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Here is an essay on ‘Non-Alignment’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Non-Alignment’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on Non-Alignment
Essay Contents:
- गुटनिरपेक्षता: उदय (Non-Alignment: Origin)
- गुटनिरपेक्ष आन्दोलन: समन्वय ब्यूरो एवं शिखर सम्मेलन (NAM: Co-Ordination Bureau and Summit Conferences)
- गुटनिरपेक्षता की उपलब्धियां (Achievements of Non-Alignment)
- गुटनिरपेक्षता की कमजोरियां या विफलताएं: आलोचना (Criticism of Non-Alignment)
- गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की चुनौतियां: दबाव (Challenges of Non-Alignments Pressures)
- गुटनिरपेक्षता: गतिशीलता और नूतन प्रवृत्तियां (The Non-Alignment: Dynamism and New Trends)
- गुटनिरपेक्षता का भविष्य: प्रासंगिकता (The Future of Non-Alignment: Relevance)
- गुटनिरपेक्षता की विफलताएं (Weaknesses or Failures of Non-Alignment)
Essay # 1. गुटनिरपेक्षता: उदय (Non-Alignment: Origin):
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप में परिवर्तन लाने वाले तत्वों में ‘गुटनिरपेक्षता’ (Non-Alignment) का विशेष महत्व है । गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की उत्पत्ति का कारण कोई संयोगमात्र नहीं था अपितु यह सुविचारित अवधारणा थी । इसका उद्देश्य नवोदित राष्ट्रों की स्वाधीनता की रक्षा करना एवं युद्ध की सम्भावनाओं को रोकना था ।
गुटनिरपेक्ष अवधारणा के उदय के पीछे मूल धारणा यह थी कि साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद से मुक्ति पाने वाले देशों को शक्तिशाली गुटों से अलग रखकर उनकी स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखा जाए । आज एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के अधिकांश देश गुटनिरपेक्ष होने का दावा करने लगे हैं ।
जहां 1961 के बेलग्रेड शिखर सम्मेलन में भाग लेने वाले गुटनिरपेक्ष देशों की संख्या 25 थी, वहां आज निर्गुट आन्दोलन के सदस्यों की संख्या 120 हो गई है । आर्मेनिया, आजरबेजान, बोस्निया, हर्जेगोबिना, ब्राजील, चीन, कोस्टारिका, क्रोशिया, अल साल्वाडोर, कजाकिस्तान, किर्गिजस्तान, यूक्रेन तथा उरुग्वे आदि देशों को गुट निरपेक्ष आन्दोलन में पर्यवेक्षक का दर्जा हासिल है ।
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद विश्व दो विरोधी गुटों-सोवियत गुट और अमरीकी गुट में विभक्त हो चुका था और दूसरी तरफ एशिया एवं अफ्रीका के राष्ट्रों का स्वतन्त्र अस्तित्व उभरने लगा था । अमरीकी गुट एशिया के इन नवोदित राष्ट्रों पर तरह-तरह के दबाव डाल रहा था ताकि वे उसके गुट में शामिल हो जाएं लेकिन एशिया के अधिकांश राष्ट्र पश्चिमी देशों की भांति गुटबन्दी में विश्वास नहीं करते थे ।
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वे सोवियत साम्यवाद और अमरीकी पूंजीवाद दोनों को अस्वीकार करते थे । वे अपने आपको किसी ‘वाद’ के साथ सम्बद्ध नहीं करना चाहते थे और उनका विश्वास था कि उनके प्रदेश ‘तीसरी शक्ति’ (Third Force) हो सकते हैं जो गुटों के विभाजन को अधिक जटिल सन्तुलन में परिणत करके अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग में सहायक हो सकते हैं ।
गुटों से अलग रहने की नीति अर्थात् गुटनिरपेक्षतावाद एशिया के नव-जागरण की प्रमुख विशेषता थी । सन् 1947 में स्वतन्त्र होने के उपरान्त भारत ने इस नीति का पालन करना शुरू किया; उसके बाद एशिया के अनेक देशों ने इस नीति में अपनी आस्था व्यक्त की ।
जैसे-जैसे अफ्रीका के देश स्वतन्त्र होते गए वैसे-वैसे उन्होंने भी इस नीति का अवलम्बन करना शुरू किया । भारत के जवाहरलाल नेहरू, मिस्र के राष्ट्रपति नासिर तथा यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो ने ‘तीसरी शक्ति’ की इस धारणा को काफी मजबूत बनाया ।
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वस्तुत: शीत-युद्ध के राजनीतिक ध्रुवीकरण ने गुटनिरपेक्षता की समझ तैयार करने में एक उत्प्रेरक का कार्य किया । लम्बे औपनिवेशिक आधिपत्य से स्वतन्त्र होने के लम्बे संघर्ष के बाद किसी दूसरे आधिपत्य को स्वीकार कर लेना नवोदित राष्ट्रों के लिए एक असुविधाजनक स्थिति थी ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में वे एक ऐसी भूमिका की तलाश में थे जो उनके आत्मसम्मान और क्षमता के अनुरूप हो । क्षमता स्तर पर किसी एक राष्ट्र के लिए ऐसी स्वतन्त्र भूमिका अर्जित कर पाना एक भागीरथी प्रयत्न होता, जिसकी सम्भावनाएं भी अत्यधिक सन्दिग्ध बनतीं ।
अत: आत्मसम्मान की एक अन्तर्राष्ट्रीय भूमिका के लिए सामूहिक पहल न सिर्फ वांछित थी, अपितु आवश्यक थी । स्वतन्त्रता और सामूहिकता की इस मानसिकता ने गुटनिरपेक्षता की वैचारिक और राजनीतिक नींव रखी । इस प्रक्रिया को शीत-युद्ध के तात्कालिक राजनीतिक वातावरण ने गति प्रदान की ।
गुटनिरपेक्षता: अर्थ एवं परिभाषा:
गुटनिरपेक्षता की नीति पिछले चार दशक से चल रही है और आज संयुक्त राष्ट्र संघ के दो-तिहाई देश इसे व्यवहार में ला रहे हैं । फिर भी यह नहीं मान सकते कि जिन-जिन लोगों को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में दिलचस्पी है वे सब गुटनिरपेक्षता का सही-सही अर्थ समझते हैं ।
इसके कई कारण हैं:
एक कारण यह है:
गुटनिरपेक्ष देशों में अब भी गुटनिरपेक्षता से सम्बन्धित शब्दावली के बारे में भरपूर भ्रान्तियां फैली हुई हैं ।
द्वितीय:
गुटनिरपेक्ष देशों की संख्या में दिन-दूनी रात-चौगुनी वृद्धि के कारण गुटनिरपेक्षता के सही-सही अर्थ और अभिप्राय के प्रश्न पर खासे मतभेद पैदा हो गए हैं हालांकि ये मतभेद इस तरह के हैं कि उसके किस पक्ष को कितनी प्रमुखता दी जाए ।
तृतीय:
जहां गुटनिरपेक्षता का एक सर्वमान्य मंच है वहां प्रत्येक गुटनिरपेक्ष देश का अपना वैयक्तिक अथवा क्षेत्रीय मंच भी है जिसे सामान्य मंच से अलग पहचाना जा सकता है….मानो प्रत्येक गुटनिरपेक्ष देश एक साथ दो भिन्न-भिन्न स्तरों पर कार्य कर रहा हों-विश्व स्तर पर, तथा वैयक्तिक अथवा क्षेत्रीय स्तर पर ।
‘गुटनिरपेक्षता’ शब्द जिस नीति अथवा दृष्टिकोण का द्योतक बन गया है उसका बोध कराने के लिए यही एकमात्र: शब्द नहीं है और न यह सबसे सन्तोषजनक शब्द ही है । यह शब्द शायद जवाहरलाल नेहरू ने गढ़ा था और वे भी इससे बहुत प्रसन्न नहीं थे क्योंकि इस शब्द में प्रकटत: एक निषेधात्मक ध्वनि है ।
गुटनिरपेक्षता को ‘अप्रतिबद्धता’, ‘असम्पृक्तता’, ‘तटस्थता’, ‘तटस्थतावाद’, ‘सकारात्मक तटस्थता’, ‘सकारात्मक तटस्थतावाद’, ‘गतिशील तटस्थता’, ‘स्वतन्त्र और सक्रिय नीति’ और ‘शान्तिपूर्ण सक्रिय सह-अस्तित्व’ भी कहा जाता है ।
डॉ. एम. एस. राजन के अनुसार इनमें से कुछ शब्द और शब्दबन्ध तो केवल ‘अर्थजाल’ के द्योतक हैं और यह जाल गुटनिरपेक्षता के ऐसे आलोचकों ने बुना है जिन्हें या तो इससे सहानुभूति नहीं रही या जिन्हें इसके बारे में पूरी जानकारी नहीं रही-भले ही कभी-भी गुटनिरपेक्ष देशों के प्रवक्ता और उनके समर्थक भी उन शब्दों का प्रयोग कर लेते हैं ।” जॉर्ज श्वार्जनबर्गर ने गुटनिरपेक्षता को स्पष्ट करने के लिए उससे सम्बन्धित छ: अर्थों की व्याख्या की और गुटनिरपेक्षता को इन सबसे भिन्न बताया है ।
ये छ: धारणाएं हैं:
(i) अलगाववाद,
(ii) अप्रतिबद्धता,
(iii) तटस्थता,
(iv) तटस्थीकरण,
(v) एकपक्षवाद और
(vi) असंलग्नता ।
(i) अलगाववाद (Isolationism):
अलगाववाद (Isolationism) ऐसी नीतियों का समर्थन करता है जिनसे राष्ट्र विश्व राजनीति में कम-से-कम भाग ले या उससे बिल्कुल अलग रहे ।
(ii) अप्रतिबद्धता (Non-Commitment):
अप्रतिबद्धता (Non-Commitment)का अभिप्राय है किन्हीं दो अन्य शक्तियों से समान सम्बन्ध रखते हुए उनमें से किसी एक के साथ पूरी तरह से प्रतिबद्ध न होना ।
(iii) तटस्थता (Neutrality):
तटस्थता (Neutrality)एक देश की वह कानूनी एवं राजनीतिक स्थिति है जो किसी युद्ध के दौरान दोनों ही योद्धा राष्ट्रों में से किसी के भी साथ युद्ध में संलग्न होने की अनुमति नहीं देती ।
(iv) तटस्थीकरण (Neutralisation):
तटस्थीकरण (Neutralisation)अर्थात् देश हमेशा के लिए तटस्थ है और अपनी तटस्थीकृत स्थिति को कभी नहीं छोड़ सकता है । स्विट्जरलैण्ड इसी स्वरूप के राज्य का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है ।
(v) एकपक्षवाद (Unilateralism):
एकपक्षवाद (Unilateralism)इस सिद्धान्त का हामी है कि प्रत्येक देश को निःशस्त्रीकरण जैसे आदर्शो का पालन करने की नीति अपनानी चाहिए और ऐसा करने में इस बात पर बिल्कुल ध्यान नहीं देना चाहिए कि अन्य देश भी ऐसा करते हैं या नहीं ।
(vi) असंलग्नता (Non-Involvement):
असंलग्नता (Non-Involvement) विभिन्न परस्पर विरोधी विचारधाराओं के मध्य हो रहे संघर्ष से उत्पन्न खतरों को समझने पर जोर देती है और यह बताती है कि हमें इस संघर्ष से अलग रहना चाहिए ।
जॉर्ज श्वार्जनबर्गर के अभिमत में गुटनिरपेक्षता उपर्युक्त सभी धारणाओं से भिन्न है । वस्तुत यह मैत्री सन्धियों अथवा गुटों से बाहर रहने की नीति है । गुटनिरपेक्षता का सार तत्व यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में, विशेषत: दोनों सर्वोच्च शक्तियों के प्रति नीतियों और अभिवृत्तियों के सन्दर्भ में, नीति और कार्यवाही की पर्याप्त स्वतन्त्रता बनाए रखी जाए ।
गुटनिरपेक्षता का अर्थ शक्तिमूलक राजनीति से पृथकृ रहना तथा सभी राज्यों के साथ शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व और सक्रिय अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग है, चाहे वे राष्ट्र गुटबद्ध हों या गुटनिरपेक्ष हों । शीत-युद्ध से पृथक्करण ही गुटनिरपेक्षता का सार तत्व है ।
यह नीति चुप्पी लगाकर बैठ जाने की या अन्तर्राष्ट्रीय मामलों से संन्यास लेने की नहीं है, बल्कि इसके अन्तर्गत स्वतन्त्र राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किए जाते हैं और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में न्यायपूर्ण ढंग से सक्रिय भाग लिया जा सकता है ।
सन् 1961 में गुटनिरपेक्षता के तीन कर्णधारों-नेहरू, नासिर और टीटो ने इसके पांच आधार स्वीकार किए थे:
(i) सदस्य देश स्वतन्त्र नीति पर चलता हो;
(ii) सदस्य देश उपनिवेशवाद का विरोध करता हो;
(iii) सदस्य देश किसी सैनिक गुट का सदस्य न हो;
(iv) सदस्य देश ने किसी बड़ी ताकत के साथ द्विपक्षीय समझौता न किया हो; या
(v) सदस्य देश ने किसी बड़ी ताकत को अपने क्षेत्र में सैनिक अड्डा बनाने की अनुमति न दी हो ।
अर्थात् वे ही देश गुटनिरपेक्ष माने जा सकते हैं जो स्वतन्त्र विदेश नीति का पालन करते हों राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन का समर्थन करते हों, शक्ति या सैनिक गुटों के सदस्य न हों । दूसरे शब्दों में- एक-दूसरे के विरोधी शक्ति शिविरों से दूर (अलग) रहने वाले युद्ध की विभीषिका को टालने वाले तनाव को कम करने वाले और शान्ति समर्थक देश ही गुटनिरपेक्षता का दर्जा प्राप्त कर सकते हैं ।
संक्षेप में, गुटनिरपेक्षता से अभिप्राय है अपनी स्वतन्त्र रीति-नीति । गुटों से अलग रहने से हर प्रश्न के औचित्य अनौचित्य को देखा जा सकता है । किसी एक गुट के साथ सम्बद्ध होकर उचित-अनुचित का विचार किए बिना ही अन्धानुकरण या समर्थन करना गुटनिरपेक्षता नहीं है ।
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन: सदस्यता की शर्तें:
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का सदस्य बनने के लिए पांच मानदण्ड निर्धारित किए गए थे । ये मानदण्ड जून, 1961 में काहिरा में 21 राष्ट्रों की तैयारी बैठक में तय किए गए थे । बैठक में परस्पर विरोधी मत व्यक्त किए जाने के कारण मानदण्डों के सम्बन्ध में काफी समझौता करना पड़ा और अन्तत: इन मानदण्डों के आधार पर बेलग्रेड सम्मेलन के लिए निमन्त्रण भेजने के बारे में निर्णय करने का काम उन देशों के राजनयिक प्रतिनिधियों की एक समिति को सौंप दिया गया जिन्होंने काहिरा में तैयारी बैठक में भाग लिया था ।
इन मानदण्डों के अनुसार किसी भी गुटनिरपेक्ष देश के लिए ‘स्वाधीन नीति’ का अनुसरण करना जरूरी नहीं है । यदि वह इस प्रकार की नीति के पक्ष में अपना रवैया जाहिर कर सके तो उतना ही काफी है । इसे निरन्तर राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए आन्दोलनों का समर्थन प्रदान करना चाहिए ।
किस हद तक और किस रूप में यह समर्थन हो इसे अपरिभाषित छोड़ दिया गया है । तीसरा मानदण्ड सैनिक गठबन्धनों की सदस्यता से सम्बन्धित है अर्थात् गुटनिरपेक्ष समझे जाने के लिए देश को बहुपक्षीय सैनिक गठबन्धन का सदस्य नहीं होना चाहिए ।
चौथा और पांचवां मानदण्ड यह है कि यदि किसी देश या किसी बड़ी शक्ति के साथ द्विपक्षीय सैनिक समझौता है अथवा वह देश क्षेत्रीय सुरक्षा सन्धि का सदस्य है तो यह समझौता या सन्धि ‘जान-बूझकर बड़ी शक्तियों के सन्दर्भ में नहीं होनी चाहिए ।’
इस हिसाब से मिस्र, इराक और सीरिया ने किसी समय सैनिक सहायता के सिलसिले में या तो सोवियत संघ से या अमरीका के साथ समझौता किया था । साइप्रस, इथियोपिया, लीबिया, माल्टा, मोरक्को और सऊदी अरब ने किसी समय (अब भी) अपनी भूमि पर पश्चिमी सैनिक अड्डे बनाने की अनुमति दी थी । आज तक गुटनिरपेक्षता की कोई आधिकारिक परिभाषा नहीं की गयी है ।
फलस्वरूप, हर शिखर सम्मेलन में नए सदस्यों को शामिल करने और कुछ पुराने सदस्यों के बने रहने पर ही हल्ला मचा रहता है । सम्मेलन के प्रमुख देश विभिन्न प्रकार के दबावों में होते हैं और वे दूरगामी प्रभावों की चिन्ता किए बगैर तदर्थ निर्णय लिया करते हैं । कुल मिलाकर सामान्य मानदण्ड यही रह गया था कि सदस्य बनने के लिए इच्छुक देश सोवियत अथवा अमरीकी गुट का सदस्य नहीं होना चाहिए ।
इस सम्बन्ध में डॉ. वेदप्रताप वैदिक लिखते हैं, इस आन्दोलन के सामने सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि उसके पास अपने नाम की परिभाषा नहीं है । यह रोचक तथ्य बहुत कम लोगों को मालूम है कि इस आन्दोलन को चलते-चलते पांच दशक बीत गए लेकिन अभी तक कोई यह कहने की स्थिति में नहीं है कि गुटनिरपेक्षता की सर्वसम्मत ‘परिभाषा’ यह है ।
गुटनिरपेक्षता की परिभाषा करते समय हम लोग या तो नेहरू के बयानों और भाषणों के कुछ सटीक टुकड़ों को उद्धृत कर देते हैं या यही काम जब यूगोस्लाव विद्वानों को करना होता है, तो वे मार्शल टीटी की उक्तियों का सहारा ले लेते हैं । नेहरू, नासिर या टीटो के बयानों से गुटनिरपेक्षता के विभिन्न आयाम तो अवश्य निर्धारित होते हैं लेकिन समग्र रूप में उसका निरूपण नहीं होता । गुटनिरपेक्षता की परिभाषा को कुछ राष्ट्र गोलमाल क्यों रखना चाहते हैं ?
इसलिए कि इस आन्दोलन में बिना किसी रुकावट के हर तरह के राष्ट्रों को घुसेड़ लिया जाए । इसमें वे राष्ट्र भी आ जाएं जिन्होंने अपनी-अपनी जमीन पर महाशक्तियों को सैनिक अड्डे बनाने दिए हैं; वे राष्ट्र भी आ जाएं जो सैनिक गठबन्धनों के सदस्य रहे हैं; वे राष्ट्र भी आ जाएं जिन्होंने महाशक्तियों के साथ सैनिक समझौते कर रखे हैं; वे राष्ट्र भी आ जाएं जो शस्त्रों की अन्धाधुन्ध दौड़ में निरत हैं, जिन्होंने अपनी राजनीतिक और आर्थिक स्वाधीनता को गिरवीं रख रखा है । दूसरे शब्दों में, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को परिभाषाविहीन बनाकर चरित्रहीन करने की व्यूह-रचना बहुत हद तक सफल भी हो रही है ।
गुटनिरपेक्षता को प्रोत्साहन देने वाले कारक:
कोई देश अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में गुटनिरपेक्षता क्यों अपनाता है ।
द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् गुटनिरपेक्षता के अभ्युदय के लिए निम्नलिखित कारक उत्तरदायी हैं:
(1) शीत-युद्ध:
द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् अमरीका और सोवियत संघ जैसी महाशक्तियों में गम्भीर मतभेद प्रकट हुए । दोनों पक्षों में तीव्र तनाव, वैमनस्य और मतभेदों की इतनी विषम स्थिति उत्पन्न हो गयी कि वे परस्पर एक-दूसरे के विरुद्ध कटु वाग्बाणों और आरोपों की वर्षा करने लगे । यह कहना उचित होगा कि बारूद के गोले व गोलियों से लड़े जाने वाले सशस्त्र सैनिक संघर्ष के न होते हुए भी कागज के गोलों और अखबारों से बड़ा जाने वाला परस्पर विरोधी राजनीतिक प्रचार का तुमुल संग्राम छिड़ गया ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में इसी संग्राम को शीत-युद्ध की संज्ञा दी जाती है । शीत-युद्ध के इस वातावरण में नवस्वतन्त्र राष्ट्रों ने किसी भी पक्ष का समर्थन न करके पृथक् रहने का निर्णय किया । शीत-युद्ध से पृथक् रहने की नीति ही आगे चलकर गुटनिरपेक्षता के नाम से जानी जाने लगी ।
(2) मनोवैज्ञानिक विवशता:
नवोदित राष्ट्रों के गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने का दूसरा प्रमुख कारण एक भावात्मक और मनोवैज्ञानिक विवशता थी वह यह कि वे केवल औपचारिक अर्थ में स्वतन्त्र न हों बल्कि शक्तियों के प्रभुत्व या प्रभाव के अवशेषों से एकदम मुक्त प्रतीत भी हों ।
उन्होंने महसूस किया कि वे गुटनिरपेक्षता में अपनी आस्था की घोषणा करके और जब भी किसी विशिष्ट प्रश्न या स्थिति के सन्दर्भ में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करना पड़े या कार्यवाही करनी पड जाए वहीं वे नीति और कार्यवाही की स्वतन्त्रता को व्यावहारिक रूप से और दृढ़तापूर्वक स्थापित करके ही अपनी स्वतन्त्रता सबसे अच्छी तरह प्रमाणित कर सकते हैं ।
उन्हें लगा कि इस दृष्टिकोण और भूमिका के कारण उन्हें वैयक्तिक तथा सामूहिक स्तर पर ऐसी स्थिति और प्रतिष्ठा प्राप्त हो गयी है जो बड़ी शक्तियों के प्रभुत्व से व्याप्त राष्ट्र समाज में छोटे देशों को दूसरे विश्व-युद्ध से पहले कभी प्राप्त नहीं हुई थी ।
(3) हाइक गुटों से पृथक रहना:
सन् 1945 के पश्चात् ही संसार में दो गुटों का उदय हो चुका था और सन् 1945-50 की कालावधि में एशिया-अफ्रीका के अनेक राष्ट्र स्वतन्त्र हुए थे । ये सभी शोषित और गरीब देश थे और संभलने के लिए समय चाहते थे । किसी भी गुट की राजनीति में मिल जाने पर ये ऐसे चक्रव्यूह में फंस जाते कि इन्हें समस्याएं सुलझाने का पूर्ण अवसर न मिल पाता और ये सदैव के लिए दबकर रह जाते ।
(4) अपने पृथक और विशिष्ट वैचारिक स्वरूप अक्षुण्ण बनाए रखने की अभिलाषा:
नवोदित राष्ट्रों को ऐसा लगा कि गुटनिरपेक्षता उनके लिए, विशेषत: दोनों गुटों के वैचारिक संघर्ष के सन्दर्भ में अपने पृथक और विशिष्ट वैचारिक स्वरूप को अक्षुण्ण बनाए रखने का साधन थी । वे अपनी राजनीतिक आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संस्थाओं के पृथक् स्वरूप को बनाए रखना चाहते थे और यह नहीं चाहते थे कि राष्ट्रों के किसी बड़े समूह में-जहां किसी-न-किसी सर्वोच्च शक्ति का बोलबाला हो-उनकी अपनी कोई पहचान ही न रह जाए ।
उन्होंने अनुभव किया कि वे दूसरे राष्ट्रों की ‘छाया मात्र’ नहीं बन सकते चाहे वे राष्ट्र कितने ही उन्नत क्यों न हों । राष्ट्रपति सुकर्ण ने कहा था- ”न तो हम छाया राष्ट्र हैं न पाठय-पुस्तकीय विचारक हैं ।” भारत के प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री ने कहा था- ”हमारा स्वर किसी और स्वर की प्रतिध्वनि नहीं है । यह उन लोगों की असली आवाज है जिनका हम प्रतिनिधित्व करते हैं ओर जिनकी ओर से हम बोलते हैं ।”
नवोदित राष्ट्रों का विश्वास था कि राष्ट्रों के बड़े समूह में अपने राष्ट्रीय स्वरूप को लुप्त होने देना अब भी न तो उनके लिए वांछनीय था, न व्यावहारिक हालांकि वे यह भी मानते थे कि सभी राष्ट्र एक-दूसरे पर निर्भर हैं और विश्व की वर्तमान व्यवस्था में सुधार होना आवश्यक है ।
उन्होंने पश्चिमी देशों के शासन में एक लम्बे अरसे तक बहुत कुछ सहा था इसलिए वे अपने समाज को पश्चिम के नमूने पर पुनर्गठित करने और सुधारने के विरुद्ध थे । वैसे बहुत से राजनीतिक मूल्यों और विश्वासों के सन्दर्भ में वे पश्चिम के साथ भी थे ।
वे साम्यवादी व्यवस्था का अनुसरण करने की बात भी नहीं सोच सकते थे । यों मार्क्सवादी सिद्धान्तों में उन्हें काफी आकर्षण दिखाई देता था पर फिर भी वे यह अनुभव करते थे कि साम्यवादी विचारधारा और व्यवहार पद्धति उनके अपने दृष्टिकोण और जीवन-पद्धति से मेल नहीं खाती ।
(5) स्वतन्त्र विदेश नीति के संचालन की अभिलाषा:
नवोदित एशिया और अफ्रीका के राष्ट्र गुटनिरपेक्षता की नीति के माध्यम से अपने को स्वतन्त्र शक्ति के रूप में स्थापित करना चाहते थे । गुटनिरपेक्षता की विदेश नीति के फलस्वरूप आज ये किसी बड़ी शक्ति के उपग्रह मात्र की स्थिति में नहीं हैं और न ही दूसरों के संकेत पर नाचने के लिए बाध्य हैं ।
(6) आर्थिक कारक:
गुटनिरपेक्षता का एक अन्य आधार आर्थिक है । प्राय: सभी गुटनिरपेक्ष देश आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए थे (और अब भी हैं) और रहन-सहन का स्तर नीचा है । अत: उनकी विदेश नीति का एक प्रमुख ध्येय सम्भवत: त्वरित आर्थिक विकास को बढ़ावा देना था परन्तु इसके लिए न तो इनके पास पूंजी थी न तकनीकी कौशल था ।
अत: उन्होंने अपनी वैदेशिक अर्थनीतियों को ऐसा मोड़ दिया कि उन्हें जो चीजें ‘कोई शर्त रखे बगैर’ जहां से भी मिल सकती हों मिल जाएं क्योंकि उन्हें इनकी सख्त जरूरत थी । यहां भी उन्हें किसी भी गुट में सम्मिलित न होने का मार्ग सबसे अच्छा लगा । उन्हें साफ लगा कि अगर वे किसी एक गुट में शामिल हो गए तो उन्हें एक से अधिक स्रोतों से सहायता मांगने की अपेक्षित स्वतन्त्रता से वंचित होना पड़ेगा ।
Essay # 2. गुटनिरपेक्ष आन्दोलन: समन्वय ब्यूरो एवं शिखर सम्मेलन (NAM: Co-Ordination Bureau and Summit Conferences):
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के लिए किन्हीं स्थायी संस्थाओं की स्थापना नहीं की गयी है, फिर भी गुटनिरपेक्ष देशों में समन्वय स्थापित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अन्य अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर संयुक्त कार्यवाही करने के लिए तथा आन्दोलन की प्रगति और अन्तर्राष्ट्रीय विषयों एवं समस्याओं पर विचार-विमर्श करने के लिए दो प्रकार की संस्थाओं को जन्म दिया है:
(1) समन्वय ब्यूरो;
(2) सम्मेलन ।
सम्मेलन भी दो प्रकार के हैं:
(i) गुटनिरपेक्ष देशों के विदेशमन्त्रियों का सम्मेलन और
(ii) शिखर सम्मेलन ।
इस प्रकार गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की तीन संस्थाओं का विकास हुआ है:
(a) समन्वय ब्यूरो,
(b) विदेशमन्त्रियों का सम्मेलन तथा
(c) शिखर सम्मेलन ।
(1) समन्वय ब्यूरो (Co-Ordination Bureau):
गुटनिरपेक्ष देशों में निरन्तर विचार-विमर्श करने और कार्य में समन्वय स्थापित करने के लिए यह एक उपयोगी एवं सक्रिय केन्द्र है । इसे गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की कार्यकारी भुजा कहा जाता है । इसका स्वरूप एक तैयारी समिति की भांति है जो गुटनिरपेक्ष देशों के शिखर सम्मेलन के लिए मसविदे तैयार करता है, संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्य अन्तर्राष्ट्रीय मैचों पर संयुक्त कार्यवाही एवं अगुआई करता है ।
समन्वय ब्यूरो में पहले 17 सदस्यों को सर्वसम्मति से नामजद किया जाता था । मार्च 1983 के नई दिल्ली शिखर सम्मेलन ने इसके सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 66 कर दी है । इसमें 31 अफ्रीका के, 23 एशिया के, 10 लैटिन अमेरिका के और 2 यूरोप के सदस्य हैं । अब इसके सदस्यों का निर्वाचन होता है ।
(2) मन्त्री स्तर (विदेश मन्त्रियों) का सम्मेलन [Ministerial Level (Foreign Ministers) Conference]:
इस सम्मेलन में गुटनिरपेक्ष देशों के विदेशमन्त्री भाग लेते हैं । सम्मेलन जहां गुटनिरपेक्ष देशों के शिखर सम्मेलन के लिए कार्यसूची तैयार करता है वहां गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की सदस्यता प्राप्त करने के इच्छुक देशों के आवेदन-पत्रों पर विचार-विमर्श एवं निर्णय भी लेता है । सम्मेलन अन्तर्राष्ट्रीय विषयों पर भी विचार-विमर्श करता है तथा गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप देने का भी प्रयास करता है ।
इस प्रकार के सम्मेलन समय-समय पर होते रहते हैं । जैसे, कार्टागेना में 18-20 मई 1998 तक आयोजित मन्त्री स्तरीय गुट निरपेक्ष आन्दोलन के समन्वय ब्यूरो की बैठक डरबन में होने वाले 12वें शिखर सम्मेलन की तैयारी में कई गई थी । विदेश मत्रियों के सम्मेलन की असाधारण बैठक भी बुलाई जा सकती है । उदाहरण के लिए, नामीबिया के प्रश्न पर इस प्रकार की एक असाधारण बैठक नई दिल्ली में 19 से 21 अप्रैल 1985 तक बुलायी गयी थी । इस बैठक ने एक स्वर से दक्षिण अफ्रीका की निन्दा की ।
(3) शिखर सम्मेलन (Summit Conference):
शिखर सम्मेलन गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों का सबसे बड़ा ‘अधिवेशन’ है । यह सम्मेलन प्रति तीन वर्ष बाद होता है जिसमें गुटनिरपेक्ष देशों के मुखिया या शासनाध्यक्ष भाग लेते हैं । शिखर सम्मेलन में प्राय: चार प्रकार के सदस्य भाग लेते हैं-पूर्ण सदस्य, पर्यवेक्षक सदस्य, पर्यवेक्षक गैर-राज्य सदस्य और अतिथि । शिखर सम्मेलन में निर्णय सर्वसम्मति (Consensus) से होते हैं । गुटनिरपेक्षता की बढ़ती हुई लोकप्रियता का प्रमाण हमें गुटनिरपेक्ष देशों के विभिन्न शिखर सम्मेलनों से मिलता है । गुटनिरपेक्ष देश प्रति तीन वर्ष बाट शिखर सम्मेलनों का आयोजन करते हैं ।
इससे चार मुख्य लाभ होते हैं:
(i) गुटनिरपेक्षता की लोकप्रियता में वृद्धि होती है;
(ii) अन्तर्राष्ट्रीय मामलों पर गुटनिरपेक्ष देशों के दृष्टिकोण स्पष्ट रूप में अभिव्यक्त होते हैं;
(iii) गुटनिरपेक्ष देशों में पारस्परिक राजनीतिक आर्थिक एवं सांस्कृतिक सहयोग की वृद्धि होती है;
(iv) विश्व के राजनीतिक रंगमंच पर गुटनिरपेक्ष देशों की आवाज को बल मिलता है ।
गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने अपने शिखर सम्मेलनों द्वारा विश्व राजनीति की विभिन्न समस्याओं पर गम्भीर रूप से विचार-विमर्श किया तथा उनके समाधान के लिए कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए जिन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को गहरे ढंग से प्रभावित किया । अब तक गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के 16 शिखर सम्मेलन हुए हैं । पहला शिखर सम्मेलन सन् 1961 में यूगोस्लाविया की राजधानी बेलग्रेड में तथा 16वां शिखर सम्मेलन 30-31 अगस्त, 2012 को तेहरान (ईरान) में सम्पन्न हुआ ।
13वां गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन:
116 सदस्यीय गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का 13वां शिखर सम्मेलन 24-25 फरवरी, 2003 को कुआलालम्पुर (मलेशिया) में सम्पन्न हुआ । 24 फरवरी को तिमोर लेस्टे (पूर्वी तिमोर) तथा सेंट विसेंट व ग्रेनाडा द्वीप समूह को गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में विधिवत् शामिल कर लिया गया जिससे गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के सदस्य देशों की संख्या 114 से बढ्कर 116 हो गयी ।
इस अवसर पर स्वीकृत कुआलालम्पुर घोषणा-पत्र में बहुध्रुवीय विश्व को बढ़ावा देने तथा बातचीत व राजनयिक तरीकों से दुनिया में शान्ति बनाए रखने पर जोर दिया गया । घोषणा पत्र में आन्दोलन में फिर से प्राण फूंकने का कार्यक्रम भी घोषित किया गया ।
आन्दोलन ने इराक संकट के संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से तत्काल हल किए जाने पर जोर दिया तथा इराक पर खाड़ी युद्ध के समय से लागू प्रतिबन्ध हटाने की मांग की । घोषणा पत्र में सदस्य देशों से आतंकवादी गुटों व संगठनों के आर्थिक व कार्यकारी तंत्र को ध्वस्त करने की अपील की गई । पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की ओर अप्रत्यक्ष रूप से संकेत करते हुए सदस्य देशों से किसी भी दूसरे देश में चल रही आतंकवादी गतिविधियों को प्रोत्साहन व सहयोग नहीं देने के लिए कहा गया ।
घोषणा-पत्र में कहा गया कि संयुक्त राष्ट्र के साथ-साथ आन्दोलन के सदस्य राष्ट्रों के हितों की सुरक्षा के लिए बहुपक्षीय प्रक्रिया अनिवार्य तौर पर अपनानी चाहिए । ‘नाम’ नेताओं ने संयुक्त राष्ट्र को मजबूत करने तथा बहुध्रुवीय विश्व को बढ़ावा देने का संकल्प व्यक्त किया ताकि अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद की चुनौती का सामना किया जा सके ।
आन्दोलन में फिर प्राण फूंकने के लिए 9-सूत्री रणनीति की घोषणा की गई जिसमें सदस्य देशों में एकता को बढ़ावा देने बहुपक्षीय प्रक्रिया को बढ़ावा देने अन्तर्राष्ट्रीय निर्णय प्रक्रिया में विकासशील देशों की भागीदारी बढ़ाने के लिए लोकतन्त्रीकरण करने तथा सामाजिक, आर्थिक एवं विकास के मुद्दों पर साझा रणनीति बनाने, बेहतर समन्वय और सहयोग स्थापित करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया गया ।
14वां गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन : हवाना (15- 16 सितम्बर, 2006):
क्यूबा की राजधानी हवाना में 15-16 सितम्बर, 2006 को 14वां गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन शुरू हुआ । अपनी बीमारी की वजह से 80 वर्षीय राष्ट्रपति फिडेल कैस्ट्रो यद्यपि सम्मेलन में उपस्थित नहीं हो सके तथापि उन्हें अगले तीन वर्षों के लिए आन्दोलन का अध्यक्ष चुन लिया गया ।
सम्मेलन में भाग लेने वाले शासनाध्यक्षों में डॉ. मनमोहन सिंह (भारत), परवेज मुशर्रफ (पाकिस्तान), राष्ट्रपति थबोम्बेकी (दक्षिण अफ्रीका) तथा राष्ट्रपति मेहमूद अहेमदीनेजद (ईरान) के नाम उल्लेखनीय हैं । शिखर सम्मेलन में दो नये सदस्य हैती तथा सेंट किट्स नेविस को नाम में शामिल कर लेने से गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की सदस्य संख्या 118 हो गई ।
सम्मेलन में क्यूबा ने अमरीकी साम्राज्यवाद तथा पश्चिमी देशों की नीतियों पर कटु प्रहार किए, संयुक्त राष्ट्र में सुधार तथा नई विश्व व्यवस्था के निर्माण का आह्वान किया । सम्मेलन में सुरक्षा परिषद् में विकासशील देशों को प्रतिनिधित्व देने तथा उत्तर से दक्षिण को संसाधन हस्तान्तरण की बात कही गई ।
भारत ने गुटनिरपेक्ष देशों को चेताया कि अगर वे आतंकवाद के खिलाफ स्पष्ट रुख और एकजुटता नहीं दिखा सके तो मौजूदा समय में निर्गुट आन्दोलन अपनी प्रासंगिकता खो देगा । भारत ने लेबनान युद्ध को निरर्थक बताते हुए पश्चिम एशिया संकट तथा ऊर्जा सुरक्षा पर कार्यदल गठित करने का प्रस्ताव रखा ।
डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा कि अगर गुटनिरपेक्ष आंदोलन को प्रासंगिक बनाए रखना है तो आतंकवाद पर गोलमोल रवैया छोड़ना होगा । हमें संदेश देना होगा कि आतंकवाद रोकने के संकल्प पर हम एकजुट हैं । चरमपंथी व असहिष्णु ताकतों को दुनिया का ध्यान गरीबी, बीमारी जैसी समस्याओं तथा विकास के मुद्दों से हटाने की अनुमति नहीं दी जा सकती । हमारी समस्याएं वैश्विक हैं इसलिए इनका हल भी वैश्विक होना चाहिए ।
शिखर सम्मेलन में भारत के दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए डॉ. मनमोहन सिंह ने निम्नांकित मुद्दों पर विचार रखे:
सुरक्षा परिषद में दावेदारी:
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में विकासशील देशों को स्थायी प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए । समान विचारधारा वाले सभी गुटनिरपेक्ष देश एक साथ इसका प्रयत्न कर सकते हैं ।
गांधी हुए प्रासंगिक:
हमने ‘सभ्यताओं के शांतिपूर्ण सह अस्तित्व’ को स्वीकारते हुए उग्र विचारधाराओं को नकारा है । आज फिर दुनिया को संस्कृति और धार्मिक आधार पर बांटा जा रहा है । ऐसे में महात्मा गांधी के सिद्धान्त और शांति का संदेश विश्व में फैलाया जाना चाहिए ।
परमाणु निरस्त्रीकरण:
परमाणु निरस्त्रीकरण के सम्बन्ध में भारत ने एक कार्य-योजना तैयार की है, जिसे इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र महासभा में वितरित किया जाएगा ।
अफ्रीका से जुड़ा विश्व का भविष्य:
पूरी दुनिया का भविष्य अफ्रीका महाद्वीप के भविष्य से जुड़ा है । निर्गुट संगठन अफ्रीका में मानव संसाधन और कृषि विकास पर केन्द्रित बड़े कदम उठाए ।
मनमोहन की पेशकश:
ऊर्जा सुरक्षा पर ‘नाम’ देशों के कार्यदल के गठन का प्रस्ताव । भविष्य की ऊर्जा चुनौतियों को ध्यान में रखकर कार्य-योजना बनाई जाए । भारत ऐसे कार्यदल के समन्वय को तैयार है । वैश्वीकरण पर साझा नजरिया विकसित करें जिससे इसका सभी को समान लाभ मिल सके ।
ईरान के परमाणु कार्यक्रमों को पूर्ण समर्थन प्रदान करने तथा सीमा पारीय आतंकवाद की कड़ी निन्दा और उसे जड़ से मिटाने के संकल्प के साथ ही यह सम्मेलन 17 सितम्बर को समाप्त हो गया । समापन पर जारी संयुक्त घोषणा-पत्र में कहा गया है कि शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए परमाणु ऊर्जा विकसित करने का सभी देशों का अधिकार है ।
लेबनान पर किये गये इजरायली हमले की निंदा की गई तथा आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने वाले दोषियों को दण्डित या प्रत्यर्पित कर इस मुहिम में सहयोग देने का आह्वान सभी सदस्य देशों से किया गया ।
शर्म-अल-शेख में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का 15वां शिखर सम्मेलन (15-16 जुलाई, 2009):
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन (NAM-Non-Aligned Movement) का 15वां शिखर सम्मेलन मिस्र (Egypt) के शर्म-अल-शेख (Sharm-el-Sheikh) में 15-16 जुलाई, 2009 को सम्पन्न हुआ । ‘नाम’ शिखर सम्मेलन के मेजबान मिस्र के राष्ट्रपति होली मुबारक ने ‘नाम’ के अध्यक्ष का कार्यभार क्यूबा के राष्ट्रपति राउल कास्त्रो से उद्घाटन समारोह में ग्रहण किया । वैश्विक वित्तीय संकट शान्ति एवं विकास के अतिरिक्त आतंकवाद के मुद्दे उद्घाटन समारोह में चर्चा के प्रमुख मुद्दे थे ।
उद्घाटन सत्र को सम्बोधित करते हुए भारतीय प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने भी यह मुद्दे उठाए, मौजूदा वैश्विक मन्दी का उल्लेख करते हुए प्रधानमन्त्री ने कहा कि विकसित देशों के बाजारों में संरक्षणवाद ने वैश्विक मन्दी को मजबूती दी है ।
शिखर सम्मेलन के समापन पर जारी घोषणा-पत्र में भी आतंकवाद का मुद्दा प्रमुखता से छाया रहा । इसमें अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर व्यापक सम्मेलन की रूपरेखा को अन्तिम रूप देने की बात की गई, जिसका प्रस्ताव भारत ने संयुक्त राष्ट्र के समक्ष रखा था ।
118 सदस्य राष्ट्रों वाले समूह ने आतंकवाद के सभी प्रकारों से लड़ने के लिए संयुक्त राष्ट्र चार्टर अन्तर्राष्ट्रीय कानून और सम्बन्धित अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों के अनुसार नाम की एकाग्रता मजबूत करने पर सहमति जताई चाहे इसे किसी ने भी और कहीं भी अंजाम दिया हो ।
घोषणा-पत्र में इस बात पर जोर दिया गया कि आतंकवाद को किसी धर्म राष्ट्रीयता नागरिकता या जातीय समूह से नहीं जोड़ा जाना चाहिए । संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधारों की आवश्यकता पर भी घोषणा-पत्र में बल दिया गया है ।
घोषणा-पत्र के अनुसार, ‘सुरक्षा परिषद् के विस्तार और इसकी कार्यप्रणाली में मजबूती के जरिए इसका त्वरित सुधार गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के देशों के लिए प्राथमिकता होनी चाहिए’, इसके अलावा घोषणा-पत्र में मांग की गई कि आन्दोलन के सभी सदस्य देशों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए और इसकी एजेंसियों को दोहा दौर की वर्तमान वार्ता में निर्णायक तौर पर जरूरी लघु मध्य और दीर्घकालिक कार्यवाही तय करनी चाहिए ।
जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर घोषणा-पत्र में संकल्प व्यक्त किया गया कि दिसम्बर में होने वाले कोपेनहेगन सम्मेलन की तैयारी के लिए राजनीतिक प्रयास को गति दी जाए । विश्व के अनेक हिस्सों में एच 1 एन 1 वायरस के प्रसार सहित अन्य महामारियों के फैलने पर घोषणा-पत्र में विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य एजेंसियों की तरफ से सदस्य देशों के बीच सहयोग बढ़ाने की मांग की गई है ।
तेहरान (ईरान) में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का 16वां शिखर सम्मेलन (30-31 अगस्त, 2012):
तेहरान में हुए 16वें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन में 120 देशों और 17 पर्यवेक्षक राष्ट्रों ने भाग लिया । अमेरिका और इजरायल के विरोध के बावजूद संयुक्त राष्ट्र संघ महासचिव बान की मून ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई । उनके अतिरिक्त तीन देशों के बादशाह, 24 राष्ट्रपति, 8 प्रधानमन्त्री, 50 विदेशमन्त्री और 7 हजार प्रतिनिधियों ने भाग लिया ।
इस समय विश्व के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में परमाणु-युद्ध की आशंका, पर्यावरण का क्षरण राष्ट्रों की आर्थिक समानता संयुक्त राष्ट्र संघ की पुनर्रचना आदि हैं, लेकिन इन मुद्दों पर क्या कोई ठोस निर्णय हुए ? ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह अली खामेनई ने मांग की कि 2025 तक परमाणु शस्त्रों पर पूर्ण प्रतिबन्ध का टाइम-टेबल पेश करें, लेकिन सभी राष्ट्रों को सांप सूंघ गया, क्योंकि इस मुद्दे पर कुछ भी घोषणा करने का अर्थ है शेर के गले में घण्टी बांधना ।
क्या इन 120 तथाकथित गुट-निरपेक्ष देशों में इतना दम है कि वे अमेरिका और रूस से किसी ठोस पहल की मांग कर सकें ? ईरान ने इस सम्मेलन का आयोजन करते समय बड़े-बड़े ख्याली पुलाव पकाए थे । वह सोच रहा था कि उसकी मेहमानवाजी का लिहाज करते हुए कम-से-कम सीरिया फिलस्तीन और ईरान पर लगे पश्चिमी प्रतिबन्धों के बारे में गुटनिरपेक्ष सम्मेलन कुछ कड़ा रुख अपनाएगा लेकिन सम्मेलन द्वारा कोई मनोवांछित प्रस्ताव पारित करवाने में ईरान असफल तो हुआ ही तेहरान पहुंचे प्रतिनिधियों ने भी उसका समर्थन नहीं किया ।
हर राष्ट्र ने छोटे-मोटे सभी ज्वलन्त मुद्दों पर अपनी राष्ट्रीय विदेश नीति का स्पष्ट अनुगमन किया और ईरान के उकसावे के बावजूद वे अपनी परम्परागत पटरी से टस-से-मस नहीं हुए । अयातुल्लाह खामेनई ने संयुक्त राष्ट्र संघ के वर्तमान स्वरूप की कड़ी भर्त्सना की लेकिन बान की मून ने अपने भाषण में ईरान से अनुरोध किया कि वह सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों का सादर पालन करे ।
इसी प्रकार सीरिया के सवाल पर जब ईरान ने वहां के शासक बशर हाफिज अल-असद का समर्थन किया तो किसी भी राष्ट्र ने उसका अनुमोदन नहीं किया । भारत समेत अनेक राष्ट्रों ने सीरियाई संघर्ष के शान्तिपूर्ण और सर्वसमावेशी समाधान की गुहार लगाई ।
ईरान जिस मामले पर सबसे ज्यादा बिलबिलाया हुआ था, वह था पश्चिम द्वारा उस पर लगाया गया परमाणु बम बनाने का आरोप । इस आरोप को सिरे से खारिज करते हुए ईरानी नेताओं ने यहां तक कह डाला कि परमाणु बम बनाना पाप है, इस्लाम-विरोधी है और वह बम कभी नहीं बनाएगा, तो भी किसी राष्ट्र ने पश्चिमी प्रतिबन्धों का स्पष्ट विरोध नहीं किया ।
सम्मेलन की संयुक्त घोषणा में इस विरोध का कोई जिक्र नहीं है । भारत ने भी बीच का रास्ता पकड़ा । प्रधानमन्त्री ने कह दिया कि वे ईरान के शान्तिपूर्ण परमाणु कार्यक्रम को तो उचित समझते हैं लेकिन उसे परमाणु-अप्रसार सन्धि के हस्ताक्षरकर्ता के तौर पर उस सन्धि का निष्ठापूर्वक निर्वाह करना चाहिए यानी परमाणु बम नहीं बनाना चाहिए । यही आज के गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की असलियत है ।
इसके सदस्यों ने ऐसी पहल क्यों नहीं की कि ईरान के लगभग सभी परमाणु संयन्त्र खासकर नतंज के संयन्त्र को सारे प्रतिनिधियों के लिए खोल दिया जाता और इसे देखकर वे पश्चिमी राष्ट्रों से अपने प्रतिबन्धों पर पुनर्विचार के लिए कहते, लेकिन तेहरान पहुंचने वाले देश अपना स्वार्थ साधते कि इस पचड़े में पड़ते ? दूसरे शब्दों में ‘नाम’ का सम्मेलन सिर्फ ‘नाम’ का रहा लेकिन यह बिल्कुल निरर्थक भी नहीं है ।
निरर्थक होता तो ईरान इतनी कड़की के बावजूद सात हजार प्रतिनिधियों का इतना मोटा खर्च क्यों उठता ? ईरान का यही भला हुआ कि उसने अपनी खरी-खोटी सबको उनके मुंह पर सुना दी । अमेरिका के दोस्त भी तेहरान पहुंचने से झिझके नहीं । भारत जैसे देशों ने भी जमकर लाभ उठाया ।
तेहरान के साथ चाहबहार की सुविधा चालू करने का अफगान-ईरान-भारत समझौता हुआ, जिसके कारण अब पाकिस्तान पर अफगानिस्तान की निर्भरता काफी कम हो जाएगी । भारत-ईरान द्विपक्षीय सम्बन्ध तो घनिष्ठ हुए ही मिस्र, बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे पड़ोसी देशों के शीर्ष नेताओं से भारत को एक साथ विचार-विमर्श का मौका भी मिला ।
Essay # 3. गुटनिरपेक्षता की उपलब्धियां (Achievements of Non-Alignment):
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन अब तक अन्तर्राष्ट्रीय आन्दोलन (विश्वव्यापी) बन चुका है और इसका कार्यक्षेत्र भी अत्यन्त व्यापक है । बेलग्रेड के प्रथम शिखर सम्मेलन में 25 देशों ने भाग लिया था और 15-16 सितम्बर, 2006 में हवाना में आयोजित 14वें शिखर सम्मेलन के बाद आन्दोलन के सदस्य देशों की संख्या 118 हो गयी और अगस्त, 2012 में तेहरान में आयोजित 16वें शिखर सम्मेलन में 120 सदस्य देशों ने भाग लिया ।
सदस्यों की संख्या में बढ़ोतरी के साथ-साथ इस आन्दोलन के कार्यक्षेत्र या कार्यक्रमों का भी काफी विस्तार हुआ है । उदाहरण के लिए- हरारे (1986) शिखर सम्मेलन में नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना पर जोर दिया गया था और आतंकवाद के खिलाफ विश्वव्यापी संघर्ष छेड़ने पर भी बल दिया गया था ।
1989 में बेलग्रेड में दूसरी बार आयोजित शिखर सम्मेलन में पर्यावरण संरक्षण के बारे में विश्व भर में बढ़ती चिन्ता विशेष विचारणीय विषय रहा और ओजोन पर्त, परमाणु छीजन, बड़े पैमाने पर वनों का काटा जाना और इसके फलस्वरूप मिट्टी का कटाव, आदि पर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित किया गया था ।
संक्षेप में, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रमुख उपलब्धियां निम्नलिखित हैं:
1. गुटनिरपेक्षता को दोनों गुटों द्वारा मान्यता:
गुटनिरपेक्षता एक नयी संकल्पना है । प्रारम्भ में गुटनिरपेक्ष देशों को एक कठिनाई से जूझना पड़ा कि अन्य राष्ट्रों को कैसे समझाया जाए कि गुटनिरपेक्षता क्या है कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सन्दर्भ में इसे एक स्वतन्त्र और नयी संकल्पना के रूप में मान्यता कैसे दिलायी जाए ? शुरू में दोनों गुटों ने गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों पर अविश्वास किया-पश्चिमी गुट की अपेक्षा पूर्वी गुट ने अधिक ।
सच्ची बात यह है कि कुछ गुटनिरपेक्ष देश, जिनमें भारत भी सम्मिलित है, स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेने के बाद वर्षों तक साम्यवादी राष्ट्रों से अपनी स्वतन्त्रता की मान्यता प्राप्त नहीं कर सके । दोनों गुट यह मानते थे कि युद्धोतर विश्व में किसी राष्ट्र के सामने एक ही रास्ता रह गया है और यह कि वह उनमें से किसी एक के साथ गुटबद्ध हो जाए ।
उनका पक्का विश्वास था कि गुटनिरपेक्षता एक ढोंग है, कोई ‘तीसरा रास्ता’ तो है ही नहीं । फलत: दोनों ही गुट यह समझते थे कि जो भी देश गुटनिरपेक्ष है वह वस्तुत: गुप्त रूप से दूसरे गुट के साथ बंधा हुआ है । दोनों गुटों के इन दृष्टिकोणों मे धीरे-धीरे परिवर्तन आया ।
साम्यवादी राष्ट्रों का दृष्टिकोण 1953 में जोसेफ स्टालिन की मृत्यु के बाद से ही बदलना शुरू हो गया । फरवरी, 1956 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस ने न केवल पहली बार यह बात स्वीकार की कि गुटनिरपेक्ष देश सचमुच स्वतन्त्र हैं बल्कि यह भी अनुभव किया कि विश्व की सभी मूलभूत समस्याओं के बारे में सोवियत संघ और गुटनिरपेक्ष देशों के ‘एक-से विचार’ हैं ।
पश्चिमी गुट ने तो सातवें दशक में जाकर गुटनिरपेक्षता की नीति को मान्यता दी । गुटनिरपेक्ष देशों को गुटबद्ध देशों के मन का संशय दूर करने तथा इस नीति के प्रति सद्भावना और सम्मान का वातावरण पैदा करने के प्रयास में जो सफलता मिली वह सचमुच सराहनीय है ।
2. विश्व राजनीति में संघर्षो का टालना:
गुटनिरपेक्षता की दूसरी सम्भव उपलब्धि यह रही कि इसके प्रभाव से विश्व के कुछ विकट संघर्ष टल गए या उनकी तीव्रता कम हुई या फिर उनका समाधान हो गया और विशेषत: तीसरा विश्व-युद्ध भी नहीं छिड़ा जिसकी सम्भावना के बारे में 1950 से शुरू होने वाले दशक के मध्य में सरकारी और गैर-सरकारी स्तरों पर चिन्ता व्यक्त की जा रही थी ।
गुटनिरपेक्ष राष्ट्र यह दावा कर सकते हैं और उनका यह दावा गलत नहीं होगा कि उन्होंने न्यूक्लीय अस्त्रों के सबसे खतरनाक दशक में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बनाए रखने और बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण योग दिया । दोनों गुटों की योजनाओं के विपरीत बहुत-से देशों ने राष्ट्र समाज को पूरी तरह से दो हिस्सों में बंटने से रोक दिया जिसे दोनों गुटों के बीच सीधी टक्कर रोकने में निश्चय ही सहायता मिली ।
गुटनिरपेक्ष देशों ने सर्वोच्च शक्तियों को उस रास्ते से हटा दिया जिस पर चलते-चलते उनके बीच प्रत्यक्ष संघर्ष की स्थिति आ सकती थी और इसकी बजाय उन्हें अपने से कम विकसित देशों को विकसित करने की शान्तिपूर्ण प्रतिद्वन्द्विता के रास्ते पर चलने की प्रेरणा दी और इस तरह उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों को स्थिर रूप देने में योग दिया ।
यदि अनेक ऐसे राष्ट्र विद्यमान न होते जो दोनों गुटों में से किसी एक के साथ गुटबद्ध न थे और उन्होंने ‘बर्लिन एयरलिफ्ट’, कोरियाई युद्ध, इण्डोचीनी संघर्ष, चीनी तटवर्ती द्वीपसमूह से सम्बन्धित विवाद (1955) तथा स्वेज युद्ध (1956) जैसे संकटों के समय न्यायोचित और त्वरित समाधान का आग्रह और अनुरोध न करते तो सम्भवत: और भी व्यापक और अनवरत संघर्ष होते जो पूरी दुनिया को अपनी लपेट में ले सकते थे ।
गतिरोध घोर अन्धविश्वास और दोनों गुटों का सम्पर्क टूट जाने की स्थितियों में गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने न केवल संयम से काम लेने की सलाह दी बल्कि युद्ध विराम के अवसरों पर अपने सत्प्रयत्न, मध्यस्थता और शान्ति सेनाएं भी प्रस्तुत कर दीं जैसे कि कोरिया इण्डोचीन और स्वेज के सन्दर्भ में । कांगो के गृहयुद्ध के समय गुटनिरपेक्ष देशों ने दोनों गुटों के सदस्य राष्ट्रों के सम्भावित सशस्त्र हस्तक्षेप को निष्फल कर देने के उद्देश्य से लड़ाकू सेनाएं भेजने तक की पेशकश कर दी ।
3. शीत-युद्ध को शस्त्र-युद्ध में परिणत होने से रोकना:
बहुत-से गुटनिरपेक्ष देश दोनों गुटों और सर्वोच्च शक्तियों के बीच सद्भावना हेतु और सम्पर्क के माध्यम का काम करने को तैयार दो और दूसरे शीत-युद्ध के दोनों पक्षों के बीच खामखयालियां और गलतफहमियां दूर करने में सहायता मिली । कभी-कभी उन्हें यह भी अनुभव हुआ कि विश्व न्यूक्लीय विध्वंस के कगार पर है ।
गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने कम-से-कम शीत-युद्ध को उस स्थिति में पहुंचने से रोक दिया जिसमें सर्वोच्च शक्तियों के जानबूझकर उस राह पर चलने से या खामखयाली की वजह से वह शस्त्र-युद्ध में परिणत हो सकता था ।
4. शीत-युद्ध को दितान्त (détente) की स्थिति में लाना:
शीत-युद्ध को दितान्त अर्थात् तनाव-शैथिल्य की स्थिति में लाने का श्रेय गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को ही है ।
5. नि:शस्त्रीकरण और अस्त्र नियन्त्रण की दिशा में प्रगति:
नि:शस्त्रीकरण और अस्त्र नियन्त्रण के लिए बातचीत करने में गुटनिरपेक्ष देशों ने जो भूमिका निभायी उसमें उन्हें एकदम सफलता तो नहीं मिली फिर भी उसने लोगों को यह नहीं भूलने दिया कि विश्व-शान्ति को बढ़ावा देने की सारी चर्चा के सामने अस्त्र-शस्त्र बढ़ाने की बे-लगाम दौड़ कितनी खतरनाक है ।
गुटनिरपेक्ष भारत को यह देखकर सन्तोष हुआ कि उसने अप्रैल, 1954 में न्यूक्लीय शस्त्रों के परीक्षण पर प्रतिबन्ध लगाने के जो प्रस्ताव रखे थे वे 1963 में आंशिक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि के रूप में फलीभूत हुए । श्रीमती इन्दिरा गांधी के शब्दों में- “आन्दोलन से शान्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ है मानव प्रतिष्ठा और समानता का निर्माण हुआ है ।”
6. विश्व समाज के लिए उन्मुक्त वातावरण का निर्माण:
नवोदित कमजोर राष्ट्रों को महाशक्तियों के चंगुल से निकालकर उन्हें स्वतन्त्रता के वातावरण में अपना अस्तित्व बनाए रखने का अवसर गुटनिरपेक्षता ने प्रदान किया । गुटबन्दी की विश्व राजनीति के दमघोंटू राष्ट्र समाज में गुटनिरपेक्षता ताजी हवा का झोंका लेकर आयी ।
यह ताजी हवा थी खुले समाज के गुणों की, मुक्त और खुली चर्चा के वरदान की, तीव्र मतभेद और रोष के समय भी सम्पर्क के रास्ते खुले रखने के महत्व की । शीत-युद्ध के कारण जो अनुदारताएं और विकृतियां पैदा हो गयी थीं, गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने उन्हें दूर करने के अथक् प्रयास किए और इससे वर्तमान विश्व समाज कहीं अधिक खुला समाज बन गया ।
7. अपनी राष्ट्रीय प्रकृति के अनुरूप विकास के प्रतिमान:
गुटनिरपेक्ष देशों की बड़ी-बड़ी उपलब्धियों में से एक यह है कि उन्होंने अमरीकी और सोवियत आदर्श अपने ऊपर थोपे जाने का विरोध किया और अपनी राष्ट्रीय प्रकृति के अनुसार विकास के अपने राष्ट्रीय सांचों और पद्धतियों का आविष्कार किया । इस तरह भारत ने अपने लिए ‘लोकतान्त्रिक समाजवादी ढांचे’ का आविष्कार किया और अरब राष्ट्रों ने ‘अरब समाजवाद’ का ।
8. संयुक्त राष्ट्र संघ के स्वरूप को रूपान्तरित करना:
गुटनिरपेक्षता की नीति और गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने संयुक्त राष्ट्र संगठन को कुछ दृष्टियों से हमेशा-हमेशा के लिए रूपान्तरित करने में सहायता दी है । एक तो अपनी संख्या के कारण दूसरे शीत-युद्ध में अपनी अधिक तटस्थ दृष्टि और भूमिका के कारण गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने संयुक्त राष्ट्र संगठन को छोटे राज्यों के बीच शान्ति कायम रखने वाले संगठन से ऐसे संगठन में रूपान्तरित करने में सहायता दी जिसमें छोटे राष्ट्र बड़े राष्ट्रों पर कुछ नियन्त्रण रख सकें ।
उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा की भूमिका का महत्व बढ़ा दिया जिसमें सभी सदस्यों का बराबर प्रतिनिधित्व होता है और सुरक्षा परिषद् की भूमिका का महत्व कम कर दिया (जिसकी सदस्यता सीमित और असमानता पर आधारित है) हालांकि उसकी मूल संकल्पना विश्व संगठन के सबसे महत्वपूर्ण अंग के रूप में की गयी थी ।
9. विकासशील राष्ट्रों के मध्य आर्थिक सहयोग की बुनियाद:
विकासशील राष्ट्रों के मध्य आर्थिक सहयोग की बुनियाद रखने में गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों को सफलता मिली है । कोलम्बो शिखर सम्मेलन में तो एक आर्थिक घोषणा-पत्र स्वीकार किया गया जिसका मुख्य आधार यह था कि गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के बीच अधिकाधिक आर्थिक सहयोग हो और इस आर्थिक सहयोग के लिए प्रत्येक सम्भव प्रयत्न किया जाए । गुट निरपेक्षता आर्थिक सहयोग का एक ‘संयुक्त मोर्चा’ है । यह तीसरी दुनिया के विकासशील देशों में सहयोग का प्रतीक है । ‘साउथ-साउथ संवाद’ का आह्वान निर्गुट राष्ट्रों के मंच से ही हुआ है ।
10. नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग:
आजकल गुटनिरपेक्ष राष्ट्र नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग कर रहे हैं । गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के काहिरा में जुलाई 1962 में आयोजित ‘आर्थिक विकास की समस्याओं पर सम्मेलन’ में पहली बार आर्थिक विकास का उल्लेख हुआ था । काहिरा सम्मेलन में मुख्य बल ‘सहायता’ और ‘सुधरे व्यापार सम्बन्धों’ पर दिया गया ।
लुसाका शिखर सम्मेलन में गुटनिरपेक्ष देशों ने आर्थिक और विकास सम्बन्धी मामलों पर विकसित और औद्योगिक देशों के साथ ‘सामान्य पहल’ का संकल्प लिया । अल्जीयर्स गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन में प्रस्ताव किया गया कि- ”संयुक्त राष्ट्र महासचिव से कहा जाए कि उच्च राजनीतिक स्तर पर महासभा का विशेष अधिवेशन बुलाया जाए जिसमें केवल विकास समस्याओं पर ही विचार-विनिमय किया जाए……..।”
अल्जीयर्स आह्वान अनसुना नहीं रहा । असल में तो गुटनिरपेक्ष देशों की इसी पहल के क्रियान्वयन के रूप में ही 1974 के आरम्भ में संयुक्त राष्ट्र महासभा का छठा विशेष अधिवेशन बुलाया गया था जिसने 1 मई, 1974 को ‘नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था स्थापित करने की घोषणा’ और ‘एक कार्यवाही योजना’ के ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किए ।
Essay # 4. गुटनिरपेक्षता की कमजोरियां या विफलताएं : आलोचना (Criticism of Non-Alignment):
गुटनिरपेक्षता की विफलताएं क्या हैं ? इस सिलसिले में आलोचक निम्नलिखित तर्क देते हैं:
1. अवसरवादी और काम निकालने की नीति:
पश्चिमी आलोचकों के अनुसार गुटनिरपेक्षता एक अवसरवाद और काम निकालने की नीति होकर रह गयी है कि गुटनिरपेक्ष देश सिद्धान्तहीन हैं कि साम्यवादी और गैर-साम्यवादी गुटों के साथ अपने सम्बन्धों के सन्दर्भ में वे ‘दोहरी कसौटी’ का प्रयोग करते हें और यह कि उनका ध्येय पश्चिमी और साम्यवादी दोनों गुटों से अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त करने का और ‘जिसका पलड़ा भारी हो’ उसकी ओर मिल जाने का रहता है ।
डॉ. एम. एस. राजन ने इस आलोचना का उत्तर देते हुए लिखा है कि गुटनिरपेक्षता की नीति अवसरवादिता की नीति हो सकती है, परन्तु उतनी ही जितनी गुटबद्धता की अथवा कोई अन्य नीति हो सकती है उससे अधिक नहीं । फिर क्या पाकिस्तान और वहां के नेताओं पर पश्चिमी गुट के साथ बंध जाने के सिलसिले में अवसरवाद का आरोप नहीं लगाया जा सकता ?
2. सिद्धान्तत: उपयुक्त किन्तु अव्यावहारिक नीति:
आलोचकों के अनुसार यह नीति सिद्धान्तत: जितनी उपयुक्त है, व्यवहारत: उससे बहुत भिन्न है, और सिद्धान्तत: इसमें चाहे कितने ही गुण क्यों न हों व्यवहारत: यह कई तरह से विफल हुई है । अत: यह कहा जाता है कि जहां सिद्धान्त के धरातल पर गुटनिरपेक्षता का ध्येय राष्ट्रों की स्वतन्त्रता सुनिश्चित करना है व्यवहार के धरातल पर इसने बहुत-से गुटनिरपेक्ष देशों के सन्दर्भ में इस दायित्व को वस्तुत: निभाया नहीं है ।
उदाहरण के लिए पश्चिमी देशों की एक आलोचना यह है कि व्यवहारत: गुटनिरपेक्षता ने साम्यवाद के प्रति सहानुभूति को छिपाने के लिए नकाब का काम किया है और इसका परिणाम होता है साम्यवादी गुट की अधीनता (जैसे- एनक्रुमा के नेतृत्व में घाना, म्यांमार (बर्मा), क्यूबा) । आलोचक यह भी कहते हैं कि नासिर के अधीन संयुक्त अरब गणराज्य और नेहरू के अधीन भारत 1950 के दशक में साम्यवादी खेल खेलते रहे थे ।
इस आलोचना का उत्तर देते हुए डॉ. एम. एस. राजन ने लिखा है कि अभी तक कोई गुटनिरपेक्ष राष्ट्र साम्यवादी गुट में सम्मिलित नहीं हुआ । दूसरी ओर एक साम्यवादी राष्ट्र (यूगोस्लाविया) साम्यवादी गुट का साथ छोड़कर गुटनिरपेक्ष बन गया ।
जहां कुछ मामलों में कुछ गुटनिरपेक्ष देशों ने साम्यवादी शिविर के देशों का समर्थन किया वहां उन्हीं गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने अन्य अवसरों पर उन्हीं देशों की आलोचना भी की है । हंगरी के विरुद्ध सोवियत सैनिक कार्यवाही (1956) तथा चेकोस्लोवाकिया (1968) के मामलों में अनेक गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने सोवियत संघ की आलोचना की थी ।
3. बाह्य सहायता पर निर्भरता:
गुटनिरपेक्ष देशों की एक विफलता यह बतायी जाती है कि वे बाहरी आर्थिक और रक्षा सहायता पर बेहद निर्भर रहे हैं । चूंकि वे दोनों गुटों से सहायता प्राप्त करने की स्थिति में थे इसलिए उन्होंने इतनी भारी आर्थिक और रक्षा सहायता लेने का रास्ता निकाल लिया कि आज वे अपने सहज-सामान्य कार्य-निर्वाह के लिए भी इस सहायता पर आश्रित हो गए हैं ।
आलाचकों का तर्क है कि सच्ची गुटनिरपेक्षता आर्थिक आत्मनिर्भरता को तथ्य रूप में मानकर चलती है । यदि कोई राष्ट्र किसी तरह की सहायता के लिए किसी अन्य राष्ट्र या समूह पर बहुत आश्रित हो तो इसका मतलब है उस राष्ट्र की स्वतन्त्रता को और गुटनिरपेक्षता को भी दांव पर लगा दिया गया है ।
डॉ. एम. एस. राजन का कहना है कि- “किसी देश को दोनों सर्वोच्च शक्तियों से बराबर बड़े परिमाण में आर्थिक और सैनिक सहायता प्राप्त हुई है । यह बात अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि उसकी गुटनिरपेक्षता बराबर ज्यों-की-त्यों बनी हुई है ।”
4. गुटनिरपेक्षता की नीति किसी तरह सुरक्षा का साधन नहीं:
आलोचकों का यह कहना है कि गुटनिरपेक्ष राष्ट्र गुटनिरपेक्षता को अपनी सुरक्षा के लिए पर्याप्त मानते थे । यदि वे अत्यन्त विशाल रक्षा व्यवस्था रखेंगे तो उनकी गुटनिरपेक्षता सुरक्षित नहीं रह जाएगी और यदि वे बाहर से सैनिक सहायता स्वीकार करेंगे तो उनकी गुटनिरपेक्षता का स्वरूप शुद्ध नहीं रह जाएगा ।
अक्टूबर 1962 में भारत पर चीन के आक्रमण ने भारत के लोगों को यह अनुभव करा दिया कि वर्तमान राष्ट्र समाज में जो सर्वथा आदर्श नहीं है कोई भी चीज किसी देश की सुरक्षा का प्रमाण नहीं हो सकती गुटनिरपेक्षता भी नहीं कि उपयुक्त सैन्य शक्ति रखने के साथ गुटनिरपेक्षता की कोई असंगति नहीं है और बाहरी आक्रमण से मुकाबला करने के लिए बाहर से सैनिक सहायता स्वीकार करना भी कोई गलत काम नहीं है ।
चीनी आक्रमण के दौरान भारत के लोगों ने यह भी अनुभव किया कि अन्य गुटनिरपेक्ष देशों में सबको भारत के साथ सहानुभूति नहीं थी जबकि बहुत-से ऐसे देशों ने, जो पश्चिमी गुट के साथ बंधे थे या तो भारत के प्रति सहानुभूति दिखायी या चीनी आक्रमण का मुकाबला करने मैं भारत को सहायता दी ।
गुटनिरपेक्षता के कुछ नासमझ आलोचकों को लगा कि चीन के आक्रमण से उनका दृष्टिकोण एकदम सही सिद्ध हो गया कि गुटनिरपेक्षता किसी भी तरह की सुरक्षा का साधन नहीं है और इसलिए भारत को गुटनिरपेक्षता का त्याग कर देना चाहिए । यह तो ऐसे हुआ माना गुटबद्ध होने से किसी राष्ट्र को पूरी तरह सुरक्षा मिल जाती है ।
5. संकुचित नीति:
विदेश नीति का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसे गुटनिरपेक्षता की नीति में बांधा नहीं जा सकता । गुटनिरपेक्षता का दायरा बहुत सीमित है । गुटों से बाहर क्रियाशील होने की कल्पना इस अवधारणा में है ही नहीं । सारी नीति गुटों की राजनीति के आस-पास घूमती है ।
महाशक्ति गुटों की राजनीति पर प्रतिक्रिया करते रहना ही इस नीति का मुख्य लक्षण बन जाता है । या तो गुटों के आपसी झगड़ों में पंच बनने की कोशिश करना या दोनों से अलग रहते हुए एक के केवल इतने समीप जाने का प्रयत्न करना कि दूसरा बुरा न माने और यदि दूसरे के बुरा मानने का डर हो तो पहले से नाप-तौल कर दूर हटना या बारी-बारी से पास जाना या दूर हटना, यही गुटनिरपेक्षता की शैली रही है ।
6. राष्ट्रहित के बजाय नेतागिरी की नीति:
कतिपय आलोचक उसे ऊर्ध्वमूल नीति कहते हैं, ऐसी नीति जिसकी जड़ें ऊपर हैं नीचे नहीं । अपने देश में नहीं । राष्ट्रहित उसके केन्द्र में नहीं है । उससे राष्ट्रहित हो जाए यह अलग बात है । उसके केन्द्र में नेतागिरी की भावना रही है । मोर का नाच पांव कितने ही कमजोर हों गन्दे भी लेकिन पंख फैलाकर नाच होना चाहिए । विश्व के मंचों पर नेतागिरी चमकनी चाहिए ।
7. इस नीति द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं:
आलोचकों का कहना है कि गुटनिरपेक्षता की नीति के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में जो शक्ति-सन्तुलन के सिद्धान्त पर चल रही है हम कोई उल्लेखनीय परिवर्तन करने में भी असमर्थ रहे । जब तक शीत-युद्ध चलता रहा दुनिया प्रमुख शिविरों में बंटी रही । इन शिविरों ने भारत या मिस्र या यूगोस्लाविया के कहने से अपनी नीति में कहीं कोई परिवर्तन नहीं किया ।
भारत के विरोध के बावजूद अमरीकी सेनाओं ने कोरिया में 38वीं अक्षांश रेखा को पार कर लिया । चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया । लेबनान में अमरीकी फौजें और हंगरी व चेकोस्लोवाकिया में सोवियत फौजें घुस गयीं । 1962 में क्यूबा के सवाल पर अमेरिका और सोवियत संघ में टक्कर होते-होते बच् गयी, लेकिन उसका कारण गुटनिरपेक्ष देशों का दबाव नहीं था ।
पश्चिमी एशिया में चार बड़े अरब-इजरायल युद्ध हो गए और गुटनिरपेक्ष देशों की भूमिका नगण्य रही । अफ्रीका और एशिया के देशों की उपनिवेशवाद से मुक्ति के लिए गुटनिरपेक्ष देशों ने पर्याप्त शब्द बल का प्रयोग किया किन्तु उनके स्वातन्त्र्य का श्रेय गुटनिरपेक्षता को देना, घटनाओं की गलत व्याख्या करना होगा । अल्जीरिया, अंगोला, मोजाम्बिक जैसे देशों ने अपनी स्वतन्त्रता खूनी युद्ध के द्वारा प्राप्त की और अन्य देशों से भी साम्राज्यवादी ताकतें अपनी अन्दरूनी कमजोरियों या विवशताओं के कारण हटती रहीं ।
8. गुटनिरपेक्षता-एक दिशाहीन आन्दोलन:
कतिपय आलोचकों का मत है कि नई विश्व व्यवस्था का जिसमें शक्ति नहीं सद्भावना नियामक तत्व हो निर्माण करना तो दूर रहा गुटनिरपेक्ष आन्दोलन अपने आप में ही बिखरने लगा है । हवाना सम्मेलन (1979) की कार्यवाहियों से स्पष्ट हो गया था कि सम्पूर्ण आन्दोलन तीन खेमों में बंट गया है: एक में क्यूबा, अफगानिस्तान, वियतनाम, इथियोपिया, द यमन जैसे सोवियत संघ परस्त देश थे तो दूसरे में सोमालिया, सिंगापुर जैरे फिलिपीन्स, मोरक्को, मिस्र आदि अमरीकी परस्त देश ।
तीसरे खेमे में भारत यूगोस्लाविया और श्रीलंका जैसे देश थे । यह बंटवारा इस बात का सबूत था कि गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की अपनी कोई दिशा नहीं रह गयी और वह महाशक्तियों के खिलवाड़ का प्रतिबिम्ब मात्र रह गया था ।
9. गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों में बुनियादी एकता का अभाव:
आलोचकों का कहना है कि गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों में बुनियादी एकता भी नहीं पायी जाती । समृद्ध राष्ट्रों के शोषण के विरुद्ध मोर्चाबन्दी करना तो दूर रहा, वे आपस में एक-दूसरे की सहायता करने की भी कोई ठोस योजना नहीं बना सके ।
गुटनिरपेक्ष राष्ट्र एक-दूसरे का शोषण करने से भी बाज नहीं आते । तेल सम्पन्न राष्ट्रों ने अपने साथी विकासमान राष्ट्रों को भी किसी प्रकार की रियायत नहीं दी । अपनी जीवन-पद्धतियों की रक्षा के लिए भी गुटनिरपेक्ष देश कोई संयुक्त रणनीति नहीं बना पाए ।
10. गुटनिरपेक्षता एक मूल्य-रहित पैंतरा मात्र है:
आलोचकों का कहना है कि वास्तव में गुटनिरपेक्षता अपने आप में कोई विचारधारा या सिद्धान्त नहीं है । गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में भारत नेपाल और श्रीलंका जैसे लोकतान्त्रिक देश हैं तो मोरक्को, इथियोपिया जैसे राजशाही देश भी रहे हैं ।
वियतनाम, क्यूबा, लाओस जैसे कम्यूनिस्ट देश इसमें हैं तो फौजी तानाशाही वाले इण्डोनेशिया, म्यांमार, पाकिस्तान, घाना, उगांडा जैसे देश भी इसमें रहे हैं । दूसरे शब्दों में, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के 120 देशों में से 10 देश भी ऐसे नहीं हें जिन्हें सच्चे अर्थों में लोकतान्त्रिक कहा जा सके । इन देशों की शासन-पद्धतियां ही भिन्न-भिन्न नहीं हैं अपितु अर्थव्यवस्था के स्वरूप और समस्याएं भी एक-दूसरे से बहुत भिन्न हैं ।
कई गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों में आपसी तनाव ने युद्ध का रूप धारण कर लिया है । अपने द्विपक्षीय मामलों को सम्मेलन के मंच पर लाने में नहीं चूकते । यदि गुटनिरपेक्षता और कुछेक नैतिक मूल्य एक-दूसरे के पर्याय होते तो आज सम्मेलन का स्वरूप इतना विशृंखलित और आत्मविरोधी नहीं होता ।
आलोचकों का यह भी कहना है कि युद्ध या संकट के समय गुटनिरपेक्ष देश अकेला रह जाता है जैसे चीनी आक्रमण के समय भारत रह गया था । फिर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का मार्ग इतना कुटिल है कि गुटनिरपेक्षता की माला जपते हुए भी राष्ट्रों ने अन्दर-ही-अन्दर गुटों से हाथ मिलाने की कोशिश की ।
1971 में सम्पन्न भारत-सोवियत सन्धि इसका प्रमाण है । मिस्र-सोवियत और इराक-सोवियत सन्धियां भी इसी ढर्रे पर सम्पन्न की गयी थीं । सैन्य-परामर्श और सैन्य-सहायता के स्पष्ट प्रावधान इन सन्धियों में थे ।
Essay # 5. गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की चुनौतियां: दबाव (Challenges of Non-Alignments Pressures):
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का प्रभाव बढ़ता जा रहा है । प्रथम बेलग्रेड शिखर सम्मेलन में केवल 25 देशों ने भाग लिया था । ग्वाटेमाला, पापुआ न्यूगिनी, थाईलैण्ड, होण्डुरास, हैटी, सेंटकिट्स आदि को पूर्ण सदस्य बनाए जाने से अब निर्गुट आन्दोलन के सदस्यों की संख्या 120 हो गयी है ।
आज गुटनिरपेक्ष आन्दोलन संयुक्त राष्ट्र संघ के दो-तिहाई सदस्यों मानव जाति के आधे सदस्यों और चार महाद्वीपों-एशिया, अफ्रीका, यूरोप और लैटिन अमरीका का प्रतिनिधित्व करता है । फिर भी आज इसे अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है ।
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रमुख चुनौतियां निम्न प्रकार हैं:
(1) सैनिक दबाब:
महाशक्तियां गुटनिरपेक्ष देशों पर सैनिक दबाव डालती रहती हैं । अपने प्रभाव-क्षेत्र का विस्तार करने के लिए महाशक्तियां गुटनिरपेक्ष नीति अपनाने वाले देशों को अपने सैनिक संगठनों के माध्यम से घेरने की कोशिश करती हैं । भारत जैसे गुटनिरपेक्ष देश के विरुद्ध अमरीका ने पाकिस्तान को सैनिक सहायता दी । इसी प्रकार हिन्दमहासागर में महाशक्तियों की सक्रिय गतिविधियां इस क्षेत्र के गुटनिरपेक्ष देशों पर दबाव डालने की ही चेष्टा है ।
(2) गुटनिरपेक्ष देशों में पारस्परिक तनाव एवं वैमनस्य:
गुटनिरपेक्ष देश पर्याप्त रूप से संगठित नहीं हैं । उनमें तनाव, वैमनस्य और भयंकर विवाद उभरते रहे हैं । उदाहरणार्थ भारत और बांग्लादेश दोनों ही गुटनिरपेक्षता के समर्थक हैं किन्तु कोलम्बो शिखर सम्मेलन में बांग्लादेश ने भारत के साथ गंगा के पानी के बंटवारे के प्रश्न को उठाकर विश्व के सामने अपने आपसी तनावों का ही प्रकटीकरण किया । 1999 के प्रारम्भ में पाकिस्तान ने करगिल में घुसपैठिए भेजकर भारत के साथ अघोषित युद्ध प्रारम्भ कर दिया ।
(3) आर्थिक पिछड़ापन:
अर्थिक दृष्टि से गुटनिरपेक्ष देश पिछड़े हुए हैं । अपने आर्थिक विकास के लिए इन देशों को महाशक्तियों पर निर्भर रहना पड़ता है । महाशक्तियां आर्थिक लालच देकर इन छोटे और कमजोर गुटनिरपेक्ष देशों का शोषण करती हैं । इन्हें आर्थिक सहायता का लुभावना मोह दिखाकर उन्हें अपने गुटों में बांधने का प्रयत्न करती है ।
(4) गुटनिरपेक्ष देशों में अस्थिरता उत्पत्र करना:
महाशक्तियां गुटनिरपेक्ष देशों में हस्तक्षेप करती रहती हैं और अपने गुप्तचरों के माध्यम से अस्थिरता लाने का प्रयास करती हैं । क्यूबा जैसे गुटनिरपेक्ष देश में अमरीका ने सी. आई. ए के माध्यम से फिदेल कालो सरकार को गिराने की बार-बार कोशिश की । चिली के राष्ट्रपति एलेण्डे की हत्या में भी सी. आई. ए का हाथ था ।
(5) यह एक नैतिक आन्दोलन है:
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन नैतिक अपील-सा लगता है । यह मानवता की रक्षा की आवाज बुलन्द कर सकता है किन्तु शस्त्रों द्वारा शान्ति स्थापित नहीं कर सकता आक्रमणों का प्रतिरोध नहीं कर सकता । गुटनिरपेक्ष आन्दोलन अफगानिस्तान में सोवियत संघ के हस्तक्षेप की प्रत्यक्षत: भर्त्यना नहीं कर सका ।
गुटनिरपेक्ष देशों में केवल 57 देशों ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के 14 जनवरी, 1980 के उस प्रस्ताव पर मतदान किया जिसमें अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं की वापसी की मांग की गयी थी; 9 गुटनिरपेक्ष देशों ने प्रस्ताव का विरोध किया और 24 ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया ।
(6) गुट सापेक्ष राष्ट्रों की बढ़ती संख्या:
अब तो चीन को भी आन्दोलन में पर्यवेक्षक का दर्जा दे दिया गया है । ऐसी स्थिति में जबकि सुरक्षा परिषद् का एक स्थायी सदस्य इस आन्दोलन में रहेगा और पाकिस्तान, ईरान, फिलीपीन्स तथा रीओ सन्धि जैसे सैनिक गठबन्धनों वाले देश भी इसमें रहेंगे तो गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का भविष्य क्या होगा कहने की जरूरत नहीं है ।
यदि गुटनिरपेक्षता की स्पष्ट परिभाषा नहीं की गयी और सदस्यता के लिए अर्हताएं निश्चित नहीं की गयीं, तो ऐसे प्रश्नों का उत्तर देना धीरे-धीरे कठिन होता जाएगा । कोई आश्चर्य नहीं कि चीन भी इसका सदस्य शीघ्र ही बन जाये ।
Essay # 6. गुटनिरपेक्षता: गतिशीलता और नूतन प्रवृत्तियां (The Non-Alignment: Dynamism and New Trends):
गुटनिरपेक्षता की नीति समय के साथ अधिकाधिक सक्रिय गतिशील और व्यावहारिक बनती जा रही है । प्रारम्भ में इस नीति में नैतिकता और आदर्शवाद का पुट अधिक था, लेकिन गुटनिरपेक्ष देश अब यह अच्छी तरह समझने लगे हैं कि कोई भी नीति तभी सार्थक और उपादेय हो सकती है जब उसे यथार्थवाद के धरातल पर उतारा जाए ।
इस दृष्टि से गुटनिरपेक्षता की नूतन गतिशील प्रवृत्तियां निम्नलिखित हैं:
(1) आज की गुटनिरपेक्षता अपने पुराने स्वरूप से इसलिए भिन्न और गतिशील है कि अब गुटनिरपेक्षता के अन्तर्गत यह बात सम्भव मानी जाने लगी है कि यदि किसी गुटनिरपेक्ष राष्ट्र के सोवियत संघ; चीन अथवा अमरीका के साथ विशेष सम्बन्ध हों और यदि फिर भी वह राष्ट्र स्वतन्त्र विदेश नीति का अनुसरण करता हो तो उसे गुटनिरपेक्ष माना जा सकता है । भारत-सोवियत सन्धि (1971) को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए इससे भारत की गुटनिरपेक्षता पर कोई आंच नहीं आती ।
(2) ऐसी स्थिति उत्पन्न होती जा रही है कि सैनिक गुटों से अलग रहना गुटनिरपेक्षता का अनिवार्य तत्व नहीं है । लैटिन अमरीका के अनेक देश रीओ सन्धि के सदस्य होने के बावजूद भी गुटनिरपेक्ष कहलाते हैं । पाकिस्तान और पुर्तगाल जैसे देश भी, जो सैनिक सन्धि से जुड़े हुए हैं, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में शामिल हो गए हैं । गुटनिरपेक्षता के विकास से अब ऐसी अवस्था आ गयी है कि विदेश नीति की स्वतन्त्रता ही अब गुटनिरपेक्षता का एकमात्र मापदण्ड रह गया है ।
(3) पिछले कुछ वर्षों से गुटनिरपेक्ष देशों के कई औपचारिक संगठन अस्तित्व में आते दिखायी दे रहे हैं । यह अनुभव किया जा रहा है कि बिना किसी औपचारिक संस्थात्मक संगठन के गुटनिरपेक्ष देश विश्व राजनीति में संगठित होकर कोई कार्य नहीं कर सकते । लुसाका और कोलम्बो शिखर सम्मेलन में यह मांग की गयी थी कि गुटनिरपेक्ष देशों का स्थायी सचिवालय हो किन्तु आज तक किसी प्रकार का स्थायी सचिवालय तो अस्तित्व में नहीं आया किन्तु कतिपय औपचारिक संगठन नजर आ रहे हैं ।
ये संगठन दो प्रकार के हैं:
(i) समन्वय ब्यूरो, और
(ii) सम्मेलन ।
सम्मेलन भी दो प्रकार के हैं:
(a) गुटनिरपेक्ष देशों के विदेशमन्त्रियों का सम्मेलन, और
(b) शिखर सम्मेलन ।
समन्वय ब्यूरो को गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की ‘कार्यकारी भुजा’ (Executive Arm) कहा जाता है । इसका स्वरूप एक ‘तैयारी समिति’ की भांति है जो शिखर सम्मेलन के लिए मसविदे तैयार करता है । विदेश मन्त्रियों के सम्मेलन में गुटनिरपेक्ष देशों के विदेश मन्त्री भाग लेते हैं ।
यह सम्मेलन शिखर सम्मेलन हेतु कार्य सूची तैयार करता है अन्तर्राष्ट्रीय विषयों पर विचार-विमर्श करता है अरि गुटनिरपेक्षता की सदस्यता के इच्छुक देशों के आवेदन-पत्रों पर विचार-विमर्श एवं निर्णय भी लेता है । शिखर सम्मेलन में गुटनिरपेक्ष देशों के शासनाध्यक्ष भाग लेते हैं । अभी तक 16 शिखर सम्मेलन सम्पन्न हो चुके हैं । यह सम्मेलन प्रति तीन वर्ष बाद होता है ।
(4) आजकल गुटनिरपेक्ष आन्दोलन नव-उपनिवेशवादी प्रवृत्तियों का पर्दाफाश करने में रत है ।
(5) गुटनिरपेक्ष आन्दोलन एक राजनीतिक आन्दोलन से आर्थिक आन्दोलन का रूप धारण करता जा रहा है । गुटनिरपेक्ष राष्ट्र ‘नयी अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था’ की मांग कर रहे हैं । गुटनिरपेक्षता की नीति में पारस्परिक आर्थिक सहयोग के तत्व पर विशेष बल दिया जाने लगा है । टी. एन. कौल के शब्दों में- ”अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में राजनीतिक पहलू की अपेक्षा आर्थिक पहलू पर उत्तरोत्तर अधिक बल दिए जाने से गुटनिरपेक्षता की धारणा की सार्थकता सिद्ध हुई है ।”
Essay # 7. गुटनिरपेक्षता का भविष्य : प्रासंगिकता (The Future of Non-Alignment: Relevance):
गुटनिरपेक्षता विश्व राजनीति में राष्ट्रों के लिए एक नए विकल्प के रूप में निश्चय ही स्थायी रूप धारण कर चुकी है । इसने विशेषत: राष्ट्र समाज के छोटे-छोटे और अपेक्षाकृत कमजोर सदस्यों के सन्दर्भ में, राष्ट्रों की स्वतन्त्रता और समता बनाए रखने में योग दिया है । इसने विश्व के पूर्ण ध्रुवीकरण को रोककर, विचारधारागत शिविरों के विस्तार को और प्रभाव को संयत करके तथा गुटों के अन्दर भी स्वतन्त्रता की शक्तियों को प्रोत्साहन देकर अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा बनाए रखने तथा उसे बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण योग दिया है ।
इसने संयुक्त राष्ट्र संगठन के भीतर और बाहर दोनों जगह बहुत-से कल्याणकारी क्षेत्रों में, जैसे कि उपनिवेशों को स्वतन्त्र कराने, प्रजातीय समता को साकार करने तथा अल्प-विकसित देशों के आर्थिक विकास के क्षेत्र में बहुत बड़ा योग दिया है ।
आज संयुक्त राष्ट्र संघ के दो-तिहाई देश गुटनिरपेक्षता के दायरे में आ चुके हैं । संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न मंचों से गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने विश्व-शान्ति, उपनिवेशवाद के अन्त, परमाणु अस्त्रों पर रोक, निःशस्त्रीकरण, हिन्दमहासागर को शान्ति क्षेत्र घोषित करना, नयी अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के निर्माण, आदि विषयों पर संगठित रूप से कार्यवाही की है और सफलता हासिल की है ।
यह भी प्रश्न किया जाता है कि आज गुटनिरपेक्षता का क्या औचित्य रह गया है । गुटनिरपेक्षता की सार्थकता द्वितीय विश्व-युद्ध के-बाद शीत-युद्ध वातावरण में तो थी, किन्तु पिछले 15-20 वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में बहुत सारे परिवर्तन हुए हैं । मसलन शीत-युद्ध का अन्त हो चुका है, सोवियत संघ का विघटन हो चुका है, पूर्वी यूरोप के देशों में साम्यवाद को कब्र में दफनाया जा चुका है, वारसा पैक्ट भंग कर दिया गया है, नाटो की भूमिका में परिवर्तन आ रहा है जर्मनी का एकीकरण हो चुका है ।
सभी प्रमुख शक्तियों के बीच एक-दूसरे के प्रति सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध हैं । अमरीका और रूस मिलकर अंतरिक्ष स्टेशन का संचालन कर रहे हैं और नाभिकीय ऊर्जा पर अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को उन्होंने नया आयाम दिया है । अमेरिका और चीन के बीच 300 अरब डॉलर का व्यापार है ।
रूस वर्तमान समय में पश्चिमी यूरोप, चीन और जापान के लिए ऊर्जा के प्रमुख आपूर्तिकर्त्ता के रूप में उभरा है । ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि आखिर किसके खिलाफ गुट निरपेक्ष देश अपनी गुटनिरपेक्षता प्रदर्शित करेंगे ? गुटनिरपेक्षता का उदय शीत-युद्ध के सन्दर्भ में हुआ था और आज शीत-युद्ध के अन्त हो जाने के कारण गुटनिरपेक्ष आन्दोलन अप्रासंगिक हो गया है ।
निर्गुट आन्दोलन के वें सम्मेलन में जिम्बाब्बे की राजधानी हरारे में लीबिया के नेता कर्नल गद्दाफी ने निर्गुट आन्दोलन को ‘अन्तर्राष्ट्रीय भ्रम का मजाकिया आन्दोलन’ (A Funny Movement of International Fallacy) कहा था और पूछा था कि जब अमरीका ने उनके देश पर हवाई हमला करके उन्हें सपरिवार जान से मार देने की कोशिश की तो निर्गुट आन्दोलन क्या कर रहा था ? क्या इसके बाद भी इसकी कोई प्रासंगिकता रह जाती है ?
फरवरी 1992 में गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के विदेश मन्त्रियों की बैठक में मिस्र ने स्पष्ट तौर से अपील की थी कि इस आन्दोलन को समाप्त कर दिया जाना चाहिए उनका तर्क था कि सोवियत संघ के विघटन सोवियत गुट तथा शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है । किन्तु बहुसंख्यक विदेश मन्त्रियों ने इस विचार का विरोध किया था ।
उनका कहना था कि बड़ी संख्या में गुटनिरपेक्ष देश अभी निर्धन हैं या आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं और समृद्ध राष्ट्रों तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा उनका नव-औपनिवेशिक शोषण किया जा रहा है इस स्थिति में उन्हें बचाने के लिए यह जरूरी है कि विकसित और विकासशील देशों के बीच सार्थक वार्ता के लिए दबाव डाला जाए और विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग सुदृढ़ एवं सक्रिय किया जाए ।
इसके लिए निर्गुट आन्दोलन एक अपरिहार्य मंच का काम करेगा । आतंकवाद पूर्ण निरस्त्रीकरण की समस्या के साथ आर्थिक उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के दौर से गुजर रही विश्व आर्थिक नीति पर विश्व व्यापार संगठन विश्व बैंक एवं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के बढ़ते वर्चस्व के कारण विकासशील देशों की आर्थिक समस्याओं के समाधान का मुद्दा काफी जटिल होता जा रहा है ।
अत: ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ को केन्द्र बनाकर ‘नाम’ (NAM) महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है । नि:शस्त्रीकरण के क्षेत्र में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन विश्व की पुकार की भूमिका निबाह सकता है और इसे यह भी सुनिश्चित करना होगा कि महाशक्तियां तीसरी दुनिया के देशों में घातक हथियारों का जमावड़ा न करें ।
1993 में आन्दोलन का सदस्य बनने के लिए प्राप्त नए आवेदनों से यह सुस्पष्ट है कि सविभौम कार्यों में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की निरन्तर प्रासंगिकता बनी है और महत्व भी बढ़ा है । ऐसा कहा गया है कि 21वीं शताब्दी आर्थिक युद्ध की होगी ।
आर्थिक दृष्टि से समृद्ध राष्ट्रों के गुट उभरकर स्वयं ही प्रतिस्पर्द्धा कर लेंगे और इससे विकासशील राष्ट्रों की स्वतन्त्रता और हितों को खतरा पहुंचेगा । इस खतरे को नियन्त्रित करने के लिए उत्तर-दक्षिण सम्बाद को बनाए रखने में दक्षिण-दक्षिण सहयोग और नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को बनाने के लिए गुटनिरपेक्ष आन्दोलन और जी-77 को एक होकर कार्य करना होगा ।
आज निम्नलिखित क्षेत्रों में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रासंगिकता नजर आती है:
1. नई अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की पुरजोर माग करना;
2. आणविक निरस्त्रीकरण के लिए दबाव डालना;
3. दक्षिण-दक्षिण सहयोग को प्रोत्साहन देना;
4. एक-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था में अमरीकी दादागिरी का विरोध करना;
5. विकसित और विकासशील (उत्तर-दक्षिण संवाद) देशों के बीच सार्थक वार्ता के लिए दबाव डालना;
6. अच्छी वित्तीय स्थिति वाले गुटनिरपेक्ष देशों (जैसे ओपेक राष्ट्रों) को इस बात के लिए तैयार करना कि वे अपना अधिशेष पश्चिमी देशों की बैंकों में जमा करने के बजाय विकासशील देशों में विकासात्मक उद्देश्यों के लिए प्रयोग करें;
7. नव-औपनिवेशिक शोषण का विरोध किया जाए;
8. संयुक्त राष्ट्र संघ के पुनर्गठन के लिए दबाव डाला जाए ताकि बड़े राष्ट्र प्रस्तावित पुनर्गठन के लिए राजी हो सकें यानी उनके ‘वीटो’ परिषद् की सदस्यता में पर्याप्त प्रयोग की जा सके या महासभा को और अधिकार दिए जा सकें ।
संक्षेप में, विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग बढ़ाने की दिशा में यदि कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया तो गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का अस्तित्व अधिक समय तक नहीं रह पाएगा विशेषकर ऐसे में जबकि शीत-युद्ध की समाप्ति के बाद इसके सामने कोई राजनीतिक उद्देश्य नहीं रह गया है ।
निष्कर्ष:
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ने स्वतन्त्र विदेश नीति का सिद्धान्त देकर और नवोदित देशों को एक मंच उपलब्ध करा कर सैनिक टकराव की दिशा में सम्भावित व्यापक रुझान को रोक दिया और शीत-युद्ध का तनाव कम करने तथा शान्ति स्थापना की दिशा में प्रोत्साहन दिया ।
आपसी विचार-विमर्श द्वारा समझा-बुझाकर और जोरदार प्रचार करके आन्दोलन ने उपनिवेशवाद उन्मूलन की प्रक्रिया को भी गति प्रदान की । 1960 के बाद यह महसूस किया गया कि राजनीतिक उपनिवेशवाद का तो उन्मूलन हो रहा है लेकिन नव-स्वाधीन राष्ट्र आर्थिक दृष्टि से बहुत कमजोर हैं और औद्योगिक देशों पर निर्भर हैं जिससे लगता है कि निर्धन देशों पर धनी देशों की चौधराहट बराबर बनी हुई है ।
अत: नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था स्थापित करने की मांग की जाने लगी । अब अन्तर्राष्ट्रीय चिन्ता के विषय आर्थिक समस्या और पर्यावरण प्रदूषण रोकने की समस्या रह गए । लुसाका और अल्जीयर्स सम्मेलनों में नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का प्रस्ताव रखकर आन्दोलन ने अब विश्व में प्रदूषण की समस्या पर ध्यान केन्द्रित किया है ।
इससे सिद्ध होता है कि गुटनिरपेक्ष आन्दोलन शान्तिपूर्ण, समतावादी विश्व व्यवस्था स्थापित करके विकासशील देशों का भविष्य उज्ज्वल बनाने के प्रयासों में निरन्तर प्रयास करता है । बाली (इण्डोनेशिया) में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के समन्वय ब्यूरो की बैठक (14-15 मई 1992) में सदस्य देशों ने आशंका व्यक्त की कि पूरब-पश्चिम टकराव की समाप्ति से उत्तर-दक्षिण टकराव शुरू हो सकता है । शीत-युद्ध समाप्ति की परिणति उत्तर-दक्षिण टकराव में हो सकती है अत: बदली हुई अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रासंगिकता और बढ़ गई है ।
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को संस्था का रूप धारण किए पांच दशक से अधिक का समय हो चुका है । उसकी सदस्य संख्या 120 तक पहुंच गयी है, जो इस बात का सूचक है कि इस आन्दोलन का बल और प्रभाव बढ़ रहा है । मगर इस विस्तार से उसमें कमजोरियां भी आयी हैं ।
इससे इसकी सामूहिक एकता में कमी आयी है और परिणामस्वरूप उसके निर्णयों एवं घोषणाओं का नैतिक-राजनीतिक प्रभाव कम हुआ है । गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की स्थापना के समय से उसके साथ निकट से जुड़े रहे कुंवर नवटर सिंह का मत है कि ”इस आन्दोलन के लिए यह जरूरी हो गया है कि वह विश्व को सुधारने से पहले स्वयं को सुधारे । आन्दोलन द्वारा किए जाते रहे विचार-विमर्श में नैतिक एवं मूल्यों पर आधारित दृष्टिकोणों का अभाव दिखाई देने लगा है ।”
जिनेवा में अगस्त, 1996 के सी. टी. बी. टी. प्रारूप पर भारत का साथ देने वाला एक भी गुटनिरपेक्ष देश नहीं था । अर्जेण्टीना, ब्राजील मिस्र आदि प्रमुख देशों ने भारत को समर्थन देने के बजाय अमरीका तथा अन्य पश्चिमी देशों का साथ दिया जिससे विकसित देशों को स्पष्टत: पता लग चुका है कि गुटनिरपेक्ष देशों में एकता नहीं है ।
प्रासंगिक बने रहने के बावजूद गुटनिरपेक्ष आन्दोलन अपने महत्व व प्रभावी होने की क्षमता को धीरे-धीरे खोता जा रहा है जिसे भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता है । शिखर सम्मेलन को अब पहले की तरह गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा है इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि कार्टागेना सम्मेलन में केवल 43 राष्ट्रों के शासनाध्यक्ष सम्मिलित हुए ।
शिखर सम्मेलन में यह भी देखने को मिलता है कि सदस्यों का एक बड़ा हिस्सा संयुक्त राज्य अमरीका का पक्षधर है तथा उसका पुरजोर विरोध करने के स्थान पर की भाषा में बात करता है । सदस्य राष्ट्रों की इस अमरीका परस्ती के चलते अमरीका के ऊपर अंकुश के रूप में ‘नाम’ की भूमिका सीमित हो जाती है ।
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का एक स्थायी तत्व है और राष्ट्रों के अस्तित्व की भांति इसका अस्तित्व और प्रासंगिकता निरन्तर बनी रहेगी । इसका मूल कारण यह है कि गुटनिरपेक्षता का सम्बन्ध विकास शील राष्ट्रों की स्वतन्त्रता, उसको अक्षुण्ण बनाये रखने की आवश्यकता और विकास से है, न कि शीतयुद्ध या उसकी समाप्ति अथवा गुटबद्धता से ।
संक्षेप में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का सम्बन्ध मुख्यत: पांच ‘D’ से रहा है: विउपनिवेशीकरण (Decolonisations), विकास (Development), तनाव-शैथिल्य (Détente), निरस्त्रीकरण (Disarmament) और लोकतन्त्रीकरण (Democratisation) । अशान्त एवं अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित विश्व में यह एक सुरक्षा नली है ।
Essay # 8. गुटनिरपेक्षता की विफलताएं (
Weaknesses or Failures of Non-Alignment):
गुटनिरपेक्षता की विफलताएं क्या हैं ? इस सिलसिले में आलोचक निम्नलिखित तर्क देते हैं:
1. अवसरवादी और काम निकालने की नीति:
पश्चिमी आलोचकों के अनुसार गुटनिरपेक्षता एक अवसरवाद और काम निकालने की नीति होकर रह गयी है कि गुटनिरपेक्ष देश सिद्धान्तहीन हैं कि साम्यवादी और गैर-साम्यवादी गुटों के साथ अपने सम्बन्धों के सन्दर्भ में वे ‘दोहरी कसौटी’ का प्रयोग करते हें और यह कि उनका ध्येय पश्चिमी और साम्यवादी दोनों गुटों से अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त करने का और ‘जिसका पलड़ा भारी हो’ उसकी ओर मिल जाने का रहता है ।
डॉ. एम. एस. राजन ने इस आलोचना का उत्तर देते हुए लिखा है कि गुटनिरपेक्षता की नीति अवसरवादिता की नीति हो सकती है, परन्तु उतनी ही जितनी गुटबद्धता की अथवा कोई अन्य नीति हो सकती है उससे अधिक नहीं । फिर क्या पाकिस्तान और वहां के नेताओं पर पश्चिमी गुट के साथ बंध जाने के सिलसिले में अवसरवाद का आरोप नहीं लगाया जा सकता ?
2. सिद्धान्तत: उपयुक्त किन्तु अव्यावहारिक नीति:
आलोचकों के अनुसार यह नीति सिद्धान्तत: जितनी उपयुक्त है, व्यवहारत: उससे बहुत भिन्न है, और सिद्धान्तत: इसमें चाहे कितने ही गुण क्यों न हों व्यवहारत: यह कई तरह से विफल हुई है । अत: यह कहा जाता है कि जहां सिद्धान्त के धरातल पर गुटनिरपेक्षता का ध्येय राष्ट्रों की स्वतन्त्रता सुनिश्चित करना है व्यवहार के धरातल पर इसने बहुत-से गुटनिरपेक्ष देशों के सन्दर्भ में इस दायित्व को वस्तुत: निभाया नहीं है ।
उदाहरण के लिए पश्चिमी देशों की एक आलोचना यह है कि व्यवहारत: गुटनिरपेक्षता ने साम्यवाद के प्रति सहानुभूति को छिपाने के लिए नकाब का काम किया है और इसका परिणाम होता है साम्यवादी गुट की अधीनता (जैसे एनक्रुमा के नेतृत्व में घाना, म्यांमार (बर्मा), क्यूबा) । आलोचक यह भी कहते हैं कि नासिर के अधीन संयुक्त अरब गणराज्य और नेहरू के अधीन भारत 1950 के दशक में साम्यवादी खेल खेलते रहे थे ।
इस आलोचना का उत्तर देते हुए डॉ. एम. एस. राजन ने लिखा है कि अभी तक कोई गुटनिरपेक्ष राष्ट्र साम्यवादी गुट में सम्मिलित नहीं हुआ । दूसरी ओर एक साम्यवादी राष्ट्र (यूगोस्लाविया) साम्यवादी गुट का साथ छोड़कर गुटनिरपेक्ष बन गया ।
जहां कुछ मामलों में कुछ गुटनिरपेक्ष देशों ने साम्यवादी शिविर के देशों का समर्थन किया वहां उन्हीं गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने अन्य अवसरों पर उन्हीं देशों की आलोचना भी की है । हंगरी के विरुद्ध सोवियत सैनिक कार्यवाही (1956) तथा चेकोस्लोवाकिया (1968) के मामलों में अनेक गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने सोवियत संघ की आलोचना की थी ।
3. बाह्य सहायता पर निर्भरता:
गुटनिरपेक्ष देशों की एक विफलता यह बतायी जाती है कि वे बाहरी आर्थिक और रक्षा सहायता पर बेहद निर्भर रहे हैं । चूंकि वे दोनों गुटों से सहायता प्राप्त करने की स्थिति में थे इसलिए उन्होंने इतनी भारी आर्थिक और रक्षा सहायता लेने का रास्ता निकाल लिया कि आज वे अपने सहज-सामान्य कार्य-निर्वाह के लिए भी इस सहायता पर आश्रित हो गए हैं ।
आलाचकों का तर्क है कि सच्ची गुटनिरपेक्षता आर्थिक आत्मनिर्भरता को तथ्य रूप में मानकर चलती है । यदि कोई राष्ट्र किसी तरह की सहायता के लिए किसी अन्य राष्ट्र या समूह पर बहुत आश्रित हो तो इसका मतलब है उस राष्ट्र की स्वतन्त्रता को और गुटनिरपेक्षता को भी दांव पर लगा दिया गया है ।
डॉ. एम. एस. राजन का कहना है कि- “किसी देश को दोनों सर्वोच्च शक्तियों से बराबर बड़े परिमाण में आर्थिक और सैनिक सहायता प्राप्त हुई है । यह बात अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि उसकी गुटनिरपेक्षता बराबर ज्यों-की-त्यों बनी हुई है ।”
4. गुटनिरपेक्षता की नीति किसी तरह सुरक्षा का साधन नहीं:
आलोचकों का यह कहना है कि गुटनिरपेक्ष राष्ट्र गुटनिरपेक्षता को अपनी सुरक्षा के लिए पर्याप्त मानते थे । यदि वे अत्यन्त विशाल रक्षा व्यवस्था रखेंगे तो उनकी गुटनिरपेक्षता सुरक्षित नहीं रह जाएगी और यदि वे बाहर से सैनिक सहायता स्वीकार करेंगे तो उनकी गुटनिरपेक्षता का स्वरूप शुद्ध नहीं रह जाएगा ।
अक्टूबर, 1962 में भारत पर चीन के आक्रमण ने भारत के लोगों को यह अनुभव करा दिया कि वर्तमान राष्ट्र समाज में जो सर्वथा आदर्श नहीं है कोई भी चीज किसी देश की सुरक्षा का प्रमाण नहीं हो सकती गुटनिरपेक्षता भी नहीं कि उपयुक्त सैन्य शक्ति रखने के साथ गुटनिरपेक्षता की कोई असंगति नहीं है और बाहरी आक्रमण से मुकाबला करने के लिए बाहर से सैनिक सहायता स्वीकार करना भी कोई गलत काम नहीं है ।
चीनी आक्रमण के दौरान भारत के लोगों ने यह भी अनुभव किया कि अन्य गुटनिरपेक्ष देशों में सबको भारत के साथ सहानुभूति नहीं थी जबकि बहुत-से ऐसे देशों ने, जो पश्चिमी गुट के साथ बंधे थे या तो भारत के प्रति सहानुभूति दिखायी या चीनी आक्रमण का मुकाबला करने मैं भारत को सहायता दी ।
गुटनिरपेक्षता के कुछ नासमझ आलोचकों को लगा कि चीन के आक्रमण से उनका दृष्टिकोण एकदम सही सिद्ध हो गया कि गुटनिरपेक्षता किसी भी तरह की सुरक्षा का साधन नहीं है और इसलिए भारत को गुटनिरपेक्षता का त्याग कर देना चाहिए । यह तो ऐसे हुआ माना गुटबद्ध होने से किसी राष्ट्र को पूरी तरह सुरक्षा मिल जाती है ।
5. संकुचित नीति:
विदेश नीति का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसे गुटनिरपेक्षता की नीति में बांधा नहीं जा सकता । गुटनिरपेक्षता का दायरा बहुत सीमित है । गुटों से बाहर क्रियाशील होने की कल्पना इस अवधारणा में है ही नहीं । सारी नीति गुटों की राजनीति के आस-पास घूमती है ।
महाशक्ति गुटों की राजनीति पर प्रतिक्रिया करते रहना ही इस नीति का मुख्य लक्षण बन जाता है । या तो गुटों के आपसी झगड़ों में पंच बनने की कोशिश करना या दोनों से अलग रहते हुए एक के केवल इतने समीप जाने का प्रयत्न करना कि दूसरा बुरा न माने और यदि दूसरे के बुरा मानने का डर हो तो पहले से नाप-तौल कर दूर हटना या बारी-बारी से पास जाना या दूर हटना, यही गुटनिरपेक्षता की शैली रही है ।
6. राष्ट्रहित के बजाय नेतागिरी की नीति:
कतिपय आलोचक उसे ऊर्ध्वमूल नीति कहते हैं, ऐसी नीति जिसकी जड़ें ऊपर हैं नीचे नहीं । अपने देश में नहीं । राष्ट्रहित उसके केन्द्र में नहीं है । उससे राष्ट्रहित हो जाए यह अलग बात है । उसके केन्द्र में नेतागिरी की भावना रही है । मोर का नाच पांव कितने ही कमजोर हों गन्दे भी लेकिन पंख फैलाकर नाच होना चाहिए । विश्व के मंचों पर नेतागिरी चमकनी चाहिए ।
7. इस नीति द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं:
आलोचकों का कहना है कि गुटनिरपेक्षता की नीति के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में जो शक्ति-सन्तुलन के सिद्धान्त पर चल रही है हम कोई उल्लेखनीय परिवर्तन करने में भी असमर्थ रहे । जब तक शीत-युद्ध चलता रहा दुनिया प्रमुख शिविरों में बंटी रही । इन शिविरों ने भारत या मिस्र या यूगोस्लाविया के कहने से अपनी नीति में कहीं कोई परिवर्तन नहीं किया ।
भारत के विरोध के बावजूद अमरीकी सेनाओं ने कोरिया में 38वीं अक्षांश रेखा को पार कर लिया । चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया । लेबनान में अमरीकी फौजें और हंगरी व चेकोस्लोवाकिया में सोवियत फौजें घुस गयीं । 1962 में क्यूबा के सवाल पर अमेरिका और सोवियत संघ में टक्कर होते-होते बच् गयी, लेकिन उसका कारण गुटनिरपेक्ष देशों का दबाव नहीं था ।
पश्चिमी एशिया में चार बड़े अरब-इजरायल युद्ध हो गए और गुटनिरपेक्ष देशों की भूमिका नगण्य रही । अफ्रीका और एशिया के देशों की उपनिवेशवाद से मुक्ति के लिए गुटनिरपेक्ष देशों ने पर्याप्त शब्द बल का प्रयोग किया किन्तु उनके स्वातन्त्र्य का श्रेय गुटनिरपेक्षता को देना, घटनाओं की गलत व्याख्या करना होगा । अल्जीरिया, अंगोला, मोजाम्बिक जैसे देशों ने अपनी स्वतन्त्रता खूनी युद्ध के द्वारा प्राप्त की और अन्य देशों से भी साम्राज्यवादी ताकतें अपनी अन्दरूनी कमजोरियों या विवशताओं के कारण हटती रहीं ।
8. गुटनिरपेक्षता-एक दिशाहीन आन्दोलन:
कतिपय आलोचकों का मत है कि नई विश्व व्यवस्था का जिसमें शक्ति नहीं सद्भावना नियामक तत्व हो निर्माण करना तो दूर रहा गुटनिरपेक्ष आन्दोलन अपने आप में ही बिखरने लगा है । हवाना सम्मेलन (1979) की कार्यवाहियों से स्पष्ट हो गया था कि सम्पूर्ण आन्दोलन तीन खेमों में बंट गया है: एक में क्यूबा, अफगानिस्तान, वियतनाम, इथियोपिया, द यमन जैसे सोवियत संघ परस्त देश थे तो दूसरे में सोमालिया, सिंगापुर जैरे फिलिपीन्स, मोरक्को, मिस्र आदि अमरीकी परस्त देश ।
तीसरे खेमे में भारत यूगोस्लाविया और श्रीलंका जैसे देश थे । यह बंटवारा इस बात का सबूत था कि गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की अपनी कोई दिशा नहीं रह गयी और वह महाशक्तियों के खिलवाड़ का प्रतिबिम्ब मात्र रह गया था ।
9. गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों में बुनियादी एकता का अभाव:
आलोचकों का कहना है कि गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों में बुनियादी एकता भी नहीं पायी जाती । समृद्ध राष्ट्रों के शोषण के विरुद्ध मोर्चाबन्दी करना तो दूर रहा, वे आपस में एक-दूसरे की सहायता करने की भी कोई ठोस योजना नहीं बना सके ।
गुटनिरपेक्ष राष्ट्र एक-दूसरे का शोषण करने से भी बाज नहीं आते । तेल सम्पन्न राष्ट्रों ने अपने साथी विकासमान राष्ट्रों को भी किसी प्रकार की रियायत नहीं दी । अपनी जीवन-पद्धतियों की रक्षा के लिए भी गुटनिरपेक्ष देश कोई संयुक्त रणनीति नहीं बना पाए ।
10. गुटनिरपेक्षता एक मूल्य-रहित पैंतरा मात्र है:
ADVERTISEMENTS:
आलोचकों का कहना है कि वास्तव में गुटनिरपेक्षता अपने आप में कोई विचारधारा या सिद्धान्त नहीं है । गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में भारत नेपाल और श्रीलंका जैसे लोकतान्त्रिक देश हैं तो मोरक्को, इथियोपिया जैसे राजशाही देश भी रहे हैं ।
वियतनाम, क्यूबा, लाओस जैसे कम्यूनिस्ट देश इसमें हैं तो फौजी तानाशाही वाले इण्डोनेशिया, म्यांमार, पाकिस्तान, घाना, उगांडा जैसे देश भी इसमें रहे हैं । दूसरे शब्दों में, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के 120 देशों में से 10 देश भी ऐसे नहीं हें जिन्हें सच्चे अर्थों में लोकतान्त्रिक कहा जा सके । इन देशों की शासन-पद्धतियां ही भिन्न-भिन्न नहीं हैं अपितु अर्थव्यवस्था के स्वरूप और समस्याएं भी एक-दूसरे से बहुत भिन्न हैं ।
कई गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों में आपसी तनाव ने युद्ध का रूप धारण कर लिया है । अपने द्विपक्षीय मामलों को सम्मेलन के मंच पर लाने में नहीं चूकते । यदि गुटनिरपेक्षता और कुछेक नैतिक मूल्य एक-दूसरे के पर्याय होते तो आज सम्मेलन का स्वरूप इतना विशृंखलित और आत्मविरोधी नहीं होता ।
आलोचकों का यह भी कहना है कि युद्ध या संकट के समय गुटनिरपेक्ष देश अकेला रह जाता है जैसे चीनी आक्रमण के समय भारत रह गया था । फिर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का मार्ग इतना कुटिल है कि गुटनिरपेक्षता की माला जपते हुए भी राष्ट्रों ने अन्दर-ही-अन्दर गुटों से हाथ मिलाने की कोशिश की ।
1971 में सम्पन्न भारत-सोवियत सन्धि इसका प्रमाण है । मिस्र-सोवियत और इराक-सोवियत सन्धियां भी इसी ढर्रे पर सम्पन्न की गयी थीं । सैन्य-परामर्श और सैन्य-सहायता के स्पष्ट प्रावधान इन सन्धियों में थे ।