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Here is an essay on ‘Privatisation’ especially written for school and college students in Hindi language.
पिछले दशक में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के निजीकरण (Privatisation) के सवाल पर विकासशील देशों के नजरिए में भारी बदलाव आया है । 1980 के दशक के प्रारम्भ में जब इंग्लैण्ड में पहली बार निजीकरण की शुरुआत हुई तो इस नीति को लेकर तरह-तरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं ।
बाद में, दशक के उत्तरार्द्ध में लैटिन अमरीका अफ्रीका के ऋण में डूबे कई देशों को मजबूरन निजीकरण अपनाना पड़ा । आज एकाध अपवादों को छोड़ दें तो करीब-करीब सारे विकासशील देश निजीकरण के पक्ष में हैं । नजरिए में हुए इस बदलाव का एक कारण तो विश्व के अनेक भागों में भारी नियन्त्रण वाली अर्थव्यवस्थाओं का पतन भी है ।
पूर्वी यूरोप और पूर्व सोवियत संघ के घटकों में जोर-शोर से चल रहा निजीकरण भी एक उल्लेखनीय उदाहरण बना और इस बदलाव का दूसरा कारण तो स्वयं विकासशील देशों द्वारा अपने सार्वजनिक क्षेत्र की समस्याओं का वैकल्पिक समाधान न खोज पाना भी है ।
लोगों के दृष्टिकोणों में बदलाव आने लगा कि उद्यम चाहे निजी मिल्कियत हो या सार्वजनिक, असल चीज औद्योगिक कामकाज का कुशल निष्पादन है । शुरू में मुख्यत: इंग्लैण्ड और कुछ लैटिन अमरीकी देशों के निजीकृत उद्योगों के अध्ययनों में, यह निष्कर्ष निकाला गया था कि मिल्कियत की जगह बाजार की प्रतिद्वन्द्विता ही कार्यकुशलता के लिए असली चीज है, लेकिन हाल के अध्ययनों से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि उद्यमों के कामकाज का स्तर तय करने में उनकी मिल्कियत एक महत्वपूर्ण कारक है ।
कुल मिलाकर समान बाजार व्यवस्था के अन्दर निजी कम्पनियों का कामकाज सार्वजनिक कम्पनियों से बेहतर रहा है । इन अध्ययनों का एक और निष्कर्ष यह है कि अधिकांश कम्पनियों में निजीकरण के बाद उनके माल के ग्राहकों की संतुष्टि बढ़ी है और मजदूरों की स्थिति सुधरी है ।
ऐसे एक अध्ययन में चिली, मलेशिया, मैक्सिको और ब्रिटेन के 12 अलग-अलग तरह के मामलों को हाथ में लिया गया और पाया गया कि निजीकरण के साथ ही इन 12 में से 11 के बाहरी और आन्तरिक कामकाज तथा प्रदर्शन में सुधार हो गया ।
लाभ मुख्यतः उत्पादकता बढ़ने, निवेश बढ़ने और बेहतर कीमत तय करने के चलते हुआ । प्रतिद्वन्द्विता और एकाधिकार, दोनों ही तरह के बाजार की स्थिति में लाभ बढ़ा और लाभ पाने वालों में निजी पार्टियों के साथ ही सरकार, ग्राहक और मजदूर भी शामिल थे ।
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1988-93 के दौरान जो सार्वजनिक उद्यम बिके वे लैटिन अमेरिका और एशिया के थे, जहां निजीकरण की शुरुआत पूर्वी यूरोप से पहले हो गई थी । 1980 के दशक में जिन कम्पनियों को बेचा गया वे मुख्यत: कृषि आधारित व्यापार, सेवाओं या हल्की चीजों के उत्पादन वाली थीं ।
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इसके विपरीत 1988-93 के दौरान बिजली और पानी के बड़े संयन्त्रों, परिवहन और दूरसंचार तथा वित्तीय और औद्योगिक क्षेत्र की भारी-भरकम कम्पनियों का विनिवेशीकरण हुआ । अस्सी के दशक के शुरू में विकासशील देशों में होने वाले कुल निवेश में सार्वजनिक निवेश का हिस्सा 22 प्रतिशत था, जो नब्बे के दशक के शुरू में गिरकर 19 प्रतिशत पर आ गया था ।
भारत में वर्ष 1991-92 से शुरुआत कर सरकारी शेयरधारिता के विनिवेश के 15 चरण पूरे किए गये और सरकारी क्षेत्र के 48 उद्यमों में विनिवेशन किया गया तथा इससे 49, 214.03 करोड़ रुपए की राशि प्राप्त की गयी ।
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कुछ देशों में, जहां निजीकरण की योजना सावधानी से बनाई गई और अर्थव्यवस्था कुल मिलाकर कुशलतापूर्वक चलती रही, इसने निश्चित रूप से औद्योगिक कामकाज में काफी सुधार ला दिया, जबकि कुछ अन्य देशों में निजीकरण ने पूरी अर्थव्यवस्था के लिए अच्छे परिणाम नहीं दिए हैं (जैसा कि पूर्व सोवियत संघ की घटक इकाइयों में हुआ) ।
कुछ अन्य देशों में अनेक कारणों से निजीकरण की प्रक्रिया को या तो रोक दिया गया या धीमा कर दिया गया (जैसे कि ब्राजील और हंगरी में) । संक्षेप में, इन अनुभवों से यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि निजीकरण की सफलता-असफलता उस देश की पूरी स्थिति पर और खासतौर पर इसके मोटे कामकाज पर निर्भर करती है ।
अगर सामान्य आर्थिक नीतियां अच्छी हैं और अर्थव्यवस्था विकास कर रही है तो निजीकरण के भी सफल रहने की सम्भावना रहती है । अन्यथा जल्दबाजी में हुआ निजीकरण बेरोजगारी और गरीबी बढ़ा सकता है ।