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Here is an essay on ‘National Power’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. राष्ट्रीय शक्ति क्या है (Meaning of National Power):
आधुनिक प्रवृति अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार को शक्ति (Power) के आधार पर समझने की है । प्रत्येक राष्ट्र द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सम्पन्न किया गया प्रत्येक कार्य प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से शक्ति प्राप्त करने, उसका प्रदर्शन करने और शक्ति की अभिवृद्धि करने से सम्बन्ध रखता है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की बहुधा परिभाषा ही ‘शक्ति के लिए संघर्ष’ के रूप में की जाती है । शक्ति से हमारा तात्पर्य उस शक्ति से है, जिसे मनुष्य अन्य मनुष्यों के मस्तिष्क तथा कार्यों पर प्रयुक्त करते हैं । यह बात तो आसानी से समझ में आ जाती है कि, व्यक्ति शक्ति की चाह रखता है । यहां प्रश्न उठता है कि, हम उस सामूहिक व्यक्तित्व की शक्ति की चाह को कैसे समझा सकते हैं, जिसे राष्ट्र कहा जाता है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विद्वानों ने राष्ट्रीय शक्ति को राष्ट्र का एक सबसे बड़ा केन्द्र-बिन्दु माना है जिसके चारों ओर उसकी विदेश नीति के विभिन्न पहलू चक्कर काटते रहते हैं । मॉरगेन्थाऊ के अनुसार- राष्ट्रीय शक्ति राष्ट्र की वह शक्ति है जिसके आधार पर कोई व्यक्ति दूसरे राष्ट्रों के कार्यों, व्यवहारों और नीतियों पर प्रभाव तथा नियन्त्रण रखने की चेष्टा करता है ।
यह राष्ट्र की वह क्षमता है, जिसके बल पर वह दूसरे राष्ट्रों से अपनी इच्छा के अनुरूप कोई कार्य करा लेता है । पेडंलफोर्ड तथा लिंकन के अनुसार, यह शब्द (राष्ट्रीय शक्ति शब्द) राष्ट्रीय शक्ति की भौतिक और सैनिक शक्ति तथा सामर्थ्य का सूचक है….राष्ट्रीय शक्ति को हम शक्ति एवं सामर्थ्य का वह योग मान सकते हैं जो एक राज्य अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के लिए तथा राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उपयोग में लाता है ।
हार्टमैन के शब्दों में- राष्ट्रीय शक्ति में यह बोध होता है कि, अमुक राष्ट्र कितना शक्तिशाली अथवा निर्बल है या अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति करने की दृष्टि से उसमें कितनी क्षमता है । आर्गेन्स्की लिखते हैं कि ‘अपने हितों के अनुकूल दूसरे राष्ट्रों के व्यवहार को प्रभावित करने की योग्यता का नाम शक्ति है । जब तक कोई राष्ट्र यह नहीं कर सकता, चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, चाहे वह कितना ही सम्पन्न क्यों न हो, परन्तु उसे शक्तिशाली नहीं कहा जा सकता ।
जार्ज श्वर्जनबर्जर ने शक्ति को अपनी इच्छा का दूसरों पर आरोपीकरण तथा अपालन की स्थिति में प्रभावकारी अनुशासनात्मक कार्यवाही करने की क्षमता कहा है । हॉस के शब्दों में, शक्ति वह बल है जो राष्ट्र अपने हित की पूर्ति के लिए दूसरे राष्ट्र पर डालता है ।
Essay # 2. राष्ट्रीय शक्ति के तत्व (Elements of National Power):
राष्ट्रीय शक्ति मूल रूप से सैनिक शक्ति ही है, किन्तु इस शक्ति की रचना में अनेक तत्व कार्य करते हैं और इसलिए वे भी शक्ति के घटक तत्व कहे जा सकते हैं । वे तब क्या हैं जिनसे राष्ट्र शक्तिशाली बनता है ।
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एक शक्तिशाली राज्य की कल्पना करते ही एक विशाल क्षेत्र, अतुल राष्ट्रीय शक्ति के तत्व एवं सीमाएं जनसंख्या, धन बाहुल्य, प्राकृतिक साधनों की प्रचुरता, विकसित औद्योगिक संस्थान, उर्वरता, असीम सैनिक शक्ति आधुनिकतम दृष्टि से संगठित सेनाओं का ध्यान आता है तथापि इनमें से कोई भी तत्व अकेला या सामूहिक रूप से भी शक्ति का निर्माण नहीं करता ।
ब्राजील आकार में बहुत बड़ा, यथार्थ में उसका आकार सं. रा. अमरीका से भी बड़ा है, पाकिस्तान और बंगलादेश के पास बहुत बड़ी जनसंख्या है बेल्जियम औद्योगिक दृष्टि से बहुत विकसित है और स्विट्जरलैण्ड के पास आधुनिक सेना है, परन्तु उपर्युक्त किसी भी राष्ट्र को शक्तिशाली नहीं कहा जा सकता । विशाल क्षेत्र और जनसंख्या होते हुए भी सन् 1940 तक चीन अत्यन्त कमजोर राष्ट्र था ।
आज चीन विश्व की प्रमुखतम शक्ति बन गया है । चीन के क्षेत्रफल जनसंख्या अथवा औद्योगिक शक्ति में कोई व्यापक बुनियादी परिवर्तन न होते हुए चीन शक्तिहीन राष्ट्र से शक्तिशाली राष्ट्र बन गया क्योंकि साम्यवादी शासन में इन संसाधनों के प्रयोग का लक्ष्य बदल गया है । अत: केवल संसाधनों का होना मात्र शक्ति नहीं है वरन् उनका इस प्रकार से उपयोग करना कि वे दूसरे राज्यों को प्रभावित कर सकें, तभी शक्ति का अहसास होता है ।
राष्ट्रीय शक्ति के तत्वों को मोटे तौर से तीन वर्गों में बांटा जा सकता है: प्राकृतिक सामाजिक और प्रत्ययात्मक । प्राकृतिक तत्वों में भौगोलिक विशेषताएं प्राकृतिक साधन और जनसंख्या आते हैं । सामाजिक तत्वों में आर्थिक विकास राजनीतिक ढांचा और राष्ट्रीय मनोबल आते हैं । प्रत्ययात्मक तत्वों में नेतृत्व वर्ग के आदर्श बुद्धि और दूरदर्शिता आते हैं ।
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मॉरेगेन्थाऊ ने राष्ट्रीय शक्ति के दो प्रकार के तत्वों का उल्लेख किया है: वे तत्व जो कि सापेक्ष दृष्टि से स्थायी हैं तथा वे जो निरन्तर परिवर्तन से प्रभावित रहते हैं । इन दोनों वर्गों में समाविष्ट राष्ट्रीय शक्ति के तत्व मॉर्लेम्याऊ के अनुसार नौ हैं: भूगोल, प्राकृतिक साधन, औद्योगिक क्षमता, सैनिक तैयारियां, जनसंख्या, राष्ट्रीय चरित्र, राष्ट्रीय मनोबल, कूटनीति का गुण और सरकार का गुण ।
विलियम एबिन्स्टीन के विचार में राष्ट्रीय शक्ति जनसंख्या कच्चे माल अथवा ऐसे ही अन्य संसाधनों के योग से भिन्न होती है । एक राष्ट्र की शक्ति केवल मात्रात्मक न होकर गुणात्मक होती है जो मित्रराष्ट्रों की संख्या, नागरिकों की देशभक्ति, उनके मनोबल संस्थाओं के लचीलेपन तकनीकी ज्ञान रहस्यों को गुप्त रखने तथा कष्ट सहने की क्षमता जैसे अमूर्त गुणों का परिणाम होती है ।
स्टीफन बी. जोन्स ने राष्ट्रीय शक्ति के निर्माणक तत्वों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है:
i. भौगोलिक संसाधन यथा आकार, जलवायु, स्थल रूपरेखा, आदि ।
ii. प्राकृतिक संसाधन यथा खनिज पदार्थ, कच्चा माल, उपज आदि ।
iii. मानवीय संसाधन यथा जनसंख्या, राष्ट्रीय जाति विन्यास, आदि ।
iv. सामग्री संसाधन यथा भण्डार, शस्त्र सामग्री, पूंजी तथा राष्ट्रीय आय ।
पामर तथा पर्किन्स ने राष्ट्रीय शक्ति के तत्वों को गैर-मानवीय (Land and its Recourses) तथा मानवीय (People and their Genius) वर्गों में विभाजित किया है । गैर-मानवीय तत्वों में भूगोल तथा प्राकृतिक साधनों को शामिल किया गया है तथा मानवीय तत्वों में जनसंख्या, तकनीकी ज्ञान, विचारधाराएं, मनोबल और नेतृत्व को शामिल किया गया है ।
सैनिक तैयारी पर राष्ट्र की शक्ति की निर्भरता इतनी स्पष्ट है कि, उसके स्पष्टीकरण की कोई आवश्यकता नहीं है । सैनिक तैयारी का अर्थ है उस सैनिक संगठन की तैयारी जो कि विदेश नीति के पालन में सहारा प्रदान करने में सफल हो सके । सैनिक दृष्टि से किसी राष्ट्र की शक्ति सैनिकों तथा शस्त्रों की संख्या तथा उनके सैन्य संगठन के विभिन्न अंगों के वितरण पर निर्भर रहती है ।
एक राष्ट्र के पास युद्ध सम्बन्धी नए तकनीकी आविष्कार की अच्छी समझ होने तथा उनके सैनिक नेतृत्व में युद्ध की नयी तकनीकी से सम्बन्धित व्यूह-रचना व दांव-पेंच में विलक्षण गुण विद्यमान होने पर भी वह राष्ट्र सैनिक रूप से कमजोर हो सकता है यदि उसके पास ऐसा सैनिक संगठन न हो जो अपने सपूर्ण रूप में तथा विभिन्न अंगों की शक्ति की दृष्टि से राष्ट्र की आवश्यकता से न तो कम है और न अधिक ही ।
राष्ट्र शक्ति की दृष्टि से शान्तिकाल में भी राष्ट्रों के पास न केवल पर्याप्त सेना अपेक्षित है अपितु वह प्रशिक्षित और एकदम तैयारी की स्थिति में होनी चाहिए । किसी ने ठीक ही कहा है कि, “बिना एकदम तैयार सेना के कूटनीति की वही स्थिति होती है जो बिना वाद्य यत्रों के बजने वाले संगीत की ।”
Essay # 3. राष्ट्रीय शक्ति के मूल्यांकन में तीन भ्रान्तियां (Three Errors in the Evaluation of National Power):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्येयता उपर्युक्त तत्वों के आधार पर विभिन्न राज्यों की शक्ति का मूल्यांकन करते हैं, किन्तु ऐसा करते हुए वे प्राय: तीन प्रकार की भ्रान्तियों का शिकार हो जाते हैं और इस कारण राष्ट्रीय शक्ति का सही मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं ।
ये भ्रान्तियां निम्नलिखित हैं:
1. किसी राज्य की शक्ति को पूर्ण रूप से निरपेक्ष समझना:
विभिन्न देशों की राष्ट्रीय शक्ति में विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन आते रहते हैं । यह आवश्यक नहीं है कि, जो राज्य इस समय सबसे अधिक शक्तिशाली है वह भूतकाल में भी ऐसा था या भविष्य में भी ऐसा बना रहेगा ।
उदाहरणार्थ- इस समय संयुक्ता राज्य अमरीका और रूस सबसे अधिक शक्तिशाली देश समझे जाते हैं किन्तु इनको यह स्थिति 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद ही प्राप्त हुई है । इस युद्ध के छिड़ने से पहले ग्रेट ब्रिटेन सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य माना जाता था, किन्तु इस युद्ध के बाद उसकी स्थिति में गिरावट आ गयी और वह प्रथम कोटि की शक्ति नहीं बना रह सका ।
राजनीति में शक्ति सदैव सापेक्ष होती है । जब हम रूस और अमरीका को वर्तमान समय की सर्वोच्च शक्तियां, कहते हैं तो इसका यह अभिप्राय होता है कि इस समय अन्य देशों की तुलना में इनकी शक्ति सबसे अधिक है । यह आवश्यक नहीं कि उनकी यह स्थिति सदैव ऐसी बनी रहे किन्तु कई बार हम ऐसा मानने की भ्रान्ति कर बैठते हैं ।
इसका एक सुन्दर उदाहरण फ्रांस है । प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होने पर फ्रांस की सैनिक शक्ति को यूरोप में सर्वोपरि समझा जाता था । 1939 तक इसे ऐसा सेमझा जाता था और यह भुला दिया गया कि इस बीच में उसके प्रबल प्रतिद्वन्द्वी जर्मनी ने अपनी स्थल और वायु सेना में असाधारण वृद्धि कर ली है ।
यद्यपि फ्रांस की सेना की शक्ति 1919 के बाद के वर्षों में घटी नहीं थी किन्तु इसी बीच में जर्मनी की सैनिक शक्ति ‘कहीं अधिक उकृष्ट हो गयी थी । इस कारण प्रबल शक्तिशाली समझे जाने वाले फ्रांस को 1940 में जर्मनी के समुख नतमस्तक होना पड़ा ।
प्राय: राष्ट्र अपनी शक्ति के उत्कर्ष के चरम शिखर पर पहुंचकर इस बात को भूल जाते हैं कि शक्ति सापेक्ष है आर दूसरे देशों की शक्ति बढ़ जाने के कारण उनकी शक्ति में हास आ सकता है । इसका सर्वोत्तम उदाहरण ग्रेट ब्रिटेन है । 19वीं शताब्दी के पहले चरण में नैपोलियन को हटाने के बाद द्वितीय विश्वयुद्ध तक वह विश्व की सबसे बड़ी शक्ति था ।
उसके शक्तिशाली होने कै बड़े कारण थे: इंगलिश चैनल द्वारा उसका यूरोप के महाद्वीप से पृथक् होना, उसकी नौसेना, विशाल साम्राज्य और उपनिवेश, किन्तु दूसरे विश्वयुद्ध में हवाई जहाजों के विकास तथा इसके बाद अणुबमों तथा निशित प्रेक्षपास्त्रो के आविष्कार से इंगलिश चैनल का महत्व नगण्य हो गया ।
ब्रिटेन के उपनिवेश स्वतन्त्र हो जाने से और साम्राज्य समाप्त हो जाने से उसकी शक्ति का यह स्रोत सूख गया । इससे उसकी शक्ति में बड़ी कमी आ गयी किन्तु ब्रिटिश राजनीतिज्ञ फिर भी इस तथ्य को काफी समय तक मानने से इन्कार करते रहे ।
2. राष्ट्रीय शक्ति के किसी तत्व को स्थायी एवं अपरिवर्तनशील समझना:
1940-41 में हिटलर के नेतृत्व में जर्मनी की सैनिक शक्ति अपने उत्कर्ष के चरम शिखर पर थी । उस समय यह समझा जाता था कि यूरोंप पर जर्मनी का प्रभुत्व स्थायी रूप से स्थापित हो गया है, किन्तु दो वर्ष में ही यह मान्यता भ्रान्तिपूर्ण सिद्ध हुई, जबकि रूसियों ने स्टालिनग्राद में जमकर जर्मन सेनाओं से लोहा लिया और उन्हें हराकर पीछे धकेलना शुरू किया ।
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इसके बाद यह भ्रान्तिपूर्ण विचार बल पकड़ने लगा कि रूस चिरकाल तक यूरोप और एशिया का अधीश्वर बना रहेगा, किन्तु 1945 में नागासाकी और हिरोशिमा पर अणुबम गिराने के बाद आणविक आयुधों पर एकमात्र आधिपत्य होने से यह समझा जाने लगा कि अब भविष्य में संयुक्ता राज्य अमरीका विश्व की सर्वोच्च शक्ति बनेगा और अब अमरीकी प्रभुत्व की शताब्दी शुरू हो रही है ।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि लक्ष्मी की भांति शक्ति भी चंचला है, वह किसी एक देश के पास सदैव नहीं बनी रहती है उसमें निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं, किन्तु हम भ्रान्तिवश किसी देश की वर्तमान शक्ति को स्थायी समझने, लगते हैं।
3. राष्ट्रीय शक्ति के प्रमुख तत्वों में से किसी एक तत्व को असाधारण महत्व देना तथा अन्य तत्वों की उपेक्षा करना:
प्राय: भौगोलिक स्थिति, राष्ट्रीयता और सैनिकवाद के तत्वों को असाधारण महत्व दिया जाता है, इनके आधार पर किसी देश को अतीव शक्तिशाली घोषित किया जाता है, मैकिण्डर ने ‘भौगोलिक स्थिति’ के कारण रूस को विश्व की सर्वोच्च शक्ति बताया है और जर्मन-राजनीतिज्ञ होशौफर ने जर्मनी की भौगोलिक स्थिति के कारण इसे विश्व का सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य माना । ये सब विचार इसलिए भ्रान्तिपूर्ण है कि, ये केवल एक तत्व भूराजनीति (Geopolitics) को असाधारण महत्व देते हैं ।
संक्षेप में, किसी एक तत्व के आधार पर राष्ट्रीय शक्ति का मूल्यांकन नहीं किया जाना चाहिए । फिर भी यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि शक्ति के अन्य अवयवों की तुलना में प्राकृतिक सम्पदा और भूगोल का महत्व कम है । ब्रिटेन, इटली, जर्मनी और फ्रांस जैसे राष्ट्रों के पास प्राकृतिक सम्पदाओं का अभाव था फिर भी वे सब महाशक्तियों की भूमिका का निर्वाह कर चुकी हैं ।