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Here is an essay on ‘Nuclear Non-Proliferation’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. परमाणु अप्रसार (Nuclear Non-Proliferation):
विश्व की पांच परमाणु शक्तियां जहां दुनिया को परमाणु अप्रसार की सीख देती हैं वहीं दूसरी ओर 1945 के बाद से उन्होंने हर नौ दिन में एक के औसत से परमाणु परीक्षण किए हैं । परमाणु विषयों की एक अग्रणी अमरीकी पत्रिका के अनुसार 1945 के बाद से विश्व में कम-से-कम 2060 ज्ञात परमाणु परीक्षण हुए हैं ।
इनमें से 85 प्रतिशत परीक्षण अमरीका तथा पूर्व सोवियत संघ द्वारा किए गए । 16 जुलाई, 1945 को न्यू मैक्सिको के आल्मागार्दो रेगिस्तान में अमेरिका द्वारा किये गये विश्व के पहले परमाणु परीक्षण के साथ ही परमाणु युग की शुरुआत हुई थी ।
इसके बाद 1949 में सोवियत संघ, 1952 में ब्रिटेन, 1958 में फ्रांस तथा 1964 में चीन अपना-अपना पहला परमाणु परीक्षण करके अमेरिकी बिरादरी में शामिल होते गये । इस बिरादरी में कमोबेश भारत भी तब शामिल हो गया जब उसने 18 मेई, 1974 को पोखरण में अपना प्रथम भूमिगत परमाणु परीक्षण किया । इसके साथ ही शायद कभी न खत्म होने वाली परमाणु परीक्षणों की घुड़दौड़ शुरू हो गयी ।
जहां शीतयुद्ध के प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी अमेरिका और सोवियत संघ अधिक-से-अधिक परीक्षण करके परमाणु क्षमता के मामले में एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहते थे, वहीं अन्य परमाणु सम्पन्न राष्ट्र भी कहां पीछे रहने वाले थे ।
फलत: आल्मागार्दो परीक्षण के 69 वर्ष पूरे होते-होते परीक्षणों की संख्या 2084 के पार जा पहुंची । 1945 से लेकर अब तक कुल 2060 परमाणु परीक्षण किये जा चुके थे । इसमें से अमेरिका ने सर्वाधिक 1054, रूस ने 715, ब्रिटेन ने 45, फ्रांस ने 210, चीन ने 45, भारत ने 6, पाकिस्तान ने 6 और उत्तर कोरिया ने 3 परीक्षण किये । हां, एक सन्तोषजनक बात यह है कि सोवियत संघ के विघटन के साथ समाप्त हुए शीतयुद्ध के बाद परमाणु परीक्षणों की संख्या में काफी कमी दिखाई पड़ी है ।
जहां आंशिक परीक्षण प्रतिबंध संधि लागू होने और शीतयुद्ध के समाप्त होने के बीच के 25 वर्षों में औसत वार्षिक परीक्षण संख्या लगभग 50 थी, वहीं जनवरी 1989 से दिसम्बर 1995 के सात वर्षों में यह औसत गिरकर लगभग 11 रह गयी ।
स्टाकहोम स्थित इण्टरनेशनल पीस रिसर्च इन्स्टीट्यूट (सिपरी) की प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार परमाणु बम बनाने के लिए दो प्रमुख सामग्रियां हैं – प्लूटेनियम और परिष्कृत यूरेनियम जिनका विश्व में कुल भण्डार इस समय क्रमश: एक हजार और 1300 टन है ।
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इससे 50 हजार परमाणु बम बनाये जा सकते हैं और इस प्रकार परमाणु हथियारों के वर्तमान भण्डार से दुगने हथियार और बनाए जा सकते हैं । यह स्थिति अत्यन्त खतरनाक है, किन्तु स्पष्ट है कि ‘दहलीज’ पर खड़ी शक्तियों (इजरायल, पाकिस्तान, भारत आदि) के पास इन पदार्थों का एक नगण्य भंडार है । इसकी बहुतायत तो परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्रों (अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस तथा चीन) के पास ही है, अत: परमाणु अप्रसार के बारे में कोई भी बड़ी शुरुआत इन्हीं पांच परमाणु शक्तियों की ओर से होनी चाहिए ।
उत्तरी कोरिया ने 25 मई, 2009 को 2-5 किलो टन क्षमता का भूमिगत नाभिकीय परीक्षण करके सारे विश्व को स्पष्ट तौर पर संकेत दे दिए कि वह नाभिकीय हथियारों को बनाने की ओर अग्रसर हैं । यह परीक्षण अक्टूबर 2006 में किए गए विस्फोट से पांच गुना बड़ा था । इसी दौरान उत्तरी कोरिया ने छोटी दूरी की मिसाइलों एवं मध्यम दूरी के प्रक्षेपण यान का भी सफल प्रक्षेपण किया ।
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द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद आणविक शक्ति में विभिन्न राष्ट्रों की बढ़ती हुई रुचि के कारण आणविक शस्त्रों के फैलाव का खतरा निरन्तर बढ़ने लगा । विशेषज्ञों ने विश्वास प्रकट किया कि जहां तक अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न है आणविक शस्त्र बनाने वाले राष्ट्रों की संख्या में वृद्धि होने से विश्व में तनाव एवं असुरक्षा के वातावरण में वृद्धि होगी ।
परमाणु अस्त्रों के उत्पादन को सीमित करने तथा उनके प्रयोग एवं परीक्षण पर रोक लगाने के सम्बन्ध में विश्व की दो महाशक्तियों – सोवियत संघ और अमरीका के मध्य बहुत लम्बी वार्ताओं के उपरान्त कतिपय समझौते हुए ।
जो इस प्रकार हैं:
1. आंशिक परमाणु परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (Partial Test Ban Treaty-PTBT) 1963:
मॉस्को में वार्तालाप के फलस्वरूप वायुमण्डल में अणुशक्ति परीक्षण पर प्रतिबन्ध लगाने के सन्दर्भ में एक सन्धि की शब्दावली पर सहमति हो गयी । उक्त सन्धि पर 5 अगस्त, 1963 को तीन अणु शक्तियों के विदेश मन्त्रियों ने संयुक्त राष्ट्र के महासचिव की उपस्थिति में हस्ताक्षर किये एवं उसे 10 अक्टूबर, 1963 को स्वीकार किया गया ।
इससे पूर्व हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्रों ने तथा संयुक्त राष्ट्र के 98 सदस्यों ने एवं 7 गैर-सदस्यों ने उक्त सन्धि की समुष्टि की । फ्रांस तथा चीन गणराज्य ने इस सन्धि को स्वीकार करने में असमर्थता प्रकट की ।
सन्धि की प्रस्तावना में हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्रों ने, अपना प्रमुख उद्देश्य ”संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों के अनुसार कठोर अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण के सब प्रकार के तथा पूर्ण नि:शस्त्रीकरण के बारे में समझौता करने में शीघ्रता से सफलता पाना, अणु-शस्त्रों सहित सब तरह के शस्त्रों के परीक्षण तथा उत्पादन को समाप्त करने की दृष्टि से शस्त्रों की होड़ को समाप्त करना तय किया ।”
”आणविक शस्त्रों के विस्फोट के सब प्रकार के परीक्षणों को समाप्त करने के लिए” सब राष्ट्रों ने अपनी दृढ़ इच्छा प्रकट की तथा ”रेडियो क्रियाशील पदार्थों द्वारा मनुष्य के चारों ओर के वायुमण्डल को विषाक्त न होने देने के विषय में” बहुत अधिक बल दिया ।
यह सन्धि पांच धाराओं वाली है, जो निम्नांकित हैं:
a. पहली धारा में तीनों राष्ट्रों द्वारा संकल्प किया गया कि वे अपने अधिकार-क्षेत्र और नियन्त्रण में विद्यमान किसी भी प्रदेश के वायुमण्डल में, इसकी सीमाओं में, बाह्य अन्तरिक्ष में, प्रादेशिक अथवा महासमुद्रों के जल में कोई भी आणविक विस्फोट नहीं करेंगे ।
b. दूसरी धारा में संशोधन की व्यवस्था है । सन्धि में संशोधन का प्रस्ताव किसी भी राष्ट्र की सरकार द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है । यदि हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्रों में से एक-तिहाई राष्ट्र प्रस्ताव के पक्ष में हों तो संशोधनों पर विचार हो सकता है ।
c. तीसरी धारा के अनुसार इस सन्धि पर कोई भी देश हस्ताक्षर कर सकता है । यह व्यवस्था है कि हस्ताक्षरकर्ता देश इस सन्धि पर अपनी संसद या राष्ट्रीय परिषद का समर्थन प्राप्त करेगा और ऐसे समर्थन को सोवियत संघ, अमरीका व ग्रेट ब्रिटेन के पास जमा कराना पड़ेगा ।
d. चौथी धारा में लिखा है कि यह सन्धि असीमित काल के लिए है । यद्यपि हस्ताक्षरकर्ता प्रत्येक राष्ट्र को यह अधिकार है कि वह अपनी राष्ट्रीय प्रभुसत्ता का प्रयोग करते हुए उस समय स्वयं को इस सन्धि के बन्धनों से मुक्त कर ले, जब वह यह अनुभव करे कि इससे उसके देश का सर्वोच्च हित संकट में पड़ गया है, तथापि हटने वाले राष्ट्र को तीन माह पूर्व नोटिस देना होगा ।
e. पांचवीं धारा के अनुसार इस सन्धि के अंग्रेजी व रूसी भाषा के दोनों रूप समान रूप से प्रामाणिक समझे जायेंगे ।
इस सन्धि में जमीन के अन्दर किये जाने वाले (भूमिगत) अणु परीक्षणों को सम्मिलित नहीं किया गया है । संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ऊथांट ने इस सन्धि का महत्व अपने 1962-63 के वार्षिक प्रतिवेदन में प्रस्तुत किया ।
उन्होंने कहा- ”परीक्षण प्रतिबन्ध की सन्धि यद्यपि तीन दशाओं तक सीमित है एवं नि:शस्त्रीकरण की मुख्य समस्या से मिलती-जुलती है, परन्तु इसके अतिरिक्त भी वह अपने आप में एक प्रमुख उद्देश्य है ।” इससे आणविक विस्फोटों से उत्पन्न बढ़ती हुई रेडियो क्रियाशील धूल के खतरे से भी मानवता को बचाने का उद्देश्य सीधी तरह पूरा हो जाता है ।
इसके अतिरिक्त, आणविक शस्त्रों पर रोक तथा महाविनाश के नये शस्त्रों के विकास पर प्रतिबन्ध लगाने में सहायता मिलेगी एवं इस तरह शस्त्रों की होड़ को कम किया जा सकेगा । इस सन्धि से भूमिगत परीक्षणों पर प्रतिबन्ध सहित एक विस्तृत सन्धि करने का मार्ग उपलब्ध हो सकेगा ।
2. परमाणु अप्रसार सन्धि (NPT) (1968):
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद अणु विज्ञान तेजी से बहुत-से राष्ट्रों में फैल गया । सारे विश्व के कई हजार वैज्ञानिक एवं तकनीशियन इस नये कार्य में प्रशिक्षित किये गये । अणु क्षेत्र में इस तकनीकी विकास की प्रक्रिया से परमाणु शक्ति के शान्तिपूर्ण उपयोग की दृष्टि से बहुत प्रगति हुई । दुर्भाग्यवश, अणु शस्त्र बनाने का कार्यक्रम अणु के शान्तिपूर्ण कार्यक्रम की तुलना में अन्त तक गुप्त रहता है ।
इस प्रकार अणुशक्ति में समस्त विश्व की बढ़ती हुई रुचि के कारण आणविक शस्त्रों के जमा होने से खतरा निरन्तर बढ़ता जा रहा है । यह चिन्ता 1959 के बाद से संयुत्त राष्ट्र महासभा में स्वीकृत हुए बहुत-से प्रस्तावों से सुस्पष्ट है जिसमें अणु शस्त्रों के और अधिक विस्तार को रोकने के लिए समझौते के प्रयास के लिए कहा गया ।
1967 में प्रकाशित विशेषज्ञों के प्रतिवेदन में कहा गया था कि अणु शस्त्र बनाने वाली वर्तमान पांच महाशक्तियों के अतिरिक्त विश्व में सात अन्य राष्ट्र भी ऐसे हैं, जो रचनात्मक कार्यों में प्रयुक्त अपने साधनों के अतिरिक्त आणविक शस्त्रीकरण को भी विकसित कर सकते हैं ।
विशेषज्ञों ने विश्वास प्रकट किया कि जहां तक अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न है अणु शस्त्र बनाने वाले राष्ट्रों की संख्या में वृद्धि होने पर वर्तमान आणविक शस्त्रागारों का विस्तार होने से समस्त विश्व में अधिक तनाव एवं असुरक्षा के वातावरण में वृद्धि होगी ।
विशेषज्ञों की यह मान्यता थी कि सुरक्षा की समस्या का निदान आणविक शस्त्र रखने वाले देशों की संख्या बढ़ाने से नहीं हो सकता एवं न ही आणविक शस्त्र रखने वाले वर्तमान राष्ट्रों की शक्ति से इसे पाया जा सकता है ।
सोवियत संघ और अमरीका द्वारा अगस्त 1967 में अलग-अलग परन्तु एक जैसी सन्धियों के प्रारूप प्रस्तुत किये गये जिनमें अणु शस्त्रों के और अधिक संगृहीत न करने के लिए जोर दिया गया था । 12 जून, 1968 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भारी बहुमत से उक्त प्रस्ताव को स्वीकृति प्रदान कर दी ।
1 जुलाई, 1968 को परमाणु अप्रसार सन्धि (Non-Proliferation Treaty) हस्ताक्षर के लिए प्रस्तुत की गयी एवं उसी दिन अमरीका, ब्रिटेन, सोवियत संघ तथा 50 से अधिक राष्ट्रों ने उस पर हस्ताक्षर कर दिये एवं वह सन्धि 5 मार्च, 1970 से प्रभावी हो गयी ।
उक्त सन्धि के अन्तर्गत यह व्यवस्था थी कि कोई भी अणु शक्ति वाला राष्ट्र अकेले या मिलकर अपने शस्त्र किसी भी अन्य राष्ट्रों को नहीं देंगे । अणु-शक्ति वाले देशों को आयुध वाले राष्ट्रों से किसी भी प्रकार के आणविक अस्त्र प्राप्त करने का कोई प्रयास नहीं करना चाहिए ।
अन्तर्राष्ट्रीय आणविक शक्ति संस्था के साथ वार्तालाप के उपरान्त किये जाने वाले समझौते के अन्तर्गत गैर-अणु शस्त्र वाले देशों द्वारा संरक्षण मानकर चलने की व्यवस्था है जिससे सन्धि के अन्तर्गत उत्तरदायित्वों को पूरा करने की व्यवस्था का मूल्यांकन हो सके ।
सन्धि में यह भी व्यवस्था है कि गैर-अणु शक्ति वाले देशों की बिना किसी भेदभाव के कम कीमत पर आणविक विस्फोटों के शान्तिपूर्ण उपयोग के द्वारा प्राप्त बड़े लाभ मिल सकेंगे । सन्धि पर हस्ताक्षर करने वाला प्रत्येक राष्ट्र, आणविक शस्त्रों की होड़ को समाप्त करने एवं आणविक निःशस्त्रीकरण को प्रभावशाली बनाने के लिए अपने उत्तरदायित्व का पालन करने के लिए बाध्य है ।
यदि उक्त सन्धि के कारण किसी राष्ट्र के सर्वोच्च हितों का हनन होता हो एवं उसके कारण कोई असाधारण घटनाएं हो रही हों तो वे सन्धि से अलग हो सकने के लिए स्वतन्त्र है । सन्धि में यह व्यवस्था थी कि ‘सन्धि के लागू होने के 25 वर्ष के उपरान्त एक सम्मेलन बुलाकर उक्त सन्धि को अनिश्चित काल तक जारी रखने अथवा किसी अतिरिक्त निश्चित अवधि के लिए उसे बढ़ाने पर निर्णय लिया जायेगा ।’
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ऊथांट ने उक्त सन्धि के सन्दर्भ में अपनी टिपणी में कहा कि आणविक महायुद्ध के खतरे को सीमित करने में सहयोग करने के अतिरिक्त ”यह सन्धि विकासशील राष्ट्रों के लिए नये अवसर प्रदान करेगी क्योंकि अस्त्रों के उत्पादन तथा अधिग्रहण को त्यागने के उपरान्त ये राष्ट्र अपनी सामग्री एवं धन के बहुत बड़े अपव्यय के भार से मुक्त होकर, उपलब्ध साधनों को आर्थिक, सामाजिक तथा वैज्ञानिक प्रगति में लगा सकते हैं ।”
उन्होंने यह भी कहा कि- “इस सन्धि ने विशेषकर आणविक शस्त्रों वाले महादेशों के ऊपर एक नया एवं गम्भीर उत्तरदायित्व डाल दिया है जिसके कारण आणविक अस्त्रों की होड़ को समाप्त करने, आणविक निःशसीकरण तथा सब प्रकार के एवं पूर्ण निःशसीकरण के सन्दर्भ में सन्धि स्थापित करने के उपायों के बारे में वार्तालाप चलाया जा सकता है ।”
सन्धि के प्रारूप पर सबसे अधिक आपत्ति फ्रांस, इटली, पश्चिमी जर्मनी और भारत को थी । भारत ने आणविक अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये । भारत के अनुसार यह संधि भेदभावपूर्ण है, असमानता पर आधारित है और एकपक्षीय एवं अपूर्ण है ।
भारत को अपनी इस नीति के कारण परमाणु क्लब के सदस्यों की कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा । भारत का मानना है कि आणविक आयुधों के प्रसार को रोकने और पूर्ण निशस्त्रीकरण के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्षेत्रीय नहीं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किये जाने चाहिए ।
11 मई, 1995 को अप्रसार सन्धि के पक्षकार राज्यों ने इस सन्धि का अनिश्चितकालीन विस्तार करने का निर्णय लिया । अप्रसार सन्धि की समीक्षा और विस्तार सम्मेलन के दौरान, पक्षकार राज्यों ने इस सन्धि के सार्वभौमिकरण को प्राथमिकता देने का निर्णय लिया और विशिष्ट रूप से भारत, इजरायल और पाकिस्तान से इस सन्धि में शामिल होने के लिए आह्वान किया ।
ऐसा भी कहा जाता है कि यह सन्धि छोटे राष्ट्रों के हितों को सुरक्षित रखने और समयानुकूल परिवर्तन करने में सक्षम नहीं है । इस सन्धि के द्वारा एक ओर तो यह प्रतिबन्ध लगाया गया कि जो राष्ट्र अभी तक परमाणु बम नहीं बना सके हैं, वे भविष्य में भी नहीं बनायेंगे तथा दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से अणुविहीन राष्ट्रों को अणु शक्तिसम्पन्न राष्ट्र द्वारा आणविक हमले के समय जो गारण्टी दी गयी, वह अपर्याप्त है ।
इसके अतिरिक्त, परमाणु सन्धि करने वाले राष्ट्रों के पास ऐसा कोई मापदण्ड नहीं है जिससे सैनिक कार्यों व असैनिक कार्यों में स्पष्ट रूप से विभाजन किया जा सके ताकि वह शंका न रहे कि असैनिक कार्यों में किये गये अणु प्रयोग सैनिक कार्य में प्रयुक्त हो सकेंगे ।
बड़े राष्ट्रों ने यह व्यवस्था नहीं की कि वे स्वयं भी अब अणु शक्ति का उत्पादन और प्रसार नहीं करेंगे । इस सन्धि का अर्थ यह लगाया जाता है कि अणु प्रतियोगिता में रूस और अमरीका अन्य किसी राष्ट्र को आगे नहीं आने देना चाहते ।
3. साल्ट-प्रथम समझौता:
4 जुलाई, 1974 को अमरीका और सोवियत संघ के मध्य दस-वर्षीय अणु आयुध परिसीमन समझौता हुआ, जिसे 31 मार्च, 1976 से लागू किया जाना निश्चित किया गया । समझौते के अनुसार दोनों ने 150 किलो टन से अधिक भूमिगत आणविक परीक्षणों को रोकने तथा अपने प्रक्षेपास्त्रों पर नयी सीमा लगाने का निश्चय प्रकट किया । यह निश्चित किया गया कि शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए किये गये विस्फोट इस आंशिक प्रतिबन्ध व्यवस्था की परिधि में नहीं आयेंगे ।
4. साल्ट-द्वितीय समझौता:
1979 में अमरीका और सोवियत संघ में साल्ट-2 समझौते पर हस्ताक्षर हुए । इसके बाद इस सन्धि का दोनों देशों की संसद द्वारा अनुमोदन होना था । अमरीकी कांग्रेस इस पर विचार कर ही रही थी कि अफगानिस्तान में सोवियत संघ का हस्तक्षेप हो गया । राष्ट्रपति कार्टर ने इस हस्तक्षेप के विरोध में साल्ट-2 के अनुमोदन को स्थगित करा दिया और इस प्रकार एक गतिरोध की स्थिति आ गयी ।
5. मध्यम दूरी प्रक्षेपास्त्र सन्धि:
वाशिंगटन शिखर सन्धि पर 8 दिसम्बर, 1987 को रीगन और गोर्बाच्योव के हस्ताक्षर हो गये । सन्धि में दोनों देश मध्यम व कम दूरी के प्रक्षेपास्त्र नष्ट करने को सहमत हो गये । इस सन्धि से कुल मिलाकर 1,139 परमाणु हथियार नष्ट किये जाने थे । इन हथियारों की मारक क्षमता 50 किमी. से 5 हजार किमी. है ।
यह सभी प्रक्षेपास्त्र भूमि पर से मार करने वाले हैं । इस सन्धि का महत्व इस बात में नहीं है कि इससे कितनी विनाशक सामग्री खत्म हुई है । इसके विपरीत इसका महत्व गुणात्मक है । विश्व में इस बात का भरोसा पैदा हुआ है कि इन महाशक्तियों में अपने विनाशकारी अस्त्रों को खत्म करने का साहस तो पैदा हुआ ।
6. स्टार्ट-I संधि:
31 जुलाई, 1991 को मास्को में अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश और सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाच्योव के शिखर सम्मेलन में सामरिक हथियारों में कटौती की ऐतिहासिक संधि ‘स्टार्ट-I’ पर हस्ताक्षर हुए । संधि की शर्तों के अनुसार दोनों महाशक्तियां अपने परमाणु शस्त्रों में स्वेच्छा से 30 प्रतिशत कटौती करने को सहमत हो गयीं । यह संधि पहला बड़ा औपचारिक समझौता था जिसके माध्यम से सर्वाधिक खतरनाक एवं विनाशकारी शस्त्रों में इतनी कटौती के लिए स्वेच्छा से सहमति हुई ।
7. स्टार्ट-II संधि:
30 जनवरी, 1993 को अमरीकी राष्ट्रपति बुश और रूसी राष्ट्रपति येल्लसिन ने मास्को में ऐतिहासिक सन्धि स्टार्ट-II पर हस्ताक्षर किये । स्टार्ट-II परमाणु हथियारों में कटौती सम्बन्धी पहली संधि का अगला चरण है जिस पर जुलाई 1991 में राष्ट्रपति बुश एवं मिखाइल गोर्बाच्योव ने हस्ताक्षर किये थे । इस संधि का उद्देश्य दोनों देशों के परमाणु हथियारों में दो-तिहाई कटौती करना है – यानी वर्तमान लगभग 20,000 को कम करके 6,500 रखना है (अमरीका के 3,500 और रूस के 3,000) ।
इस प्रकार अमरीका के शस्त्रागार में परमाणु हथियारों की संख्या उतनी ही रह जायेगी जितनी 1960 में थी और रूसी हथियारों की संख्या उतनी ही रह जायेगी, जितनी 1970 में थी । राष्ट्रपति येल्तसिन ने इस संधि को अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा के क्षेत्र में बहुत बड़ी उपलब्धि बताया ।
8. व्यापक आणविक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (CTBT):
सी.टी.बी.टी. अर्थात् व्यापक आणविक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि विश्व भर में किए जाने वाले परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाने के उद्देश्य से लायी गयी सन्धि या समझौता है जिसका 1993 में भारत अन्य देशों के अतिरिक्त अमेरिका के साथ सह प्रस्तावक था; लेकिन 1995 में उसने यह कहते हुए कि यह सन्धि सार्वभौमिक परमाणु निरस्त्रीकरण के समयबद्ध कार्यक्रम से जुड़ी हुई नहीं है, सह प्रस्तावक बनने से इन्कार कर दिया ।
भारत के अनुसार सन्धि के प्रस्तावित मसौदे में परमाणु निरस्त्रीकरण का कोई प्रावधान नहीं रखा गया है और यह सन्धि बहुत ही संकीर्ण है, क्योंकि यह केवल नए विस्फोट रोकने की बात करती है, पर नए तकनीकी विकास एवं नए परमाणु शस्त्रों के विषय में चुप है ।
सन्धि का स्वरूप, परमाणु राष्ट्रों की तकनीकी उपलब्धता को बरकरार रखकर उनके हितों की रक्षा करने के लिए अधिक है न कि सपूर्ण निरस्त्रीकरण के लिए । महासभा में बहस के दौरान अनेक देशों ने भारत द्वारा उठायी गई आपत्तियों को सही बताया ।
इस सन्धि पर 24 सितम्बर, 1996 से हस्ताक्षर प्रारम्भ हुए थे । अब तक कुल मिलाकर 164 राष्ट्रों ने सन्धि पर हस्ताक्षर एवं पुष्टिकरण किया है । किन्तु सन्धि के प्रभावी होने के लिए उन सभी 44 देशों द्वारा इसकी पुष्टि किया जाना आवश्यक है जिनके पास परमाणु शस्त्र अथवा परमाणु विद्युत् संयन्त्र अथवा परमाणु क्षमता उपलब्ध है । विविध परमाणु क्षमताओं वाले इन 44 राष्ट्रों में से अभी तक 25 ने ही सन्धि का अनुमोदन किया है । 13 अक्टूबर, 1999 को अमेरिकी सीनेट ने इसे 48 के मुकाबले 51 मतों से अस्वीकार कर दिया था ।
सन्धि के अनुमोदन के लिए दो-तिहाई मतों का इसके पक्ष में होना आवश्यक था । भारत, पाकिस्तान एवं उत्तर कोरिया ने इस पर अभी तक हस्ताक्षर भी नहीं किए हैं । परमाणु शक्ति के रूप में घोषित पांच राष्ट्रों- अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस व चीन ने यद्यपि इस पर हस्ताक्षर कर दिए हैं, किन्तु इनमें से केवल ब्रिटेन व फ्रांस ने ही सन्धि की पुष्टि की है ।
सी.टी.बी.टी. के कार्यान्वयन की प्रगति के मूल्यांकन के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा एक विशेष सम्मेलन का आयोजन 6-8 अक्टूबर, 1999 को विएना में किया गया जिसमें 92 देशों के 400 से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया । इस सम्मेलन का आयोजन सन्धि के उसी प्रावधान के अन्तर्गत किया गया था जिसमें कहा गया है कि सन्धि को हस्ताक्षर के लिए उपलब्ध कराए जाने की तिथि (24 सितम्बर, 1996) के तीन वर्ष के भीतर यदि विविध परमाणु क्षमताओं वाले सभी 44 राष्ट्रों द्वारा इस सन्धि का अनुमोदन नहीं किया गया तो संयुक्त राष्ट्र के विशेष सम्मेलन में आगे की कार्यवाही के लिए विचार किया जाएगा ।
Essay # 2. आणविक शस्त्रों का विस्तार : परमाणु की राजनीति (Expansion of Atomic Weapons : Politics of Bombs):
अगस्त 1945 के आरम्भ में अमरीका के पास केवल दो परमाणु बम थे और हिरोशिमा तथा नागासाकी में उनके इस्तेमाल के साथ ही अमरीका का परमाणु बमों का भण्डार खाली हो गया था । बहरहाल चार वर्ष तक परमाणु बम की जानकारी और भण्डारण के क्षेत्र में अमरीका का एकाधिकार रहा । लेकिन 29 अगस्त, 1949 को यह एकाधिकार समाप्त हुआ, जब सोवियत संघ ने अपना पहला सफल परमाणु-बम परीक्षण किया । इस तरह परमाणु शस्त्रों की दौड़ या प्रतियोगिता चल पड़ी ।
मई 1951 में अमरीका ने और नवम्बर 1952 में सोवियत संघ ने अपने प्रथम हाइड्रोजन शक्ति परीक्षण किये । 1954-55 में दोनों ने हाइड्रोजन बम बना लिये । इन दोनों के अतिरिक्त 1952 में ब्रिटेन, 1960 में फ्रांस और 1964 में चीन भी परमाणु शस्त्रों की दौड़ में शामिल हुए । 1974 में भारत ने भी पोखरण में आणविक विस्फोट कर दिखाया । मई 1998 में भारत ने पांच तथा पाकिस्तान ने छ: परमाणु विस्फोट किए ।
यों तो 1955 तक दोनों महाशक्तियों ने अपने परमाणु शस्त्र भण्डार बना लिये थे । लेकिन उनका कारगर उपयोग करने की क्षमता केवल अमरीका में ही थी; क्योंकि अमरीकी सामरिक हवाई कमान ने सोवियत संघ के इर्द-गिर्द यूरोप और तुर्की में अपने सैन्य अड्डे बना रखे थे, जहां से उसके वायुयान उड़कर सोवियत संघ की धरती पर परमाणु बम गिरा सकते थे ।
परन्तु अक्टूबर, 1957 में रूसी ‘स्पूतनिक’ के सफल परीक्षण के बाद दूरगामी या अन्तर्महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्रों का युग आरम्भ हुआ । अब दोनों महाशक्तियां घर बैठे एक-दूसरे पर और साथ ही दुनिया के किसी भी भू-क्षेत्र पर बम बरसा सकती थीं ।
इसके अतिरिक्त, दोनों महाशक्तियों के पास तथा सीमित स्तर पर ब्रिटेन और फ्रांस के पास भी ऐसी परमाणु चालित पनडुबियां थीं, जिनसे प्राय: मध्यम दूरी के क्षेत्र में काफी दूर तक परमाणु प्रक्षेपास्त्रों द्वारा आक्रमण किया जा सकता था ।
लगभग एक दशक पूर्व दोनों महाशक्तियों ने एम.आई.आर.वी. या ‘मिर्व’ नामक ऐसे प्रक्षेपास्त्रों का आविष्कार किया, जिन पर एक साथ बहुत से मेगाटन के परमाणु बम लादे जा सकते हैं तथा कम्प्यूटर के पूर्व निर्देश पर अलग-अलग कई निशानों पर ठीक-ठीक और बड़ी तेजी से गिराये जा सकते हैं ।
दोनों महाशक्तियों तथा फ्रांस, ब्रिटेन और चीन के पास नजदीकी क्षेत्रों पर परमाणु आक्रमण करने के लिए तेज रफ्तार वाले वायुयानों से लैस बड़े हवाई बेड़े भी हैं । इस प्रक्षेपण व्यवस्था के अतिरिक्त पाल्मे रिपोर्ट के अनुसार, अब विश्व में 50,000 से अधिक परमाणु बम या ‘वारहैड’ हैं ।
इस स्थिति की भीषणता को दर्शाते हुए ओसलो (नॉर्वे) की विश्वविख्यात इण्टरनेशनल पीस रिसर्च इन्स्टीट्यूट के निदेशक तथा नि:शस्त्रीकरण विशेषज्ञ मारेक थी ने कहा है- ”वर्तमान समय में परमाणु शस्त्रों के बारे में निश्चित आंकड़े संकलित करना कठिन है । फिर भी अनुमान है कि आज की प्रलयंकारी मशीन लगभग 60,000 परमाणु शस्त्रों से लैस है । आम तौर पर यह माना जाता है कि पूर्वी और पश्चिमी शक्तियों के परमाणु शस्त्र भण्डारों की कुल विध्वंस शक्ति हिरोशिमा वाले बम जैसे दस लाख बमों के बराबर अर्थात्, 13 अरब एम.टी.एन.टी. है ।…दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि आज के परमाणु शस्त्र भण्डार में प्रति 1,000 मनुष्यों के लिए एक हिरोशिमा जैसा बम मौजूद है । यहां पर याद रखना प्रासंगिक होगा कि हिरोशिमा में कुल मृतकों की संख्या साढ़े तीन लाख थी ।”
लन्दन के अन्तर्राष्ट्रीय सामरिक अध्ययन संस्थान ने कहा है कि महाशक्तियों के निजी शस्त्रागार में लगभग 1,500 परमाणु हथियारों की प्रतिवर्ष वृद्धि हो रही है । “1987-88 में सैनिक सन्तुलन” विषयक संस्थान के प्रकाशन में बताया गया कि पिछले वर्ष अमरीका ने 1,000 हथियार बनाये और सोवियत संघ ने 4 हजार ।
अमरीका के पास कुल 13,000 परमाणु आयुध हैं जबकि रूस के पास 10,800 हैं । ये आयुध हिरोशिमा जैसे कई लाख नगरों का सफाया करने की घातक क्षमता रखते हैं । हिरोशिमा में लगभग दो लाख लोग असमय में ही काल के गाल में समा गये थे ।
इस समय जितने अस्त्र उपलब्ध हैं उनसे एक साथ 240 अरब लोगों को मारा जा सकता है, जबकि आज सम्पूर्ण विश्व की जनसंख्या मात्र 6.82 अरब है । पिछले 50 वर्षों में महाशक्तियों ने इतने अधिक मेगाटन शक्ति के परमाणु बम बना लिये हैं कि उनसे दूसरे विश्व-युद्ध की ही तरह के लगभग 5 हजार युद्ध लड़े जा सकते हैं ।
इसके बावजूद पाल्मे रिपोर्ट के अनुसार प्रतिवर्ष अमरीकी और सोवियत भण्डारों में परमाणु अस्त्र बढ़ते जा रहे हैं । एक वीभत्स चक्र जैसी स्थिति बन गयी है । राजनीतिक तनाव के फलस्वरूप शस्त्र परिसीमन वार्ताएं मुश्किल बन गयीं । उधर बढ़ती हुई शस्त्र प्रतिस्पर्द्धा के फलस्वरूप राजनीतिक तनाव और अधिक तीव्र होते गये ।
हथियारों की होड़ का ताजा उदाहरण है अमरीका का ‘न्यूट्रॉन बम’ जिसके निर्माण को राष्ट्रपति कार्टर ने रोक दिया था । लेकिन राष्ट्रपति रीगन ने उसके निर्माण के पुन: आदेश दे दिये । न्यूट्रॉन बम वास्तव में एक ऐसा हाइड्रोजन बम है, जिसमें तीव्र विस्फोट नहीं होता और इसलिए सम्पत्ति का नाश भी कम से कम होता है ।
इसके विपरीत, इससे मुक्त होने वाली न्यूट्रॉन गोली से मनुष्य और अन्य जीव-जन्तुओं के लिए तुरन्त या विलम्बित मृत्यु निश्चित है । न्यूट्रॉन बम की पूरी संहारक शक्ति उसके उन असंख्य न्यूट्रॉनों में है जो बड़ी मात्रा में देर तक मुक्त होते रहते हैं क्योंकि घनीभूत रेडियोधर्मिता जीवित वस्तुओं के लिए घातक है और इससे जीवित कोशाएं तुरन्त नष्ट हो जाती हैं ।
इसलिए इसके प्रभाव में आने वाले प्रत्येक मनुष्य की मृत्यु करीब-करीब निश्चित है । इसकी संहारकता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि हाइड्रोजन बम जैसे भयंकर बम में भी मरने वालों और घायलों का अनुपात एक और तीन होता है मगर न्यूट्रॉन बम में इसके उल्टे यदि एक जख्मी होगा तो तीन मरेंगे ।
न्यूट्रॉन बम का प्रभाव कहां तक जा सकता है और इसका बचाव क्या है ? इसका दारोमदार इस बात पर है कि न्यूट्रॉन बम कहां और कितनी दूर छोड़ा गया ? न्यूट्रॉन परमाणु का एक ऐसा कण है जिस पर शून्य विद्युत् चार्ज रहता है, इसलिए सामान्य तरीकों से इसे रोका नहीं जा सकता ।
एक परम्परागत परमाणु बम का प्रभाव करीब 1.6 किलोमीटर तक रहता है मगर क्योंकि न्यूट्रॉन बम का उपयोग सीमित क्षेत्र में व्यक्तियों को मारने के लिए किया जायेगा इसलिए इसकी व्यापकता भी अधिक नहीं होगी ।
सामान्यतया 15 सेमी. मोटी कंक्रीट की दीवार या 4 सेमी. मोटी इस्पात की दीवार ही इन कणों के प्रभाव को रोक सकती है । दूसरे शब्दों में, बमों से सुरक्षा के लिए बनाये गये सुरक्षित मकानों या खन्दकों में न्यूट्रॉन बम से बचाव हो तो सकता है मगर खुले मैदान में आमने-सामने की लड़ाई में न्यूट्रॉन बम से कोई बचाव नहीं ।
एक ऐसे बम की कल्पना काफी समय से वैज्ञानिक और सैनिक क्षेत्रों में होती रही है जो सम्पत्ति को नष्ट किये बिना केवल युद्ध के लिए सामने आये हुए सिपाहियों को ही नष्ट करे । यद्यपि अमरीका ने इस बम का सफल परीक्षण किया था और दो दशक से सोवियत संघ में इस हथियार पर काम हो रहा था । 1952 में ही सोवियत संघ में इस प्रकार की जानकारी प्रकाशित हुई थी जिससे न्यूट्रॉन बमों के विकास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता था ।
न्यूट्रॉन बम पैशाचिक परमाणु हथियार है । यह साम्राज्यवादी शक्तियों की अमानवीयता को प्रकट करता है, जिसकी दृष्टि में मानव का मूल्य कुछ भी नहीं है । इससे प्राणियों का संहार होगा तथा कारखानों व बैंक की रक्षा की जायेगी, क्योंकि उनका सम्बन्ध मात्र लाभ से है, मानव मूल्यों से नहीं ।
न्यूट्रॉन जैविकी की खोजों से प्रकट होता है कि न्यूट्रॉन विकिरण का कैंसर रोग सम्बन्धी प्रभाव एक्स-किरणों या गामा-किरणों के विकिरण से चार गुना अधिक होता है । अगर इसी तथ्य पर विचार किया जाय कि ऐसी आनुवंशिकी क्षति से आने वाली पीढ़ियों में भी रोग उत्पन्न हो जायेंगे तो बिना किसी अतिशयोक्ति के यह कहा जा सकता है कि यह मानव जाति के लिए एक अत्यधिक भयावह खतरा है ।
वर्तमान में अमरीका तथा रूस दोनों ही देशों ने अपने-अपने यहां कंक्रीट से बने भूमिगत बंकरों में काफी बड़ी संख्या में प्रक्षेपास्त्र जमा कर रखे हैं । संकेत मिलते ही प्रक्षेपास्त्र अपने स्थान से निकलकर कुछ ही मिनटों में अपने लक्ष्यों पर पहुंचकर कहर ढा सकते हैं ।
कंक्रीट से बने सुरक्षित स्थानों पर इन प्रक्षेपासों को इसलिए रखा गया है, ताकि साधारण बमबारी से उन्हें कोई क्षति नहीं पहुंचे । इस तरह रखे गये प्रक्षेपास्त्र तभी नष्ट हो सकते हैं, जब उनको जहां रखा गया है, उस जगह से 400 मीटर तक की परिधि में कहीं भी कम-से-कम एक मेगाटन की क्षमता वाला बम डाला जाये ।
इस खतरे से बचने के लिए इन प्रक्षेपास्त्रों को एक ही स्थान पर रखकर बड़े गोपनीय रूप में अलग-अलग स्थानों पर रखा जाता है और वहां भी जमीन के अन्दर बनी हुई सुरंगों के द्वारा उन्हें अक्सर इधर-उधर स्थानान्तरित किया जाता रहता है ।
उद्देश्य यही है कि यदि सम्भावित परमाणु युद्ध में आक्रमण की पहल शत्रु देश करे तब भी हमले का लक्ष्य बने देश के पास इतने प्रक्षेपास्त्र अवश्य बच जायें कि वह जवाबी हमले में शत्रु को तहस-नहस कर सके । इसी उद्देश्य से परमाणु हथियारों से युक्त अनेक प्रक्षेपास्त्र ऐसी पनडुब्बियों में भी लगे रहते हैं, जो तीन माह तक समुद्र के अन्दर रह सकती हैं ।
आणविक युद्ध केवल राजनेताओं अथवा वैज्ञानिकों की सनक के कारण ही नहीं, बल्कि मानवीय अथवा यान्त्रिक भूल के कारण भी हो सकता है । इस प्रकार की भूल अतीत में भी अनेक बार विश्व को आणविक युद्ध के कगार तक ले जा चुकी है ।
1961 में जब चन्द्रमा से लौटी किसी तरंग को अमरीकी रडारों ने पकड़ा तो उस तरंग का अर्थ यह समझा गया कि आणविक आक्रमण के लिए सोवियत संघ के विमान अमरीका की ओर चल पड़े हैं । तत्काल अमरीका के बम-वर्षकों को भी सोवियत संघ पर आणविक आक्रमण का आदेश दे दिया गया । विमान अपने लक्ष्य की ओर उड़ भी चले, इसके लगभग एक घण्टे बाद वस्तुस्थिति की जानकारी मिली, तो उन बम-वर्षक विमानों को वापस बुला लिया गया ।
उन दिनों प्रक्षेपास्त्र नहीं बन पाये थे, इसीलिए विमानों को वापस बुलाने का समय मिल गया । आज प्रक्षेपास्त्रों के युग में तो इस एक घण्टे की अवधि में आणविक युद्ध अपनी पूरी गति से आरम्भ हो सकता है । 9 नवम्बर, 1979 को भी गलतफहमी में इसी प्रकार के आदेश दे दिये गये थे, मगर उन्हें तत्काल सुधार लिया गया ।
6 जून, 1980 को भी अमरीकी कम्प्यूटरों ने सूचना दी कि सोवियत संघ ने अपने अन्तरमहाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्रों को अमरीका की ओर रवाना कर दिया है । इसके उत्तर में अमरीका ने भी प्रक्षेपास्त्रों को निर्देश देने वाले यन्त्रों को चालू करने का आदेश दे दिया । मगर इसके पहले कि प्रक्षेपास्त्र अपने लक्ष्य की ओर रवाना होते, गलती का पता चल गया और उन्हें रोक लिया गया ।
मगर प्रश्न यह है कि क्या इस प्रकार गलती सुधारने का समय हमेशा ही मिलता रहेगा ? इस सन्दर्भ में भी कुछ खतरे हैं । मसलन आणविक शस्त्रों से लैस विमान, जलपोत या पनडुब्बी किसी दुर्धटना का शिकार हो सकती है और इस कारण होने वाला सम्भावित आणविक विस्फोट विनाश को जन्म दे सकता है ।
26 अप्रैल, 1986 को तत्कालीन सोवियत संघ में चेरनोबिल (उक्रेन) स्थित परमाणु संयंत्र में विस्फोट से 2000 से अधिक लोग तत्काल मारे गये थे और जो बच गये थे लेकिन प्रभावित हुए थे, उनमें से 80 प्रतिशत की हालत बड़ी चिन्ताजनक बताई गयी थी । वे गंभीर मानसिक और मनोवैज्ञानिक खराबी का शिकार हैं और उनकी स्मरण शक्ति पूरी तरह नष्ट हो चुकी है ।
एक ताजा रूसी खबर के अनुसार सफाई कार्यों में लगे कम से कम 1250 श्रमिक आत्म-हत्या का प्रयास कर चुके हैं और सैकड़ों श्रमिक गंभीर हृदय रोगों, फुफ्फुसीय रोगों और स्नायु रोगों की पीड़ा झेल रहे हैं । इन सब बातों से पता चलता है कि परमाणु विकिरण के खतरे कितने भयावह हैं । वस्तुस्थिति यह है कि आज के आणविक हथियारों ने सपूर्ण विश्व की सुरक्षा को केवल कुछ यन्त्रों तथा कुछ मनुष्यों के हाथों में गिरवी रख दिया है ।
अभी तक कुछ आठ देश आणविक परीक्षण कर चुके हैं – अमरीका, सोवियत संघ, इंग्लैण्ड, फ्रांस, चीन, भारत, पाकिस्तान और उत्तरी कोरिया । कुल परीक्षण हुए 2060 जिनमें अधिकांश अमरीका और सोवियत संघ ने किये हैं ।
सर्वाधिक आणविक हथियार भी अमरीका और रूस के पास ही हैं । इस दिशा में तीसरा देश जो तीव्रता से प्रगति कर रहा है, वह चीन है । इन सात देशों के अतिरिक्त आठ देश ऐसे हैं, जिनके पास परमाणु हथियार बनाने की क्षमता है, वे देश हैं – कनाडा, जर्मनी, इजरायल, इटली, जापान, द. अफ्रीका, स्वीडन तथा स्विट्जरलैण्ड ।
अमरीका की पत्रिका ‘न्यूजवीक’ के जुलाई 1988 के अंक में अमरीकी खुफिया सूत्रों के हवाले से प्रकाशित किया गया था कि कई देशों ने परमाणु बम बना लिये हैं । पाकिस्तान ने चार ऐसे परमाणु बम बनाये हैं जिन्हें अमरीका द्वारा दिये गये एफ-16 लड़ाकू बम-वर्षकों में ले जाया जा सकता है ।
पत्रिका ने लिखा है कि भारत, पाकिस्तान इजरायल और द. अफ्रीका के पास भी परमाणु हथियार हैं । विशेषज्ञों का मत है कि ब्राजील और अर्जेण्टाइना भी अगले दो वर्षों में परमाणु क्षमता प्राप्त कर लेंगे ।
‘न्यूजवीक’ के अनुसार इजरायल के पास 100 से 200 के बीच परमाणु हथियार हैं । द. अफ्रीका ने इतना परिष्कृत यूरेनियम बना लिया है जिससे 13 से 21 बम बनाये जा सकते हैं । भारत के पास कम से कम 65 परमाणु हथियार हैं, हालांकि भारत इस बात से इन्कार करता है ।
आज परमाणु विज्ञान के बारे में इतना अधिक साहित्य बाजार में आ गया है कि साधन और सुविधा मिलने पर कोई भी प्रतिभाशाली परमाणु वैज्ञानिक बम बना सकता है । साधन का जहां तक सम्बन्ध है, इसके लिए चाहिए एक परमाणु भट्टी तथा यूरेनियम-235 अथवा प्लूटोनियम । दोनों वस्तुएं विश्व के खुले बाजार से खरीदी जा सकती हैं ।
यदि राजनीतिक परिस्थिति अनुकूल न हो तो उस स्थिति में इस सौदे में यह शर्त लगायी जा सकती है कि परमाणु भट्टी या यूरेनियम खरीदने वाला देश आणविक हथियारों के प्रसार पर रोक के लिए 1968 में की गयी सन्धि पर हस्ताक्षर करे जिसके अन्तर्गत किसी भी नये देश द्वारा परमाणु बम बनाने पर प्रतिबन्ध है ।
मगर इस पर हस्ताक्षर के बावजूद परमाणु बम बनाने का काम गुप-चुप रूप से चल सकता है अथवा कोई देश बहाने की आड़ लेकर अन्तर्राष्ट्रीय जांचकर्ताओं को अपने परमाणु संयन्त्रों की जांच करने से रोक सकता है । इराक ने ईरान के साथ चल रहे युद्ध की आड़ में ही संयुक्त राष्ट्र संघ के निरीक्षकों को अपने परमाणु संयन्त्रों वाले केन्द्रों पर जाने से रोका था ।
इस समय विश्व में लगभग साठ हजार आणविक हथियार तैयार हैं । इनकी क्षमता का यदि अध्ययन करें तो यह जानकर आश्चर्य होता है कि इन हथियारों से वर्तमान विश्व को केवल दो बार नहीं, पूरे दर्जन बार नष्ट किया जा सकता है । इस तध्य के बावजूद आणविक हथियारों के लिए अन्धी होड़ निरन्तर चालू है ।
इन आणविक हथियारों का संचालन दयाब केवल धरती से नहीं अन्तरिक्ष से भी किये जाने के प्रयत्न चल रहे हैं । इस उद्देश्य के निमित्त महाशक्तियों द्वारा केवल 1980 में 103 सैन्य उपग्रह अन्तरिक्ष में छोड़े गये थे । अमरीका की योजना थी कि 2000 ई. तक अन्तरिक्ष में एक ऐसा मंच तैयार कर ले, जो भूमध्य रेखा के ऊपर स्थित हो, जहां से वह अपनी सपूर्ण सुरक्षा का संचालन कर सकेगा ।
परमाणु ऊर्जा के नये सीमान्त:
परमाणु ऊर्जा की तकनीक सिद्धि हो जाने पर परमाणु बम बनाना या न बनाना, समृद्ध यूरेनियम की उपलब्धि, राजनीतिक निर्णय का मसला रह जाता है । परमाणु प्रौद्योगिकी पर कुछ विशिष्ट देशों का एकाधिकार होने के बावजूद उसका काफी विस्तार हुआ हैं- पश्चिमी देशों की व्यापारिक वृद्धि के कारण जितना, उतना ही उनकी आपसी प्रतिद्वन्द्विता के कारण ।
अमरीका, सोवियत संघ, फ्रांस, ब्रिटेन, कनाडा और चीन के बाहर कम-से-कम 16 देश ऐसे हैं, जहां पश्चिमी देशों ने परमाणु प्रौद्योगिकी बेची और पहुंचायी है । पश्चिमी कम्पनियां विकासशील देशों में 37 परमाणु भट्टियां लगा चुकी हैं और 28 पर काम चल रहा है ।
इनमें से अनेक देशों ने अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा आयोग का निरीक्षण स्वीकार किया है, लेकिन इजरायल, दक्षिण अफ्रीका, पाकिस्तान और भारत ने परमाणु प्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर करना स्वीकार नहीं किया था ।
अत: उनके यहां अन्तर्राष्ट्रीय संगठन द्वारा परमाणु संयन्त्रों की निगरानी का सवाल नहीं उठता । इनमें से इजरायल और दक्षिणी अफ्रीका दो ऐसे भी देश हैं जिन्हें माना जाता है कि बने-बनाये परमाणु अस्त्र मिल चुके हैं ।
पश्चिमी देशों की जो कम्पनियां तीसरी दुनिया के देशों से परमाणु व्यापार कर रही हैं उनमें अमरीका की ‘जनरल इलेक्ट्रिक और वेस्टिंग हाउस’, जर्मनी की ‘के. डब्ल्यू. यू’, ‘एटॉमिक एनर्जी ऑफ कनाडा’ और फ्रांस की ‘फ्रामाटोम’ प्रमुख हैं ।
परमाणु परीक्षणों का प्रभाव:
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद से अब तक लगभग 2060 ज्ञात परमाणु परीक्षण किये जा चुके हैं, जिनमें से 1747 केवल अमरीका तथा सोवियत संघ के ही हैं । इस समय विश्व में जो कुल परमाणु विस्फोटक सामग्री उपलब्ध है, उसे यदि विश्व के सभी व्यक्तियों में समान रूप से वितरित किया जाये, तो वह प्रति व्यक्ति दस टन के हिसाब से आयेगी ।
वैज्ञानिकों का मत है कि अब तक जितने भी नाभिकीय परीक्षण हो चुके हैं और उनसे जितनी रेडियोधर्मिता फैल चुकी है, वही अन्ततोगत्वा मानव जाति के लिए घातक सिद्ध होकर रहेगी । मानव जाति तरह-तरह के संकटों से गुजरी है, किन्तु इनमें से एक भी संकट ऐसा नहीं था जिसका सीधा सम्बन्ध समूची मानव जाति के अस्तित्व से हो ।
परमाणु हथियारों के रूप में आज पहली बार ऐसा सर्वव्यापी संकट उत्पन्न हो गया है जिसने समूची मानव जाति को महाविनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है । एक सर्वव्यापी संकट पैदा करने में तो हम समर्थ हो गये हैं, किन्तु इससे बचाव या निवारण के लिए सर्वव्यापी हल खोजने में अभी हम समर्थ नहीं बन पाये हैं ।
परमाणु शक्ति का सृजनकारी रूप:
परमाणु शक्ति का दूसरा पक्ष उसका सृजनकारी रूप है । मानव कल्याण में परमाणु शक्ति का सृजनात्मक तथा विकास हेतु उपयोग हो सकता है । आज अनेक राष्ट्र जैसे – अमरीका, रूस, जापान, जर्मनी आदि परमाणु शक्ति का विकास करके अनेक महत्वपूर्ण कल्याणकारी कार्यों में उसका उपयोग कर रहे हैं । अणुचालित बिजलीघरों में अति सस्ती दर पर विद्युत उत्पादन हो रहा है ।
इससे कोयला, पेट्रोल, गैस आदि प्राकृतिक ऊर्जा के रूप में परमाणु ऊर्जा के प्रयोग ने भविष्य की ईंधन की चिन्ता को बहुत कम कर दिया है । परिवहन एवं दूर संचार के माध्यमों में भी इसका प्रयोग एक नयी क्रान्ति को जन्म दे रहा है । चिकिस्ता के क्षेत्र में भी अणु शक्ति मनुष्य के लिए वरदान बन गयी है ।
परमाणु ऊर्जा तथा कथित परमाणुभट्टी (Atomic Pile) या नाभिकीय रिएक्टर (Nuclear Reactor) में ‘मुक्त’ की जाती है । इन भट्टियों में परमाणु नाभिकों का विखण्डन (Fission) करते हैं । इससे ऊर्जा मुक्त होती है जो ऊष्मा के रूप में विभिन्न कामों में प्रयुक्त की जाती है ।
परमाणु ऊर्जा का एक और सृजनकारी उपयोग रेडियोधर्मी पदार्थों से प्राप्त विकिरणों से सम्बन्ध रखता है । रेडियोधर्मी पदार्थ जिन्हें सामान्यत: रेडियोधर्मी समस्थानिक (Radioactive Isotopes) कहते हैं, परमाणु इन्जीनियरिंग के ‘ऊर्जा से असम्बन्धित (Non-Energy) क्षेत्र’ के होते हैं ।
इनका उपयोग अब विभिन्न कामों में होने लगा है जैसे उद्योग, खेती, चिकित्सा आदि । कैंसर जैसे भयंकर तथा असाध्य रोग पर अब रेडियो कोबाल्ट (Radio-Cobalt) की सहायता से काफी कुछ सफलता प्राप्त कर ली गयी है । अब अनेक तत्वों के रेडियोधर्मी समस्थानिक तैयार कर लिये गये हैं जिनको विभिन्न उपयोगों में लाया जाता है ।
रेडियो तत्वों का एक और भी विशेष उपयोग हो सकता है । इसके द्वारा वैज्ञानिकों को द्रव्य (Matter) के अदृश्य कणों की गति का पता चलता है । इनकी सहायता से वे प्रत्येक परमाणु का मार्ग जान सकते हैं तथा एक ही रासायनिक तत्व के विशिष्ट परमाणुओं को उसी तत्व के दूसरे परमाणुओं से अलग पहचान सकते हैं ।
अब रेडियोधर्मी पदार्थों से प्राप्त ऊर्जा का उपयोग आवश्यकतानुसार करना सम्भव हो गया है । इससे एक नये अध्याय का सूत्रपात हुआ है और वे मानव जीवन को श्रेष्ठतर बनाने में सहायक सिद्ध हुए हैं । भारत में भाभा परमाणु अनुसन्धान केन्द्र में 360 प्रकार के रेडियो आइसोटोप तथा चिह्नित यौगिक बनाये जाते हैं । विश्व के अनेक राष्ट्र अब परमाणु शक्ति के विकास में लगे हुए हैं जिससे उन्हें इसके लाभ प्राप्त हो सकें ।
Essay # 3. सी.टी.बी.टी. क्या है ?
सी.टी.बी.टी. अर्थात् व्यापक परीक्षण प्रतिबन्ध संधि (CTBT : Comprehensive Test Ban Treaty) विश्वभर में किये जाने वाले परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाने के उद्देश्य से लायी गयी संधि या किया गया समझौता है, जिसका 1993 में भारत, अन्य देशों के अतिरिक्त अमेरिका के साथ सह-प्रस्तावक था ।
भारत ने 1994 में भी इस प्रक्रिया को दोहराया और आगे बढ़ाया लेकिन 1995 में उसने यह कहते हुए कि यह संधि सार्वभौमिक परमाणु निरस्त्रीकरण के समयबद्ध कार्यक्रम से जुड़ी हुई नहीं है, सह-प्रस्तावक बनने से ही इंकार कर दिया ।
20 अगस्त, 1996 को भारत ने जेनेवा में इस विवादास्पद संधि के मसौदे को औपचारिक रूप से वीटो भी कर दिया । फलत: उसको पास कराने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा में ले जाना पड़ा, लेकिन यह संधि तब तक कानूनन लागू नहीं हो सकती, जब तक कि उस पर भारत भी दस्तखत न कर दे ।
इस संधि के कुछ मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं:
i. व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (CTBT) वास्तव में परमाणु अप्रसार संधि (NPT) का ही अगला चरण है । परमाणु अप्रसार संधि पर भी भारत ने अभी तक हस्ताक्षर नहीं किये हैं ।
ii. यह संधि मात्र पारम्परिक परमाणु परीक्षणों पर ही प्रतिबन्ध की बात करती है, प्रयोगशाला में किये जाने वाले परीक्षणों की नहीं । इसका तात्पर्य यह है कि परमाणु शक्ति सम्पन्न देश परमाणु परीक्षणों के सन्दर्भ में न केवल नयी तकनीक की खोज जारी रख सकते हैं, बल्कि इच्छानुसार परमाणु अस्त्रों का निर्माण भी कर सकते हैं ।
iii. परमाणु अप्रसार संधि का ही अगला चरण होने के कारण हालांकि इसका उद्देश्य विश्व को परमाणु अस्त्रों से मुक्ति दिलाना है, लेकिन इस संधि में निरस्त्रीकरण के मुद्दे को दरकिनार कर दिया गया है ।
iv. इस संधि की सबसे बड़ी खामी यह है कि जिन देशों को परमाणु तकनीक में महारत प्राप्त नहीं है उनके पास परमाणु अस्त्र नहीं होने चाहिए, किन्तु जिनके पास पहले से इस तरह के अस हैं वे बने रहने चाहिए ।
v. सी.टी.बी.टी. जैसी संधि की मांग 50 के दशक से ही कुछ देश लगातार करते रहे थे । किन्तु सी.टी.बी.टी. का वर्तमान मसौदा तब तैयार किया गया, जब चीन और फ्रांस ने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने का फैसला किया ।
vi. सी.टी.बी.टी. के दायरे में केवल विस्फोटक परीक्षणों पर ही प्रतिबन्ध लगाये जाने की बात शामिल की गयी है, जबकि सब-क्रिटिकल जांच, सम्यूलेशन जांच जैसे गैर-विस्फोटक परीक्षणों को इसके क्षेत्र में नहीं रखा गया है ।
यदि कोई देश परमाणु हथियारों से सम्बन्धित इन परीक्षणों को प्रयोगशालाओं में करता है, तो उसका पता लगाना सम्भव नहीं है, क्योंकि इसकी कोई तकनीक विकसित नहीं की जा सकी है । व्यापक परीक्षण प्रतिबन्ध संधि में प्रयोगशाला परीक्षण को छोड़कर सभी तरह के परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाने का प्रावधान है ।
वैसे इससे पहले 1963 में एक आंशिक परीक्षण प्रतिबन्ध संधि (PTBT) को स्वीकार किया गया था, जिसके तहत वायुमंडल और जलमंडल में परमाणु परीक्षण करने पर रोक लगाने की व्यवस्था की गयी थी । सी.टी.बी.टी. के प्रारूप में हमेशा के लिए सभी तरह के परमाणु परीक्षण (भूमिगत, समुद्र और वायुमंडल) पर रोक लगाने की व्यवस्था तो है, लेकिन नयी तकनीक और परमाणु अप्रसार संधि के विस्तार ने सी.टी.बी.टी. के सन्दर्भ और परिस्थितियों को बदलकर रख दिया है ।
नयी तकनीक की सहायता से अब परमाणु अस्त्रों का विकास और परीक्षण प्रयोगशालाओं और कम्प्यूटर से बनायी गयी परिस्थितियों में भी किया जा सकता है । इस स्थिति में व्यापक सी.टी.बी.टी. का उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो पाता ।
यदि वास्तव में इस संधि के प्रस्तावकों का इरादा नेक है तो उन्हें इस संधि को पूर्ण निरस्त्रीकरण के साथ जोड़ना चाहिए । साथ ही, इस संधि में ऐसे प्रावधान भी जोड़े जाने चाहिए थे, जिनसे परमाणु अस्त्रों को और अधिक विकसित एवं मारक बनाने की समूची प्रक्रिया पर ही रोक लगे ।
सी.टी.बी.टी. के प्रस्तावों का विस्तृत रूप से कहीं विवरण नहीं मिलता, लेकिन छनकर जो सन्दर्भ निकलते हैं, उनसे तीन बातें स्पष्ट होती हैं:
a. इस संधि के लागू होने से सभी तरह के परमाणु-परीक्षण स्थगित हो जायेंगे । इस तरह नये परमाणु आयुधों का निर्माण न होगा ।
b. संख्यात्मक (Quantitative) और गुणात्मक (Qualitative) विकास पर भी प्रतिबन्ध लग जायेगा ।
c. महाशक्तियों को यह विशेषाधिकार प्राप्त होगा कि वे अपनी सुविधानुसार संधि से अलग हो सकती हैं ।
इन तीनों से अधिक महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि आकस्मिक विशेष निरीक्षण किये जायेंगे और ऐसा करने के लिए इस सम्बन्ध में गठित समिति के सामान्य बहुमत की आवश्यकता होगी । चीन और रूस इसका विरोध करते हैं । यह उन्हें अपने आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप लगता है ।
भारत का विरोध दूसरे स्तर का है । उसका तर्क है कि यह चर्चित संधि विभेदकारी है । इसमें अणु आयुध-सम्पन्न तथा विश्व में उन आयुधों से रहित राष्ट्रों के बीच एक दीवार खड़ी करने की कोशिश की गयी है । इस तरह अणु आयुध-सम्पन्न राष्ट्र हमेशा-हमेशा के लिए अणु-आयुध रहित राष्ट्रों को अपना गुलाम बना लेंगे तथा धौंस के बल पर उनके प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करके उन्हें गरीब से गरीब बनाते जायेंगे ।
ऐसी स्थिति में भारत के तीन प्रस्ताव हैं:
I. सभी तरह के परीक्षण चाहे वे विस्फोटक हों या गैर विस्फोटक हों, बंद होने चाहिए । अर्थात्, लेबोरेटरी स्तर पर भी परीक्षण नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि इससे नये अतिसूक्ष्म आयुधों के निर्माण को रोका नहीं जा सकता और यह कार्य महाशक्तियां ही कर सकती हैं । अत: यदि लेबोरेटरी स्तर पर परीक्षण जारी रहा तो आण्विक आयुधों का विकास नहीं रुक सकता और संधि बेमानी हो जायेगी । भारत के इस तर्क का समर्थन करने को कोई तैयार नहीं है ।
II. संधि के अन्तर्गत यह व्यवस्था होनी चाहिए कि विश्व से समूर्ण अणु आयुध समाप्त कर दिये जायें अर्थात् अणु शक्ति-सम्पन्न राष्ट्र अपने अणु-आयुध भण्डार को नष्ट करने का आश्वासन दें । इस सन्दर्भ में भारत एक समयबद्ध अणु-आयुध बिनष्टीकरण कार्यक्रम चाहता है अर्थात्, ये आयुध भण्डार तत्काल नष्ट नहीं होते तो क्रमश: नष्ट करा दिये जायें । यह भी कोई नहीं मान रहा है ।
III. भारत का तीसरा पक्ष और महत्वपूर्ण है । उसका कहना है कि यदि यह व्यापक परीक्षण निषेध संधि है तो इसे केबल परमाणु क्षेत्र तक सीमित क्यों रखा गया । इसे रासायनिक एवं भौतिकी के अन्य परीक्षणों के क्षेत्र में क्यों नहीं विस्तार दिया जाता ? यह संधि तो घुमा-फिराकर ‘अणु अप्रसार संधि’ का पर्याय बन जाती है, जिसका भारत हमेशा बिरोधी रहा है ।
महाशक्तियां भारत के इन तर्कों को स्वीकार करने को तैयार नहीं । कोई भी राष्ट्र न तो अपने संचित आयुध भण्डार को ही नष्ट करना चाहता और न लेबोरेटरी स्तर के परीक्षणों को ही स्थगित करने को राजी है । यह एक ऐसी बात है, जो भारत स्वीकार नहीं कर सकता ।
इस तरह विश्व के शक्ति सम्पत्र राष्ट्र इस प्रयास में हैं कि अन्य राष्ट्र उनकी समकक्षता में न पहुंच सकें और अपनी सुरक्षा के लिए उनके समक्ष गिड़गिड़ायें । फलस्वरूप वे महाशक्ति सम्पन्न राष्ट्र उनसे आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कीमत वसूल कर सकेंगे ।
सच पूछा जाये तो इस संधि के पीछे विकसित राष्ट्रों का अपना हित है, जिसके लिए वे विश्वशांति और मानवता की रक्षा का बहाना बनाकर असुरक्षित तथा विकास की सीमा में कदम-दर-कदम आगे बढ़ रहे राष्ट्रों को छल रहे हैं ।
इस संधि में मूलत: पांच बातें ऐसी हैं, जिनसे शक्तिमान और शक्तिहीन का सिद्धान्त प्रतिपादित होता है:
A. इस संधि के लागू होने से परीक्षण तो बंद हो जायेंगे, किन्तु महाशक्तियों के अणु आयुध-भण्डार पर कोई असर नहीं पड़ेगा अर्थात्, विश्व के सारे देश इन महाशक्तियों के अधीन रहेंगे, वे जब चाहेंगे इन देशों को धौंस में ले लेंगे और उन्हें एक गुलाम राष्ट्र की हैसियत देकर उनके प्राकृतिक संसाधनों तथा श्रम शक्ति का अपने हितों में दोहन करेंगे । इस तरह यह एक अप्रत्यक्ष साम्राज्यवाद होगा ।
B. इस संधि पर हस्ताक्षर करके भारत जैसे विकासशील देशों को अपनी अणु प्रयोगशालाएं बंद करनी पड़ेगी, क्योंकि इसमें विखण्डनीय पदार्थ तैयार करने पर भी प्रतिबन्ध होगा । इस तरह सारी परमाणु भट्टियां निरर्थक होकर रह जायेंगी ।
भारत जो इतने दिनों से अणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने से कतरा रहा था, उसे स्वत: इस संधि के माध्यम से अपने सारे परमाणु विकल्प छोड़कर संयुक्त राज्य अमेरिका या रूस की कृपा पर अपनी सुरक्षा छोड़ देनी पड़ेगी । भारत के पड़ोसी चीन और पाकिस्तान अणु आयुधों के स्वामी रहने के कारण भारत को धमकियां देते रहेंगे और भारत को संयुक्त राज्य अमेरिका की शरण में जाना पड़ेगा ।
C. इस संधि से आण्विक प्रौद्योगिकी के लिए शांतिपूर्ण परीक्षण बंद हो जायेंगे । जिन देशों के पास सब क्रिटिकल (Sub Critical) परीक्षण के सूक्ष्मयंत्र हैं उनके लिए तो यह आसान रहेगा । उस स्थिति में उच्च प्रौद्योगिकी खरीदने के लिए सभी बाध्य होंगे ।
तात्पर्य यह कि संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य विकसित देश मानते हैं कि परमाणु विखण्डन की जिस प्रक्रिया से शांतिपूर्ण प्रौद्योगिकी विकसित की जाती है, उसके ही माध्यम से आयुध निर्माण की प्रौद्योगिकी भी विकसित होती है ।
अत: विखण्डन-प्रक्रिया ही बन्द की जानी चाहिए । सन् 1974 में भारत ने जो शांतिपूर्ण कार्यों के लिए पोखरण में विस्फोट किया था, उसे ही लेकर संयुक्ता राज्य अमेरिका ने तारापुर परमाणु संयंत्र को समृद्ध यूरेनियम देना बंद कर दिया था । कनाडा ने राणा प्रताप सागर में स्थित संयंत्र निर्माण में अपनी मदद रोक दी थी । वही बातें यहां भी दोहराई जायेंगी ।
D. इस संधि से शासक और शासित जैसी स्थिति उत्पन्न हो जायेगी, जिससे आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप बढ़ जायेंगे जैसा कि इराक में हुआ है । वहां पर उत्तरी इराक को मानवाधिकार संरक्षण के नाम पर बहुराष्ट्रीय सेनाओं के हवाले कर दिया गया है तो दक्षिणी इराक में शिया लोगों के अधिकारों को संरक्षण देने के नाम पर बहुराष्ट्रीय सेनाओं की गश्त जारी है ।
भारत में भी पूर्वोत्तर राज्यों, कश्मीर तथा कुछ समय पूर्व तक ‘खालिस्तान’ के निर्माण पर संयुक्त राज्य अमेरिका की नजर थी । अत: स्पष्ट है कि इस संधि से सपूर्ण विश्व महाशक्तियों का साम्राज्य बनकर रह जायेगा ।
E. सबसे महत्वपूर्ण बात है कि संधि में महाशक्तियों की सदस्यता की अनिवार्यता नहीं है, जबकि अन्य देशों पर यह अनिवार्यत: लागू होती है । महाशक्तियां जब चाहें संधि को छोड़कर अपने परीक्षण पुन: शुरू कर सकती हैं । एक तरह यह उनका ‘वीटो’ पावर है ।
इसी तरह अपने आयुधों के गुणात्मक विकास को रोकने हेतु भी उनके लिए यह बाध्यता नहीं है, जो अन्यों के लिए है, क्योंकि यदि उनके पास अणु आयुध-भण्डार है तो उनका रख-रखाव तो उनका दायित्व होगा । अत: उस रख-रखाव में उनके विकास की प्रक्रिया भी स्वत: जुड़ जाती है ।
यह बात और है कि वे नये परीक्षण नहीं करेंगे, लेकिन भण्डार में रखे आयुधों को तो उपयोग के लायक बनायेंगे ही जबकि अणु आयुध-विहीन देश इस तरह का कोई कार्य नहीं कर सकेंगे क्योंकि वे आयुधों का विकास कर नहीं सकते और पहले से उनके पास आयुध हैं नहीं ।
उन्हें तो अणु आयुध-सम्पन्न राष्ट्रों की दादागीरी के नीचे पिसना पड़ेगा । सबसे बड़ी बात तो यह है कि यदि ये देश अपना रुख बदलते हैं तो किसी देश की सुरक्षा का क्या होगा ? यही न कि वह किसी महाशक्ति की शरण में जाये और सुरक्षा के बदले उस महाशक्ति की मनमानी शर्तें माने । इस तरह इस संधि से सार्वभौम सत्ता बेचने का खेल शुरू हो जायेगा ।
Essay # 4. भारत से सन्धि का सम्बन्ध:
भारत इस संधि का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया है । सच पूछा जाये तो इस संधि को कार्यरूप देने या न देने का एक ‘वीटो’ पॉवर भारत को अनायास प्राप्त हो गया । कुछ तो इसके पीछे भारतीय राजनय की कमजोरी है और कुछ संयुक्त राज्य अमेरिकी रणनीति की कुटिलता है कि भारत को एक ऐसा मोहरा बना दिया गया है कि उसके अलग हो जाने से सपूर्ण संधि का अस्तित्व संकट में पड़ जायेगा और उसके शामिल होने से उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा पैदा हो जायेगा ।
पहले संयुक्त राज्य अमेरिका की ओर से यह प्रस्ताव था कि पांच महाशक्तियां संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस हस्ताक्षर कर दें तो संधि को कार्यान्वित कर दिया जायेगा, लेकिन अब रूस, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस की जिद है कि यदि भारत, इजरायल और पाकिस्तान संधि पर हस्ताक्षर नहीं करते तो इसका कोई मूल्य नहीं होगा ।
इजरायल की ओर से किसी तरह का तीखापन नहीं दिखाया गया है और पाकिस्तान का कहना है कि यदि भारत संधि पर हस्ताक्षर नहीं करता तो वह भी नहीं करेगा । इस तरह सारा दारोमदार भारत पर आ जाता है और भारत अपने राष्ट्रीय हित, भारतीय जनता की इच्छा तथा सैनिक विशेषज्ञों के परामर्श को ठुकराकर सी.टी.बी.टी. पर हस्ताक्षर नहीं कर सकता ।
ऐसी स्थिति में भारत के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबंध की सम्भावना प्रबल होती जा रही है । उसको धमकाया जा रहा है, कि यदि उसने हस्ताक्षर नहीं किये और गत वर्षों से इस संधि के लिए चल रहा प्रयास विफल रहता है तो संयुक्त राज्य अमेरिका तथा उसके मित्र अन्य देश ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, इटली और यहां तक कि जापान भी अपनी आर्थिक मदद बंद कर देंगे ।
इस तरह भारत की अर्थव्यवस्था की कमर ही टूट जायेगी । दूसरी ओर, भारतीय जनता चाहती है कि भारत दबाव में न आये । वह अपनी सुरक्षा के लिए आत्मनिर्भर बने और इसके लिए जरूरी है कि भारत स्वयं प्रक्षेपास्त्र, टैंकों, विमानों, बख्तरबंद गाड़ियों और युद्धपोतों का निर्माण करे ।
उनमें आण्विक आयुध प्रणाली लगाये, ताकि न केवल पाकिस्तान, चीन या संयुक्त राज्य अमेरिका को भी उस पर हमला करने का साहस न हो, उधर संयुक्त राज्य अमेरिका का प्रयास भारत की इसी आत्म-निर्भरता को रोकना है; वह भारत के अग्नि प्रक्षेपास्त्र के परीक्षण का तो विरोधी है, भारत के पृथ्वी प्रक्षेपास्त्र को भी सेना में तैनात करने का समर्थन नहीं करता, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिकी सूत्र ही इसकी पुष्टि करते हैं कि पाकिस्तान के पंजाब स्थित सरगोधा हवाई अड्डे पर ‘एम-11’ जैसी मिसाइलें तैनात हैं ।
भारत को लक्ष्य करके तिब्बत के पठार पर लगाये चीनी प्रक्षेपास्त्रों की तो बात ही और है । आश्चर्य की बात तो यह है कि संयुक्त राज्य अमेरिकी सूत्र यह मानते हैं कि यदि भारत ने अपने अग्नि प्रक्षेपास्त्र की द्वितीय श्रेणी का उत्पादन शुरू करके उसकी तैनाती की तो हिन्द महासागर के मलक्का जलडमरुमध्य से गुजरने वाले जहाजों को खतरा हो सकता है अर्थात् भारत अकारण हमला कर सकता है, जबकि सिंगापुर में तैनात संयुक्त राज्य अमेरिकी आण्विक प्रक्षेपास्त्रों से भारत को कोई खतरा नहीं है ।
तात्पर्य यह है कि रूस, चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका और पाकिस्तान के पास प्रक्षेपास्त्र रहने से खतरा नहीं है, लेकिन यदि भारत के पास हथियार रहेगा तो खतरा हो जायेगा । संयुक्त राज्य के इस तर्क का सबसे मुखर समर्थन पाकिस्तान करता है । सवाल यह उठता है – क्या इन तर्कों के समक्ष भारत को झुकना चाहिए ?
8 दिसम्बर, 2011 तक 182 देशों ने सी.टी.बी.टी. पर हस्ताक्षर कर दिए हैं तथा 156 देशों ने इस संधि का अनुमोदन भी कर दिया है । भारत-चीन, उत्तरी कोरिया, मिस्र, इजरायल, पाकिस्तान और अमेरिका जैसे देश आज भी सी.टी.बी.टी. से बाहर हैं ।
अमेरिका-रूस में परमाणु शस्त्र कटौती सन्धि : मई, 2002:
मई, 2002 में अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने रूस की यात्रा की और रूस के साथ मित्रता मजबूत करने के लिए परमाणु शस्त्रों में कटौती के ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किए । इस संधि के अन्तर्गत परमाणु हथियारों में दो-तिहाई कटौती करने पर सहमति हुई । संधि के अनुसार दोनों देश वर्ष 2012 तक परमाणु हथियारों की संख्या 1700 से 2200 के बीच लाने पर सहमत हुए ।
फिलहाल इन देशों के पास लगभग छह-छह हजार परमाणु हथियार हैं । राष्ट्रपति बुश और राष्ट्रपति पुतिन के बीच परमाणु हथियारों में कटौती के समझौते को शीतयुद्ध की पूर्ण-रूप से समाप्ति के रूप में देखा जा रहा है । सन्धि के अनुसार परमाणु हथियारों में कटौती का लक्ष्य 2012 तक पूरा किया जाना था ।
राष्ट्रपति ओबामा एवं राष्ट्रपति मेदवेदेव के बीच परमाणु शस्त्रों की संख्या में कटौती का नया समझौता (जुलाई 2009):
6 जुलाई, 2009 को अमरीका और रूस के राष्ट्रपतियों की मॉस्को शिखर वार्ता की सबसे बड़ी उपलब्धि परमाणु हथियारों की कटौती सम्बन्धी समझौते पर हस्ताक्षर होना है । 31 जुलाई, 1991 को हस्ताक्षरित स्टार्ट सन्धि के स्थान पर सम्पन्न नए समझौते के अन्तर्गत दोनों देश अपने परमाणु हथियारों की संख्या घटाकर डेढ़-डेढ़ हजार करेंगे । इसके साथ ही इन हथियारों को लक्ष्य तक ले जाने में सक्षम बैलिस्टिक मिसाइलों की अधिकतम स्वीकृत संख्या में भी 500 से 1100 के बीच कटौती के लिए दोनों देश तैयार हुए हैं ।
सुरक्षा परिषद् का सर्वसम्मत प्रस्ताव-एन.पी.टी. व सी.टी.बी.टी. पर हस्ताक्षर का आह्वान:
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने 24 सितम्बर, 2009 को अमरीका के प्रस्ताव को सर्वसम्मति से स्वीकार किया जिसमें सभी राष्ट्रों से परमाणु अप्रसार सन्धि (NPT) व व्यापक परीक्षण निषेधसन्धि (CTBT) पर हस्ताक्षर करने को कहा गया ।
एन.पी.टी. से बाहर के अन्य राष्ट्रों से ‘गैर परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र’ के रूप में इस सन्धि में शामिल होने का अनुरोध प्रस्ताव में किया गया है । ‘अन्य राष्ट्रों’ से संकेत भारत व पाकिस्तान की ओर हैं, किन्तु भारत ने इस पर हस्ताक्षर करने से एक बार पुन: इंकार करते हुए कहा है कि वह दूसरे देशों द्वारा निर्धारित उन मानदण्डों को स्वीकार नहीं कर सकता जो उसके राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल हैं ।
अमरीका व रूस के मध्य नई ‘स्टार्ट सन्धि’:
अमरीका व तत्कालीन सोवियत संघ में सम्पन्न 31 जुलाई, 1991 की स्टार्ट सन्धि 9 दिसम्बर, 2009 को समाप्त हो गयी । स्टार्ट-I के स्थान पर एक नई स्टार्ट सन्धि पर अमरीका व रूस के बीच चैक गणराज्य की राजधानी प्राग में 8 अप्रैल, 2010 को हस्ताक्षर किए गए ।
अमरीकी सीनेट व रूसी फेडरेशन काउन्सिल के अनुमोदन के बाद दोनों देशों द्वारा दस्तावेजों के आदान-प्रदान के पश्चात् सन्धि प्रभावी होगी । मूलत: 10 वर्ष के लिए की गयी इस सन्धि का कार्यकाल 5 वर्ष तक बढ़ाया जा सकेगा ।
नई स्टार्ट सन्धि में दोनों देशों ने 7 वर्षों में अपने परमाणु हथियारों की संख्या में एक-तिहाई तक कटौती करने तथा उन्हें ले जाने वाली पनडुब्बियों, मिसाइलों व बमवर्षकों की संख्या में आधी से अधिक कटौती करने के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त की । ऑपरेशन डिप्सॉइड न्यूक्लीयर वार हैड्स की संख्या को घटाकर 1550 तक सीमित करने को दोनों पक्ष सन्धि में सहमत हुए हैं ।
Essay # 5. राजनीति में आणविक शक्ति की भूमिका (The Role of Atomic Power in the Politics):
क्या आणविक शस्त्रों के बल पर ही अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति राजनीति में स्थान पाना सम्भव है ? इस सम्बन्ध में दो दृष्टिकोण हमारे सामने हैं:
प्रथम दृष्टिकोण के अनुसार:
बम विस्फोट से राष्ट्र की शक्ति में वृद्धि होती है । बम वह कुंजी है जो विदेश नीति के अनेक तालों को एक साथ खोल देती है । आणविक शक्ति से सम्पन्न राष्ट्र का संयुक्त राष्ट्र संघ, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन, राष्ट्रकुल आदि अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं में भी ओहदा एवं प्रतिष्ठा रातोंरात ऊंचा उठ जाता है ।
उदाहरण के लिए, चीन ने अणु शस्त्रों का निर्माण शुरू किया और उन अणु शस्त्रों के बल पर ही चीन को अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति राजनीति में अपना स्थान मिला । पोखरण अन्तःस्फोट ने ही भारत की छवि इतनी चमका दी तो बम के राजनीतिक लाभ कितने होंगे, कहने की जरूरत नहीं है ।
दूसरा दृष्टिकोण के अनुसार:
आणविक शस्त्रों से शक्ति राजनीति में राज्य की प्रतिष्ठा में वृद्धि हो ही, यह आवश्यक नहीं । उदाहरण के लिए, ब्रिटेन भी आणविक राष्ट्र है, परन्तु अणु-शस्रों के निर्माण से क्या अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में उसका स्तर कुछ बढ़ा है ? सच्चाई तो यह है कि अणु शस्त्रों का निर्माण भी द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद से निरन्तर घटती ब्रिटिश प्रतिष्ठा को बचा नहीं सका ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की बात तो जाने दीजिए, पश्चिमी यूरोप में ही ब्रिटेन द्वितीय श्रेणी का राष्ट्र बनकर रह गया है । जापान का उदाहरण भी हमारे सामने है । जापान के पास आणविक शस्त्र नहीं हैं तथापि दक्षिण-पूर्वी एशिया के परिप्रेक्ष्य में जापान की शक्ति को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता ।
इसलिए महाशक्ति होना, अणु-शस्त्रों का निर्माण करना दोनों एक-दूसरे के पूरक नहीं माने जा सकते । इसका यह भी अर्थ नहीं है कि अणु शस्त्रों का निर्माण न किया जाये । तथ्य यह है कि अगर कोई राष्ट्र महाशक्ति है तो अणु-शस्त्रों का निर्माण उसकी महत्ता को और बढ़ा सकता है ।
पर ऐसा नहीं कि अणु-शस्त्र बनाने वाले राष्ट्र स्वत: महाशक्ति बन जाते हैं । ऐसे राष्ट्र यदि अणु शस्त्र तैयार भी कर लें तो बम विस्फोट के बाद थोड़ा दबदबा बढ़ेगा, पर जल्दी ही महानता का बुलबुला भी फूट जाएगा ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्तिशाली होने के लिए राष्ट्रीय शक्ति के अन्य आवश्यक तत्वों के साथ-साथ सबल प्रतिरक्षात्मक शक्ति से सम्पन्न होना अपरिहार्य है । इसके साथ ही आर्थिक और तकनीकी विकास द्वारा राष्ट्रीय विकास अपनी चरम सीमा पर हो, तभी कोई राष्ट्र सत्ता केन्द्रों में स्थान पा सकता है ।
Essay # 6. विश्व व्यवस्था : आतंक का युग (World Order : The Age of Terror):
आजकल परमाणु भट्टियां तथा अन्य यन्त्र अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में सहज रूप से उपलब्ध हो रहे हैं । अमरीका, इंग्लैण्ड, रूस, फ्रांस, कनाडा, जर्मनी आदि देश परमाणु भट्टियों को मुक्त रूप से बेच रहे हैं । इस समय विश्व में लगभग 300 परमाणु भट्टियां कार्यरत हैं तथा अनुमान है कि अगले चार-पांच वर्षों में इनकी संख्या 500 हो जायेगी । वर्तमान भट्टियों में से प्रत्येक से लगभग 500 पौण्ड प्लूटोनियम प्रतिवर्ष प्राप्त होता है जो परमाणु बम के लिए आधार तत्व है ।
हिरोशिमा पर डाले गये बम में केवल दस पौण्ड प्लूटोनियम लगा था । ऐसी स्थिति में यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि केवल विद्युत् प्राप्ति के लिए बनायी गयी ये परमाणु भट्टियां प्रतिवर्ष कितनी बड़ी संख्या में आणविक हथियारों को जन्म दे सकती हैं । यूरेनियम अथवा प्लूटोनियम की चोरी के भी समाचार हमें आये-दिन पढ़ने-सुनने को मिलते हैं ।
परमाणु शक्ति के उत्तरोत्तर विकास से सम्बन्धित तीन सम्भावित खतरे आज मानव जाति के सम्मुख हैं:
1. बमों के परीक्षणों, विस्फोटों तथा परमाणु भट्टियों में प्रक्रियाओं के कारण पर्यावरण (Environment) में रेडियोधर्मी तत्वों की प्रतिशत मात्रा बढ़ती जाती है । वास्तव में, कुछ रेडियोधर्मी तत्व शीघ्रता से विघटित नहीं होते और लम्बी अवधि तक रेडियो विकिरणों का उत्सर्जन करते हैं । वस्तुत: यह तत्व वायुमण्डल की रेडियोधर्मिता में निरन्तर वृद्धि करते हैं । अन्य प्रदूषणों को नियन्त्रित अथवा कम किया जा सकता है पर रेडियोधर्मिता को नष्ट करना समस्या ही है ।
2. न्यूक्लीयर कचड़े (Nuclear Waste) को फेंकने की समस्या:
इस कचड़े से लम्बी अवधि तक विकिरण निकलते रहते हैं – वैसे इससे निबटने के लिए केवल तीन विकल्प हैं – इसका संग्रहण, पुन: प्रोसेसिंग तथा इसे समाप्त (Disposal) करना, किन्तु इनमें से प्रत्येक के साथ विशेष प्रकार की कठिनाइयां तथा समस्याएं हैं, जिन्हें हल करना अत्यन्त कठिन है ।
3. परमाणु संयन्त्रों में होने वाली आकस्मिक दुर्घटनाएं जिनके बारे में सूचनाएं यद्यपि छिपायी जाती हैं, किन्तु फिर भी आये-दिन जिनके बारे में जानकारी मिलती ही रहती है ।
निष्कर्ष:
राष्ट्रपति कैनेडी ने सन् 1961 में ठीक ही कहा था कि, ”इन हथियारों को नष्ट करना ही होगा वरना ये हमें नष्ट कर देंगे एवं यह धरती किसी के जीवित रहने योग्य ही नहीं रह सकेगी ।” यदि परमाणु युद्ध हुआ तो ये बम इस पृथ्वी से मानवता का समूल नाश कर देंगे ।
यदि युद्ध केवल उत्तरी गोलार्द्ध में होता है तब भी इसके परिणाम सपूर्ण विश्व को भुगतने होंगे । परमाणु युद्ध के बाद धरती का तापमान 30 डिग्री से 40 डिग्री सेल्सियस तक परिवर्तित हो जायेगा; पृथ्वी के सभी जीव-जन्तु काल के गाल में समाने के लिए बाध्य हो जायेंगे ।
परमाणु निरस्त्रीकरण का मुद्दा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का एक गम्भीर मुद्दा रहा है । छठे एवं सातवें दशक में अमरीका एवं सोवियत संघ में परमाणु हथियारों के निर्माण की जबरदस्त होड़ लगी थी । इन दोनों में परमाणु युद्ध की सम्भावना कभी नहीं रही । ये दोनों तो ‘शीत-युद्ध’ के महारथी थे, लेकिन इनके कारण विश्व में ‘गर्म-युद्ध’ चलता था । कोरिया से लेकर फिलिस्तीन तक एक लम्बी युद्ध पट्टी का निर्माण हो गया था । इस युद्ध पट्टी के लोग इन दोनों शस्त्रोत्पादकों के ग्राहक थे ।
ADVERTISEMENTS:
भय इस बात का था कि युद्धोन्माद के इस कृत्रिम बाजार में यदि परमाणु हथियार खरीद फरोख्त की होड़ लगी तो मानवता खतरे में पड़ जाएगी । उन दिनों निरस्त्रीकरण का मुद्दा बहुत गम्भीर एवं संवेदनशील था । स्वयं अमरीका एवं सोवियत संघ भी इस बहस में रुचि रखते थे, विशेषकर सोवियत संघ ।
इसका कारण सोवियत संघ पर आर्थिक दबाव बढ़ रहा था । शस्त्रों की मार्केटिंग एवं उत्पादन में अमरीका ने एक बाजारीय सन्तुलन बना रखा था, लेकिन सोवियत संघ मार्केटिंग में बहुत कमजोर था । शस्त्रोत्पादन की स्पर्द्धा में जो कुछ वह निवेश करता था, उसका भार सोवियत अर्थव्यवस्था को ही वहन करना पड़ता था । सोवियत संघ के बिखरने के अनेक कारणों में यह आर्थिक दबाव भी एक कारण था ।
अब यह विषय अपनी उस संजीदगी को खो चुका है तथा अमरीका की कूटनीति का विषय बन चुका है । इस मुद्दे पर आज अमरीका ने उत्तर कोरिया एवं ईरान को कठघरे में खड़ा किया हुआ है । आजकल ईरान पर ज्यादा तिरछी नजर है तथा इसके लिए वह अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी (आई.ए.ई.ए.) का भी इस्तेमाल कर रहा है । पश्चिम एशिया में अपनी कूटनीतिक रणनीति के लिए अमरीका इजरायल का भी उपयोग करता है ।
आजकल अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी चर्चा जोरों पर है कि इजरायल ने अमरीका से ‘बंकर बस्टिंग’ बमों की मांग की है । इजरायल का कहना है कि ईरान ने अपनी परमाणु क्षमता का विस्तार किया है । वह कभी भी फिलिस्तीनियों के पक्ष में इजरायल पर परमाणु हमला कर सकता है ।
अत: उसके परमाणु ठिकानों को निशाना बनाते हुए प्रक्षेपास्त्र तैनात करने हैं । यह तथ्य रेखांकनीय है कि इजरायल परमाणु अप्रसार सन्धि (एन.पी.टी.) का सदस्य नहीं है । अत: एन.पी.टी. का सदस्य होने के नाते जो नियन्त्रण ईरान पर लागू होते हैं, वे इजरायल पर लागू नहीं होते ।