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Here is an essay on ‘Neo-Colonialism’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short paragraphs on ‘Neo-Colonialism’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. नव-उपनिवेशवाद: अर्थ (Neo-Colonialism: Meaning):
समय तथा युग के साथ-साथ साम्राज्यवाद का रूप भी बदलता गया है । सैनिक तथा राजनीतिक साम्राज्यवाद का युग समाप्त हो चुका है और उनका स्थान आर्थिक साम्राज्यवाद ने ले लिया है । आर्थिक साम्राज्यवाद से तात्पर्य ऐसे साम्राज्यवाद से हे जिसमें प्रत्यक्ष रूप से कोई देश साम्राज्यवादी देश के नियन्त्रण से मुक्त होता है परन्तु अप्रत्यक्ष रूप में उसे साम्राज्यवादी शक्ति के निर्देशनों का पालन करना होता है ।
आज अमरीका और जी-8 देश अविकसित देशों को आर्थिक सहायता देकर अप्रत्यक्ष रूप से उन पर अपने दबाव का प्रयोग करते हैं । अमरीका अविकसित तथा छोटे-छोटे देशों को डॉलर (Dollar) अर्थात् आर्थिक सहायता देकर उन पर अपने दबाव तथा प्रभाव का प्रयोग करता है और इसे ‘डालर साम्राज्यवाद’ (Dollar Imperialism) कहा जाता है ।
जिस प्रकार साम्राज्यवाद के रूप में परिवर्तन हुआ उसी प्रकार उपनिवेशवाद के स्थान पर नव-उपनिवेशबाद (Neo-Colonialism) की स्थापना हुई है । द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् साम्राज्यवाद का विघटन हो गया और विश्व के अधिकांश राष्ट्र उपनिवेशवाद के चंगुल से छुटकारा पा गए । एशिया तथा अफ्रीका के अधिकांश राष्ट्र राजनीतिक दृष्टि से स्वतन्त्र तथा सम्प्रभु हैं ।
प्रत्यक्ष में वे भले ही स्वतन्त्र हों परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से किसी-न-किसी महाशक्ति के प्रभाव में हैं । ये तथाकथित राष्ट्र वास्तव में स्वतन्त्र नहीं पराधीन हैं । इस आधुनिक साम्राज्यवाद को ही ‘नव-उपनिवेशवाद’ कहते हैं । ‘नव-उपनिवेशवाद’ का मुख्य लक्ष्य राजनीतिक स्वतन्त्रता प्रदान करने के पश्चात् भी उनसे आर्थिक लाभ प्राप्त करते रहना है।
‘नव-उपनिवेशवाद’ का लक्ष्य राजनीतिक तथा सैनिक प्रभुत्व के स्थान पर आर्थिक प्रभुत्व की स्थापना करना है । 18वीं शताब्दी में ब्रिटेन ने तेल राजनय (Oil Diplomacy) के द्वारा आर्थिक दृष्टि से अपने प्रभाव को स्थापित कर रखा था ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् अमरीका के डालर साम्राज्यवाद (Dollar Imperialism) की स्थापना पश्चिमी यूरोप तथा एशिया एवं अफ्रीका के नव-स्वतन्त्रता प्राप्तदेशों पर हुई । लैटिन अमरीका के देश वैसे तो सम्प्रभु राष्ट्र हैं, परन्तु वे पूर्ण रूप से अमरीका पर निर्भर हैं तथा कोई स्वतन्त्र नीति अपनाने में असमर्थ हैं ।
इसी प्रकार ‘लौह आवरण’ (Iron Curtain) के पीछे पूर्वी यूरोप के देश पूर्ण रूप से सोवियत संघ के प्रभाव क्षेत्र में आ गए थे। अत: नव-उपनिवेशवाद ‘प्रभावक्षेत्र’ (Sphere of Influence) का साम्राज्य होता है । साम्राज्यवादी शक्ति आसानी से किसी ऐसे अधीन देश को अपने प्रभाव क्षेत्र से निकलने नहीं देती । हंगरी तथा चेकोस्लोवाकिया ने जब स्वतन्त्र नीतियों का अनुसरण करना चाहा तो सोवियत संघ ने शक्ति प्रयोग के द्वारा हस्तक्षेप किया था ।
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नव-उपनिवेशवाद आधुनिक जटिल अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की नयी शब्दावली है । नव-उपनिवेशवाद की संकल्पना एक अत्यन्त आधुनिक संकल्पना है जिसका उदय द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त ही हुआ है । नव-उपनिवेशवाद में शक्तिशाली और अपेक्षाकृत कम शक्तिशाली राज्य का सम्बन्ध एक आर्थिक उपनिवेश या उपग्रह (Satellite) का होता है ।
विकासशील और तीसरी दुनिया के नव-स्वतन्त्र देशों के सम्बन्ध कुछ इस प्रकार विकसित होते जा रहे हैं कि, नव-स्वतन्त्र देश आर्थिक दृष्टि से दासता के शिंकजे में फंसते जा रहे हैं चाहे भले ही राजनीतिक दृष्टि से स्वतन्त्र ही क्यों नहीं परिलक्षित होते हों । ‘व्यापार और विदेशी सहायता’ ऊपरी तौर से तो नव-स्वतन्त्र देशों के हित में लगते हैं, किन्तु यथार्थ में ये आर्थिक शोषण में परिवर्तित हो जाते हैं ।’
राजनीतिक और सैनिक स्वरूप के उपनिवेशवाद का अन्त हो चुका है । एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के देशों पर ब्रिटिश, फ्रेंच, डच, पुर्तगाली, बेल्जियम और स्पेनिश नियन्त्रण लगभग समाप्त-सा हो गया है, किन्तु बहुराष्ट्रीय निगमों के माध्यम से पश्चिमी देश नवोदित राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था में दीमक की तरह घुसते जाते हैं ।
नवोदित राष्ट्रों की प्राकृतिक- सम्पदा पर धीरे-धीरे पश्चिमी राष्ट्र अधिकार करते जा रहे हैं । इसके लिए पूंजी निर्यात (Export of capital), आसान विनिमय दरें (Non-equivalent exchange), कच्चे माल की कीमतों पर कैंची का प्रयोग (Price scissors for raw material) बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा खनिज सम्पदा तथा उपभोक्ता व्यापार पर नियन्त्रण (Control by the multinational corporation over the mineral wealth and commodity markets of the Third World), आदि साधनों का प्रयोग किया जाता है ।
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इस नीति का परिणाम होता है, ऐसे सम्बन्धों की स्थापना जिससे पश्चिमी विकसित राष्ट्रों और तीसरी दुनिया के राष्ट्रों के मध्य औद्योगिक माल तैयार करने वाले और कच्चा माल जुटाने वाले राष्ट्रों का स्वरूप बन जाए ।
नव-उपनिवेशवाद का लक्ष्य है नव-स्वतन्त्र देशों में विकास को पूंजीवादी दिशाओं में निर्दिष्ट करना जिससे उन देशों के शोषण की सम्भावना कायम रहे । इस राजनीतिक लक्ष्य की प्राप्ति की कोशिश में साम्राज्यवाद ने अपनी कार्यनीति बदल दी है ।
वह विकासशील देशों को पूंजीवादी राज्यों के एक प्रकार के, “औद्योगिक कच्चा माल तैयार करने वाले दुमछल्ले”, बना देने, उनके आर्थिक ढांचों में गहरी जड़ जमाने, इन देशों को पूंजीवादी अन्तर्राष्ट्रीय श्रम-विभाजन की एक नयी (किन्तु पहले की तरह गैर-बराबर) व्यवस्था में आवयविक रूप से समाविष्ट करने, उन्हें ‘प्राविधिक पराधीनता’ की शृंखलाओं में जकड़ने और इस प्रकार विकासशील देशों को व्यापक की जगह सघन-शोषण का शिकार बनाने के लिए खास तौर पर जोरदार प्रयास कर रहा है ।
वैज्ञानिक प्राविधिक क्रान्ति औद्योगिक दृष्टि से विकसित पूंजीवादी देशों में उत्पादक शक्तियों के क्षेत्र में गहनतम परिवर्तन ला देती है । इनकी नजीर ‘नए प्रकार’ की इजारेदारियां पेश करती हैं जो उन्नत से उन्नत प्रविधि पर आधारित उत्पादन का विस्तार करती है और जिन्हें अब इस बात में दिलचस्पी शेष नहीं रह जाती है कि वे पुराने उपनिवेशी श्रम-विभाजन को बरकरार रखें अर्थात् पिछड़े देशों को उपनिवेशी राज्यों के मात्र कृषि और कच्चे मालों के दुमछल्लों के रूप में उपयोग में लाएं ।
यह स्पष्ट ही है कि विकासशील देश आज भी इजारेदारियों के लिए कच्चे माल के स्रोत और औद्योगिक मालों की मण्डी तथा सस्ते जनबल के आपूर्तिकर्ता, इन दोनों ही रूपों में महत्व रखते हैं । इजारेदारियों के लिए यही जरूरी नहीं है कि विकासशील देश कच्चे माल की पैदावार बढ़ाएं, बल्कि यह भी कि वे औद्योगिक उत्पादन में और अधिक प्रत्यक्ष रूप में भागीदार बनें ।
एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका में विकसित देशों की पूंजी ‘सतही’ उत्पादन केन्द्रों की स्थापना करना चाहती है । साथ ही वह यह भी चाहती है कि अपने उद्योग की उन शाखाओं को वह वहां स्थानान्तरित कर दे जिसमें श्रम की सबसे ज्यादा खपत होती हो (क्योंकि वहां सस्ता जनबल सुलभ है) तथा जो ‘गन्दे’-अर्थात् पर्यावरण के लिए हानिकर हों ।
नए प्रकार के एक ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय श्रम-विभाजन की योजना उभर रही है जिसके तहत उद्योग सम्पन्न विकसित देश मुख्यत: उन प्राविधिक दृष्टि से सबसे ‘आधुनिक’ और पूंजी-प्रधान औद्योगिक शाखाओं को अपने देश के अन्तर्गत विकसित करेंगे जिनके लिए अत्यन्त हुनरमन्द जनबल की आवश्यकता हो तथा विकासशील देशों को विश्व पूंजीवादी उत्पादन तन्त्र ”बिचले उत्पादों के कारखानों” में तथा “माल निर्माण और ढुलाई की शृंखला की बिचली कड़ियों” में बदल देंगे जिससे वे महत्वपूर्ण प्राविधिक दृष्टि से समुन्नत आरम्भिक और अन्तिम कड़ियों पर पूरी तरह आश्रित होंगे ।
दूसरे शब्दों में, इजारेदारियां पिछड़े देशों के औद्योगीकरण की अवश्यम्भावी प्रक्रिया को इस तरह मोड़ देना चाहती हैं कि उससे वे खुद ही लाभ उठाएं । विभिन्न आर्थिक शाखाओं में लगा दी गयी पूंजी सम्बन्धी कड़े इसके सबूत हैं ।
उदाहरणार्थ 1950 में दक्षिणी-पूर्व एशिया में प्रोसेसिंग उद्योग में जो प्रत्यक्ष अमरीकी खानगी पूंजी लगी थी वह 19.1 प्रतिशत थी आठवें दशक के आरम्भ में वह 25.7 प्रतिशत तक पहुंच गयी । लैटिन अमरीका में यह इसी दौर में 17.5 प्रतिशत से बढ़कर 31.7 प्रतिशत पहुंच गयी । आज लैटिन अमरीका में लगायी जाने वाली समस्त खानगी पूंजी का 50 प्रतिशत से अधिक प्रोसेसिंग उद्योग में जाता है ।
1965-72 के बीच सपूर्ण तीसरी दुनिया में कुल जितनी पूंजी लगायी गयी उसका 40.6 प्रतिशत प्रोसेसिंग उद्योग को मिला । इन आंकड़ों से पता चलता है कि विदेशी पूंजी पहले पिछड़े देशों के औद्योगीकरण में अवरोध पैदा करती थी किन्तु अब वही कुछ खास औद्योगिक शाखाओं में ‘ताबड़तोड़ पिल पड़ी है’ जिसमें वह उनके विकास की दिशा को ऐसा मोड़ दे सके जो उसके अनुकूल हो और इस प्रक्रिया पर अपना नियन्त्रण कायम रख सके ।
नव-उपनिवेशवाद की लाइन यह है कि “विकासशील देशों की नयी प्राविधिक पराधीनता की स्थापना की जाए और इस पर सरकारी तौर पर तथाकथित ‘समान साझेदारी’ की अवधारणा की नकाब डाल रखी गयी है । उक्त नव-उपनिवेशवादी लाइन के लागू किए जाने के पीछे गुप्त मूलमन्त्र है ”नियन्त्रण बढ़ाने के लिए कारखानों का निर्माण करना ।”
पश्चिमी देश प्राविधिक विकास (Technological advances) की दृष्टि से सम्पन्न और उन्नत हैं । यदि तीसरी दुनिया के देश भी इस उन्नत प्रविधि का उपयोग करने लग जाएं तो उनके आर्थिक विकास की गति काफी तीव्र हो सकती है, किन्तु प्राविधिक विकास की दृष्टि से पश्चिमी दुनिया और तीसरी दुनिया के देशों में प्राविधिक अनुसन्धान की दर में 141:1 का अनुपात है और इसी अन्तर के कारण पश्चिमी देश और उनकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां विकासशील देशों का शोषण करती हैं ।
जहां पूंजीवादी पश्चिमी देश प्राविधिक निर्यात और आयात दोनों करते हैं वहां तीसरी दुनिया के राष्ट्र मात्र 2-3 प्रतिशत प्राविधि सम्बन्धी पट्टों (Patents) का निर्यात करते हैं और प्राविधि के आयात में ही उनका सारा धन खर्च हो जाता है । जहां 1960 के दशक में विकासशील नव-स्वतन्त्र राष्ट्रों को प्राविधि के आयात के लिए अनुमानत: प्रतिवर्ष 1,500 लाख डॉलर राशि खर्च करनी होती थी वहां आज उसे 3000 से 5000 लाख डॉलर धन खर्च करना पड़ता है ।
अंकटाड (UNCTAD) सचिवालय का अनुमान है कि वर्ष 2000 ई. तक विकासशील राष्ट्रों को प्राविधि के आयात में 60,000 से 1,50,000 लाख डॉलर राशि व्यय करनी पड़ी जिससे उनकी अर्थव्यवस्था चरमराने लगी । कहने का अभिप्राय यह है कि प्राविधिक हस्तान्तरण (Transfer of technology) ऐसा उपकरण है जिससे नवोदित राष्ट्रों को उपनिवेशवादी शिकंजे में अनवरत रूप से बांधकर रखा जा सकता है ।
संक्षेप में, नव-उपनिवेशवाद से अभिप्राय हैं: पूंजीवादी समृद्ध पश्चिमी देशों द्वारा तीसरी दुनिया के नव-स्वतन्त्र देशों का आर्थिक और तकनीकी शोषण । नव-उपनिवेशवाद के उपकरण (Instruments) हैं आर्थिक सहायता, सैनिक सहायता, शस्त्रों की सहायता, तकनीकी का निर्यात, व्यापार और उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार, आदि ।
और इस प्रकार का आर्थिक शोषण भी तब जबकि अगर ईंधन को छोड़ दिया जाए तो विश्व के 40 से 45 प्रतिशत कच्चे माल संसाधन नव-स्वतन्त्र देशों में ही हैं और कुछ सबसे महत्वपूर्ण कच्चे मालों (तेल, टिन, बॉक्साइट, तांबा और प्राकृतिक रबड़) के उत्पादन में वे विश्व में सबसे आगे हैं ।
Essay # 2. नव-उपनिवेशवाद के रूप (Types of Neo-Colonialism):
आर्गेन्स्की ने उपनिवेशवाद के तीन रूपों का वर्णन किया है-राजनीतिक उपनिवेशवाद (Political Colonialism), आर्थिक दृष्टि से पराश्रित देश (Economic Dependencies) तथा पिछलग्गू देश (Satellite) । राजनीतिक उपनिवेशवाद, उपनिवेशवाद का वह रूप है जिसमें किसी देश पर विदेशी सत्ता का प्रत्यक्ष तथा पूर्ण नियन्त्रण हो अर्थात् वह देश राजनीतिक दृष्टि से स्वाधीन न हो । आर्गेन्स्की ने उपनिवेशवाद के अन्तिम दो रूपों: आर्थिक दृष्टि से पराश्रित देशों तथा पिछलग्गू देशों को ही ‘नवनपनिवेशवाद’ के अन्तर्गत शामिल किया है ।
यहां हम इन दोनों ही रूपों की चर्चा करेंगे:
(1) आर्थिक दृष्टि से पराश्रित देश (Economic Dependencies):
ये वे देश होते हैं जो राजनीतिक दृष्टि से स्वतन्त्र होते हैं, परन्तु इनके उद्योग-धन्धे तथा व्यापार किसी विदेशी शक्ति द्वारा नियन्त्रित होते हैं । बहुत-से ऐसे देश हैं जो आर्थिक दृष्टि से अपने मालिक नहीं हैं । ये देश आर्थिक दृष्टि से अविकसित राष्ट्र (Under-Developed Nations) होते हैं । ऐसे देश की अर्थव्यवस्था का नियन्त्रण तथा संचालन उस देश की सरकार द्वारा नहीं होता है ।
यह आवश्यक नहीं है कि विदेशी राष्ट्र सरकारी स्तर पर ही आर्थिक नियन्त्रण को स्थापित करें, बल्कि अधिकैतर यह होता है कि अधिक से अधिक विदेशी पूंजी को लगाकर पराश्रित राष्ट्र में उद्योग-धन्धों की स्थापना की जाती है ।
यदि किसी देश के अधिकांश उद्योग-कधे तथा व्यापार विदेशियों के हाथ में हें, तो उस राष्ट्र को पराश्रित राष्ट्र (Economic Dependency) कहा जाएगा । यदि किसी देश की राष्ट्रीय आय का 51 प्रतिशत भाग विदेशियों को प्राप्त होता है तो निश्चित रूप से वह राष्ट्र एक पराश्रित राष्ट्र है ।
वैसे तो पराश्रित राष्ट्र स्वतन्त्र तथा सम्प्रभु होता है परन्तु यदि उसकी अर्थव्यवस्था का नियन्त्रण विदेशियों के द्वारा होता है तो यह निश्चित है कि वे इस देश की सरकार को भी प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं । पराश्रित राष्ट्रों में आर्थिक साधन के माध्यम से विदेशी राष्ट्र की राजनीतिक सत्ता की स्थापना होती है ।
(2) पिछलग्गू देश (Satellites):
पिछलग्गू देश उस राष्ट्र को कहा जाता है जो औपचारिक रूप में तो स्वतन्त्र होता है, परन्तु राजनीतिक तथा आर्थिक दोनों प्रकार से उस पर किसी विदेशी सत्ता का नियन्त्रण होता है । आर्गेन्स्की के अनुसार द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद केवल सोवियत रूस ही एकमात्र पिछलग्गू देशों वाला राष्ट्र था और चीन इस दिशा में बढ़ने का प्रयास कर रहा है ।
साम्यवादी देशों में अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण सरकार का होता है, अत: एक देश के द्वारा दूसरे देश के ऊपर आर्थिक नियन्त्रण बिना राजनीतिक नियन्त्रण के सम्भव नहीं है । इस प्रकार जिस राष्ट्र पर किसी विदेशी शक्ति का आर्थिक तथा राजनीतिक दोनों प्रकार का नियन्त्रण स्थापित हो जाता है वह पूर्णरूप से पराधीन हो जाता है ।
ऐसे राष्ट्रों को ही पिछलग्गू राष्ट्र (Satellite) कहा जाता है । आर्थिक दृष्टि से आश्रित राष्ट्रों के मुकाबले में पिछलग्गू राष्ट्रों पर विदेशी शक्ति का नियन्त्रण अधिक प्रभावशाली तथा मजबूत होता है । आर्थिक दृष्टि से पराश्रित राष्ट्र पिछलग्गू राष्ट्रों के मुकाबले में अधिक स्वतन्त्र होते हैं ।
उन्हें यह स्वतन्त्रता होती है कि वे प्रजातन्त्र अथवा साम्यवाद में से किसी का चुनाव कर सकते हैं लेकिन सोवियत रूस के पिछलग्गू राष्ट्रों को यह स्वतन्त्रता नहीं थी कि वे पाश्चात्य प्रजातन्त्र का रूप ग्रहण कर लें । पूर्वी यूरोप के देशों का हर प्रकार से नियन्त्रण सोवियत रूस के द्वारा होता था तथा सोवियत रूस में किसी नीति के परिवर्तन का प्रभाव तुरन्त पूर्वी यूरोप के पिछलग्गू राष्ट्रों पर पड़ता था ।
Essay # 3. नव-उपनिवेशवाद के प्रतीक : बहुराष्ट्रीय निगम (Symbol of Neo-Colonialism: The Multi-Nationals):
बहुराष्ट्रीय कम्पनियां या निगम साम्राज्यवादी देशों की नयी एवं उच्चतम किस्म की विशालकाय इजारेदारियां हैं, जो अकूत संसाधनों को नियन्त्रित करती हैं और अधिकतम मुनाफा उपार्जित करने के लिए सस्ते श्रम सस्ते कच्चे माल और अनुकूल बाजार की खोज में अपने देश के बाहर अपने क्रियाकलाप को फैलाती हैं तथा पूंजीनिवेश करती हैं । इन्हें अपने देश की साम्राज्यवादी सरकार का आर्थिक, राजनीतिक तथासैनिक समर्थन प्राप्त रहता है । ये निगम साम्राज्यवाद की नव-उपनिवेशवादी नीति के आर्थिक औजार हैं ।
रेमण्ड वरनन के अनुसार- ”बहुराष्ट्रीय उद्यम एक सांझी प्रबन्धकीय योजना के बन्धन में बंधी भिन्न भिन्न राष्ट्रीयताओं के निगमों का समूह है ।”
मैनिस एवं संवंत लिखत- हैं कि- “बहुराष्ट्रीय निगम वे कम्पनियां हैं जो दो या दो से अधिक देशों में उत्पादन सुविधा को नियन्त्रित करती है ।” लुईस टी. वेल्स बहुराष्ट्रीय निगमों को बहुराष्ट्रीय व्यापारिक उद्यम मानते हैं तथा इन्हें पार-राष्ट्रीय कर्ता (Transnational Actors) कहते हैं ।”
बहुराष्ट्रीय निगमों के क्रियाकलाप निम्नलिखित दो उद्देश्यों की ओर उन्मुख हैं:
प्रथम साम्राज्यवादी देशों की अर्थव्यवस्था के लिए कच्चा माल, तेल, लौह अयस्क, तांबा, टीन, रबर, चाय, कॉफी जैसे कच्चे माल तथा प्राकृतिक साधनों की आपूर्ति की गारण्टी करना, और द्वितीय उन देशों में पूंजी निवेश से कारखाने खड़े करना जहां सस्ता श्रम और कच्चा माल उपलब्ध हो ।
अपने मुनाफे की रक्षा और वृद्धि के लिए ये कम्पनियां मात्र आर्थिक क्रियाकलाप ही नहीं करती हैं बल्कि विभिन्न देशों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप भी करती हैं, सरकारों पर दबाव डालती हैं मन्त्री तथा अधिकारियों को खरीदती हैं, अस्थिरता पैदा करती हैं, हत्याएं करती हैं और आन्तरिक प्रतिक्रियावादी शक्तियों से मिलकर प्रगतिशील सरकारों के खिलाफ प्रतिक्रान्ति तक संगठित करती हैं । संक्षेप में, मुनाफे के लिए ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियां सभी अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों और मानवीय मान्यताओं को कुचलकर हर सम्भव अपराध करती हैं ।
एक पत्रकार ने इनके उपनिवेशवादी चरित्र को उजागर करते हुए लिखा है- “बहुराष्ट्रीय निगमों की राजनीतिक कार्यवाहियां अथवा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष के मूल में इनके आर्थिक स्वार्थ ही होते हैं । इनका केवल एक ही उद्देश्य होता है, ज्यादा-से-ज्यादा अपना धन्धा बढ़ाना और पैसा कमाना । इस उद्देश्य के लिए ये निगम किसी भी सीमा तक जा सकते हैं, कितना ही नीचे गिर सकते हैं । हालांकि इनके धन्धे बदलते रहते हैं । पहले ये विकासशील देशों में मूलत: कच्चे माल और खनिज तेल और खाद्य-सामग्री का व्यापार करते थे उन्हें सस्ते दामों पर विकासशील देशों से खरीदकर विकसित देशों में बेचते थे । बाद में इन्होंने इन देशों में उद्योग भी लगाने शुरू कर दिए-विकासशील देशों की औद्योगिक प्रगति का वास्ता देकर जबकि वास्तव में इन्होंने इसकी अवनति ही की । ध्यान देने की बात है कि ये निगम कभी भी अपने उत्पादन का नुस्खा या भेद विकासशील देशों को नहीं बताते । भेद न खुले इसलिए अधिकांश वस्तु का उत्पादन पूरी तरह उस देश में नहीं करते । कोई पुर्जा सम्बन्धित देश में बनाते हैं तो कोई स्वदेश से आयात करते हैं । उल्टे नमूने की फीस के रूप में एक बड़ी रकम बराबर स्वदेश भेजते हैं ।”
तृतीय विश्व में बहुराष्ट्रीय निगमों की भूमिका के बारे में कतिपय अध्ययनों से पता लगता है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भी साधारणतया शोषणकारी अन्तर्राष्ट्रीय व्यावसायिक प्रतिष्ठानों का नया रूप मात्र हैं जिनका मूल उद्देश्य लाभ कमाना ही है ।
इन अध्ययनों के अनुसार तीसरी दुनिया अपने माल के अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में विक्रय मशीनों साधनों और तकनीक की प्राप्ति के लिए पूरी तरह बहुराष्ट्रीय निगमों पर निर्भर है । इसके बदले बहुराष्ट्रीय निगम विकासशील देशों में प्रति वर्ष 5 से 15 अरब तक डॉलर प्राप्त कर लेते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि बड़े पैमाने पर माल के स्रोत दक्षिण से उत्तर की ओर ले जाए जा रहे हैं ।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की आर्थिक शक्ति (Economic Power of the Multi-Nationals):
कैगले जूनियर तथा आर. विटकोफ लिखते हैं- “उनकी गतिविधि का फैलाव तथा उनकी आर्थिक शक्ति की ताकत महत्वपूर्ण कारण है जिनसे बहुराष्ट्रीय निगमों ने इतना ध्यान खींचा है ।” एक तरफ बहुराष्ट्रीय निगम पूंजी उद्योग, तकनीक तथा तकनीकी ज्ञान को विकसित प्रथम विश्व से विकासशील तीसरे विश्व को हस्तान्तरण के साधन बने हैं परन्तु दूसरी तरफ इन्होंने तीसरे विश्व के राष्ट्रों को विकसित देशों पर अधिकाधिक निर्भर बना दिया ।
सन् 1971 में इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने 50,000 करोड़ डॉलर के मूल्य का नया धन पैदा किया जो विश्व के समग्र राष्ट्रीय उत्पादन (समाजवादी देशों को छोड़कर) का 5वां भाग था । गैर-समाजवादी जगत और औसत विकास दर से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की विकास दर दुगनी है, इसलिए अनुमान लगाया गया कि 2000 ई. तक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने विश्व के कुल उत्पादन के (समाजवादी देशों को छोड़कर) 60 प्रतिशत पर नियन्त्रण कायम कर लिया ।
सन् 1970 में विश्व की सबसे बड़ी कम्पनियों, जिनमें प्रत्येक की सालाना बिक्री 300 करोड़ डॉलर से अधिक थी की कुल बिक्री 80 देशों के कुल राष्ट्रीय उत्पादन से भी अधिक थी । अमरीका की तीन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों-जनरल मोटर्स स्टैण्डर्ड आयल और फोर्ड-कीं सालाना बिक्री भारत के कुल राष्ट्रीय उत्पादन के बराबर है ।
सन् 1971 में जहां भारत की कुल राष्ट्रीय आय 4,897 करोड़ डॉलर थी, वहां जनरल मोटर्स, स्टैण्डर्ड आयल और फोर्ड की बिक्री क्रमश: 1,875 करोड़ डॉलर, 1,655 करोड़ डालर तथा 1,498 करोड़ डालर थी । अमरीका की 10, ब्रिटेन की 5 और स्विट्जरलैण्ड की 3 बहुराष्ट्रीय कम्पनियां पूंजीवादी जगत के कुल उत्पादन का क्रमश: 40 प्रतिशत, 30 प्रतिशत और 40 प्रतिशत पैदा करती हैं ।
दूसरे शब्दों में, विश्व की 18 बहुराष्ट्रीय कम्पनियां पूंजीवादी जगत के कुल उत्पादन का 84 प्रतिशत पैदा करती हैं । युद्ध सामग्रियां पैदा करने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियां सालाना 2,000 करोड़ डालर से भी अधिक के हथियारों की बिक्री करती हैं ।
यह रकम भारत की कुल राष्ट्रीय आय की लगभग आधी है । अमरीका में 500 बड़ी कम्पनियां हैं जो अमरीका के कुल उत्पादन के 60 प्रतिशत पर नियन्त्रण करती हैं और अनुमान लगाया गया कि सन् 2000 तक 90 प्रतिशत को नियन्त्रित कर चुकी है ।
इसी तरह अन्य साम्राज्यवादी देशों के संसाधनों के बड़े भाग पर मुट्ठी भर कम्पनियां नियन्त्रण करती हैं । अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां सर्वाधिक शक्तिशाली हैं और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कुल संसाधनों के 2/3 भाग पर इनका नियन्त्रण है ।
साम्राज्यवादी देशों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और सरकारें पूरी तरह से जुड़ी हुई हैं । उच्च सरकारी पदों पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रतिनिधि भरे पड़े हैं । अमरीकी अर्थशास्त्री आर. बर्नेट ने गणना की है कि 1940 से 1967 की अवधि में अमरीकी प्रशासन के 91 अति महत्वपूर्ण मदों में से 70 पर बड़े वित्तीय घरानों के प्रतिनिधि थे ।
विदेश मन्त्री, उप-विदेश मन्त्री, प्रतिरक्षा मन्त्री तथा उनके सहायक जल सेना के सचिव, वायु सेना के सचिव, आणविक ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष और सी. आई. ए. के निदेशक पदों पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रतिनिधि बैठे थे ।
अमरीका का प्रथम मन्त्री जेम्स बी. फोरेस्ट विशाल डिलन रीड बैंक का निदेशक था । एन. एच. माकेलरी प्रतिरक्षा मन्त्री बनने के पहले विश्व की सबसे बड़ी साबुन इजारेदारी प्रोक्टर एण्ड गेम्बल का प्रधान था । प्रतिरक्षा मन्त्री बनने के पूर्व मैकनामारा फोर्ड मोटर्स का अध्यक्ष था ।
सन् 1970 में एस. लैन्स ने अपनी पुस्तक ‘सैनिक औद्योगिक कम्पलैक्स’ में बताया है कि अमरीकी प्रतिनिधि सभा के बहुतेरे सदस्य सैनिक औद्योगिक कम्पलैक्स में हिस्सेदार हैं । 91वीं अमरीकी कांग्रेस के 30 सिनेटर एवं प्रतिनिधि सभा के 100 सदस्य सैनिक औद्योगिक कम्पलैक्स के सुरक्षित या अवकाश प्राप्त अधिकारी थे । 93वीं कांग्रेस के 535 कुल सदस्यों में से 390 बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के भूतपूर्व अधिकारी थे।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अमरीका में अपने मनोनुकूल राष्ट्रपति बनाने के लिए धन बहाती हैं । इसका प्रमाण वाटरगेट काण्ड के इस रहस्योद्घाटन से मिलता है कि निक्सन के चुनाव प्रचार में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने 7 करोड़ डालर खर्च किए थे ।
सैनिक-औद्योगिक घटना से वे पुन: अमरीकी राष्ट्रपति के पद पर निक्सन को बैठाना चाहते थे, जिनकी युद्धवादी नीति से इन्होंने अरबों डालर उपार्जित किए थे । लगभग अब यह तध्य स्पष्ट है कि राष्ट्रपति केनेडी की हत्या सी. आई. ए. के द्वारा इन कम्पनियों ने करवायी थी, जो केनेडी की कतिपय नीतियों को नापसन्द करती थीं ।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के तौर-तरीके (Instruments of Multi-Nationals):
बहुराष्ट्रीय कम्पनियां किस प्रकार शोषण करती हैं इस प्रक्रिया को एक उदाहरण से समझा जा सकता है । बहुराष्ट्रीय कम्पनियां तीसरी दुनिया के राष्ट्रों को शीतल पेय बेचती हैं और तेल खरीदती हैं । विदेशी शीतल पेयों में 99 प्रतिशत पानी और एक प्रतिशत गुप्त सूत्र वाला रसायन होता है ।
99 प्रतिशत पानी तो स्थानीय होता है और उसमें एक प्रतिशत रसायन मिलाकर ये कम्पनियां इस शीतल पेय को 25 रुपए से 30 रुपए प्रति लीटर अथवा 4,000 रुपए से 5,000 रुपए प्रति बैरल की दर से बेचती हैं । दूसरी ओर तीसरी दुनिया से आयातित तेल की कीमत मात्र 450 रुपए प्रति बैरल की दर से चुकाती हैं ।
अपने न्यस्त स्वार्थों की पूर्ति के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के तौर-तरीकों का स्पष्टीकरण निम्नलिखित उदाहरणों से और अधिक स्पष्ट हो जाता है:
(i) मध्यपूर्व के तेल भण्डार के अधिकांश भाग पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का कब्जा है । इस क्षेत्र में साम्राज्यवाद विशेषकर अमरीकी साम्राज्यवाद, कठपुतली इजराइल के माध्यम से उन अरब देशों पर अकारण हमला करवाता रहा है जो राष्ट्रीय प्राकृतिक संसाधनों पर अपना नियन्त्रण करना चाहते हैं ।
(ii) अंगोला के सोने लोहे तथा तेल के भण्डारों पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का कब्जा था । एम.पी.एल.ए के नेतृत्व में अंगोला की आजादी का अर्थ लोहे सोने तथा तेल भण्डारों का बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथ से निकल जाना है । इसकी रक्षा के लिए अमरीका तथा दक्षिण अफ्रीका ने अन्तर्राष्ट्रीय कानून को ठुकराकर सन् 1975 में अंगोला की वैध सरकार पर हमला कर दिया था ।
(iii) 1975 में अमरीकी बहुराष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक कम्पनी ने मैक्सिको की सरकार पर दबाव डाला कि वह अपने श्रम कानून को, जो मजदूरों को थोड़ा संरक्षण देता है, बदल डाले । मैक्सिको की सरकार ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया तो कम्पनी ने अपना कारखाना बन्द कर उसे कोस्टारिका में स्थानान्तरित कर दिया । इसके परिणामस्वरूप 12,000 मजदूर बेरोजगार हो गए ।
(iv) चिली में अलेन्दे की सरकार ने अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के राष्ट्रीयकरण के कदम उठाए तो जवाब में अमरीकी कम्पनियों ने अलेन्दे की हत्या करवा दी तथा सरकार को उलटवा दिया ।
(v) लैटिन अमरीका के केला निर्यात पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का कब्जा है । केला निर्यातक देशों को केले के डालर आय पर मात्र 11.5 सेण्ट प्राप्त होता था । केले की आय से कुछ अधिक हासिल करने के लिए केले के 5 निर्यातक देशों ने अपना संगठन बनाकर केले पर निर्यात कर लगाया । जवाब में एक कम्पनी ने कर के बजाय 1,45,000 केले की पेटियों को नष्ट कर दिया दूसरी कम्पनी ने अधिकारियों को 15 लाख डालर की पूस देकर 70 लाख बचा लिया ।
(vi) अपने उत्पादन के लिए अधिक-से-अधिक आर्डर प्राप्त करने हेतु और विभिन्न देशों की आन्तरिक राजनीति को अपने अनुकूल बनाने के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियां विभिन्न देशों के मन्त्रियों तथा अधिकारियों को रिश्वत देती हैं । लाकहीड, नार्थरोप, गुडईयर, फाइजर आदि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा विभिन्न देशों में रिश्वत देने के समाचार हाल ही में प्रकाश में आए हैं यह तथ्य उजागर हो चुका है कि भारत में बोफोर्स तोप सौदे तथा एनरॉन कम्पनियों ने रिश्वत देकर सौदे पटाए । इस प्रकार रिश्वत देकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियां सालाना 1,500 करोड़ डालर का मुनाफा कमाती हैं ।
आलोचकों की दृष्टि में बहुराष्ट्रीय निगम:
आलोचक बहुराष्ट्रीय निगमों को विकासशील राष्ट्रों पर विकसित राष्ट्रों का नव-उपनिवेशीय नियन्त्रण मानते हैं ।
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इनके विरोध में निम्नांकित तर्क दिए जाते हैं:
(a) संगठित श्रम इन निगमों को बेरोजगारी के अभिकर्ता मानते हैं क्योंकि ये अपने क्षाण्टों को ‘सस्ते श्रम’ के क्षेत्रों में ले जाते हैं ।
(b) संगठित मजदूर संघ इस बात पर जोर देते हैं कि बहुराष्ट्रीय संघ प्राय: आज के विदेशी प्रतिस्पर्द्धा के युग में अपने राष्ट्रीय उद्योगों के हितों की उपेक्षा करते हैं तथा उन्हें हानि पहुंचाते हैं ।
(c) बहुराष्ट्रीय निगम न केवल धनी तथा निर्धन देशों के बीच की खाई को चौड़ा कर रहे हैं बल्कि बड़े पैमाने पर विकासशील राष्ट्रों से लाभ कमा कर अपने देशों को स्थानान्तरित कर रहे हैं ।
(d) बहुराष्ट्रीय निगम निर्धन राष्ट्रों पर धनी राष्ट्रों के नव उपनिवेशीय नियन्त्रण के बाहक हैं । ”धनी राष्ट्रों के लोगों के पार-राष्ट्रीय व्यापार तथा लाभ कमाने वाले संगठनों के रूप में बहुराष्ट्रीय निगम तीसरे विश्व के देशों की अर्थव्यवस्थाओं तथा नीतियों पर उपनिवेशीय नियन्त्रण का कारण बने हैं ।”