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Here is an essay on ‘International Morality’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘International Morality’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on International Morality
Essay Contents:
- अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता से अभिप्राय (Meaning of International Morality)
- ‘वैयक्तिक’ और ‘राज्य’ नैतिकता के मध्य अन्तर (Differences between Individual and State Morality)
- अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता: यथार्थवादी दृष्टिकोण (International Morality: Realist Approach)
- अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता का संरक्षण (Sanctions of International Morality)
- अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता: कतिपय प्रचलित नियम (International Morality: Certain Rules)
Essay # 1. अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता से अभिप्राय (Meaning of International Morality):
नैतिकता से अभिप्राय है: औचित्य व अनौचित्य तथा अच्छाई व बुराई पर विचार करते हुए आचरण करना । अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता से तात्पर्य है कि, राष्ट्र कतिपय नैतिक मूल्यों का पालन करते हुए इस जगत में वही कार्य करे जो करने योग्य (उचित) हों ।
वस्तुत: अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता उन मानदण्डों एवं मूल्यों का संकलन है, जिनका दूसरे राष्ट्रों से व्यवहार करते समय पालन करना राष्ट्र एवं अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय अपरिहार्य समझते हैं । नैतिकता कतिपय मूल्यों का संग्रह है । मनोवैज्ञानिकों ने मूल्यों को ‘दृष्टिकोण’ तथा ‘अभिलाषाएं’ बताया है ।
‘अच्छाई’, ‘सच्चाई’ तथा ‘यथार्थ’ क्या है, इसका निर्णयकर्ता स्वयं व्यक्ति और उसकी अन्तरात्मा है । इसके विपरीत समाजशास्त्री कहते हैं कि ‘जिसे सभी अच्छा कहा जाना चाहिए’ । इस रूप में ‘अच्छाई’ का निर्धारण परम्परा विचार तथा पुरातन मान्यताओं से होता है ।
नैतिकता के बारे में मनोवैज्ञानिक विचार का उदय यूनान के सोफिस्टों की खोज है जिसे आगे चलकर हॉब्स, बेन्थम तथा ब्रिटिश उपयोगितावादियों ने भी अपना लिया । इसके विपरीत, समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण अनुदारवादी विचारकों की खोज है । नैतिक मूल्यों के बारे में वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह है कि- ”जो भी अपरिहार्य है उसे स्वीकार किया जाना चाहिए ।”
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”अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता से अभिप्राय हैं- अन्तर्राष्ट्रीय मानदण्डों और मूल्यों का वह संग्रह जिसे राज्य आपसी व्यवहार में पालन करना अनिवार्य समझते हों । ये मूल्य और मानदण्ड (values and norms) चाहे राष्ट्रों की ‘इच्छाएं’ और ‘अभिलाषाएं’ हों अथवा चाहे सामाजिक परम्परा और रूढ़ि पर आधारित हों । यथार्थ में ये मानदण्ड और मूल्य विज्ञान और तकनीकी विकास से अनवरत प्रभावित रहे हैं और लगातार बदलते भी रहे हैं ।”
किन्तु सही मायने में ये मानदण्ड किसी दार्शनिक स्वयंभू नैतिक नियमावली से एकदम भिन्न हैं । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में नैतिकता की भूमिका पर विचार करते समय असली प्रश्न यथार्थवादी और आदर्शवाद दृष्टिकोण के अन्तर का ही हमारे सामने उपस्थित होता है ।
आदर्शवाद उन आदर्शों (मूल्यों) पर खड़ा है जो दार्शनिक दृष्टि से पुष्ट हैं और प्राथमिक महत्व के हैं जबकि यथार्थवाद शक्ति की प्रधानता मानकर चलता है और वह शक्ति को एक आदर्श की गरिमा से मण्डित भी कर देता है ।
वस्तुत: सामाजिक और राजनीतिक मामलों से आदर्शों को दूर रखकर कोई भी विचार नहीं चल सकता । सच्चाई यह है कि कोई भी विज्ञान अपने आदर्शमूलक पहलू के बिना जीवित नहीं रह सकता । विशेषकर कोई सामाजिक विज्ञान तो आदर्शमूलक आधार के बिना बिल्कुल जीवित नहीं रह सकता ।
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अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के बारे में यह बात राइनलैण्ड नेबुर, हरबर्ट बटरफील्ड और ई. एच. कार जैसे लेखकों ने बहुत पहले महसूस की थी । अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता की संकल्पना के तीन महत्वपूर्ण पहलू हैं: एक तो यह कि राष्ट्रों को नैतिक मूल्यों के ध्येय की ओर बढ़ना चाहिए ।
इस बात के विरुद्ध बेशक यह कहा जा सकता है कि अस्तित्व को खतरे में डालकर नैतिक मूल्यों के ध्येय की ओर बढ़ना वांछनीय नहीं हो सकता है । पर कम से कम अपने घरेलू क्षेत्र में राष्ट्र नैतिक मूल्यों पर चल सकते हैं और इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और व्यवस्था में अपना योगदान कर सकते हैं ।
अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता की संकल्पना का दूसरा पहलू है राष्ट्रीय हितों की पारस्परिकता । राष्ट्रों को अपने हितों में समायोजन या तालमेल पैदा करने के उपाय तलाश करने चाहिए । सच पूछिए तो राष्ट्रीय हितों का मेल अस्तित्व रक्षा की सबसे बड़ी गारण्टी है । गांधीजी ने जब यह कहा कि एक राष्ट्र के हित का मानवजाति के बृहत्तर हित के साथ मेल बैठाया जा सकता है तब उनका यही अभिप्राय था ।
इसी प्रकार जब क्वेकर लोग (एक शान्तिवादी ईसाई सम्प्रदाय) यह कहते हैं कि किसी राष्ट्र की विदेश नीति को अन्य राष्ट्रों के महत्वपूर्ण हितों का भी ध्यान रखना चाहिए तब उनका भी यही अभिप्राय होता है । अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता के तीसरे पहलू में अत्याचार का विरोध जैसे सिद्धान्त आते हैं ।
वास्तव में, अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता का दूसरा और तीसरा पहलू पहले पहलू से अधिक महत्वपूर्ण है । कारण यह है कि जहां दूसरा पहलू एक आदर्श है और तीसरा एक साधन है वहा पहला पहलू एक अपूर्ण स्थिति मात्र है ।
Essay # 2. ‘वैयक्तिक’ और ‘राज्य’ नैतिकता के मध्य अन्तर (Differences between Individual and State Morality):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विद्यार्थी के सामने यह समस्या है कि, क्या व्यक्तिवादी आचरण को निर्धारित करने वाली नैतिकता की अवधारणा राज्यों के आचरण-व्यवहार को भी निर्धारित कर सकती है ? एक तरफ काण्ट, जेफरसन और हूल विल्सन जैसे अतिवादी लेखक हैं जिनके मतानुसार व्यक्तिवादी और अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता के मानदण्ड एकसमान है ।
दूसरी तरफ मैकियावेली तथा हॉब्स जैसे लेखक हैं जो अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता के अस्तित्व की ही स्वीकार नहीं करते । यद्यपि अधिकतर लेखक और विचारक अन्तराष्ट्रीय नैतिकता के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं तथापि वे वैयक्तिक और अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता में अन्तर करते हैं और इस विषय पर मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हैं ।
नैतिकता प्राय: सही व्यवहार को माना जाता है किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार में ‘सही व्यवहार’ क्या है यह जानना कठिन है । व्यक्ति चाहे सामान्य व्यक्ति की हैसियत से कार्य करे अथवा राजनेता के रूप में कतिपय नैतिक नियमों का अवश्य पालन करता है और सैद्धान्तिक दृष्टि से इन नैतिक नियमों की मर्यादा में अन्तर नहीं करता, किन्तु व्यवहार में व्यक्ति से सम्बन्धित और राज्य से सम्बन्धित नैतिक नियमों में अन्तर किया जाता है ।
उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति राजनेता के रूप में कार्य करता है तो राज्य के अस्तित्व की आवश्यकता के आधार पर कतिपय नैतिक नियमों से वह छूट पाना चाहेगा ऐसी छूट जो कि वैयक्तिक हैसियत से वे कदापि प्राप्त नहीं कर सकता ।
आम आदमी राज्य से कतिपय परिस्थितियों में विशेष क्रिया की अपेक्षा करता है जबकि ऐसा ही कार्य कोई व्यक्ति करे तो उसे ‘बुरा माना जाता है । कलह की इच्छा (Pugnacity) तथा अपने अधिकारों के लिए (Self-assertion) जैसे कार्य व्यक्ति के सन्दर्भ में माने जाते हैं जबकि राज्यों के परिपेक्ष में इसे आवश्यक गुण माना जाता है ।
इसी प्रकार कानून को अपने हाथ में लेना चोरी और हत्या करना व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य में बुरा माना जाता है जबकि ऐसे ही कार्य किसी राष्ट्र के लिए अथवा राज्य द्वारा किए जाएं तो उन्हें गुण मान लिया जाता है । कैवूर के शब्दों में- ”जो कुछ हमें इटली के लिए करना चाहिए, उसे यदि हम अपने लिए करते हैं तो हम महानतम् धूर्त हैं ।”
Essay # 3. अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता: यथार्थवादी दृष्टिकोण (International Morality: Realist Approach):
अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता के मुद्दे पर यथार्थवादी विचारकों के दृष्टिकोण बड़े स्पष्ट हैं । मैकियावेली तथा हीब्स का अनुसरण करते हुए ये यथार्थवादी यह मानते हैं कि राजनीतिक कार्यों पर नैतिक दृष्टि से विचार नहीं किया जा सकता । (Moral issues are quite irrelevant to political action) ।
चूंकि राज्यों के व्यवहार को संचालित करने वाले सार्वभौमिक नैतिक नियमों का अभाव है और राजनीति अन्ततोगत्वा अनैतिक क्रिया है । (There are no universally valid moral principles relevant to the behavior of states….Politics is essentially an amoral activity), हॉब्स ने लिखा है- ”राज्य की सीमा से बाहर न तो नैतिकता का अस्तित्व है और न ही कानून का ।”
(There is neither morality nor law outside the state) राजनीति शक्ति का आश्रयस्थल है, न कि नैतिकता का । (Politics is the realism of Power, not of morals) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के यथार्थवादी विचारक न्याय, शान्ति, औचित्य जैसे नैतिक सिद्धान्तों से हमें सचेत करते हुए कहते हैं कि ‘ये नियम केवल भ्रामक धारणाएं हैं ।’
विदेश नीति के सामान्य सिद्धान्तों और ध्येयों की घोषणा में इन नियमों का उल्लेख अवश्य किया जाता है किन्तु विदेश नीति के क्रियान्वयन में इनको सदैव भुला दिया जाता है । क्या हिटलर द्वारा राइनलैण्ड पर सैनिक आधिपत्य को शान्ति के औचित्य की दुहाई देकर नहीं किया गया ?
अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में जब एक राष्ट्र कोई कदम उठाता है तो दूसरे उस कदम के औचित्य पर नैतिकता की दृष्टि से विचार करते हैं । अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नैतिकता के कुछ मापदण्ड तथा व्यवहार के कुछ नियम हैं जिनके आधार पर एक देश के व्यवहार के प्रति दूसरे देशों में प्रतिक्रिया होती है ।
विभिन्न लेखकों द्वारा इन नैतिक मान्यताओं का वर्णन किया गया है जैसे वायदों का पालन दूसरों का विश्वास उचित व्यवहार अन्तर्राष्ट्रीय विधि के प्रति सम्मान अल्पसंख्यकों की रक्षा एक राष्ट्रीय नीति के अभिकरण के रूप में युद्ध का बहिष्कार आदि । मॉरगेन्थाऊ के अनुसार, “राजमर्मज्ञों को इन्हें याद रखना चाहिए ताकि राष्ट्रों के बीच सम्बन्ध अधिक शान्तिपूर्ण तथा कम अराजक बन सकें ।”
मॉरगेन्थाऊ का मत है कि- “अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विवेचन को दो अतिवादों से बचना चाहिए”:
(i) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रभाव के अतिमूल्यन से तथा
(ii) राजनीतिज्ञों और कूटनीतिज्ञों पर भौतिक शक्ति के प्रभाव को अस्वीकार करके नैतिकता के प्रभाव के अनुमूल्यन से ।
राजमर्मज्ञों तथा राजनयज्ञों का, अपने वास्तविक प्रयोजनों की चिन्ता किए बिना अपने कार्यों एवं प्रयोजनों को नैतिक शब्दावली में उचित ठहराने का स्वभाव होता है । अतएव उन स्वार्थहीन एवं शान्तिपूर्ण अभिप्रायों मानवीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय आदर्शों के दावों को ज्यों-का-त्यों सच मान लेना समान रूप से अशुभ होगा ।
यह पूछना उचित है कि, क्या वे दावे (न्याय शान्ति औचित्य आदि) कार्यों के सही प्रयोजनों को छिपाने वाली विचारधाराएं मात्र हैं अथवा नैतिक मानकों के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों के पालन की यथार्थ चिन्ता व्यक्त करते हैं । मॉरगेन्थाऊ ने राजनीतिक यथार्थवाद के छ: सिद्धान्तों की चर्चा करते हुए चौथे सिद्धान्त में नैतिकता पर टिप्पणी की है ।
उनके दर्शन का एक तत्व यह है कि यद्यपि राजनीतिक यथार्थवाद नैतिकता के प्रति उदासीन नहीं है लेकिन फिर भी राज्य के क्रियाकलापों पर सार्वभौम नेतिक सिद्धान्तों को सार्वभौम अवधारणाओं के रूप में लागू किया नहीं जा सकता । काल, स्थान और परिस्थितियों के अनुसार नैतिक सिद्धान्तों में आवश्यक संशोधन कर लेने चाहिए ।
मॉरग्रेन्थाऊ ने नैतिकता की अपनी अलग से एक परिभाषा गढ़ ली है जिसके अन्तर्गत वह राष्ट्रहित को सबसे ऊंचा दर्जा प्रदान करते हैं । उनका कहना है कि राजनेताओं को अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं एवं सार्वलौकिक नैतिक सिद्धान्तों की अपेक्षा राष्ट्रहित की सुरक्षा पर अधिक ध्यान देना चाहिए । राष्ट्रहित की सुरक्षा करना राजनेताओं का सबसे नैतिक धर्म है ।
वस्तुत: यथार्थवादी और मैकियावेलियन विचारक यह मानते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का परिचालन शक्ति के परिप्रेक्ष्य में होता है नैतिकता के मानदण्ड व्यक्ति के लिए हैं न कि राष्ट्र राज्यों के लिए । इसके विपरीत आदर्शवादी विचारक यह मानते हैं कि व्यक्ति और राज्य दोनों पर नैतिकता की समान आचार संहिताएं लागू होती हैं ।
मध्य युग में राजा अथवा राज्य द्वारा हत्या एवं जहर देकर अपने शत्रु को हानि पहुंचाने जैसे कार्यों को नैतिक दृष्टि से जघन्य अपराध माना जाता था । 1415-1525 की अवधि में वेनिस के गणराज्य ने विदेश नीति के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु लगभग दो-सौ लोगों की हत्याओं का सहारा लिया था किन्तु आजकल ऐसे कार्यों को औचित्यपूर्ण नहीं माना जाता ।
शान्तिकाल में अनैतिक तरीकों द्वारा शत्रु के विनाश एवं संहार के कार्यों को अपराध माना जाता है । जैसे ही दो राज्यों में युद्ध समाप्त हो जाता है, शत्रु की हत्या एवं मारकाट बन्द कर दी जानी चाहिए । तेहरान सम्मेलन (द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद) में जब स्टालिन ने चर्चिल से कहा कि, जर्मनी के लगभग पचास हजार तकनीशियनों तथा सैनिकों को गोली से उड़ा दिया जाना चाहिए तो चर्चिल ने उत्तर दिया- ”ब्रिटिश संसद और लोकमत इस प्रकार के सामूहिक हत्याकाण्डों को पसन्द नहीं करेगा ।” मैं यह नहीं चाहता कि मेरी और मेरे देश की प्रतिष्ठा इस प्रकार के कुकृत्य से कलंकित हो ।
अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के समाधान में साधन के रूप में युद्ध की निन्दा सर्वत्र की जाती है किन्तु फिर भी राष्ट्रों के मध्य युद्ध होते रहते हैं परन्तु नैतिक मानदण्ड उन्हें अपने कार्यों का औचित्य सिद्ध करने के लिए बाध्य करते हैं । वे ‘युद्ध की न्यायपूर्णता’ (Just war), ‘रक्षात्मक युद्ध’ (Defensive war), आदि की चर्चा करते हैं ।
वर्षों पहले अमरीकी विदेश नीति के सन्दर्भ में इस प्रश्न पर विचार हुआ था कि, विदेश नीति का क्रियान्वयन नैतिक मान्यताओं के आधार पर होना चाहिए अथवा राष्ट्रीय हितों के परिप्रेक्ष्य में । सन् 1790 से पूर्व फ्रेंच क्रान्ति के सन्दर्भ में जेफरसन और हेमिल्टन ने एक गम्भीर बहस प्रारम्भ की कि अमरीका का क्या दृष्टिकोण होना चाहिए ? जेफरसन का मत था कि फ्रांस की सहायता करना अमरीका का दायित्व है चूंकि फ्रेको-अमरीकन गठबन्धन अभी भी अस्तित्व में है, उनका कहना था कि चाहे हमारे राष्ट्रीय हित की दृष्टि से कोई लाभ न हों तब भी हमें अपने वचनों को निभाना चाहिए ।
दूसरी तरफ हेमिल्टन का कहना था कि विदेश नीति का मार्गदर्शक हमारा राष्ट्रीय हित होता है, न कि नैतिक मान्यताएं, किन्तु वर्षों बाद राष्ट्रपति बुडरो विल्सन की मान्यता थी कि ‘यदि भौतिक हितों के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्र की विदेश नीति का संचालन होता है तो एक खतरनाक बात होगी । नैतिकता के सिद्धान्त हमारे मार्गदर्शक होने चाहिए, न कि अवसरवादिता (Expediency) ।’
भारतीय विदेश नीति के परिप्रेक्ष्य में जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति नैतिक मान्यताओं पर आधारित थी जबकि श्रीमती इन्दिरा गांधी की विदेश नीतियथार्थ राष्ट्रीय हितों पर आधारित थी । नेहरू पंचशील पर बल देते थे जबकि इन्दिरा गांधी ने शक्ति के आधार पर बंगलादेश की समस्या का निदान करने में तत्परता दिखायी तथा पोकरण में पहला आणविक विस्फोट किया ।
Essay # 4. अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता का संरक्षण (Sanctions of International Morality):
अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता का संरक्षण कहां है ? अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश में निर्णयकर्ता आचरण के अन्तर्राष्ट्रीय मानदण्डों का पालन क्यों करते हैं ? वस्तुत: उसका कारण है कि उन निर्णयकर्ताओं पर अनेक अन्तरंग और बहिरंग दबाव होते हैं ।
ये दबाव हैं:
(1) निर्णयकर्ताओं की अन्तरात्मा,
(2) लोकमत,
(3) विश्व समुदाय की भावना,
(4) अन्तर्राष्ट्रीय विधि,
(5) संयुक्त राष्ट्र संघ और उसके सामूहिक सुरक्षा सम्बन्धी प्रावधान ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में निर्णय लेने वाले अन्ततोगत्वा मनुष्य ही होते हैं । उनकी अन्तरात्मा होती है और वे अनैतिक कार्य करना न्यायोचित नहीं मानते । स्टालिन ने चर्चिल से कहा कि ‘हिटलर की सबल सेनाओं की समस्त शक्ति लगभग पचास हजार अफसरों तथा तकनीशियनों पर निर्भर थी ।
यदि युद्ध के उपरान्त इनको घेर लिया जाता तथा इन्हें गोली मार दी जाती तो जर्मनी की सैनिक शक्ति का उन्मूलन हो जाता । चर्चिल ने अत्यधिक कुद्ध होते हुए कहा- ”इसके स्थान पर कि मेरा अपना तथा मेरे देश का सम्मान ऐसी अपकीर्ति से मलिन हो, मैं अभी और यहीं स्वयं बाग में बाहर ले जाना तथा स्वयं गोली मारा जाना पसन्द करूंगा ।”
विश्व लोकमत का भी राज्यों पर दबाव रहता है, वे राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय लोकमत को अप्रसन्न करके अनैतिक कार्य करने से हिचकिचाते हैं । युद्ध और शान्तिकाल में राज्य आसानी से अन्तर्राष्ट्रीय विधि की उपेक्षा से घबराते हैं ।
आमतौर से कोई राज्य नहीं चाहता कि विदेशों में उसकी छवि (Image) पर औच आए । यही कारण था कि, ‘क्यूबा संकट’ के समय राष्ट्रपति कैनेडी ने तत्काल सैनिक शक्ति का प्रयोग करना उचित नहीं समझा । संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद को भी अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता का संरक्षक माना जाता है ।
Essay # 5. अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता: कतिपय प्रचलित नियम (International Morality: Certain Rules):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की परिभाषा स्वयं अपने राष्ट्र की शक्ति को बनाए रखने तथा बढ़ाने और दूसरे राष्ट्रों को रोकने एवं घटाने के अनवरत प्रयत्न के रूप में की जाती है । यदि हम अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को सैद्धान्तिक आधार पर किए जाने वाले कार्यों की शृंखला के रूप में देखें तो इसके नैतिकता सम्बन्धी प्रश्न उठते ही नहीं हैं । इस दृष्टि से अपने विरोधी राष्ट्रों की जनसंख्या सेनानायकों एवं कूटनीतिज्ञों का विनाश करना भी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का उचित उद्देश्य होता है ।
इन सबके बावजूद भी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में किसी न किसी प्रकार की नैतिकता अवश्य होती है । राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु अमानुषिक कार्यों को अनुचित समझा जाता है, शान्तिकाल में जन-समूह की हत्या को अनैतिक माना जाता है । अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता का यह तकाजा है कि युद्धकाल में जन-साधारण को जीवन की सुरक्षा प्रदान की जाए ।
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ऐसे साधनों से शत्रु के प्राणहरण करना वर्जित है जिनसे आवश्यक रूप से अधिक पीड़ा और कष्ट हो । हेग नियमों के अनुसार इस दृष्टि से विष का तथा अनावश्यक हानि पहुंचाने वाले जलता हुआ द्रव पदार्थ डालने वाले हथियारों, अग्नि बाणों का प्रयोग वर्जित है । शत्रु द्वारा व्यवहार में लाए जाने वाले पानी के जल स्रोतों कुओं पम्पों नदियों को विषैला नहीं बनाया जा सकता ।
योद्धाओं को धोखे से मारा या घायल नहीं किया जा सकता वध के लिए हत्यारों को किराए पर नहीं रखा जा सकता । जनता के विरुद्ध कार्यवाही केवल तभी की जानी चाहिए जबकि सत्ताधारी को सामूहिक विद्रोह की सम्भावना हो ।
जहां तक सम्भव हो सके वहां तक शस्त्रहीन नागरिकों के शरीर, सम्पत्ति और सम्मान को क्षति नहीं पहुंचानी चाहिए । सेना से सम्बन्धित सभी बीमार और घायलों का संरक्षण और देखभाल होनी चाहिए । युद्ध में अणु बमों का प्रयोग वर्जित होना चाहिए ।
निष्कर्ष:
अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता के विषय में मोटे रूप से दो धारणाएं प्रचलित हैं । यथार्थवादी विचारकों के अनुसार राष्ट्रों के परस्पर सम्बन्ध शक्ति पर आधारित होते हैं । इनमें नैतिकता को कोई स्थान प्राप्त नहीं है । इसके विपरीत आदर्शवादी विचारकों का कहना है कि- “नैतिक नियमों का मूल्य केवल व्यक्ति के लिए नहीं अपितु राष्ट्रों के लिए भी है आज की बदली हुई परिस्थितियों में अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता का महत्व निरन्तर घटता जा रहा है ।” थाम्पसन के शब्दों में- ”अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता उसी दिन समाप्त हो गयी जब शेष विश्व द्वारा स्वीकृति या अस्वीकृति के लिए राष्ट्रीय हितों को शुद्ध लक्ष्य माना गया है ।”