपलब्ध कराने को अधिकृत करेंगे तथा किसी भी किस्म के विमान से सप्ताह में अधिकतम 2-2 उड़ानें की जा सकेंगी ।
विदेशमन्त्री जसवन्त सिंह की चीन यात्रा:
भारत के विदेशमन्त्री जसवन्त सिंह ने 14-15 जून, 1999 को चीन की यात्रा की । करगिल में चल रहे भारत-पाक संघर्ष की पृष्ठभूमि में यह यात्रा राजनयिक दृष्टि से महत्वपूर्ण थी । चीनी विदेशमन्त्री जियाझुआन के साथ हुई बातचीत में अनेक महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए ।
इनमें दोनों देशों के बीच ‘सुरक्षा संवाद तन्त्र’ प्रारम्भ करने सीमा पर नियन्त्रण की वास्तविक रेखा के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण के लिए बातचीत प्रारम्भ करने करगिल की स्थिति पर एक-दूसरे को अपना दृष्टिकोण बताने आदि मामले शामिल हैं ।
करमापा लामा को शरण देने का मामला: चीन की भारत को चेतावनी:
11 जनवरी, 2000 को चीन ने भारत को परोक्ष चेतावनी देते हुए कहा कि वह भारत पहुंचे तिब्बती धार्मिक नेता करमापा लामा को राजनीतिक शरण न दे । चीनी विदेश मंत्रालय के अनुसार करमापा लामा को राजनीतिक शरण देना दोनों देशों के सम्बन्धों का आधार शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के पंचशील सिद्धान्तों का उल्लंघन होगा ।
राष्ट्रपति के.आर. नारायणन की चीन यात्रा (मई-जून 2000):
भारत के राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने चीन के साथ सम्बन्धों को और मजबूत बनाने के उद्देश्य से मई-जून 2000 में चीन की छ: दिवसीय राजकीय यात्रा की । चीन ने भारत के साथ सम्बन्धों में पिछले दो वर्षों से आड़े आ रहे विवादास्पद परमाणु मुद्दे को ठण्डे बस्ते में डाल दिया लेकिन कहा कि भारत में दलाई लामा के साथ करमापा के मौजूद होने से वहां चीन विरोधी गतिविधियां बढ़ सकती हैं । दोनों देशों ने उलझे हुए सीमा विवाद के तर्कसंगत हल पर सहमति व्यक्त करते हुए द्विपक्षीय सम्बन्धों के विस्तार के लिए विशिष्टजन दल गठित करने का निर्णय किया ।
नारायणन ने चीन की शंकाओं का निराकरण करते हुए भारत का यह दृष्टिकोण दोहराया कि वह तिब्बत को चीन का स्वायत्त क्षेत्र मानता है तथा दलाई लामा को धार्मिक गुरु मानता है जिन्हें भारत में राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने की अनुमति नहीं दी जाएगी । दोनों नेताओं ने परमाणु और ताइवान मुद्दों को छोड़ते हुए कहा है कि सीमा विवाद के समाधान में आपसी समझ सामंजस्य और सुविधा की भावना को आधार बनाया जाना चाहिए ।
दोनों देशों के बीच चालीस वर्ष पुराने सीमा विवाद को इतिहास की देन बताते हुए जियांग ने इसके समाधान के लिए तीन नारे दिए-पारस्परिक समायोजन पारस्परिक सद्भाव और पारस्परिक निपटारा । जियांग ने हालांकि भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाए जाने के बारे में कोई आश्वासन नहीं दिया, लेकिन भारत के इस दृष्टिकोण का समर्थन किया कि संयुक्त राष्ट्र का पुनर्गठन होना चाहिए तथा एशिया-अफ्रीका या दक्षिणी अमरीका के विकासशील देशों का उसमें ज्यादा प्रतिनिधित्व होना चाहिए ।
भारतीय एवं चीनी नौसेनाओं का पहला संयुक्त सैन्य अभ्यास:
सैन्य मामलों में पारस्परिक विश्वास सृजन की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए 15-18 सितम्बर, 2000 को शंघाई में भारत व चीन की नौसेनाओं ने पहला संयुक्त युद्धाभ्यास संपन्न किया । भारत के स्वदेश निर्मित दो युद्धपोतों आईएनएस दिल्ली व आईएनएस कोरा ने इसमें भाग लिया ।
चीनी प्रधानमन्त्री की भारत यात्रा (जनवरी, 2002):
140 सदस्यीय शिष्टमण्डल के साथ जनवरी 2002 में चीनी प्रधानमन्त्री झू रोंगजी ने भारत की यात्रा की । 15 जनवरी को शिखर वार्ता के पश्चात् भारत एवं चीन के मध्य पारस्परिक सहयोग के छ: सहमति-पत्रों पर हस्ताक्षर हुए । इनमें विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी तथा बाह्य अंतरिक्ष के शातिपूर्ण कार्यों में उपयोग के लिए मिलजुलकर कार्य करने, पर्यटन के क्षेत्र में सहयोग करने तथा ब्रह्मपुत्र नदी में बाढ़ के दौरान भारत को सूचनाएं उपलब्ध कराने सम्बन्धी सहमतियां शामिल हैं । उन्होंने कहा कि चीन पाकिस्तान का निकट सहयोगी एवं मित्र है फिर भी आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष में वह पूरी तरह भारत का साथ देगा ।
विदेश मन्त्री जसवंत सिंह की चीन यात्रा (मार्च-अप्रैल, 2002):
भारत के विदेश मन्त्री जसवंत सिंह ने मार्च-अप्रैल 2002 में चीन की पांच दिवसीय यात्रा की । चीनी उपप्रधानमन्त्री एवं विदेश मन्त्री से वार्ता के बाद दोनों देशों के नेता इस बात के लिए राजी हुए कि वास्तविक नियन्त्रण रेखा (LOC) से सम्बन्धित विवाद हल करने के लिए प्रयत्न किए जाएं ।
प्रधानमन्त्री वाजपेयी की चीन यात्रा (जून, 2003):
22 से 27 जून, 2003 तक प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी चीन की यात्रा पर रहे । भारत के प्रधानमन्त्री की दस साल बाद यह यात्रा सम्पन्न हुई 24 जून, 2003 को भारत और चीन ने ऐतिहासिक घोषणा पत्र, व्यापार सम्बन्धी सहमति पत्र और नौ समझौतों पर भी हस्ताक्षर किए ।
चीन ने सिक्किम के रास्ते व्यापार करने पर सहमति जताकर इस पूर्वोत्तर राज्य को परोक्ष रूप से भारत का हिस्सा मान लिया जबकि भारत ने तिब्बत को चीन के स्वायत्त प्रदेश के रूप में मान्यता देने का निर्णय किया ।
दोनों पक्ष वास्तविक नियन्त्रण रेखा पर शान्ति व स्थिरता कायम रखने पर राजी हुए । दोनों देश सीमा विवाद के हल में तेजी लाने का प्रयास करेंगे । दोनों पक्ष इसके लिए विशेष प्रतिनिधि नियुक्त करने पर सहमत हो गए । भारत ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकर ब्रजेश मिश्र व चीन ने विदेश मंत्रालय में वरिष्ठ उपमन्त्री दाई सिंन्दुओं को विशेष प्रतिनिधि नियुक्त किया ।
इससे सीमा मसले के हल की दोनों देशों की प्रबल इच्छा का संकेत मिलता है । दोनों देशों ने अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद के खतरे पर चिन्ता जताई और हर तरह के आतंकवाद की निन्दा की । अब दोनों देशों के बीच सिक्किम के नाथूला मार्ग से भी व्यापार हो सकेगा । दोनों देशों ने द्विपक्षीय व्यापार बढ़ाने के लिए कदम उठाने तथा विश्व व्यापार संगठन में विकासशील देशों के हितों की रक्षा के लिए सहयोग करने का भी निर्णय किया ।
चीनी मानचित्र में सिक्किम का भारत के अंग के रूप में प्रदर्शन-मई 2004 में प्रकाशित वर्ल्ड अफेयर्स ईयर बुक 2003-04 में चीन ने पहली बार सिक्किम को भारत के अंग के रूप में प्रदर्शित किया । सिक्किम के मामले में चीन के इस कदम को भारत-चीन सम्बन्धों में अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जा रहा है तथा इससे प्रधानमन्त्री वाजपेयी की जून 2003 की चीन यात्रा के दौरान हुए सीमा व्यापार समझौते को बल मिला है ।
चीनी प्रधानमन्त्री बेन जियाबाओ की भारत यात्रा (अप्रैल 2005):
अप्रेल 2005 में चीन के प्रधानमत्री वेन जियाबाओ बंगलुरु के रास्ते दिल्ली आए । अतीत की कड़वी यादों को भुलाकर भारत और चीन ने सम्बन्धों के नए रास्ते पर चलने की पहल की । वेन जियाबाओ की मौजूदा यात्रा में पांच वर्ष में सभी विवादों को सुलझाने और सहयोग व साझीदारी की नई ऊंचाइयों तक ले जाने की जो सहमति बनी वह इसी का संकेत है । दोनों देशों ने जिस समझौते पर दस्तखत किए हैं उससे तय हो गया है कि सीमा विवाद को सम्बन्धों के आड़े नहीं आने दिया जाएगा ।
वेन की वाया बंगलुरु-दिल्ली यात्रा ने उनकी प्राथमिकता और दोनों देशों के बीच सम्बन्धों को नियन्त्रित करने वाले कारकों की पहचान करा दी है । वेन ने शानदार रूपक के द्वारा दोनों देशों को दो पैगोडा बताया और इनके एक होकर विश्व को मुकाबला करने की इच्छा व्यक्त की । 12 सूत्री समझौते में इसकी नींव भी रख दी गई ।
हार्डवेयर में चीन की दक्षता और सॉफ्टवेयर में भारतीय विशेषज्ञता अगर एक हो जाए तो कम से कम आईटी के विश्व व्यापार पर तो इनका कब्जा हो ही जाएगा । इसके अतिरिक्त भी दोनों देशों ने अगले तीन वर्ष में अपना साझा कारोबार 20 अरब डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा है ।
सैन्य क्षेत्र में भी भरोसा बढ़ाने वाले कदम उठाने को दोनों देश तैयार हैं । इसके तहत पहला समझौता यह हुआ कि सीमा के पास दोनों देश बड़ा सैन्य अभियान नहीं चलाएंगे । नाथूला दर्रे के द्वारा होने वाले कारोबार की भी समीक्षा की गई ।
भारत ने चीन को भरोसा दिलाया कि उसकी जमीन से चीन विरोधी आन्दोलन नहीं चलेगा । हालांकि चीन ने स्पष्ट रूप से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता की दावेदारी को नहीं स्वीकार किया लेकिन यह जरूर कहा कि वह अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका को समझता है और उसका समर्थन करता है । अगर इसकी व्याख्या यह है कि वह भारत की दावेदारी में अड़ंगा नहीं लगाएगा तो भारत के लिए सन्तोष की बात है ।
चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ की भारत यात्रा (नवम्बर, 2006):
चीनी राष्ट्रपति हूं जिंताओ 20-23 नवम्बर, 2006 को भारत की तीन दिन की यात्रा पर रहे । यह यात्रा दोनों देशों के मध्य आर्थिक सामाजिक एवं राजनीतिक सम्बन्धों के नए दौर की शुरुआत मानी गई ।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ 22 नवम्बर, 2006 को हैदराबाद हाउस में सम्पन्न हुई बैठक के बाद चीन के राष्ट्रपति ने आपसी सम्बन्धों को और अधिक मजबूत बनाने के लिए भारत-चीन सीमा विवाद के शीघ्र समाधान एवं परस्पर व्यापार को बढ़ाने की मंशा व्यक्त की । दोनों पक्ष सभी क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने और आपसी सामरिक साझेदारी को और अधिक मजबूती देने सम्बन्धी एक दस-सूत्रीय रणनीति पर सहमत हुए ।
22 नवम्बर को जारी संयुक्त घोषणा पत्र के कुछ प्रमुख बिन्दु निम्नानुसार हैं:
(i) भारत में कोलकाता और चीन में गुआंगझ में अतिरिक्त वाणिज्य दूतावास खोलना ।
(ii) वर्ष 2010 तक द्विपक्षीय व्यापार को 40 अरब डॉलर तक पहुंचाना ।
(iii) तेल और प्राकृतिक गैस के क्षेत्र में सहयोग पर सहमति पत्र के प्रावधानों के पूर्ण क्रियान्वयन पर सहमति ।
(iv) सूचना और संचार तकनीक क्षेत्र में सहयोग को मजबूती प्रदान करना ।
(v) सीमा सहित प्रमुख मुद्दों पर मतभेदों को शांतिपूर्ण, निष्पक्ष, तार्किक, पारस्परिक स्वीकार्य और सक्रिय ढंग से सुलझाने की प्रतिबद्धता ।
(vi) विज्ञान और तकनीक में सहयोग को बढ़ावा देना ।
(vii) सांस्कृतिक सम्बन्धों और व्यक्तियों के बीच आदान-प्रदान को बढ़ावा देने के लिए (a) चीन में भारत महोत्सव और भारत में चीन महोत्सव आयोजित करना, एवं (b) भारत-चीन आदान-प्रदान फाउंडेशन स्थापित करना ।
(viii) पर्यटन के द्वारा वर्ष 2007 में भारत-चीन मित्रता वर्ष आयोजित करना ।
(ix) विश्व व्यापार संगठन में सहयोग बढ़ाना ।
भारत-चीन के बीच हॉट लाइन सेवा शुरू:
भारत और चीन के मध्य राजनीतिक विश्वास मजबूत करने एवं द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ावा देने के लिए दोनों देशों के विदेश मंत्रालय 13 फरवरी, 2007 से एक हॉट लाइन से जुड़ गये हैं ।
प्रणब मुखर्जी-सर्गेई लावरोव तथा ली झाओजिंग के बीच दोस्ती का नया दौर:
भारतीय विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी, रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव और चीन के विदेश मंत्री ली झाओजिंग के बीच 14 फरवरी, 2007 को हैदराबाद हाउस में हुई बैठक में महसूस किया गया कि विश्व में विभिन्न मसलों का समाधान संघर्ष के बजाय आपसी सहयोग एवं वार्ताओं के द्वारा किया जाए । बैठक के पश्चात् की गई घोषणा में उल्लेख किया गया कि वे विश्व में एक ऐसी बहुध्रुवीय व्यवस्था चाहते हैं जिसमें अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध बहुपक्षीय आधार पर संचालित किए जाएं ।
डॉ. मनमोहन सिंह की चीन यात्रा:
प्रधानमंत्रीडी मनमोहन सिंह ने 13-15 जुलाई, 2007 तक चीन का दौरा किया । दोनों पक्षों ने भारत और चीन के बीच 21वीं सदी के लिए एक साझा विजन को जारी किया और विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग के लिए 10 अन्य दस्तावेजों पर भी हस्ताक्षर किये ।
प्रधानमंत्री ने जी-8 शिखर सम्मेलन के दौरान सैमेरों में 8 जुलाई, 2008 को एसेम शिखर सम्मेलन के दौरान बीजिंग में 25 अक्टूबर, 2008 को पुन: चीनी प्रधानमंत्री से मुलाकात की । विदेशमंत्री ने 4-7 जून, 2008 को चीन की यात्रा की और बाढ़ के दौरान ब्रह्मपुत्र नदी की जल स्तर संबंधी सूचना चीन द्वारा भारत को प्रदान किये जाने संबंधी प्रावधान के लिए समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये ।
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल की चीन यात्रा:
चीनी राष्ट्रपति हूं जिंताओ के निमंत्रण पर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल 26-31 मई, 2010 तक चीन की यात्रा पर रही । इस अवसर पर पारस्परिक सहयोग के तीन समझौतों पर हस्ताक्षर हुए । सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता के मामले में चीन के रूख में कुछ नरमी देखी गयी । चीन के हेनान प्रान्त के लोयांग शहर में भारतीय शैली में निर्मित एक बौद्ध मठ का राष्ट्रपति पाटिल ने उद्घाटन किया । इस मठ को भारत की जनता की ओर से एक तोहफे के रूप में चीनी लोगों को उन्होंने समर्पित किया ।
प्रधानमंत्री बेन जियाबाओ की भारत यात्रा:
भारत के प्रधानमंत्री के निमंत्रण पर बेन जियाबाओ, चीनी लोकतांत्रिक गणराज्य के स्टेट कांउसिल के प्रधानमंत्री ने 15-17 दिसम्बर, 2010 को भारत की राजकीय यात्रा की । यह भारत और चीन के बीच राजनयिक संबंधों की स्थापना की हरवी वर्षगांठ का उपयुक्त अवसर था ।
प्रधानमंत्री बेन ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के साथ शिष्टमंडल स्तरीय बातचीत की और राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल से मुलाकात की । उन्होंने यू॰पी॰ए॰ अध्यक्षा और नेता, प्रतिपक्ष से भी मुलाकात की । दोनों प्रधानमंत्रियों ने द्विपक्षीय संबंधों और आपसी हित के क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर गंभीरतापूर्वक एवं दोस्ताना माहौल में विचारों का आदान-प्रदान किया और इस पर व्यापक सहमति व्यक्त की । अपनी यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री ने 15 दिसम्बर, 2010 को भारत-चीन व्यावसायिक शिखर बैठक को संबोधित किया और टैगोर इंटरनेशनल स्कूल का दौरा किया ।
उन्होंने भारतीय विश्व कार्य परिषद् (आई.सी.डब्ल्यू.ए.) में भारत-चीन संबंध पर एक व्याख्यान दिया । दोनों प्रधानमंत्रियों ने जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में 16 दिसम्बर 2010 को चीन में भारत महोत्सव के समापन समारोह में भी भाग लिया ।
अपनी यात्रा के दौरान दोनों पक्षों ने संस्कृति, ग्रीन टेक्नोलॉजी, मीडिया आदान-प्रदान, जल संसाध न और बैंकिंग सहयोग के क्षेत्र में सहयोग के लिए छ: समझौता ज्ञापनों/करारों पर हस्ताक्षर किये । यात्रा के दौरान एक संयुक्त विज्ञप्ति भी जारी की गई ।
प्रधानमन्त्री ली केकियांग की भारत यात्रा:
चीन के नए प्रधानमन्त्री ली केचियांग 19-22 मई 2013 को भारत यात्रा पर आए । 20 मई को 8 विभिन्न सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर हुए । इनमें व्यापार घाटे को कम करने के लिए तथा ब्रह्मपुत्र के मुद्दे पर हुई सहमतियों को सबसे महत्वपूर्ण माना जा रहा है । दोनों देशों ने वर्ष 2015 तक आपसी व्यापार को 100 अरब डॉलर तक ले जाने का लक्ष्य निर्धारित किया ।
ली केकियांग की 19-22 मई 2013 तक की यात्रा के दौरान भारत तथा चीन ने 2014 में शान्तिपूर्ण-सह-अस्तित्व के पांच सिद्धान्तों (पंचशील) की 60वीं वर्षगांठ को ‘मैत्रीपूर्ण विनिमय वर्ष’ के रूप में नामित करते हुए मनाने का निर्णय लिया ।
प्रधानमत्री ने 22-24 अक्टूबर, 2013 तक चीन की अधिकारिक यात्रा की । सड़क परिवहन क्षेत्र, सीमा पार नदियों, विद्युत् उपकरण, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, नालन्दा विश्व-विद्यालय सिस्टर-शहर सम्बन्ध तथा सीमा सुरक्षा सहयोग से सम्बन्धित नौ करारों तथा समझौता ज्ञापनों पर इस यात्रा के दौरान हस्ताक्षर किए गए ।
23 अक्टूबर, 2013 को दोनों पक्षों ने ”भारत-चीन नीतिगत एवं सहकारी भागीदारी के भावी विकास की योजना से सम्बन्धित संयुक्त वक्तव्य” जारी किया । वर्ष 2013 में भारत-चीन के बीच व्यापार 65.47 मिलियन अमेरिकी डॉलर (चीन को भारत का निर्यात-17.03 बिलियन अमेरिकी डॉलर तथा चीन से आयात-48.44 बिलियन अमेरिकी डॉलर रहा, जिसमें 2012 की तुलना में 1.5% की गिरावट दर्ज की गई । व्यापार घाटा अब तक का सबसे अधिक अर्थात् 31.42 बिलियन अमेरिकी डॉलर रहा ।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा:
राष्ट्रपति जिनपिंग 17 सितम्बर, 2014 को तीन दिवसीय भारत यात्रा पर सर्वप्रथम अहमदाबाद पहुंचे । वहां प्रधानमन्त्री मोदी की उपस्थिति में चीन और गुजरात सरकार के बीच तीन करार सम्पन्न हुए । पहला करार ग्वांगडोंग की तर्ज पर गुजरात का विकास दूसरा करार ग्वांगडोंग की राजधानी ग्वांग्झू की तर्ज पर अहमदाबाद के विकास तथा तीसरा करार वडोदरा के पास औद्योगिक पार्क विकसित करने से सम्बन्धित है ।
दोनों देशों के बीच 18 सितम्बर को 12 करार हुए । कैलाश-मानसरोवर के लिए नया रास्ता खोलने पर सहमति बनी । चीन भारत में लगभग 1,200 अरब रुपए का निवेश पांच वर्ष में करने के लिए राजी हुआ । बुलेट ट्रेन चलाने, रेलवे स्टेशनों को आधुनिक बनाने पर भी चीन का भारत को सहयोग मिलेगा । दोनों पक्षों में सीमा विवाद पर कोई समझौता नहीं हो सका । प्रधानमन्त्री मोदी का कहना था कि ‘जल्दी सुलझे सीमा विवाद’ । जिनपिंग बोले- ‘सीमा निर्धारित होने तक घुसपैठ सम्भव’ ।
भारत के प्रधानमन्त्री नरेद्र मोदी की चीन यात्रा:
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी 14 से 16 मई, 2015 तक चीन की यात्रा पर रहे । दोनों देशों के मध्य 10 अरब डॉलर के 24 समझौतों पर हस्ताक्षर हुए, 16 मई को भारत और चीन की कम्पनियों के बीच 22 अरब डॉलर के 26 समझौते हुए । मोदी ने चीन के निवेशकों को भारत में निवेश के लिए आमंत्रित किया । मोदी ने चीन के नागरिकों को ई-वीजा देने की घोषणा की । कैलाश-मानसरोवर जाने वालों के लिए नाथूला मार्ग जून 2015 से खोल दिया गया है ।
भारत-चीन सम्बन्ध: संवाद के बावजूद:
भारत और चीन दोनों एशिया महाद्वीप की बड़ी शक्तियां हैं । पिछले पांच दशक से भी अधिक समय से दोनों के सम्बन्ध खराब हैं । सम्बन्ध सुधारने और सामान्य बनाने में सीमा-विवाद सबसे बड़ी बाधा है ।
भारत ने सीमा-विवाद को हल करने के लिए कोलम्बो प्रस्ताव लागू करने का सुझाव दिया, किन्तु यह चीन को स्वीकार नहीं । एक सम्भावना यह हो सकती है कि भारत अक्साईचिन का वह क्षेत्र चीन का मान ले जहां उसने सड़क बना ली है ।
इसके बदले में इसी लद्दाखी क्षेत्र में अक्साईचिन के अतिरिक्त जितनी भी जमीन है: सोडा, लिंग जी तांग, चांग चेनमो घाटी, दीपसांग तथा लानक ला और दूमजोर ला के आस-पास का क्षेत्र, वह भारत को वापस लौटा दे ।
इसी प्रकार पूर्वी क्षेत्र में चुम्बी घाटी पर भारत का प्रभावी अधिकार रहा है । उसका प्रशासन भारत को लौटा दिया जाय और मैक्महोन रेखा को चीन वैधानिक सीमा रेखा की मान्यता दे दे, इस आधार पर समझौते का प्रयास किया जा सकता है । भारत-चीन सीमा विवाद को सुलझाने के लिए सम्मानपूर्ण हल के लिए प्रयास जारी हैं ।
यद्यपि दोनों देशों के बीच सीमा के प्रश्न पर व्यापक मतभेद कायम हैं किन्तु दोनों पक्ष वार्ता जारी रखने के पक्ष में हैं । दोनों देशों के बीच आर्थिक तकनीकी और सांस्कृतिक क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने का संकल्प किया गया है ।
यह भी निश्चय किया गया है कि तेलोत्खनन रेल और कृषि के विशेषज्ञ चीन की यात्रा करेंगे तथा गेहूं बीज का उत्पादन और डेयरी विकास आदि के चीनी विशेषज्ञ भारत आयेंगे । जून 2003 में प्रधानमन्त्री वाजपेयी की चीन यात्रा का यह संकेत है कि भारत-चीन रिश्तों पर जमी बर्फ आहिस्ता-आहिस्ता पिघल रही है ।
सीमा विवाद के अतिरिक्त दोनों देशों ने वाजपेयी के इस दौरे में व्यापार, शिक्षा, वीजा, आदि को लेकर भी कई महत्वपूर्ण समझौते किए लेकिन इन सारे समझौतों से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि भारत और चीन दोनों इस बातों को दिल से स्वीकार कर रहे हैं कि अब दोनों एक-दूसरे के लिए खतरा नहीं हैं ।
1 जनवरी, 1991 को चीन द्वारा मुम्बई में तथा भारत द्वारा शंघाई में महावाणिज्य दूतावास स्थापित करने का निर्णय लिया गया । जुलाई 1992 में लिए गए निर्णय के अनुसार चीन द्वारा तिब्बत का बुरांग क्षेत्र सीमा व्यापार (पारगमन हेतु) चुना गया ।
भारत और चीन के मध्य 6 जनवरी, 1993 को पीकिंग में एक व्यापारिक समझौता किया गया । 32 वर्षों के अन्तराल के बाद 16 जुलाई, 1993 से भारत व चीन के मध्य सीमा व्यापार पुन: प्रारम्भ हो गया । यह व्यापार हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले की सीमा पर स्थित शिपकी दर्रे से प्रारम्भ हुआ है । पिछले 7-8 वर्षों से दोनों देश अपने आर्थिक सम्बन्धों में घनिष्ठता लाने का प्रयास कर रहे हैं । एशियाई बाजारों में घोर मंदी के चलते 1998-99 में भारत-चीन व्यापार में आई गिरावट के पश्चात् दोनों देशों के आपसी व्यापार में वृद्धि हुई है ।
भारत-चीन द्विपक्षीय संबंधों के महत्वपूर्ण पहलू के रूप में लोगों के आपसी संपर्क में भी वृद्धि हुई है । इस वर्ष (2010-11) दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंधों की स्थापना की 60वीं वर्षगांठ का स्मरणोत्सव मनाने की दृष्टि से चीन में ‘भारत महोत्सव’ और भारत में ‘चीन महोत्सव’ का आयोजन किया गया ।
चीन में भारत महोत्सव का 7 अप्रैल, 2010 को बीजिंग में विदेश मंत्री द्वारा उद्घाटन किया गया । महोत्सव के दौरान इस वर्ष भारत की मंचीय कला चीन के 33 शहरों में प्रदर्शित की गई । सुन जियाजेंग, चीन के लोकतांत्रिक राजनीतिक परामर्शदात्री सम्मेलन के उपाध्यक्ष द्वारा 20 अप्रैल, 2010 को नई दिल्ली में भारत में चीन महोत्सव का उद्घाटन किया गया ।
भारत महोत्सव का समापन समारोह 24 अक्टूबर, 2010 को चेंगदु, सिचुअन में आयोजित किया गया । इस अवसर पर डॉ. करण सिंह मुख्य अतिथि थे । भारत में चीन महोत्सव का समापन समारोह दिसम्बर 2010 में आयोजित किया गया ।
भारत ने ‘सिटिजन ऑफ हारमनी’ विषय पर 4000 वर्ग मीटर में राष्ट्रीय पविलियन के साथ 1 मई से 3 अक्टूबर, 2010 के दौरान शंघाई में विश्व प्रदर्शनी में भाग लिया । भारत और चीन के बीच पांचवां वार्षिक युवा आदान-प्रदान भी किया गया ।
खेल एवं युवा कार्य मंत्री के नेतृत्व में भारतीय युवा शिष्टमंडल ने 17-29 अगस्त 2010 को चीन की यात्रा की और चीनी युवा शिष्टमण्डल ने 16-25 नवम्बर, 2010 को भारत की यात्रा की । कैलाश मानसरोवर यात्रा भी इस वर्ष उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जिले में लिपुलेख दर्रे के पार जून से सितम्बर 2010 तक बहुत सहजता से आगे बढ़ी ।
दोनों देशों ने कार्यात्मक क्षेत्रों में भी सहयोग बढ़ाये हैं । मानव संसाधन विकास मंत्री ने 11-16 सितम्बर 2010 को चीन की यात्रा की और उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने के संबंध में अपने चीनी समकक्ष से सार्थक चर्चा की । सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री ने 14-16 सितंबर 2010 को चीन की यात्रा की । यात्रा के दौरान दोनों पक्षों ने भारत में अवसंरचना विकास के क्षेत्र में भारत-चीन सहयोग पर चर्चा की ।
दोनों देशों ने क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर भी रचनात्मक ढंग से बातचीत की । दोनों पक्ष व्यापार, जलवायु परिवर्तन संबंधी चिंताओं, वैश्विक वित्तीय संकट आदि जैसे प्रमुख हितों के मुद्दों पर आगे कार्य करने के लिए सहमत हुए । पर्यावरण एवं वन राज्य मंत्री ने मूलभूत रूपरेखा के भीतर जलवायु परिवर्तन पर भारत-चीन सहयोग बढ़ाने के बारे में आगे चर्चा करने के लिए मई और अक्टूबर 2010 में चीन की यात्रा की । दोनों पक्षों ने पूर्व एशिया शिखर बैठक आसियान आर.आई.सी. एवं एस.सी.ओ जैसे विभिन्न मैचों पर भी पर्यवेक्षक एवं सदस्य के रूप में चर्चा की ।
वर्ष 2011 को ‘भारत-चीन आदान-प्रदान वर्ष’ के रूप में मनाया गया । ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान भारत के प्रधानमन्त्री ने 15 जुलाई, 2014 को चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से ब्राजील में भेंट की । सितम्बर 2014 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की तीन दिवसीय भारत यात्रा को काफी सकारात्मक देखा जा रहा था पर यात्रा के दौरान ही भारतीय सीमा (लद्दाख के चुमार क्षेत्र में) में चीनी सैनिकों की घुसपैठ से सवाल खड़े कर दिए हैं ।
निष्कर्ष:
संक्षेप में, कहा जा सकता है कि यदि भारत और चीन का सीमा समझौता हो जाये तो नि सन्देह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और क्षेत्रीय राजनीति पर उसका गम्भीर प्रभाव होगा और इसके व्यापक एवं दूरगामी परिणाम होंगे ।
भारत तथा चीन के साझा हित हैं जिन्होंने हमें ब्रिक्स, जी-20 और जलवायु परिवर्तन वार्ताओं जैसे मंचों में इकट्ठा किया है । दोनों देशों ने जलवायु परिवर्तन खाद्य सुरक्षा तथा ऊर्जा सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण वैश्विक मुद्दों पर समन्वय और सहयोग जारी रखा तथा महत्वपूर्ण क्षेत्रीय मुद्दों पर घनिष्ठ वार्ता जारी रखी ।