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Here is an essay on ‘National Interest’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘National Interest’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on National Interest
Essay Contents:
- राष्ट्रीय हित: अभिप्राय (National Interest: Meaning)
- राष्ट्रीय हित के प्रकार (Kinds of National Interest)
- राष्ट्रीय हित की अवधारणा का विकास (Evolution of the Concept of National Interests)
- विदेश नीति और राष्ट्रीय हित (Foreign Policy and National Interest)
- राष्ट्रहित: अन्तरमार्ग (The Core of National Interest)
- राष्ट्र हितों की अभिवृद्धि के साधन (Instruments for the Promotion of National Interests)
- राष्ट्रीय हित की अवधारणा: आलोचनात्मक मूल्यांकन (Concept of National Interests: Critical Appraisal)
Essay # 1. राष्ट्रीय हित: अभिप्राय (National Interest: Meaning):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रीय हित की अवधारणा का विशिष्ट महत्व है । यह विदेश नीति का प्राण तत्व है । विदेश नीति की सफलता और असफलता का मूल्यांकन राष्ट्रीय हित के परिप्रेक्ष्य में ही किया जा सकता है ।
यदि विदेश नीति राष्ट्रीय हित का रक्षण करने में सफल होती है तो उसे सफल विदेश नीति कहा जाता है और यदि वह राष्ट्रीय हितों की रक्षा नहीं करपाती तो उसे असफल विदेश नीति कहा जाता है । मॉरगेन्थाऊ के राजनीतिक दर्शन का मुख्य तत्व है राष्ट्रहित की प्रधानता । मॉरगेन्थाऊ ने राष्ट्रीय हित को शक्ति कहकर पुकारा है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भाग लेने वाले सभी देश अपने कार्यों का संचालन जिस नीति और सिद्धान्त के आधार पर करते हैं, उसे ‘राष्ट्रीय हित’ कहा जाता है । यह राष्ट्रीय हित किसी भी देश की विदेश नीति की आधारशिला होता है ।
दिसम्बर, 1947 में जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा में भाषण देते हुए कहा था- किसी भी देश की विदेश नीति का आधार उसके राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा है । भारत की विदेश नीति का ध्येय इसके राष्ट्रीय हित की सुरक्षा है ।
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‘राष्ट्रीय हित’ एक बड़ा लचीला तथा व्यापक शब्द है । प्रत्येक देश का राष्ट्रीय हित उसकी आवश्यकताओं के अनुसार अलग-अलग प्रकार का होता है । यह भौगोलिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों से निर्धारित होता है । प्रत्येक देश के आर्थिक तथा सैनिक तब, उसकी प्राचीन परम्पराएं, आचार-विचार, रीति- रिवाज, धार्मिक, दार्शनिक, सामाजिक विचारधाराएं और विश्वास राष्ट्रीय हित के निर्माण में भाग लेते हैं ।
इनके आधार पर प्रत्येक देश के व्यक्ति और शासक कुछ विशेष बातों को अपने राष्ट्रीय हित की दृष्टि से आवश्यक और उपयोगी समझते हैं और इनके आधार पर अपनी विदेश नीति का निर्माण करते हैं । राष्ट्रीय हित की अवधारणा बड़ी अस्पष्ट है, अत: इसकी परिभाषा करना कठिन कार्य है । रेमां आरों के अनुसार राष्ट्रीय हित की अवधारणा इतनी अस्पष्ट है कि, यह अर्थहीन ही है या इसे अधिक से अधिक एक दिखावे की धारणा कहा जा सकता है ।
चार्ल्स लर्च तथा अब्दुल सईद के अनुसार- व्यापक, दीर्घकालीन और सतत उद्देश्य जिसकी सिद्धि के लिए राज्य, राष्ट्र और सरकार में सब अपने को प्रयल करता हुआ पाते हैं, राष्ट्रीय हित है । वॉन डिक के अनुसार राष्ट्रीय हित की परिभाषा एक ऐसी चीज के रूप में की जा सकती है जिसकी रक्षा या उपलब्धि राज्य एक-दूसरे के मुकाबले में करना चाहते हैं ।
राष्ट्रीय हित प्रभुत्वसम्पन्न राज्य की अभिलाषाएं हैं जिसे वह अन्य राष्ट्रों के सन्दर्भ में प्राप्त करना चाहते हैं । अन्य राज्यों के मुकाबले में एक राज्य जो अभिलाषाएं रखता है वे मोटे तौर से विदेश नीति के ध्येय होते हैं और इन ध्येयों को ही राष्ट्रीय हित के नाम से पुकारा जाता है ।
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विदेश नीति के इन ध्येयों को लक्ष्य और उद्देश्य (Goals and Objectives) भी कहा जाता है । विदेश नीति के लक्ष्य दीर्घकालिक हित हैं जबकि उद्देश्य केवल तात्कालिक या अल्पकालीन होते हैं । यह एक विवादास्पद प्रश्न है कि क्या राष्ट्रीय हित विदेश नीति का उद्देश्य (Objectives) है अथवा मूल्य (Value) ।
जो विचारक राष्ट्रीय हित को ‘उद्देश्य’ मानते हैं उनके अनुसार यह स्थायी, अपरिवर्तित तथा शक्ति से जुडी हुई धारणा है । (Those who regard the national interest as objectives usually regard national interest as permanent, unchanging and related to power.) जो विचारक इसे मूल्यपरक अवधारणा मानते है उनके अनुसार यह शक्ति के अतिरिक्त मूल्यों से जुड़ी हुई अवधारणा है । (Those who regard the national interest as subjective usually affirm that it includes values other than power.) पैडलफोर्ड और लिंकन के अनुसार- ”राष्ट्रीय हित की अवधारणा समाज के मूलभूत मूल्यों से जुड़ी हुई है । ये मूल्य हैं: राष्ट्र का कल्याण, उसके राजनीतिक विश्वासों का संरक्षण, राष्ट्रीय जीवन पद्धति, क्षेत्रीय अखण्डता तथा सीमाओं की सुरक्षा ।” (Concepts of national interests are centered on core values of the society, which includes the welfare of the nation, the security of its political belief, national way of life, territorial integrity and its self-preservation.)
कभी-कभी ‘राष्ट्रीय हित’ शब्द का प्रयोग लक्ष्यों के विश्लेषण के लिए भी किया जाता है । फलत: इसके अर्थ में अस्पष्टता का बोध होता है ।
पॉल सीबरी ने इस अस्पष्टता को व्यक्त करते हुए बताया है कि- ‘राष्ट्रीय हित’ शब्दावली का प्रयोग कम से कम तीन अर्थो में होता है:
प्रथम- राष्ट्रीय हित के विचार में भविष्य में प्राप्त होने वाले ऐसे आदर्श लक्ष्य सन्निहित हैं, जिन्हें कोई राष्ट्र अपनी विदेश नीति के माध्यम से प्राप्त करना चाहता है । इसे राष्ट्रहित की आदर्शपरक नागरिक धारणा (Normative civic concept of national interest) के नाम से पुकारा जाता है ।
द्वितीय- राष्ट्रहित का अन्य महत्वपूर्ण अर्थ वर्णनात्मक (Descriptive) है । इस अर्थ में राष्ट्रीय हित का अर्थ उन लक्ष्यो से है जिन्हें कोई भी राष्ट्र निरन्तर अपने नेतृत्व के माध्यम से प्राप्त करने का प्रयास करता है । इस अर्थ में राष्ट्रीय हित कोई आध्यात्मिक वस्तु नहीं है, परन्तु यथार्थपरक है ।
तृतीय- अर्थ में राष्ट्रीय हित से अभिप्राय उन लक्ष्यों से है जिन्हें किसी राष्ट्र के कर्णधार स्वीकार करते हों । जोसेफ फ्रेंकेल ने अपनी पुस्तक ‘नेशनल इण्टरेस्ट’ में राष्ट्रीय हित की व्याख्या राष्ट्र की आकांक्षाओं, विदेश नीति के क्रियात्मक, व्याख्यात्मक तथा विवादों का निरूपण करने वाले तत्व के रूप में की है ।
Essay # 2. राष्ट्रीय हित के प्रकार (Kinds of National Interest):
थॉमस रॉबिन्सन ने राष्ट्रीय हित के विभित्र प्रकारों को छ: वर्गों मे बांटा हैं, ये हैं:
(1) प्रथम कोटि के हित (Primary Interests):
ये वे हित हैं जो किसी राज्य के लिए सर्वाधिक महत्व रखते हैं और जिनकी रक्षा के लिए राज्य बड़े से बड़ा बलिदान और त्याग करने के लिए सदा तैयार रहते है । इस प्रकार का सबसे बड़ा हित राष्ट्र की सुरक्षा है ।
(2) गौण हित (Secondary Interests):
ये वे हित हैं जो प्राथमिक हितों से कम महत्व रखते हैं, किन्तु फिर भी राज्य की सत्ता बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं । इस वर्ग के हितों के उदाहरण हैं- विदेशों में अपने नागरिकों की सुरक्षा तथा इस बात को सुनिश्चित बनाना कि विदेशों में अपने देश के राजदूतों की राजनयिक उन्मुक्तियों (Diplomatic Immunities) की तथा नागरिकों के हितों की रक्षा की जाए ।
(3) स्थायी हित (Permanent Interests):
ये राज्य के लगभग सदैव बने रहने वाले, दीर्घकालीन लक्ष्य एवं प्रयोजन होते हैं । इनका एक सुन्दर उदाहरण ग्रेट ब्रिटेन द्वारा अपने उपनिवेशों तथा विदेशी व्यापार की रक्षा के लिए महासमुद्रों में नौचालन की स्वतन्त्रता (Freedom of Navigations) को बनाए रखना है । भारत का इस प्रकार का प्रयोजन देश का शन्तिपूर्ण आर्थिक विकास करना है ।
(4) परिवर्तनशील हित (Variable Interests):
ये राष्ट्र के ऐसे हित हैं जिन्हें कोई राष्ट्र किसी विशेष परिस्थिति में राष्ट्रीय हित के लिए आवश्यक समझता है । ऐसे हित प्रथम एवं द्वितीय कोटि से प्राय: भिन्न होते हैं । ये लोकमत तथा विभिन्न व्यक्तियों के विचारों से प्रभावित होते हैं ।
(5) सामान्य हित (Common Interests):
सामान्य हित वे परिस्थितियां होती हैं जो उस देश को सामान्य रूप से अथवा आर्थिक, व्यापारिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में लाभ पहुंचाने वाली होती हैं । ग्रेट ब्रिटेन के लिए यूरोप में शक्ति सन्तुलन बनाए रखना इसी प्रकार का सामान्य हित था ।
(6) विशिष्ट हित (Specific Interests):
ये सामान्य हितों से उत्पन्न होते हैं और उनके साथ गहरा सम्बन्ध रखते हैं । जैसे यूरोप में शक्ति सन्तुलन को बनाए रखना ब्रिटेन का सामान्य हित था, किन्तु इस हित को बनाए रखने के लिए यह भी आवश्यक था कि ब्रिटिश द्वीपसमूह के सामने इंगलिश चैनल के उस पार बेल्लियम और हॉलैण्ड के प्रदेशों में यूरोप की किसी महाशक्ति का अधिकार न हो ।
यदि नैपोलियन और हिटलर जैसा कोई सेनापति इस प्रदेश पर अधिकार कर ले तो वह यहां से इंग्लैण्ड पर हमला करने की और उसे जीतने की योजना बना सकता था । दोनों ने ही ऐसा प्रयास किया था । अत: ब्रिटेन का सदैव यह प्रयत्न रहता है कि, बेल्लियम सदैव तटस्थ बना रहे और इस पर यूरोप का किसी महाशक्ति का प्रभुत्व स्थापित न हो । इस कारण यह ब्रिटेन का विशिष्ट हित था ।
रॉबिन्सन ने उपर्युक्त छ: प्रकार के हितों के अतिरिक्त तीन प्रकार के अन्य अन्तर्राष्ट्रीय हितों (International Interests) का भी वर्णन किया है । इनमें पहला समान हित (Identical Interests) है । इनका आशय ऐसे हितों से है जो दो या दो से अधिक राज्यों के लिए तुल्य रूप से लाभदायक और उपयोगी हों । जैसे अमरीका और ब्रिटेन दोनों ही यह चाह रहे थे कि यूरोप पर सोवियत संघ या किसी एक महाशक्ति का आधिपत्य न हो ।
दूसरे प्रकार के हित पूरक हित (Complementary Interests) है । ये हित समान न होते हुए भी दो देशों में कुछ विशेष प्रश्नों पर समझौतों का आधार बन सकते हैं; जैसे ब्रिटेन और पुर्तगाल के हित । ब्रिटेन को पुर्तगाल के साथ मैत्री बनाए रखने में और उसे स्वतन्त्र बनाए रखने में यह लाभ था कि इसके द्वारा वह स्पेन की शक्ति पर नियन्त्रण रख सकता था और अन्धमहासागर में अपनी शक्ति का पूरा विस्तार कर सकता था ।
इसी प्रकार पुर्तगाल को भी ब्रिटेन के साथ सम्बन्ध बनाए रखने और उसकी समुद्री प्रभुता को सुस्थिर बनाने में यह बड़ा लाभ था कि वह स्पेन के सम्भावित प्रभुत्व से सुरक्षा प्राप्त कर सकता था । तीसरे प्रकार के हित परस्पर बिरोधी हित (Conflicting Interest) हैं । ये प्राय: दो देशों में संघर्ष का कारण बनते है ।
जम्मू-कश्मीर का भारत में वैध रूप से विलय हो जाने से यह भारत का अंग है पाकिस्तान इसे अपने राज्य का अंग बनाना चाहता है । इसके लिए वह तीन बार भारत से विफल सैनिक संघर्ष भी कर चुका है । यह दोनों परस्पर विरोधी हित हैं । वस्तुत: राष्ट्रीय हित दो प्रकार के हैं-मार्मिक और अमार्मिक राष्ट्रीय हित अथवा दीर्घकालीन एवं तत्कालीन राष्ट्रीय हित ।
मार्मिक या दीर्घकालीन राष्ट्रीय हित किसी राष्ट्र के मूलभूत और अत्यन्त महत्वपूर्ण हित हैं । ये किसी राज्य के वे हित हैं जिन पर राज्य कोई भी रियायत करने को तैयार न हो और जिनकी रक्षा के लिए वह जरूरत पड़ने पर युद्ध करने को भी तैयार हो सकता है ।
किसी देश का मार्मिक हित इतना बुनियादी समझा जाता है कि अक्सर इसे अस्थायी और दीर्घकालीन समझा जाता है । राष्ट्रीय हित के अन्य सब पहलू इसके सामने गौण समझे जाते हैं । इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा स्वाधीनता और अखण्डता की रक्षा आदि प्रमुख हें ।
राज्य के मूलभूत उद्देश्य बाहरी शत्रुओं से सुरक्षा प्रदान करना तथा आन्तरिक क्षेत्र में सुव्यवस्था स्थापित रखना माने गए हैं । राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में विदेश नीति निर्धारक पारस्परिक सुरक्षा सन्धियों में सम्मिलित होते हैं सम्भावित शत्रु देश के विरुद्ध सन्धि व्यवस्था गठित करते हैं उनकी कूटनीतिक घेराबन्दी करने के प्रयत्न करते हैं तथा उनके देशों के साथ आर्थिक सांस्कृतिक, व्यापारिक सम्बन्ध जोड़कर या सुदृढ़ करके उन्हें प्रभाव क्षेत्र में लाने एवं बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं ।
प्रथम विश्वयुद्ध काल तक गुप्त सुरक्षा सन्धियों की व्यवस्था राष्ट्रीय सुरक्षा की सर्वप्रमुख तथा मान्य उपकरण थी । ये सन्धियां कितनी गुप्त रखी जाती थीं इसका अनुमान इसी से किया जा सकता है कि त्रिदलीय सन्धि, द्विदलीय सन्धि अथवा त्रिदलीय समझौते का पता सम्बद्ध देशों के कतिपय सर्वोच्च नीति निर्धारकों के अतिरिक्त अन्य किसी को भी नहीं रहत था ।
याल्टा शिखर सम्मेलन के कई निर्णय राष्ट्रपति ट्रूमैन को पद ग्रहण करने के उपरान्त ही मालूम हुए । राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमरीका ने नाटो, सेण्टो, सीटो, रायो सन्धि संगठन की स्थापना की । इसके अतिरिक्त कई देशों के साथ द्विपक्षीय सुरक्षा सन्धियां सम्पन्न कीं । भारत ने गुटनिरपेक्ष होते हुए भी सोवियत संघ के साथ बीस वर्ष की (1971) मैत्री सन्धि की थी ।
जो हित मार्मिक नहीं होते, जो तात्कालिक महत्व के गौण हित होते हैं और जिनके लिए कोई राज्य युद्ध का खतरा मोल नहीं लेना चाहता उन्हें अमार्मिक एवं अस्थायी स्वरूप के राष्ट्रीय हित कहते हैं । ऐसे गौण हित जनता का भौतिक कल्याण प्रतिष्ठा की रक्षा विचारधारा का प्रसार व्यापार की वृद्धि, संस्कृति का प्रसार आदि हैं ।
मॉरगेन्थाऊ ने राष्ट्रीय हित की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं की है । उन्होंने तो केवल यह कहा है कि राष्ट्रहित का अर्थ अत्यधिक व्यापक है और उसका स्वरूप उन बहुत-से सांस्कृतिक तत्वों पर निर्भर है जिनके अन्तर्गत किसी राज्य की विदेश नीति निर्धारित की जाती है । उन्होंने राष्ट्रहित के दो मुख्य पक्ष बताए हैं ।
एक है स्थिर, स्थायी अथबा आवश्यक और दूसरा है अस्थिर अस्थायी अथवा अनित्य । स्थिर पक्ष वह है जो प्रत्येक देश के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण हो और अस्थिर पक्ष वह है जिसका स्वरूप प्रत्येक देश की बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता हो । राष्ट्र की अस्तित्व रक्षा राष्ट्रहित की न्यूनतम आवश्यकता है और इसलिए यह तार्किक रूप में वांछनीय है ।
राष्ट्रहित के अस्थायी पक्ष का स्वरूप पहचानना अत्यन्त कठिन है । चूंकि लोकमत सरकार एवं राजनीतिक-नैतिक प्राथमिकताओं में परिवर्तन होने के साथ-साथ राष्ट्रहित के अस्थायी पहलू में भी परिवर्तन होता रहता है । फिर भी राष्ट्रहित के स्थायी तत्व अस्थिर तत्वों का स्वरूप निर्धारित करते हैं ।
विदेश नीति का प्रमुख कार्य यह है कि- वह समय-समय पर राष्ट्र हित के अस्थिर तत्वों को स्पष्ट करती रहे और स्थिर एवं अस्थिर तत्वों में सामंजस्य बिठाए रखे । राष्ट्रीय हित एक गतिशील धारणा है, यह कोई स्थिर या शाश्वत वस्तु नहीं है । रेमों आरों के अनुसार राष्ट्रीय हित का स्वरूप निर्धारित नहीं किया जा सकता क्योंकि यह लोगों के समूहों से सम्बद्ध है व्यक्तियों से नहीं ।
यह विदेश नीति का मार्गदर्शक है जिसका प्राथमिक कार्य अन्तर्राष्ट्रीय वास्तविकता की आलोचना करते रहना और नीति-निर्माताओं को दीर्घकालिक उद्देश्यों और तात्कालिक लक्ष्यों में से प्राथमिकताओं का कम सुझाते रहना है ।
डॉ. महेन्द्रकुमार के अनुसार- राष्ट्रहित न तो ‘अधिकतम इच्छित’ (The desirable best) होता है और न ‘अधिकतम संम्भव मात्र’ (The possible best) । यह एक ओर तो ‘अधिकतम अभीष्ट’ और ‘अधिकतम सम्भव’ दोनों है ओर दूसरी ओर इन दोनों से अधिक कुछ और भी है ।
Essay # 3. राष्ट्रीय हित की अवधारणा का विकास (Evolution of the Concept of National Interests):
विदेश नीति का लक्ष्य राष्ट्रहितों की प्राप्ति अथवा उनकी रक्षा करना है । लार्ड पामर्स्टन ने वर्षों पूर्व कहा था कि- ”हमारे कोई शाश्वत मित्र नहीं हैं और न ही हमारे कोई सदा बने रहने वाले शत्रु । केवल हमारे हित ही शाश्वत हैं और उन हितों का अनुसरण-संवर्द्धन हमारा कर्तव्य है ।” प्राचीन एवं मध्य युगों में, राज्यों के हित अधिपतियों के हित से भिन्न नहीं माने जाते थे ।
राजा अपने व्यक्तिगत गौरव के लिए युद्ध करता था, अश्वमेध या राजसूय यडा करके चक्रवर्ती बनता था राजा के गौरव में प्रजा भी गौरवान्वित होती थी । राजा पेशेवर सैनिक लेकर दिग्विजय करने निकलता था । वापस लौटने पर लूट का कुछ माल प्रजाजनों में भी वितरित कर देता था । अत: वह राजनीति सहज थी, विदेश नीति मात्र युद्ध करने अथवा नहीं करने की नीति तक सीमित रहती थी ।
राष्ट्र राज्यों के उदय के साथ अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति इतनी सहज नहीं रह गयी । औद्योगिक क्रान्ति, व्यापारिक उन्मेष, वैज्ञानिक दृष्टि, यातायात तथा संचार के साधनों का प्रचार-इन सबके फलस्वरूप राजनीति केवल राजाओं, राजकुमारों, सामन्तों, सेनापतियों का ही खेल नहीं रह गयी । आधुनिक राष्ट्र राज्यों का सर्वप्रथम यूरोप में उदय हुआ ।
इसके साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध के स्वरूप में परिवर्तन हुआ । तदनुसार राज्यों की विदेश नीति भी नए आयाम लेकर रूपायित हुई । अधिपतियों के व्यक्तिगत हितों के स्थान पर राज्यों के हित का महत्व बढ़ा । स्पानी उत्तराधिकार अथवा आस्ट्रियाई उत्तराधिकार के युद्ध मात्र किन्हीं राजवंशों, राजकुमारों अथवा राजाओं के हित-अहित के लिए नहीं लड़े गए थे । उनके मूल में प्रकट-अप्रकट कई राष्ट्रों के हित-अहित सन्निहित थे ।
Essay # 4. विदेश नीति और राष्ट्रीय हित (Foreign Policy and National Interest):
राष्ट्रीय हित की अवधारणा विदेश नीति का मूलभूत सिद्धान्त है । विदेश नीति निर्माण का प्रारम्भिक बिनु राष्ट्रीय हित है । जब तक दुनिया राजनीतिक दृष्टि से राज्यों में विभाजित रहेगी तब तक विश्व राजनीति में राष्ट्रीय हित मार्मिक विषय रहेगा । वास्तविक रूप से तो राष्ट्रीय हित अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की कुंजी है ।
चाहे किसी राष्ट्र के कितने ही ऊंचे आदर्श हों और कितनी ही उदार अभिलाषाएं हों वह अपनी विदेश नीति को राष्ट्रीय हित के अतिरिक्त किसी अन्य धारणा पर आधारित नहीं कर सकता । यद्यपि विल्सन जैसे आदर्शवादियों की मान्यता हे कि विदेश नीति का राष्ट्रीय हित की धारणा के आधार पर निर्मित होना एक खतरनाक प्रवृत्ति है ।
विदेश नीति के क्षेत्र में नैतिकता और उपयोगिता ही हमारा मार्गदर्शन होना चाहिए । हमारे अपने कोई न्यस्त स्वार्थ नहीं होने चाहिए । इसके विपरीत मॉरगेन्थाऊ तथा आरनोल्ड वूल्फर्स जैसे यथार्थवादियों की मान्यता है कि राष्ट्रीय हित ही विदेश नीति की आत्मा है ।
यह विदेश नीति का सार (Substances) है, यही उसकी प्रेरणा और आधारशिला है । राष्ट्रीय हित विदेश नीति की कुण्डली है तथा सर्वश्रेष्ट तत्वों का निचोड़ है । मॉरगेन्थाऊ के शब्दों में- ”विदेश नीति के ध्येयों की परिभाषा राष्ट्रीय हित के अर्थ में अवश्य करनी होगी तथा इसका यथेष्ट शक्ति द्वारा अवश्य पोषण करना होगा ।”
विदेश नीति का संचालन राष्ट्रीय हितों की दृष्टि से किया जाता है । सिद्धान्तवाद की दुहाई दी जाती है लेकिन व्यवहार में किया वही जाता है जो आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार राष्ट्रीय हितों के अनुकूल हो । निष्पक्ष रूप में देखा जाए तो राष्ट्रीय हितों के अनुकूल वैदेशिक नीति का संचालन प्राचीनकाल से ही किया जाता रहा है और राष्ट्र अधिकांशत: अपने हितों की कीमत पर सिद्धान्तों की रक्षा में अडिग नहीं रहे हैं ।
सैद्धान्तिक दृष्टिकोण आज के अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज में आन्तरिक विरोधाभासों के फलस्वरूप अपना प्रभाव खोता जा रहा है और वह राज्य की नीतियों के उद्देश्यों और लक्ष्यों की निरन्तरताओं का वर्णन करने में असफल रहा है ।
यदि हम ध्यान से देखें तो पाएंगे कि विभिन्न सत्ताधारी दलों और अपने-अपने निजी अथवा सार्वजनिक दर्शनों के बावजूद ब्रिटिश, अमरीकन, फ्रेंच और रूसी विदेश नीति में अनेक ऐसी एकताएं विद्यमान हैं जो व्यक्तिगत विश्वासों अथवा सिद्धान्त का अतिक्रमण करती हैं ।
युद्धोत्तर काल के प्रारम्भ में इंग्लैण्ड की श्रमिक सरकार ने देश के सारभूत रूप में उन्हीं हितों के संरक्षण की नीति अपनायी जिनकी सुरक्षा को टोरियों और ह्विगों ने शताब्दियों से आवश्यक माना था । इसी प्रकार संयुक्त राज्य अमरीका में डलेस- आइजनहावर की विदेश नीति ने देश के उन्हीं केन्द्रीय लक्ष्यों पर ध्यान दिया जिन पर रूजवेल्ट और ट्रूमैन प्रशासन ने ध्यान दिया ।
अमरीकी व्यावसायिक और आर्थिक हितों की रक्षा के लिए निक्सन-किसिंगर ने चीन से दोस्ती का हाथ बढ़ाया । कहने का तात्पर्य है कि चाहे प्रविधियां उपाय और साधन बदल जाएं लेकिन एक देश के हित और उद्देश्य सापेक्षिक रूप में निरन्तर बने रहते हैं और इसलिए विदेश नीति राष्ट्रीय हितों के अनुकूल ही संचालित की जाती है उसमें लचीलापन रहता है सिद्धान्तों का अड़ियलपन नहीं ।
जो राजमर्मज्ञ विदेश नीति का निर्माण करते हैं उन्हें राष्ट्रीय हित का सर्वोपरि ध्यान रखना पड़ता है और इसलिए अपने विश्वासों सिद्धान्तों आदि पर उन्हें अंकुश लगाना पड़ता है । यदि राष्ट्र की स्वतन्त्रता की रक्षा की जानी है तो उसकी भौगोलिक स्थिति उसकी अन्तर्राष्ट्रीय भूमिका उसके हितों आदि का पूरा ध्यान रखना होगा और अपने सामाजिक धार्मिक दर्शन एवं सैद्धान्तिक विचारों को गौण मानना पड़ेगा ।
समय और परिस्थिति के अनुसार राष्ट्रीय हित की जो मांग है उसी के अनुरूप विदेश नीति का संचालन किया जाना होता है । इसमें भी हितों का क्रम अथवा पदसोपान बैठाना होता है । प्राथमिक हितों की रक्षा पहले की जाती है और गौण हितों की बाद में । कुछ ऐसे हित होते हैं जिनकी रक्षा हर कीमत पर करनी होती है ।
दूसरे ऐसे हित होते हैं जिनकी रक्षा कुछ विशेष परिस्थितियों के अन्तर्गत करनी होती है और कुछ ऐसे हित होते हैं जिनकी रक्षा यद्यपि वांछनीय है तथापि उनकी लगभग कभी भी रक्षा नहीं की जाती । यह विदेश नीति का कार्य है कि वह हितों के इस पदसोपान का उपयुक्त निर्धारण करे और दूसरे राष्ट्रों की विदेश नीति का मूल्यांकन करते हुए अपना मार्ग निश्चित करे ।
सैनिक विज्ञान और तकनीक में प्रगति आर्थिक समृद्धि अथवा देश के विघटन आदि विभिन्न तत्वों के फलस्वरूप राष्ट्रीय हितों में सामयिक परिवर्तन आते रहते हैं और तदनुरूप विदेश नीति में बदलाव आता रहता है । यह सच है कि, प्रत्येक राज्य के राष्ट्रीय हित उसकी परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के आधार पर बदलते रहते हैं पर कम से कम तीन बातें ऐसी हैं जिन्हें प्रत्येक राज्य को अपनी विदेश नीति में आवश्यक रूप से स्थान देना चाहिए ।
वे है:
(i) आत्मरक्षा (Self-Preservation),
(ii) सुरक्षा (Security) तथा
(iii) लोक कल्याण (Welfare of the nation) ।
आत्मरक्षा का अर्थ है प्रत्येक राष्ट्र को अपनी प्रभुसता तथा राष्ट्रीय अखण्डता को बनाए रखना चाहिए । सुरक्षा से अभिप्राय है राज्य की बाह्य आक्रमण से रक्षा करना तथा लोक कल्याण से तात्पर्य है कि राज्य को अपने नागरिकों के सुख एवं समृद्धि के लिए प्रयत्न करना चाहिए । संक्षेप में, राष्ट्र हितों को ध्यान में रखकर ही राष्ट्र अपने लक्ष्यों को निर्धारित करते हैं तथा विदेश नीति इन लक्ष्यों को प्राप्त करने का केवल साधन होती है ।
Essay # 5. राष्ट्रहित: अन्तरमार्ग (The Core of National Interest):
राष्ट्रीय हित कई कारकों के प्रभाव से बदलता रहता है । कभी-कभी नेतृत्व वर्ग या जनता के मूल्यों में परिवर्तन होने से मार्मिक राष्ट्रीय हित की अवधारणा बदल जाती है । उदाहरणार्थ चीन के जन्मदाता डॉ. सुनयात सेन की यह मान्यता थी कि चीन का हित सोवियत संघ के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित करने में है परन्तु उनके उत्तराधिकारी व्यांग काई शेक की मान्यता इसके बिलकुल विपरीत थी ।
ट्रूमैन और आइजनहावर साम्यवादी चीन के अवरोध की नीति अपनाने में ही अमरीका की सुरक्षा समझते थे जबकि निक्सन और किसिंगर चीन के साथ देतान्त के मधुर सम्बन्धों की स्थापना में अमरीकी हितों की अभिवृद्धि समझने लगे । राष्ट्रपति बिल क्लिंटन रूस में आर्थिक सुधारों की सफलता में ही अमरीकी लोकतन्त्र की स्थिरता मानते थे और इसलिए उन्होंने रूस को 1.60 बिलियन डॉलर का ऋण देना स्वीकार किया ।
विस्तार में राष्ट्रीय हितों में भिन्नता पायी जाती हो, किन्तु सैद्धान्तिक दृष्टि से सभी देशों के लिए राष्ट्रीय हित के मूलभूत तत्व (Core) एक जैसे हैं । सभी देश सुरक्षा चाहते हैं, राजनीतिक स्वाधीनता और क्षेत्रीय अखण्डता बनाए रखना चाहते हैं ।
सुरक्षा की चिन्ता पुराने राष्ट्रों को भी उतनी ही है जितनी नए राष्ट्रों को । सुरक्षा के बाद सभी देश अपने आर्थिक हितों का संवर्द्धन चाहते हैं, अपने लिए व्यापारिक सुविधाएं चाहते हैं । सुरक्षा और आर्थिक समृद्धि राष्ट्रीय हित के हृदय हैं ।
इनके अतिरिक्त, अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति, अन्तर्राष्ट्रीय कानून का विकास तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की सफलता भी राष्ट्रीय हित हो सकते हैं । इसी प्रकार ‘विश्व क्रान्ति’ (World revolution), ‘साम्यवाद का अवरोध’ (Containment of Communism), ‘स्वाधीनता की सीमाओं की रक्षा’ (Defence of frontiers of freedom) आदि भी किसी राष्ट्र के हित हो सकते हैं ।
Essay # 6. राष्ट्र हितों की अभिवृद्धि के साधन (Instruments for the Promotion of National Interests):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राज्यों के राष्ट्रीय हितों में विरोध और संघर्ष पाया जाता है । भारत और चीन, भारत और पाकिस्तान, भारत और अमरीका के राष्ट्रीय हित कई बार एक-दूसरे के प्रतिकूल देखे गए हैं । इन देशों की विदेश नीति का उद्देश्य अपने विदेशी सम्बन्धों का इस ढंग से संचालन करना है जिससे राष्ट्रीय हित की सिद्धि यथासम्भव अधिक से अधिक अनुकूल रूप में होने की गारण्टी रहे ।
राष्ट्रीय हितों की सिद्धि के लिए राज्य अनेक प्रकार के साधन अपनाते है । कौटिल्य ने लिखा है- ”दुर्बल राजाओं को समझा-बुझाकर तथा यदि आवश्यकता हो तो कुछ देकर अपने अनुकूल बना लेना चाहिए, किन्तु जो राजा सबल हो उसको भेद और दण्ड द्वारा वश में करना चाहिए।”
पामर और पर्किन्स के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रीय हित की अभिवृद्धि के साधन निम्नलिखित हैं:
(i) कूटनीति (Diplomacy as an Instruments of National Policy),
(ii) प्रचार और राजनीतिक (Propaganda and Political Warfare as an Instruments of National Policy),
(iii) आर्थिक साधन (Economic Instruments of National Policy),
(iv) साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद (Imperialism and Colonialism),
(v) युद्ध (War as an Instrument of National Policy) ।
Essay # 7. राष्ट्रीय हित की अवधारणा: आलोचनात्मक मूल्यांकन (Concept of National Interests: Critical Appraisal):
आदर्शवादियों की मान्यता है कि, ‘राष्ट्रीय हितों का सम्पत्यय एक खतरनाक धारणा है । यदि एक राष्ट्र अपने न्यस्त स्वार्थों या हितों को ही प्राथमिकता देता है तो अन्य राष्ट्रों के हितों की उपेक्षा होती है । आज विश्व के राज्य एक-दूसरे पर अन्त-निर्भर हैं और यदि अपने हितों को सर्वोच्चता प्रदान करते हैं तो विश्वशान्ति, अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग आदि सम्पत्यय कोरी कल्पना बनकर ही रह जाएंगे ।
प्रो. रेनोल्ड्स राष्ट्रीय हित दृष्टिकोण के कट्टर आलोचक हें । वे कहते हैं कि, किसी देश की विदेश नीति का उस दशा में एकमात्र राष्ट्रीय हित पर आधारित होना सम्भव है जब विभिन्न देशों के हित एक जैसे हों, किन्तु ये एक जैसे नहीं हैं ।
यदि प्रत्येक देश अपने-अपने हितोंको ही सर्वोपरि समझते हुए विदेश नीति का संचालन करे तो उसमें सदैव संघर्ष बना रहना चाहिए, किन्तु वास्तव में ऐसी स्थिति नहीं है । अत: यह (विदेश नीति) केवल राष्ट्रीय हित पर आधारित नहीं है । यह एक भ्रान्ति है, जिसे राजनीतिज्ञ अपने वैयक्तिक स्वार्थों की सिद्धि के लिए उत्पन्न करते हैं ।
ये नेता जब आन्तरिक असन्तोष,कुशासन तथा आर्थिक कठिनाइयों के कारण जनता को क्षुब्ध तथा रुष्ट देखते हैं तो उन्हें यह आशंका होती है कि, जनता इस दुरावस्था के लिए उन्हें उत्तरदायी समझेगी और उनकी विरोधी बन जाएगी उन्हें वोट नहीं देगी । वे आपसी स्थिति सुदृढ़ बनाने के लिए और जनता को बहकाने के लिए उसका ध्यान विरोधी देशों की ओर मोड़ देते हैं ।
उदाहरणार्थ इण्डोनेशिया में जब आर्थिक और सामाजिक समस्याओं से जनता परेशान हुई तो राष्ट्रपति सुकर्ण ने उसका ध्यान बांटने के लिए मलेशिया से टकराव की नीति को अपनाया राष्ट्रीय हित एवं सम्मान की रक्षा के लिए इस नीति का समर्थन किया ।
प्रो. रेनाल्डस ने राष्ट्रीय हित के विचार की इसलिए भी आलोचना की है कि- इसमें प्राय: व्यक्ति के हितों की उपेक्षा की जाती है और राष्ट्रीय हित की मर्यादाओं और सीमाओं को भुला दिया जाता है । मॉरगेन्थाऊ ने राष्ट्रीय हित की मर्यादाओं की विवेचना करते हुए कहा है कि, कई बार अधोराष्ट्रीय (Subnational), इतर्राष्ट्रीय (Othernational) और अधिराष्ट्रीय (Supranational) हित राष्ट्रीय हितों पर हावी हो जाते हैं और इन पर अनेक प्रतिबन्ध लगाते हैं ।
अधोराष्ट्रीय हितों से अभिप्राय किसी देश के अल्पसंख्यक आर्थिक और ऐसे जातीय समूह (ethnical groups) हैं जो अपने विशिष्ट वर्ग के हितों को राष्ट्रीय हितों का रूप प्रदान करते हैं । किसी देश में यदि पूंजीपति वर्ग प्रभावशाली है तो वह अपने धन के बल पर अपने वर्ग को विशेष लाभ पहुंचाने वाली नीतियों को राष्ट्रीय नीति का रूप प्रदान कर सकता है ।
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इतर्राष्ट्रीय हितों का अभिप्राय यह है कि कई बार किसी देश का अल्पसंख्यक वर्ग किसी अन्य देश की सरकार से अपने को अभिन्न समझने लगता है और उसके हितों को अपना राष्ट्रीय हित मानने लगता है । वार्साय की सन्धि के बाद यूरोप में जो नए राज्य बनाए गए थे उनमें से कई राज्यों में जर्मन अल्पसंख्यक वर्ग थे ।
चेकोस्लोवाकिया में इन जर्मन लोगों को स्यूडेटन कहा जाता था । हिटलर का उत्कर्ष होने पर ये जर्मन विचारधारा के समर्थक बने और अपने देश की नीति तथा राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल जर्मनी के साथ मिलने पर बल देने लगे । किसी देश के अधिराष्ट्रीय हितों का अभिप्राय धार्मिक संस्थाओं और अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के हित से होता है ।
मध्ययुग के यूरोप में चर्च का संगठन बड़ा प्रभावशाली था । संयुक्त राष्ट्र संघ और उसके अनेक अभिकरण राष्ट्रों से ऊंचे हैं । वे उन पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगाते हैं । अन्तर्राष्ट्रीय विधि भी राष्ट्रीय हितों को अनेक अंशों में मर्यादित करती है ।
राष्ट्रीय हित को अपनी विदेश नीति का आधार बनाते हुए भी प्रत्येक देश को आजकल इस बात पर भी ध्यान देना पड़ता है कि, वह दूसरे देशों के हितों को कोई बड़ी हानि पहुंचाने वाला कार्य न करे । आणविक युग में यह और भी अधिक आवश्यक हो गया है क्योंकि इस समय कोई देश अपने शत्रु को अपितु अन्य देशों को भी हानि पहुंचा सकता है ।
अत: अपने-अपने राष्ट्र के हित के साथ दूसरे राष्ट्र के हितों को भी देखना आवश्यक हो जाता है । इस समय प्रत्येक न केवल अपने हितों पर अपितु अन्य राज्यों द्वारा किए जाने वाले कार्यों पर भी कड़ी दृष्टि रखता है । इस कारण प्रत्येक राष्ट्र को अपनी विदेश नीति का निर्धारण करते हुए अनेक नैतिक कानूनी तथा परम्परागत नियमों का पालन करना पड़ता है । वे राष्ट्रहित पर प्रतिबन्ध का कार्य करते हैं ।