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Here is an essay on ‘Political Power‘ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Political Power’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on Power
Essay Contents:
- शक्ति की अवधारणा: परिभाषा की समस्या (The Power Concept: Problem of Definition)
- राजनीतिक शक्ति: स्वरूप (Nature of Political Power)
- राजनीतिक शक्ति के स्रोतों (Sources of Power)
- राजनीतिक शक्ति के प्रकार (Types of Power)
- राजनीतिक शक्ति को प्रयोग में लाने की पद्धतियां (Techniques for the Use of Power)
- राजनीतिक शक्ति साधन है अथवा साध्य (Political Power as an End or as a Means)
- राजनीतिक शक्ति: मूल्यांकन की विशेष भूलें (Political Power: Typical Errors of Evaluation)
- राजनीतिक शक्ति के आधार पर राज्यों का वर्गीकरण (Power Based Classification of States)
- ‘शक्ति-शून्य की अवधारणा (The Concept of Power Vacuum)
- सशक्ति की अवधारणा: आलोचनात्मक मूल्यांकन (The Power Concept: Critical Appraisal)
Essay # 1. शक्ति की अवधारणा: परिभाषा की समस्या (The Power Concept: Problem of Definition):
‘शक्ति’ (The concept of power) आधुनिक राजनीति विज्ञान की केन्द्रीय धारणा है । राज्य, सम्प्रभुता, सरकार, कानून, आदि में शक्ति को प्रमुख अन्तर्निहित तत्व माना जाता है । बेकर ने राजनीति को शक्ति से अपृथकनीय कहा है । कैटलिन और लासवेल ने राज्य विज्ञान को ‘शक्ति का विज्ञान’ कहा है ।
विलियम रॉब्सन राजनीति विज्ञान को समाज में शक्ति, उसकी प्रकृति आधार प्रक्रियाओं विषय-विस्तार तथा परिणामों से सम्बन्धित मानता है । प्राचीन समय में राज-दार्शनिकों एवं चिन्तकों ने ‘शक्ति’ की धारणा की उपेक्षा नहीं की है । यह सच है कि, उनका दृष्टिकोण परम्परावादी था और इसलिए उनका ध्यान संस्थागत अध्ययन एवं राज्य की उत्पत्ति के इतिहास की खोज आदि की ओर अधिक रहा ।
फिर भी मैकियावेली, हॉब्स, कौटिल्य, हीगल, बोसांके, आदि प्रमुख विचारकों ने शक्ति और उससे सम्बन्धित तत्वों के अध्ययन की ओर प्रचुर मात्रा में ध्यान दिया । कौटिल्य ने तो स्पष्ट लिखा है कि- ‘समस्त सांसारिक जीवन का आधार दण्ड-शक्ति ही है ।’
आज इस तथ्य को स्वीकार कर लिया गया है कि- ‘शक्ति के अभाव में राजनीति अस्तित्वविहीन है ।’ राजनीति का क्षेत्र चाहे आन्तरिक हो या अन्तर्राष्ट्रीय दोनों में शक्ति को राजनीति से पृथक् करना कठिन है । प्रो. हान्स जे. मॉरगेन्थाऊ के शब्दों में- ”हर प्रकार की राजनीति चाहे वह घरेलू हो या अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति संघर्ष की एक प्रक्रिया है ।”
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मैकाइवर के शब्दों में- समस्त गति, सभी सम्बन्ध, सभी प्रक्रियाएं, समस्त व्यवस्था और प्रकृति में घटित होने वाली प्रत्येक घटना शक्ति की अभिव्यक्ति है । वस्तुत: राजनीति में शक्ति की वही भूमिका होती है, जो हाट अर्थव्यवस्था (मार्केट इकोनॉमी) में धन या रुपए की होती है ।
शक्ति अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा है । क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का संघर्ष को सुलझाने से सम्बन्ध है तो किसी राजनीतिक समुदाय के अन्तर्गत शक्ति का वितरण ही यह तय करता है कि, किस प्रकार संघर्ष को सुलझाया जाना है और क्या सभी पक्ष संघर्ष सुलझाने की शर्तों का पालन करेंगे ।
‘शक्ति’ की परिभाषा के सम्बन्ध में अनेक समस्याएं हैं । प्रारम्भ में ही हमारे सामने ‘शक्ति’, ‘प्रभाव’ तथा ‘सत्ता’ जैसे शब्दों की परिभाषाओं के विषय में सहमति नहीं है । रॉबर्ट डहल, हेरल्ड डॉ. लासवेल और रोवे ने शक्ति को ‘प्रभाव’ के अर्थ में प्रयुक्त किया है ।
कौटिल्य ने शक्ति को बल प्रयोग के रूप में दर्शाया है । मॉरगेन्थाऊ और कैटलिन ने शक्ति को ‘नियन्त्रण’ के अर्थ में प्रयुक्त किया है । हॉब्स ने अपनी पुस्तक लेवियाथन में शक्ति को ‘सामान्य प्रवृति बताते हुए लिखा है कि शक्ति की इच्छा मानव की अविच्छिन्न एवं अनवरत इच्छा है जिसका अन्त मृत्यु में होता है । फिर यह भी एक समस्या है कि शक्ति को ‘साध्य’ माना जाए अथवा ‘साधन’ । किसी राष्ट्र की शक्ति को कैसे मापा जा सकता है ?
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Essay # 2. राजनीतिक शक्ति: स्वरूप (Nature of Political Power):
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अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में हम जिस शक्ति की चर्चा कर रहे हैं वह ‘राजनीतिक शक्ति’ (Political Power) है । राजनीतिक शक्ति से अभिप्राय है अन्य मनुष्यों के कार्यों एवं मस्तिष्क पर नियन्त्रण करना । राजनीतिक शक्ति शारीरिक शक्ति से थोड़ी भिन्न है । जब हिंसा वास्तविकता का रूप धारण कर लेती है तो वह सैनिक शक्ति के पक्ष में राजनीतिक शक्ति के पद त्याग का द्योतक होता है ।
‘शक्ति’ की कुछ परिभाषाएं इस प्रकार हैं:
रॉबर्ट बायर्सटेड के अनुसार:
“शक्ति बल प्रयोग की योग्यता है, न कि उसका वास्तविक प्रयोग ।”
मैकाइवर के अनुसार:
“शक्ति व्यक्तियों तथा व्यवहार को नियन्त्रित करने विनियमित करने तथा निर्देशित करने की क्षमता है ।”
अर्नल्ड ब्रेख्त के अनुसार:
“शक्ति ऐसी योग्यता है जो अपनी इच्छा को कार्यान्वित कर सकती है ।”
मॉरगेन्थाऊ के अनुसार:
“शक्ति को कार्यान्वित करने वालों तथा उनके बीच जिन पर उन्हें कार्यान्वित किया जा रहा है एक मनोवैज्ञानिक सम्बन्ध है । वह पहली श्रेणी में आने वालों को दूसरी श्रेणी में आने वालों के कुछ कार्यों को उनके मस्तिष्क पर प्रभाव डालकर नियन्त्रण करने की क्षमता प्रदान करती है ।”
रॉबर्ट डहल के अनुसार:
“शक्ति लोगों के पारस्परिक सम्बन्धों की एक ऐसी विशेष स्थिति का नाम है जिसके अन्तर्गत एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को प्रभावित कर उससे कुछ ऐसे कार्य कराए जा सकते हैं जो उसके द्वारा अन्यथा न किए जाते ।”
गोलधमर तथा शिल्स के अनुसार:
“एक व्यक्ति को इतना ही शक्तिशाली कहा जाता है जितना वह अपने लक्ष्यों के अनुरूप दूसरों के व्यवहार को प्रभावित कर सकता है ।”
आर्गेन्सकी के अनुसार:
“शक्ति दूसरे राष्ट्रों के आचरण को अपने लक्ष्यों के अनुसार प्रभावित करने की क्षमता है । जब तक कोई राष्ट्र यह नहीं कर सकता चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो चाहे वह कितना ही सम्पन्न क्यों नहों तब तक उसे शक्तिशाली नहीं कहा जा सकता ।”
राजनीतिशास्त्र में जार्ज कैटलिन वह पहला व्यक्ति था जिसने एक ऐसे व्यवस्थित सिद्धान्त अथवा संकल्पनात्मक संरचना का विकास किया जिसमें शक्ति को केन्द्रीय स्थान पर रखा गया था । कैटलिन ने राजनीति के सम्बन्ध में मैक्स वेबर की उस परिभाषा को स्वीकार किया है जिसमें उसे ”शक्ति के लिए संघर्ष अथवा उन लोगों को जो शक्ति में हैं प्रभावित करने की प्रक्रिया” बताया गया है ।
उसकी दृष्टि में राजनीतिशास्त्र का क्षेत्र ”सामाजिक नियन्त्रणों के अध्ययन अथवा अधिक स्पष्ट रूप से कहा जाए तो, मानवीय और यहां तक कि पाशविक इच्छाओं के भी, सम्बन्धों को नियन्त्रण करने का क्षेत्र” है । कैटलिन ने इस बात पर जोर दिया है कि ‘नियन्त्रण की प्रत्येक प्रक्रिया राजनीति विज्ञान का एक घटक’ है ।
कैटलिन के अनुसार राजनीतिशास्त्र ‘नियन्त्रण की उस स्थिति का अध्ययन है जो शक्ति (प्राप्त करने) के लिए एक मूलभूत, पर अनभिज्ञता, प्रेरणा के द्वारा निर्धारित होती है’ । शक्ति की संकल्पना के अपने विश्लेषण में कैटलिन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि शक्ति से उसका अर्थ ‘प्रभुत्व’ की स्थिति अथवा सैनिक शक्ति से नहीं है ।
मॉरगेन्थाऊ की उस प्रसिद्ध उक्ति की आलोचना करते हुए जिसमें उसने कहा था, ”अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के चाहे अन्तिम उद्देश्य कुछ भी क्यों न हों, उसका तात्कालिक उद्देश्य शक्ति प्राप्त करना होता है”, कैटकिन ने सुझाव दिया कि ‘सहयोग’ भी शक्ति का एक रूप हो सकता है ।
शक्ति संकल्पना का सबसे विस्तृत विश्लेषण हमें लासवेल और केरन की रचनाओं में मिलता है । वे लिखते हैं, ”शक्ति की संकल्पना सम्भवत: समस्त राजनीति की मूल संकल्पना है राजनीतिक प्रक्रिया का अर्थ है शक्ति को आकार देना शक्ति वितरण करना और शक्ति का उपयोग करना ।”
लासवेल ने कैटलिन के इन विचारों का प्रशंसा के साथ उल्लेख किया है कि ”राजनीति विज्ञान, एक सैद्धान्तिक अध्ययन के रूप में मनुष्यों के आपसी सम्बन्धों के साथ जुड़ा हुआ है, ऐसे सम्बन्धों के साथ जिनका उद्देश्य समूहबद्धता और प्रतिस्पर्द्धा के क्षेत्र में हो सकता है और आज्ञाकारिता और नियन्त्रण के क्षेत्र में भी, जहां तक वे किसी वस्तु के उत्पादन और उपभोग की खोज में लगे हुए नहीं हैं परन्तु दूसरे मनुष्यों को अपनी इच्छा के सामने झुकाना चाहते हैं । राजनीतिक सम्बन्धों का लक्ष्य सदा ही मनुष्यों के द्वारा शक्ति की खोज है ।”
बर्ट्रेण्ड रसेल की शक्ति की यह परिभाषा है कि वह ‘अभीप्सित प्रभावों की सृष्टि’ है व्यक्तियों और समूह दोनों के सम्बन्ध में व्यवहार में लायी जा सकती है परन्तु राजनीतिक दृष्टि से जब हम शक्ति की बात करते हैं तो उसका अर्थ एक व्यापक रूप से अभीप्तित प्रभावों की सृष्टि नहीं होता, परन्तु केवल उन प्रभावों की सृष्टि होता है जिनका सीधा सम्बन्ध दूसरे मनुष्यों से होता है ।
इस प्रकार राजनीतिक शक्ति में, जो अन्य व्यक्तियों को प्रभावित करती है और प्रकृति के ऊपर की शक्ति में अन्तर किया जाना आवश्यक है । फ्राइडरिश ने शक्ति की परिभाषा ”एक विशेष प्रकार के मानवीय सम्बन्ध” के रूप में दी है और टोनी ने उसे किसी एक व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के समूह, को दूसरे व्यक्तियों अथवा समूहों के व्यवहार को उस दिशा में जिसमें शक्ति का उपयोग करने वाला चाहता है मोड़ देने की क्षमता बताया है ।
शक्ति का अर्थ निर्णयों के निर्माण में सहभागिता बताते हुए लासवेल लिखता है- ”निर्णयों का निर्माण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका सम्बन्ध अन्य व्यक्तियों से होता है उसमें यह निश्चय किया जाता है कि निर्धारित नीतियों पर वे अन्य व्यक्ति कैसे चलेंगे ।”
लासवेल यह आवश्यक नहीं मानता है कि, शक्ति के प्रयोग का आधार हमेशा ही अथवा सामान्य रूप से हिंसा पर होता है, अथवा बल प्रयोग को हिंसा और शारीरिक क्रूरता के अर्थों में शक्ति की स्थिति का निचोड़ माना जा सकता है ।
शक्ति का आधार विश्वास, निष्ठाएं आदत और निष्क्रियता भी उतना ही हो सकते हैं जितना हितों की खोज । यह भी आवश्यक नहीं है कि जब कभी नियन्त्रण लगाए जाएं तो उनका रूप हिंसा का ही हो । शक्ति का तो केवल यही अर्थ है कि (दूसरे की) नीतियों पर प्रभावशाली नियन्त्रण रखा जा सके इस नियन्त्रण को प्रभावशाली बनाने के साधन अनेक और विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं ।
राजनीतिक शक्ति, वास्तव में एक ऐसी जटिल संकल्पना है जिसके पीछे सदा ही यह मान्यता होती है कि उसके कई रूप हो सकते हैं, जैसे- सम्पत्ति, शस्त्रास्त्र, नागरिक अधिकार, लोकमत पर प्रभाव-जिनमें से किसी को भी किसी दूसरे पर आश्रित नहीं माना जा सकता ।
संक्षेप में, राजनीतिक शक्ति का अर्थ-दूसरों के व्यवहार पर नियन्त्रण या प्रभुत्व । रॉबर्ट डहल ने अधिक स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ‘अ’ उस सीमा तक ‘ब’ पर शक्ति रखता है जिस सीमा तक वह ‘ब’ से वे कार्य करा लेता है, जिन्हें वह अन्यथा नहीं करता ।
याने राजनीतिक शक्ति एक सम्बन्ध (Relationship) है । फिर भी, यह ऐसा सम्बन्ध हे, जो सदा स्पष्ट नहीं होता । इस प्रकार यदि अफगानिस्तान में सोवियत संघ की फौजें विद्यमान थीं और अमरीका के बार-बार धमकी देने के उपरान्त भी सोवियत संघ ने फौजें नहीं हटायी तो हम कह सकते हैं कि सोवियत संघ के पास राजनीतिक शक्ति थी ।
पर यह भी सम्भव है कि किन्हीं अन्य कारणों से सोवियत सेनाएं अफगानिस्तान से हट जातीं और यह मात्र संयोग ही हो कि सोवियत सेनाएं उसी समय हटना शुरू कर देतीं जब भारत अथवा गुटनिरपेक्ष राष्ट्र प्रबल रूप से ऐसी मांग कर रहे थे तो इससे भारत या गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों की ‘शक्ति’ के बारे में कुछ भी साक्ष्य नहीं मिलेगा ।
अक्सर ‘शक्ति सम्बन्ध’ (Power Relationship) की स्थिति से यह मालूम करना बहुत कठिन है कि किसी व्यक्ति या गुट के व्यवहार में बदलाव क्यों हुआ ? मॉरगेन्थाऊ के अनुसार- “जब हम शक्ति की चर्चा करते हैं, तो हमारा तात्पर्य उस शक्ति से होता है जो मनुष्य अन्य मनुष्यों के मस्तिष्क व कार्यों के ऊपर प्रयोग करता है । राजनीतिक शक्ति से हमारा तात्पर्य जन शक्तियों के आपसी सम्बन्धों व उनके तथा सामान्य जनता के सम्बन्धों से हाता है ।”
राजनीतिक शक्ति के सम्बन्ध में तीन बातें कही जा सकती हैं:
प्रथम:
राजनीतिक शक्ति के धारण करने वालों में उच्च-अधीनस्थ सम्बन्ध (Superior-Subordinate Relationship) प्रकट होना स्वाभाविक है ।
द्वितीय:
राजनीतिक शक्ति का प्रयोग अन्ततोगत्वा सामान्य जनता पर होता है और उसे सत्ता का प्रयोग करने वाले की बात माननी पड़ती है ।
तृतीय:
राजनीतिक शक्ति मनोवैज्ञानिक सम्बन्ध प्रकट करती है न कि शारीरिक या भौतिक सम्बन्ध । मॉरगेन्थाऊ के अनुसार- “शक्ति का प्रयोग करने वाले तथा जिसके विरुद्ध शक्ति प्रयुता होती है- इन दो राष्ट्रों के मध्य का मनोवैज्ञानिक सम्बन्ध ही राजनीतिक शक्ति है ।”
आर्गेन्स्की शक्ति को मुख्यत: उसके निषेधात्मक पहलू के रूप में ही देखते हैं । अर्थात् शक्ति अधिकतर दूसरे राष्ट्रों को अनचाहा कार्य करने से रोकने की क्षमता (Capabilities) का नाम है । वैसे उनसे अनचाहा कार्य कराने की क्षमता का नाम भी शक्ति है । इस प्रकार शक्ति निषेधात्मक भी हो सकती है और सकारात्मक भी ।
Essay # 3. राजनीतिक शक्ति के स्रोतों (Sources of Power):
राजनीतिक शक्ति के स्रोतों की पूर्ण सूची देना सम्भव नहीं है, क्योंकि विचारकों में इस सम्बन्ध में बहुत अधिक मतभेद हैं । धन सम्पदा, प्राकृतिक सम्पदा के साधन, मानव शक्ति और शस्त्र, आदि किसी भी राष्ट्र की शक्ति के महत्वपूर्ण अवयव (Organs) हैं । पर उनका महत्व इस दृष्टि से आंकना होगा कि अन्य राज्यों के व्यवहार को प्रभावित करने के लिए उनका उपयोग कहां तक किया जाता है ।
निस्सन्देह धन सामान्यतया शक्ति का एक महत्वपूर्ण अवयव है क्योंकि, इसके द्वारा कोई राज्य दूसरे राज्य के व्यवहार को प्रभावित करने के लिए उसे पुरस्कार के रूप में बहुत कुछ दे सकता है । धन से शक्ति के अन्य अवयव खरीदे भी जा सकते हैं जैसे बल प्रयोग के साधन ।
अरब देशों और ईरान के पास तेल के अटूट भण्डार हैं जिससे वे अन्य देशों के व्यवहार को प्रभावित करते हैं । पर धन या प्राकृतिक सम्पदा होने मात्र से शक्ति प्राप्त नहीं होती । उदाहरण के लिए, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में संयुक्त राज्य अमरीका की बहुत समय तक कोई विशेष शक्ति नहीं थी हालांकि वह बहुत धनी राज्य था ।
किसी राज्य या व्यक्ति की शक्ति केवल सम्पदा के स्वामित्व से नहीं बल्कि उसके उपयोग से प्राप्त होती है । वही राष्ट्र या व्यक्ति शक्तिसम्पन्न है जिसके पास ताकत के स्रोत भी है और जो अन्य राष्ट्रों और व्यक्तियों के व्यवहार को प्रभावित या नियन्त्रित करने में अपने साधनों का सफलता से उपयोग करना भी जानता है । जर्मनी की स्थिति को देखिए ।
प्रथम विश्वयुद्ध से पहले वह संसार के सबसे शक्तिशाली राष्ट्रों में था पर युद्ध में हारने के बाद उसकी स्थिति नगण्य-सी रह गयी । अब वह एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है । यह ठीक है कि दो विश्वयुद्धों में जर्मनी को धन, क्षेत्र और साधनों की हानि हुई पर उसकी सबसे बड़ी हानि हुई कि दूसरे देशों को प्रभावित करने की उसकी सामर्थ्य जाती रही ।
शक्ति के कई स्रोत हो सकते हैं । शक्ति का पहला स्रोत ज्ञान (Knowledge) है । ज्ञान के द्वारा व्यक्ति की अन्य विशेषताओं को इस प्रकार संचालित किया जाता है कि वे शक्ति के साधन बन सकें । व्यक्ति नेतृत्व का गुण, उसकी इच्छा की शक्ति उसकी सहन शक्ति, अपने आपको अभिव्यक्त करने की शक्ति, आदि शक्ति के विभिन्न महत्वपूर्ण पहलू हैं ।
प्राप्तियां (Possessions) भी शक्ति का स्रोत है । प्राप्तियों के अन्तर्गत भौतिक सामग्री स्वामित्व आर्थिक साधन आदि को सम्मिलित किया जा सकता है । ऐसा माना जाता है कि सम्पत्ति और सम्पदा राष्ट्र या व्यक्ति को अप्रत्यक्ष शक्ति प्रदान करते हैं ।
संगठन (Organizations) अपने आप में शक्ति का एक महत्वपूर्ण स्रोत है । ‘संगठन ही शक्ति है’ की कहावत पर्याप्त सत्यता रखती है । कभी-कभी राष्ट्र का आकार (Size) भी शक्ति का स्रोत बन जाता है । ऐसा माना जाता है कि राष्ट्र का आकार जितना बड़ा होगा उतना ही वह शक्तिशाली बनने की क्षमता विकसित करेगा ।
Essay # 4. राजनीतिक शक्ति के प्रकार (Types of Power):
राजनीतिक शक्ति तीन रूपों में अभिव्यक्त होती है:
(1) शारीरिक शक्ति,
(2) मनोवैज्ञानिक शक्ति तथा
(3) आर्थिक शक्ति ।
1. शारीरिक शक्ति (Physical Power):
प्रत्येक राष्ट्र की सरकार राजनीतिक शक्ति का प्रयोग करती है, किन्तु वह ऐसा इसलिए कर पाती है चूंकि सेना राजनीतिक सत्ता के अधीनस्थ होती है । जब-जब सेना की ऐसी अधीनस्थ स्थिति का अन्त होता है तब-तब राजनीतिक शक्ति सैनिक नेतृत्व के हाथों में चली जाती है ।
अन्तर्राष्ट्रीय जगत में यह देखा गया है कि यदा-कदा सैनिक क्रान्तियां (Coup d’ etat) होती रहती हैं और राजनीतिक शक्ति का राजनीतिक नेतृत्व से सैनिक नेतृत्व के हाथों में हस्तान्तरण होता रहता है । जिन देशों में लोकतान्त्रिक परम्परा का अभाव पाया जाता है और लोकमत की अवज्ञा होती है वहां राजनीतिक शक्ति के सैनिक शक्ति के अधीनस्थ होने की प्रवृत्ति देखी गयी है ।
वर्षों तक लैटिन अमरीका का शासन इसी ढंग से चलता रहा और संयुक्त राज्य अमरीका, जोकि इन लैटिन अमरीकन देशों की अर्थव्यवस्था को नियन्त्रित करता रहा, यथार्थ में अपनी केन्द्रीय गुप्तचर एजेन्सी (Central Intelligence Agency) के माध्यम से इन देशों की राजनीतिक शक्ति को भी नियन्त्रित करता रहा और समय पर इन देशों की सैनिक सत्ता के तख्ते पलटने में (Coups) अहम् भूमिका अदा करता रहा है ।
प्रौद्योगिकी के तीव्र विकास के परिणामस्वरूप राज्य की शारीरिक शक्ति इसके कई घटकों में बंटी रहती हैं जिनमें स्थल सेना, जल सेना, वायु सेना और प्रक्षेपास्त्रों वाले परमाणु शक्ति के केन्द्र प्रमुख हैं । सैनिक शक्ति के इस प्रकार विभाजन से राजनीतिक सत्ता को थोड़ी सुरक्षा प्राप्त होती है और बड़े देशों में आसानी से सैनिक क्रान्ति नहीं हो पाती है ।
2. मनोवैज्ञानिक शक्ति (Psychological Power):
मनोवैज्ञानिक शक्ति ऐसे प्रतीकात्मक सूचकों (Symbolic Devices) से मिलकर बनती है जो व्यक्तियों के मस्तिष्कों और भावनाओं को प्रभावित करते हैं । यह प्रचार माध्यमों (Propaganda) के जरिए लोगों के विचारों और कार्यों को नियन्त्रित करने का तरीका है ।
राज्य अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी चतुराई से मनोवैज्ञानिक शक्ति का प्रयोग करते रहते हैं । अरब-इजरायल युद्ध के समय इजरायल ने बड़ी चतुराई से यह उद्घाटित किया कि उसके पास कुछ आणविक बम हैं । यथार्थ में ऐसी खबर फैलाने का ध्येय केवल अरब राष्ट्रों के मनोबल को कम करना ही था ।
गणतन्त्र दिवस परेड के समय भारत प्राय: विभिन्न टैंकों और विशिष्ट हथियारों का प्रदर्शन करता है जिसका ध्येय पड़ोसियों को यह दिखाना है कि अब भारत सैनिक दृष्टि से काफी शक्तिशाली है । अक्टूबर क्रान्ति की सालगिरह के दिन पूर्व सोवियत संघ में रॉकेट्स और टैंकों के प्रदर्शन किए जाते थे जो एक मनोवैज्ञानिक शक्ति के प्रदर्शन का तरीका था ।
राज्य की जनता पर अपना प्रभावशाली नियन्त्रण स्थापित करने के लिए कई बार सरकारें प्रचार माध्यमों का सहारा लेती हैं । अपने मनोवैज्ञानिक प्रभाव की वृद्धि के लिए कई राज्य प्रतिदिन विशिष्ट रेडियो प्रसारण करते रहते हैं । रेडियो पीकिंग प्रतिदिन हिन्दी में प्रसारण करता रहता है ।
ताशकन्द रेडियो स्टेशन अपने में विशिष्ट ‘पीस एण्ड प्रोग्रेस’ हिन्दी कार्यक्रम के अन्तर्गत हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में प्रसारण करता था । बी. बी. .सी. और वॉयस ऑफ अमरीका अनेक विदेशी भाषाओं में प्रसारण करते हैं ।
इन प्रसारणों का उद्देश्य शत्रु को कमजोर बनाना उसके मनोबल को क्षीण करना और शत्रु अथवा विरोधी राज्य में अव्यवस्था फैलाकर उद्देश्यों की प्राप्ति करना है । शक्ति का निहितार्थ यह है कि, विपक्षी को कोई बात स्वीकार कराने के लिए मजबूर कर दिया जाए ।
सैनिक बल से ऐसा करने पर उसे हम सैनिक शक्ति की संज्ञा देते हैं लेकिन कूटनीति प्रचार आदि द्वारा भी किसी राष्ट्र को इस प्रकार विवश किया जा सकता है । जब हम प्रचार कूटनीति आदि का प्रयोग इस रूप में करें कि दूसरा देश हमारी नीतियों को मानने के लिए विवश हो जाए तो यह मनोवैज्ञानिक शक्ति कहलाएगी ।
3. आर्थिक शक्ति (Economic Power):
राजनीतिक शक्ति का प्रयोग व्यवहार में आर्थिक साधनों द्वारा होता है । किसी भी राज्य का विदेशी व्यापार केवल अपनी वस्तुओं का विक्रय करने और विदेशी मुद्रा कमाने मात्र से ही सम्बन्धित नहीं होता अपितु व्यापार के माध्यम से उस देश में अपनी राजनीतिक शक्ति का विस्तार करना भी अन्य महत्वपूर्ण ध्येय होता है । अपने विदेश निर्यात के माध्यम से एक राज्य चाहे तो किसी भी अन्य राज्य को आर्थिक दृष्टि से अपने पर निर्भर बना सकता है ।
विदेशी आर्थिक सहायता के राजनीतिक प्रभाव इस प्रकार हैं:
(i) विदेशी सहायता से देश आत्म-निर्भर नहीं बन सकता और आर्थिक तथा तकनीकी दृष्टि से परमुखापेक्षी हो जाता है,
(ii) विदेशी सहायता से होने वाले तात्कालिक लाभ के फेर में देश पर कर्ज का भारी बोझ आ जाता है जिसको चुकाते-चुकाते नाक में दम आने लगता है,
(iii) आर्थिक विकास के लिए विदेशी सहायता से भी अधिक महत्व आत्म-सम्मान का है । लम्बी आर्थिक परनिर्भरता से देश का मनोबल एवं आत्म-सम्मान क्षीण होता है ।
जो देश भारत को विदेशी सहायता प्रदान करते हैं, वे चाहते हैं कि भारत उन्हीं के प्रभाव क्षेत्र में रहे और अपना स्वतन्त्र चिन्तन तथा कार्य बन्द कर दे । ऐसा कहा जाता है कि, सन् 1966 में हमें अपने रुपए का अवमूल्यन विदेशी आर्थिक दबाव के कारण ही करना पड़ा ।
नेपाल और भूटान का अधिकांश व्यापार भारत से होता है, अत: आर्थिक दृष्टि से वे भारत पर निर्भर हैं । अमरीका के बहुराष्ट्रीय निगम (Multinational Cartels) लैटिन अमरीकी देशों की अर्थव्यवस्था को नियन्त्रित करने की स्थिति में हैं चूंकि उनका दो-तिहाई विदेशी व्यापार संयुक्त राज्य अमरीका से होता है ।
सन् 1975 में कनाडा की बड़ी कम्पनियों के 50 प्रतिशत शेयर अमरीकी बहुराष्ट्रीय निगमों के पास थे । पश्चिमी यूरोप तथा जापान का अधिकांश व्यापार संयुक्त राज्य अमरीका से होता है अत: इन देशों की अर्थव्यवस्था अमरीका पर निर्भर बन गयी है ।
Essay # 5. राजनीतिक शक्ति को प्रयोग में लाने की पद्धतियां (Techniques for the Use of Power):
दो राष्ट्र या व्यक्ति हैं ‘क’ और ‘ख’ । उनके बीच एक समस्या है । यह भी कल्पना करें कि ‘क’ कुछ करना चाहता है और ‘ख’ उससे भिन्न कुछ करना चाहता है । किन्हीं भी वास्तविक परिस्थितियों में ‘क’ ‘ख’ को प्रभावित करने का प्रयास करेगा । प्रश्न है कि दोनों राष्ट्रों या व्यक्तियों को एक-दूसरे के आचरण को प्रभावित करने के लिए क्या करना चाहिए ? सामान्यत: इनके पास चार विकल्प हैं ।
वे एक-दूसरे को समझा-बुझा सकते हैं वे एक-दूसरे को प्रलोभन दे सकते हैं वे धमकी को भी प्रयोग में ला सकते हैं और आवश्यकता पड़ने पर वे बल प्रयोग भी कर सकते हैं । डॉ. महेन्द्रकुमार लिखते हैं: “राज्य अन्य राज्यों से अपना अभीष्ट व्यवहार कराने के लिए जो विधियां या तरीके अपनाते हैं वे मुख्यत: चार हैं: अनुनय (persuasion); पारितोषिक या पुरस्कार (Rewards); दण्ड (Punishment) और बल प्रयोग (Coercion) । यदि अन्य राज्यों का व्यवहार नियन्त्रित करने की सामर्थ्य को शक्ति माना जाए तो इन विधियों को शक्ति के प्रयोग के साधन भी कहा जा सकता है ।” इस प्रकार स्पष्ट है कि शक्ति को प्रयोग में लाने के चार तरीके हैं: समझाना, प्रलोभन, दण्ड और शक्ति ।
हम इन चारों तरीकों की संक्षेप में विवेचना करेंगे:
(1) समझाना (Persuasion):
शक्ति को प्रयोग में लाने का सबसे सुगम तरीका समझाने का ही है । अगर ‘क’ के समझाने-बुझाने को ‘ख’ मान लेता है तो उसका परिणाम स्थायी होता है । इस पद्धति को प्रयोग में लाने के लिए ‘क’ को केवल एक काम करना है और वह यह है कि वह सपूर्ण परिस्थिति को इस प्रकार परिभाषित करे जिससे ‘ख’ इस सम्बन्ध में अपना विचार बदल दे और उसकी बात मान ले ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राजनय (Diplomacy) का आधार समझाने की विधि ही है । राजनयिक प्रतिनिधि अन्य विरोधी राष्ट्रों के राजनयिक प्रतिनिधियों से अपने सुझाए तरीके के अनुसार व्यवहार कराने के लिए उन्हें तर्क और चातुर्य से प्रभावित करने की कोशिश करते हैं । एक राजनयिक की सफलता का मूल्यांकन इस आधार पर किया जाना चाहिए कि प्रलोभन दण्ड और शक्ति की विधियों का सहारा लिए बिना ‘समझाने की कला’ का वह किस सीमा तक उपयोग कर सकता है ?
(2) प्रलोभन (Rewards):
‘क’ के पास ‘ख’ के आचरण को अपने अनुकूल बनाने की जो दूसरी पद्धति उपलब्ध है वह प्रलोभन, पारितोषिक या पुरस्कार की है । इस विधि में एक राष्ट्र अन्य दूसरे राष्ट्रों को प्रलोभन का वचन देकर उनके व्यवहार पर प्रभाव डालने की कोशिश करता है । ये प्रलोभन चार प्रकार के हो सकते हैं: मनोवैज्ञानिक भौतिक आर्थिक ओर राजनीतिक ।
सामान्यत: प्रलोभन भौतिक होते हैं । ‘क’ राष्ट्र ‘ख’ को भूप्रदेश, सैनिक सहायता, सैनिक अड्डे या प्रशिक्षण सुविधाएं आदि का प्रलोभन दे सकता है । आजकल आर्थिक प्रलोभनों का विशिष्ट महत्व है । एक राष्ट्र दूसरे को अपनी तरफ मिलाने के लिए उसे कर्ज अथवा सहायता के रूप में धन दे सकता है ।
द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् अमरीका और सोवियत संघ द्वारा जो आर्थिक सहायता की नीतियां अपनायी गयीं उसे प्रलोभन द्वारा शक्ति के प्रयोग की विधि कहा जा सकता है । राजनीतिक प्रलोभनों के अन्तर्गत अधीनस्थ राज्य को स्वाधीन करने की बात किसी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में अन्य राज्य के दृष्टिकोण को समर्थन देने की बात आती है ।
(3) दण्ड (Punishment):
शक्ति को प्रयोग में लाने का तीसरा तरीका दण्ड की धमकी देना है । यदि ‘ख’ समझाने और प्रलोभन के बावजूद वह काम करता है जिसे ‘क’ अवांछनीय समझता है तो ‘क’ उस स्थिति में ‘ख’ को दण्ड की धमकी दे सकता है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में दण्डात्मक कार्यों की कार्यान्विति आए-दिन होती है परन्तु दण्ड को प्रभावशाली बनाने के लिए आवश्यक है कि उसकी केवल धमकी दी जाए उसे प्रयोग में न लाया जाए ।
(4) बल या शक्ति (Force):
शक्ति को प्रयोग में लाने का अन्तिम तरीका बल है । दण्ड और बल प्रयोग में भेद करने की आवश्यकता है । दण्ड की निरोध के रूप में धमकी दी जाती है परन्तु जब सचमुच इस धमकी को अमल में लाया जाता है तो यह बल प्रयोग बन जाती है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में बल प्रयोग का सबसे अधिक उग्र रूप युद्ध है वस्तुत: वह बल प्रयोग का अन्तिम चरण है । उसका प्रयोग केवल उस समय होता है जब सम्बद्ध राष्ट्र को समझाने से अथवा घूस से अथवा धमकी से अपने आचरण को बदलने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता । शक्ति के प्रयोग साधन के रूप में बल प्रयोग का सहारा आखिरी हथियार के रूप में ही लिया जाता है ।
Essay # 6. राजनीतिक शक्ति साधन है अथवा साध्य (Political Power as an End or as a Means):
आदर्शवादी विचारकों के अनुसार शक्ति के लिए वर्तमान संघर्ष अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अस्थायी लक्षण है और वे यह विश्वास करते आए हैं कि परिस्थितियों में परिवर्तन होते ही शक्ति की यह होड़ समाप्त हो जाएगी ।
बेन्थम के अनुसार- उपनिवेशों को स्वतन्त्रता देकर, प्रूदों के विचार में व्यापारिक नियन्त्रणों को समाप्त करके तथा कार्ल मार्क्स के शब्दों में पूंजीवाद के समाप्त होते ही शक्ति के लिए होने वाली होड़ समाप्त हो जाएगी ।
आधुनिक युग में राष्ट्रसंघ तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना पर भी ऐसे ही विचार व्यक्त किए गए थे । अमरीकी परराष्ट्र सचिव कार्डेहल ने 1943 में मास्को कॉन्फ्रेन्स से लौटते हुए कहा था कि संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना शक्ति राजनीति को समाप्त करके अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के नूतन अध्याय का सूत्रपात करेगी ।
फिर भी शक्ति के द्वन्द्व, संघर्ष, प्रतिस्पर्द्धा और प्रयोग को आज तक समाप्त नहीं किया जा सका है । यह द्वन्द्व सार्वकालिक और निरन्तर गतिशील प्रतीत होता है क्योंकि जीवित रहने, सुरक्षित रहने तथा दूसरों को प्रभावित करके प्रभुत्व स्थापित करने की प्रवृत्ति मानव मात्र की प्रवृत्ति है ।
शक्ति के लिए निरन्तर होड़ आधुनिक राज्यों की मुख्य विशेषता है क्योंकि प्रत्येक राज्य अपनी स्थिति बनाए रखना चाहता है और जीवित रहना चाहता है । अपने आपको सुरक्षित रखने की भावना ही शक्ति संकलन की मूल प्रेरणा है । युद्ध, सैनिक तथा क्षेत्रीय विवर्धन, सुरक्षित रहने की मूल भावना से ही प्रेरित होते हैं ।
ई. एच. कार के अनुसार प्रथम विश्व-युद्ध में भाग लेने वाले अधिकांश राज्यों की दृष्टि से युद्ध रक्षात्मक तथा निवारक ही था । रेनहोल्ड नेबूर के शब्दों में- ”सुरक्षित रहने की तथा शक्ति संचय की इच्छा में विभाजक रेखा खींच पाना अत्यन्त कठिन है ।”
राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए शक्ति का संचय करना राज्य का मूलभूत अधिकार हे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में स्वतन्त्रता की रक्षा अथवा परराष्ट्र नीति द्वारा अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के लिए एक राष्ट्र को शक्ति का सहारा लेना ही पड़ता है ।
शान्तिकाल में भी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र पर शक्ति द्वारा दबाव डालने की निरन्तर प्रक्रिया का ही दूसरा नाम है । वही राज्य अन्तर्राष्ट्रीय जगत में स्थान बना पाते हैं जो शक्ति सामर्थ्य भी रखते हैं तथा उसका प्रदर्शन व प्रयोग भी करते हैं ।
प्रत्येक राज्य स्वयं ही शक्तिशाली होकर शान्तिकाल में विदेश नीति में सफलता प्राप्त करता है तथा युद्ध में अपनी सामर्थ से ही अपनी रक्षा में समर्थ होता है । इसलिए प्रत्येक राज्य का लक्ष्य अधिकाधिक राष्ट्रीय शक्ति का विकास करना होता है । वह ‘शक्ति’ जिसको अपने राज्य में उत्सुकतापूर्वक सुरक्षित रखना तथा दूसरों में व्यग्रतापूर्वक देखना आवश्यक होता है, अन्तिम विश्लेषण के अनुसार सैनिक शक्ति अथवा युद्ध करने की योग्यता है ।
शक्ति का स्वत: अर्थ ‘मित्रों’ को प्राप्त करने तथा लोगों को प्रभावित करने, सहानुभूति जाग्रत करने, आज्ञा-पालन करने का अधिकार प्राप्त करने, बल-प्रयोग, प्रचार तथा सम्मान एवं सहयोग उत्पन्न करने वाले भौतिक साधनों एवं प्रवंचनाओं से सम्बन्धित उपायों द्वारा दृढ़तापूर्वक कार्य कर लेने की योग्यता ही है’, परन्तु वह शक्ति जो राज सत्ताओं के अन्य राज सत्ताओं से व्यवहार करने से प्रधान रूप में सम्बन्ध रखती है एक सुसंगठित सरकार के ढांचे के अन्तर्गत कार्य करने वाले राजनीतिज्ञों राजनीतिक दलों, दबाव डालने वाले समुदायों गोष्ठीगृहों तथा मतदाताओं की शक्ति की अपेक्षा एक सरल अधिक सीमित एवं अधिक अनिश्चित गुण है ।
यहां पर शक्ति का आशय लेने का अवसर कम हो जाता है तथा वास्तव में बल प्रयोग की शक्ति पर एकाधिकार रखने वालों द्वारा दृढ़तापूर्वक रोक दिया जाता है । कपट एवं अनुग्रह अर्थात् पूर्वाग्रह, विचार शक्ति एवं लालसा में प्रति अपीलों-का नियमित परिस्थितियों में प्राधान्य रहता है परन्तु स्वतन्त्र राज्यों में प्रभाव के ये साधन प्राय: महत्वपूर्ण होते हुए भी अपने विस्तार एवं गुण में सीमित होते हैं ।
सम्राटों की अन्य सम्राटों के साथ व्यवहार करने की अन्तिम युक्ति, शक्ति ही है । समस्त विगत अनुभव के आधार पर प्रत्येक राज्य के लिए यह आवश्यक है कि अन्य राज्यों के मुकाबले में अपने हितों की रक्षा करना तथा अपनी स्थिति को सुरक्षित करने की योगता अपनी सशस हिंसा का प्रभावकारी रूप में प्रयोग करने की योग्यता पर निर्भर करती है ।
कुछ अपवादों को छोड्कर, कोई भी राज्य, जो दृढ़तापूर्वक युद्ध करने की शक्ति न रखता हो, उचित रूप में यह आशा नहीं कर सकता कि दूसरे राज्य उसकी मांगों को पूरा करें उसकी इच्छाओं की ओर ध्यान दें अथवा उसके जीवित रहने तक के अधिकार को स्वीकार करें ।
कूटनीति का सौदा करने की प्रक्रिया में ‘मर्यादा’ सबसे महत्वपूर्ण है । ‘मर्यादा’ का अर्थ शक्ति की प्रतिष्ठा है । इस प्रकार कूटनीति प्रच्छन्न युद्ध है, ठीक जिस प्रकार कि युद्ध से तात्पर्य समझौते की बातचीत के स्थान पर सैनिक बल प्रयोग द्वारा राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति की चेष्टा है । दोनों ही अवस्थाओं में शस्त्रों के चतुराईपूर्ण एवं सफल प्रयोग की योग्यता ही अधिकांशत: निर्णायक होती है ।
अतएव, शक्ति के अनुसरण का अर्थ प्राय अन्य उद्देश्यों का साधन न होकर, स्वयं उद्देश्य ही हो जाता है । यदि राज्य के पास अपने अन्तिम उद्देश्य-आत्मरक्षा-को पूरा करने की शक्ति नहीं होती तो अन्य उद्देश्यों का कोई अर्थ नहीं होता ।
युद्ध करने की योग्यता के साथ बल प्रयोग इस तथ्य के कारण कि प्रत्येक राज्य आदर्श रूप में अपनी शक्ति के विस्तार से ही उसको सुरक्षित रख सकता है, तथा दूसरे लोगों को उनकी सुरक्षा से वंचित करके ही अपनी सुरक्षा की गारण्टी कर सकता है आन्तरिक भय के रूप में परिणत हो जाता है ।
प्रत्येक राजसत्ता, अपने पड़ोसियों तथा प्रतियोगियों की स्वतन्त्रता का अन्त करके ही सभी सम्भावित धमकियों के विरुद्ध अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा कर सकती है । यदि उसके पास ऐसा करने के लिए यथेष्ट शक्ति है, तथा दूसरों के पास उसके प्रभाव को रोकने की काफी शक्ति की कमी है तो वह गणितशासी निश्चय के साथ उन्हें अपने अधिकार के अधीन करने को अग्रसर होगी ।
वास्तविकता यह होने के कारण, प्रत्येक राज्य के लिए जो जीवित रहने की आशा करता है यह आवश्यक हो जाता है कि, वह ऐसे रूप में ही अपनी शक्ति को कायम न रखे जो सम्भावित अनिश्चित घटनाओं का सामना करने को ही काफी हो वरन् दूसरों की शक्ति की किसी भी ऐसी वृद्धि को रोकने के लिए यथेष्ट हो जिससे कि शक्ति के परीक्षण में उन्हें सफलता मिल सके ।
शक्ति के साधन:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति क्या एक साधन है ? राज्य दूसरे राज्यों के व्यवहार को क्यों नियन्त्रित करना चाहते हैं ? जिस प्रकार धन एक साधन है और धन से अन्य कई चीजें खरीदी जा सकती हैं उसी प्रकार शक्ति विदेश नीति का एक साधन है और शक्ति के माध्यम से विदेश नीति के लक्ष्यों (राष्ट्रीय हितों) को प्राप्त किया जा सकता है ।
शक्ति के माध्यम से एक राष्ट्र को प्रतिष्ठा, भूमि, कच्चा माल, सुरक्षा और मित्र प्राप्त हो सकते हैं । सन् 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण करके यथाशीघ्र युद्ध बन्द कर दिया । सन् 1979 में चीन ने वियतनाम पर आक्रमण करके भी थोड़े ही दिनों में युद्ध बन्द कर दिया ।
ऐसा लगता है कि चीन का उद्देश्य अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना मात्र था । इसमें जहां उसे प्रतिष्ठा प्राप्त होने ही अभिलाषा थी वहीं थोड़ा-बहुत प्रादेशिक लाभ भी मिला । दोनों ही मामलों में चीन ने शक्ति को विदेश नीति के साधन के रूप में प्रयुक्त किया ।
शक्ति साध्य है:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में कभी-कभी व्यक्ति और राष्ट्र शक्ति को साध्य (The end) मानने की भूल कर बैठते हैं । राजनीतिज्ञों की अधिकतम शक्ति संचय की महत्वाकांक्षा और छोटे-छोटे महत्वहीन मुद्दों पर बल प्रयोग करने की प्रवृत्ति या धमकी ‘शक्ति’ को साध्य में परिवर्तित कर देती है ।
हिटलर और मुसोलिनी के लिए शक्ति साधन न होकर साध्य थी । मॉरगेन्थाऊ के राजनीतिक यथार्थवाद में छ: सिद्धान्तों का निचोड़ यही है कि ‘राष्ट्रीय हित को शक्ति के परिप्रेक्ष्य’ (National Interest defined in Terms of Power) में परिभाषा किया जा सकता है । अर्थात् शक्ति ही राष्ट्रीय हित है ।
प्रत्येक राष्ट्र की विदेश नीति का अन्ततोगत्वा ध्येय ‘शक्ति का अर्जन’ है । शक्ति अपने आप में एक उद्देश्य है । वस्तुत: शक्ति साध्य भी है साधन भी । जहां शक्ति अपने आपमें एक उद्देश्य है वहां वह दूसरे उद्देश्यों की पूर्ति का साधन भी हो सकती है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति साधन इसलिए है कि इससे राष्ट्र-हित की पूर्ति होती है और साध्य इसलिए है कि शक्ति का आधिपत्य बना रहना राष्ट्र-हित की सुगम सिद्धि के लिए आवश्यक है । अमरीका और चीन शक्तिशाली माने जाते हैं अत: कई बार छोटे राज्य उनकी संचित शक्ति के भय मात्र से उनकी बात मान लेते हैं ।
अत: अपने राष्ट्रीय हितों की प्राप्ति के लिए संचित शक्ति अमरीका और चीन के लिए साध्य बन जाती है । शक्ति के इस आधिपत्य के कारण ही अमरीका और चीन के लिए वांछित लक्ष्यों की सिद्धि सुगम हो जाती है ।
सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान में हस्तक्षेप, सं. रा. अमरीका का ग्रेनाडा पर आक्रमण, भारत का बांग्लादेश की स्वतन्त्रता के लिए प्रयत्न, खाड़ी युद्ध में अमरीकी महत्व, आदि शक्ति को साधन के रूप में प्रयुक्त करने के तरीके हैं ताकि वांछित राष्ट्रीय हितों की पूर्ति हो सके ।
Essay # 7. राजनीतिक शक्ति: मूल्यांकन की विशेष भूलें (Political Power: Typical Errors of Evaluation):
प्रो. मॉरगेन्थाऊ ने राजनीतिक शक्ति के मूल्यांकन के सन्दर्भ में तीन विशेष भूलों की ओर संकेत किया है:
प्रथम भूल यह है कि- जब एक राष्ट्र स्वयं एक निरंकुश शक्ति बन बैठता है और दूसरी शक्तियों के सापेक्ष महत्व की अवहेलना करता है ।
दूसरी भूल यह है कि- जब कोई राष्ट्र अतीत काल में निश्चित रूप से महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने वाले अपने किसी एक शक्ति तत्व को ही स्थायी मान बैठता है और उस गतिमय परिवर्तन की उपेक्षा करता है जो अधिकांश शक्ति तत्वों को शामिल करता है ।
तीसरी भूल तब होती है- जब कोई राष्ट्र अपने किसी एक ही शक्ति तत्व को निर्णयात्मक महत्व देता है और अन्य शक्ति के तत्वों की परवाह नहीं करता ।
दूसरे शब्दों में- ”प्रथम भूल, एक राष्ट्र की शक्तियों का अन्य राष्ट्रों की शक्तियों के साथ सामंजस्य स्थापित न करने में निहित है, दूसरी भूल, एक समय की वास्तविक शक्ति का भविष्य की सम्भाव्य शक्ति से सामंजस्य स्थापित न करने में है और तीसरी भूल, एक ही राष्ट्र के एक शक्ति तत्व का उसी राष्ट्र के अन्य शक्ति तत्वों के साथ सामंजस्य स्थापित करने में है।”
Essay # 8. राजनीतिक शक्ति के आधार पर राज्यों का वर्गीकरण (Power Based Classification of States):
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में 193 से भी कहीं अधिक राज्य गतिमान हैं । शक्ति के आधार पर इनमें से कुछ राष्ट्र बड़े राष्ट्र कहलाते हैं और कुछ छोटे राष्ट्र । डेविड वाइटल के अनुसार, किसी देश के क्षेत्रफल और उसकी जनसंख्या के आधार पर यह निश्चित किया जा सकता है कि वह देश बड़ा है या छोटा राष्ट्र ।
बड़े और छोटे राष्ट्रों की श्रेणी के अतिरिक्त राष्ट्रों को शक्ति के आधार पर चार श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है । पहली श्रेणी महाशक्तियों (Great Powers) की है । महाशक्ति उस देश को कह सकते हैं जिसके नीति-निर्माता यह समझते हैं कि वह देश अकेला ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर निर्णायक रूप से प्रभाव डाल सकता है। दूसरी श्रेणी उप-महाशक्ति (Secondary Powers) की है ।
उप-महाशक्ति उस देश को कहा जाएगा जिसके नीति-निर्माता यह समझते हैं कि उनका देश अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर कुछ प्रभाव तो डाल सकता है, चाहे वह प्रभाव निर्णायक न हो । तीसरी श्रेणी मध्यम शक्ति (Middle Powers) की है ।
जिस राष्ट्र के नेता यह समझते हों कि उनका देश अकेला अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित नहीं कर सकता और प्रभावक की भूमिका अदा करने के लिए उसे अन्य देशों के साथ मिलकर कार्य करना पड़ सकता है तो उसे मध्यम शक्ति कहा जाएगा ।
चौथी श्रेणी लघु शक्ति (Small Power) की है । जिस देश के नीति-निर्माता यह मानते हों कि उनका देश न तो अकेला अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित कर सकता है और न किन्हीं अन्य राष्ट्रों के साथ मिलकर ही प्रभाव बन सकता है तो उसे लघु शक्ति कहा जाएगा ।
शक्ति के आधार पर राज्यों के वर्गीकरण हेतु ‘महाशक्ति’ के संप्रत्यय का भी चलन हुआ है । इस संप्रत्यय का अन्त 1815 के वियना सम्मेलन में हुआ और इसलिए इसे 19वीं शताब्दी की अवधारणा कहा जाता है । इस संप्रत्यय के आधार पर राष्ट्रों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है: महाशक्ति (Great Power) तथा महानतम् शक्ति (Super Power) । पूर्व सोवियत संघ और अमरीका महानतम् शक्तियों की श्रेणी में आते हैं और फ्रांस, ब्रिटेन, चीन, भारत, जापान, जर्मनी आदि महाशक्तियों की श्रेणी में आते हैं ।
महाशक्ति से हमारा अभिप्राय किसी ऐसे राष्ट्र से होता है जो किसी दूसरे राष्ट्र या राष्ट्रों पर अपनी इच्छा तो थोप सके परन्तु उन दूसरे राष्ट्रों का उस पर कोई प्रभाव न हो । अमरीका और सोवियत संघ जैसी महानतन् शक्तियों के प्रादुर्भाव से पूर्व अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ऐसी अनेक महाशक्तियां थीं जो छोटे राष्ट्रों पर ‘अपनी इच्छा लाद सकती थीं ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद द्विध्रुवीय अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अभ्युदय हुआ । अमरीका और सोवियत संघ की सैन्य-शक्ति इतनी अधिक बढ़ गयी कि उनको एक विशिष्ट श्रेणी में रखना आवश्यक हो गया । यह विशिष्ट श्रेणी ‘महानतम् शक्ति’ की श्रेणी है । चीन इस विशिष्ट श्रेणी में प्रवेश पाने का प्रयत्न करने लगा ।
रांके के अनुसार केवल उसी देश को महाशक्ति कहा जा सकता है, जो युद्ध में अन्य सभी देशों की सम्मिलित शक्ति का विजयपूर्ण स्थिति में रहकर मुकाबला कर सकता हो । इस परिभाषा के अनुसार न तो अमरीका को महाशक्ति कहा जा सकता है और न सोवियत संघ को ही क्योंकि दोनों देश इस बात का दावा नहीं कर सके कि वे विश्व के अन्य सभी देशों के विरुद्ध लड़े जाने वाले युद्ध में केवल अपनी निजी शक्ति के आधार पर विजयी होने की क्षमता रखते हैं ।
ऐसा भी कहा जाता है कि ‘महानतम् शक्ति’ (Super Power) का संप्रत्यय निरर्थक है । आज ब्रिटेन, फ्रांस, चीन का वह दर्जा नहीं है जो शक्ति की दृष्टि से अमरीका और सोवियत संघ को प्राप्त था । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भले ही ब्रिटेन और फ्रांस सुरक्षा परिषद् के सदस्य हों किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में महाशक्ति की भूमिका निभाने में असमर्थ रहे हैं ।
एक तरफ अमरीका और पूर्व सोवियत संघ की शक्ति और दूसरी तरफ ब्रिटेन और फ्रांस की शक्ति में काफी अन्तर रहा है । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वही राष्ट्र महाशक्ति कहला सकता है जिसके पास किन्हीं अन्य राष्ट्रों के विरोध के बावजूद अपनी इच्छा दूसरे राष्ट्रों पर थोपने की क्षमता हो ।
यह क्षमता आज केवल अमरीका में ही है अत: उसे महाशक्ति (Great Power) कहा जाना चाहिए न कि महानतम् शक्ति (Super Power) । हम ब्रिटेन और फ्रांस को महाशक्ति कहने की भूल इसलिए कर बैठते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह किया था ।
आर्गेन्स्की ने अपनी पुस्तक ‘वर्ल्ड पालिटिक्स’ (World Politics) में शक्ति के आधार पर राज्यों को चार भागों में बांटा हैं:
i. शक्तिशाली और सन्तुष्ट राष्ट्र (The Powerful and Satisfied),
ii. शक्तिशाली और असन्तुष्ट राष्ट्र (The Powerful and Dissatisfied),
iii. कमजोर और सन्तुष्ट राष्ट्र (The Weak and Satisfied) और
iv. कमजोर और असन्तुष्ट राष्ट्र (The Weak and Dissatisfied) ।
शक्तिशाली और सन्तुष्ट राष्ट्र वे राष्ट्र हैं जो अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था को नियन्त्रित करते हैं । वर्तमान में अमरीका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, इटली और जापान को इस श्रेणी में लिया जा सकता है । ये राष्ट्र वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था से सन्तुष्ट हैं ।
दूसरे प्रकार के राष्ट्र शक्तिशाली तो हैं किन्तु वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था से असन्तुष्ट हैं और उसमें आमूल-चूल परिवर्तन चाहते है । चीन और भारत को इस श्रेणी में रखा जा सकता है । शक्तिशाली असन्तुष्ट राष्ट्र विश्वयुद्ध की शुरुआत कर सकते हैं ।
तीसरी श्रेणी के राष्ट्र मध्यम शक्तियां हैं किन्तु वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था से सन्तुष्ट हैं । कनाडा, आस्ट्रेलिया, अर्जेण्टाइना को इस श्रेणी में रखा जा सकता है । इन राज्यों से विश्व-व्यवस्था को कोई खतरा नहीं है ।
चतुर्थ श्रेणी में वे राज्य आते हैं जो वर्तमान विश्व-व्यवस्था से पूर्णतया असन्तुष्ट हैं परन्तु उनके पास इतनी शक्ति नहीं है कि व्यवस्था को बदल सकें । एशिया और अफ्रीका के नवस्वतन्त्र देश इस श्रेणी में आते हैं । उपयुक्त चित्र द्वारा आर्गेन्स्की ने शक्ति के आधार पर राज्यों को श्रेणीबद्ध किया है ।
Essay # 9. ‘शक्ति-शून्य की अवधारणा (The Concept of Power Vacuum):
विश्व के किसी भू-भाग महाद्वीप या क्षेत्र विशेष में महाशक्ति की अनुपस्थिति अथवा महा शक्ति का हटना ‘शक्ति-शून्य’ (Power Vacuum) उत्पन्न करना है । महाशक्ति की उपस्थिति से उस भूभाग में राजनीतिक स्थिरता का परिचायक माना जाता है ।
महाशक्ति की अनुपस्थिति से शक्ति शून्यता की स्थिति उत्पन्न होती है जिसका परिणाम होता हैं-अन्य शक्तियों के बीच प्रतिस्पर्द्धा युद्ध और राजनीतिक अशान्ति एवं अस्थिरता । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब ब्रिटेन ने दक्षिण-पूर्वी एशिया से अपने सैनिक बेड़े हटाने का निर्णय किया तो ऐसा माना जाने लगा कि इस भू-भाग में ‘शक्ति-शून्य’ पैदा हो जाएगा । हो सकता है कि साम्यवादी चीन इस शक्ति शून्य को भरने का प्रयत्न करे ।
अमरीका की यही चिन्ता थी कि कहीं इस क्षेत्र के राज्य चीन के प्रभाव क्षेत्र में न आ जाएं ? इसी कारण अमरीका ने ‘सीटी’ (SEATO) संगठन का निर्माण किया वियतनाम में अमरीकी उपस्थिति इसी मनोभावना का परिचायक थी ।
ट्रूमैन सिद्धान्त ‘शक्ति शून्यता’ की अवधारणा पर आधारित था । बात यह थी कि अमरीका के कथनानुसार मध्यपूर्व में ब्रिटिश प्रभाव के घट जाने से एक ‘राजनीतिक शून्यता’ कायम हो गयी थी और सोवियत संघ इस परिस्थिति से लाभ उठाना चाहता था ।
यह ब्रिटिश प्रभाव को समाप्त कर स्वयं इस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व कायम करना चाहता था । इसके पहले तुर्की और यूनान की सहायता के नाम पर स्वयं अमरीका इस क्षेत्र में घुस जाना चाहता था ।आइजनहावर सिद्धान्त भी इसी अवधारणा पर आधारित था । 1956 का स्वेज युद्ध पश्चिम एशिया के इतिहास में वर्तन बिनु माना जा सकता है ।
इसने इस क्षेत्र में ब्रिटेन और फ्रांस के बचे-खुचे प्रभाव को सदा के लिए खत्म कर दिया । पश्चिम एशिया में सोवियत प्रभाव को बढ़ते देख अमरीका में घोर चिन्ता और निराशा हुई । अमरीका ने तो इस बात को कभी माना ही नहीं कि इस क्षेत्र की असल समस्या राष्ट्रवाद की है । अतएव उसने अरब राष्ट्रवाद की उपेक्षा करते हुए शक्ति रिक्तता (Power Vacuum) के सिद्धान्त को मान्यता दी ।
इसका तात्पर्य यह था कि ब्रिटिश प्रभाव के हट जाने से इस क्षेत्र में एक तरह की राजनीतिक शून्यता आ गयी और इस कारण इस बात का खतरा बढ़ गया कि लन्दन द्वारा रिक्त किया गया स्थान कहीं मास्को न ले ले । अतएव इस स्थिति का सामना करने के लिए 5 जून, 1956 को राष्ट्रपति आइजनहावर ने पश्चिम एशिया के सम्बन्ध में एक नीति की घोषणा की जिसको आइजनहावर सिद्धान्त कहते हैं ।
Essay # 10. सशक्ति की अवधारणा: आलोचनात्मक मूल्यांकन (The Power Concept: Critical Appraisal):
दार्शनिक बर्ट्रेण्ड रसेल वह पहला प्रमुख चिन्तक है जिसने राजनीति में शक्ति के साधन की कड़े-से-कड़े शब्दों में भर्त्सना की है । रसेल का विश्वास था कि मानव की स्वाधीनता के लिए धन की समानता अथवा वितरण से अधिक महत्व उस समानता का है जो शक्ति के वितरण से प्राप्त होती है ।
वह मानता था कि राज्य में, चाहे वह पूंजीवादी हो अथवा साम्यवादी, राजनीतिक शक्ति का केन्द्रीकरण मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण से कहीं अधिक घातक है । बर्ट्रेण्ड रसेल मानता था कि जहां जिस मात्रा में भी शक्ति का प्रयोग होता है वहां उसी मात्रा में स्वतन्त्रता समाप्त होती जाती है । बर्ट्रेण्ड रसेल ने मानव प्रकृति के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के द्वारा शक्ति के विरुद्ध दिए गए अपने तर्कों का समर्थन किया ।
वह मानता था कि राज्य की शक्ति में वृद्धि अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी उतनी ही खतरनाक है जितनी घरेलू राजनीति के क्षेत्र में । वह उन्हें भी जो उसका प्रयोग करते हैं उतना ही नुकसान पहुंचाती है जितना उन्हें जिनके विरुद्ध उसका प्रयोग किया जाता है ।
एक स्थान पर उसने लिखा है- ”शक्ति के प्रयोग की आदत प्रतिस्पर्द्धा की प्रवृत्ति अथवा आवेश को दृढ़ बनाती है, इस कारण वह राज्य जिसमें शक्ति का केन्द्रीकरण होता है, उस राज्य की तुलना में जिसमें वह विकीर्ण होता है अधिक युद्धप्रिय होता है ।”
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एडमण्ड बर्क ने 1783 में शक्ति के उच्च शिखर पर खडे अपने देश ब्रिटेन को स्पष्ट चेतावनी दी थी, ”महत्वाकांक्षाओं को सीमित रखना होता है । में स्पष्ट कहना चाहता हूं कि मैं अपनी राष्ट्रीय शक्ति तथा महत्वाकांक्षा से स्वयं भयभीत हूं…मानव होने के नाते हम उसका दुरुपयोग कर सकते हें…अन्य राष्ट्र हमसे भयभीत हैं…इस अवस्था में अवश्य विरोध होगा । कभी न कभी राष्ट्रों का एक समूह ऐसा उठेगा जो हमें चुनोती देगा और हमारा नाश कर देगा ।”
शक्ति के संप्रत्यय पर हाल के वर्षों में गम्भीर आक्षेप किए गए हैं, किन्तु ये आक्षेप न तो इस आदर्शवादी विचार से प्रेरित हैं कि, शक्ति बुरी चीज है और न लॉर्ड ऐक्टन के इस विचार से कि शक्ति मनुष्यों एवं राष्ट्रों को भ्रष्ट बनाती है ।
शक्ति के संप्रत्यय की आलोचना का मूल कारण यह है कि इसे अधिक से अधिक वैज्ञानिक कैसे बनाया जाए ? शक्ति के संप्रत्यय की सबसे बड़ी कमजोरी इसकी अस्पष्टता है । जेक मार्च के अनुसार- ‘शक्ति एक निराशाजनक संप्रत्यय है ।’
स्प्राउट एण्ड स्प्राउट का कथन है कि- ”यदि शक्ति शब्द को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के शब्दकोश से बिल्कुल निकाल फेंका जाए तो शायद राज्यों के सम्बन्धों के बारे में अधिक ढंग से विचार करना सम्भव होगा।” शक्ति संप्रत्यय की चाहे कितनी ही निन्दा की जाए, फिर भी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में राज्यों की विदेश नीति के निर्धारण में ‘शक्ति’ आज भी बुनियादी तत्व है ।
अपनी शक्ति कम आंकन से और दूसरों की शक्ति अधिक आंकन से शान्ति और यथापूर्व स्थिति (Policy of Status Quo) की नीतियां अपनाने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है और अपनी शक्ति अधिक तथा दूसरों की शक्ति कम आकने से युद्ध और परिवर्तन की नीति अपनाने की प्रवृत्ति पैदा होती है ।