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Here is an essay on ‘Propaganda’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Propaganda’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on Propaganda
Essay Contents:
- प्रचार: अर्थ एवं परिभाषा (Propaganda: Meaning and Definition)
- प्रचार के उद्देश्य: राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि (The Objects of Propaganda: Promotion of National Interest)
- प्रचार के विभिन्न नाम और रूप (Forms of Propaganda)
- प्रचार और झूठ (Propaganda and Falsehood)
- प्रभावशाली प्रचार की विशेषताएं एवं नियम (Requisites for Effective Propaganda)
- प्रचार और सर्वाधिकारवादी राज्य (Propaganda and Dictatorial States)
- अमरीकी प्रचारतन्त्र (Propaganda Machinery of the U.S.A.)
- प्रचार के उपकरण (Tools of Propaganda)
- प्रचार और राजनीतिक युद्ध (Propaganda and Politics Warfare)
- प्रचार एवं कूटनीति (Propaganda and Diplomacy)
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रचार की प्रभावशीलता (The Effectiveness of Propaganda in International Politics)
Essay # 1. प्रचार: अर्थ एवं परिभाषा (Propaganda: Meaning and Definition):
राजनीति दर्शन के मनोवैज्ञानिक विचारक यह मानते हैं कि, मानव की क्रियाओं में अन्त:चेतन मस्तिष्क में निर्मित प्रतीकों का प्रभाव पड़ता है । वाल्टर लिम्पमैन का विचार था कि मानव ‘प्रतीकों’ के माध्यम से ही ज्ञान व सूचनाएं प्राप्त करता है । इसलिए अगर मानव को सरल भाषा में प्रतीक या वर्णन से कोई सूचना दी जाए तो उसे ग्रहण करने मे अधिक भावुक हो जाता है ।
‘प्रचार’ शब्द की परिभाषाएं उतनी ही अधिक हैं जितनी कि इस विषय पर पुस्तकें और लेख लिखे गए हैं । प्रचार का अर्थ सामान्यत: उन कार्यों से लिया जाता है जो दूसरे व्यक्ति को अपना पक्ष समझाने तथा तदनुकूल आचरण कराने के लिए किए जाते हैं । प्रचार वह कला है जिसके माध्यम से एक राज्य अपने राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि के लिए जनमत के मस्तिष्क को प्रभावित करता है ।
पाल एम. लाइनबर्जर के शब्दों में- “एक निश्चित सामान्य उद्देश्य के लिए सुनियोजित सामान्य संचार व्यवस्था के माध्यम से एक निश्चित वर्ग विशेष के मस्तिष्क भावना व कार्यों को प्रभावित करने वाली व्यवस्था को प्रचार कहा जाता है ।”
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हाल्सटी के अनुसार– “प्रचार जान-बूझकर किया गया प्रयास है, जिसे कुछ व्यक्ति अथवा समुदाय संचार के साधनों को प्रयोग में लाकर इसे समुदायों के दृष्टिकोणों को इसलिए निर्मित क्रियान्वित अथवा परिवर्तित करते हैं, ताकि किसी निश्चित परिस्थिति में इस प्रकार प्रभावित होने वालों की प्रतिक्रिया प्रचार करने वालों के पक्ष में हो ।”
जोसेफ फ्रेंकेल के शब्दों में- “प्रचार से हमारा अर्थ सामान्यत: किसी भी ऐसे व्यवस्थित प्रयास से होता है, जो किसी विशेष उद्देश्य के लिए प्रदत्त समूह के मस्तिष्कों को भावनाओं को तथा क्रियाओं को प्रभावित करने के लिए किया जाता है ।”
मॉल लिम्बारगर लिखते हैं कि- ”प्रचार सार्वजनिक अथवा जनता द्वारा निर्मित संचार साधनों के किसी भी स्वरूप का वह नियोजित प्रयोग है, जिसका उद्देश्य किसी निश्चित समुदाय के लोगों के किसी निश्चित सार्वजनिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मस्तिष्कों भावनाओं तथा क्रियाओं पर प्रभाव डालना हो ।”
हेरल्ड लासबेल के अनुसार- ”प्रचार विवादास्पद दृष्टिकोणों को नियन्त्रित करने के लिए प्रतीकों का विस्तार है ।”
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पामर एवं पर्किन्स लिखते हैं- ”प्रचार का तात्पर्य है कि, सरकारों या सरकारों के सदस्यों द्वारा व्यवस्थित प्रयास जिसके द्वारा राज्य के अन्दर समुदायों या विदेशी राज्यों को अपने समर्थन में नीतियों को ग्रहण करना-या कम से कम अपने विरोधपूर्ण नीतियों का ग्रहण न करना आदि के लिए प्रभावित करना हे ।”
इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में ‘प्रचार’ का लक्षण स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि- “यह दूसरे लोगों के विश्वासों प्रवृतियों कार्यों को विभिन्न प्रकार के प्रतीकात्मक माध्यमों शब्दों हाव-भाव संगीत आदि से प्रभावित और परिवर्तित करने का सुव्यवस्थित प्रयास है ।”
इस परिभाषा से ‘प्रचार’ के बारे में दो विशेषताएं प्रकट होती हैं पहली विशेषता इसका जानबूझकर किया जाना है । दूसरी विशेषता प्रभावित करने की है । प्रचार यदि दूसरे व्यक्ति के विचारों को परिवर्तित और प्रभावित नहीं कर सकता है तो यह सर्वथा निरर्थक और अनुपयोगी है । उसे सच्चे अर्थों में अच्छा प्रचार नहीं कहा जा सकता है ।
संक्षेप में प्रचार से अभिप्राय है:
(i) प्रचार व्यक्तियों (प्राय: सरकार) द्वारा व्यवस्थित प्रयास है,
(ii) ये प्रयास मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित होते हैं क्योंकि जिन व्यक्तियों को प्रचार से प्रभावित करना है वे उसे अच्छी तरह ग्रहण कर लें,
(iii) प्रचार के लिए कई साधनों, प्रतीकों, आदि का प्रयोग किया जाता है । किस परिस्थिति में कौन-सा साधन या प्रतीकों का प्रयोग किया जाए वह प्रचार की रणनीति बनाने वाले पर निर्भर करता है,
(iv) प्रचार का उद्देश्य यह है कि दूसरे लोग, समुदाय, आदि प्रचार वाले राज्य या समुदाय की बात को स्वीकार कर लें या उनका विरोध न करें,
(v) प्रचार न तो नैतिक होता है और न अनैतिक । किसी व्यक्ति के दृष्टिकोण को अपने अनुकूल बनाने को न तो अच्छा कहा जा सकता है और न बुरा,
(vi) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से हमारा सम्बन्ध उस प्रचार से है जिसका निष्पादन राष्ट्रों की सरकारो के द्वारा होता है । इसमें गैर-सरकारी अभिकरणों द्वारा किए जाने वाले प्रचार को शामिल नहीं किया जा सकता ।
Essay # 2. प्रचार के उद्देश्य: राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि (The Objects of Propaganda: Promotion of National Interest):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रचार साधनों का प्रयोग अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए राज्य करते हैं । पैडिलफोर्ड तथा लिंकन का कथन है कि- “प्रचार का रूप चाहे कुछ भी हो अथवा इसमें किसी भी तकनीकी को अपनाया गया हो, इसका मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय हितों की प्राप्ति होती है ।” मूल रूप में सभी प्रचार सम्बन्धी कार्य राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखकर किए जाते हैं ।
उदाहरणार्थ, जिस समय अन्तर्राष्ट्रीय समझौते होते है, उस समय निर्णयों को अपने हितों के अनुकूल मोड़ने के लिए कोई भी देश प्रचार का सहारा ले सकता है । किसी अन्तर्राष्ट्रीय समस्या या विशेष प्रश्न पर विचार करने के लिए कोई सम्मेलन आमन्त्रित करने हेतु उपयुक्त वातावरण तैयार करने के लिए भी प्रचार का सहारा लिया जाता है । प्रचार द्वारा राष्ट्र अपनी विचारधारा का विस्तार करते हैं ।
अपनी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों हेतु समर्थन प्राप्त करने के लिए भी प्रचार का सहारा लिया जा सकता है । प्रचार का महत्व युद्ध से पूर्व और युद्ध के बाद बहुत बढ़ जाता है । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का इतिहास बताता है कि प्रचार के माध्यम से युद्ध के परिणामों को भी बदला जा सकता है ।
पामर एवं पर्किन्स के शब्दों में- “प्रचार राष्ट्रीय नीति के सन्दर्भ में अधिकाधिक आवश्यक होता जा रहा है क्योंकि इससे राज्य में संगठित लोकमत तैयार होता है और विदेशों में अपने हितों की वृद्धि होती है ।” राज्य के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रचार कूटनीति का सहायक है और विदेश नीति का प्रमुख अंग है ।
जैसा कि पैडिलफोर्ड एवं लिंकन ने लिखा है- ”प्रभावशाली ढंग से विचार-विस्तार का उद्देश्य सामान्य नीतियों तथा उद्देश्यों के लिए प्रत्युत्तर प्राप्त करना है । विदेशों में भावों को उभारना स्वयं में उद्देश्य नहीं है किन्तु एक साधन है जिसके द्वारा राज्यहित में प्रभाव डाला जा सकता है ।” नाजी जर्मनी- की राजनीति पूरी तरह प्रचार पर आधारित थी और हिटलर ने प्रचार की महत्ता को स्वीकार किया था ।
प्रचार को साधन के रूप में मानते हुए हिटलर ने लिखा है- ”प्रचार एक साधन है और जिन उद्देश्यों की प्राप्ति करनी है उसी सन्दर्भ में प्रचार को देखना है । इसे इस प्रकार व्यवस्थित करना चाहिए ताकि उद्देश्यों की प्राप्ति के योग्य हो सके और यह बिकुल स्पष्ट है कि सामान्य उद्देश्यों का महत्व आवश्यकताओं के अनुसार बदलता रहता है इसलिए प्रचार का आन्तरिक रूप भी तदनुसार बदलता रहना चाहिए ।”
शीत युद्ध के युग में प्रचार के बिना कोई भी राज्य अपने उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं कर सकता है । आज तो प्रचार को राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि के साधन के रूप में ही स्वीकार नहीं किया जाता अपितु इसे राष्ट्रीय शक्ति का एक तत्व भी माना जाता है । एक राज्य चाहे सही कार्य करे यदि वह प्रचार का सहारा न ले तो कठिनाई में उलझ सकता है । प्रचार के द्वारा ही विदेश नीति की सत्यता को दर्शाया जाता है ।
Essay # 3. प्रचार के विभिन्न नाम और रूप (Forms of Propaganda):
वर्तमान समय में प्रचार कार्य का बहुत बड़े पैमाने पर अद्भुत विस्तार हुआ है । इसे अनेक नए नाम दिए गए हैं । लोकतन्त्रीय राज्यों में प्रचार कार्य को रोकने वाले विभाग को प्राय: सूचना विभाग (Information Department) का नाम दिया जाता है । इसका उद्देश्य जनता को सरकार द्वारा दिए जाने वाले कामों की सही जानकारी देना और विरोधी दलों तथा शत्रु राज्यों द्वारा प्रचारित की जाने वाली भ्रान्तियों का निवारण करना है ।
नाजी जर्मनी में यह विभाग हिटलर के समय ‘जनज्ञान और प्रचार का मन्त्रालय’ (Ministry of Public Enlightment and Propaganda) कहलाता था । द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने पर जब संयुक्त राज्य अमरीका को ऐसे विभाग की आवश्यकता हुई तो उसने इसकी स्थापना 1942 में ‘युद्ध सूचना कार्यालय’ (War Information Office) के नाम से की ।
भारत में इसी समय इस विभाग की व्यवस्था हुई और यह यन्त्र ‘सूचना तथा प्रसारण विभाग’ (Department of Information and Broadcasting) कहलाता है । इसका प्रधान कार्य सरकारी कामों का प्रचार करना है । इसका दूसरा नाम प्रकाशन (Publicity) है, क्योंकि आजकल प्रचार का एक साधन प्रेस द्वारा प्रकाशित की जाने वाली सामग्री-दैनिक अखबार, मासिक पत्रिकाएं, फोल्डर, पुस्तिकाएं आदि होती हैं । इसी का एक अन्य नाम मनोवैज्ञानिक युद्ध (Psychological war) अथवा संक्षेप में मनोयुद्ध (Psychowar) है ।
इसका प्रयोग प्राय: युद्धकाल में किए जाने वाले उस प्रचार से होता है, जिसका उद्देश्य हवाई जहाजों से शत्रु के प्रदेश में फेंके जाने वाले प्रचार साहित्य और रेडियो के प्रसारणों से शत्रु के मनोबल को भंग करना होता है । यह प्रचार उन्हें किंकर्तव्यविमूढ़ बना देता है ।
प्रचार का सबसे अधिक उग्र रूप मस्तिष्क शुद्धि (Brain Washing) कहलाता है । चीनी साम्यवादियों ने अपने देश में पूंजीवादी विचार रखने वाले व्यक्तियों के विचारों को बदलने के लिए इस साधन का व्यापक रूप से प्रयोग किया है । इसमें पहले तो बुर्जुआ व्यक्ति के विचारों को व्याख्यानों, वादविवादों, गोष्ठियों, परिचर्चाओं द्वारा तथा कुछ निश्चित ग्रन्थों के निरन्तर स्वाध्याय से बदलने का प्रयत्न किया जाता है ।
इसमें सफलता न मिलने पर कठोर उपायों का प्रयोग किया जाता है; जैसे अत्यधिक श्रम करके थका देना, नाना प्रकार की यन्त्रणा देना, एकान्त स्थान में बन्द कर देना, धमकी देना आदि । इन उपायों से व्यक्ति के मस्तिष्क से पुराने ‘गन्दे’ विचारों को पूरी तरह से धोने के बाद इसमें नए विचारों को भरा जाता है ।
Essay # 4. प्रचार और झूठ (Propaganda and Falsehood):
युद्ध के प्रचार में, मिथ्या का भी काफी लाभदायक स्थान है, बशर्तें कि सत्य बहुत शीघ्र न मालूम हो जाए । सेमुअल जॉन्सन ने कहा था- ”युद्ध के समय में लोग केवल दो बातें सुनना चाहते हैं, अपनी भलाई तथा शत्रु की बुराई । तथा युद्ध के बाद, मैं नहीं जानता कि किससे अधिक भय खाना चाहिए, साधारण लेखकों से, जिन्होंने झूठ बोलना सीख लिया है, भरे हुए अट्ट से अथवा उन सैनिकों से जिन्होंने लूटना सीख लिया है, मनरी हुई सड़कों से ।”
कूटनीतिक दस्तावेजों में, अपनी निजी सरकार की नैतिकता का झूठा विश्वास दिखाने तथा अपने शत्रु की दुष्टता दिखाने की दृष्टि से हेर-फेर करना, एक पुरानी कला है । इस प्रकार सन् 1914 ई. की फ्रांस की पीली किताब में वैदेशिक कार्यालय ने यह दिखाने की चेष्टा की थी कि रूस में सेना का आह्वान आस्ट्रिया-हंगरी में सेना के आह्वान से पूर्व होने के बजाय बाद में किया गया ।
सन् 1948 ई. में जर्मनी द्वारा हस्तगत कूटनीतिक कागजों के राज्य विभाग द्वारा प्रकाशन का सम्पादन इस प्रकार से किया गया था जिससे यह दिखाने की चेष्टा की गयी थी कि पोलैण्ड पर नाजियों के आक्रमण का निर्णय मई के स्थान पर 23 अगस्त, 1939 ई. के नाजी-सोवियत समझौते के बाद हुआ था, तथा रूस पर आक्रमण का निर्णय नाजियों ने अगस्त के बजाय दिसम्बर सन् 1940 ई. में किया था ।
परन्तु ऐसे छोटे पुरानी फैशन के छल-कपट, ‘महान् झूठ’ की संज्ञा प्राप्त करने वाली कला की अपेक्षा वास्तव में बहुत दुर्बल हैं । इसमें पूर्व पक्ष के आधार पर असत्यों को चतुराई से मढ़ा जाता है तथा उनकी पुनरावृत्ति की जाती है, ताकि बहुत-से लोग उस बात पर जो जोरदार शब्दों में बार-बार दुहराई जाती है विश्वास करने लगेंगे, बशर्ते कि उनका तात्कालिक प्रतिपादन किया जा सकता हो अथवा समाधानकारी इन्कार न किया जा सकता हो ।
यहां पर वाकछल की बहुत-सी कृतियों की दृष्टि से, नाजी एवं साम्यवादी प्राय: एकसमान सम्मान के अधिकारी हैं । महानतम् सफेद झूठों में ये दोषारोपण थे कि साम्यवादियों ने जर्मनी की पार्लियामेण्ट को जला दिया, यहूदियों ने जर्मनी के साथ विश्वासघात किया, साम्यवादी यहूदी हैं, यहूदी साम्यवादी हैं, चर्चिल, रूजवेल्ट तथा स्टालिन यहूदियों के नियन्त्रण में थे, हिटलर का प्रधान उद्देश्य साम्यवाद के विरुद्ध धर्म-युद्ध था, चेकों तथा पोलैण्ड निवासियों ने जर्मनों की हत्याएं कीं, हिटलर का प्रत्येक प्रदेश पर अधिकार करना उसकी यूरोप में ‘अन्तिम प्रादेशिक मांग’ थी, जर्मनी बोल्शेविज्म के विरुद्ध सभ्यता की रक्षा कर रहा था आदि ।
लाल रूस के महानतम असत्यों में से ये कथन हैं कि सोवियत रूस एक प्रजातन्त्र है, चीनी साम्यवादी केवल ‘कृषि सम्बन्धी सुधारक’ ही थे, साम्यवादी शान्ति के पृष्ठ-पोषक हैं, अमरीका एक आक्रामक युद्ध का षडयन्त्र कर रहा है, मार्शल योजना यूरोप को दास बनाने तथा उसका शोषण करने के लिए अमरीकन षडयन्त्र है संयुक्त राष्ट्र संघ के उकसाने पर दक्षिणी कोरिया ने उत्तरी कोरिया पर आक्रमण किया संयुक्ता राज्य अमरीका कीटाणु युद्ध से काम लेता है आदि ।
अमरीकन राष्ट्रपतियों, राज्य सचिवों और राष्ट्र संघ के राजदूतों ने यू-2 हवाई जहाज की रूस पर उड़ानों (1960) के विषय में झूठ बोला । क्यूबा के ‘बे ऑफ पिण्ड’ पर आक्रमण (अप्रैल, 1961), डोमिनिकन रिपब्लिक द्वारा सैनिक आधिपत्य (अप्रैल, 1965) और वियतनाम युद्ध (1964) प्रत्येक मामलों में शीघ्रता से झूठ प्रमाणित हुआ और सभी की सामर्थ्य को धक्का पहुंचा ।
झूठ ऐसा हो कि कभी भी झूठ बोलने वाले को प्रकट नहीं करे अन्यथा प्रचार तन्त्र अविश्वसनीय हो जाता है । सभी युद्धों में, सभी प्रकार के प्रचार का पथ-प्रदर्शन करने वाले निर्देशक बहुत ही सरल होते हैं यद्यपि उनका प्रभाव उनको उपयोग में लाने की चतुराई पर निर्भर रहता है ।
चार प्रसंग सार्वभौमिक हैं:
(i) हम निर्दोष हैं, शत्रु दुष्ट है,
(ii) हम शक्तिशाली हैं, शत्रु दुर्बल है,
(iii) हम एक हैं, शत्रु विभाजित है,
(iv) हम विजयी होंगे, शत्रु पराजित होगा ।
अधिक चतुराईपूर्ण प्रचार से भी कोई आश्चर्यजनक कार्य सम्भव नहीं क्योंकि सभी मनुष्य जिसमें सर्वाधिकारवादी राज्यों के लोग भी सम्मिलित हैं बार-बार कलई खुल जाने के कारण प्रचार के प्रभाव से मुक्त हो जाते हैं, तथा क्योंकि सभी देशभक्त अपने निजी नेताओं के प्रचार को स्वीकार करने चाहे कितने ही लोकप्रिय क्यों न हों तथा शत्रु शक्तियों के प्रचार को अस्वीकार करने के चाहे वे कितने ही ईर्ष्या के योग्य अथवा प्रशंसा के योग्य क्यों न हों आदी हो जाते हैं ।
फिर भी- “कार्यों के प्रचार” के साथ प्रतीकालक कौशल से किए गए प्रबन्ध का चतुराईपूर्ण समीकरण तथा वास्तविक घटनाओं तथा शत्रु के वास्तविक कुकृत्यों एवं भूलों से चतुराई से लाभ उठाने की क्रिया, बड़े महत्वपूर्ण रूप से घर तथा बाहर के दृष्टिकोणों को प्रभावित कर सकती है, तथा कभी-कभी इच्छित सैनिक एवं राजनीतिक परिणामों में योग दे सकती है ।
Essay # 5. प्रभावशाली प्रचार की विशेषताएं एवं नियम (Requisites for Effective Propaganda):
प्रभावशाली प्रचार के लिए कौन-कौनसी बातें आवश्यक हैं ? अर्थात् प्रभावशाली प्रचार की विशेषताएं और नियम इस प्रकार हैं:
प्रथम:
प्रचार में सादगी होनी चाहिए । प्रचार के नारे सरल सुगम और बोधगम्य होने चाहिए । प्रचार ऐसा होना चाहिए जो औसत व्यक्ति की समझ में आ सके ।
द्वितीय:
प्रचार सुरुचिपूर्ण होना चाहिए । प्रचार उस समय तक प्रभावहीन रहता है, जब तक कि वह सुनने वालों को आकर्षक न लगे ।
तृतीय:
प्रचार विश्वसनीय होना चाहिए । छोटे स्तर पर झूठ का कम प्रयोग होना चाहिए और यदि कोई बड़ा झूठ बोला जाए तो उसे बार-बार दोहराया जाना चाहिए ।
चतुर्थ:
प्रचार के प्रभावशाली होने के लिए उसमें निरन्तरता पायी जानी चाहिए । वे राज्य जिनके प्रचार का आधार नित्य बदलता रहता है, उनकी बात को गम्भीरता से नहीं लिया जाता है ।
पंचम:
प्रचार दीर्घकालीन नीति के साथ संयुक्त होना चाहिए । किसी भी प्रचार पर तब विश्वास किया जाता है जब उसके अनुसार कार्य भी किया जाए । उदाहरण के लिए सोवियत संघ कश्मीर के मुद्दे पर भारत का समर्थक रहा था और समय-समय पर भारत को सहायता भी देता रहता था । यदि वह ऐसा न करता तो भारत के प्रति प्रदर्शित की गयी सहानुभूति का कोई अर्थ नहीं रह जाता ।
षष्ठ:
प्रचार के लिए ऐसे नारों और समस्याओं को अपनाना चाहिए जिनमें साधारण व्यक्ति दिलचस्पी ले सकें । जैसे साम्राज्यवादी व पूंजीवादी विरोध का प्रचार उस देश में किया जाना चाहिए जहां निवासी इसे देख चुके हों ।
सप्तम:
प्रचार में ऐसी भाषा व समस्याओं को लिया जाना चाहिए जो कि एक विशिष्ट वर्ग को विदेशी न लगे ।
Essay # 6. प्रचार और सर्वाधिकारवादी राज्य (Propaganda and Dictatorial States):
सर्वाधिकारवादी राज्यों में प्रचार का विशेष महत्व है । 1905 में लेनिन ने कहा था कि साम्यवादी दल की विजय के लिए प्रचार महत्वपूर्ण हथियार है । प्रचार के विभिन्न तरीकों के विकास के लिए सोवियत नेताओं की विशेष अभिरुचि रही । साम्यवादियों की प्रचार की अपनी अलग ही भाषा रही ।
साम्यवादी ‘बुर्जुआ लोकतन्त्र’, ‘दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ’ आदि नारों का प्रयोग करते । वे लाल सितारा, हथौडा, हंसिया, आदि प्रतीकों का प्रयोग करते । साम्यवादी प्रचार का क्षेत्र मुख्य रूप से अविकसित देशों को बनाया जाता । सोवियत प्रजातन्त्र यह सिद्ध करने का प्रयत्न करता था कि अमरीका द्वारा विभिन्न देशों को दी जाने वाली सैनिक और आर्थिक सहायता साम्राज्यवाद का ही दूसरा रूप है ।
सन् 1945-47 के काल में सोवियत प्रचार का उद्देश्य जनवादी लोकतन्त्र की स्थापना करना रहा । सन् 1949 में सोवियत संघ ने शान्ति अभियान शुरू किया । प्रचार द्वारा सोवियत जनता एवं विश्व के लोगों को यह बताने का भरसक प्रयत्न किया गया कि सोवियत रूस अपनी पूरी शक्ति से शान्ति स्थापित करने के लिए तत्पर है तथा आणविक शस्त्रों को मिटाकर वह नि शसीकरण करना चाहता है ।
नाजी जर्मनी में हिटलर ने प्रचार के राष्ट्रीय मन्त्रालय की स्थापना की जिसके मन्त्री गौबल्स थे । एक ही प्रकार के लोकमत की स्थापना के लिए संस्कृति के राष्ट्रीय मण्डल (National Chamber of Culture) की स्थापना की गयी । नाजियों के प्रसिद्ध नारे थे ‘हेल हिटलर’ (Heil Hitler), ‘शासक जाति’ (Master Race) ‘एक राज्य, एक नेता और एक लोग’ (One people, One State, One Future) । जर्मन लोगों की एकता के प्रतीक के रूप में ‘स्वास्तिक’ चिन्हों का प्रयोग किया गया ।
फासीवादी इटली में मुसोलिनी का प्रचारतन्त्र हिटलर से भी अधिक पुराना और संगठित था । उसने इटली को रोमन साम्राज्य के रूप में दर्शाया, एड्रियाटिक समुद्र को इटली की झील और मेडिटेरेनियन को इटली के समुद्र के रूप में प्रदर्शित किया ।
लोगों को प्रेरित एवं उत्तेजित करने के लिए नारों का प्रयोग किया एवं प्रतीकों का सहारा लिया । सोवियत संघ विकासशील देशों को अपने प्रभाव में लाने के लिए तथा अपनी संस्कृति का निर्यात करने के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम, शैक्षणिक कार्य, संचार अनुसन्धान, शोध कार्य आदि का सहारा लेता था ।
Essay # 7. अमरीकी प्रचारतन्त्र (Propaganda Machinery of the U.S.A.):
अमरीका ने भी प्रचार को काफी महत्व दिया है । द्वितीय विश्वयुद्ध काल में सूचना कार्यालय (OWI) की स्थापना की गयी । शीतयुद्ध के काल में प्रचार यन्त्र को बड़े पैमाने पर संगठित किया गया । सन् 1948 में स्मिथ मण्ड ऐक्ट पास किया गया ।
सन् 1951 में स्टेट डिपार्टमेण्ट के अन्तर्गत एक पृथक् अभिकरण अन्तर्राष्ट्रीय सूचना प्रशासन स्थापित किया गया । 1953 में संयुक्त राज्य सूचना अभिकरण (U.S.I.A.) की स्थापना की गयी जिसे समुद्र पार के सूचना कार्यक्रमों का उत्तरदायित्व सौंपा गया । यू. एस. आई. ए. असाम्यवादी देशों को परचे, पोस्टर, अखबार, व्यंग्यचित्र, आदि सामग्री भेजता है ।
‘वाइस ऑफ अमरीका’ भी इसकी एक शाखा है जो 38 भाषाओं में प्रतिदिन प्रसारण करता है । सूचना कार्यक्रमों के अतिरिक्त अमरीका सांस्कृतिक माध्यम से भी प्रचार-कार्य संचालित करता है । विभिन्न देशों से सांस्कृतिक सम्बन्ध बढ़ाने के लिए विद्यार्थियों के आदान-प्रदान को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया गया है ।
प्रतिवर्ष कम कीमत की लाखों पुस्तकें अमरीका से विदेशों को भेजी जाती हैं । लाखों अमरीकी पर्यटक विदेशों में जाते हैं जिनसे विभिन्न देशों के साथ निकटता बढ़ती है । सन् 1946 का फुलब्राइट ऐक्ट (Fulbrigth Act of 1945) संयुक्त राज्य अमरीका के सांस्कृतिक हितों के विस्तार का एक अन्य प्रचारात्मक उपाय है ।
इसके द्वारा विद्वानों का अन्य देशों से आदान-प्रदान किया जाता है और उन्हें मुद्रा और वित्तीय ऋण की सुविधाएं प्रदान की जाती हैं । इसी प्रकार का स्मिथ-मण्ड एक्ट (Smith-Mundt Act of 1948) के अन्तर्गत कलाकारों वैज्ञानिक व्यावसायिक कार्यकारी और अन्य सांस्कृतिक क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों का आदान-प्रदान किया जाता है । कैनेडी युग में (1961) ‘पीस कॉपर्स’ (Peace Crops) शुरू की गयी थी जिसके अन्तर्गत विदेशी सहायता कार्यक्रम के अन्तर्गत विशेषज्ञ रअन्य देशों को भेजे जाते थे ।
Essay # 8. प्रचार के उपकरण (Tools of Propaganda):
प्रचार के अभिकरणों में रेडियो और समाचार-पत्र प्रमुख हें । रेडियो का प्रयोग शत्रु राज्य के मनोबल को नीचे गिराने के लिए प्रचुर मात्रा में होता है । ‘वॉयस ऑफ अमरीका’ सोवियत संघ तथा समाजवादी व्यवस्था के विरुद्ध प्रचार करता रहा है और मास्को रेडियो अमरीकी साम्राज्यवाद का पर्दाफाश करता रहा है ।
वॉयस ऑफ अमरीका सप्ताह के सातों दिन और दिन के चौबीसों घण्टों में निरन्तर प्रसारण करता रहता है । प्रसारण के उपकरणों में अमरीकन रिपोर्टर, अमरीकन रिव्यू, स्पान, सोवियत भूमि आदि पत्र-पत्रिकाओं का भी विशेष महत्व रहा है । इसी प्रकार प्रदर्शनी, चलचित्र, उपन्यास तथा नाटक भी प्रचार के शक्तिशाली माध्यम हैं । आजकल टी. वी. प्रचार का सशक्त उपकरण माना जाता है ।
Essay # 9. प्रचार और राजनीतिक युद्ध (Propaganda and Politics Warfare):
प्रचार राजनीतिक युद्ध नहीं है । प्रचार राजनीतिक युद्ध का एक उपकरण है । राजनीतिक युद्ध के संचालन में प्रचार-साधनों का अनवरत प्रयोग होता है । सामान्य प्रचार को हम राजनीतिक युद्ध की संज्ञा नहीं देते लेकिन प्रचार का उद्देश्य यदि विरोधी राज्य को निर्बल बनाना, डराना या धमकाना अथवा अपनी नीति मनवाने के लिए विवश करना है तो वह राजनीतिक युद्ध का अंग बन जाता है । प्रचार को राजनीतिक युद्ध की परिधि में तभी लिया जा सकता है जबकि उसका उद्देश्य विवशकारिता हो ।
Essay # 10. प्रचार एवं कूटनीति (Propaganda and Diplomacy):
कूटनीति के साधनों में प्रचार एक महत्वपूर्ण साधन है । प्रचार के माध्यम से मित्रराष्ट्रों के प्रति सदभावनाएं व्यक्त करने और उनमें वृद्धि करने तथा शत्रु राज्यों के प्रति विष उगलने में सुविधा रहती है । प्रचार द्वारा विरोधी पक्ष अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर बदनाम किया जाता है ।
प्रचार की सहायता से किसी राज्य के साथ सन्धि के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार किया जाता है, तथा सन्धि को प्रभावी बनाने के लिए स्वदेश और विदेश में लोकमत तैयार किया जाता है । प्रत्येक देश की विदेश नीति का यह मुख्य लक्ष्य रहता है कि विरोधी के विचारों को परिवर्तित कर अपने राष्ट्रीय हितों के अनुकूल बनाया जाए ।
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प्रचार के माध्यम से एक राज्य अपने राष्ट्रीय हितों के अनुकूल विश्वास पैदा करने, नैतिक मूल्यों का विकास करने भावात्मक प्राथमिकताओं को उभारने तथा लोगों के मस्तिष्कों को बदलने का प्रयास करता है । प्रचार के माध्यम से विदेश नीति के लक्ष्यों को परिभाषित किया जाता है ।
Essay # 11. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रचार की प्रभावशीलता (The Effectiveness of Propaganda in International Politics):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रचार का कितना प्रभाव है, इसे आसानी से मापा नहीं जा सकता किन्तु आज छोटे-बड़े सभी देश रेडियो प्रसारण को प्रचार के रूप में अनवरत रूप से प्रयोग में ला रहे हैं । सन् 1970 के आस-पास विश्व के अधिकांश देश प्रति सप्ताह 16,000 घण्टे विदेशी प्रसारण करते थे जिनमें से 2,000 घण्टे के तो सोवियत प्रसारण ही थे । पूर्व सोवियत संघ 88 भाषाओं में प्रसारण करता था ।
टी. वी. प्रचार का सस्ता साधन है और अविकसित देशों में इसका महत्व बढ़ता जा रहा हे । चाहे टी. वी. प्रसारणों में ‘नए अनुकूल दृष्टिकोण’ न भी उत्पन्न हों तब भी इनके माध्यम से विदेशी नागरिकों से सम्बन्ध बना रहता है । भारत में बी. बी. सी. प्रसारण का कितना महत्व है यह हम सभी जानते हैं ।
आज भी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ‘प्रचार’ शक्ति के प्रयोग का एक महत्वपूर्ण पहलू है । वर्तमान परिस्थितियों में विश्व का कोई भी देश प्रचार की अवहेलना नहीं कर सकता, अन्यथा वह शक्ति संघर्ष की दौड़ में पिछड़ जाएगा । आज की विश्व राजनीति इतनी व्यापक एवं जटिल होती जा रही है, कि बिना प्रचार के राष्ट्रीय हितों में अभिवृद्धि प्राय: असम्भव है ।