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Here is an essay on ‘Liberalisation’ especially written for school and college students in Hindi language.
उदारीकरण का अर्थ व्यापार हेतु कानूनी प्रतिबन्धों में ढील देते हुए आयात व निर्यात को आसान बनाने से होता है । उदारीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें देश के शासनतन्त्र द्वारा अपनाए जा रहे लाइसेन्स, नियन्त्रण, कोटा, प्रशुल्क आदि प्रशासकीय अवरोधों को कम किया जाता है ताकि देश को आर्थिक विकास के मार्ग पर ले जाया जा सके ।
उदारीकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत मोटे तौर से निम्नांकित बातें शामिल हैं:
1. वर्षों से चली आ रही औद्योगिक लाइसेन्सिंग प्रणाली का अन्त करना (Dismantling of Industrial Licensing System),
2. आयात पर लगाए गए बाह्य प्रतिबन्धों को हटाना या कमी करना (Reduction on Physical Restrictions on Imports),
3. आयातों पर चुंगी अथवा ड्यूटी में कमी लाना (Reduction in Rate of Import Duties),
4. विदेशी विनिमय पर लगाए नियन्त्रणों में ढील देना (Reduction in Controls on Foreign Exchange, both Current and Capital Account),
5. वित्तीय व्यवस्था में सुधार लाना (Reforms of Financial System),
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6. व्यक्तिगत और निगमित कराधान की मात्रा में कमी लाना (Reduction in Levels of Personal and Corporate Taxation),
7. विदेशी निवेश पर प्रतिबन्धों में ढील देना (Reduction in Restrictions on Foreign Investments),
8. अभी तक जो क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र के लिए रेखांकित थे (जैसे बैंकिंग, यातायात, बिजली, मूलभूत उद्योग आदि) उन्हें निजी क्षेत्र के लिए खोलना (Opening up of Areas Reserved for Public Sector),
9. सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों का आंशिक निजीकरण (Partial Privatisation of Public Sector Units),
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10. अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को प्रतिस्पर्द्धी बनाना (To Make Various Sectors of Economy Competitive on a Global Scale) ।
उदारीकरण के अन्तर्गत अर्थव्यवस्था पर बाह्य नियन्त्रण हटाए जाते हैं न कि विनियम (Regulations) । उदारीकरण का अर्थ गुप्त रूप से निर्णय लेना नहीं है, अपितु निर्णय प्रक्रिया में पारदर्शिता लाना है । उदारीकरण यह भी इंगित नहीं करता कि किसी देश की अर्थव्यवस्था को बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए पूरा खोल दिया जाए ।
आज आर्थिक उदारीकरण और भूमण्डलीकरण की लहर विश्व के सभी भागों में कहीं तेज और कहीं मन्द रफ्तार से चल रही है । सामान्य तौर पर विश्व के अनेक भागों में आर्थिक उदारीकरण की लहर वर्ष 1980-81 से विश्व की प्रमुख मानी जाने वाली समाजवादी अर्थव्यवस्थाओं के भ्रमजाल के टूटने के फलस्वरूप प्रारम्भ हुई और सोवियत संघ सहित पूर्वी यूरोप और चीन जैसे साम्यवादी देश में आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया तेजी से फूलती गई ।
भारत में भी आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया 1980 के दशक में विशेष रूप से राजीव गांधी के प्रधानमन्त्री पद संभालने के बाद वर्ष 1985 से शुरू हुई । इन सुधारों को वर्ष 1991 में पी.वी. नरसिंह राव की सरकार ने सत्ता संभालने के बाद सुव्यवस्थित रूप प्रदान करने का प्रयास किया ।
इसे आर्थिक सुधारों की दूसरी लहर अथवा दूसरी पीढ़ी के सुधारों के नाम से सम्बोधित किया गया । उदारीकरण अथवा आर्थिक सुधारों के अन्तर्गत सार्वजनिक क्षेत्र को सीमित करके निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने, उत्पादन प्रक्रिया में सुधार लाने, आधुनिक टेक्नोलॉजी को आत्मसात करने तथा उपलब्ध क्षमताओं का भरपूर प्रयोग करने हेतु लाइसेन्स प्रणाली को सरल बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण उपायों को अमली जामा पहनाया गया ।
उदारीकरण के शिकार : मैक्सिको एवं दक्षिण-पूर्व एशिया के देश:
कृषि अर्थव्यवस्था से औद्योगिक अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर मैक्सिको ने संयुक्त राज्य अमेरिका, विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के परामर्श (दबाव) पर अपनी अर्थव्यवस्था के द्वार विदेशी निवेशकों के लिए मुक्तभाव से खोल दिए ।
वर्ष 1993 एवं 1994 में वहां अरबों डॉलर के विदेशी निवेश का अन्तरप्रवाह हुआ । आर्थिक सुधार एवं उदारीकरण के नाम पर दी गई विभिन्न छूटों का परिणाम यह हुआ कि मैक्सिको के पूंजी बाजार में बेतहाशा विदेशी पूंजी आई जिससे मुद्रा प्रसार की स्थिति उत्पन्न हुई ।
दूसरी ओर निर्यातों में अपेक्षित वृद्धि न हो पाने तथा आयातों के बढ़ जाने से व्यापार खाते का घाटा बहुत अधिक बढ़ गया ओर भुगतान सन्तुलन काफी बड़ी सीमा तक प्रतिकूल हो गया । मुद्रा स्फीति की स्थिति से उबरने के लिए सरकार ने पीसो (मुद्रा) का अवमूल्यन कर दिया । उद्देश्य यही था कि इससे निर्यात बढ़ेंगे तथा आयात कम होंगे ।
इससे विदेशी पूंजी निवेशकों में हड़कम्प मच गया । सरकारी तौर पर तो मैक्सिन पीसो का 30 प्रतिशत ही अवमूल्यन किया गया परन्तु उसका मूल्य लगातार गिरता रहा और 6 जनवरी, 1995 को पीसो का मूल्य 19 दिसम्बर, 1994 के मुकाबले 59 प्रतिशत कम हो गया ।
मैक्सिको के मामले में महत्वपूर्ण यह नहीं है कि उसने उदारीकरण करके विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए हर सम्भव प्रयास किए बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि वर्ष 1993 में लगभग 3,610 अमरीकी डॉलर के बराबर प्रति व्यक्ति आय के साथ स्वयं को विकसित देश होने का दम्भ करने वाला देश मैक्सिको जिसने स्वयं को विकासशील देशों के समूह ‘जी-77’ से अलग करके विकसित देशों के समूह में शामिल हो जाने की घोषणा 1994 में की थी, को अचानक ही ऐसा क्या हो गया कि उसकी अर्थव्यवस्था 1995 में गहरे आर्थिक संकट में फंस गई ?
निवेशकों को करोड़ों डॉलर का घाटा हुआ और संयुक्त राज्य अमेरिका एवं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को ऋण सहायता देने के लिए आगे आना पड़ा । अमरीका की मदद से मैक्सिको को उबारने का एक बड़ा अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास चला और 1995 के मध्य तक उसे 50 अरब डॉलर से ज्यादा की रकम उपलब्ध कराई गई (जिसमें अमरीकी मदद 20 अरब डॉलर, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का ऋण 7.8 अरब डॉलर और अन्तर्राष्ट्रीय निपटान बैंक के 10 अरब डॉलर के साख पत्र शामिल हैं) ।
इतनी बड़ी विदेशी मदद के बावजूद रोजगार और उत्पादन के मामले में मैक्सिको की अर्थव्यवस्था उबर नहीं पाई । 1990 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में पूर्वी एशियाई देश दक्षिण कोरिया ने विश्व बाजार में धमाकेदार अपनी उपस्थिति दर्ज की तथा वर्ष 1997 के उत्तरार्द्ध में स्वयं को ‘जी-77’ देशों के समूह से पृथक् करके अपने को विकसित देश घोषित कर दिया । दक्षिण कोरिया की गणना विश्व की ग्यारहवीं बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में की जाने लगी ।
वहीं दक्षिण कोरिया इस सीमा तक गहरे आर्थिक संकट में धंस गया कि वहां के राष्ट्रपति ने 23 दिसम्बर, 1997 को सरकार को असहाय बताते हुए यहां तक कह डाला कि वे यह नहीं बता सकते कि दक्षिण कोरिया आज दिवालिया हो जाएगा या कल ? स्थिति से उबरने के लिए दक्षिण कोरिया ने अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से 60 अरब डॉलर की तत्काल सहायता दिए जाने की मांग की ।
इन्हीं दिनों दक्षिण एशिया के दो अन्य प्रमुख विकासशील देशों – इण्डोनेशिया तथा थाईलैण्ड में भी गम्भीर वित्तीय संकट उत्पन्न हुआ । इण्डोनेशिया रूपिया का विनिमय मूल्य अप्रैल, 1997 के अन्त में 2,460 रुपया प्रति अमरीकी डॉलर से लगभग 84 प्रतिशत गिरकर 22 जनवरी, 1998 को 15,000 रूपिया प्रति डॉलर के स्तर पर पहुंच गया ।
थाई बहत अप्रैल 97 के अन्त में 26.07 बहत प्रति डॉलर से 47.92 प्रतिशत नीचे गिरकर 14 जनवरी, 1998 को 50 बहत प्रति डॉलर रह गया । एक समय था जब जापानी उद्योगपति द्वितीय महायुद्ध के बाद कठिन मेहनत करके आर्थिक प्रगति के क्षेत्र में सारी दुनिया में छा गए थे ।
खासतौर से इलेक्ट्रोनिक के क्षेत्र में जापान का कोई मुकाबला नहीं था परन्तु 1990 के दशक में जापान में एकाएक घोर मंदी आ गई । अर्थव्यवस्था में एक तरह का ठहराव पैदा हो गया और आम जापानी की आर्थिक हालत बद से बदतर होती गई ।
कंपनियां दिवालिया होने लगीं । डाकामुनिहोरी ओर योशियाकी मुराकामी नामक दो बड़े उद्योगपति जिन्होंने आर्थिक उदारीकरण का लाभ उठाकर देश की विभिन्न कंपनियों में भरपूर निवेश किया था, अचानक दिवालिया हो गए । आर्थिक सुधार के रास्ते बहुत आगे बढ़ने से जापान की यह हालत हुई ।
आर्थिक मंदी के दौर में जापान में राष्ट्रीय कर्ज जीडीपी की तुलना में 160 प्रतिशत से अधिक है और वह प्रतिवर्ष 6 प्रतिशत की दर से बढ़ता ही जा रहा है । जापान के कट्टरपंथी भी कह रहे हैं कि आज की तारीख में जापान में आर्थिक विकास मुश्किल से दो प्रतिशत हो रहा है ।
उदारीकरण के कर्ताधर्ताओं को यह विश्वास हो चला था कि विदेशी व्यापार, पूंजी निवेश, विदेशी विनिमय बाजार तथा पूंजी बाजार में पूरी तरह से मुक्त प्रवेश और बहिर्गमन की नीति अपनाकर अर्थव्यवस्था को ऊंची विकासदर की ओर ले जाया जा सकता है ।
लेकिन उपर्युक्त देशों में जो कुछ घटा है उससे कम-से-कम इन देशों के लोगों का उदारीकरण के प्रति मोह भंग हो ही गया है । नोबेल पुरस्कार से सम्मानित जेम्स होबिन के अनुसार, ”दक्षिण-पूर्व एशिया में घटी घटनाएं यह प्रश्न पैदा करती हैं कि क्या यह दावा वास्तव में सही है कि वित्तीय बाजारों का वैश्वीकरण या उदारीकरण सम्पन्नता एवं प्रगति का मार्ग है ?”
कई विशेषज्ञों ने मैक्सिको के संकट के आधार पर अर्थव्यवस्था के खुलेपन और वित्तीय पूंजी में वृद्धि को खतरनाक माना है । यह कहा गया है कि ज्यादा खुलापन हमें बाहर की बाजार की शक्तियों के आगे लाचार बना देगा और बड़े विदेशी निवेशकों का आधिपत्य कायम हो जाएगा ।
उदारीकरण के प्रभाव:
उदारीकरण के परिणामस्वरूप विकास की सपूर्ण रणनीति में भारी बदलाव आया है और तीसरी दुनिया के विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर इसके सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगे हैं:
i. यह उदारीकरण का ही परिणाम है कि आज तीसरी दुनिया के देशों के बाजार भांति-भांति की उपभोक्ता वस्तुओं से भरे पड़े हैं । विलायती वस्तुएं इन देशों के बाजारों में बिक्री के लिए मौजूद हैं । ग्राहक के लिए ‘विकल्प सुख’ का आलम यह है कि बाजार में आज टेलीविजन, रेफ्रिजरेटर एवं वाशिंग मशीन जैसे उपभोक्ता उत्पादों की सैकड़ों किस्में उपभोक्ता के लिए उपलब्ध हैं ।
इसके अतिरिक्त मोटरकार से लेकर साबुन तक विविध उपभोक्ता वस्तुओं की सैकड़ों किस्में बाजारों में अपने ग्राहक तलाश रही हैं । टीवी के चैनलों और सेल्युलर फोनों का जाल निरन्तर विस्तार पा रहा है । बाजार में व्यावसायिक प्रतिस्पर्द्धा इतनी तीव्र है कि उत्पादकों में ग्राहक को उसकी मनचाही चीज मनमाफिक दामों में उपलब्ध कराने की होड़ लगी है ।
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ii. उदारीकरण सिर्फ सकारात्मक परिणाम ही लेकर आया हो, ऐसा नहीं है । आंकड़े गवाह हैं कि विगत वर्षों में तीसरी दुनिया के देशों में आर्थिक संकट तीव्र गति से गहराता जा रहा है । विगत दशक में दक्षिण-पूर्व एशिया के देश भयंकर आर्थिक संकट में फंस गए ।
विदेशी निवेश के बल पर बने ‘टाइगर’ अचानक बिल्लियां बन गए । हालत यह बनी कि इण्डोनेशिया के 239 बैंकों में से 70 की हालत नाजुक बन गई और 15 बैंकों को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव में बन्द करना पड़ा । लगभग यही स्थिति दक्षिणी कोरिया की हुई ।
दक्षिण-पूर्व एशिया के देश अपनी मुद्रा में निरन्तर आ रही गिरावट को रोक पाने में असमर्थ रहे । जापान का सुदृढ़ येन निरन्तर गिरता रहा । जापान ने दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में भारी निवेश किया था । ये सभी देश चाहे मलेशिया हो, इण्डोनेशिया हो, सिंगापुर हो अथवा थाईलैण्ड हो सभी की अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी ।
जिस गति से इन देशों में विदेशी निवेश हुआ उससे ये देश ऋणभार से दब गए । जब ऋण अदायगी का समय आया तब इनकी अर्थव्यवस्था का पर्दाफाश हो गया और सभी देशों को बाध्य होकर अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की शरण में जाना पड़ा ।
iii. भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में कई घरेलू उद्योग जो उदारीकरण से पूर्व तक लाभ की स्थिति में थे, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के बाजारों में प्रवेश के बाद बुरी तरह लड़खड़ाते प्रतीत हो रहे हैं । समूचा निर्माण क्षेत्र सस्ते मूल्य पर माल बेचने वाली विदेशी कम्पनियों के कब्जे में आता जा रहा है । उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार देश के कपड़ा उद्योग में निवेश गिरकर आधा रह गया है । वहीं रसायन व सीमेण्ट उद्योग में भी गिरावट आई है ।