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Here is an essay on ‘International Organization’ especially written for school and college students in Hindi language.
आज की अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का अत्यधिक महत्व है । सम्भवत: आने वाले युग में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति सुरक्षा पारस्परिक सहयोग और जन-कल्याणकारी कार्यों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की उपयोगिता एवं महत्व और अधिक हो जाएगा ।
विश्वयुद्धों की विभीषिका, मार्क्सवाद, लेनिनवाद द्वारा उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का साम्यवादी तरीकों से खण्डन तथा विश्व श्रमिकों की एकता पर बल, राष्ट्रीयता के स्थान पर अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना की प्रगति, अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की आवश्यकताओं तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य में ‘शक्ति’ के स्थान पर अन्तर्राष्ट्रीय कानून नैतिकता और रीति-रिवाजों पर बल के फलस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का महत्व अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में बहुत बढ़ गया है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विद्वानों के उस वर्ग द्वारा जिसे स्वप्नलोकीय (utopian) कहते हैं, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संगठन पर जो आगे चलकर ‘विश्व सरकार’ के रूप में विकसित होगा, अधिक बल दिया जाता था ।
इसी प्रकार 18वीं और 19वीं शताब्दियों में उदारवादी और उपयोगितावादियों द्वारा भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था पर जब बल दिया गया तो अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की आवश्यकता को स्वीकार किया गया । यह कहा जा सकता है कि प्रजातन्त्रीय उदारवादी विचारधारा को जब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर लाया गया तो उसके परिणामस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का विकास हुआ ।
संघवादी विचारधारा ने भी जो स्वयं उदारवादी विचारधारा की उपज है अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के विकास में सहायता दी है । अत: यह कहा जा सकता है कि, अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के विकास में राजनीतिक विचारधाराओं ने एक ओर तो कल्पना को प्रोत्साहित दिया और दूसरी ओर कल्पना को मूर्त रूप देने में सहायक हुई ।
विकास (Evolution):
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की विचारधारा पश्चिमी संस्कृति की देन है जिसकी विशेषता विश्वबन्दुत्व की भावना, शान्ति और सौम्यता रही है और जिनका समावेश स्टोइकों तथा क्रिश्चियनों ने अपने दर्शन में किया है । प्रारम्भ में स्टोइकों तथा क्रिश्चियनों द्वारा यह माना गया कि पश्चिमी यूरोप (जो ईसाइयों का था) ‘राष्ट्रों का परिवार’ है जिसके कुछ अपने सिद्धान्त और नियम हैं जिनके द्वारा पश्चिमी संस्कृति सभ्यता और शान्ति स्थापित की जाती है ।
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16वीं शताब्दी में रोमन साम्राज्य के पतन के बाद अब राष्ट्रीय राज्यों का प्रादुर्भाव हुआ तो ‘परिवार’ के सदस्यों में पारस्परिक सहयोग ईसाई नैतिक नियमों पर आधारित नहीं हो सका । राष्ट्रीय हित की भावना से प्रेरित इन राज्यों में शक्ति के लिए संघर्ष होना प्रारम्भ हो गया । युद्ध राज्यों के बीच झगड़ों के निराकरण का एकमात्र साधन बन गया ।
इन परिस्थितियों में राज्यों के बीच शान्ति स्थापित करने के लिए ग्रोशियस द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय विधि का निर्माण किया गया । इसी काल में कतिपय दार्शनिक, ईसाई पादरियों, राजनीतिज्ञों तथा बुद्धिजीवियों द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सहयोग के लिए कुछ काल्पनिक योजनाएं प्रस्तुत की गयीं । दांते ने एक ‘विश्व संगठन’ की कल्पना की थी । दांते ने समकालीन दार्शनिक पियरे दुबाय द्वारा राज्यों के मध्य सहयोग स्थापना की एक योजना प्रस्तुत की गयी ।
जिसके अन्तर्गत:
(a) यूरोपीय राजाओं के संघ का निर्माण,
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(b) संघ की एक परिषद् तथा
(c) एक न्यायालय पर बल दिया गया ।
सन् 1623 में इमेरिक कुसे द्वारा चीन, फारस, इण्डीज और विश्व के दूसरे यूरोपीय शक्ति और राज्यों के मध्य सहयोग के लिए एक ‘वृहद् योजना’ प्रस्तुत की गयी । इस योजना के अन्तर्गत यूरोप को सोलह राज्यों में विभक्त कर एक सामान्य परिषद् तथा छ: क्षेत्रीय परिषदों को संगठित करना था ।
विलियम येन द्वारा यूरोप में शान्ति बनाए रखने के लिए जो योजना प्रस्तुत की गयी उसमें यूरोपीय राजाओं की एक संसद के संगठन की बात कही गयी थी । 18वीं शताब्दी में रूसो ने यूरोप में स्थायी शान्ति स्थापित करने के लिए एक संघ की कल्पना की थी जिसमें सामूहिक सुरक्षा के विचार की झलक मिलती है ।
बेन्थम विश्वशान्ति की स्थापना के लिए राज्यों के मध्य सन्धि के आधार पर निरस्त्रीकरण, उपनिवेशों की स्वतन्त्रता, मुक्त व्यापार को प्रोत्साहन तथा उन परिस्थितियों के निर्माण पर बल देता था जिनसे युद्ध न हो सके ।
शान्ति को भंग करने वाले राज्यों अथवा युद्धोन्मुख राज्यों पर नियन्त्रण लगाने के लिए एक आदेशाअक शान्ति न्यायालय के संगठन के पक्ष में थी । जर्मन दार्शनिक इमैनुअल काण्ट द्वारा यूरोपीय शान्ति के लिए एक यूरोपीय संघ की स्थापना की कल्पना की गयी थी ।
वेस्टफेलिया की सन्धि (1648); जिसके द्वारा 30-वर्षीय युद्ध की समाप्ति के बाद शान्ति की स्थापना की गयी थी, वेस्टफेलिया शान्ति-सम्मेलन की देन थी । 1815 में नेपोलियन की पराजय के बाद यूरोप में शान्ति की स्थापना तथा एक नयी यूरोपियन व्यवस्था के लिए वियेना कांग्रेस बुलायी गयी थी ।
इस सम्मेलन का अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के विकास के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण योगदान ‘कंसर्ट ऑफ यूरोप’ की स्थापना है । रूस के जार एलेक्जैण्डर द्वारा विजयी राष्ट्रों द्वारा नैतिकता के आधार पर राजनय को कार्यान्वित करने तथा समय-समय पर समस्याओं के समाधान के लिए इन राष्ट्रों की सामूहिक बैठक की व्यवस्था की गयी थी ।
इसी को ‘कंसर्ट ऑफ यूरोप’ कहा जाता है, जिसके प्रारम्भिक सदस्य इंग्लैण्ड, आस्ट्रिया प्रशा और रूस थे । बाद में, फ्रांस भी इसका सदस्य बनाया गया । यह पहला अवसर था जबकि यूरोप के इन बड़े राज्यों ने एकजुट होकर आपसी मामलों को विचार-विमर्श द्वारा सुलझाने की दिशा में एक ठोस कदम उठाया था ।
इस कंसर्ट की स्थापना से यह भी स्पष्ट था कि विश्व में शान्ति, सहयोग तथा विचारों के आदान-प्रदान के लिए राज्यों द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में एक ऐसी संस्था संगठित की जाए जिसकी बैठक हमेशा हो और जिसके सभी स्वतन्त्र राज्य सदस्य हों ।
वियेना सम्मेलन की ‘कंसर्ट ऑफ यूरोप’ की देन के बाद 1856 में क्रीमिया के युद्ध के बाद शान्ति स्थापना के लिए पेरिस सम्मेलन बुलाया गया था और 1878 में बाल्कान प्रायद्वीप की समस्या को सुलझाने के लिए तथा इस क्षेत्र में रूस के विस्तार को रोकने के लिए बर्लिन कांग्रेस बुलायी गयी थी ।
1885-86 में अफ्रीका के विभाजन को नियत्रित करने के लिए बर्लिन सम्मेलन बुलाया गया था, क्योंकि इसके कारण यूरोप के बड़े-बड़े राज्यों में वैमनस्य, स्पर्द्धा और कुरता बढ़ती जा रही थी । सन् 1840 में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर दासता विरोधी सम्मेलन बुलाया गया ।
सन् 1863 में रेडक्रॉस की अन्तर्राष्ट्रीय समिति की स्थापना की गयी थी जिसके द्वारा 1864 के जिनेवा अभिसमयों को कार्यान्वित किया गया था । 1873 में एक ‘अन्तर्राष्ट्रीय विधि संघ’ की तथा 1878 में एक ‘अन्तर्राष्ट्रीय लेखक तथा कलाकार संघ’ की स्थापना की गयी थी । 1889 में ‘अन्तर-संसदीय संघ’ की स्थापना की गयी ।
सन् 1912-13 में प्रथम बाल्कान युद्ध के बाद लन्दन सम्मेलन बुलाया गया था जिसमें शान्ति समझौता किया गया था । यह राष्ट्रसंघ की स्थापना से पूर्व अन्तिम सम्मेलन था जिसमें बहुपक्षीय वार्तालाप के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय मामले पर निर्णय लिया गया था, किन्तु ये सारे सम्मेलन स्थायी नहीं थे । ये समय-समय पर राजनीतिक मामलों को सुलझाने के लिए, युद्ध को समाप्त करने के लिए तथा शान्ति समझौते के लिए बुलाए जाते थे ।
कार्य (Functions):
अन्तर्राष्ट्रीय समाज के परिप्रेक्ष्य में अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की आवश्यकता उसके कार्यों से स्पष्ट होती है, जो इस प्रकार हैं:
(1) अन्तर्राष्ट्रीय संगठन आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक और मानवीय क्षेत्र में सद्भावना स्थापित करने का कार्य करता है ।
(2) अन्तर्राष्ट्रीय संगठन अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में शान्ति सुरक्षा बनाए रखने का प्रयास करता है ।
(3) अन्तर्राष्ट्रीय संगठन शान्ति और सुरक्षा के लिए निःशस्त्रीकरण का प्रयास करता है ।
(4) अन्तर्राष्ट्रीय संगठन राज्यों के मध्य कानूनी तथा राजनीतिक विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाने का कार्य करता है ।
(5) अन्तर्राष्ट्रीय संगठन सामाजिक, आर्थिक तथा मानवीय सामान्य समस्याओं के निराकरण के लिए कार्य करता है ।
(6) अन्तर्राष्ट्रीय संगठन अन्तर्राष्ट्रीय समाज में अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता, अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा अन्तर्राष्ट्रीय रीति-रिवाजों की मान्यता पर बल देता है तथा इनके संहिताकरण का प्रयास करता है ।
(7) अन्तर्राष्ट्रीय संगठन कभी-कभी प्रशासकीय कार्य भी करता है जैसे डेंजिंग का प्रशासन ।
(8) अन्तर्राष्ट्रीय संगठन पर्यवेक्षण एवं नियन्त्रण का कार्य भी करता है ।
(9) अन्तर्राष्ट्रीय संगठन अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों तथा समझौतों का पंजीकरण करता है तथा उसका लेखा-जोखा रखता है ।
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन इन कार्यों में विभिन्न अभिकरणों का उपयोग करता है । इनमें भी अधिकांश अभिकरणों का उपयोग अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में विभिन्न परिस्थितियों तथा विभिन्न समयों पर होता आया है ।
वर्गीकरण (Classification):
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन कई प्रकार के हो सकते हैं । इनके वर्गीकरण के सम्बन्ध में कोई निश्चित वैज्ञानिक एवं सर्वमान्य आधार प्रस्तुत नहीं किया जा सकता ।
पी. सेल्सेचर ने अपनी पुस्तक में अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का वर्गीकरण निम्नलिखित चार आधारों पर किया है:
(i) उत्तरदायित्व का क्षेत्र,
(ii) सदस्यता की सीमा,
(iii) कार्य के प्रकार तथा
(iv) अधिकार ।
प्रथम:
उत्तरदायित्व के क्षेत्र के आधार पर अर्थात् उद्देश्य एवं कार्यों के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का वर्गीकरण किया जा सकता है । कुछ अन्तर्राष्ट्रीय संगठन सामान्य उद्देश्यों को लेकर संगठित किए जाते हैं; जैसे-राष्ट्रसंघ और संयुक्त राष्ट्रसंघ जिनका उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा बनाए रखना है ।
इसी प्रकार कुछ ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय संगठन हैं जिनका उद्देश्य और कार्य सीमित होता है और वे निश्चित उद्देश्यों एवं कार्यों की पूर्ति के लिए संगठित किए जाते हैं जैसे-यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन तथा इण्टरनेशनल टेलीकम्यूनिकेशन यूनियन, आदि ।
द्वितीय:
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के वर्गीकरण का दूसरा आधार सदस्यता की सीमा बताया गया है । किसी अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की सदस्यता या तो व्यापक हो सकती है या सीमित । जैसे: सीटो, वारसा पैक्ट, नाटो, आदि क्षेत्रीय अन्तर्राष्ट्रीय संगठन हैं, क्योंकि इनकी सदस्यता सीमित है जबकि राष्ट्रसंघ एवं संयुक्त राष्ट्रसंघ को व्यापक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन कह सकते हैं ।
तृतीय:
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के वर्गीकरण का तीसरा आधार ‘कार्य’ है । कुछ अन्तर्राष्ट्रीय संगठन नीति निर्धारण का कार्य करते हें जैसे अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन । इसी प्रकार कुछ अन्तर्राष्ट्रीय संगठन प्रशासकीय कार्य अथवा सेवा कार्य करते हैं । यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन तथा रेडक्रॉस सोसायटी इसी वर्गीकरण के अन्तर्गत आते हैं ।
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चतुर्थ:
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के वर्गीकरण का अन्तिम आधार ‘अधिकार’ का है । कुछ अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के पास अपने निर्णयों को स्वीकार कराने के लिए समन्वित अधिकार होता है और उनके निर्णय अनिवार्य रूप से स्वीकार किए जाने वाले होते हैं ।
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय तथा सुरक्षा परिषद् इसी प्रकार की संस्थाएं हैं । कुछ ऐसे भी अन्तर्राष्ट्रीय संगठन हैं जिनके निर्णयों को मानना आवश्यक नहीं होता और उसे स्वीकार करना राज्यों की स्वेच्छा पर निर्भर करता है । महासभा को इसका उदाहरण मान सकते हैं ।
निष्कर्ष:
बीसवीं शताब्दी में राष्ट्रसंघ तथा संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसे अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का निर्माण हुआ । भविष्य में अन्तर्राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय संगठनों द्वारा एक नए अन्तर्राष्ट्रीय समाज एक विश्व सरकार और विश्वबन्धुत्व की कल्पना को आगे चलकर साकार बनाने में बहुत सहायता दी जा सकती है । संयुक्त राष्ट्र तथा उससे परे क्षेत्रीय संगठनों ने इस दिशा में कुछ सराहनीय कार्य किए हैं जो प्रगति के रास्ते पर सही कदम कहे जा सकते हैं ।