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Here is an essay on ‘Latin America’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Latin America’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on Latin America
Essay Contents:
- लैटिन अमरीका में स्वाधीनता का सूर्योदय (The Rising Sun of Independence in Latin America)
- लैटिन अमरीकी देशों का सामान्य परिचय (General Introduction of the Latin American Countries)
- मध्य अमरीका और मुनरो-सिद्धान्त अथवा लैटिन अमरीका में अमरीकी विदेश नीति (U.S.A. and Latin American Countries)
- लैटिन अमरीका में वामपन्थी प्रवृत्तियां (Latin America going towards Communism)
- लैटिन अमरीका के सीमा विवाद (Boundary Disputes of Latin American States)
- लैटिन अमरीका में क्षेत्रीय सहयोग (Regional Co-Operation in Latin America)
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में लैटिन अमरीका की भूमिका (Latin America: Role in International Politics)
Essay # 1. लैटिन अमरीका में स्वाधीनता का सूर्योदय (The Rising Sun of Independence in Latin America):
स्वाधीन होने से पूर्व लैटिन अमरीका में पुर्तगाल, स्पेन और फ्रांस के उपनिवेश कायम थे । लैटिन अमरीका लगभग 300 वर्षों तक यूरोपीय शक्तियों के अधीन रहा । स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए आन्दोलन छिड़ने के बाद एक-एक करके लैटिन अमरीकी राज्य स्वतन्त्र हो गये । लम्बे संघर्ष के बाद दक्षिण अमरीका के पुर्तगाली भाषा-भाषी लोगों को स्वाधीनता प्राप्त हुई, फलस्वरूप इनका जो स्वाधीन राज्य 1825 में स्थापित हुआ वह ब्राजील के संघीय राज्य के नाम से हमारे सामने आया ।
दूसरी ओर स्पेन के उपनिवेशों ने अपना समारम्भ आठ भिन्न राष्ट्रों के रूप में किया । ये राष्ट्र थे-मैक्सिको, मध्य अमरीका, कोलम्बिया, पेरू, बोलीविया, पैरागुए, अर्जेण्टाइना और चिली । परन्तु एक शताब्दी में ही इन आठ राष्ट्रों ने अठारह राष्ट्रों की संख्या धारण कर ली ।
1828 में उरुग्वे ने अर्जेण्टाइना के विरुद्ध विद्रोह किया तथा 1830 में वह एक स्वतन्त्र राष्ट्र बन गया । वेनेजुएला 1829 में कोलम्बिया से अलग हो गया, ईक्वेडोर 1830 में पृथकृ हो गया और पनामा 1903 में । 1940 के मध्य अमरीका में 5 राज्य बने-ग्लाटेमाला, होण्डूरास, निकारागुआ, सैल्वाडोर और कोस्टारिका । सैन डोमिन्गो हैटी से पृथक् राज्य भी इसी समय बना । अनेक विद्रोहों के उपरान्त तथा संयुक्त राज्य अमरीका के हस्तक्षेप के बावजूद 1899 में क्यूबा को भी स्वाधीनता प्राप्त करने में सफलता मिल गयी । वर्तमान में उत्तरी और मध्य अमेरिका में कुल मिलाकर 43 स्वतन्त्र-सम्प्रभु राज्य हैं ।
Essay # 2. लैटिन अमरीकी देशों का सामान्य परिचय (General Introduction of the Latin American Countries):
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लैटिन अमरीका को अनिश्चय का महाद्वीप माना जाता है । ‘लैटिन अमरीका’ शब्द का प्रयोग पश्चिमी गोलार्द्ध के उन राज्यों के लिए किया जाता है, जो लैटिन संस्कृति की समान पृष्ठभूमि रखते हैं । वस्तुत: ‘लैटिन अमरीका’ एक संकुचित शब्द है जिसकी परिधि में केवल वे राष्ट्र आते हैं, जो कभी स्पेन और पुर्तगाल के अधीन थे ।
ह्यूबर्ट हेरिंग का मत है कि- “इस सपूर्ण प्रदेश को वस्तुत: इण्डो-एफ्रो-इब्रो-अमरीका कहना चाहिए, परन्तु उचित वाक्य के अभाव में हम इसे लैटिन अमरीका कहने के लिए विवश हो जाते हैं ।” ‘लैटिन अमरीका’ शब्दावली से उन राज्यों का बोध होता है, जो उत्तर में संयुक्त राज्य अमरीका, मैक्सिको के सीमान्तों और मैक्सिकी की खाड़ी से लेकर दक्षिण में डेक पैसेज तथा अण्टार्कटिका महासागर के बाहरी भाग तक स्थित हैं ।
हल्को फर्ग्युसन के शब्दों में- ”पश्चिमी गोलार्द्ध की मूल समस्या यह है कि एक महादेश बाह्य रूप से समान लेकिन मौलिक रूप से भिन्न दो सभ्यताओं के बीच बंटा हुआ है….इसके अतिरिक्त जहां उत्तर अमरीका, निर्धनता के गड़ों के होते हुए भी, विश्व का सर्वाधिक सम्पन्न क्षेत्र है वहां दक्षिण और मध्य अमरीका अपनी गर्भित सम्पत्ति और वैभवपूर्ण टापुओं के बावजूद सबसे अधिक विपन्न है…इसे अति जनसंख्या अपूर्ण पोषण और सामाजिक विप्लव की मानवीय विपत्ति का सामना करना पड़ रहा है…।”
आज से 40 वर्ष पहले लैटिन अमरीकियों के बारे में आम अमरीकियों में यह धारणा थी कि वे सभी एक जैसे होते हैं लेकिन लैटिन अमरीकी राजनीतिज्ञ तथा बुद्धिजीवी इस बात को बिल्कुल बेकार मानते थे और इस प्रकार के सामान्यीकरण के विरुद्ध थे ।
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पिछले दशक तक आते-आते स्थिति काफी बदल चुकी है । अमरीकी नीति निर्धारण करने वालों तथा व्यावसायिकों ने समूचे लैटिन अमरीका को एक ही कौर में हड़प जाना चाहा था, लेकिन इस कोशिश में उन्हें अपच हो गयी । अब वे लैटिन अमरीकी देशों की विभिन्नताओं की बात करने लगे हैं जबकि खुद लैटिन अमरीकी अब इस खतरे को अच्छी तरह समझ सकते हैं कि उन सबकी समस्या एक ही है ।
द्वितीय महायुद्ध के बाद लैटिन अमरीका में जो बड़े परिवर्तन हुए उन्होंने यहां की जिन्दगी को बिगाड़ा ही है । के दशक में ‘मुक्त उद्यम’ का मतलब था कि ताकतवर सब कुछ खा जायेगा । 60 के दशक में तथाकथित प्रगति का जो गठबन्धन सामने आया वह भी ताकतवर वर्ग के पक्ष में था ।
70 के दशक में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने लैटिन अमरीका में धन और यन्त्रविधि से जो चमत्कार शुरू किया था उससे लोग और भी ज्यादा बेकार हो गये और इसका मतलब यह है कि उन्हें खाने को नहीं मिल रहा है । इस दौरान लैटिन अमरीका की जनसंख्या बड़ी तेजी से बढ रही थी । 1900 में वहां की जनसंख्या 5 करोड़ 30 लाख थी और 1950 में वह 16 करोड़ 60 लाख हो गयी और आज यह 60 करोड़ हो चुकी है ।
21वीं शताब्दी दक्षिण अमरीका की शताब्दी है । इस महाद्वीप पर नए इतिहास की रचना की जा रही है आज का निर्णायक संघर्ष वहां के राष्ट्रों द्वारा बड़ा जा रहा है । यह संघर्ष संयुक्त राज्य अमरीका के रणनीतिक वर्चस्ववाद के विरुद्ध है । लैटिन अमरीका अपने को संयुक्त राज्य अमरीका के राजनीतिक एवं सैनिक शिकंजे से मुक्त करता जा रहा है ।
ऐसा करने के लिए वह अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक द्वारा स्थापित वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था के चौखटे को भी तोड़ रहा है । लैटिन अमरीका में, ‘नवीन वामपंथ’ की बयार बह रही है तथा इसकी दिशा है, ”21 वीं सदी का समाजवाद” । लैटिन अमरीका के इतिहास तथा जीवन में आ रहे इस बुनियादी बदलाव का पथ प्रशस्त कर रहे नेता हैं- वेनेजुएला के शावेज, बोलीविया के इवा मोरालेस तथा इक्वेडोर के रफैल कोर्रिया ।
भौगोलिक और सामाजिक दृष्टि से लैटिन अमरीका विविधताओं से पूर्ण है । यहां पर राजनीतिक स्थिरता कम ही सुनने को मिलती है । बावजूद इसके मैक्सिको (क्षेत्रफल 19,64,375 वर्ग किमी और जनसंख्या 127.0 मिलियन) जैसे देश भी हैं जहां न केवल लोकतन्त्र की जड़ें मजबूत हैं, बल्कि हर सात वर्ष बाद नियमित तौर पर राष्ट्रपति का चुनाव होता रहा है ।
मैक्सिको तेल-सम्पन्न है ही, संस्कृति सम्पन्न भी है । आजकल विदेशी सहायता कार्यक्रमों के अन्तर्गत इस देश का तेजी से औद्योगीकरण हो रहा है । इसी प्रकार वेनेजुएला (क्षेत्रफल 9,16,445 वर्ग किमी. और जनसंख्या 30.6 मिलियन) है ।
वेनेजुएला तेल निर्यात देशों का सदस्य है और यही कारण है कि यहां पर पूंजी निवेश को बढ़ावा दिया जाता है । विश्व में वेनेजुएला तेल उत्पादकों में तीसरा स्थान रखता है । पिछले 30 वर्षों में जितना तेल इस देश ने निर्यात किया है उतना सम्भवत: अन्य किसी राष्ट्र ने नहीं किया ।
इसके अतिरिक्त यहां हीरे-मोतियों के भी प्रचुर भण्डार हैं । अपनी प्राकृतिक सुन्दरता के कारण यह देश ‘छोटा-सा वेनिस’ कहलाता है । अर्जेण्टीना (क्षेत्रफल 19,64,445 वर्ग किमी और जनसंख्या 127.0 मिलियन) राजनीतिक तौर पर स्थिर नहीं है लेकिन लैटिन अमरीकी देशों में सम्पन्न देश माना जाता है ।
यहां स्पेनवासी सबसे पहले पहुंचे थे और फिर लगभग 300 वर्षों तक वहां छाये रहे । स्पेनिश और इण्डियन रक्त से मिलकर यहां गाउचो नामक जाति उत्पन्न हुई । लैटिन अमरीका का सबसे बड़ा देश ब्राजील (क्षेत्रफल 9,15,445 वर्ग किमी. और जनसंख्या मिलियन) है । जो अपने घने जंगलों के लिए और अमेजन नदी के लिए प्रसिद्ध है ।
इसकी पुरानी राजधानी रिओ-डि-जेनरियो का समुद्रतट विश्व भर में प्रसिद्ध है। औद्योगिक दृष्टि से लैटिन अमरीकी राज्यों में यह सबसे आगे है । परमाणु शक्ति के क्षेत्र में भी ब्राजील ने काफी प्रगति की है । इसके नगर साओ-माओलो में लैटिन अमरीका की एकमात्र परमाणु भट्टी स्थापित है ।
विश्व की सबसे अधिक कॉफी यहां पैदा होती है । क्यूबा भी लैटिन अमरीकी देश है जहां फिदेल कासो तीन दशक से अपनी समाजवादी नीतियों की पता का फहराये हुए हैं । क्यूबा (क्षेत्रफल 1,10,861 वर्ग किमी और जनसंख्या 11.1 मिलियन) ने आस-पड़ोस में भी वामपन्थी विचारधारा को फैलाने का प्रयास किया और इसमें कुछ सफलता भी मिली जैसे चीले में आयेंदे की सरकार बनी, बोलिविया के जंगलों में चेग्वेवारा अपने समर्थकों को इकट्ठा करने में सफल हुए ।
क्यूबा दुनिया में सबसे अधिक गन्ना पैदा करने वाला देश है । चीनी के अतिरिक्त यह तम्बाकू और कॉफी का पर्याप्त मात्रा में निर्यात करता है । पश्चिमी गोलार्द्ध में अन्तर्राष्ट्रीय संकट खड़ा करने वाला क्यूबा ही प्रमुख देश रहा है ।
अक्टूबर 1962 में यहां ऐसा संकट खड़ा हुआ जिससे विश्व युद्ध होने की सम्भावना पैदा हो गयी थी । आज निकारागुआ (क्षेत्रफल 1,31,812 वर्ग किमी और जनसंख्या 63 मिलियन) के छापामारों का प्रभाव और सोमोजा का पतन फिदेल कासो की गतिविधियों का प्रसार ही माना जाता है ।
1949 से निकारागुआ सामाजिक क्रान्ति के पथ पर निरन्तर अग्रसर रहा है । निकारागुआ में सोमोजा परिवार का सैनिक शासन स्थापित रहा है । इक्वाडोर का क्षेत्रफल 2,75,830 वर्ग किमी है और जनसंख्या 16.3 मिलियन है । 1968 से इक्वाडोर पर सैनिक और असैनिक शासक शासन करते रहे हैं । गुयाना (क्षेत्रफल 2,14,969 वर्ग किमी. और जनसंख्या 8,00,000) ने 26 मई, 1966 को हॉलैण्ड से स्वाधीनता प्राप्त की ।
गयाना में भारतीयों की संख्या भी काफी है जो भारतीय परम्पराओं का निर्वाह करते हैं, भारतीय त्योहार मनाते हैं और हिन्दी बोलते हैं । पेरू (क्षेत्रफल 12,14,969 वर्ग किमी. और जनसंख्या 31.2 मिलियन) भी सैनिकशाही वाला देश है । बारह वर्ष के सैनिक शासन के बाद जुलाई 1980 में राष्ट्रपति बेखांडे टेरी सत्ता में आये ।
पशुपालन और खेती यहां के प्रमुख व्यवसाय हैं तथा सोने की भी कुछ खानें हैं । उरुग्वे (क्षेत्रफल 1,76,215 वर्ग किमी और आबादी 3.6 मिलियन) के जीवन-स्तर को लैटिन अमरीकी देशों में सबसे ऊंचा माना जाता है । यह माना जाता है कि यहां पर स्थानीय लोग नहीं के बराबर हैं और यूरोपियनों की संख्या अधिक है ।
यहां के वामपन्थी छापामार अक्सर सरकार को परेशान किये रहते हैं । त्रिनिदाद और टोबागो (क्षेत्रफल 5,128 वर्ग किमी और जनसंख्या 1.4 मिलियन) कैरेबियन द्वीपसमूह में सबसे सम्पन्न देश माना जाता है और राष्ट्रपति क्लार्क देश के कच्चे माल के दोहन की यथोचित व्यवस्था करते हैं ।
कोलम्बिया (क्षेत्रफल 11,41,815 की किमी. और जनसंख्या 48.2 मिलियन) में कमोवेश लोकतन्त्र की जड़ें पुख्ता हैं लेकिन इक्वाडोर और पनामा के साथ झड़पें हो जाती हैं । ग्वाटेमाला मध्य अमरीकी राज्यों में सबसे घनी सख्या वाला देश है । पिछले दस वर्षों में यहां क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं । होण्डूरास मध्य अमरीकी राज्यों में सबसे पिछड़ा हुआ है ।
वैसे इस देश में चांदी की खानें हैं और दूसरे देशों को चांदी निर्यात करता है । अल साल्वाडोर घनी जनसंख्या वाला मध्य अमरीका का छोटा-सा देश है । इस देश की अधिकांश भूमि कुछ धनवान परिवारों के हाथ में है । हाल में यह अमरीकी हस्तक्षेप का शिकार रहा है । कोस्टारिका ‘किसानों के स्वर्ग’ के नाम से विख्यात है । इसके दक्षिण-पूर्व में पनामा है ।
पनामा नहर निर्मित हो जाने के बाद इस देश की अर्थ-व्यवस्था मूल रूप से नहर से प्राप्त आय पर निर्भर है । पनामा नहर अटलाण्टिक समुद्र को प्रशान्त महासागर से जोड़ती है और इसलिए अन्तर्राष्ट्रीय जलमार्ग की श्रेणी में आती है । यह दो समूहों को जोड़ने के साथ ही अमेरिका के पूर्वी तट से पश्चिमी तट तक आने का एक छोटा रास्ता उपलब्ध कराती है जिससे कम-से-कम 8,000 समुद्री मील की यात्रा कम करनी पड़ती है ।
इसकी प्रशासनिक व्यवस्था ब्रिटेन और अमेरिका के बीच 1901 में पारित ‘हे पुन्जीफोते सन्धि’ के द्वारा की गई । 7 सितम्बर, 1977 को पनामा और अमेरिका के बीच हुई पनामा नहर सन्धि में अमेरिका ने यह स्वीकार किया था कि वह 1999 के अन्त में पनामा नहर पर पनामा को पूर्ण अधिकार सौंप देगा ।
पनामा शहर में आयोजित एक औपचारिक समारोह में 15 दिसम्बर, 1999 को अमेरिका ने पनामा नहर का विधिवत हस्तान्तरण कर दिया । राष्ट्रपति क्लिंटन ने कहा कि- ”नहर की सुरक्षा अमेरिका के लिए महत्वपूर्ण है और वह सभी नहर उपभोक्ताओं के साथ मिलकर पनामा नहर से जहाजरानी के सुरक्षित आवागमन तथा नहर क्षेत्र की सुरक्षा के बारे में सहयोग करेगा ।”
हाइटी, डोमिनी गणतन्त्र, जमायका तथा प्यूर्टोंरीको के मध्य अमरीका में वेस्ट इण्डीज के टापू हैं । डोमिनी गणतन्त्र 1930 से लेकर लगभग 30 वर्ष तक विश्व की कठोरतम अधिनायकवादी व्यवस्था के अधीन रहा । प्यूर्टोरीको छोटा-सा टापू है । अमरीका इस टापू में रुचि लेता है । इस टापू के लोग अमरीका में शामिल होने की बात सोचने लगे हैं । गुयाना के पश्चिम में सूरीनाम है और सूरीनाम के पूर्व में थोड़ा हटकर फ्रांसीसी गियाना ।
ये तीनों देश गर्म जलवायु वाले हैं और यहां की प्रमुख पैदावार गन्ना, कपास, कोको और चावल है । अर्जेण्टाइना के पश्चिम में चिली देश है । यह साहित्य कला ओर संगीत की दृष्टि से अन्य लैटिन अमरीकी राज्यों से आगे है । राष्ट्रपति आयेंदे की हत्या के बाद यह देश काफी चर्चा का विषय बन गया था ।
लैटिन अमरीका: अस्थिरता तो यहां की नियति है:
लैटिन अमरीका राजनीतिक अस्थिरता और उथल-पुथल का महाद्वीप है । क्या कोई ऐसा देश है जहां हर नौ महीनों में सरकार बदल जाती हो ? इस समय अल साल्वाडोर में जिस प्रकार के राजनीतिक अनिश्चय और संघर्ष की स्थिति है उससे वियतनाम की पुनरावृत्ति का आभास होने लगा है ।
1975 में सूरीनाम को स्वाधीनता प्राप्त हुई और उसके बाद क्रान्ति एवं प्रतिक्रान्ति का दौर जारी रहा । कोलम्बिया और निकारागुआ में भी क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति के दौर बराबर चलते रहे हैं । अप्रैल, 1987 में अर्जेण्टीना में सैनिक विद्रोह का प्रयास किया गया ।
20 जून, 1988 को हैटी के बर्खास्त थल सेना अध्यक्ष जनरल हेनरी नेमफी ने राष्ट्रपति निवास पर अधिकार कर सत्ता हथिया ली । 3 फरवरी, 1989 को पेराग्वे में विद्रोहियों ने तीन दशक पुरानी सैनिक सरकार का तख्ता पलट दिया और राष्ट्रपति सजासनगर को गिरफ्तार कर लिया ।
20 सितम्बर, 1989 को अमरीकी सैनिक बलों ने पनामा के तानाशाह शासक नोरिएगा को सताच्युत कर तख्ता पलट दिया । फरवरी, 2004 में हैती तख्तापलट हुआ था और संयुक्त राज्य अमरीका द्वारा समर्थित विरोध ने तत्कालीन राष्ट्रपति एरिस्टाइड को राष्ट्रपति पद छोड़ने तथा दक्षिण अफ्रीका में निर्वासित जीवन व्यतीत करने को बाध्य कर दिया ।
बोलीविया में दिसम्बर, 2006 के राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव की पृष्ठभूमि शासक वर्ग की वैश्वीकरण एवं नव उदारवाद की आर्थिक नीतियों, भ्रष्टाचार, गरीबी, भुखमरी तथा बेरोजगारी के विरुद्ध जनाक्रोश ने तैयार की और इसके चलते बोलीविया के पिछले दो राष्ट्रपतियों को अपने पद से हटना पड़ा । अपने 180 वर्षों के इतिहास में बोलीविया ने कई राजनीतिक भूकम्पों को देखा हे और 100 से भी अधिक तख्तापलट की घटनाएं हुई हैं ।
लैटिन अमरीकी आतंकवाद:
आतंकवाद या गुरिल्ला गतिविधियां लैटिन अमरीका की एक विशेषता है । अधिकांश लैटिन अमरीकी राज्यों में सैनिक सरकारें हैं, लेकिन सैनिक शासन के बावजूद आतंकवाद पनप रहा है । आये-दिन सुनने को मिलता है कि वहां अमुक विमान का अपहरण कर लिया गया या अमुक देश के राजदूत का अपहरण हो गया और उसे छोड़ने के लिए लाखों डॉलर क्षतिपूर्ति की मांग की गयी । पेरू हो या ब्राजील वेनेजुएला हो या ग्वाटेमाला सभी जगह आतंकवादी गतिविधियां बढ़ रही हैं । इन आतंकवादियों का सम्बन्ध वामपन्थी विचारधारा से है ।
Essay # 3. मध्य अमरीका और मुनरो-सिद्धान्त अथवा लैटिन अमरीका में अमरीकी विदेश नीति (U.S.A. and Latin American Countries):
लैटिन अमरीकी देशों के प्रति संयुक्त राज्य अमरीका ने जिस नीति का अनुसरण किया है उसे सामान्यत: ‘यान्की साम्राज्यवाद’ और ‘डॉलर कूटनीति’ के नाम से पुकारा जाता है । इस नीति के विकास की विभिन्न मंजिलें रही हैं और हर मंजिल पर इस नीति को अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है ।
पहली मंजिल:
इसकी पहली मंजिल उन्नीसवीं शताब्दी में हमें मुनरो सिद्धान्त के रूप में दृष्टिगोचर होती है । उसका प्रतिपादन तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति मुनरो द्वारा यूरोपियन उपनिवेशवादियों के इस क्षेत्र में आक्रामक रवैये की पृष्ठभूमि में किया गया था ।
इस सिद्धान्त का सहारा लेकर संयुक्त राज्य अमरीका ने इस क्षेत्र के देशों पर अपने राजनीतिक प्रभाव को स्थापित किया और उनका अनियन्त्रित रूप से विकास किया । 1823 में राष्ट्रपति मुनरो ने स्पष्ट कहा कि अमरीकी राज्यों के मामलों में किसी दूसरे के हस्तक्षेप को सहन नहीं किया जायेगा ।
दूसरी मंजिल:
राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट ने ‘बड़ा डण्डा नीति’ (Big Stick Policy) का प्रतिपादन किया । 1904 में उन्होंने स्पष्ट कहा कि मुनरो सिद्धान्त की उपेक्षा करने वाले राष्ट्रों के खिलाफ अमरीका अन्तर्राष्ट्रीय पुलिस शक्ति की भूमिका अदा करेगा । अमरीकी राज्यों के मामलों मे हस्तक्षेप करने वालों को अमरीका स्वयं सजा देगा । रूजवेल्ट ने इसी आधार पर क्यूबा, डोमिनिकन रिपब्लिक, हैती तथा निकारागुआ में हस्तक्षेप किया ।
तीसरी मंजिल:
काल की अमरीकी नीति को डॉलर कूटनीति के नाम से पुकारा जाता है । इस नीति की शुरुआत राष्ट्रपति टाप ने की थी । बुडरो विल्सन के समय अमरीकी भ्रातृत्व की भावना का विकास हुआ संरक्षित अमरीकी साम्राज्यवाद का पतन होने लगा और अच्छे पडोसी सम्बन्धों की सृष्टि हुई ।
चौथी मंजिल:
इस काल में फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट की ‘अच्छे पड़ोसी नीति’ (Good Neighbour Policy) की शुरुआत हुई । उनके राष्ट्रपतित्व काल में लैटिन अमरीका के राज्य हैटी पर से अमरीकी नियन्त्रण हटा लिया गया और दोनों के बीच परस्पर मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का सूत्रपात हुआ ।
पांचवीं मंजिल:
इस नीति का सूत्रपात राष्ट्रपति आइजनहॉवर ने किया जिसे ‘अच्छे साझेदार’ (Good Partner) की नीति कहा जाता है । आइजनहॉवर प्रशासन ने लैटिन अमरीकी राज्यों को आर्थिक और तकनीकी सहायता प्रदान की ।
छठी मंजिल:
राष्ट्रपति कैनेडी के काल में अमरीका द्वारा लैटिन अमरीका से ‘प्रगति के लिए मैत्री’ (Alliance for Progress) की नीति प्रारम्भ की थी । इस नीति के अन्तर्गत साम्यवाद को रोकने के लिए न केवल अमरीकी राज्यों को संगठित किया गया अपितु उनके आर्थिक विकास के लिए अमरीका ने समुचित धन देने की पहल की । लैटिन अमरीकी देशों के सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए काफी धन का प्रावधानकिया ।
अमरीकी राष्ट्रपति कैनेडी की पहल पर 19 लैटिन अमरीकी राज्यों का (जिनमें क्यूबा शामिल नहीं था) एक संगठन स्थापित किया गया जिसे ‘प्रगति के लिए मैत्री’ का नाम दिया गया । एक दस-वर्षीय कार्यक्रम तैयार किया गया जिसमें, यह व्यवस्था थी कि प्रत्येक वर्ष में प्रत्येक देश का आर्थिक विकास 2.5% की दर से होगा, 1970 तक प्रत्येक बालक के लिए शिक्षा की व्यवस्था होगी, बच्चों की मृत्यु-दर नीचे गिरायी जायेगी संक्रामक रोगों से सुरक्षा की व्यवस्था की जायेगी तथा कृषि सुधार एवं औद्योगीकरण की रफ्तार तेज की जायेगी ।
इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए राष्ट्रपति कैनेडी ने 100 करोड़ डॉलर की सरकारी सहायता देने का और 200 करोड़ डॉलर की गैर-सरकारी सहायता का वचन दिया, किन्तु 1963 से इस कार्यक्रम की समीक्षा करने पर यह आम शिकायत पायी गयी कि इस मैत्री से लैटिन अमरीकी देशों की अर्थ-व्यवस्था पर कोई वांछनीय प्रभाव नहीं पड़ा है । आलोचकों ने यहां तक कहा कि इसके माध्यम से अमरीका अपने साम्राज्यवादी उद्देश्यों को पूरा करना चाहता है ।
सातवीं मंजिल:
1969 में राष्ट्रपति निक्सन ने ‘समान साझेदारी’ (Equal Partnership) की नीति शुरू की । ‘प्रगति के लिए मैत्री’ की असफलता के उपरान्त तथा लैटिन अमरीका में बढ़ते हुए अमरीकी विरोध की पृष्ठभूमि में संयुक्त राज्य अमरीका की सरकार के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह इस क्षेत्र के प्रति अपनी नीति में परिवर्तन करे ।
फलत: 14 अप्रैल, 1969 को ओ.ए.एस. की एक बैठक में भाषण करते हुए राष्ट्रपति निक्सन ने कहा कि उनकी सरकार लैटिन अमरीका की ओर विशेष ध्यान देगी । मई 1969 में उन्होंने रॉकफेलर के नेतृत्व में एक सद्भाव मिशन लैटिन अमरीकी देशों की यात्रा पर भेजा ।
रॉकफेलर ने यात्रा से लौटने के बाद जो रिपोर्ट पेश की, उसमें यह बात स्वीकार की गयी कि अमरीका के आधिपत्य जमाने वाले रवैये के कारण लैटिन अमरीकी देशों में उसके विरुद्ध भावनाओं को बढ़ावा मिला है । इन सिफारिशों के आधार पर निक्सन ने लैटिन अमरीका के सम्बन्धों में नयी नीति की रचना की जिसे ‘समान साझेदारी की नीति’ कहा जाता है ।
इस नीति के अन्तर्गत यह कहा गया कि अब जो लैटिन अमरीकी देशों को आर्थिक सहायता दी जायेगी उसे कार्यान्वित करने के लिए अन्तर-अमरीकी अभिकरण कायम किया जायेगा तथा अपने विकास कार्यक्रमों को स्वयं लैटिन अमरीकी देश निश्चित करेंगे ।
1823 में अमरीका के राष्ट्रपति मुनरो ने लैटिन अमरीका को यूरोपीय हस्तक्षेप से छुटकारा दिलाने के बहाने इसे अमरीका का आश्रित बना दिया । मुनरो की इस नीति को मुनरो सिद्धान्त (Monroe Doctrine) कहते हैं । इस नीति के अन्तर्गत लैटिन अमरीका में अमरीकी प्रभुत्व स्थापित हो गया । यहां के आर्थिक सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन पर अमरीका पूरी तरह छा गया ।
द्वितीय महायुद्ध के बाद अमरीका ने लैटिन अमरीकी देशों का एक अमरीकी संगठन ‘अमरीकी राज्यों का संगठन’ (Organisation of American States) बनाया, जिसके द्वारा अमरीका ने एक सैनिक गुट बनाने का प्रयत्न किया ताकि लैटिन अमरीकी देशों में अमरीका समर्थित सरकारें कायम रह सकें ।
जब कभी किसी लैटिन अमरीकी देश में अमरीका विरोधी तत्व राजनीतिक सत्ता अपने हाथ में लेने का प्रयत्न करते तभी यह संगठन अमरीका समर्थित सरकार के समर्थन में कार्यवाही करता । 1951 में अमरीका ने इस संगठन की आड़ में ग्वाटेमाला में सैनिक हस्तक्षेप किया और फिर अपनी पिछलग्गू सरकार बना दी ।
1959 में जब क्यूबा में कास्त्रो के नेतृत्व में क्रान्ति हुई तब से अमरीका के प्रभुत्व को कड़ी चुनौती का मुकाबला करना पड़ा । कासो ने लैटिन अमरीका के पिछड़ेपन का वास्तविक कारण अमरीकी शोषण को बताया । क्यूबा की क्रान्ति से लैटिन अमरीका में अमरीकी हितों को खतरा उत्पन्न हो गया । इसलिए अमरीका ने सैनिक हस्तक्षेप करके कालो की सरकार का तख्ता पलटने की कोशिश की परन्तु इसमें उसे सफलता नहीं मिली ।
इस घटना को ‘बे ऑफ पिग्स’ (Bay Of Pigs) के नाम से जाना जाता है । क्यूबा पर अमरीकी हमले के बाद कासो सरकार ने अपने देश की सुरक्षा के लिए सोवियत रूस से सम्बन्ध और मजबूत किये । रूस ने क्यूबा में मिसाइल अड्डे बनाये जिसका अमरीका ने कड़ा विरोध किया और क्यूबा की नाकेबन्दी कर दी । सोवियत संघ और अमरीका में इस मसले पर युद्ध छिड़ सकता था परन्तु परमाणु युद्ध के भय से सोवियत संघ ने मिसाइल-अड्डे उठा लिये और अमरीका ने क्यूबा की सुरक्षा का वचन दिया ।
लैटिन अमरीकी देश अमरीका को एक साम्राज्यवादी देश समझते हैं । वे उसे ‘उत्तर का महादैत्य’ (Colossus of the North) कहते हैं । संयुक्त राज्य अमरीका ने लैटिन अमरीकी राज्यों को एक प्रकार से अपनी जागीर समझा और डॉलर फेंककर अथवा सैनिक हस्तक्षेप करके उन्हें अपने शिकंजे में जकड़ रखने की नीति अपनायी ।
आज भी अमरीका लैटिन अमरीकी मामलों में निरन्तर दखल दे रहा है । जुलाई, 1979 में सम्पन्न हुई निकारागुआ की सान्दिनिस्ता क्रान्ति ने अमरीकी साम्राज्यवाद के लिए जबरदस्त चुनौती उपस्थित कर दी । पहले तो उसने निकारागुआ क्रान्ति की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए दुलार-पुचकार की कूटनीति का सहारा लिया ।
अक्टूबर 1979 में सैनिक और नागरिक शक्तियों के सहयोग से सत्ता परिवर्तन के जरिये प्रशासनिक और आर्थिक सुधारों की उम्मीदें दिलवायीं । परन्तु जब यह चालबाजी राष्ट्रवादी सेनानियों के लहलहाते आत्म-बल को डगमगाने में सफल नहीं हुई तब अमरीकी साम्राज्यवाद ने अपने पैंतरे बदले ।
एक ओर उसने निकारागुआ की सरकार को डरा-धमका कर उसकी जनवादी और प्रगतिशील शक्तियों को निरुत्साहित करने की कोशिश की और दूसरी ओर साल्वाडोर की दमनकारी सरकार को अधिक उदारतापूर्वक आर्थिक सहायता प्रदान करनी शुरू की ।
इस बीच अमरीका की रीगन सरकार ने फौरन अल साल्वाडोर को अमरीकी विदेश नीति का प्रथम परीक्षण स्थल करार दिया । विदेश मन्त्रालय से यह घोषणा हुई कि अल साल्वाडोर क्यूबाई और सोवियत समर्पित आतंकवादी षडयन्त्र का शिकार नहीं होने दिया जायेगा और रीगन सरकार इसे रोकने को प्राथमिकता देगी । लैटिन अमरीका के लिए नीति- निर्धारकों के पदों पर ऐसे लोगों की बहाली की गयी जिन्होंने कार्टर प्रशासन की नीतियों की सख्त आलोचना की थी और मध्य अमरीकी विद्रोह के प्रति कड़ी कार्यवाही किये जावे की सिफारिश की थी ।
इनमें संयुक्त राष्ट्र संघ के स्थायी प्रतिनिधि के रूप में जीन किर्क पेट्रिक और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् के सलाहकार के रूप में रोजर फोंटन बहाली प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं । रीगन सरकार ने इस सन्दर्भ में पहले महत्वपूर्ण कदम के रूप में निकारागुआ के कार्टर सरकार द्वारा 7 करोड़ 50 लाख डॉलर की सहायता के वचन को वापस लिया और दूसरी ओर अल साल्वाडोर की सरकार को 6 करोड़ 80 लाख डॉलर की आर्थिक सहायता देने की घोषणा की ।
कुछ भी हो मध्य अमरीका में अमरीकी प्रशासन ने अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगा दिया । यहां यह उल्लेखनीय है कि मध्य अमरीका व्यापारिक और आर्थिक हितों की दृष्टि से अमरीका के लिए कोई अधिक महत्व नहीं रखता; केला और कहवा को छोड़कर कोई खास सामग्री यहां से आयातित नहीं होती ।
साथ ही कोई भी मध्य अमरीकी राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था या अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में कोई महत्वपूर्ण भूमिका अदा नहीं करता और न ही अमरीका इन राष्ट्रों से, किसी महत्वपूर्ण आब्रजन के द्वारा घनिष्ठ रूप से जुड़ा है; फिर भी कौन-सी ऐसी वजह है कि अमरीका ने इस क्षेत्र को ऐसा महत्व प्रदान किया है ।
एक वजह यह हो सकती है, जो कि महज एक संयोग की बात है कि जिस वक्त अल साल्वाडोर में छापामार लड़ाई अपनी चरम सीमा पर लड़ी जा रही थी उसी वक्त रीगन की सरकार सत्ता में आयी । दूसरी वजह यह हो सकती है कि रीगन सरकार वहां अपनी विजय के बारे में पूर्णरूप से आश्वस्त थी । उसका मानना था कि अगर अल साल्वाडोर में अमरीकी नीति सफल हो जाती है तो अमरीका अपनी खोई हुई अन्तर्राष्ट्रीय गरिमा दोबारा प्राप्त कर सकता है ।
तीसरी ओर सबसे महत्वपूर्ण वजह यह थी कि निकारागुआ की क्रान्ति के बाद अमरीका को यह भय हो गया था कि यदि उसने हस्तक्षेप नहीं किया तो अल साल्वाडोर में सान्दिनिस्ता क्रान्ति की पुनरावृति हो जायेगी और फिर मध्य अमरीका क्यूबा की विध्वंसकारी गतिविधियों का केन्द्र-स्थल बन जायेगा ।
अत: रीगन सरकार भूतपूर्व अमरीकी विदेश मन्त्री जॉन फॉस्टर डलेस द्वारा प्रतिपादित ‘डोमिनो सिद्धान्त’ को इस इलाके में पूर्णरूपेण यथोचित मानने लगी । उसे भय था कि अल साल्वाडोर में वामपन्थी अमरीका विरोधी सरकार की स्थापना से ग्वाटेमाला और होंडूरास की सरकारों के लिए खतरा पैदा हो जायेगा और एक के बाद दूसरी सरकार अमरीकी प्रभाव क्षेत्र से बाहर निकल जायेगी ।
अत: रीगन सरकार मध्य अमरीका को साम्यवादी खतरे से बचाने के लिए यह जरूरी मानती थी कि क्यूबा को इस क्षेत्र में मनमानी करने की आजादी नहीं दी जाय । उसे बार-बार यह धमकी भी दी गयी थी कि उसने निकारागुआ के द्वारा साल्वाडोर और ग्वाटेमाला के छापामारों को अस्त्र-शस्त्र देना जारी रखा तो अमरीका मध्य अमरीकी सरकारों को एकता के सूत्र में बांधेगा और क्यूबा को अपनी हरकतों की कीमत चुकानी पड़ेगी ।
3 जून, 1981 को अमरीकी कांग्रेस में एक वक्तव्य देते हुए अन्तर-अमरीकी मामलों के लिए नियुक्त उपविदेश मन्त्री टॉमस एण्डर्स ने मध्य अमरीका में क्यूबाई खतरे का मुकाबला करने के लिए चार कदमों की घोषणा की:
1. अमरीका संकट-ग्रस्त राष्ट्रों की निजी सुरक्षा के लिए हर प्रकार की सहायता प्रदान करेगा । एण्डर्स ने इस सम्बन्ध में यह टिपणी की कि अब विद्रोहियों को विदेशी सहायता के द्वारा अस्त्र-शस्त्र मिल रहे हैं तब उनका जवाब सैनिक सहायता के अतिरिक्त कुछ नहीं है ।
2. इन राष्ट्रों को अपने आत्म-निर्णय के अधिकारों को सुरक्षित रखने में मदद देगा ।
3. उन्हें आर्थिक सफलता प्राप्त करने में सहायता प्रदान करेगा ।
4. अमरीका वर्तमान संकट के स्रोत पर आक्रमण करेगा । एण्डर्स ने मध्य अमरीका और कैरीबियाई क्षेत्र की विस्फोटक स्थिति को अमरीका के लिए प्रत्यक्ष खतरा बताया ।
साथ ही अमरीका ने मध्य अमरीका और कैरीबियाई राष्ट्रों के आर्थिक पुनरुत्थान के लिए ‘लघु मार्शल योजना’ की घोषणा की । इस योजना का उद्देश्य उन राष्ट्रों को यह यकीन दिलाना था कि निजी लागत और पूंजीवादी अर्थ-व्यवस्था के द्वारा बेहतर आर्थिक विकास सम्भव है ।
लेकिन हकीकत तो यह है कि अमरीकी सरकार क्यूबा की लोकप्रियता से भयभीत थी और यह नीति क्यूबाई क्रान्ति और उसकी आर्थिक उपलब्धियों को बदनाम करने के उद्देश्य से अपनायी गयी । इस योजना पर विस्तारपूर्वक गौर करने से यह पता चलता है, कि उसमें कोई नयापन नहीं था और इस योजना का भी वही हाल होना था जो 1960 के दशक के प्रारम्भ में कैनेडी सरकार द्वारा जारी किये गये ‘प्रगति के लिए मैत्री’ योजना का हुआ था ।
दरअसल यह योजना प्रारम्भ होने से पहले ही संकटग्रस्त प्रतीत होने लगी । जून 1981 के दूसरे सप्ताह में मैक्सिको के राष्ट्रपति खोसे लोपेस पोरतियों ने अपनी वाशिंगटन यात्रा के दौरान रीगन सरकार को यह साफ तौर से बता दिया कि मैक्सिको तीन शर्तों पर ‘लघु मार्शल योजना’ को स्वीकार करेगा-जब इसमें किसी सैनिक तत्व का समावेश नहीं होगा इसे साम्यवाद विरोधी माध्यम नहीं बनाया जायेगा और इस इलाके का कोई भी राष्ट्र इस योजना से अलग नहीं रखा जायेगा ।
मैक्सिको के राष्ट्रपति ने रीगन सरकार के समक्ष न कबूल की जाने वाली इन शर्तों को रखकर दरअसल इस योजना को साफ तौर से ठुकरा दिया । निस्सन्देह जिस प्रकार क्यूबाई क्रान्ति को असफल बनाने के लिए प्रगति के लिए मैत्री योजना तैयार की गयी थी उसी प्रकार वर्तमान ‘लघु मार्शल योजना’ निकारागुआ की सान्दिनिस्ता क्रान्ति और अल साल्वाडोर तथा ग्वाटेमाला के राष्ट्रवादियों द्वारा लड़े जा रहे दमन-विरोधी संग्राम को विफल बनाने के उद्देश्य से बनायी गयी थी ।
रीगन सरकार की मध्य अमरीकी और कैरीबियाई नीति इस धारणा पर आधारित थी कि समस्त लैटिन अमरीका उसके प्रभाव-क्षेत्र में है । अतएव इन क्षेत्रों में अमरीका किसी भी बाहरी शक्ति के हस्तक्षेप या प्रभाव को बर्दाश्त नहीं करेगा ।
रीगन सरकार की यह धारणा कि वर्तमान मध्य अमरीकी संकट का स्रोत क्यूबा है, वास्तविकता पर पर्दा डालना था । साल्वाडोर की वर्तमान स्थिति और निकारागुआ की सोमोजा विरोधी सान्दिनिस्ता क्रान्ति तब भी वही रूप लेती यदि फिदेल कास्त्रो इस धरती पर पैदा भी नहीं हुआ होता ।
दरअसल मध्य अमरीका की वर्तमान आर्थिक और राजनीतिक उथल-पुथल की जड़ में भौतिक संरचनात्मक समस्याएं हैं । यहां की राजनीतिक प्रणालियां सदैव अधिनायकवादी और जनविरोधी रही हैं । जब-जब गरीबी और बेरोजगारी के खिलाफ तथा मौलिक आवश्यकताओं के लिए आन्दोलन हुए हैं यहां की सरकारों ने मांगों को हिंसा दमन चुनावी चालबाजियों तथा संवैधानिक अधिकारों को स्थगित करके ठुकरा दिया है ।
अल साल्वाडोर, ग्वाटेमाला और होंडूरास समस्त लैटिन अमरीका के सबसे गरीब राष्ट्रों में से हैं । यहां बेरोजगारी और भुखमरी की समस्याएं सबसे गम्मीर हैं, क्योंकि चन्द प्रतिशत लोगों ने समस्त राष्ट्रीय सम्पत्ति पर कब्जा किया हुआ है ।
जाहिर है जब न्यायसंगत तरीकों से गरीब और भूखी जनता की मांगें पूरी नहीं होंगी तो तबाह और परेशान जनता ध्रुवीकृत होगी और हिंसक और गैर-कानूनी माध्यमों का सहारा लेगी । यदि अमरीकी सरकार इन राष्ट्रों का आर्थिक विकास चाहती है तो उसे इन संरचनात्मक समस्याओं का निराकरण ढूंढना होगा जो वर्तमान संकट के लिए प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार हैं ।
यदि अमरीकी सरकार ने मध्य अमरीकी संकट में अपनी वर्चस्वतापूर्ण नीति जारी रखी तो इसके तीन महत्वपूर्ण परिणाम सामने आ सकते हैं:
प्रथम:
इन क्षेत्रों में वर्तमान दमनकारी सरकारों के स्थान पर वामपन्थी प्रजातान्त्रिक सरकारें सत्ता में आ सकती है जो सम्भवत: अमरीका के प्रति तटस्थ रुख अपनायेगी और गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों से अपना सम्पर्क बढ़ायेगी ।
दूसरे:
यहां मार्क्सवादी, लेनिनवादी सरकारों की स्थापना हो सकती है, जो साम्यवादी खेमे में रहेंगी और अमरीका से उनका कोई सम्पर्क नहीं रहेगा ।
तीसरे:
वर्तमान सरकारें और अधिक दमन अत्याचार एवं मानव अधिकारों का अतिक्रमण करेंगी । ये सरकारें अमरीका के इशारों पर चलेंगी परन्तु यह स्थिति भविष्य में अमरीका के लिए घातक साबित होगी ।
ग्रेनाडा पर अमरीकी आक्रमण:
मध्य अमरीका के कैरेबियन सागर का एक नन्हा द्वीप देश-ग्रेनाडा-जिसकी आबादी मात्र एक लाख व क्षेत्रफल केवल 145 वर्ग किलोमीटर है, 1974 तक ब्रिटेन का उपनिवेश था । 1979 में वहां मार्क्सवादी सरकार का गठन हुआ तथा अक्टूबर, 1983 में वहां सैनिक क्रान्ति हो गयी । मध्य अमरीका में मार्क्सवादी सरकारों की स्थापना अमरीका के लिए हीनता एवं चुनौती उत्पन्न करती है ।
ग्रेनाडा ने चार करोड़ डॉलर व्यय के पर्यटक हवाई अड्डे के निर्माण के लिए क्यूबा से समझौता किया तो अमरीका नाराज हो गया तथा आरोप लगाया कि पर्यटन के नाम पर ग्रेनाडा को ‘होलीडे पैराडाइज’ बनाने की आड़ में सोवियत संघ क्यूबा के माध्यम से ग्रेनाडा में सामरिक हवाई अड्डे का निर्माण कर रहा है ।
ग्रेनाडा के सैनिक विद्रोह ने एक अवसर दे दिया तथा रीगन प्रशासन ने पूर्वी कैरेबियन संगठन के माध्यम से एक तथाकथित आमन्त्रण जुटाकर ग्रेनाडा स्थित अमरीकी नागरिकों की सुरक्षा के नाम पर नन्हें ग्रेनाडा पर निर्लज्ज आक्रमण कर दिया ।
निकारागुआ तथा होण्ड़ूरास में अमरीकी हस्तक्षेप:
22 मार्च, 1983 को निकारागुआ ने अमरीकी हस्तक्षेप को रोकने हेतु सुरक्षा परिषद् से प्रार्थना की । महासभा ने निकारागुआ के विरुद्ध अतिक्रमण के कृत्यों की निन्दा की । 19 अप्रैल 1984 को निकारागुआ ने अमरीका के विरुद्ध अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में केस दायर किया ।
निकारागुआ ने यह आरोप लगाया कि अमरीका अतिक्रमण तथा हस्तक्षेप की कार्यवाहियों द्वारा निकारागुआ की स्थापित सरकार को उतारने का प्रयास कर रहा है । वस्तुत: अमरीका वामपन्थी सान्दिनिस्ता सरकार के खिलाफ लड़ रहे मुस्लिमों को मदद कर रहा था । इसी प्रकार मार्च 1985 में राष्ट्रपति रीगन ने 300 अमरीकी सैनिकों को होण्डूरास भेज दिया । अमरीका का कैरीबियन सागर मध्य स्थित देश में यह सीधा सैनिक हस्तक्षेप था ।
28 जून, 2009 को होण्डूरास में सेना ने तख्ता पलट कर राष्ट्रपति मेनुएल जिलाया को कैद कर निर्वासित करते हुए कोस्टारिका भेज दिया । पर्यवेक्षकों का मानना है कि होण्डूरास के तख्ता पलट को संयुक्त राज्य अमरीका का प्रच्छन्न एवं परोक्ष समर्थन प्राप्त था ।
अमरीकी सैनिकों ने पनामा में तख्ता पलटा:
20 दिसम्बर, 1989 को राष्ट्रपति बुश के निर्देश पर अमरीकी सैनिक बलों ने पनामा के तानाशाह शासक नोरिएगा को सत्ताच्युत कर दिया । नोरिएगा का तख्ता पलट कर विपक्षी नेता ऐण्डारा के नेतृत्व वाली सरकार को सत्ता में स्थापित कर दिया । ऐण्डारा सात माह पूर्व चुनाव जीते थे लेकिन नोरिएगा ने चुनावों में विदेशी हस्तक्षेप का आरोप लगाते हुए चुनाव रह कर दिये थे ।
पेरू में अमरीकी हस्तक्षेप:
दक्षिण अमरीका का देश पेरू पिछले 10-15 वर्षों से लोक युद्ध की भीषण त्रासदी झेल रहा है । साम्राज्यवादी अमरीका पेरू में लोकसत्ता स्थापित करने का विरोधी रहा । वह पेरू में सैनिक सहायता बढ़ाने में लगा रहा । उसने 1983 में 40 लाख डॉलर की सैनिक सहायता दी जो 1985 में बढ़कर 200 लाख डॉलर तक पहुंच गयी ।
इसके अतिरिक्त, अमरीका ने ‘ड्रग उमूलन’ के लिए 300 लाख डॉलर पेरू पुलिस को हथियारबन्दी तथा प्रशिक्षित करने के लिए दिये । 1985 में पेरू का रक्षा बजट 400 लाख डॉलर का था जिसकी आधी सहायता अमरीका कर रहा था । पेरू सरकार इस सहायता के बल पर जेलों में बन्द क्रान्तिकारियों की हत्या कराने लगी ।
क्यूबा-अमरीकी आर्थिक नाकेबन्दी का शिकार:
सोवियत संघ के विघटन के बाद अमरीका ने क्यूबा के पतन के प्रयास प्रारम्भ किये । अन्य देशों पर अमरीका दबाव डाल रहा है कि, वे क्यूबा से व्यापारिक सम्बन्ध तोड़ दें । क्यूबा में खाद्य पदार्थों तेल तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं की कमी होने लगी है । बुश प्रशासन क्यूबा में कमाण्डो कार्यवाही अल्फा 66 की धमकी देने लगा ताकि साम्यवाद का यह अन्तिम अवशेष धराशायी हो जाये ।
अमरीका ने क्यूबा में क्रान्ति का अन्त करने के लिए हर सम्भव प्रयास किया । पिछले 45 वर्षों से क्यूबा की आर्थिक नाकेबन्दी जारी है । इस नाकेबन्दी का क्यूबा के व्यापार-वाणिज्य पर अत्यन्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है ।
अमरीका ने क्रान्ति विरोधी क्यूबाई लोगों को न सिर्फ अपने देश में शरण दी अपितु उन्हें हर प्रकार की सहायता भी दी ताकि वे क्यूबा के अन्दर तख्ता पलटकर क्रान्ति का अन्त कर सके । क्रान्ति के नेता फिदेल कास्त्रो की हत्या कराने के लिए अमरीकी गुप्तचर संस्था सी.आई.ए द्वारा अनेक साजिशें रची गईं ।
हैती गणराज्य अमरीकी हस्तक्षेप:
ऐसा लगता है कि विद्रोह और फौजी बगावतें क्यूबा और डोमिनिकन रिपब्लिक के मध्य स्थित छोटे से देश हैती गणराज्य की तकदीर बन चुके हैं । अनेक देशों की तरह हैती भी उपनिवेशवाद का दंश झेल चुका है । हैती 1697 से 1804 तक फ्रांस के आधिपत्य में रहा ।
1804 में फ्रांस की गुलामी से आजाद होकर एक स्वतन्त्र गणराज्य के रूप में उभरा । 1915 से 1934 तक अमेरिका के आधिपत्य में रहा । बाद में 29 वर्षों तक ड्यूवैलियर परिवार की तानाशाही इस देश को झेलनी पड़ी । 1986 में अमरीका के सैन्य हस्तक्षेप से इस परिवार की तानाशाही का काला अध्याय समाप्त हुआ ।
1990 में एरिस्टाइड राष्ट्रपति पद पर चुने गए किन्तु सितम्बर 1991 में सेना ने विद्रोह कर सत्ता पर कब्जा कर लिया । अमेरिका ने इस मसले को संयुक्त राष्ट्र में जोर-शोर से उछाला । जुलाई, 1994 में अमेरिका समेत बहुराष्ट्रीय सेना ने हैती में सैन्य हस्तक्षेप कर एरिस्टाइड की सत्ता बहाल की । एरिस्टाइड और उनकी पार्टी लैवालास फैमिली पार्टी की सरकार के विरुद्ध बेस रेसिस्टेंस गुट के विद्रोह के कारण राष्ट्रपति एरिस्टाइड को देश छोड्कर भागना पड़ा ।
हैती को अराजकता से बचाने के लिए सुरक्षा परिषद् ने एक प्रस्ताव पारित कर बहुराष्ट्रीय सेना भेजने का निश्चय किया । 3 मार्च, 2003 तक हैती पर अमरीकी सेना का नियन्त्रण हो गया । धीरे-धीरे विद्रोह थमता गया और गेरार्ड लाटोरट के प्रधानमन्त्रित्व में 12 मार्च, 2004 को नयी सरकार अस्तित्व में आई ।
वेनेजुएला : अमरीकी हस्तक्षेप:
15 अगस्त, 2004 को वेनेजुएला में कराए गए जनमत संग्रह में राष्ट्रपति हूगो शावेज को भारी सफलता मिली । ऐसा कहते हैं कि वेनेजुएला की प्रतिगामी एवं दक्षिणीपन्थी ताकतों द्वारा संयुक्त राज्य अमरीका की मदद से देश की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करके शावेज को सत्ता से हटाने के लिए हड़तालों की लहर लाकर देश में आर्थिक अराजकता पैदा करने का प्रयास किया था ।
इन हड़तालों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण तेल उद्योग के क्षेत्र में कराई गई हड़ताल थी । शावेज ने इन हड़तालों का दृढ़ता से सामना किया । उन्होंने प्रमुख तेल कम्पनी का राष्ट्रीयकरण कर दिया तथा हजारों हड़ताली मजदूरों को बाहर का रास्ता दिखा दिया ।
इस जनमत संग्रह में संयुक्त राज्य अमरीका किस सीमा तक दखलन्दाजी कर रहा था उसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अमरीका के संगठन ‘नेशनल इण्डाउमेन्ट फॉर डेमोक्रेसी’ के माध्यम से बुश प्रशासन ने 20 लाख डॉलर की वित्तीय सहायता विपक्ष को प्रदान की थी ।
दक्षिण अमरीका में संयुक्त राज्य अमरीका के वर्चस्व को चुनौती देने वालों में शावेज अग्रिम पंक्ति में हैं और इसीलिए अमरीका उनको सहन नहीं कर सकता । शावेज के व्यक्तिगत तथा सरकार के स्तर पर क्यूबा के राष्ट्रपति फिडेल कास्त्रो के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध हैं और फिदेल अमरीका का एक नम्बर का दुश्मन है ।
अल साल्वाडोर : एफ.एम.एल.एन. की सफलता:
अल साल्वाडोर में 15 मार्च, 2009 को राष्ट्रपति पद के लिए मतदान हुआ । अल साल्वाडोर का यह चुनाव संयुक्त राज्य अमरीका के लिए बड़ा धक्का था । एफ.एम. एल.एन. की सफलता का तात्पर्य था कि एक और लैटिन अमरीकी राष्ट्र उसके नियन्त्रण एवं प्रभाव से मुक्त हो गया ।
अल साल्वाडोर में 1980-92 तक गृह-युद्ध चला जिसमें अमरीका ने खुलकर एफ.एम. एल.एन. का विरोध किया । एक अनुमान के अनुसार गृह युद्ध में मनोवांछित परिणाम पाने के लिए 6 अरब डॉलर अमरीका के द्वारा खर्च किए गए थे । इस गृह युद्ध में 75 हजार से अधिक लोग मारे गए थे ।
इक्वेडोर : संयुक्त राज्य अमरीका को धक्का:
अप्रैल 2009 में इक्वेडोर में राष्ट्रपति पद के चुनाव हुए । इस चुनाव में रफायल कोर्रिया की सफलता ने उन्हें 1972 के बाद के समय में पहला राष्ट्रपति बना दिया जो पुन: निर्वाचित हुआ हो । इक्वेडोर की राजनीतिक अस्थिरता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि, इस दशक में (1996-2006) सात राष्ट्रपतियों ने देश में शासन किया ।
कोर्रिया का निर्वाचन अस्थिरता के इस दौर को समाप्त कर देता है । कोर्रिया ने स्वतन्त्र एवं अमरीकी वर्चस्व विरोधी विदेश नीति का अनुसरण किया है । उन्हें अपने आन्तरिक मामलों में अमरीकी हस्तक्षेप अस्वीकार्य है । उन्होंने अमरीका से कह दिया है कि वह वर्ष 2009 के अन्त तक मान्ता के सैनिक अड्डे को बन्द कर दे ।
Essay # 4. लैटिन अमरीका में वामपन्थी प्रवृत्तियां (Latin America going towards Communism):
एक वक्त था जब लैटिन अमरीकी देश अमरीकी धड़कन समझे जाते थे । लेकिन क्यूबा में फिडेल कास्त्रो ने 50 वर्ष पहले साम्यवादी शासन स्थापित कर अमरीका के इस मिथक को मिथ्या साबित कर दिया । न केवल यही बल्कि उनके एक छापामार मित्र चेग्वेवारा और फ्रांसीसी बुद्धिजीवी रेजिस देबे ने अपनी वामपन्थी विचारधारा का जिस प्रकार फैलाव शुरू किया उससे पश्चिमी देशों में एक अजीब तरह की बेचैनी महसूस की जाने लगी ।
इन दो छापामारों ने बोलिविया के जंगलों को अपना शरणालय बनाया और स्थानीय लोगों का सहयोग प्राप्त कर तत्कालीन सरकारों को खुले आम चुनौती दे डाली । अमरीका के समर्थन से यद्यपि छापामार उन्मूलन प्रहार के कारण चेग्वेवारा मारा गया लेकिन जिन चिहों की छाप बोलिविया के जंगलों में वह छोड़ गये वह सिमट कर ही नहीं रह गयी, उसने ऐसा रास्ता बनाया जिसकी पगडण्डियां आज कई लैटिन अमरीकी देशों से होकर गुजरती हैं ।
क्यूबा के राष्ट्रपति फिडेल कास्त्रो के प्रशिक्षित छामापार अल साल्वाडोर निकारागुआ में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद अब कोलम्बिया ग्वाटेमाला होंडूरास पनामा बोलीविया आदि देशों में मार्क्सवादी सिद्धान्तों के प्रसार में जुट गये हैं ।
अमरीका के द्वार पर वामपथ की दस्तक सुनायी देने लगी है । क्यूबा में फिडेल कालो ने बातिस्ता की निरंकुश प्रवृत्तियों के विरुद्ध लोगों में जागरूकता पैदा करने में सफलता प्राप्त की (1 जनवरी, 1959 में कतिस्ता सत्ताच्युत), चिली में अस्थिरता के कारण डॉ. साल्वाडोर आयेंदे 1970 में राष्ट्रपति चुने गये, निकारागुआ में जिस प्रकार छापामारों ने 40 वर्षों से सत्तारूढ़ सोमोजा वंश के शासन के पतन की भूमिका तैयार की वह उनकी प्रहार क्षमता का प्रतीक है छापामारों ने इस सफलता के बाद अल साल्वाडोर पर तीखा प्रहार किया और 16 अक्टूबर, 1969 को राष्ट्रपति कारलोस ह्यूबर्टो रोमेरियो को एक सैनिक क्रान्ति में सताच्युत कर दिया ।
प्रश्न यह उठता है कि इन छापामारों को किसका सहयोग मिल रहा था ? क्या सोवियत संघ या उसका मित्र क्यूबा इन विद्रोहियों की सहायता कर रहे थे ? यद्यपि इस तरह के हस्तक्षेप या समर्थन को प्रत्यक्ष तौर पर मानने को तैयार नहीं हैं तो भी इसमें दो राय नहीं कि जब से फिडेल कास्त्रो क्यूबा में जमे हैं उन्हें उखाड़ा नहीं जा सका है ।
अमरीका की दृष्टि से अल साल्वाडोर में होने वाली उथल-पुथल में सोवियत संघ जैसी महाशक्ति का सक्रिय योगदान था । अमरीकी प्रशासन की मान्यता थी कि सोवियत संघ और उसके मित्र देश यह काम प्रत्यक्ष रूप से तो नहीं कर रहे लेकिन क्यूबा को माध्यम बनाकर उसे साम्यवादी खेमे में मिलाने का प्रयास कर रहे थे ।
अमरीका यह भी आरोप लगाता रहा है कि निकारागुआ की नव-वामपथी सरकार अल साल्वाडोर के वामपन्थी छापामारों को अस्त्र-शस्त्र देकर सहायता कर रही है । क्यूबा की साम्यवादी क्रान्ति तथा फिडेल काखों के नेतृत्व की वास्तविकता को संयुक्त राज्य अमरीका ने स्वीकार किया है ।
यदि निकारागुआ की सरकार को विकास व लोक कल्याण के कार्यों के लिए स्थिरतापूर्वक कुछ समय मिल गया तो निकारागुआ में भी साम्यवाद की जड़ें क्यूबा के समान ही गहरी हो जायेंगी । उत्तर व दक्षिण अमरीका महाद्वीपों को जोड़ने वाली पट्टी पर एकदम मध्य में स्थित निकारागुआ पड़ोसी देशों में साम्यवादी क्रान्ति का निर्यात अधिक सुगमता व निपुणता से कर पायेगा । निकारागुआ के मार्क्सवादी शासन को जमाने में क्यूबा व सोवियत संघ अपनी पुरजोर व सक्रिय भूमिका अदा कर रहे थे ।
भूखी, अशिक्षित और दरिद्र जनता के लिए साम्यवाद एक बढ़ता हुआ आकर्षण है और लैटिन अमरीका की भूमि उसके प्रसार के अनुकूल है । प्रो.ग्राहम.एच.स्टुअर्च के अनुसार- ”लैटिन अमरीका के गणतन्त्र में प्रजातन्त्र की अपेक्षा साम्यवाद के आश्वासन अधिक महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि यहां विदेशी पूंजीपतियों अथवा राष्ट्रीय राजनीतिज्ञों द्वारा जनता का शोषण एक सामान्य बात हो गयी है ।”
संयुक्त राज्य अमरीका की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि उसे गरीबी व शोषण के खिलाफ लड़ रहे जननायकों व जन आन्दोलनों के विरुद्ध बदनाम अलोकप्रिय व शोषण समुदायों का समर्थन करना पड़ता है । चूंकि इनके खिलाफ होने वाले आन्दोलन के नेतृत्व, साम्यवादी हैं एवं सोवियत संघ का इन्हें आशीर्वाद प्राप्त था जो सिद्धान्तत: सर्वहारा की तानाशाही में विश्वास रखते हैं लोकतन्त्रवादी नहीं हैं, अत: अमरीका बदनाम व अत्याचार पक्ष का पक्षधर बनने के लिए अपने आपको मजबूर पाता है ।
सोवियत संघ की निगाह एक लम्बे अर्से से इन देशों पर थी । वह उन्हें अपने प्रभाव में लाना चाहता था । इन देशों में जो साम्यवादी दल हें उनकी आस्था भी सोवियत संघ के प्रति थी । पिछले कुछ दशकों से सोवियत संघ लैटिन अमरीका के अनेक देशों को तकनीकी और वित्तीय सहायता देने लगा था ।
21वीं शताब्दी के प्रथम दशक में लैटिन अमरीका में संयुक्त राज्य विरोधी स्वर मुखर हो रहे हैं । ब्राजील और वेनेजुएला जैसे देशों की सरकारें अपनी स्वतन्त्र पहचान बना रही हैं तथा शावेज जैसे नेता अपने देश को अमरीकी पूंजी के द्वारा लूट के लिए खुले चरागाह में बदलने के सख्त खिलाफ हैं ।
फरवरी 2006 में सम्पन्न राष्ट्रपति चुनावों में हैती ने अमरीका को जोरदार झटका दिया । संयुक्त राज्य अमरीका समर्थित प्रत्याशी गेरार्ड लाटोरटू की शर्मनाक पराजय हुई । हैती में प्रेवाल की सफलता का तात्पर्य है देश की राजनीति में दक्षिणपंथी खेमे का कमजोर होना तथा देश की नीतियों एवं शासन में अमरीकी हस्तक्षेप का अन्त । इसका तात्पर्य है संयुक्त राज्य अमरीका के वर्चस्ववाद के विरुद्ध संघर्षरत शक्तियों का मजबूत होना । क्यूबा, ब्राजील, वेनेजुएला, चिली के साथ अब हैती भी खड़ा दिखाई देता है ।
21वीं शताब्दी लैटिन अमरीका में वामपंथ तथा समाजवाद की शताब्दी सिद्ध हो रही है । एक के बाद एक लैटिन अमरीकी देश समाजवाद की दिशा में कदम आगे बढ़ा रहा है । वेनेजुएला, बोलीविया, होण्डूटास, ग्वाटेमाला अर्जेन्टीना अल साल्वाडोर सभी राज्यों में सत्ता वामपंथियों के हाथ में है ।
Essay # 5. लैटिन अमरीका के सीमा विवाद (Boundary Disputes of Latin American States):
यूरोपीय उपनिवेशवाद की ‘फूट डालो और राज करो’ नीति के परिणामस्वरूप एशिया अफ्रीका और लैटिन अमरीका के विकासशील और अर्द्ध-विकसित राष्ट्रों को सीमावर्ती समस्याएं विरासत के रूप में मिलीं । लैटिन अमरीका में भी उन्नीसवीं और वर्तमान शताब्दी के प्रथम तीन-चार दशकों में ये समस्याएं काफी उग्र और गम्भीर थीं ।
1932 में बोलीविया और पारागुआई के बीच पारागुआई नदी और बोलिवियाई पहाड़ की तराई स्थित उत्तरी चाको को लेकर जो विश्व-प्रसिद्ध चाको युद्ध हुआ वह विश्व के सबसे क्रूर और हिंसक सीमावर्ती विवादों में से एक था । यह युद्ध 1932 से 1935 तक चला जिसमें लगभग 1 लाख 35 हजार लोगों की जानें गयीं ।
मौजूदा संकेतों के अनुसार लैटिन अमरीका में चार जगह सीमावर्ती संघर्ष कभी भी छिड़ सकता है:
1. ग्वाटेमाला-बेलीज:
बेलीज एक छोटा-सा देश है । 1964 में ब्रिटेन के बेलीज को राष्ट्रमण्डल के सह-सदस्य के रूप में मान्यता दी । बेलीज को आन्तरिक स्वायत्तता तो मिल गयी परन्तु सुरक्षा और विदेश नीति ब्रिटेन के ही जिम्मे रही ।
तबसे अनेक बार ब्रिटेन ने बेलीज को पूर्ण आजादी देने की पेशकश की किन्तु हर बार ग्वाटेमाला ने यह कहकर अड़चनें पैदा कीं कि यदि बेलीज को एकतरफा ढंग से आजादी दी गयी तो वह उस पर फौरन हमला कर देगा क्योंकि बेलीज की 23 हजार वर्ग किमी. भूमि पर वह अपना दावा पेश करता रहा है ।
ग्वाटेमाला और ब्रिटेन की सैनिक टुकड़ियां दिसम्बर 1975 से ही बेलीज की सीमा पर तैनात हैं । नवम्बर 1 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने ब्रिटेन से यह मांग की कि वह बेलीज को 1981 के अन्त तक आजाद कर दे । 11 मार्च, 1981 को ब्रिटेन ग्वाटेमाला और बेलीज के बीच त्रिपक्षीय सन्धि हुई । इस सन्धि के अन्तर्गत ग्वाटेमाला को यह छूट दी गयी कि वह बेलीज के समुद्री इलाकों का प्रयोग कर सकता है ।
यह समझौता नि:सन्देह एक ऐतिहासिक समझौता था और इसकी वजह से बेलीज की आजादी का मार्ग प्रशस्त हुआ । परन्तु बेलीज में इस समझौते के विरोध में हिंसक प्रदर्शन हुए । बेलीज के प्रधानमन्त्री जार्ज प्राइस ने भी कहा कि यह समझौता न तो पूर्ण है और न ही अन्तिम । कुछ भी हो, सीमावर्ती विवाद कम नहीं हुए हैं ।
2. पेरू-इक्वाडोर:
दक्षिण अमरीका के दो खनिज-तेल सम्पदा सम्पन्न राष्ट्र पेरू और इक्वाडोर के सीमावर्ती विवाद सम्भवत सबसे गम्भीर और सबसे पुराने हैं । 21 जनवरी, 1981 को दोनों राष्ट्रों के बीच बड़े पैमाने पर युद्ध भी हुआ और दोनों पक्षों को जान-माल की काफी हानि भी उठानी पड़ी । अन्त में अमरीकी राज्य संगठन के हस्तक्षेप पर एक सप्ताह बाद दोनों राष्ट्र युद्ध-विराम के लिए राजी हुए ।
1941 में दोनों देशों के बीच दस दिनों तक लड़ाई हुई जिसमें पेरू की विजय हुई । अगले वर्ष रिओ-दे-जेनेरो (ब्राजील की राजधानी) में नये सिरे से सीमा तय की गयी जो पेरू के लिए ही लाभप्रद साबित हुई ।
रिओ-दे-जेनेरो सन्धि की गारण्टी चार राष्ट्रों-ब्राजील चिली अर्जेण्टाइना और संयुक्त राज्य अमरीका-ने ली । तब से इक्वाडोर ने कई अवसरों पर इस सन्धि के विरुद्ध अपना असन्तोष व्यक्त किया है । पहली बार 1951 में उसने आम तौर पर यह घोषणा की कि वह रिओ सन्धि का पालन नहीं करेगा ।
1960 में इक्वाडोर के राष्ट्रपति वेलस्को इबार्रा ने इस सन्धि को यह कहते हुए गैर-कानूनी करार दिया कि इक्वाडोर ने सन्धि पर हस्ताक्षर अन्तर्राष्ट्रीय दबाव में आकर किये थे । वर्तमान संघर्ष तब छिड़ा जब इक्वाडोर ने तीन विवादग्रस्त क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया ।
लड़ाई तो खैर शीघ्र समाप्त हो गयी किन्तु दोनों राष्ट्रों के बीच 200 हजार वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र विवादग्रस्त था । 26 अक्टूबर, 1998 को ब्राजील की राजधानी ब्राजीलिया में पेरू एवं इक्वाडोर ने एक शान्ति समझौते पर हस्ताक्षर किए जिससे दोनों देशों के बीच छ: दशकों से चल रहा सीमा विवाद समाप्त हो गया ।
3. चिली-अर्जेण्टीना:
जहां तक चिली और अर्जेण्टीना के बीच विवादग्रस्त बीगल नहर का प्रश्न है, लम्बे अरसे से चला आ रहा यह विवाद अब निस्सन्देह एक नाजुक दौर में पहुंच गया है । अप्रैल 1982 में अर्जेण्टीना ने चिली के साथ अपनी सीमा बन्द कर दी थी और दोनों ओर से सैनिक टुकड़ियों को सजग कर दिया गया था ।
विवाद की जड़ में तीन छोटे-छोटे बंजर द्वीप हैं-लेनोक्स पिक्टन तथा नुवेवा जो बीगल नहर के पूर्वी किनारे पर अवस्थित हैं । 1977 में अन्तर्राष्ट्रीय विवाचन (Arbitration) के निर्णय के अनुसार ये तीनों द्वीप चिली के अधिकार-क्षेत्र में करार किये गये ।
अर्जेण्टीना को सहज परिवर्ती जल-मार्ग में सीमित अभिगमन की छूट दी गयी । अर्जेण्टीना ने इस निर्णय को मानने से इकार कर दिया और दोनों राष्ट्रों ने सैन्य प्रचलन की गतिविधियां तीव्र कर दीं । स्थिति तब नियन्त्रण में आयी जब अन्तिम क्षण पोप ने इस विवाद की मध्यस्थता करने की पेशकश की ।
4. गुयाना-वेनेजुएला:
गुयाना और वेनेजुएला का सीमा-विवाद भी करीब दो दशक पुराना है। गुयाना की समुद्री सीमा वेनेजुएला की सीमा से पूरब की ओर 270 मील तक आरिनो के मुहाने से कोरेताइन नदी तक जाती है । उसी प्रकार इसकी पश्चिमी सीमा का आधा ऊपरी भाग भी वेनेजुएला की सीमा से मिलता है ।
1899 में पेरिस विवाचन के निर्णय के अनुसार वेनेजुएला का 69,000 वर्ग मील का भूभाग तत्कालीन ब्रितानी गुयाना (आज का गुयाना) को दिया गया । नवम्बर 1963 में वेनेजुएला ने संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में यह मांग की कि 59,000 वर्गमील का क्षेत्र उसे लौटाया जाये ।
वेनेजुएला के वर्तमान मानचित्र में इसे क्वीवो नदी के पश्चिम अवस्थित 60,000 वर्ग मील के भू-भाग को विवादग्रस्त भूभाग के रूप में दिखाया गया है । अप्रैल 1981 में काराकास में गुयाना एवं वेनेजुएला के राष्ट्रपतियों ने इन मामलों को सुलझाने के लिए बातचीत भी की, लेकिन 36 घण्टे बाद ही वेनेजुएला ने दुबारा विवादग्रस्त क्षेत्र पर अपना दावा पेश किया । दोनों में मुठभेड़ की भी खबर मिली हैं । वेनेजुएला ने जार्ज टाउन स्थित अपने राजदूत को क्षेत्र बुला लिया और गुयाना ने किसी तीसरे राष्ट्र की मध्यस्थता स्वीकार करने से साफ इकार कर दिया है ।
इन सभी विवादों के पीछे खनिज तेल की महत्त्वपूर्ण भूमिका देखी जा सकती है । करीब-करीब सभी विवादग्रस्त इलाकों में जब से पेट्रोलियम पाये जाने की सम्भावना दिखायी पड़ने लगी है, दोनों पक्षों ने उन क्षेत्रों को अपने कब्जे में करने की कोशिश की है ।
उदाहरणार्थ, जब से मैक्सिको के दक्षिण-पूर्व चिपाया-तावस्को क्षेत्र में पेट्रोलियम के बड़े भण्डार मिले हैं, ग्वाटेमाला ने बेलीज के 22 हजार वर्ग किमी. भू-भाग पर दावे को अधिक तीव्रता से जताना शुरू कर दिया है, क्योंकि उसे विश्वास है कि चिपाया-तावस्को के तेल भण्डार का फैलाव बेलीज तक है ।
जहां तक पेरू-इक्वाडोर के विवाद का प्रश्न है, यहां भी तेल की वजह से ही मुठभेड़ें हुई हैं । अर्जेण्टीना और चिली के बीच विवाद की भी जड में प्रमुखतया तेल ही है । 1977 से दोनों राष्ट्र विवादग्रस्त क्षेत्र में तेल की खोज में लगे हैं । वेनेजुएला और गुयाना दोनों पेट्रोल सम्पदा-सम्पन्न हैं फिर भी वेनेजुएला की नजर विवादग्रस्त क्षेत्रों के तेल भण्डार पर है, ताकि वह एक अत्यन्त समृद्ध और प्रभावशाली क्षेत्रीय शक्ति के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय रंग-मंच पर एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सक ।
वर्तमान विवादों में राष्ट्रीय गरिमा का भी प्रश्न निहित हे । चूंकि 1942 की सन्धि के परिणामस्वरूप इक्वाडोर को अपने 70,000 वर्ग मील का क्षेत्र हाथ से गंवाना पड़ा था, इसलिए वह अपनी खोई हुई जमीन वापस लेकर राष्ट्रीय गरिमा को बढ़ा सकता है । अत: इन विवादों में राष्ट्रीयता और भावात्मकता के प्रश्न भी उलझे हुए हैं ।
वेनेजुएला के एक मशहूर लेखक खोरखे ओलावार्रिया ने वेनेजुएला-गुयाना विवाद के सम्बन्ध में ठीक ही कहा है कि- ”कानूनी और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से हमारी स्थिति विवेकहीन है, परन्तु भावात्मक और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह अवबोधनीय है ।”
साथ ही विवादग्रस्त राष्ट्रों की सरकारें अपनी लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था और दिनानुदिन बढ़ती हुई घरेलू समस्याओं से आम जनता का ध्यान हटाने के लिए भी इन विवादों को जीवित रख रही हैं ।
Essay # 6. लैटिन अमरीका में क्षेत्रीय सहयोग (Regional Co-Operation in Latin America):
A. अमरीकन राज्यों का संगठन (Organisation of American States):
अमरीकी राज्यों के संगठन की स्थापना का सर्वप्रथम प्रयास 1890 में वाशिंगटन में आयोजित ‘अन्तर-अमरीकन सम्मेलन’ में किया गया, जिसका उद्देश्य पश्चिमी गोलार्द्ध के राज्यों में पारस्परिक सद्भावना एवं सहयोग की स्थापना करना था ।
प्रथम महायुद्ध तक इस आन्दोलन को अधिक सफलता नहीं मिल सकी क्योंकि संयुक्त राज्य अमरीका ने इनका उपयोग अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए करना चाहा, जिसके कारण लैटिन अमरीका के देश सशंकित हो गये । फिर भी प्रथम महायुद्ध के बाद ‘अखिल अमरीकनवाद’ एक सरकारी आन्दोलन का रूप लेने लगा । इसके बाद दूसरा प्रयत्न 1945 में मैक्सिको में युद्ध और शान्ति की समस्याओं पर विचार करने के लिए आयोजित ‘अन्तर-अमरीकी सम्मेलन’ में किया गया ।
अगस्त-सितम्बर 1947 में रिओ-डी-जेनेरो में एक अखिल अमरीकन सम्मेलन हुआ, जिसके परिणामस्वरूप अमरीकन देशों ने रिओ सन्धि (Rio Treaty) पर हस्ताक्षर किये । इस सन्धि में निश्चय किया गया कि- ”समझौता करने वाले उच्च दल सहमति प्रकट करते हैं कि किसी भी राज्य द्वारा एक अमरीकन राज्य के विरुद्ध सशस्त्र आक्रमण सभी अमरीकन राज्यों के विरुद्ध सशस्त्र आक्रमण माना जायेगा ।” किन्तु किसी भी राज्य को ”उसकी सहमति के बिना शक्ति का प्रयोग करने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा ।”
किन्तु अमरीकन राज्यों के संगठन का विस्तृत स्वरूप मार्च-अप्रैल 1948 में बोगोटा (कोलम्बिया) सम्मेलन में ही निश्चित हुआ, जिसमें अमरीकन राज्यों के संगठन का चार्टर स्वीकृत किया गया । यह संगठन संयुक्त राष्ट्र संगठन सघ का एक प्रादेशिक अभिकरण है ।
इस संगठन के सदस्य हैं- अर्जेण्टाइना, बारबाडोज, बोलीविया, ब्राजील, क्यूबा, कोलम्बिया, कोस्टारिका, चिली, डोमिनिकन गणराज्य, जमैका, अल साल्वाडोर, इक्वाडोर, ग्वाटेमाला, होण्डूरास, हैती, निकारागुआ, पनामा, मैक्सिको, पेरू, पेरेगुआ, ट्रिनिडाड-टोबेगो, उरुग्वे, वेनेजुएला और संयुक्त राज्य अमरीका ।
इस संगठन के 5 अंग हैं:
i. अन्तर-अमरीकन सम्मेलन:
यह अन्य सभी अंगों के स्वरूप और कार्यों का तथा संगठन की नीति और कार्यक्रम का निर्धारण करता है । इसकी बैठक 5 वर्ष में एक बार होती है ।
ii. विदेशमन्त्रियों की बैठक:
यह आवश्यक विषयों पर विचार करती है, सशस्त्र आक्रमण की दशा में इसकी बैठक बुलाई जाती है । इसकी सहायता के लिए परामर्शदात्री प्रतिरक्षा समिति भी होती है ।
iii. परिषद:
प्रत्येक सदस्य राज्य द्वारा नियत किये गये एक-एक प्रतिनिधि से बनने वाले तथा वाशिंगटन में मुख्य कार्यालय रखने वाले इस अंग का प्रधान कार्य शान्ति-सुरक्षा सम्बन्धी कार्यों तथा इस संगठन के विभिन्न अंगों के कार्यों की देखभाल है ।
iv. पैन-अमेरिकन यूनियन:
यह इसका केन्द्रीय और स्थायी सचिवालय है ।
v. इसके विशेष संगठन विशिष्ट कार्य करने वाली संस्थाएं हैं ।
इसे ‘रिओ सन्धि’ (Rio Treaty) भी कहा जाता है । इसका लक्ष्य पश्चिमी गोलार्द्ध में सैनिक आक्रमण होने पर या शान्ति-भंग का भय होने की दशा में सामूहिक कार्यवाही की व्यवस्था करना है । अमरीकी राज्य संगठन (OAS) में स्पष्ट मतभेद हो गया है । यह बात ब्रासीलिया में सम्पन्न हुए 14वें सामान्य सभा के सम्मेलन में स्पष्ट हो गयी । यह सम्मेलन 17 नवम्बर, 1984 को समाप्त हुआ था । सम्मेलन में कई मुद्दों पर अमरीका व लैटिन अमरीकी राज्यों के बीच मतभेद बने रहे ।
सम्मेलन का उद्घाटन राष्ट्रपति जोआओ फिग्यूलरेडो ने किया । उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘अमरीकी राज्य संगठन’ का चार्टर किसी भी देश को दूसरे देश के विरुद्ध प्रत्यक्ष या परोक्ष आक्रमण करने की आज्ञा नहीं देता ।
यह बात एक तरह से अमरीका को चेतावनी थी कि वह निकारागुआ के सेंडिनिस्टा विरोधियों की सहायता न करे । सम्मेलन ने सर्वसम्मति से कोंटाडोर प्रस्ताव को अपनी स्वीकृति प्रदान की । कोंटाडोर प्रस्ताव में यह व्यवस्था है कि कोई भी देश दूसरे देश में सैनिक हस्तक्षेप नहीं करेगा ।
B. लैटिन अमरीका में आर्थिक सहयोग:
लैटिन अमरीकी देशों में क्षेत्रीय एकीकरण का निर्णय विशेष तौर पर इसलिए सम्भव हो सका कि उन लोगों ने देख लिया कि सिर्फ अमरीका जैसे विकसित देश पर निर्भर रहकर गरीबी और पिछड़ापन खत्म नहीं किया जा सकता । इसके लिए यह अत्यन्त जरूरी था कि वे विकास कार्यक्रमों को अपने हाथ में लें ।
लैटिन अमरीका में एंडी पर्वत श्रेणी और उसके समीपवर्ती क्षेत्रों के देशों का आर्थिक समूह ऐंडी अप नाम से प्रसिद्ध है । ऐंडी ‘समूह’ में कोलम्बिया, चिली, पेरू, बोलीविया, इक्वाडोर और वेनेजुएला हैं । इसका संगठन कार्टेगेना समझौते के अन्तर्गत जून 1969 में हुआ ।
आरम्भ में पांच ही देश शामिल हुए । वेनेजुएला ने 1973 में इसकी सदस्यता ग्रहण की । इन देशों में से किसी में भी लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार नहीं है । बोलीविया इन सबमें अनोखा है, जहां पिछले 160 वर्षों के स्वतन्त्र शासन में 200 राष्ट्रपति शपथ ग्रहण कर चुके हैं । इन छ: देशों की जनंसख्या 8 करोड़ है और प्रत्येक देश में खनिज-पदार्थ एवं अन्य प्राकृतिक सम्पदा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है ।
छठे दशक के अन्त में ‘समूह’ के देशों के राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि 5 प्रतिशत वार्षिक थी जबकि जनसंख्या में वृद्धि 3 प्रतिशत की दर से हुई । इन देशों का आर्थिक आधार अभी भी उस विदेशी मुद्रा की कमाई है जो वे मुख्य उत्पादकों के निर्यात से प्राप्त करते हैं ।
ये देश पहले भी ‘लैटिन अमरीकी फ्री ट्रेड ऐसोसिएशन’ (लाफटा) के सदस्य थे । इन्होंने एक दशक से ज्यादा के अनुभव से यह देख लिया कि इस संगठन से उन दोनों को ज्यादा लाभ पहुंचा है जो अपेक्षाकृत ज्यादा विकसित और बड़े हैं, जैसे-ब्राजील, अर्जेण्टाड्ना और मैक्सिको ।
‘कार्टागेना समझौते’ में यह तय किया गया है, कि आपसी सहयोग की भावना को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाया जाये और बंटवारा बराबर-बराबर हो । इनके अतिरिक्त ‘गरीबों में गरीब देश’ बोलीविया और इक्वाडोर के विकास के लिए विशेष प्रावधान रखा गया है ।
‘ऐंडी समूह समझौते’ में उद्योग सम्बर्द्धन सबसे प्रमुख है । इसके लिए यह निर्णय किया गया कि समूह के जिन देशों में उद्योगों की समस्या कम है, वहां पर नये उद्योग पहले स्थापित किये जायं । साथ ही इन देशों में एक-दूसरे के यहां से कच्चे और तैयार माल के आयात-निर्यात को सुगम बनाने के लिए आयात-निर्यात करके धीरे-धीरे कम करके 1980 तक एकदम खत्म करने का प्रावधान रखा गया । बोलीविया और इक्वाडोर को विशेष प्राथमिकता दी गयी । सदस्य देशों को आर्थिक और तकनीकी सहायता के लिए ऐडियन विकास निगम’ की स्थापना इस समझौते के अन्तर्गत सबसे महत्वपूर्ण काम था ।
क्षेत्रीय एकीकरण से तात्कालिक लाभ की जांच के लिए ‘ऐंडी-समूह’ के देशों के आपसी व्यापार में अनुपात की वृद्धि को देखा जा सकता है । ऐडियन क्षेत्र में आपसी व्यापार 1968-72 के बीच करोड़ डॉलर का हुआ, जबकि एकीकरण के पहले यह व्यापार लगभग 6 करोड़ डॉलर ही था ।
1973 में जब वेनेजुएला भी इस समूह में शामिल हो गया तो वह बढ़कर 30 करोड़ डॉलर हो गया और 1974 के अन्त तक करोड़ डॉलर तक पहुंच गया । साथ ही बोलीविया और इक्वाडोर की आर्थिक स्थिति में सुधार की नीति को ध्यान में रखते हुए कोलम्बिया, चिली और पेरू ने कई ऐसे उत्पादकों पर से ऐसा सीमा-शुल्क जनवरी 1971 से उठा लिया जिनके प्रमुख उपभोक्ता ये दोनों देश हैं ।
क्षेत्रीय एकीकरण को निश्चय ही कुछ तात्कालिक लाभ हुआ है, लेकिन सहयोग के जिन मुद्दों को लेकर यह प्रयास हुआ था उस पर अब काफी असहमति है । इनकी वजह एंडी क्षेत्र के देशों का अपना-अपना स्वार्थ है । असहमति का एक मुद्दा विदेशी पूंजी निवेश को लेकर है; इसके अतिरिक्त, वेनेजुएला अपनी सुदृढ़ आर्थिक स्थिति के कारण मनमानी कर रहा है ।
1973 के बाद चिली समूह की नीतियों पर चलने को तैयार नहीं, शेष पांचों भी एक साथ चल सकेंगे ऐसा लगता नहीं । बोलीविया ऐडियन समूह में तो है ही अब ‘रिवर काटा बेसिक ग्रुप’ से भी हाथ मिलाने लगा है जिसका प्रमुख सदस्य ब्राजील है ।
वह अभी असमंजस की स्थिति में है किसे पकड़े किसे छोड़े ? पेरू भी पहले की तरह समूह के प्रति बफादार नहीं रहा । कहने को तो पेरू में विदेशी पूंजी निवेश पर कठोर नियन्त्रण है लेकिन विदेशी पूंजी का प्रवाह ज्यादा वहीं है ।
इक्वाडोर नेतृत्व देने की स्थिति में नहीं है और कुछ यही स्थिति कोलम्बिया की भी है । शेष बचा वेनेजुएला जो सहयोगी देशों की विदेशी पूंजी निवेश की नीति से काफी असन्तुष्ट है और अक्सर अपने को अलग करने की धमकी देता है ।
C. साउथ अमरीकन यूनियन ऑफ नेशन्स:
दक्षिण अमरीका महाद्वीप के 12 देशों में यूरोपीय संघ की तर्ज पर एक नये संगठन का 23 मई, 2008 को गठन किया गया । ‘साउथ अमरीकन यूनियन ऑफ नेशन्स’ (यूनासुर) नाम से गठित इस संगठन का मुख्यालय बोलीविया में है ।
इस नये संगठन का उद्देश्य सदस्य राष्ट्रों में आर्थिक एकीकरण विकास और राजनीतिक सहभागिता को बढ़ाना है इसके साथ ही सदस्य देश ऊर्जा आधारभूत ढांचे और वित्तीय परियोजनाओं के लिए भी आपस में सहयोग के लिये वचनबद्ध हैं ।
Essay # 7. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में लैटिन अमरीका की भूमिका (Latin America: Role in International Politics):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में लैटिन अमरीका का महत्व बढ़ता जा रहा है:
a. यहां कच्चे माल का सबसे अधिक उत्पादन होता है;
b. यहां के अधिकांश राष्ट्र निर्गुट हैं और गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में शामिल होते जा रहे हैं;
c. यहां के अधिकांश राष्ट्र अफ्रीकी-एशियाई राष्ट्रों में अधिक निकट का सम्बन्ध स्थापित करते जा रहे हैं और ‘तीसरी दुनिया’ के रूप में संगठित होकर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रभावशाली भूमिका अदा करने की क्षमता रखते हैं;
d. संयुक्त राष्ट्र संघ में लैटिन अमरीका के राष्ट्र एकजुट होकर निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं;
e. लैटिन अमरीका में अमरीका के साधन सेना सम्पत्ति एवं खुफियागीरी है तथा उसके स्थानीय प्रतिनिधि शोषक व उत्पीड़क लोग हैं परिणामत उसका लोकतान्त्रिक मुखौटा एक मजाक बन जाता है ।
सी.आई.ए की गन्दी व बदनाम हरकतें अमरीका के प्रति स्थानीय समाज में घृणा उत्पन्न करती हैं । 16 जनवरी, 1992 को अल साल्वाडोर की सरकार एवं वामपन्थी गुट के मध्य शान्ति समझौते पर हस्ताक्षर हो गये । इस समझोते के साथ ही मध्य अमरीका के इस जर्जर राष्ट्र में शान्ति एवं पुनर्निर्माण के प्रति आशा की एक नई किरण का प्रस्फुटन हुआ ।
संक्षेप में, आज लैटिन अमरीका के प्रगतिशील और क्रान्तिकारी आन्दोलनों के सम्मुख सबसे महत्वपूर्ण समस्या अमरीकी प्रभुत्व से छुटकारा पाना है । लैटिन अमरीका को वर्तमान युग में सैनिक तानाशाही, साम्यवादी क्रान्तिकारी आन्दोलन और अमरीकी हस्तक्षेप के त्रिमुखी प्रभावों से गुजरना पड़ रहा है ।
इसमें सन्देह नहीं कि एशिया और अफ्रीका के नवजागरण के बाद अब लैटिन अमरीकी महाद्वीप के अभ्युदय का दौर आरम्भ हो चुका है । अमरीका से लोहा लेने के सन्दर्भ में ही नहीं, बल्कि समूची तीसरी दुनिया के सामूहिक हितों की रक्षा के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में ये राष्ट्र अगुवाई करने लगे हैं । समुद्री कानून सम्मेलन तथा अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था सम्बन्धी संवाद इसका अच्छा उदाहरण है ।