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Here is an essay on ‘Indo-Pak Relations’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. भारत-पाकिस्तान सम्बन्ध:
एशिया महाद्वीप में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की समाप्ति के साथ एक नये संघर्ष की शुरुआत हुई जिसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र से ‘शान्ति’ शब्द का लोप ही हो गया । यह संघर्ष है दो पड़ोसी देशों का संघर्ष जिसे भारत-पाक संघर्ष के नाम से जाना जाता है ।
भारत-पाक संघर्ष की प्रकृति को सही रूप से समझने के लिए भारत विभाजन में निहित तथ्यों का वस्तुनिष्ठ अध्ययन अपरिहार्य है । विभाजन की घटना ने दो समुदायों के बीच धृणा, अविश्वास और वैमनस्य को क्रूरतम ढंग से उजागर किया है । विभाजन के बाद सभी समस्याओं के स्वत: ही सुलझ जाने का सपना देखने वालों ने जब वास्तविकता पर नजर दौड़ाई तो उन्हें घोर निराशा हुई ।
पाकिस्तान के जन्म से समस्याएं सुलझने की अपेक्षा अधिक उलझ गयीं और इस महाद्वीप में नये संघर्ष का सूत्रपात हुआ जो अपनी प्रकृति से कहीं अधिक गहरा और पेचीदा था ।
कुलदीप नैय्यर के शब्दों में- ”विभाजन के लिए आप किसी को भी दोषी ठहरायें, वास्तविकता यह है कि इस पागलपन ने दो समुदायों और दो देशों के बीच दो पीढ़ियों से भी अधिक समय तक के लिए सम्बन्धों में कड़वाहट उत्पन्न कर दी । दोनों देशों में हर विषय और हर कदम पर मतभेद बढ़ता गया और छोटी-से-छोटी बात ने बड़े विवाद का रूप धारण कर लिया ।”
माईकल ब्रेशर ने ठीक ही लिखा है- ”भारत और पाकिस्तान हमेशा अघोषित युद्ध की स्थिति में रहे हैं ।”
Essay # 2. भारत-पाक सम्बन्धों को प्रभावित करने वाली समस्याएं (Problems or Issues Creating Indo-Pak Discord):
भारत-पाक सम्बन्धों को प्रभावित करने वाली समस्याएं मुख्यत: निम्न तीन प्रकार की हैं:
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1. विभाजन से उत्पन्न होने वाली समस्याएं,
2. भारत विरोधी नीति अर्थात् ‘जिहाद’ (धार्मिक युद्ध) की नीति से उत्पन्न होने वाली समस्याएं तथा
3. पाकिस्तान की सीटो, सेण्टो की सदस्यता तथा भारत की किलेबन्दी से उत्पन्न होने वाली समस्या ।
1. विभाजन से उत्पन्न होने वाली समस्याएं:
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भारतीय नेताओं को आशा थी कि देश के विभाजन से शान्ति और आपसी मेल-जोल को बढ़ावा मिलेगा और दोनों देश शान्ति सद्भावना और सहयोग के वातावरण में आर्थिक विकास के लम्बे और कठिन कार्य में जुट जायेंगे । लेकिन पाकिस्तान के जन्म के साथ ही कुछ ऐसी समस्याएं उत्पन्न हो गयीं जिनके कारण प्रारम्भ से ही दोनों देशों के मध्य सम्बन्धों में कटुता आ गयी ।
ये समस्याएं थीं:
i. हैदराबाद विवाद,
ii. जूनागढ़ विवाद,
iii. ऋण की अदायगी का प्रश्न,
iv. नहरी पानी विवाद,
v. शरणार्थियों का प्रश्न,
vi. कश्मीर विवाद ।
i. हैदराबाद विवाद:
हैदराबाद भौगोलिक दृष्टि से भारत के अन्तर्गत ही मिल सकता था । रियासत के निजाम का रवैया बहुत ही अस्पष्ट और अनिश्चयात्मक था । पाकिस्तान ने हैदराबाद को इस भ्रम में रखा कि मुसीबत के समय वह उसके साथ है ।
हैदराबाद का निजाम एक स्वतन्त्र राज्य स्थापित किये जाने का स्वप्न संजोये था । किन्तु भ्रम बनाये रखने के लिए वह भारत के साथ विलय की बातचीत भी करता रहा । निजाम का मूल लक्ष्य दक्षिणी भारत में मुस्लिम वर्चस्व स्थापित करना था ।
पाकिस्तान के सहयोग और निजाम के आशीर्वाद से रजाकारों ने मारकाट लूटमार और हत्याओं के माध्यम से इस क्षेत्र में भयावह स्थिति उत्पन्न कर दी । परिणामस्वरूप भारत को सैनिक कार्यवाही करनी पड़ी । हैदराबाद रियासत को भारत में सम्मिलित कर लिया गया और निजाम को 50 लाख रुपये प्रिवीपर्स के रूप में देना तय किया । पाकिस्तान ने इस प्रश्न को तीन बार संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाया किन्तु अमरीका के सिवाय उसमें किसी ने भी दिलचस्पी नहीं ली ।
ii. जूनागढ़ विवाद:
जूनागढ़ काठियावाड़ की एक छोटीसी रियासत थी, जिसका शासक मुस्लिम था । उसने रियासत को पाकिस्तान में सम्मिलित करने की घोषणा कर दी और पाकिस्तान ने उसका सम्मिलन स्वीकार कर लिया जबकि वहां की अधिकांश जनसंख्या हिन्दू थी ।
रियासत की जनता ने नवाब को पाकिस्तान भागने के लिए बाध्य कर दिया और नवम्बर 1947 में मुस्लिम दीवान को बाध्य होकर भारत सरकार को हस्तक्षेप के लिए आमन्त्रित करना पड़ा । लोगों की इच्छा को ध्यान में रखते हुए जनमत संग्रह के बाद जूनागढ़ भारत में सम्मिलित कर लिया गया । पाकिस्तान ने जूनागढ़ के मसले को लेकर भारत विरोधी प्रचार किया ।
iii. ऋण की अदायगी का प्रश्न:
विभाजन के उपरान्त भारत और पाकिस्तान के बीच कई आर्थिक समस्याएं थीं । दोनों देशों के बीच आमदनी और कर्ज का बंटवारा एवं लागत धन के बीच सन्तोषजनक बंटवारा करना था । मुद्रा के सम्बन्ध में निर्णय लेना था ।
व्यापारिक सम्बन्ध में तनातनी शुरू हुई क्योंकि पाकिस्तान ने तुरन्त ही जूट के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगा दिया । आर्थिक समस्याओं में सबसे कठिन विस्थापितों की सम्पत्ति की समस्या थी । जो हिन्दू शरणार्थी पाकिस्तान में अपनी सम्पत्ति छोड़कर आये थे उसका मूल्य 3 हजार करोड़ रुपए था । जबकि जो मुसलमान भारत में अपनी सम्पत्ति छोड़कर गये थे उसका मूल्य 300 करोड़ रुपए था ।
1950 में नेहरू-लियाकतअली समझौते द्वारा इस समस्या का समाधान किया गया । विभाजन के बाद भारत और पाकिस्तान दोनों सरकारों में दायित्व और लेनदारी को समान अनुपात में बांटा जाना चाहिए था परन्तु सौजन्यवश भारत सरकार ने ब्रिटिश सरकार के सारे ऋण भार को स्वीकार किया ।
इसके उपलक्ष में भारत को 300 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष पाकिस्तान सरकार से मिलना था और यह 5 वर्ष बाद दिया जाना तय हुआ । परन्तु पाकिस्तान सरकार इस ऋण को देने में टालमटोल करने लगी । दूसरी तरफ भारत को 55 करोड़ रुपया रक्षा संग्रह का पाकिस्तान को देना था ।
गांधीजी ने दोनों देशों में मधुर सम्बन्ध बनाने हेतु यह रुपया भारत सरकार से पाकिस्तान को दिलवा दिया जबकि नेहरू और पटेल का मत था कि यह रुपया पाकिस्तान को नहीं दिया जाना चाहिए । उस समय कश्मीर में युद्ध चल रहा था और नेहरू व पटेल का विचार था कि इस धन का उपयोग पाकिस्तान और अधिक हथियार खरीदकर युद्ध तेज करने के लिए करेगा ।
iv. नहरी पानी विवाद:
पंजाब के राजनीतिक विभाजन के कारण नहरी पानी विवाद उठ खड़ा हुआ । ये नहरें आर्थिक दृष्टिकोण से उस समय बनायी गयी थीं जब विभाजन का विचार तक किसी के मस्तिष्क में न था । विभाजन के कारण नहरों के पानी का असन्तुलित विभाजन हो गया ।
पंजाब की पांचों नदियों में से सतलज और रावी दोनों देशों के मध्य से बहती हैं । झेलम और चिनाब पाकिस्तान के मध्य से और व्यास पूर्णतया भारत में बहती है । परन्तु भारत के नियन्त्रण में वे तीनों मुख्यालय आ गये जिनसे दोनों देशों की नहरों को पानी की पूर्ति की जाती थी ।
पाकिस्तान के पंजाब और खिन्थ प्रदेश सिंचाई के लिए इन नहरों पर ही आश्रित हैं । पाकिस्तान को यह आशंका प्रारम्भ से ही हो गयी थी कि भारत जब चाहे पानी बन्द करके उसकी जनता को भूखों मार सकता है । अतएव विभाजन के तुरन्त पश्चात् से ही नहरी पानी को लेकर दोनों देशों में विवाद उत्पन्न हो गया ।
1949 में एक अमरीकी विशेषज्ञ डेविड लिलियेथल ने इस समस्या को राजनीतिक स्तर से हटाकर तकनीकी एवं व्यापारिक स्तर पर सुलझाने की सलाह दी और इसके लिए विश्व बैंक (World Bank) से मदद लेने की सिफारिश की ।
सितम्बर 1951 में इस बैंक के अध्यक्ष यूजीन ब्लेक ने मध्यस्थता करना स्वीकार कर लिया । यूजीन ब्लेक और उसके बाद मि. इल्कि के सहयोग से वर्षों तक बातचीत चलने के उपरान्त 19 सितम्बर, 1960 को भारत और पाकिस्तान के बीच जल के प्रश्न पर एक समझौता हो गया ।
इसको 1960 का सिन्धु-जल सन्धि (Indus Water Treaty) कहते हैं, जिस पर प्रधानमन्त्री नेहरू और राष्ट्रपति अरब खां ने स्वयं रावलपिंडी में हस्ताक्षर किये । 12 जनवरी, 1961 को इस सन्धि की शर्तें लागू कर दी गयीं और इस प्रकार दोनों देशों के बीच का एक बहुत बड़ा झगड़ा शान्त हुआ ।
v. शरणार्थियों का प्रश्न:
विभाजन के बाद मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान में साम्प्रदायिक दंगे करवाये जिससे हजारों की संख्या में शरणार्थी भारत भागकर आ गये । पाकिस्तान में हिन्दुओं का जीवन और इज्जत सुरक्षित नहीं थी । हजारों व्यक्ति वहां मौत के घाट उतार दिये गये । हजारों महिलाओं के साथ बलात्कार हुए जिसकी भारत में भी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था ।
यहां भी कई स्थानों पर दंगे हुए और मुसलमान भागने लगे । भारत की धर्मनिरपेक्ष सरकार उनकी रक्षा करती थी परन्तु पाकिस्तान की सरकार हिन्दुओं की रक्षा नहीं करती थी । इसलिए जितनी बड़ी संख्या में विस्थापित पाकिस्तान से आये उतनी बड़ी संख्या में भारत से पाकिस्तान नहीं गये । बाद में भी पाकिस्तान से हिन्दू शरणार्थी अनवरत आते रहे । ये शरणार्थी पाकिस्तान में अपनी जमीन और सम्पत्ति छोड़ आये थे ।
भारत ने पाकिस्तान से क्षतिपूर्ति मांगी जिसे वह देने में आनाकानी करता रहा । शरणार्थियों की समस्या आज भी बनी हुई है । जब भी पाकिस्तान में सामुदायिक अत्याचार होते हैं तो हिन्दू अल्पसंख्यक भारत की ओर भाग खड़े होते हैं ।
vi. कश्मीर विवाद:
कश्मीर की समस्या दोनों देशों के बीच एक ऐसे ज्वालामुखी की तरह है, जो समय-समय पर लावा उगलती रहती है । अलाप माईकल के शब्दों में- ”कश्मीर समस्या अनिवार्यत: भूमि या पानी की समस्या नहीं, यह लोगों और प्रतिष्ठा की समस्या है ।”
कश्मीर की समस्या भारत और पाकिस्तान के बीच सबसे उलझी हुई समस्या है । स्वतन्त्रता के बाद जहां भारत और पाकिस्तान दो नये राज्य बने वहीं देशी रियासतें एक प्रकार से स्वतन्त्र हो गयीं । ब्रिटिश सरकार ने घोषणा कर दी थी कि देशी रियासतें अपनी इच्छानुसार भारत अथवा पाकिस्तान में विलय हो सकती हैं ।
अधिकांश रियासतें भारत अथवा पाकिस्तान में मिल गयीं और उनकी कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई । भारत के लिए हैदराबाद और जूनागढ़ ने अवश्य समस्या उत्पन्न कर दी थी परन्तु वह शीघ्र ही हल कर ली गयी । कश्मीर की स्थिति कुछ विशेष प्रकार की थी । भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा पर स्थित यह राज्य भारत अथवा पाकिस्तान दोनों को जोड़ता है ।
यहां की जनसंख्या का बहुसंख्यक भाग मुलिय धर्मी था परन्तु यहां का आनुवंशिक शासक एक हिन्दू राजा था । अगस्त, 1947 में कश्मीर के शासक ने अपने विलय के विषय में कोई तात्कालिक निर्णय नहीं लिया । पाकिस्तान इसे अपने साथ मिलाना चाहता था ।
22 अक्टूबर, 1947 को उत्तर-पश्चिम सीमाप्रान्त के कबायलियों ने एवं अनेक पाकिस्तानियों ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया । पाकिस्तान ने अपनी सीमा पर भी सेना का जमाव कर लिया । 4 दिनों के भीतर ही हमलावर आक्रमणकारी श्रीनगर से 25 मील दूर बारामूला तक जा पहुंचे ।
26 अक्टूबर को कश्मीर के शासक ने आक्रमणकारियों से अपने राज्य को बचाने के लिए भारत सरकार से सैनिक सहायता की मांग की और साथ ही कश्मीर को भारत में सम्मिलित करने की प्रार्थना भी की । भारत सरकार ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया । 27 अक्टूबर को भारतीय सेनाएं कश्मीर भेज दी गयीं तथा युद्ध समाप्ति पर जनमत संग्रह की शर्त के साथ कश्मीर को भारत का अंग मान लिया
गया ।
भारत द्वारा कश्मीर की सुरक्षा के निर्णय के कारण और उधर पाकिस्तान द्वारा आक्रमणकारियों को सहायता देने की नीति के कारण कश्मीर दोनों राष्ट्रों के बीच युद्ध का क्षेत्र बन गया । प्रारम्भ में भारत सरकार ने पाकिस्तान सरकार से प्रार्थना की कि कबायलियों का मार्ग बन्द कर दे परन्तु जब इस बात के प्रमाण मिलने लगे कि पाकिस्तान सरकार स्वयं इन कबायलियों की सहायता कर रही है तो 1 जनवरी, 1948 को भारत सरकार ने सुरक्षा परिषद् में यह शिकायत की कि पाकिस्तान से सहायता प्राप्त करके कबायलियों ने भारत के एक अंग कश्मीर पर आक्रमण कर दिया है जिससे अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को खतरा है ।
दूसरी तरफ पाकिस्तान ने भारत पर आरोप लगाया कि कश्मीर का भारत में विलय अवैधानिक है । सुरक्षा परिषद् ने इस समस्या का समाधान करने के लिए 5 राष्ट्रों-चेकोस्तोवाकिया, अर्जेण्टाइना, अमरीका, कोलम्बिया और बेल्जियम को सदस्य नियुक्त कर मौके पर स्थिति का अवलोकन करके समझौता कराने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र आयोग की नियुक्ति की ।
संयुक्त राष्ट्र आयोग के कार्य:
संयुक्त राष्ट्र आयोग ने तुरन्त अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया और मौके पर स्थिति का अध्ययन कर 13 अगस्त, 1948 को दोनों पक्षों से युद्ध बन्द करने और समझौता करने हेतु निम्नांकित आधार प्रस्तुत किये:
a. पाकिस्तान अपनी सेनाएं कश्मीर से हटाने तथा कबायलियों और सामान्य रूप से कश्मीर में न रहने वाले विदेशियों को भी वहां से हटाने का प्रयत्न करे ।
b. सेनाओं द्वारा खाली किये गये प्रदेश का शासन प्रबन्ध स्थानीय अधिकारी आयोग के निरीक्षण में करें ।
c. जब आयोग भारत को पाकिस्तान द्वारा उपर्युक्त वर्णित शर्तों को पूरा करने की सूचना दे तो भारत भी समझौते के अनुसार अपनी सेनाओं का अधिकांश भाग वहां से हटा ले ।
d. अन्तिम समझौता होने तक भारत सरकार युद्ध-विराम के अन्दर उतनी ही सेनाएं रखे जितनी कि इस प्रदेश में कानून और व्यवस्था बनाये रखने के कार्य में स्थानीय अधिकारियों को सहायता देने के लिए वांछनीय हों ।
इस सिद्धान्त के आधार पर दोनों पक्ष एक लम्बी वार्ता के बाद 1 जनवरी, 1949 को युद्ध-विराम के लिए सहमत हो गये । कश्मीर के विलय का अन्तिम निर्णय जनमत संग्रह के माध्यम से किया जाना था । जनमत संग्रह की शर्तों को पूरा करने के लिए एक अमरीकी नागरिक एडमिरल चेस्टर निमित्ज को प्रशासक नियुक्त किया गया । उन्होंने जनमत संग्रह के सम्बन्ध में दोनों पक्षों से बातचीत की किन्तु उसका कोई परिणाम नहीं निकला । अन्त में उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया ।
युद्ध-विराम रेखा निर्धारित हो जाने पर पाकिस्तान के हाथ में कश्मीर का 32,000 वर्गमील क्षेत्रफल रह गया । इसकी जनसंख्या 7 लाख थी । पाकिस्तान ने इस क्षेत्र को ‘आजाद कश्मीर’ कहा । युद्ध-विराम रेखा के इस पार भारत के अधिकार में 53,000 वर्गमील क्षेत्रफल था जिसकी जनसंख्या 33 लाख थी । नेहरू जनमत संग्रह के लिए तैयार थे ।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने यह शर्त लगा दी कि पाकिस्तान द्वारा हस्तगत क्षेत्र से जब पाकिस्तानी सेना एवं कबायली पूर्णतया हट जायेंगे तभी जनमत संग्रह होगा । पाकिस्तान ‘आजाद कश्मीर’ से अपनी सेनाएं हटाने के लिए तैयार न था और बिना सेनाएं हटाये जनमत संग्रह हो नहीं सकता था ।
पाकिस्तान ने अमरीका से 1954 में सैनिक सन्धि कर ली । वह 1955 में बगदाद पैक्ट (सेण्टो) का भी सदस्य हो गया । उसने अपने कुछ अड्डे अमरीका को दे दिये । इससे भारत ने खतरा अनुभव किया ।
भारत का मत था कि पाकिस्तान कश्मीर लेने के लिए अपनी सैनिक शक्ति बढ़ा रहा है । अत: परिवर्तित अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में जवाहरलाल नेहरू ने अपनी कश्मीर नीति में परिवर्तन कर लिया । उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब कश्मीर में जनमत संग्रह कराना सम्भव नहीं है ।
इसी समय सोवियत संघ का कश्मीर के प्रश्न पर भारत को समर्थन मिल गया जिससे भारत की स्थिति मजबूत हो गयी । उसका भी अन्तर्राष्ट्रीय जगत तथा सुरक्षा परिषद् में एक शक्तिशाली मित्र हो गया । 1950 में पण्डित नेहरू ने पाकिस्तान से ‘युद्ध-वर्जन सन्धि’ (No War Pact) करने का प्रस्ताव रखा परन्तु पाकिस्तान ने उसे ठुकरा दिया ।
6 फरवरी, 1954 को कश्मीर की संविधान सभा ने एक प्रस्ताव पास कर जम्मू-कश्मीर राज्य का विलय भारत में होने की पुष्टि कर दी । भारत सरकार ने भारतीय संविधान में संशोधन कर 14 मई, 1954 को अनुच्छेद 370 के अन्तर्गत कश्मीर को विशेष दर्जा दे दिया । 26 जनवरी, 1957 को जम्मू-कश्मीर का संविधान लागू हो गया । उसके साथ ही जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ का एक अभिन्न अंग बन गया ।
इसके बाद भी पाकिस्तान बार-बार कश्मीर का प्रश्न उठाता रहा । 2 जनवरी, 1957 को सुरक्षा परिषद् में इस प्रश्न को उठाया गया । ब्रिटेन फ्रांस और अमरीका ने सुरक्षा परिषद् में पाकिस्तान का समर्थन करते हुए कहा कि कश्मीर में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में जनमत संग्रह कराया जाय और संयुक्त राष्ट्र संघ की आपात् सेना वहां भेजी जाय ।
भारत ने इस प्रस्ताव का घोर विरोध किया । भारत के समर्थन में सोवियत संघ ने इस प्रस्ताव पर अपने निषेधाधिकार का प्रयोग किया । भारतीय प्रतिनिधि कृष्णा मेनन ने अपने 7 घण्टे 48 मिनट तक के लम्बे ऐतिहासिक भाषण में कहा कि मूल प्रश्न यह नहीं कि जम्मू-कश्मीर में संविधान लागू हो या न हो ।
मूल समस्या यह है कि जम्मू-कश्मीर से पाकिस्तानी सेनाएं अभी तक क्यों नहीं निकलीं । 1962 में सुरक्षा परिषद् में पाकिस्तान ने कश्मीर में आत्म-निर्णय की मांग दोहरायी इस प्रस्ताव को सोवियत संघ ने वीटो द्वारा समाप्त कर दिया ।
जब-जब मौका मिलता है पाकिस्तान कश्मीर के प्रश्न को उठाता रहता है । मार्च 1983 में नयी दिल्ली में: आयोजित सातवें गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में भी जनरल जिया ने कश्मीर को एक विवादास्पद मुद्दा बताया ।
सितम्बर 1992 में गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन (जकार्ता) के पूर्ण अधिवेशन में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कश्मीर का मुद्दा फिर से उठाया । पाकिस्तान ने कश्मीर मुद्दे का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करने तथा उसे साम्प्रादायिक रंग देने का अपना अभियान जारी रखा है ।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के 50वें अधिवेशन (मार्च, 1994) में पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति पर एक प्रस्ताव लाने का निर्णय किया था और उस पर समर्थन जुटाने के लिए एक सक्रिय अभियान छेड़ा लेकिन बाद में कई मित्र देशों के कहने पर उसने अपना यह प्रस्ताव वापस ले लिया । संयुक्त राष्ट्र महासभा के 49वें अधिवेशन में भी पाकिस्तान ने प्रस्ताव रखने का एक और प्रयास किया लेकिन उसका यह प्रयास भी असफल रहा ।
वस्तुत: भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर तनाव का मुख्य कारण है । वह कश्मीर को अब भी एक समस्या मानता है । एक पाकिस्तानी पत्रकार के अनुसार- ”हमारी भावनाएं अब भी कश्मीर के बारे में वैसी ही हैं जैसी कि पहले थीं, परन्तु एक बात याद रखनी चाहिए कि हमने 1972 में शिमला सम्मेलन के दौरान भी कश्मीर देना स्वीकार नहीं किया था ।” भारत का मत है कि पाकिस्तान कश्मीर तथा अन्य कोई द्विपक्षीय मुद्रा संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच से नहीं उठ सकता लेकिन पाकिस्तान इस दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करता ।
1965 में भारत-पाक युद्ध:
अप्रैल 1965 में कच्छ के रन को लेकर भारत एवं पाकिस्तान के बीच संघर्ष हो गया । पाकिस्तानी सेना की दो टुकड़ियां भारतीय क्षेत्र में आ घुसीं और कच्छ के कई भागों पर अधिकार कर लिया । कच्छ के रन में उत्पात के साथ-साथ पाकिस्तान ने कश्मीर में भी घुसपैठ प्रारम्भ कर दी थी ।
यह घुसपैठ पूर्ण योजनाबद्ध थी । चीन की सहायता से हजारों पाकिस्तानी सैनिकों को छापामार युद्ध में प्रशिक्षित किया गया था । योजना के अनुसार छापामार दस्ता शस्त्रों से सज्जित होकर असैनिक वेश में कश्मीर में घुसने वाला था । कश्मीर में आन्तरिक रूप से उपद्रव एवं तोड़-फोड़ द्वारा ऐसी स्थिति उत्पन्न करने की योजना थी जिससे भारतीय सेना को कश्मीर से भागना पड़े ।
पाकिस्तान का विश्वास था कि कश्मीर की मुक्ति छापामारों का साथ देगी । किन्तु यह विश्वास अन्त में असत्य प्रमाणित हुआ । 4 तथा 5 अगस्त, 1965 को हजारों पाकिस्तानी छापामार सैनिक कश्मीर में घुस आये । पाकिस्तानी घुसपैठ को सदैव के लिए रोकने के विचार से भारत सरकार ने उन स्थानों पर अधिकार करने का निर्णय किया जहा से होकर पाकिस्तानी घुसपैठिये कश्मीर के भारतीय हिस्से में आते थे ।
इसी बीच पाकिस्तान की नियमित सेना ने अन्तर्राष्ट्रीय सीमा रेखा को पार करके भारतीय भूभाग पर आक्रमण कर दिया और पूर्ण रूप से युद्ध आरम्भ हो गया । 4 सितम्बर, 1965 को सुरक्षा परिषद् ने एक प्रस्ताव पास कर भारत और पाकिस्तान दोनों से अपील की कि वे युद्ध-विराम करें ।
22 सितम्बर, 1965 को दोनों देशों में युद्ध बन्द हो गया । भारत को युद्ध में 750 वर्ग मील भूमि मिली जबकि पाकिस्तान की 210 वर्ग मील भूमि मिली । यह युद्ध भारत-पाकिस्तान के कट सम्बन्धों की अन्तिम परिणति थी ।
ताशकन्द समझौता:
सोवियत प्रधानमन्त्री ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति अययुब खां और भारत के प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री को वार्ता के लिए ताशकन्द में आमन्त्रित किया । 4 जनवरी, 1966 को यह प्रसिद्ध सम्मेलन प्रारम्भ हुआ और सोवियत संघ के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप 10 जनवरी, 1966 को प्रसिद्ध ताशकन्द सम्मेलन पर हस्ताक्षर हुए ।
समझौते के अन्तर्गत भारतीय प्रधानमन्त्री एवं पाकिस्तान के राष्ट्रपति सहमत हुए कि:
1. दोनों पक्ष जोरदार प्रयत्न करेंगे कि संयुक्त घोषणा-पत्र के अनुसार भारत और पाकिस्तान में अच्छे पड़ोसियों के सम्बन्ध निर्मित हों । वे राष्ट्र संघ के घोषणा-पत्र के अन्तर्गत पुन: दुहराते हैं कि बल-प्रयोग का सहारा न लेंगे और अपने विवाद को शान्तिपूर्ण तरीकों से सुलझायेंगे ।
2. दोनों देशों के सभी सशस्त्र सैनिक 25 फरवरी 1966 के पूर्व उस स्थान पर वापस चले जायेंगे जहां वे 5 अगस्त, 1965 के पूर्व थे और दोनों पक्ष युद्ध-विराम की शर्तो का पालन करेंगे ।
3. दोनों देशों के परस्पर सम्बन्ध एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति पर आधारित रहेंगे ।
4. दोनों देश एक-दूसरे के विरुद्ध होने वाले प्रचार को निरुत्साहित करेंगे और दोनों देशों के मध्य मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों की वृद्धि करने वाले प्रचार को प्रोत्साहन देंगे ।
5. दोनों देशों के मध्य राजनयिक सम्बन्ध पुन: सामान्य रूप से स्थापित किये जायेंगे । दोनों देशों में एक-दूसरे के उच्चायुक्त अपने पदों पर वापस जायेंगे ।
6. दोनों देशों के मध्य आर्थिक एवं व्यापारिक सम्बन्ध पुन: सामान्य रूप से स्थापित किये जायेंगे ।
7. दोनों देश युद्धबन्दियों का प्रत्यावर्तन करेंगे । एक-दूसरे की हस्तगत की हुई सम्पत्ति की वापसी पर भी विचार करेंगे ।
8. दोनों देश सन्धि से सम्बन्धित मामलों पर विचार करने के लिए सर्वोच्च स्तर पर एवं अन्य स्तरों पर आपस में मिलते रहेंगे ।
यद्यपि इस समझौते के कारण भारत को वह सब प्रदेश पाकिस्तान को वापस देने पड़े जो उसने अपार धन एवं जन की हानि उठाकर प्राप्त किये थे तथापि यह समझौता निश्चय रूप से भारत और पाकिस्तान के सम्बन्धों में एक शान्तिपूर्ण मोड़ आने का प्रतीक बन गया ।
भारत-पाक युद्ध, 1971 तथा शिमला समझौता:
पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) में असन्तोष बढ़ता जा रहा था । शेख मुजीब के नेतृत्व में बांग्लादेश में स्वायत्तता का आन्दोलन प्रारम्भ हो गया । पूर्वी पाकिस्तान पूर्णतया मुजीब के साथ था । याह्या खां ने बंगालियों पर अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिये ।
पूर्वी बंगाल के घोर अत्याचारों से घबराकर बंगाली घरबार सामान छोड़ जान बचाने हेतु भारत की सीमा में प्रवेश करने लगे । 10 हजार शरणार्थी प्रतिदिन भारत आने लगे । शरणार्थियों की संख्या भारत में 1 करोड़ तक पहुंच गयी ।
इसी समय 2 दिसम्बर 1971 को पाकिस्तानी वायुयानों ने भारत के हवाई अड्डों पर भीषण बमबारी कर दी । 4 दिसम्बर, 1971 को भारतीय सेना ने जवाबी हमला किया । भारत के विमानों ने पाकिस्तान के महत्वपूर्ण हवाई अड्डों पर बम वर्षा की ।
16 दिसम्बर 1971 को ढाका में एक सैनिक समारोह में जनरल नियाजी ने भारत के ले जनरल जगजीतसिंह अरोरा के समुख आत्म-समर्पण कर दिया । उनके साथ 93 हजार सैनिकों ने भी हथियार डाल दिये और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया । बांग्लादेश स्वतन्त्र हो गया तथा भारत ने एकतरफा युद्ध-विराम कर दिया ।
भारत ने इस युद्ध में पाकिस्तान की 6 हजार वर्ग मील भूमि पर अधिकार कर लिया । पाकिस्तान में जनरल याह्या खां के स्थान पर सत्ता जुल्फिकार अली भुट्टो के हाथ में आ गयी । भुट्टो और श्रीमती गांधी में पत्र-व्यवहार हुआ और 28 जून, 1972 को शिमला में दोनों देशों के मध्य वार्ता होना तय हुआ ।
3 जुलाई, 1972 को दोनों देशों के बीच एक समझौता हो गया । इस समझौते के निम्न मुख्य उपबन्ध थे:
A. दोनों सरकारों ने यह निश्चय किया कि दोनों देश परस्पर संघर्ष को समाप्त करते हैं जिससे दोनों देशों के सम्बन्धों में बिगाड़ उत्पन्न हुआ था ।
B. दोनों ही सरकारें अपनी सामर्थ्य के अनुसार एक-दूसरे के प्रति पृणित प्रचार नहीं करेंगी ।
C. आपसी सम्बन्धों में समानता लाने की दृष्टि से:
a. दोनों राष्ट्रों के बीच डाक-तार सेवा जल थल वायुमार्गों द्वारा पुन: संचार व्यवस्था स्थापित की जायेगी ।
b. एक-दूसरे देश के नागरिक और निकट आयें इसलिए नागरिकों को आने-जाने की सुविधाएं दी जायेंगी ।
c. जहां तक सम्भव हो सके व्यापारिक एवं आर्थिक मामलों में सहयोग का सिलसिला जल्द-से-जल्द शुरू हो ।
d. विज्ञान एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में आदान-प्रदान बढ़ाया जायेगा ।
D. स्थायी शान्ति कायम करने की प्रक्रिया का सिलसिला आरम्भ करने के लिए दोनों सरकारें सहमत हैं कि:
i. भारत और पाकिस्तान की सेनाएं अपनी अन्तर्राष्ट्रीय सीमा में लौट जायेंगी ।
ii. दोनों देश बिना एक-दूसरे की स्थिति को क्षति पहुंचाये जम्मू-कश्मीर में 17 दिसम्बर, 1971 को हुए युद्ध-विराम के फलस्वरूप नियन्त्रण रेखा को मान्य रखेंगे ।
iii. सेनाओं की वापसी इस समझौते के लागू होने के 30 दिन के भीतर पूरी हो जायेगी ।
E. शिमला समझौते के क्रियान्वयन के लिए दोनों देशों के शासनाध्यक्ष परस्पर मिलते रहेंगे ।
शिमला समझौते के आलोचकों का कहना है कि यह भारत का पाकिस्तान के समक्ष आम-समर्पण था । भारत के सैनिकों ने जिसे युद्ध के मैदान में जीता था उसे भारत की कूटनीति ने शिमला में खो दिया । आलोचकों का कहना है कि कश्मीर समस्या का स्थायी हल ढूंढ़े बिना पाकिस्तान के 5,139 वर्ग मील क्षेत्र को लौटाना राजनीतिक चातुर्य नहीं कहा जा सकता । दूसरे शब्दों में आलोचकों का कहना है कि शिमला समझौते ने कश्मीर पर पाकिस्तान से सौदेबाजी करने का अवसर हाथ से खो दिया ।
2. भारत विरोधी नीति अर्थात् ‘जिहाद’ (धार्मिक युद्ध) की नीति से उत्पन्न होने वाली समस्याएं:
भारत-पाक सम्बन्धों में कटुता और वैमनस्य कई बार पाकिस्तान के सामुदायिक दृष्टिकोण से उत्पन्न हो जाता है । धार्मिक और साम्प्रदायिक वैमनस्य को पाकिस्तान के शासक जान-बूझकर बनाये रखना चाहते हैं । वे साम्प्रदायिक विष को अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और संगठनों में भी अभिव्यक्त करते रहे ।
सितम्बर, 1963 में हजरत बाल-काण्ड को लेकर पाकिस्तान ने कश्मीर में साम्प्रदायिक दंगे कराने का प्रयास किया । 1965 में बड़े पैमाने पर कश्मीर में घुसपैठियों को भेजना शुरू कर दिया और विद्रोह भड़काने के लिए साम्प्रदायिक विष का सहारा लिया । 1969 में रबात मुस्लिम शिखर सम्मेलन के समय तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति याह्या खां ने भारतीय प्रतिनिधिमण्डल के साथ बैठने से इंकार कर दिया ।
3. पाकिस्तान की सीटो, सेण्टो की सदस्यता तथा भारत की किलेबन्दी से उत्पन्न होने वाली समस्या:
भारत-पाक सम्बन्धों में कटुता पैदा करने वाली एक प्रमुख समस्या पाकिस्तान की गुटीय और शस्त्रों की होड़ की नीति है । पाकिस्तान ने सीटो (1955) और सेण्टो (1955) जैसे सैनिक संगठनों का सदस्य बनकर शीत-युद्ध को भारत के दरवाजे पर लाकर खड़ा कर दिया ।
दूसरे पाकिस्तान ने अपनी सैनिक शक्ति बढ़ाने के लिए भारत विरोधी प्रचार का सहारा लेकर, अमरीका से ही नहीं बल्कि सेण्टो शक्तियों विशेषकर ईरान से प्रचुर मात्रा में सैनिक सहायता प्राप्त की । भारत-चीन सम्बन्धों में बिगाड़ आने से पाकिस्तान ने चीन की हमदर्दी प्राप्त करने की कोशिश की और उससे अस्त्र-शस्त्रों को प्राप्त किया ।
पश्चिमी शक्तियां भी इस उप-महाद्वीप में पाकिस्तान को भारत के बराबर बनाये रखना चाहती हैं । वे समझती हैं कि यदि भारत को शान्ति का समय मिल गया तो वह महान शक्ति बन जायेगा । अत: अमरीका ने भारत के विरोध पर भी पाकिस्तान को अस्त्र-शस्त्र दिये ।
पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद को प्रोत्साहन:
दुर्भाग्यवश पाकिस्तान द्वारा पंजाब और जम्मू-कश्मीर में भारत के विरुद्ध आतंकवाद को लगातार सहायता पहुंचाने और उसे बढ़ावा दिये जाने के कारण दोनों देशों के बीच सम्बन्धों में काफी कटुता उत्पन्न हुई । भारत के विरुद्ध आतंकवाद को पाकिस्तान के समर्थन तथा भारत के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करने में उसकी प्रवृत्ति मार्च, 1993 में मुम्बई में हुए बम विस्फोटों से प्रकट हुई ।
मुम्बई में हुए बम विस्फोटों की योजना बनाने तथा उसे कार्यरूप देने में पाकिस्तान की सहअपराधिता से भारतीय जनता का यह मत पक्का हुआ है, कि पाकिस्तान भारत के आतरिक मामलों में हस्तक्षेप के मंसूबे बनाता है और भारत में अस्थिरता पैदा करने के लिए स्थितियों का निर्माण करता है ।
साथ ही पाकिस्तान के नेताओं ने बड़े भड़काने वाले वक्तव्य भी दिये जिनमें जम्मू व कश्मीर की स्थिति को जानबूझकर गलत तरीके से पेश करने का प्रयास किया गया । पाकिस्तान ने हजरत बल की घटना के सम्बन्ध में लगातार मिथ्या प्रचार किया जिसका उद्देश्य साम्प्रदायिक भावना को भड़काना तथा उग्रवादी तत्वों को बढ़ावा देना था ।
भारत ने स्पष्ट शब्दों में पाकिस्तान को बताया कि उसके द्वारा भारत के विरुद्ध आतंकवाद को लगातार दिये जा रहे समर्थन से न केवल शिमला समझौते और अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार के लिए सर्वमान्य मानकों का उल्लंघन हुआ है बल्कि इसका द्विपक्षीय सम्बन्धों में विश्वास का माहौल बनाने के प्रयासों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा है ।
1980-90 के दशक में पाकिस्तान सोवियत आक्रमण के भय की आड़ में अमरीका और चीन से सैनिक माल दबोचने लगा । अमरीका और चीन भी दक्षिण एशिया में सोवियत विस्तारवाद को रोकने के बहाने पाकिस्तान को सुदृढ़ और शक्तिशाली बनाने के लिए आधुनिकतम टैंक तोड़क मिसाइलें, धरती-से-धरती और आकाश में मार करने वाली मिसाइलें एफ-15, एफ-16, एफ-16 सी जैसे विध्वंसक वायुयानों और अवाक्स की सप्लाई करने लगे ।
महाशक्तियों द्वारा पाकिस्तान की किलेबन्दी और उसका इस्लामिक बम निर्माण के लिए दुराग्रह भारत के लिए गम्भीर चिन्ता का विषय बन गया । पाकिस्तान अपने जन्मकाल से ही ब्रिटेन अमरीका और चीन के हाथों का खिलौना बना हुआ है और भारत के लिए परेशानियां पैदा करता रहा है ।
Essay # 3. भारत-पाक सम्बन्ध: रिश्तों को सुधारने के प्रयत्न:
भारत-पाक सम्बन्धों को सामान्य बनाने के भी प्रयत्न किये जाते रहे हैं । ताशकन्द समझौता तथा शिमला समझौता कुछ इसी प्रकार के प्रयल थे । 1974 में जो त्रि-पक्षीय समझौता हुआ उससे युद्धबन्दियों की समस्या का समाधान हुआ ।
नवम्बर, 1974 में दोनों देशों में डाक तार यात्रा आदि विषयों के बारे में समझौता हुआ । नवम्बर 1974 में व्यापार समझौता हुआ 1976 में दोनों देशों ने कूटनीतिक सम्बन्धों को पुन: स्थापित करने का निश्चय किया । 14 अप्रैल, 1978 को सलाल जल-विद्युत परियोजना के सम्बन्ध में भारत और पाकिस्तान में एक सन्धि हुई जो सलाल जल-सन्धि के नाम से प्रसिद्ध है ।
जब 1979 में पाकिस्तान ने सेण्टी की सदस्यता त्याग दी तो उसे सितम्बर, 1979 में हवाना शिखर सम्मेलन में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की सदस्यता प्रदान कर दी गयी और भारत ने उसका विरोध नहीं किया । 17 दिसम्बर, 1985 को प्रधानमन्त्री राजीव गांधी और राष्ट्रपति जिया उल हक के मध्य एक छ: सूत्री समझौता हुआ जिसमें तय किया गया कि वे एक-दूसरे के परमाणु ठिकानों पर हमला नहीं करेंगे । 10 जनवरी, 1986 को भारत और पाकिस्तान के आपसी आर्थिक सम्बन्धों में एक नये युग की शुरुआत हुई ।
दोनों देशों के बीच मुक्त व्यापार पुन: शुरू करने के अलावा सार्वजनिक क्षेत्र के व्यापार को दुगना करने, दोनों देशों के बीच सीधी डायल सेवा शुरू करने व वायु सेवा सुविधा बढ़ाने पर सहमति हुई । दिसम्बर 1988 में पाकिस्तान में बेनजीर भुट्टो के नेतृत्व में लोकतान्त्रिक सरकार की स्थापना हुई । बेनजीर ने भारत के साथ युद्ध-वर्जन सन्धि के प्रस्ताव को ठुकराते हुए कश्मीर समस्या सहित अन्य विवादों के निपटारे के लिए शिमला समझौते के महत्व को स्वीकार किया ।
31 दिसम्बर, 1988 को दोनों देशों के मध्य तीन समझौतों पर हस्ताक्षर हुए । इनमें सबसे महत्वपूर्ण समझौता दोनों देशों के बीच एक दूसरे के परमाणु संस्थानों पर हमला नहीं करने से सम्बद्ध है । भारत ने एक दिल्ली-लाहौर-दिल्ली बस सेवा आरम्भ करने की पहल की । इस सेवा को नियमित करने के सम्बन्ध में 17 फरवरी, 1999 को इस्लामाबाद में एक करार और एक प्रोटोकोल सम्पन्न किया गया ।
भारत के प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने फरवरी 1999 में दिल्ली-लाहौर-दिल्ली बस सेवा के उद्घाटन अवसर पर लाहौर की यात्रा करके ऐतिहासिक पहल की । दोनों देशों के प्रधानमत्रियों ने लाहौर घोषणा पर हस्ताक्षर किए जो दोनों देशों की शान्ति और सुरक्षा के लिए एक युगान्तकारी घटना है ।
लाहौर घोषणा के मुख्य बिन्दु:
i. सभी प्रकार के आतंकवाद की निन्दा एवं इससे लड़ने की प्रतिबद्धता ।
ii. कश्मीर समस्या के समाधान के लिए द्विपक्षीय नियमित वार्ता ।
iii. शिमला समझौते को मूर्त रूप देने के प्रति वचनबद्ध रहना ।
iv. परमाणु टकराव का खतरा न्यूनतम करने पर सहमति ।
v. भविष्य में परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाने पर विशेष जोर ।
iv. आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना ।
v. प्रक्षेपास्त्र-परीक्षणों की सूचनाओं का परस्पर आदान-प्रदान करना ।
vi. बीसा एवं यात्रा सम्बन्धी प्रावधानों का सरलीकरण ।
vii. मानवाधिकार से सम्बद्ध मुद्दों के निपटारे के लिए मन्त्रिस्तरीय समिति बनाने की मंशा ।
Essay # 4. भारत-पाक सम्बन्ध: करगिल संघर्ष और उसके बाद:
कुलदीप नैय्यर के अनुसार आज भी भारत और पाकिस्तान ‘दूर के पड़ोसी’ हैं । पाकिस्तानी प्रेस भारत विरोधी प्रचार में निरन्तर लगा रहता है । द्वि-पक्षीय मुद्दों को पाकिस्तान अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर उछालता रहता है और अमरीका से सैनिक सामान घातक एफ-16 विमान, हार्फ़ून नामक जहाज आदि खरीद रहा है ।
इन दिनों लद्दाख क्षेत्र में सियाचिन ग्लेशियर के मामले को लेकर चलने वाला संघर्ष भी दोनों ओर कटुता को ही बढ़ावा दे रहा है । पिछले पांच-छ: वर्षों में इस विवाद को लेकर दोनों देशों की सेनाओं के बीच भी कई छोटी-बड़ी झड़पें हो चुकी हैं । भारत में अस्थिरता पैदा करने के लिए पाकिस्तान सिख तथा जम्मू-कश्मीर के आतंकवादियों को प्रेरणा सहायता और प्रशिक्षण दे रहा है ।
नवम्बर 1986 में पाकिस्तान ने सैनिक अभ्यास के बहाने भारत से लगी सीमा पर भारी संख्या में सेना को तैनात कर दिया था । इसके परिणामस्वरूप दोनों देशों में तनाव के हालात पैदा हो गये । सौभाग्य से दोनों देशों के विदेश सचिवों के मध्य 5 दिन की बातचीत के बाद 4 फरवरी, 1987 को एक समझौता हो गया और युद्ध का खतरा टल गया ।
28 मई, 1990 को भारत ने विश्वास पैदा करने का एक मुश्त प्रस्ताव पेश किया जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ पाकिस्तान से आतंकवादियों को अपना समर्थन बंद करने शस और आतंकवादियों को पकडूने आतंकवादियों को पारगमन सुविधाएं न दिए जाने और कानून से बचकर भागे लोगों को पकड़कर सौंपने की मांग की गई थी ।
भारत के प्रस्ताव के अनुसरण में विदेश सचिव स्तर की वार्ताओं के तीन दौर हुए । दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच हॉट लाइन स्थापित की गई । 19 अगस्त, 1992 को भारत व पाकिस्तान के बीच विदेश सचिव स्तरीय बातचीत के छठे दौर की वार्ता के अन्त में दोनों देशों ने रासायनिक शस्त्रों पर पूर्ण प्रतिबन्ध तथा दोनों देशों के राजनयिकों की आचार संहिता सम्बन्धी एक संयुक्त घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किये ।
मई 1992 में इस्लामाबाद में भारतीय राजनयिक राजेश मित्तल के अपहरण उन्हें शारीरिक यातनाएं देने व निष्कासन की पाक कार्यवाही के बाद दोनों देशों में होने वाली विदेश सचिव-स्तरीय वार्ता स्थगित कर दी गयी ।
17 मार्च, 1994 को पाकिस्तान ने बिना किसी न्यायसंगत कारण के एकतरफा निर्णय लेकर मुम्बई स्थित अपने कोंसलावास को बन्द करने की घोषणा कर दी । इसके बाद 26 दिसम्बर, 1994 को पाकिस्तान ने भारत से कहा कि वह अपना कराची स्थित प्रधान कोसलावास बन्द कर दे । इससे दोनों देशों के सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न हुई है ।
पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली द्वारा अयोध्या विवाद पर प्रस्ताव पारित करना, गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन में पाकिस्तान द्वारा कश्मीर के मुद्दे को उठाने का प्रयास और पाकिस्तान के कई राजनीतिक युपों और सीमावर्ती संगठनों द्वारा 24 अक्टूबर, 1992 को सीमा पार कर कश्मीर में घुसने का कथित निर्णय भारत-पाक सम्बन्धों के अधोगामी होने का अशुभ संकेत है ।
6 अप्रैल, 1998 को पाकिस्तान ने गौरी नामक एक बैलिस्टिक मिसाइल का सफल परीक्षण करने की घोषणा की । पाकिस्तान ने यह भी घोषित किया कि उसने 28-30 मई 1998 को छह परमाणु परीक्षण किए थे । यह कहा गया कि ये परीक्षण मई 1998 के आरम्भ में भारत द्वारा किए गए परमाणु परीक्षणों की प्रतिक्रिया में किए गए थे ।
मई 1999 में जम्मू-कश्मीर के करगिल क्षेत्र में घुसपैठिए भेजकर पाकिस्तान ने नियंत्रन रेखा का उल्लंघन किया । इन घुसपैठियों ने पूर्व निर्धारित योजना के अन्तर्गत 9 मई को हमला करते हुए भारतीय सेना के आयुध भण्डार को क्षतिग्रस्त कर दिया तथा क्षेत्र के विभिन्न स्थानों पर अपना अधिकार जमा लिया ।
भारतीय सेना ने 434 किमी लम्बे श्रीनगर-लेह राष्ट्रीय राजमार्ग का सम्पर्क तोड़ने के इन घुसपैठियों के प्रयास को विफल कर दिया । भारतीय क्षेत्र से सेना समर्थित घुसपैठिए हटाने एवं नियन्त्रण रेखा का सम्मान करने के लिए पाकिस्तान पर जबरदस्त अन्तर्राष्ट्रीय दबाव पड़ने लगा ।
भारतीय सेना की भारी सफलता और जबरदस्त अन्तर्राष्ट्रीय दबाव के चलते पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ ने 5 जुलाई, 1999 की अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को आश्वासन दिया कि वे भारतीय भूमि से पाकिस्तानी सैनिकों और मुजाहिदीन को वापस बुला लेंगे तथा नियन्त्रण रेखा का पूरी तरह सम्मान करेंगे ।
जम्मू-कश्मीर के करगिल-द्रास-बटालिक व मश्कोह क्षेत्रों से पाकिस्तानी सेना व उनके द्वारा समर्थित घुसपैठियों को नियन्त्रण रेखा (LOC) के उस पार धकेलने में भारतीय सेना को ऐतिहासिक विजय प्राप्त हुई । भारतीय सेना के साथ-साथ भारी अन्तर्राष्ट्रीय दबाव के आगे पाकिस्तानी घुसपैठियों को अन्तत: घुटने टेकने को मजबूर होना पड़ा ।
घुसपैठियों के विरुद्ध 8 मई, 1999 से प्रारम्भ हुई भारतीय सेना की आक्रामक कार्यवाही को 11 जुलाई, 1999 को उस समय रोक दिया गया जब भारत व पाकिस्तान के सैन्य संचालन निदेशकों ने अटारी में बातचीत करके घुसपैठियों एवं पाकिस्तानी सेना की वापसी की समय सीमा निर्धारित कर दी थी ।
पाकिस्तानी सेना की वापसी के पीछे पाकिस्तान पर व्यापक अन्तर्राष्ट्रीय दबाव की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है । पाकिस्तान के प्रबल मित्र कहे जाने वाले अमेरिका व चीन ने भी इस मामले में उसका साथ नहीं दिया ।
एक नाटकीय घटनाक्रम के अन्तर्गत 12 अक्टूबर, 1999 को पाकिस्तान के थलसेना अध्यक्ष जनरल परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ सरकार का तख्ता पलटकर स्वयं को देश का मुख्य अधिशासी घोषित कर दिया ।
मुशर्रफ का यह वक्तव्य गौर करने लायक है कि- ”दक्षिण एशिया में कश्मीर मसले पर परमाणु हथियारों का इस्तेमाल सम्भव है ।”
आई सी 814 का अपहरण:
24 दिसम्बर, 1999 को पांच व्यक्ति इंडियन एअर लाइन्स के विमान का अपहरण कर कंधार ले गए । सरकार तीन आतंकवादियों जिनमें एक पाकिस्तानी राष्ट्रिक भी था के बदले में विमान यात्रियों कर्मीदल और विमान की सुरक्षित वापसी में सफल हुई ।
यह अपहरण अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद का सबसे घिनौना उदाहरण है । इस बात के स्पष्ट साक्ष्य हैं कि यह योजना पाकिस्तान तथा उन कट्टरवादी समूहों की है जो पाकिस्तान में रह रहे हैं और यह उसके कमाण्ड तथा नियंत्रण से बाहर हैं । अपहरणकर्ताओं की पहचान करने पर पता लगा कि वे सभी पाकिस्तानी हैं ।
आगरा शिखर वार्ता:
प्रधानमन्त्री वाजपेयी के निमन्त्रण पर भारत-पाक शिखर वार्ता के लिए पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ 14 जुलाई, 2001 को तीन दिवसीय यात्रा के लिए नई दिल्ली पहुंचे । आगरा में सम्पन्न शिखर वार्ता को 16 जुलाई की रात चार दौर पूरे होने के बाद तब झटका लगा जबकि घोषणा-पत्र पर सहमति के बिना राष्ट्रपति मुशर्रफ इस्लामाबाद रवाना हो गए । संयुक्त घोषणा-पत्र में कश्मीर को मुख्य मुद्दे के रूप में शामिल करने के सवाल पर दोनों पक्षों में गतिरोध उभरकर आया ।
संसद भवन परिसर में आतंकी हमले:
13 दिसम्बर, 2001 को संसद भवन परिसर में आतंकी हमले से भारत एवं पाकिस्तान के सम्बन्धों में गम्भीर तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई है । हमले में पाकिस्तान समर्थित लश्कर-ए-ताइबा व जैश-ए-मोहम्मद का हाथ होने के प्रमाण मिलने के बाद भारत ने पाकिस्तान के प्रति कड़ा रुख अपनाया ।
इस सन्दर्भ में इस्लामाबाद स्थित भारतीय उच्चायुक्त विजय नाम्बियार को वापस बुलाने के अतिरिक्त नई दिल्ली व इस्लामाबाद स्थित पारस्परिक उच्चायोगों में 50 प्रतिशत कटौती करने दिल्ली-लाहौर बस सेवा व समझौता एक्सप्रेस रेलगाड़ी को बंद करने के निर्णय भारत सरकार ने किए ।
सीमा पर शान्त हुई गोलों की आग और वाजपेयी इस्लामाबाद में:
पाकिस्तान के सम्बन्ध सुधारने की दिशा में एक बार फिर अपनी ओर से पहल करते हुए 22 अक्टूबर, 2003 को भारत ने 12 सूत्री नए प्रस्तावों की घोषणा की । लोगों में मेलजोल बढ़ाना ही इन प्रस्तावों का सार है । पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री जमाली ने ईद के दिन से जम्मू-कश्मीर में नियन्त्रण रेखा पर एकतरफा संघर्ष विराम की घोषणा कर भारत से सकारात्मक जवाब देने की मंशा जताई ।
भारत ने नियन्त्रण रेखा पर संघर्ष विराम की पाक की पेशकश स्वीकार करते हुए सियाचिन क्षेत्र में भी संघर्ष विराम की पेशकश की । दिसम्बर 2003 में नई दिल्ली में दोनों देशों के अधिकारियों की नागरिक उड्डयन सम्बन्धी बातचीत शुरू होने की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति मुशर्रफ ने भारतीय विमानों को पाक वायु सीमा से उड़ने की स्वीकृति देने की घोषणा की ।
दोनों देशों के बीच 1 जनवरी, 2004 से वायु सम्पर्क खुलने पर सहमति बनी है । दोनों देशों में बस सेवा बहाल हो गई है । भारत ने उसे बढ़ाने और रेल सम्पर्क बहाल करने के साथ मुम्बई-कराची जलयान सेवा शुरू करने की पेशकश की है ।
जम्मू-कश्मीर में नियन्त्रण रेखा पर गोलाबारी बन्द रही । सीमा पर ऐसी शान्ति कई वर्षों बाद बनी । जनवरी 2004 में इस्लामाबाद में होने वाले सार्क सम्मेलन में प्रधानमन्त्री वाजपेयी ने भाग लिया । तीन दिवसीय सार्क सम्मेलन के समापन पर 6 जनवरी, 2004 को वाजपेयी एवं मुशर्रफ की मुलाकात के दौरान विदेश सचिव स्तर की वार्ता के आयोजन का निर्णय किया गया । इसी सिलसिले में 18 फरवरी, 2004 को इस्लामाबाद में सम्पन्न तीन दिवसीय विदेश सचिव स्तरीय वार्ता में शान्ति पहल के लिए तैयार ‘बुनियादी रूपरेखा’ पर सहमति बनी ।
वार्ता के महत्वपूर्ण बिन्दु इस प्रकार हैं:
a. वार्ता के बाद जारी संयुक्त बयान में समग्र वार्ता प्रक्रिया शुरू करने की घोषणा की गई जिसमें कश्मीर सहित आठ महत्वपूर्ण मुद्दों के समाधान के लिए ‘रोडमैप’ तैयार किया गया ।
b. एक पांच सूत्री एजेण्डे की घोषणा की गई, जिसके तहत सियाचिन, तुलबुल परियोजना, सर क्रीक, आतंकवाद और मादक पदार्थों की तस्करी तथा आर्थिक-वाणिज्यिक सहयोग सहित विभिन्न क्षेत्रों में मैत्रीपूर्ण आदान-प्रदान के प्रोत्साहन हेतु जुलाई 2004 में वार्ता होगी ।
c. इस वार्ता से पूर्व मई 2004 में परमाणु विश्वास बहाली के उपायों पर विशेषज्ञ स्तर की तथा जून 2004 में मादक पदार्थों और अन्य वस्तुओं की तस्करी के बारे में वार्ता होगी ।
d. पाकिस्तानी रेंजर के महानिदेशक और सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक के मध्य मार्च-अप्रैल में सीमा प्रबन्धन और घुसपैठ एवं तस्करी रोकने पर वार्ता होगी ।
e. दोनों देशों के विदेश मन्त्रियों द्वारा अगस्त 2004 में मुलाकात करके इस दिशा में हुई समग्र प्रगति की समीक्षा की जाएगी ।
क्रिकेट कूटनीति और राष्ट्रपति मुशर्रफ दिल्ली में (अप्रैल 2005):
क्रिकेट के बहाने भारत आए (16-18 अप्रैल, 2005) पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के तेवर इस बार बदले हुए से लग रहे थे । मुशर्रफ ने तीन दिन के तूफानी दौरे में भारत के साथ कश्मीर मसले पर असहमति के बावजूद दोनों देशों के बीच सम्बन्ध सुधारने और विश्वास बहाल करने के विभिन्न उपायों को लागू करने की मंशा जताई ।
18 अप्रैल, 2005 को दिल्ली के हैदराबाद हाउस में प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह तथा राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने साझा बयान में घोषणा की कि शान्ति प्रक्रिया को ”अब वापस नहीं मोड़ा जा सकता और आतंकवाद को शान्ति प्रक्रिया की राह में आड़े नहीं आने दिया जाएगा ।” मनमोहन सिंह और परवेज मुशर्रफ की बातचीत में कुछ ऐसे ठोस मुद्दों पर प्रगति हुई जिन पर पहले दोनों देशों ने अडियल रुख अपना रखा था ।
ये मुद्दे हैं:
1. जम्मू-कश्मीर:
पाकिस्तान सीमा पर बंदिशों में ढील देने (सॉफ्ट बॉर्डर) और श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस सेवा के फेरे बढ़ाने पर सहमत ।
2. आतंकबाद:
पाकिस्तान ने कहा कि आतंकवाद को शान्ति प्रक्रिया में बाधा नहीं पहुंचाने देगा ।
3. व्यापार:
संयुक्त आर्थिक आयोग गठित करने पर सहमति संयुक्त व्यापार परिषद की जल्द बैठक ।
4. वाणिज्य दूताबास:
मुम्बई और कराची में वर्ष के अन्त तक वाणिज्य दूतावास खोलना ।
5. नियन्त्रण रेखा:
740 किमी लम्बी विभाजन रेखा को लचीला बनाने, श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस सेवा बढ़ाने और कश्मीर के दोनों भागों के बीच व्यापार बढ़ाने के लिए ट्रकों को वहां आने-जाने पर सहमति ।
6. खोखरापार-मुनाबाओ रेल सम्पर्क:
इससे राजस्थान और सिंध एक-दूसरे से जुड़ गये । पहले यह मामला ठण्डे बस्ते में पड़ा हुआ था, मुशर्रफ के वादे के अनुसार दिसम्बर 2005 तक यह योजना पूरी की गयी ।
7. सियाचिन:
दोनों नेता विश्व के इस सबसे ऊंचे समरक्षेत्र के मुद्दे को जल्दी सुलझाने पर सहमत; पाक चाहता है कि भारत यहां से हट जाए पर भारत ग्लेशियर में अपने कब्जे वाले क्षेत्र से हटना नहीं चाहता ।
8. बगलीहार:
पाकिस्तान चाहता है कि भारत जम्मू-कश्मीर में चिनाब नदी पर 450 मेगावाट की बिजली परियोजना का निर्माण रोक दे । दोनों नेता आपसी बातचीत के जरिए इस मुद्दे को सुलझाने पर सहमत ।
भारत-पाक बढ़ता सम्पर्क:
भारत का पाकिस्तान के बीच तीसरा सड़क मार्ग 20 जनवरी, 2006 को उस समय खुल गया जब अमृतसर व लाहौर के बीच बहुप्रतीक्षित बस सेवा प्रारम्भ हो गई । अमृतसर व ननकाना साहेब के बीच बस सेवा 24 मार्च, 2006 से प्रारम्भ हुई है । अमृतसर ननकाना साहेब बस सेवा को प्रारम्भ करके भारत व पाकिस्तान ने सीमापार आने-जाने का यह छठा मार्ग खोला है ।
इसमें चार सड़क व दो रेल मार्ग हैं । इससे पूर्व दिल्ली-लाहौर के मध्य सदा-ए-सरहद तथा श्रीनगर-मुजफ्फराबाद के मध्य कारवां-ए-अमन की बस सेवाएं व लाहौर-अटारी के बीच समझौता एक्सप्रेस रेलगाड़ी प्रचालित है । अटारी-लाहौर समझौता एक्सप्रेस के बाद दूसरी रेलगाड़ी थार एक्सप्रेस का परिचालन 18 फरवरी, 2006 को हुआ ।
14 जुलाई, 2006 को मुंबई ट्रेन विस्फोटों, जिनमें 200 से ज्यादा लोग मारे गए पहली बार भारत ने शांति वार्ता शुरू होने के बाद स्पष्ट संकेत दिया कि वार्ता खतरे में पड़ गई है । ”हमें वार्ता शुरू करने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए… आतंकवाद पर सख्त रवैये और पाकिस्तान पर कूटनीतिक दबाव बढ़ाकर ऐसा किया जाना चाहिए ।” वस्तुत: मुशर्रफ ने जनवरी 2004 के अपने उस वादे को भी पूरा नहीं किया है जिसमें उन्होंने कहा था कि वे पाकिस्तान और उसकी सरजमीं को भारत के खिलाफ आतंकवाद के लिए इस्तेमाल नहीं होने देंगे ।
हवाना गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन (14-15 सितम्बर, 2006) में मनमोहन-मुशर्रफ मुलाकात के बाद यह तय किया गया कि दोनों देश संयुक्त रूप से आतंक निरोधी तंत्र विकसित करेंगे तथा साथ ही दोनों देश जल्दी ही विदेश सचिव स्तर की वार्ता फिर से शुरू करेंगे । मनमोहन ने मुशर्रफ से साफ कहा कि यदि पाक सीमा पार आतंकवाद रोकने के कदम नहीं उठाता तो भारत के लिए शांति-प्रक्रिया फिर शुरू करना मुश्किल होगा ।
आतंकवादी घटनाओं और तमाम तरह की बाधाओं के बावजूद दोनों देशों की सरकारें जिस तरह से बस और रेल सम्पर्क बहाल करने का साहस दिखा रही हैं उससे तीर्थाटन, पर्यटन, व्यापार, सांस्कृतिक आदान-प्रदान बढ़ेगा और अविश्वास की खाई अपने आप भरने लगेगी ।
दिसम्बर 2006 में राष्ट्रपति मुशर्रफ ने जम्मू-कश्मीर समस्या के समाधान के लिए एक नया चार-सूत्रीय फार्मूला पेश किया जिसे भारत ने अस्वीकार्य बतलाया । अपने चार-सूत्रीय फार्मूले में कश्मीर की सीमाओं में कोई बदलाव न करने वहां से सेनाएं हटाने दोनों देशों के संयुक्त निगरानी तंत्र के अन्तर्गत वहां स्वशासन एवं सीमाओं व नियंत्रण रेखा को अप्रासंगिक बनाने की बात मुशर्रफ ने कही । फरवरी 2007 में ही दोनों देशों ने परमाणु हथियार के दुर्घटनावश उपयोग के जोखिम में कमी लाने के समझौते पर हस्ताक्षर किए ।
27 दिसम्बर 2007, को पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या कर दी गई । इस हत्या से पाकिस्तान के आधुनिकीकरण की ताकतों को गहरा धक्का पहुंचा । 25 मार्च, 2008 को पाकिस्तान ने एक बार पुन: लोकतांत्रिक युग में उस समय प्रवेश किया जब लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित प्रधानमंत्री सैयद यूसुफ रजा गिलानी ने शासन की बागडोर संभाली ।
आम चुनावों के बाद आसिफ अली जरदारी और नवाज शरीफ ‘किंगमेकर’ के रूप में उभरे जबकि राष्ट्रपति के रूप में मुशर्रफ की हैसियत कम हुई यानी सत्ता समीकरण में भारी बदलाव आ गया । पाकिस्तान का राष्ट्रमण्डल से निलम्बन मई 2008 में समाप्त हो गया । भारत और पाकिस्तान के बीच 2010 तक गैस पाइप लाइन आरंभ करने पर सहमति के आसार बने ।
18 अगस्त, 2008 को राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ ने भारी विरोध और दबाव के बीच संसद में महाभियोग का सामना करने से पहले ही त्यागपत्र दे दिया । मुश्किल यह है कि मुशर्रफ के बाद जिन शरीफ-जरदारी पर पाक टिका है वे खुद विपरीत ध्रुव हैं ।
पाकिस्तान को यह सूचित किया गया कि 26 नवम्बर, 2008 को मुम्बई पर आतंकी हमला पाकिस्तान से आए तत्वों द्वारा किया गया । प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह की शर्म-अल-शेख में गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन (जुलाई, 2009) से इतर पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री यूसुफ रजा गिलानी के साथ भी वार्ता हुई ।
मुम्बई में 26 नवम्बर के आतंकी हमले के पश्चात् भारत व पाकिस्तान के शीर्ष नेताओं में मुलाकात का यह दूसरा अवसर था, इसके पूर्व पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के साथ डॉ. मनमोहन सिंह की वार्ता जून 2009 में रूस में येकाटेरिनबर्ग में शंघाई सहयोग संगठन (SCO) के शिखर सम्मेलन के इतर हुई थी ।
शर्म-अल-शेख में पाकिस्तानी प्रधानमन्त्री गिलानी ने भारतीय प्रधानमन्त्री को आश्वस्त किया है कि उनका देश आतंकवादियों के विरुद्ध कड़ी-से-कड़ी कार्यवाही करेगा तथा 26 नवम्बर के मुम्बई हमले के दोषियों को कटघरे में खड़ा करने के लिए हरसम्भव प्रयास करेगा ।
द्विपक्षीय वार्ता के पश्चात् जारी साझा बयान में बलूचिस्तान को भी शामिल किए जाने के कारण विपक्षी दलों ने सरकार की आलोचना की है । द्विपक्षीय वार्ता में दोनों प्रधानमन्त्रियों ने यह तय किया है कि दोनों देशों के विदेश सचिव आवश्यकतानुरूप मिलते रहेंगे तथा अपनी बातचीत के निष्कर्षों से विदेश मन्त्रियों को अवगत कराते रहेंगे ।
भारत-पाक वार्ता (अब तक):
इस्लामाबाद में संपन्न भारत पाक विदेश मंत्रियों की वार्ता (15-16 जुलाई, 2010) से जैसी उम्मीद थी परिणाम भी वैसा ही सामने आया । बातचीत को लेकर भारत सरकार भले ही कोई सार्थक परिणाम निकलने की आस लगाए बैठी हो, लेकिन देश की जनता को यह पता था कि ऐसी बातचीत से न पहले कोई हल निकला है और न ही भविष्य में निकलने वाला है ।
दोनों देशों के करोड़ों लोग भले ही अमन और भाईचारे की बात सोचते हों लेकिन पाकिस्तान के हुक्मरान कभी नहीं चाहेंगे कि दोनों देश दोस्ती की गाड़ी पर सवार हों । 16 जुलाई, 2010 को पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी संवाददाता सम्मेलन में जिस तरह भारत के खिलाफ बोले, उससे इस बात में कोई संदेह नहीं रह जाता कि पाकिस्तान बातचीत के महत्वपूर्ण मुद्दों की बजाय हमेशा उन मुद्दों को उठाने की कोशिश करता है जिनका कोई औचित्य नहीं है ।
दोनों मुल्कों के बीच आज कोई अहम् मुद्दा है तो वह है आतंकवाद । जिस आतंकवाद से भारत वर्षों से झुलसता आ रहा है, वही आतंकवाद आज पाकिस्तान को भी अपने आगोश में ले चुका है । पाकिस्तान आए दिन अपने यहां होने वाले धमाकों में मरते लोगों की चिंता छोड़कर बातचीत में अगर फिर कश्मीर का राग अलापता है तो समझ लेना चाहिए कि वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आना चाहता ।
यदि पाकिस्तान को अपने यहां होने वाली तबाही से ज्यादा चिंता कश्मीर को लेकर है तो साफ है कि वह विश्व को सिर्फ यह दिखाने की नाकाम कोशिश कर रहा है कि वह बातचीत के द्वारा समस्याओं को सुलझाना चाहता है ।
ऐसा नहीं हो सकता कि पाकिस्तान हाफिज सईद और दाऊद इब्राहीम जैसे भारत के दुश्मनों को पनाह भी देता रहे और अमन की दुआ भी करे । आगरा में शिखर वार्ता रही हो या लाहौर की बातचीत ऐन मौके पर पाकिस्तान अपना रंग दिखाकर बातचीत को सार्थक अंजाम तक पहुंचने ही नहीं देता । अब भारत सरकार को तय करना है कि वह पाकिस्तान के साथ ऐसी बातचीत करना चाहेगी या नहीं ।
मई, 2013 के चुनाव में पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ को प्राप्त मजबूत जनादेश के पश्चात् प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने बधाई पत्र में पाकिस्तान की नई सरकार के साथ द्विपक्षीय सम्बन्धों के नए अध्याय लिखने हेतु कार्य करने की इच्छा व्यक्त की ।
प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 29 सितम्बर, 2013 को न्यूयॉर्क में यूएनजीए के दौरान पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ के साथ मुलाकात की । भारत के विरुद्ध लगातार जारी आतंकवाद के मुद्दे को उठाने के अतिरिक्त प्रधानमन्त्री ने मुम्बई हमले के सभी अपराधियों पर शीघ्र न्यायिक कार्यवाही करने की आवश्यकता पर जोर दिया ।
2012-13 औपचारिक रूप से आकलित भारत-पाकिस्तान द्विपक्षीय व्यापार 2.3 बिलियन अमेरिका डॉलर (पाकिस्तान को भारत का निर्यात 1.84 बिलियन अमेरिकी डॉलर तथा पाकिस्तान से आयात 513 मिलियन अमेरिकी डॉलर) था । भारत को पाकिस्तान का निर्यात इस अवधि के दौरान पहली बार 500 मिलियन डॉलर के कड़े को पार कर गया ।
26 मई, 2014 को प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ को आमन्त्रित किया था जिससे लगा कि दोनों देशों में बातचीत एवं वार्ताओं का सिलसिला शुरू होगा किन्तु पाकिस्तानी हाई कमिश्नर द्वारा अलगाववादी हुर्रियत नेताओं से मुलाकात के बाद 25 अगस्त, 2014 को इस्लामाबाद में होने वाली विदेश सचिव स्तर की बातचीत को भारत ने रोक दिया ।
शान्ति के नये अध्याय की शुरुआत:
अटकलों के बीच 8-9 दिसम्बर, 2015 को भारत की विदेशमन्त्री सुषमा स्वराज ने ‘हार्ट ऑफ एशिया’ सम्मेलन में भाग लेने हेतु पाकिस्तान की यात्रा की । वहां उन्होंने प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ और उनके सलाहकार सर ताज से भेंट की जिससे दोनों देशों में आपसी वार्ता के द्वार खुले ।
उसके बाद विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज ने राज्यसभा में कहा कि भारत-पाकिस्तान के बीच बातचीत से समूचे क्षेत्र में शान्ति और विकास का नया अध्याय शुरू होगा । उन्होंने कहा कि पाकिस्तान के साथ इस नवीन बातचीत के दो उद्देश्य हैं । पहला चिन्ता के विषयों पर रचनात्मक बातचीत के द्वारा समस्याओं का निराकरण करना और सहयोगात्मक सम्बन्धों को स्थापित करना ।
दूसरा, व्यापार और आपसी सम्पर्क की नई पहलों के माध्यम से समूचे क्षेत्र का कल्याण हो सकता है । सुषमा ने कहा कि अगले वर्ष (2016 में) की शुरुआत में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी पाकिस्तान की यात्रा पर जाएंगे । वे वहां सार्क शिखर सम्मेलन में भाग लेंगे । दोनों देशों के बीच शान्ति सुरक्षा जम्मू-कश्मीर समेत तमाम मुद्दों पर बातचीत होगी ।
पाकिस्तान के भीतर के हालात चिन्ताजनक हैं । देश में एक कमजोर सरकार है, जिसके नेता अनुभवहीन और जबान पलटनेवाले हैं । हमारे इस महत्वपूर्ण पड़ोस में लोकतन्त्र की नींव कभी ठीक से जम ही नहीं पाई है । वहां की सेना में 80 प्रतिशत पंजाबी रहते हैं ।
यही हाल आईएसआई का है जो अक्सर अमेरिका की सीआईए की तर्ज पर काम करने लगती है । बलूचिस्तान के लोग बहुत नाराज हैं तो शिध में बेचैनी है उत्तर-पश्चिमी सीमान्त उबल रहा है । आज पाकिस्तान अन्तर्राष्ट्रीय मैचों से खुद के आतंकवाद से त्रस्त होने का रोना रोता है । जबकि वास्तविकता यह है कि भारत को हजार घाव देने के मंसूबों से उसने जिन जिहादियों को तैयार किया था वही आज उसके लिए भस्मासुर साबित हो रहे हैं पाकिस्तान यदि आज एक अस्थिर राष्ट्र है तो उसकी जिम्मेदार उसकी जिहादी नीतियां हैं ।
अफगानिस्तान एक राजनीतिक कड़ाहा है वहा तालिबानियों का कानून चलता है आतंकवादी वहां खुला खेल खेल रहे हैं और अल-कायदा फल-फूल रहा है । अफगान सरकार की हुकूमत काबुल से बाहर नहीं चलती । नाटो सेनाओं को पसन्द नहीं किया जाता । अर्थव्यवस्था मुख्यत: नशे के गैरकानूनी कारोबार पर चल रही है ।
पाकिस्तानियों और अफगानों के बीच भाईचारा बना हुआ है । पाकिस्तान इस वक्त डिप्लोमेसी के फ्रंटफुट पर है । अगर हम इस समय की एशियाई कूटनीति पर नजर डालें तो पिछले कुछ समय में पाकिस्तान जियोपोलिटिकल रूप से काफी मजबूत दिखता है ।
a. चीन से उसकी नजदीकी जगजाहिर है । वर्ष 2015 में चीन ने ही संयुक्त राष्ट्र में लखवी पर प्रस्ताव को वीटो किया था ।
b. हाल ही में चीन में ही 46 अरब डॉलर की परियोजना पर भी हस्ताक्षर किए हैं जो पाक अधिकृत कश्मीर से होकर गुजरेगी । ये परियोजना पाकिस्तान का रंग रूप बदल सकती है ।
c. भारत का पुराना मित्र रूस भी पाकिस्तान के नजदीक आ रहा है ।
d. अफगानिस्तान में अशरफ घनी के राष्ट्रपति बनाने के बाद से ही पाकिस्तान की स्थिति वहां मजबूत हुई है ।
e. अमेरिका द्वारा उसे दी जाने वाली आर्थिक मदद भी लगातार जारी है । सभी जानते हैं कि इसका इस्तेमाल भारत विरोधी गतिविधियों के लिए होता रहा है ।
दरअसल पाकिस्तान एक ऐसा मोहरा बन चुका है जिसे सभी अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं और पाकिस्तान उन्हें सिर्फ भारत के खिलाफ इस्तेमाल करना चाहता है । बावजूद भारत सरकार ने पिछले कुछ समय में ऐसे महत्वपूर्ण कूटनीतिक निर्णय लिए हैं जो दूरगामी निर्णयों के तौर पर भारत को लाभ पहुंचाएंगे ।
ऊफा में जारी संयुक्त बयान में कश्मीर का जिक्र भी न होना एक कूटनीतिक जीत के तौर पर देखा जा सकता है । अब जब ईरान परमाणु सन्धि हो चुकी है तब ईरान से आर्थिक प्रतिबंध हटने की सूरत में भारत सबसे ज्यादा लाभ पाने वाले देशों में से एक होगा ।
ईरान में ही भारत द्वारा बनाया जाने वाले छाबर पोर्ट ईरान और मध्य एशिया में भारत के लिए नए आर्थिक द्वार खोलेगा । छाबर पोर्ट के महत्व को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी की मध्य एशिया के पांच देशों का दौरा महत्वपूर्ण हो जाता है ।
ADVERTISEMENTS:
इन देशों से अच्छे सम्बन्ध होने की सूरत में छाबर पोर्ट भारत को एक समुद्री रास्ता देगा । अपने पड़ोस में भारत की इतनी पैठ शायद ही पाकिस्तान को पसन्द आए । लैण्ड बाउण्ड्री समझौता होने के बाद बांग्लादेश (1971 के युद्ध के पहले पूर्वी पाकिस्तान) के साथ सम्बन्धों को भी एक नई दिशा मिलेगी ।
भारत-पाक सम्बन्धों में भले ही बातचीत को महत्वपूर्ण बताया जाता हो पर इस बातचीत से आजतक कुछ ठोस बाहर निकलकर नहीं आया है । बातचीत द्वारा ही निकले शिमला और लाहौर समझौतों को दोनों देशों में से कोई भी नहीं मनाता है ।
जब तक दोनों देशों में धर्म और कट्टरता नहीं कम होती बातचीत से कुछ खास हासिल नहीं होगा । साथ ही पाकिस्तान में चल रही समानान्तर सरकारें (सेना, आईएसआई, कट्टरपंथी) भी इस राह में हमेशा से बड़ी अवरोधक रही हैं ।
भारत से पाकिस्तान को निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में चीनी, कपास, रसायन प्रमुख हैं । भारत चाय का अग्रणी निर्यातक है और पाकिस्तान सबसे बड़ा आयातक । दोनों के पड़ोसी होने के बावजूद पाकिस्तान अपनी जरूरत की मात्र 6 प्रतिशत चाय ही भारत से आयात करता है । पाकिस्तान अपनी गेहूं जरूरतों को ऑस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना से आयात कर पूरी करता है, जबकि भारत में गेहूं के भण्डार भरे पड़े हैं और वह अपने गेहूं के लिए विश्व भर में बाजार छू रहा है ।
यदि पाकिस्तान, पंजाब व हरियाणा से गेहूं मंगाए तो उसे कम खर्च में गेहूं मिल जाएगा । इसी प्रकार बेहतर गुणवत्ता और कम कीमतों के चलते भारत का कपास पाकिस्तान में स्थान बना सकता है । फिर पंजाब से सड़क मार्ग खुलने से पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान और रूस को भेजे जाने वाले उत्पाद 12 से 14 दिनों में पहुंच जाएंगे जो अभी 30 से 40 दिनों में पहुंचते हैं ।