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Here is an essay on ‘Indo-Nepal Relations’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. भारत-नेपाल सम्बन्ध (1947-1962):
नेपाल हिमालय की उपत्यकाओं में बसा हुआ एक छोटा-सा देश है । यह भारत और तिब्बत के बीच स्थित है और अब तिब्बत पर चीन के आधिपत्य के बाद भारत व चीन के मध्य एक बफर स्टेट (Buffer State) का कार्य करता है ।
इसकी स्थापना पृथ्वी नारायण शाह (1723-1774) ने 1769 में की । आधुनिक नेपाल के निर्माता पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल की विदेश नीति का निर्धारण करते हुए कहा- ”यह देश दो चट्टानों के बीच खिले हुए फूल के समान है । हमें चीनी सम्राट के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रखने चाहिए तथा हमारे सम्बन्ध दक्षिणी सागरों के सम्राट से भी मधुर होने चाहिए पर वह बहुत चालाक हें ।”
अपने दो पड़ोसियों में से वह भारत को खतरे का अधिक बड़ा स्रोत मानता था । पिछले 200 वर्षों के इतिहास में नेपाल की विदेश नीति की प्रधान विशेषता यह रही है कि दोनों पड़ोसियों में से जो ज्यादा बलवान हो उसे खुश रखो । भारत के उत्तर-पूरब में स्थित नेपाल सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । चीन द्वारा तिब्बत को हस्तगत कर लेने के बाद भारत-चीन सम्बन्धों में नेपाल की सामरिक स्थिति का राजनीतिक महत्व बढ़ गया ।
उत्तर में भारत की सुरक्षा आज एक बड़ी सीमा तक नेपाल की सुरक्षा पर निर्भर करती है । पं. नेहरू ने 17 मार्च, 1950 को कहा था जहां तक कुछ एशियाई गतिविधियों का सम्बन्ध है भारत तथा नेपाल के बीच किसी प्रकार का सैन्य समझौता नहीं है लेकिन नेपाल पर किये जाने वाले किसी भी आक्रमण को भारत सहन नहीं कर सकता ।
नेपाल पर कोई भी सम्भावित आक्रमण निश्चित रूप से भारतीय सुरक्षा के लिए खतरा होगा । अक्टूबर, 1956 में डी. राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी नेपाल यात्रा के दौरान कहा था कि नेपाल की शान्ति और सुरक्षा के लिए कोई भी खतरा भारतीय शान्ति और सुरक्षा के लिए खतरा है । नेपाल के मित्र हमारे मित्र हैं और नेपाल के शत्रु हमारे शत्रु हैं ।
भारत में ब्रिटिश शासन के समय यद्यपि नेपाल औपचारिक रूप से एक स्वतन्त्र देश था तथापि नेपाल की राजनीति में ब्रिटिश शासकों का हस्तक्षेप बहुत अधिक था । स्वतन्त्र भारत सरकार साम्राज्यवादी नीति की पोषक न होने के बावजूद सामरिक महत्व के कारण नेपाल की अवहेलना नहीं कर सकती थी ।
इसके अतिरिक्त साम्यवादी चीन का तिब्बत में प्रभाव बढ जाने से यह प्रारम्भ में ही स्पष्ट हो गया था कि साम्यवादी चीन तिब्बत पर अपना अधिकार जमा लेगा और इस प्रकार नेपाल एवं चीन की सीमाएं बिल्कुल मिल जायेंगी ।
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संयुक्त राज्य अमरीका भी इसी कारण नेपाल की राजनीति में रुचि लेने लगा । इस प्रकार नेपाल में बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियों के बीच टक्कर होने की स्थिति उत्पन्न हो गयी और ऐसा प्रतीत होने लगा कि नेपाल शीत-युद्ध का क्षेत्र बन जायेगा ।
अपनी सुरक्षा की दृष्टि से भारत सरकार ऐसी स्थिति में नेपाल की राजनीति से उदासीन नहीं रह सकती थी । अतएव प्रारम्भ से ही भारत सरकार ने नेपाल की राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति को दृढ़ करने की नीति अपनायी ।
1947 में नेपाल के प्रधानमन्त्री की मांग पर भारत सरकार ने एक वरिष्ठ भारतीय राजनीतिज्ञ श्री श्रीप्रकाश को नेपाल भेजा जिससे नेपाल का संविधान तैयार कराने में सहायता दी जा सके । जो संविधान बना वह राजशाही की निरंकुशता का अन्त करने वाला था अतएव उसे राजाओं ने कार्यान्वित नहीं होने दिया ।
भारत सरकार नेपाल के साथ एक नयी सन्धि भी करना चाहती थी । 1949 में सन्धि का एक मसविदा भी तैयार किया गया परन्तु इसका कोई अन्तिम निष्कर्ष नहीं निकला क्योंकि नेपाल सरकार भारत के प्रति शंकित थी ।
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सन्धि की महत्वपूर्ण शर्त यह थी कि नेपाल में लोकतान्त्रिक प्रणाली स्थापित हो । चूंकि नेपाल के प्रधानमन्त्री राणा मोहन शमशेर जंग नेपाल के परम्परागत प्रधानमन्त्रियों के प्रसिद्ध वंश राणा परिवार के थे और राजा की सम्पूर्ण सत्ता वर्षों से इस राणा परिवार के हाथ में थी, अतएव राणा मोहन शमशेर जंग बहादुर लोकतान्त्रिक पद्धति का समर्थन कैसे कर सकते थे ?
तिब्बत में चीन की गतिविधियां बढ़ने से नेपाल की सुरक्षा के बारे में भारत की चिन्ता बढ़ गयी और 17 मार्च, 1950 को प्रधानमन्त्री नेहरू ने संसद में कहा कि नेपाल पर कोई भी सम्भावित आक्रमण निश्चित रूप से भारत की सुरक्षा के लिए खतरा होगा ।
अप्रैल, 1950 में जनरल विजय शमशेर और एन.एम. दीक्षित ने नेपाल सरकार के प्रतिनिधि के रूप में भारत की यात्रा की और 30 जुलाई, 1950 को दोनों देशों के मध्य एक सन्धि हुई, पर इसी बीच नेपाल में घटित घटनाओं के कारण भारत सरकार और नेपाल की राणा सरकार के सम्बन्धों में तनाव उत्पन्न हो गया ।
इसी समय 1950 में राणाशाही से मुक्ति के लिए प्रयास शुरू हुआ । 16 नवम्बर, 1950 को नेपाल के महाराजा त्रिभुवन ने राज परिवार के 14 सदस्यों के साथ अपने राजमहल का परित्याग कर भारत में शरण ली । राणा शमशेर के विरुद्ध गृहयुद्ध शुरू हो गया । यह विद्रोह भारत के भूभाग से ही संचालित किया गया ।
भारत के सहयोग से ही नेपाल में राणाशाही का अन्त हुआ और नेपाल के महाराणा वास्तविक शासक बने तथा लोकतन्त्र की स्थापना हुई । इस समय पण्डित नेहरू ने कहा- ”नेपाल की स्वतन्त्रता का सम्मान करते हुए भी हम नेपाल में कोई अव्यवस्था सहन नहीं कर सकते क्योंकि इससे हमारी सीमा सुरक्षा कमजोर हो जाती है… ।”
भारत ने बार-बार संयुक्त राष्ट्र संघ में नेपाल की सदस्यता की वकालत की और 1955 में उसके सदस्य बन जाने पर प्रसन्नता प्रकट की । नेपाल के विदेश मन्त्री ने 1 फरवरी, 1955 को एक भाषण में कहा कि नेपाल किसी भी दशा में भारत के विरुद्ध नहीं जायेगा ।
भारत ने नेपाल को अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करने में बड़ी सहायता दी है और वह नेपाल का सबसे बड़ा मित्र है । इसके कुछ समय पश्चात् भारत की लोकसभा में बोलते हुए नेहरू ने विदेश नीति पर एक-दूसरे से परामर्श करने की उस धारा की पुष्टि की जो भारत-नेपाल की मित्रता सन्धि (1950) में दी गयी थी ।
उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि भारत का इरादा नेपाल के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का नहीं है, किन्तु नेपाल की घटनाओं का भारत पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है । अतएव भारत का नेपाल के विषय में चिन्ता करना एवं सतर्क रहना स्वाभाविक है ।
अनेक कारणों से 1953-54 में भारत के प्रति नेपाली जनता का आक्रोश उभरकर सामने आया । वहां के लोगों को यह भ्रम हुआ कि भारत उसके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करता है । दूसरा, भारत में बहकर आने वाली कोसी नदी पर नेपाली भूमि में बांध बना था । तीसरे भारतीय सेना नेपाल में थी और भारतीय तकनीकी विशेषज्ञ भी वहां थे । चौथा, व्यापार समझौते में कुछ प्रतिबन्ध भारत की ओर से लगे हुए थे ।
इन्हीं सब कारणों से 1954 में जब भारतीय सद्भावना मण्डल नेपाल पहुंचा तो कुछ लोगों ने काले झण्डे दिखाकर प्रदर्शन किया था । नेपाल के प्रधानमन्त्री टका प्रसाद ने इसे असन्तुष्ट विरोधी दलों का प्रदर्शन कहते हुए स्पष्ट किया कि नेपाल की अपनी प्रार्थनाओं पर भारतीय सेना आयोग 1951 में नेपाल की सेना को संगठित करने और प्रशिक्षण देने आया था ।
नेपाली सेना में कोई भारतीय परामर्शदाता नहीं था और जो थोड़े-से भारतीय परामर्शदाता थे वे तकनीकी सहायता सचालक के अन्तर्गत थे । कोसी बांध के कारण नेपाल का भी लाभ था और यहां भूमि भारत ने क्रय की थी और इससे नेपाल की सार्वभौमिकता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता था ।
नेपाल ने स्वयं भी रेलवे के लिए बिहार में भूमि खरीदी थी । स्थिति को और भी स्पष्ट करते हुए भारतीय राजदूत ने कहा कि नेपाल को दी जाने वाली भारतीय सहायता में कोई भी शर्त नहीं जोड़ी गयी है और यह सहायता नेपाल सरकार की प्रार्थना पर दी गयी है ।
भारतीय सैनिक एवं अन्य विशेषज्ञ पूर्ण रूप से परामर्शदाता के रूप में हैं उनकी कोई राजनीतिक स्थिति नहीं है और ये नेपाल सरकार के निमन्त्रण पर आये हैं । कोसी बांध पर भारत ने 37 करोड़ रुपए व्यय किया है तथा नेपाल से कुछ नहीं लिया है जबकि नेपाल को इस बांध के कारण बिजली एवं सिंचाई की सुविधा मिलेगी ।
1955-56 के बीच भारत एवं नेपाल के मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध नेपाल के महाराजा की भारत यात्रा (नवम्बर, 1955) एवं भारतीय राष्ट्रपति की नेपाल यात्रा (अक्टूबर, 1956) से और भी घनिष्ठ हो गये । काठमांडू लौटकर नेपाल के महाराजा ने एक नागरिक सभा में कहा कि नेहरू को उन्होंने नेपाल का सबसे अच्छा मित्र पाया ।
भारत के राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद ने कहा कि भारत की नेपाल में कोई क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाएं नहीं हैं…हमारे मित्र आपके मित्र हैं और आपके मित्र हमारे । इधर 1955 से चीन नेपाल में सक्रिय होने लगा । 1956 में नेपाली प्रधानमन्त्री ने चीन की यात्रा की और 20 सितम्बर, 1956 को नेपाल-चीन मैत्री सन्धि पर हस्ताक्षर हुए । जनवरी, 1957 में चीन के प्रधानमन्त्री चाऊ-एनलाई नेपाल आये ।
अपने भाषणों में उन्होंने नेपाल की स्वतन्त्रता और सार्वभौमिकता को अक्षुण्ण रखने में यथाशक्ति सहायता का आश्वासन ऐसे ढंग से दिया जिससे प्रतीत हुआ कि नेपाल की स्वतन्त्रता को भारत से खतरा है । उन्होंने यह भी कहा कि, नेपालियों और चीनियों की एक ही प्रजाति है । चीन ने नेपाल को 6 करोड़ रुपए की सहायता देने का भी वचन दिया । नेपाल का चीन के प्रति अधिक झुकाव होना एवं भारत से दूर हटना स्वाभाविक था ।
1959 में नेपाल के प्रधानमन्त्री कोइराला ने चीन की यात्रा की और चाऊ-एन-लाई को पुन: नेपाल आने के लिए आमन्त्रित किया । चीन एवं नेपाल के मध्य एवरेस्ट पर्वत शिखर के बारे में एक समझौता भी हुआ जिसकी भारत में कड़ी आलोचना हुई ।
कोइराला मन्त्रिमण्डल कुछ ही समय बाद भंग कर दिया गया और नेपाली कांग्रेस के अनेक नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया किन्तु इनमें से कुछ व्यक्ति भागकर भारत चले गये और यहीं से नेपाल में जन आन्दोलन को संचालित करने तथा सफल बनाने का प्रयत्न करने लगे ।
नेपाल में यह समझा गया कि भारत द्वारा नेपाल नरेश विरोधी कार्य को प्रश्रय दिया जा रहा है । इससे दोनों देशों के आपसी सम्बन्धों में कटुता आ गयी जो 1961 तक बराबर बनी रही । भारत की अनेक चेतावनियों को अनसुनी करके महाराजा महेन्द्र ने काठमाण्डू-ल्हासा मार्ग बनाने के सम्बन्ध में चीन से समझौता करके भारत के लिए खतरा उत्पन्न कर दिया । महाराजा महेन्द्र चीन यात्रा पर गये ।
उन्होंने भारत के ऐतिहासिक और अटूट सम्बन्धों का जिक्र किया किन्तु साथ ही चीन के साथ पुरातन सम्बन्धों की चर्चा की जो पुनर्स्थापित हो रहे थे । भारत के प्रति उन्होंने उदासीनता का रुख अपनाया । जब 1962 में भारत-चीन युद्ध प्रारम्भ हुआ तब नेपाल ने तटस्थता की नीति अपनायी जिसे भारत ने पसन्द नहीं किया ।
Essay # 2. भारत-नेपाल सम्बन्ध (1962-1977):
1962 में यद्यपि नेपाल भारत-चीन युद्ध में तटस्थ अवश्य रहा किन्तु चीनी आक्रमण से नेपाल चौकन्ना अवश्य हो गया । चीनी आक्रमण के बाद भारत के लिए नेपाल में अपनी स्थिति दृढ़ करना भी आवश्यक हो गया ।
तत्कालीन गृहमन्त्री लालबहादुर शास्त्री ने नेपाल की यात्रा की और सरल सौम्य नीति से नेपाल के अनेक सन्देह भी दूर किये । इसके बाद ही नेपाल नरेश 13 दिन की भारत यात्रा पर आये एवं डॉ. राधाकृष्णन ने नेपाल की यात्रा की । इस समय नेपाल सरकार ने आश्वासन दिया कि नेपाल के मार्ग से भारत पर कोई आक्रमण नहीं हो सकेगा ।
23 सितम्बर, 1964 को भारत के विदेशमन्त्री सरदार स्वर्णसिंह ने नेपाल की यात्रा की । इस समय नेपाल और भारत के मध्य एक समझौता हुआ । इसके अनुसार भारत ने नेपाल के लिए 9 करोड़ रुपयों की लागत से सीमावर्ती कस्बे सुगोली और मध्यपूर्वी नेपाल में ओखरा घाटी के बीच 128 मील लम्बी सड़क का निर्माण करने का निश्चय किया ।
काठमाण्डू से लेकर भारतीय सीमा में रक्सौल को जोड़ने वाली एक अन्य सड़क योजना भी बनी । कोसी योजना भी बनी । कोसी योजना पूर्ण करने का निश्चय किया गया । कोसी योजना का उद्देश्य नेपाल को बाढ़ से बचाना बिजली पूर्ति करना एवं सिंचाई में लाभ पहुंचाना था ।
दिसम्बर 1965 में नेपाल नरेश ने पुन: भारत की यात्रा की । इस यात्रा के अन्त में भारतीय प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री एवं नेपाल नरेश की संयुक्त विज्ञप्ति में नेपाल नरेश ने स्वीकार किया कि भारत की सहायता से नेपाल में चल रहे विकास कार्यों की प्रगति सन्तोषपूर्ण ढंग से हुई । भारतीय प्रधानमन्त्री ने विश्वास दिलाया कि नेपाल की पंचवर्षीय योजना में भारत अधिकतम सहयोग देगा ।
जनवरी 1966 में सूर्यबहादुर थापा नये प्रधानमन्त्री बने । वे मार्च, 1966 में भारत आये । भारत और नेपाल के सम्बन्धों में इससे कुछ सुधार हुआ परन्तु शीघ्र ही साढ़े चार वर्गमील के सुस्ता क्षेत्र को लेकर दोनों देशों में सीमा-विवाद उठ खड़ा हुआ ।
अक्टूबर 1966 में श्रीमती इन्दिरा गांधी ने नेपाल की यात्रा की । उन्होंने नेपाल के पंचायती लोकतन्त्र की सराहना की और महाराजा महेन्द्र को दार्शनिक शासक कहकर पुकारा । जून 1969 में चीन के दबाव में आकर नेपाली प्रधानमन्त्री के.एन. विष्ट ने भारत से नेपाल की उत्तरी सीमा पर काम करने वाले तकनीशियनों को वापस बुलाने और अपनी सैनिक चौकियां हटा लेने की मांग की ।
इससे भारत में काफी कटुता उत्पन्न हुई । 1971 के भारत-पाक युद्ध से भारत की विजय का नेपाल पर काफी प्रभाव पड़ा । नेपाल ने समझ लिया कि भारत एक दुर्बल पड़ोसी नहीं है । 1972 में राजा महेन्द्र के निधन के बाद वीरेन्द्र नेपाल के राजा बने ।
उन्होंने नेपाल के विकास कार्यक्रमों में सहायता देने में भारत की उदारता की सराहना की । 1974-75 में सिक्किम के भारत में विलय की घटना की नेपाल में प्रतिक्रिया हुई किन्तु भारत ने इस बात का आश्वासन दिया कि नेपाल और सिक्किम की स्थितियां भिन्न हैं ।
अक्टूबर, 1975 में महाराजा वीरेन्द्र भारत आये और भारत ने नेपाल को आश्वासन दिया कि वह उसकी पंचवर्षीय योजनाओं में भरपूर सहायता देगा । अप्रैल 1976 में जब नेपाल के प्रधानमन्त्री तुलसीगिरि भारत आये तो उन्होंने ‘समदूरी’ सिद्धान्त (भारत और चीन से समदूरी) पर बल दिया । लेकिन भारत सरकार इस बात पर बल देती रही कि नेपाल के भारत से विशिष्ट सम्बन्ध हैं, अत: उसका समदूरी सिद्धान्त अनुचित है ।
Essay # 3. जनता सरकार की विदेश नीति और भारत-नेपाल सम्बन्ध (1977-1979):
जनता पार्टी सरकार ने नेपाल से मधुर सम्बन्ध स्थापित करने के लिए पुरजोर प्रयत्न किये । 1976 से अधर में लटकी हुई व्यापार और आवागमन सन्धि को बिल्कुल उसी तरह सम्पन्न किया जैसा कि नेपाल चाहता था ।
मार्च 1978 में एक के बजाय दो सन्धियां की गयीं । दोनों में रियायतों का अम्बार लगा दिया गया । नेपाली उद्योग के विकास का जिम्मा भारत ने अपने कच्छों पर लिया तथा नेपाल द्वारा विनिर्मित लगभग 60 वस्तुओं पर से तटकर हटा लिया ।
नेपाल को 16 आवश्यक वस्तुएं नियमित देते रहने का दायित्व भी भारत ने संभाला । पारगमन सन्धि के अन्तर्गत भूवेष्टित नेपाल को बांग्लादेश तक सामान ले जाने और लाने के लिए भारत ने थलमार्ग की सुविधा देने का वायदा किया तथा कुल मिलाकर नेपाल को वे सुविधाएं दीं जो अफगानिस्तान तथा स्विट्जरलैण्ड जैसे भूवेष्टित देशों को भी प्राप्त नहीं हैं ।
Essay # 4. भारत-नेपाल आर्थिक-तकनीकी सम्बन्ध:
नेपाल के विकास कार्यों में सबसे अधिक धन भारत का ही लगा हुआ है । नेपाल को भारत से हर तरह का प्रशिक्षण तकनीकी और गैर-तकनीकी भी मिलता है । कोलम्बो योजना के अन्तर्गत भी भारत ने अनेक नेपाली नागरिकों को प्रशिक्षण दिया है ।
भारत ने नेपाल की जिन परियोजनाओं के लिए सहायता दी है, उनमे प्रमुख हैं:
(i) देवी घाट, त्रिशूल, करनाली, पंचेश्वर जल-वियुत् योजनाएं ।
(ii) त्रिभुवन गणपथ, काठमाण्डू-त्रिशूली मार्ग, त्रिभुवन हवाई अड्डा ।
(iii) काठमाण्डू-रक्सौल टेलीफोन संयन्त्र ।
(iv) चत्र नहर परियोजना कोसी और गंडक परियोजना ।
(v) भूवैज्ञानिक अनुरूधान तथा खनिज खोजबीन का काम ।
(vi) वीरगंज और हितौदा रेल निर्माण । तथा
(vii) काठमाण्डू घाटी के एक उपनगर पाटन में एक औद्योगिक बस्ती की स्थापना ।
नेपाल में भारत की प्रसिद्ध परियोजनाओं में से एक नेपाल के पूर्व-पश्चिम राजमार्ग पर कोहालपुर-महाकाली क्षेत्र में 22 पुलों के निर्माण का कार्य हाल ही में पूरा हुआ है । दिसम्बर, 1990 में एक द्विपक्षीय करार पर हस्ताक्षर हुए जिसके अन्तर्गत भारत टर्न की और सहायक अनुदान के आधार पर रक्सौल में 3 करोड़ रुपए की लागत से एक नये रोड एवं रेल पुल का निर्माण करेगा जोकि भारत-नेपाल से आने-जाने के लिए और माल लाने-ले-जाने के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण सीमा स्थल होगा ।
दिसम्बर 1991 में भारत ने नेपाल के महान् देशभक्त एवं स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी वी.एच. कोइराला की पुण्यतिथि में ‘भारत-नेपाल फाउण्डेशन’ बनाने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । दोनों ही देश दो-दो करोड़ रुपए के अंशदान से स्थापित इस फाउण्डेशन के द्वारा द्विपक्षीय सहयोग को बढ़ावा देंगे । वे औद्योगिक क्षेत्र में साझा उद्यम लगाने को भी सहमत हो गये । इसके अन्तर्गत चीनी कागज तथा सीमेण्ट पर विशेष ध्यान दिया जायेगा ।
नेपाल के आग्रह पर भारत विराटनगर में वी.पी. कोइराला स्मृति मेडिकल कॉलेज रंगेली में एक टेलीफोन एक्सचेंज विराटनगर-झापा तथा चतारावीपुर मार्ग के निर्माण जनकपुर-बीजलपुर रेल लाइन के नवीनीकरण और रक्सौल तक की रेल लाइन को बड़ी लाइन में परिवर्तित करने को राजी हो गया है ।
Essay # 5. भारत-नेपाल सम्बन्ध (1980-2009):
1980-2002 की अवधि भारत-नेपाल सम्बन्धों में उतार-चढ़ाव के वर्ष रहे हैं । 1985 में नेपाल नरेश ने भारत की यात्रा की और दोनों देशों के बीच पारगमन सन्धि को मार्च 1989 तक बढ़ा दिया गया । 1988 के अन्तिम दिवसों में आयोजित ‘सार्क सम्मेलन’ में भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गांधी द्वारा आयोजित जलपान में नेपाल नरेश सम्मिलित नहीं हुए । 1989 में भारत-नेपाल के बीच व्यापार तथा पारगमन सन्धि समाप्त हो जाने से दोनों देशों में कटुता का वातावरण बना ।
भारत-नेपाल सम्बन्ध: द्विपक्षीय सन्धि की समाप्ति के बाद बिगड़ता मामला:
23 मार्च, 1989 को भारत और नेपाल के मध्य द्विपक्षीय आपसी व्यापार व अभिवहन सन्धि की तारीख समाप्त होने के बाद दोनों देशों के बीच छोटे-छोटे मतभेदों से शुरू हुआ मामला गहरे मनमुटाव में बदलने लगा । सन्धियों का कार्यकाल समाप्त होने का परिणाम यह हुआ कि पर्वतों से घिरे इस देश की राजधानी काठमाण्डू और दूसरे शहरों में अभाव का माहौल बन गया । भारत के सीमावर्ती नेपाली शहरों में लोगों का गुस्सा भारतीय व्यापारियों और दुकानदारों के खिलाफ भड़क उठा ।
लखनऊ में राज्य सरकार के एक प्रवक्ता ने बताया कि 728 किलोमीटर लम्बी उत्तर प्रदेश-नेपाल सीमा के 12 बाजारों के 5,500 भारतीय व्यापारियों में से 4,000 व्यापारी अपनी दुकान बन्द करके भारतीय क्षेत्र में आ गये । भारतीय मूल के दुकानदारों पर हमला किया गया जिसमें कई लोग घायल हो गये । भारतीय नागरिकों और उनकी जायदाद पर हुए हमलों से भारतीय विदेश मंत्रालय चिन्तित हो उठा ।
भारत चाहता है कि नेपाल सरकार 10 की शान्ति व मैत्री सन्धि की पाबन्दियों का सम्मान करे या द्विपक्षीय रिश्तों का ताना-बाना फिर तैयार करे । सन् 1950 की सन्धि वह आधार है जिस पर भारत-नेपाल सम्बन्धों की नींव रखी गयी थी ।
मसलन इसके अनुच्छेद 7 के अनुसार इस बात पर सहमति थी कि- ”एक देश के नागरिकों को दूसरे देश में निवास, जायदाद की मिल्कियत, उद्योग-व्यापार में भागीदारी व घूमने-फिरने के समान अधिकार पारस्परिक आधार पर दिये जायेंगे ।”
परिणामस्वरूप नेपाली नागरिकों को भारत में रहने घूमने-फिरने, काम-धन्धा करने और आई.ए.एस.आई.एफ.एस.व आई.पी.एस. को छोड्कर सभी सरकारी नौकरियां करने की छूट है । नेपाल में भी भारतीयों को 1967 तक ऐसे ही अधिकार मिले थे ।
इसके बाद उनके लिए वर्क परमिट लेने की शर्त लगा दी गयी । उसी वर्ष नेपाल ने भारत से आयात पर 50 प्रतिशत सीमा शुल्क और 55 प्रतिशत अतिरिक्त सीमा शुल्क, लगा दिया । भारत के अनुसार इन दोनों कदमों से भारतीय नागरिकों व भारतीय सामान के साथ विशेष व्यवहार की शर्त का उल्लंघन हुआ ।
नेपाल ने ये प्रतिबन्ध लगाने से पहले भारत से मशविरा भी नहीं किया था । नई दिल्ली में नेपाल के राजदूत भिंडाशाह के अनुसार- ”नेपाल में काम कर रहे भारतीयों के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाता वर्क परमिट तो सभी विदेशियों को लेना पड़ता है ।”
भारतीय विदेश मन्त्रालय के अभिमत में- ”सवाल दूसरे विदेशियों की तुलना में भारतीयों से भेदभाव का नहीं है । मुद्दा यह है कि सन्धि के हिसाब से नेपाल अपने नागरिकों और भारतीयों के बीच भेदभाव नहीं कर सकता । भारत ने अपने यहां रह रहे लगभग 50 लाख नेपालियों पर ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया ।”
वस्तुत: भारत-नेपाल सम्बन्धों में तनाव का मूल कारण व्यापार व पारगमन सन्धि के अतिरिक्त राजनीतिक अधिक है । भारत को यह बात अनुचित लगी है कि नेपाल भारत की जानकारी के बिना चीन से हथियार खरीदे । भारत आपसी व्यापार और पारगमन की एकीकृत सन्धि के लिए अड़ा हुआ है ।
भारत-नेपाल सम्बन्धों में सुधार के प्रयत्न:
मई 1991 में नई राजनीतिक प्रणाली के अन्तर्गत हुए आम चुनावों के बाद प्रधानमन्त्री श्री जी.पी. कोइराला की सरकार ने नेपाल में शासन संभाला जिससे दोनों देशों के लिए विविध क्षेत्रों में पारस्परिक लाभदायक सहयोग की दिशा में अधिकतम विस्तार की एक नई शुरुआत हुई ।
इसका उद्देश्य भारत-नेपाल सहयोग की दिशा में एक ऐसे नये युग की शुरुआत करना था जिसके प्रति दोनों देशों की सरकारों ने 10 जून, 1990 की भारत-नेपाल संयुक्त विज्ञप्ति में अपनी वचनबद्धता व्यक्त की थी ।
नेपाल के प्रधानमन्त्री श्री कोइराला के 5 से 10 दिसम्बर, 1991 तक के भारत के दौरे से पूर्व दोनों पक्षों ने चार महीनों तक सक्रिय रूप से और विस्तारपूर्वक विचार-विमर्श किया । पहली बार एक भारत-नेपाल उच्चस्तरीय कार्य दल बनाया गया जिसकी अध्यक्षता दोनों देशों के मन्त्रिमण्डल सचिव ने की ।
इसके पश्चात् प्रधानमन्त्री स्तर पर किये गये विचार-विमर्श के परिणामस्वरूप पारस्परिक लाभ के लिए भारत-नेपाल सहयोग को और अधिक बढ़ाने के लिए अनेक महत्वपूर्ण निर्णय लिये गये और पांच मह्त्वपूर्ण सन्धियों और करारों पर हस्ताक्षर किये गये ।
इनमें एक नयी व्यापार सन्धि एक नयी पारगमन सन्धि अप्राधिकृत व्यापार पर नियन्त्रण के लिए सहयोग का एक करार । नेपाल में ग्रामीण विकास और ग्रामीण रोजगार को बढ़ावा देने के लिए कृषि क्षेत्र में सहयोग के लिए एक समझौता ज्ञापन और महान् नेपाली राजनेता एवं देशभक्त की स्मृति में जी.पी. कोइराला भारत-नेपाल फाउण्डेशन की स्थापना के लिए समझौता ज्ञापन शामिल है ।
जल संसाधन विकास के लिए सहयोग के सम्बन्ध में भी अनेक निर्णय लिये गये । व्यापार और पारगमन सन्धियों में काफी अधिक नयी टैरिफ रियायतों का प्रावधान किया गया और इनकी कार्यविधियों को भी सरल बना दिया गया जिसका यदि नेपाल व्यापार और उद्योग द्वारा पूरा लाभ उठाता है तो उससे नेपाल को अपने पड़ोसी भारत के बड़े बाजार क्षेत्र में अपने उत्पादों के निर्यात को काफी बढ़ावा मिलेगा ।
अप्रैल 1993 में प्रवृत्त नई व्यापार व्यवस्था के अन्तर्गत निर्मित वस्तुओं को सीमा शुल्क के बिना भारतीय मंडी में प्रवेश देने की व्यवस्था में सुधार करके इसमें ऐसी वस्तुओं को भी शामिल कर लिया गया जिनमें कम से कम 50 प्रतिशत नेपाली सामग्री और श्रम लगा हो ।
प्रक्रिया सम्बन्धी तरीकों को भी आसान बनाया गया और अब यह उम्मीद की जाती है कि भारत और नेपाली अर्थव्यवस्थाओं में विकास होने से द्विपक्षीय व्यापार में और वृद्धि होगी । पिछले कुछ वर्षों में नेपाल ने 48 भारतीय संयुक्त उद्यमों का अनुमोदन किया । अप्रैल, 1995 में नेपाल के प्रधानमन्त्री मनमोहन अधिकारी की भारत यात्रा से दोनों देशों के सम्बन्धों में प्रगाढ़ता बड़ी ।
फरवरी, 1996 में नेपाल के प्रधानमन्त्री शेर बहादुर देउबा की भारत यात्रा ने दोनों देशों के पारस्परिक मैत्री सम्बन्धों को और अधिक दृढ़ता प्रदान की । महाकाली नदी के बेसिन के विकास तथा अन्य समझौतों ने आपसी सहयोग के नये क्षितिजों को खोला है । महाकाली नदी सम्बन्धी समझौते से दीर्घकालीन सहयोग की एक विशाल परियोजना का मार्ग प्रशस्त हुआ है ।
काठमाण्डू में वाणिज्य सचिव स्तर की बातचीत 4 से 7 जुलाई 1996 को हुई और भारत-नेपाल व्यापार संधि को 5 वर्षों की अवधि अर्थात् 5 दिसम्बर, 2001 तक नवीकृत करने से सम्बद्ध पत्रों का आदान-प्रदान भारत सरकार और नेपाल सरकार के बीच 3 दिसम्बर, 1996 को हुआ । नेपाल में निर्मित वस्तुएं अब सीमाशुल्क से मुक्त और बिना किसी यात्रा प्रतिबन्ध के भारतीय बाजार में आ सकती हैं ।
भारत के प्रधानमन्त्री श्री इन्द्रकुमार गुजराल एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमण्डल के साथ 5-7 जून, 1997 को नेपाल यात्रा पर रहे । श्री गुजराल की नेपाल यात्रा के पहले ही दिन दोनों देशों के बीच एक विधुत व्यापार समझौते तथा नागरिक उड्डयन के क्षेत्र में एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर हुए ।
इसके साथ ही जल संसाधन के दोहन से सम्बन्धित महाकाली सन्धि के अनुमोदित दस्तावेजों का आदान-प्रदान हुआ । गुजराल की नेपाल यात्रा में नेपाल की एक बड़ी उपलब्धि यह रही कि उसने बांग्लादेश से नेपाल जाने के लिए 61 किमी के पारगमन मार्ग की अनुमति भारत से प्राप्त कर ली ।
भारत और नेपाल के बीच एक नई पारगमन सन्धि वाणिज्य मन्त्री रामकृष्ण हेगडे और उनके नेपाली समकक्ष पूर्ण बहादुर खडग द्वारा 5 जनवरी, 1998 को सम्पन्न की गई । यह नई सन्धि जो 5 जनवरी, 2006 तक की अवधि के लिए वैध है स्वत: ही आगामी 7 वर्ष की अवधि के लिए नवीकृत हो जाएगी, जब तक कि दोनों में से कोई एक पक्ष इसे समाप्त करने की अपनी मंशा का छह महीने का नोटिस दूसरे पक्ष को नहीं दे दे ।
अगस्त 2001 में विदेश मन्त्री जसवंत सिंह ने नेपाल की सद्भावना यात्रा की । काठमांडू की एक सभा को सम्बोधित करते हुए जसवंत सिंह ने द्विपक्षीय व्यापार के मामले में दीर्घकालीन हितों की दिशा में कार्य करने का आह्वान किया ।
मार्च 2002 में नेपाल के प्रधानमन्त्री शेर बहादुर देउबा ने भारत की पांच दिवसीय यात्रा की । दोनों देशों के मध्य व्यापार एवं पारगमन संधि का नवीनीकरण हुआ जो 5 दिसम्बर, 2001 को समाप्त हो गई । इसके बाद दोनों देशों की सहमति से सन्धि को तीन माह के लिए बढ़ा दिया गया था ।
नवीन सन्धि 7 मार्च, 2007 तक प्रभावी रही । भारत-नेपाल व्यापार संधि और सहयोग करार को मार्च 2007 में पांच वर्ष की अगली अवधि के लिए नवीकृत किया गया । सितम्बर 2008 में नेपाल के प्रधानमंत्री के भारत दौरे के दौरान लिए गये निर्णयों के अनुसार विभिन्न क्षेत्रों में द्विपक्षीय तंत्रों को फिर से सक्रिय बनाया गया ।
भारत सरकार द्वारा नेपाल में प्रारंभ किया गया कोसी बराज बंध कार्य संतोषजनक ढंग से समय पर पूरा किया गया इससे 2009 की बाढ़ के दौरान 30,00,000 क्यूसेक से अधिक बाढ़ निस्सरण को नियंत्रित किया गया ।
भारत और नेपाल ने अवसंरचना परियोजनाओं के निष्पादन के लिए भारत द्वारा किए गये 100 मिलियन अमरीकी डॉलर के ऋण को प्रचलित करने के लिए सितम्बर 2007 में एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये ।
भारत सरकार औसतन वार्षिक बजट का लगभग 60 से 75 करोड़ रुपए नेपाल को पर्याप्त सहायता पैकेज देती है । भारत और नेपाल के बीच सांस्कृतिक सम्बन्धों को 100 से अधिक नेपाली छात्रों को वार्षिक रूप से छात्रवृत्तियों की पेशकर सम्पूरित किया जाता है । भारत-नेपाल आर्थिक सहयोग कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रारंभ की जा रही वर्तमान में 350 से अधिक छोटी एवं बड़ी परियोजनाएं हैं जोकि कार्यान्वयन के विभिन्न चरणों में हैं ।
भारत नेपाल का सबसे बड़ा व्यापारे साझेदार विदेशी निवेश का स्रोत और नेपाल में पर्यटकों के आगमन का कारक बना हुआ है । भारत नेपाल का सबसे बड़ा व्यापार साझेदार बना रहा और नेपाल का लगभग 60 प्रतिशत विदेशी व्यापार भारत के साथ ही हुआ । भारत विदेशी निवेश के मामले में नेपाल का सबसे बड़ा स्रोत रहा जो कि नेपाल में कुल विदेशी निवेश वचनबद्धताओं का 44 प्रतिशत है ।
भारत-नेपाल सम्बन्ध: मतभेद के बिन्दु:
भारत और नेपाल के सुरक्षा सम्बन्धी हित समान होने पर भी उनके सम्बन्धों में अत्यधिक उतार-बढ़ाव रहा है । अनेक बार भारतीय हितों की उपेक्षा करते हुए अर्थात् भारतीय हितों के विरुद्ध नेपाल ने साम्यवादी चीन के साथ समझौते किये । भारत और नेपाल में गलतफहमियां विद्यमान रही हैं और वस्तुओं के लिए पारगमन की सुविधाओं और व्यापार संचालन के सम्बन्ध में मतभेद रहे हैं ।
नेपाल में चीन की गतिविधियां भारत विरोधी और ध्वंसात्मक रही हैं । नेपाल द्वारा काठमाण्ड़ू-ल्हासा सड़क मार्ग बनाने के सम्बन्ध में चीन के साथ समझौता स्पष्टत: भारत विरोधी कदम था । एवरेस्ट पर्वत के सम्बन्ध में नेपाल-चीन में प्रारम्भिक समझौता भारत के प्रति विश्वासघात था ।
आजकल नेपाल का आग्रह है कि नेपाल को शान्ति क्षेत्र घोषित किया जाये । भारत सरकार का दृष्टिकोण यह है कि केवल नेपाल ही क्यों सम्पूर्ण उपमहाद्वीप को ‘शान्ति क्षेत्र’ घोषित किया जाये । चीन पाकिस्तान श्रीलंका और बांग्लादेश ने नेपाल के दृष्टिकोण का समर्थन किया है ।
1983 में राष्ट्रपति रीगन ने भी ‘नेपाल को शान्ति क्षेत्र घोषित करने’ की मांग को समर्थन दिया था । आलोचक इसे भारत विरोधी प्रस्ताव मानते हैं । उनके अनुसार यह अप्रत्यक्ष रूप से भारत पर एक प्रकार का दोषारोपण है कि भारत नेपाल के लिए खतरा है ।
सम्भवत: नेपाल को ‘शान्ति क्षेत्र’ घोषित कराने के पीछे नेपाल का प्रधान उद्देश्य भारत के प्रभाव और विशिष्ट स्थिति को नकारना है जिसे वह अपने राष्ट्रीय व्यक्तित्व की खोज में बाधक मानता है । यह उसकी भारत और चीन के मध्य ऐतिहासिक सन्तुलनकारी भूमिका का एक रूप भी हो सकता है नेपाल इस प्रस्ताव को भारत से अधिकाधिक आर्थिक सहायता पाने के लिए एक सौदेबाजी के आधार के रूप में भी उपयोग करना चाहता है ।
Essay # 6. नेपाल में इमरजेन्सी और भारत की चिन्ता:
नेपाल नरेश ज्ञानेन्द्र ने जून 2001 में अपने भाई राजा वीरेन्द्र और उनके पूरे परिवार की हत्या के बाद बहुत ही रहस्यमय एवं संदेहास्पद परिस्थितियों में नेपाल की राजगद्दी सम्भाली थी । नरेश बनने के बाद से ही ज्ञानेन्द्र ने संसदीय लोकतन्त्र को नुकसान पहुंचाने संसद भंग करने और अपनी मर्जी से प्रधानमन्त्रियों को बर्खास्त करने और उन्हें नियुक्त करने का कार्य किया । गौरतलब है कि नेपाल में ज्ञानेन्द्र द्वारा यह सब तब किया जा रहा था जब नेपाल में माओवादियों द्वारा खूनी गृहयुद्ध जारी था ।
1 फरवरी, 2005 को नरेश ने नेपाल में आपातकाल लागू कर लोकतन्त्र का विध्वंस करते हुए पूर्ण राजशाही स्थापित कर दी । इस घटनाक्रम के परिप्रेक्ष्य में विदेश सचिव श्याम शरण ने 2 फरवरी को घोषणा की कि प्रधानमन्त्री ढाका की सार्क देशों की बैठक में हिस्सा नहीं लेंगे ।
दरअसल भारत लोकतन्त्र विरोधी के साथ एक मंच साझा नहीं करना चाहता था । भारत द्वारा नेपाल को दी जाने वाली सैन्य सहायता को भी बन्द कर दिया गया । अप्रैल 2005 में जकार्ता में अफ्रो-एशियाई देशों के सम्मेलन के समय नेपाल नरेश ज्ञानेन्द्र की प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह से भेंट में भारत ने लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को बहाल करने पर जोर दिया । भारत सरकार ने नेपाल को सैन्य सहायता बहाल करने का निर्णय भी इसलिए किया कि सैनिक मदद रोकने से माओवादियों पर नियन्त्रण स्थापित करने में नेपाल को परेशानी हो रही है ।
नेपाल में लोकतन्त्र की बहाली और भारत की भूमिका:
जनवरी 2005 में राजनीतिक सत्ता अपने हाथ में लेने के बाद से राजा ज्ञानेन्द्र की सारी राजनीतिक कार्यवाहियां प्रतिक्रियावादी रही हैं । सत्ता के अधिग्रहण ने जहां माओवादी आन्दोलन को मजबूत किया वहीं राजनीतिक दमन व उत्पीड़न की नीति ने राजा एवं राजनीतिक दावों के मध्य गहरी खाई पैदा कर दी ।
राजा ज्ञानेन्द्र की सत्ता का केन्द्र बने रहने की प्रबल इच्छा का ही परिणाम है कि राजनीतिक दल व माओवादी एक मंच पर आ गये । नेपाल में लोकतन्त्र बहाली के लिए बढ़ते अन्तर्राष्ट्रीय दबाव और राजशाही विरोधी प्रबल जनआन्दोलन के आगे झुकते हुए राजा ज्ञानेन ने 24 अप्रैल, 2006 को पुरानी संसद को बहाल किये जाने की घोषणा की ।
ज्ञानेन्द्र के रवैये के कारण भारत के लिए राजशाही और लोकतन्त्र के दो पायों पर खड़ी नेपाल नीति जारी रखना मुश्किल हो गया । नरेश को समझाने एवं दबाव बनाने के लिए भारत ने डॉ. कर्णसिंह को नेपाल भेजा ।
भारत ने बेहद जल्दबाजी में राजा ज्ञानेन्द्र की अधूरी घोषणा का स्वागत किया और संघर्षरत नेपाली जनता की तीखी नाराजगी अर्जित करली क्योंकि इसे नेपाली जनता द्वारा राजशाही की दमनकारी वैधता के परोक्ष समर्थन के रूप में लिया गया ।
लोकतंत्र की राह पर चल पड़े नेपाल में तीन महत्वपूर्ण घटनाक्रम हुए:
पहला:
यह कि नई संसद ने राजा ज्ञानेन्द्र से करीब-करीब सारे अधिकार छीन लिए;
दूसरा:
संसद अब सर्वोच्च होगी और
तीसरा:
यह कि माओवादियों ने अंतरिम सरकार में शामिल होने का निर्णय किया ।
नेपाल का प्रधानमंत्री बनने के बाद आए (6-9 जून 2006) गिरिजा प्रसाद कोइराला से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नेपाल को बदहाली से उबारने के लिए मदद की पेशकश की ।
नेपाल को दिए जाने वाले पैकेज में निम्न चीजें शामिल हैं:
(a) नेपाल सरकार के बजट के लिए एक मुश्त सौ करोड़ रुपए ।
(b) ढांचागत विकास के लिए 10 करोड़ डॉलर ।
(c) नेपाल को दिया जाने वाला अनुदान 65 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 150 करोड़ रुपए वार्षिक ।
(d) नेपाल को 2500 टन खाद ।
(e) नेपाल से आयात होने वाले सामानों पर सीमा शुल्क छूट ।
नेपाल में 11 वर्षों से चला आ रहा माओवादियों का सशस्त्र संघर्ष 21 नवम्बर, 2006 को समाप्त हो गया जब 7 राजनीतिक दलों की अंतरिम सरकार के साथ माओवादियों ने समग्र शांति समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए । दोनों पक्ष इस बात के लिए सहमत हुए हैं कि नेपाल नरेश के सभी अधिकार वापस लिए जाएंगे तथा शाही महल से जुड़ी समस्त सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण किया जाएगा ।
माओवादियों के सशस्त्र आन्दोलन के चलते हुए हिंसक घटनाओं में तेरह हजार से अधिक लोग पिछले एक दशक से मारे जा चुके है । भारत ने समझौते का स्वागत करते हुए कहा कि सरकार और माओवादियों के बीच हुई इस संधि से नेपाल शांति और लोकतन्त्र की डगर पर आगे बढ़ सकेगा ।
नेपाल में विगत 240 वर्ष से चली आ रही राजशाही 28 मई, 2008 को समाप्त हो गई और नव निर्वाचित संविधान सभा ने देश को धर्मनिरपेक्ष संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया । संविधान सभा के इस निर्णय से ज्ञानेन्द्र अब नेपाल नरेश नहीं रहे तथा उनका दर्जा आम नागरिकों के समान हो गया ।
भारत के विदेश सचिव ने 18-20 जनवरी 2011 को नेपाल की यात्रा की । यात्रा के दौरान विदेश सचिव ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सभापति, विदेश मंत्री, उप प्रधानमंत्री एवं फिजिकल प्लानिंग एण्ड वर्क्स मंत्री तथा विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के नेताओं से मुलाकात की ।
इन बैठकों में भारत और नेपाल के बीच द्विपक्षीय संबंधों और दोनों देशों के बीच घनिष्ट और बहुआयामी संबंध बढ़ाने एवं उसे और सुदृढ़ करने पर जोर दिया गया । विदेश सचिव ने सभी नेताओं से मुलाकात के दौरान इस बात पर जोर दिया कि भारत नेपाल को एक प्रजातांत्रिक स्थायी और समृद्धिशाली राष्ट्र के रूप में देखना चाहता है और उन्होंने नेपाल में बहुपक्षीय प्रजातंत्र को सुदृढ़ करते हुए तथा नेपाली नेतृत्व वाली शांति प्रक्रिया सफलतापूर्वक संपन्न करने के लिए भी संविधान के प्रारूप की प्रक्रिया में भारत की ओर से उन्हें समर्थन देने का आश्वासन दिया ।
विदेश सचिव ने विभिन्न संस्थागत तंत्रों की शीघ्र बैठकें बुलाने की अपील की और उन्होंने भारत सरकार की सहायता से नेपाल में निष्पादित की जा रही परियोजनाओं के शीघ्र कार्यान्वयन के लिए नेपाल सरकार के सहयोग की आवश्यकता पर बल दिया ।
राष्ट्रपति डॉ. रामबरन यादव ने 27 जनवरी-5 फरवरी, 2011 के दौरान भारत की सरकारी यात्रा की जिसके दौरान उन्होंने राष्ट्रपति उप राष्ट्रपति प्रधानमंत्री लोकसभा अध्यक्ष, यू.पी.ए. अध्यक्षा, वित्त मंत्री, विदेश मंत्री, रक्षामंत्री,गृह मंत्री, लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष के नेताओं से मुलाकात की । वे मेडिकल कॉलेज, कोलकाता और पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एण्ड रिसर्च, चण्डीगढ़ के दीक्षान्त समारोह में मुख्य अतिथि थे ।
विदेश मन्त्री एस.एम.कृष्णा ने 20-22 अप्रैल 2011 को तथा वित्त मन्त्री प्रणब मुखर्जी ने 27 नवम्बर, 2011 को नेपाल की यात्रा की । नेपाल के राष्ट्रपति डॉ. रामबरन यादव 22-29 दिसम्बर, 2012 तक भारत के सरकारी दौरे पर आए । उन्होंने भारतीय नेताओं से मुलाकात की ।
डॉ. रामबरन यादव ने महामाननीय पण्डित मदन मोहन मालवीय की 150वीं जयन्ती पर हिन्दू विश्वविद्यालय के विशेष दीक्षान्त समारोह में भी भाग लिया । बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें एल.एल.डी. (मानद) उपाधि से सम्मानित किया गया ।
19 नवम्बर, 2013 को नेपाल में दूसरे संविधान सभा-सह-संसदीय चुनावों के सम्बन्ध में भारत सरकार ने नेपाल सरकार को 1000 वाहन उपहार में देने तथा दो प्रोन्नत लाइट हेलीकॉप्टर स्थायी रूप से देने सहित अनुरोध की गई संभार तन्त्रीय सहायता प्रदान की ।
चुनावों के दौरान नेपाल के साथ उच्च स्तरीय सम्पर्क बनाए रखा गया जिसमें विदेश मन्त्री श्री सलमान खुर्शीद की 9 जुलाई, 2013 तक नेपाल यात्रा तथा विदेश सचिव श्रीमती सुजाता सिंह की 14-15 सितम्बर, 2013 को नेपाल यात्रा शामिल है ।
भारत-नेपाल के सुरक्षा सम्बन्धों को 2013 में भारत तथा नेपाल के थल सेनाध्यक्षों की यात्राओं तथा मार्च 2014 में भारतीय थल सेना अध्यक्ष की नेपाल यात्रा द्वारा सुदृढ़ किया गया । भारत नेपाल का सबसे बड़ा व्यापार भागीदार तथा विदेशी निवेश का स्रोत बना रहा, जिसमें नेपाल के कुल विदेश व्यापार का 66 प्रतिशत (4.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर) तथा नेपाल में कुल विदेशी निवेश का 46 प्रतिशत (408 मिलियन अमेरिकी डॉलर) शामिल है ।
नेपाल में मोदी:
3-4 अगस्त, 2014 को प्रधानमन्त्री मोदी ने नेपाल की यात्रा की । चीन के बढ़ते प्रभाव को कम करने और भारत के पक्ष में नेपाल में भरोसा बढ़ाने के उद्देश्य से मोदी ने दोनों देशों के पौराणिक ऐतिहासिक और पड़ोस के रिश्तों की विरासत को कुरेद कर नेपालियों का दिल जीतने की कवायद की ।
मोदी ने आसान शर्तों पर नेपाल को 10,000 करोड़ नेपाली रुपए की सहायता देने की घोषणा की । उन्होंने भारत की ओर से सड़क एवं इण्टरनेट सेवाओं का जाल बिछाने में सहयोग देने की भी पेशकश की । इसके साथ 5600 मेगावाट पनबिजली उत्पादन के लिए दोनों देशों के बीच वर्ष भर के भीतर काम शुरू होने का भरोसा दिलाया ।
Essay # 7. नेपाल-चीन पेट्रोलियम उत्पाद समझौता:
भारत से होने वाले पेट्रोलियम उत्पादों की सप्लाई में भारी कमी आने के बाद नेपाल ने चीन का रुख कर लिया । नेपाल ने 28 अक्टूबर, 2015 को ‘पेट्रो चाइना’ के साथ दो समझौतों पर हस्ताक्षर किए । समझौते के अन्तर्गत नेपाल को चीन की ओर से 1000 मीट्रिक टन पेट्रोलियम उत्पादों तथा 13 लाख लीटर गैसोलिन की आपूर्ति की जाएगी ।
नेपाल के साथ समझौता कर ड्रैगन ने कूटनीति के मोर्चे पर भारत को पटखनी दी है । वह हमारे सभी पड़ोसी देशों के साथ सम्बन्ध बढ़ा रहा है ताकि भारत का प्रभुत्व कम किया जा सके । नेपाल ही नहीं चीन की नजर श्रीलंका पाकिस्तान, बांग्लादेश पर भी है ।
जहां तक नेपाल की बात है तो इस हिमालयन राष्ट्र में इस समय कम्युनिस्ट सरकार है जिसका रुख चीन की तरफ ज्यादा है । नेपाल-चीन समझौता मोदी सरकार के लिए भी खतरे की घण्टी है । 2014 में जब मोदी नेपाल यात्रा पर गए थे तब उन्होंने सम्बन्धों को पटरी पर लौटाने के लिए हरसम्भव प्रयास का वादा किया था । नेपाल की जनता ने भी उनका जोरदार स्वागत किया, लेकिन इस समझौते ने साबित कर दिया है कि भारत को अपनी नेपाल नीति पर फिर से विचार करने की सख्त जरूरत है ।
Essay # 8. भारत ने संयुक्त राष्ट्र में उठाया नेपाल मामला:
अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर पहली बार भारत ने नेपाल मुद्दा उठाया है । संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संगठन में 5 नवम्बर, 2015 को भारत-नेपाल में बढ़ती हिंसा राजनीतिक अस्थिरता और बढ़ते भेदभाव की शिकायत की । जेनेवा में चल रहे यूएनएचआरसी की स्पेशल बैठक में भारत के प्रतिनिधि बी.एन.रेड्डी ने कहा ”अप्रैल 2015 में आए विनाशकारी भूकम्प के बाद अब नेपाल के लोगों को एक और बड़े संघर्ष से गुजरना पड़ रहा है ।”
”नेपाल में राजनीतिक बदलाव और बढ़ती हिंसा से लोगों को दो-चार होना पड़ रहा है । सितम्बर में आए नए संविधान के बाद से तो हालात और बदतर हुए हैं ।” भारत ने नेपाल सरकार से आग्रह किया है कि वह हिंसा के मामलों की जांच करे और दोबारा ऐसी घटनाएं न हों ये सुनिश्चित करें ।
नए संविधान के विरोध में हुई हिंसा से अब तक 45 लोगों की मौत हो चुकी है जबकि हजारों लोग घायल हुए हैं । भारत इस मामले में नेपाल की ओर से कोई राजनीतिक कदम नहीं उठाए जाने से परेशान है । इस बीच मधेसी विरोध के बाद भारत-नेपाल सीमा पर ट्रकों की आवाजाही बन्द होने के लिए नेपाली उप-प्रधानमन्त्री कमल थापा ने भारत पर बाधा पहुंचाने का आरोप लगाया है ।
भारत ने नेपाल को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया है । थापा के अनुसार सामान की आवाजाही रोकना बर्दाश्त नहीं की जा सकती है । साथ ही उन्होंने पूछा कि क्या नेपाल को अपना संविधान अपने अनुसार लिखने का अधिकार नहीं है ।
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निष्कर्ष:
संक्षेप में, नेपाल भारत के सन्दर्भ में जूनियर भागीदार के मनोविज्ञान से ग्रसित है तथा दक्षिण के पड़ोसी के आधिपत्य की आशंका का भूत उसे सताता रहता है । नेपाल भारत और चीन के साथ समदूरी सिद्धान्त के आधार पर सम्बन्ध विकसित करना चाहता है जिससे चीन को भी सन्तुष्ट किया जा सके ।
परन्तु भारत समदूरी सिद्धान्त को नहीं मानता वह तो नेपाल के साथ विशिष्ट सम्बन्ध चाहता है, उसका कहना है कि नेपाल एक आन्तरिक देश है अत: उसके साथ भारत के विशिष्ट सम्बन्ध रहना स्वाभाविक है ।
नेपाल के साथ 1950 में की गई सन्धि इस समय भारत-नेपाल सम्बन्धों में असहमति का एकमात्र मुद्दा है । सन्धि में एक बात यह भी कही गई कि नेपाल यदि हथियारों का कोई आयात करेगा तो भारत को सूचित करेगा ।
मूलत: यह प्रावधान इसलिए है कि नेपाल को हथियारों के आयात की आवश्यकताओं की भारत से ही पूर्ति की जा सके और उसे अपनी विदेशी मुद्रा इस पर खर्च न करनी पड़े लेकिन इस बात को जिस रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है उससे ऐसा लगता है कि यह नेपाल के कहीं से भी हथियार आयात करने के सम्प्रभु अधिकार का हनन है । यह भी कहा जा रहा है कि 1950 की सन्धि तत्कालीन विश्व परिस्थिति के सन्दर्भ में की गई थी आज बहुत कुछ बदल चुका है ।