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Here is an essay on ‘South Asia’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘South Asia’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on South Asia
Essay Contents:
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में दी क्षण एशिया (South Asia in International Politics)
- दक्षिण एशिया के प्रमुख देश: संक्षिप्त पृष्ठभूमि (Leading Nations of South Asia: Brief Background)
- दक्षिण एशिया और महाशक्तियां (The Major Powers and South Asia)
- दक्षिण एशिया में ब्रिटेन की परिवर्तित भूमिका (The Changing Role of Britain)
- दक्षिण एशिया में संयुक्त राज्य अमेरिका (The United States in South Asia)
- दक्षिण एशिया में सोवियत विदेश नीति (Soviet Policy in South Asia)
- दक्षिण एशिया में चीन (China in South Asia)
- दक्षिण एशिया को झकझोरने वाली समस्याएं (The Problems that Jerked South Asia)
- दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन-सार्क (South Asian Association for Regional Co-Operation-SAARC)
Essay # 1. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में दी क्षण एशिया (South Asia in International Politics):
दक्षिण एशिया वर्तमान युग में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का केन्द्र-बिन्दु है । दक्षिण एशिया के देश भारत के निकटतम पड़ोसी है । भारत के अतिरिक्त ये देश हैं- पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल और भूटान । अफगानिस्तान को भी दक्षिण एशिया का भाग माना जा सकता है, क्योंकि उसके हित बहुत कुछ भारत और पाकिस्तान के साथ जुड़े हुए हैं ।
नेपाल को छोड़कर सपूर्ण दक्षिण एशिया द्वितीय महायुद्ध से पूर्व अंग्रेजों के प्रत्यक्ष नियन्त्रण में था । दो सौ वर्ष के अंग्रेजी शासन ने विरासत के रूप में इस क्षेत्र के राष्ट्रों के लिए लगभग एकसी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याएं छोड़ी शिक्षा, कानून, व्यापार, चिकिस्ता, औद्योगिक पद्धतियों आदि की दृष्टि से दक्षिण एशिया के राष्ट्रों में अभूतपूर्व समानता पायी जाती है । भौगोलिक और आर्थिक रूप से इस प्रदेश में परिपूरक तत्व विद्यमान हैं, लेकिन इसकी उपेक्षा करके इस क्षेत्र के राष्ट्र एक-दूसरे के विरुद्ध प्रतियोगिता में रत हैं ।
कुछ लोग भारत को दक्षिण एशिया की प्रधान शक्ति (Pre-Dominant Power) मानते हैं, पर सम्भवत: उसे श्रेष्ठ (Pre-eminent) शक्ति कहना अधिक उपयुक्त होगा क्योंकि भारत पाकिस्तान से इतना अधिक शक्तिशाली नहीं है कि उसे अपनी इच्छानुकूल अधीनता स्वीकार करने पर विवश कर सके ।
भारत और पाकिस्तान इस प्रदेश के प्रधान प्रतिद्वन्द्वी राष्ट्र हैं । पाकिस्तान को छोड्कर अन्य सब देशों ने गुट-निरपेक्ष विदेश नीति अपनाने का प्रयत्न किया था । अब तो पाकिस्तान भी निर्गुट आन्दोलन में शामिल हो गया है ।
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औपनिवेशिक शासन से स्वतन्त्रता प्राप्त करने की इच्छा तथा पश्चिमी और साम्यवादी शक्तियों के सम्बन्धों में इस स्वतन्त्रता को बनाये रखने की अभिलाषा इस प्रदेश की सर्वाधिक प्रबल राजनीतिक शक्ति रही है ।
भौगोलिक और आर्थिक दृष्टि से समन्वयकारी तत्व विद्यमान होने के बावजूद इस क्षेत्र के देशों में सहयोग की इच्छा की अपेक्षा पारस्परिक अविश्वास की भावना अधिक प्रबल है । इस प्रदेश के देशों के पारस्परिक सम्बन्ध अधिकांशत: द्विपक्षीय आधार पर संगठित हुए हैं, बहुपक्षीय आधार पर नहीं । क्षेत्रीय सहयोग का अभी तक विकास नहीं हुआ है, फिर भी ‘सार्क’ इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है ।
दक्षिण एशियाई देशों के आपसी सम्बन्ध मधुर होते हुए भी विवादों से ग्रस्त रहे हैं । कश्मीर को लेकर भारत-पाक विवाद तमिल प्रवासियों को लेकर भारत-श्रीलंका विवाद, फरक्का विवाद को लेकर भारत-बांग्लादेश सम्बन्ध कटुतापूर्वक रहे हैं । लगभग एक दशक तक अफगानिस्तान में सोवियत उपस्थिति और पाकिस्तान को अमरीकी शस्त्रों की आपूर्ति ने दक्षिण एशिया के द्वार पर नवशीत-युद्ध की दस्तक दी ।
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Essay # 2. दक्षिण एशिया के प्रमुख देश: संक्षिप्त पृष्ठभूमि (Leading Nations of South Asia: Brief Background):
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1. भारत:
भारत दक्षिणी एशिया का प्रभावी भूभाग है । भारत विश्व का सातवां सबसे बड़ा देश है । सन् 1947 में भारत स्वतन्त्र हुआ और लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली को अपनाया गया । स्वाधीनता के बाद भारत अनेक समस्याओं से ग्रस्त रहा है ।
आर्थिक विकास सामाजिक न्याय और ग्रामीण विकास स्वतन्त्र भारत की चुनौतीपूर्ण समस्याएं रही हैं । जातिवाद और सम्प्रदायवाद के कारण देश में क्षेत्रवाद खूब पनपा । सार्वजनिक जीवन में भाई-भतीजावाद पक्षपात और घूसखोरी अपवाद-स्वरूप न होकर सामान्य नियम बन गये । फिर भी भारत में अभूतपूर्व राजनीतिक एकता दिखायी देती है ।
स्वाधीनता के बाद भारत ने गुट-निरपेक्षता की विदेश नीति को अपनाया । पड़ोसी चीन और पाकिस्तान से भारत को युद्ध लड़ने पड़े हैं । श्रीलंका में तमिल अप्रवासियों को लेकर भारत हमेशा चिन्तित रहा है और भारत की शान्ति सेना काफी दिनों तक वहां पड़ी रही । नेपाल और बांग्लादेश से यदा-कदा भारत के मतभेदों के बावजूद सामान्य सम्बन्ध बने रहे हैं । ‘सार्क’ के गठन में भारत की प्रमुख भूमिका रही ।
2. पाकिस्तान:
भारत के विभाजन के फलस्वरूप 14 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान का उदय हुआ । प्रारम्भ में पूर्वी बंगाल भी इसका एक भाग था । संयुक्त पाकिस्तान की जनसंख्या 11 करोड़ थी जो बांग्लादेश के निर्माण के बाद लगभग पांच करोड़ रह गयी । आज पाकिस्तान की जनसंख्या 19.90 करोड़ है ।
पाकिस्तान के विभिन्न भागों में एकता का एकमात्र महत्वपूर्ण तत्व इस्लाम धर्म है । वह प्रादेशिक या धर्म-निरपेक्ष राष्ट्रवाद पर आधारित नहीं है । पाकिस्तान की राजनीति में सेना की प्रमुख भूमिका रही है और वहां लोकतन्त्रात्मक शासन बहुत ही अल्प समय के लिए रहा है ।
1948 1965 और 1971 में पाकिस्तान ने भारत से युद्ध किये । मई 1999 में जभू-कश्मीर के द्रास-करगिल-बटालिक क्षेत्र में पाकिस्तान समर्थक उग्रवादियों ने हमले करके भारतीय सेना को व्यापक हानि पहुंचाई । पाकिस्तान बगदाद समझौते (बाद में सेण्टो) का सदस्य बना । 18 सितम्बर, 1954 को उसने ‘सीटो’ पर हस्ताक्षर किये । 5 मार्च, 1959 को अमरीका और पाकिस्तान के मध्य पारस्परिक सहयोग का
समझौता हुआ पाकिस्तान को अमरीका से भारी मात्रा में आर्थिक और सैनिक सहायता प्राप्त हुई । अफगानिस्तान की घटनाओं ने पाक-चीन-अमरीका धुरी को मजबूत बना दिया । 12 अक्टूबर, 1999 को प्रधानमन्त्री नवाजशरीफ को नजरबन्द करते हुए थल सेना अध्यक्ष जनरल परवेश मुशर्रफ ने स्वयं को देश का मुख्य अधिशास्त्री घोषित कर दिया ।
27 दिसम्बर, 2007 को हुई पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या से पाकिस्तान के आधुनिकीकरण की ताकतों को गहरा धक्का पहुंचा । उग्रवादी हिंसा और आतंकवाद का प्रसार तथा इसके कारण पाकिस्तान के राजनीतिक स्थायित्व के समक्ष आया खतरा भारत के लिए चिंता का गंभीर विषय है ।
3. बांग्लादेश:
सन् 1971 में बांग्लादेश का उदय हुआ । बांग्लादेश के उदय का कारण था पाक सरकार की भाषायी, आर्थिक और राजनीतिक नीतियों के विरुद्ध पूर्वी बंगाल का असन्तोष । बांग्लादेश करोड़ जनसंख्या वाला विश्व का नौवां सबसे बड़ा राष्ट्र है ।
इसने दक्षिण-पूर्वी एशिया में शक्ति-सन्तुलन को सर्वथा नया रूप दे दिया । भारत ने बांग्लादेश की स्वतन्त्रता में विशेष योग दिया था । शेख मुजीब की हत्या के बाद बांग्लादेश के शासकों ने भारत विरोधी और पाकिस्तान समर्थक नीति अपनायी ।
इरशाद के काल में भारत विरोधी और पाकिस्तान समर्थक स्वर कुछ हल्का पड़ा । फरक्का विवाद, नया मूर विवाद, अवैध पारगमन की समस्या और बाड़ लगाने का प्रश्न आदि को लेकर दोनों देशों में मतभेद पैदा हुए । एक असंलग्न राष्ट्र होते हुए भी बांग्लादेश पश्चिम की ओर अधिक झुका हुआ है । चीन और अमरीका से बांग्लादेश के सम्बन्ध मधुर हैं ।
इन दिनों बांग्लादेश अतिवाद के संकट में फंसता जा रहा है । अतिवादी कारनामों के लिए ‘जाग्रत मुस्लिम जनता बांग्लादेश’ जैसे संगठन सक्रिय हैं । संगठन का लक्ष्य है बांग्लादेश में पूर्ण इस्लामी प्रशासन की स्थापना करना तथा बांग्लादेश में वामपंथी अतिवादियों का सफाया करना ।
4. श्रीलंका:
श्रीलंका भारत के दक्षिण में स्थित एक द्वीप है जिसका क्षेत्रफल 65,610 वर्ग किमी. और जनसंख्या लगभग 29 करोड़ है । इसमें 64 प्रतिशत बौद्ध, 14 प्रतिशत हिन्दू, 9 प्रतिशत ईसाई, 6 प्रतिशत मुसलमान और 7 प्रतिशत अन्य धर्मों के मानने वाले हैं ।
यहां 20 प्रतिशत तमिल व 80 प्रतिशत सिंहल नृवंशीय लोग रहते हैं । श्रीलंका ने गुट-निरपेक्षता की विदेश नीति को अपनाया है । प्रारम्भ में श्रीलंका का झुकाव पश्चिमी गुट की तरफ था । 1948 में उसने ब्रिटेन के साथ एक सुरक्षा सन्धि की ।
1956 के बाद विदेश नीति में थोड़ा परिवर्तन आया । सोलोमन भण्डारनायके यह मानते थे कि विदेश नीति स्वतन्त्र होनी चाहिए । वे श्रीलंका में ब्रिटिश अड्डों के विरुद्ध थे । उनके प्रयत्नों से ब्रिटिश अड्डे हट गये, पर भारत की तरह श्रीलंका भी राष्ट्रमण्डल में बना रहा ।
जुलाई 1960 में श्रीमती सिरीमावो भण्डारनायके प्रधानमन्त्री बनीं । उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में सक्रिय भाग लिया । भारत-चीन युद्ध के समय उन्होंने असंलग्न राष्ट्रों का सम्मेलन बुलाने की पहल की और कोलम्बो प्रस्ताव तैयार किये गये ।
श्रीलंका ने निर्गुट आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए गम्भीर प्रयत्न किये । 1976 में कोलम्बो में पांचवां निर्गुट शिखर सम्मेलन हुआ । 1977 के बाद जयवर्द्धने राष्ट्रपति बने । उनकी नीति पश्चिम समर्थक रही । श्रीलंका भारी मात्रा में आर्थिक और सैनिक सहायता के बदले में अमरीका का मित्र बन गया ।
श्रीलंका में हो रहे अल्पसंख्यक तमिल नृवंशियों का नरसंहार (1983-89) भारत के लिए चिन्ता का विषय रहा है । भारतवंशी तमिलों का भारत से लगाव एवं उनके प्रति भारत का दायित्व तथा इस कारण भारत में उत्पन्न शरणार्थी समस्या के कारण भारत-श्रीलंका मैत्री में करकराहट विकसित हुई है ।
5. नेपाल:
नेपाल भारत और चीन के मध्य एक बाधक राज्य (Buffer State) माना जाता रहा है । इसका क्षेत्रफल 1,47,181 वर्ग किमी. और जनसंख्या 2.66 करोड़ है । यह विश्व का एकमात्र हिन्दू राज्य है । नेपाल ने भारत और चीन के सम्बन्ध में समान दूरी की नीति अपनायी । नेपाल निर्गुट आन्दोलन में शामिल हुआ ।
नेपाल के विकास कार्यक्रमों में भारत ने उदारता से सहायता दी । नेपाल चाहता है कि उसे शान्ति क्षेत्र (Peace Zone) घोषित किया जाये । कभी-कभी नेपाल में भारत-विरोधी प्रचार और चीन के प्रति झुकाव दिखायी देता है । इन दिनों नेपाल गम्भीर राजनीतिक संकट के दौर से गुजर रहा है ।
इस संकट के तीन पक्ष हैं-राजा राजनीतिक दल तथा माओवादी कम्युनिस्ट । तीनों ही पक्ष अपने अलग-अलग राजनीतिक उद्देश्यों के लिए काम कर रहे हैं । पिछले वर्षों में माओवादियों की सक्रियता में वृद्धि हुई और सशस्त्र हमलों को तेज किया गया । माओवादी हथियारबन्द जत्थे खुलेआम घूमते रहे । नेपाल में माओवादियों का राजनीतिक वर्चस्व उसे चीन के नजदीक पहुंचाकर भारत और अमरीका के हितों पर चोट पहुंचा सकता है ।
28 मई, 2008 को विगत 240 वर्षों से चली आ रही राजशाही का नेपाल से अन्त हो गया । नवनिर्वाचित संविधान सभा ने देश को धर्मनिरपेक्ष संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित कर दिया । नेपाल में माओवादियों के नेतृत्व वाली सरकार के गठन के बाद भारत व नेपाल के सम्बन्ध मधुर रह सकेंगे इस पर कई प्रश्न चिह्न लगे हुए हैं ।
6. भूटान:
भूटान भारत का एक संरक्षित राज्य है । इसका क्षेत्रफल 38,394 वर्ग किमी और जनसंख्या लगभग 6,97,000 है । 8 अगस्त, 1949 को भारत और भूटान के मध्य एक सन्धि हुई । भारत ने भूटान के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया ।
सन्धि में कहा गया कि भूटान सरकार विदेशी मामलों में भारत सरकार की सलाह को मार्गदर्शक के नाते मानने के लिए सहमत है । यह भी व्यवस्था की गयी कि भारत 5 लाख रुपए वार्षिक सहायता भूटान को देगा ।
भारत-चीन युद्ध के बाद भूटान ने प्रतिरक्षा का भार भी भारत को सौंप दिया । 1971 में भूटान संयुक्त राष्ट्रसंघ का सदस्य बन गया । यदा-कदा भूटान भारत के प्रभाव से बाहर निकलने की कोशिश करता रहा है ।
1974 में भूटान ने सन्धि की धारा 2 की व्याख्या का प्रश्न उठाया । भूटान ने इसकी यह व्याख्या करने का प्रयास किया कि भूटान वैदेशिक सम्बन्धों के मामलों में भारत के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है । चीन, भूटान के 300 वर्गमील क्षेत्र पर दावा करता रहा है पर धीरे-धीरे भूटान के अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व का विकास हो रहा है भारत और बांग्लादेश में उसके दूतावास खुल गये हैं ।
चीन भूटान के राजनीतिज्ञों को धन और पद का लालच देकर अपने पक्ष में करने की चेष्टा में लगा हुआ है । भूटान में 24 मार्च, 2008 को नेशनल असेम्बली के चुनावों के साथ लोकतांत्रिक सरकार के गठन का मार्ग प्रशस्त हुआ । इन चुनावों के साथ ही यहां राजशाही का अंत हुआ ।
Essay # 3. दक्षिण एशिया और महाशक्तियां (The Major Powers and South Asia):
दक्षिण एशिया में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का तब तक समुचित विश्लेषण नहीं किया जा सकता जब तक चार प्रमुख शक्तियों-ब्रिटेन अमेरिका सोवियत संघ और चीन कीं इस क्षेत्र में अभिरुचि और भूमिका का विवेचन न किया जाये ।
तीन शक्तियों-ब्रिटेन चीन और सोवियत संघ-का इस क्षेत्र में पारस्परिक भू-सामरिक (Traditional Geostrategic) हित रहा है जिसे 1947-48 में ब्रिटेन के इस क्षेत्र से हटने से पूर्व भी देखा गया है । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका भी इस क्षेत्र में सक्रिय दिखायी देता है ।
दक्षिण एशिया में महाशक्तियों की भूमिका और अभिरुचि से दो तथ्य उजागर होते हैं:
प्रथम महाशक्तियों द्वारा अपना आधार तैयार करने के लिए इस क्षेत्र में शक्ति प्रतिस्पर्द्धा का उभारना; द्वितीय दक्षिण एशिया के देश स्वयं आपसी प्रतिस्पर्द्धा और राजनीतिक मतभेदों में उलझ गये । इस क्षेत्र में महाशक्तियों के हस्तक्षेप से भारत-पाक संघर्ष कटुता और चार बार युद्ध में परिवर्तित हो चुका है । भारत-पाकिस्तान में शस्त्रों की बढ़ती हुई प्रतिस्पर्द्धा महाशक्तियों की दिलचस्पी का स्पष्ट नमूना है ।
Essay # 4.दक्षिण एशिया में ब्रिटेन की परिवर्तित भूमिका (The Changing Role of Britain):
दक्षिण एशिया में ब्रिटेन की भूमिका द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद उसके परिवर्तित अन्तर्राष्ट्रीय दर्जे के रूप में देखी जानी चाहिए । द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद इस क्षेत्र में संयुक्त राज्य अमरीका पश्चिमी हितों के संरक्षक के रूप में उभरा । इस क्षेत्र में 1947-48 के बाद बर्मा भारत पाकिस्तान और श्रीलंका एक साथ स्वाधीन हुए । बर्मा को छोड्कर तीनों ही देश ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल में बने रहे ।
इनके राष्ट्रमण्डल में बने रहने के आर्थिक कारण तो थे ही परन्तु भारत और पाकिस्तान के लिए कश्मीर का विवाद भी उन्हें राष्ट्रमण्डल में बने रहने के लिए बाध्य करता था । 1965 में कच्छ के मसले पर ब्रिटेन ने भारत और पाकिस्तान के मध्य सफलतापूर्वक मध्यस्थता की । ब्रिटेन ने सुरक्षा परिषद् में कश्मीर के प्रश्न पर 1957 और 1961 में पाकिस्तान का समर्थन किया ।
1965 में जब ब्रिटिश प्रधानमन्त्री हेरल्ड विल्सन ने भारत को आक्रमणकारी बताया तो ब्रिटेन के प्रति भारत में जबरदस्त नाराजगी देखी गयी । फिर भी भारत राष्ट्रमण्डल से अलग होने की नहीं सोच सकता था ।
भारत की जलसेना और वायुसेना का प्रशिक्षण एवं आधुनिकीकरण बहुत कुछ ब्रिटेन पर निर्भर करता था । 1962 के चीनी आक्रमण के समय ब्रिटेन ने भारत को मदद दी । 1964 के बाद भारत का झुकाव सोवियत संघ की तरफ होने लगा क्योंकि ब्रिटेन पाकिस्तान का सैनिक दृष्टि से शस्त्रीकरण करने में दिलचस्पी रखता था ।
Essay # 5. दक्षिण एशिया में संयुक्त राज्य अमेरिका (The United States in South Asia):
दक्षिण एशिया में अमरीकी भूमिका उसके महाद्वीपीय रणनीति (Global Strategy) का ही अंग है जिसकी शुरुआत ‘साम्यवाद के विरोध’ की अमरीकी नीति से होती है । इसी नीति के परिणामस्वरूप पाकिस्तान को सीटी तथा बगदाद पैक्ट सेण्टो का सदस्य बनाया गया ।
पाकिस्तान को अमरीकी शस्त्र प्रदान किये गये । राष्ट्रपति आइजनहावर ने भारत को भी शस्त्र देने की पेशकश की जिसे भारत ने अस्वीकृत कर दिया । अमरीका पाकिस्तान को एक तरफ सोवियत संघ के खिलाफ और दूसरी तरफ नेहरू के निर्गुट आन्दोलन के खिलाफ इस क्षेत्र में एक सशक्त दीवार के रूप में खड़ा करना चाहता था ।
1965 के युद्ध में भारत के खिलाफ जो भी शस्त्र पाकिस्तान ने काम में लिये वे सब अमरीकी शस्त्र सहायता में प्राप्त किये थे । कश्मीर के प्रश्न पर सुरक्षा परिषद् में अमरीकी समर्थन भी पाकिस्तान को प्राप्त था । 1962 के चीनी आक्रमण के समय अमेरिका ने भारत को शस्त्रों की भरपूर सहायता दी । वस्तुत: चीन के खिलाफ भारत को रूस-अमरीकी समर्थन प्राप्त हुआ । 1971 के युद्ध में अमेरिका ने बांग्लादेश के प्रकरण में पाकिस्तान का साथ दिया ।
अमरीकी विदेश विभाग ने ऐलान किया कि अमरीकी सरकार ने भारत को सहायता देना बन्द करने का निर्णय किया है और अमरीका के सहायक राज्य सचिव जी. सिस्को ने भारत पर युद्ध छेड़ने का आरोप लगाया । अमरीकी परमाणविक विमानवाहक पोत ‘एण्टरप्राइज’ को बंगाल की खाड़ी में भारत के तटों के नजदीक भेजने का निर्णय किया ।
सोवियत विस्तारवाद को रोकने के बहाने अमरीका पाकिस्तान को सुदृढ़ और शक्तिशाली बनाना चाहता था, वह उसे आधुनिकतम सैनिक सामान और एफ-16 जैसे विध्वंसक वायुयानों की सप्लाई करने लगा जो कि भारत की चिन्ता का कारण रहा ।
अफगानिस्तान में रूसी हस्तक्षेप से पाकिस्तान का चिन्तित होना स्वाभाविक था । अमरीका रूसी विस्तारवाद को रोकने के बहाने पाकिस्तान को शक्तिशाली बनाकर एशिया में भारत का एक सुदृढ़ प्रतिद्वन्द्वी तैयार करने का प्रयत्न करने लगा ।
दूसरी तरफ अमरीका डियागो गार्शिया द्वीप पर अपने सैन्य अड्डे के विस्तार की योजना का तेजी से क्रियान्वयन करने लगा । हिन्द महासागर और डियागो गार्शिया में अमरीका की उपस्थिति का एक ही कारण था कि वह हिन्द महासागर में आकर सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान में हस्तक्षेप के लाभ को कम कर सके ।
Essay # 6. दक्षिण एशिया में सोवियत विदेश नीति (Soviet Policy in South Asia):
दक्षिण एशिय में सोवियत हित दो घटनाओं से विशेष रूप से प्रभावित हुए पाकिस्तान का अमरीकी गुटबन्दी का भाग बन जाना और चीन से रूस का विवाद उत्पन्न हो जाना । सोवियत संघ इस बात को नहीं भूल सका कि मई 1960 में यू-2 विमान ने पेशावर से उड़ान ली थी ।
भारत-रूस सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण रहे । कश्मीर के प्रश्न पर सुरक्षा परिषद् में सोवियत वीटो भारत के पक्ष में रहा । 1962 में चीनी आक्रमण के समय रूस ने भारत का साथ दिया और भारत को मिग विमान भी प्रदान किये । 1966 में कोसीगिन के प्रयास से भारत-पाकिस्तान के बीच ताशकन्द समझौता हुआ ।
जब 1971 में वाशिंगटन-पिण्डी-पीकिंग धुरी का निर्माण हुआ तो इस उपमहाद्वीप में शान्ति बनाये रखने के लिए भारत सोवियत संघ ने (1971) एक बीस-वर्षीय सन्धि पर हस्ताक्षर किये । जब चीन ने पाकिस्तान को रिझाने का प्रयास किया तो सोवियत संघ ने पाकिस्तान के साथ सम्बन्धों को सुधारने का प्रयास किया । 1968 में सोवियत संघ ने पाकिस्तान को सैनिक सहायता दी ।
1979 में अफगानिस्तान में रूसी हस्तक्षेप ने रूस-पाकिस्तान सम्बन्धों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला । पाकिस्तान-रूस सम्बन्ध में विरोध का एक कारण यह था कि पाकिस्तान सोवियत संघ से यह अपेक्षा करता था कि उसे भारत के बराबर स्वीकार करे जो सोवियत संघ करने के लिए तैयार नहीं था ।
बाद में सोवियत संघ हिन्द महासागर में भी उपस्थित रहा । सोवियत संघ ने सोकोत्रा और सेशेल्स टापुओं के निकट नौ सेना के बेडे के लिए विश्राम-स्थलों की स्थापना की । अमरीकी प्रभाव का तटस्थीकरण करने के लिए सोवियत संघ ने इस क्षेत्र के प्रमुख देशों से मैत्री सम्बन्ध बनाने का भरसक प्रयत्न किया । ब्रेझनेव ने एशियाई सामूहिक सुरक्षा के विचार का सन् 1969 में प्रतिपादन किया था ।
इस सुरक्षा योजना पर टिप्पणी करते हुए कहा गया था कि हिन्द महासागर चारों ओर से साम्राज्यवादियों के सैनिक अड्डों से घिरा हुआ है, अत सभी शान्तिप्रिय देशों की सामरिक सुरक्षा आवश्यक हे । सोवियत संघ की मान्यता थी कि शान्ति और सुरक्षा के लिए देशों को एक सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था में शामिल हो जाना चाहिए, किन्तु एशियाई देशों ने इसके प्रति कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी ।
Essay # 7. दक्षिण एशिया में चीन (China in South Asia):
दक्षिण एशिया में चीनी विदेश नीति सक्रिय है । भारत पर चीन ने 1962 में आक्रमण कर उसकी लगभग 20 हजार वर्ग किमी. भूमि दबा ली । नेपाल और भूटान उससे भयभीत हैं । जून 1969 में चीन के दबाव में आकर नेपाली प्रधानमन्त्री के.एन. विष्ट ने भारत से नेपाल की उत्तरी सीमा पर कार्य करने वाले तकनीशियनों को वापस बुलाने और अपनी सैनिक चौकियां हटा लेने की मांग की ।
चीन भूटान के 300 वर्गमील क्षेत्र पर दावा करता है । 1963 में चीन-पाकिस्तान में एक समझौता हुआ जिसमें सिकियांग और पाक अधिकृत कश्मीर के मध्य सीमा निर्धारण की व्यवस्था थी । इस समझौते के अन्तर्गत पाकिस्तान ने अधिकृत कश्मीर के 2050 वर्गमील का क्षेत्र अवैध रूप से चीन को दे दिया । दोनों ने मिलकर एक सड़क का निर्माण किया जिसे ‘कराकोरम’ राजपथ कहते हैं ।
1963 के बाद चीन ने पाकिस्तान को आर्थिक और सैनिक सहायता देना शुरू किया । 1965 के भारत-पाक युद्ध में चीन ने प्रत्यक्ष हस्तक्षेप नहीं किया तथापि भारत को भयभीत करने के लिए तीन-दिवसीय अल्टीमेटम दिया । पाकिस्तान व भारत की सेनाओं के बीच सियाचिन ग्लेशियर पर झड़पें बनी हुई हैं । चीन चाहता है कि पाकिस्तान उस पर कब्जा करके उसे दे दे ।
दक्षिणी एशिया में चीनी हित अधिक सचेतन और महत्वपूर्ण हैं । चीन की सीमाएं भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बर्मा आदि से मिलती हैं । दक्षिण एशिया को चीन अपना परम्परागत क्षेत्र मानता है । वह उसे अपने प्रभाव क्षेत्र में बनाये रखना चाहता है । इस क्षेत्र में किसी अन्य महाशक्ति का बढ़ता प्रभाव उसे गले नहीं उतरता । इस सम्बन्ध में वह भारत को अपना प्रतिद्वन्द्वी (Rival) मानता है ।
Essay # 8. दक्षिण एशिया को झकझोरने वाली समस्याएं (The Problems that Jerked South Asia):
दक्षिण एशिया को झकझोरने वाली कतिपय प्रमुख समस्याएं या संघर्ष या विवाद निम्नलिखित हैं:
1. भारत और पाकिस्तान के मध्य कश्मीर समस्या;
2. 1962 में चीन का भारत पर आक्रमण;
3. श्रीलंका में तमिल अप्रवासियों की समस्या;
4. हिन्द महासागर में महाशक्तियों की प्रतिस्पर्द्धा;
5. परमाणु शस्त्र प्रतिस्पर्द्धा;
6. नेपाल में राजनीतिक संकट;
1. भारत और पाकिस्तान के मध्य कश्मीर समस्या:
भारत और पाकिस्तान में कश्मीर विवाद सबसे अधिक गम्भीर और महत्वपूर्ण है । 1947 से पूर्व कश्मीर एक देशी रियासत था । इसका क्षेत्रफल 1,34,400 वर्ग किमी. और जनसंख्या 40 लाख थी । इनमें से लगभग 77% मुसलमान और 20% हिन्दू थे । 1947 के बाद कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने पृथक् रहने का निश्चय किया तथा भारत और पाकिस्तान से यथास्थिति करार करने की प्रार्थना की ।
पाकिस्तान ने 14 अगस्त, 1947 को कश्मीर से यथास्थिति करार कर लिया । परन्तु उसने करार का पालन नहीं किया और कबायली लोगों की सहायता से कश्मीर पर आक्रमण करा दिया । इस पर महाराजा हरिसिंह ने भारत से सहायता मांगी और कश्मीर को भारत में शामिल करने की प्रार्थना की । 27 अक्टूबर, 1947 को भारत सरकार ने इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया ।
भारतीय सेनाएं तुरन्त कश्मीर की सहायता के लिए भेज दी गयीं । भारत ने सुरक्षा परिषद् से शिकायत की कि पाकिस्तान कश्मीर में कबायली आक्रान्ताओं को सहायता दे रहा है । सुरक्षा परिषद् में अमेरिका और ब्रिटेन ने पाकिस्तान का साथ दिया । फरवरी 1954 से तो अमेरिका पाकिस्तान को सैनिक सहायता देने को तैयार हो गया । आज तक कश्मीर समस्या विवाद का विषय बनी हुई है ।
2. 1962 में भारत पर चीन का आक्रमण:
20 अक्टूबर, 1962 को चीन ने भारत पर बड़े सुनियोजित ढंग से आक्रमण किया । जिस आकस्मिक ढंग से अक्टूबर 1962 को भारतीय सीमाओं पर चीन ने आक्रमण किया था उसी आकस्मिक ढंग से उसने 21 नवम्बर, 1962 को एक पक्षीय युद्ध-विराम की घोषणा कर दी ।
चीन के भारत पर आक्रमण के दो उद्देश्य थे:
a. अपनी शक्ति को प्रदर्शित करना;
b. भारत की निर्बलता को प्रदर्शित करना तथा उसे अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपमानित करना;
c. चीन को यह आशा थी कि युद्ध की स्थिति में रूसी साम्यवादी मनाई उसका साथ देगा और भारत में आन्तरिक दंगे होंगे । परन्तु चीन की ये कामनाएं सफल नहीं हो सकीं ।
अमरीका ब्रिटेन और उसके बाद फ्रांस पश्चिमी जर्मनी आस्ट्रेलिया कनाडा ने तेजी से भारत को सैनिक सहायता दी । सोवियत संघ प्राय: तटस्थ रहा और उसने चीन पर युद्ध बन्द करने के लिए दबाव डाला । पाकिस्तान ने चीनी आक्रमण का लाभ उठाते हुए भारत की निन्दा करना शुरू कर दिया । पाकिस्तान ने चीनी आक्रमण को ‘सामान्य स्थानीय मामले’ का रूप देने का प्रयास किया ।
युद्ध-विराम के बाद श्रीलंका की तत्कालीन प्रधानमन्त्री भण्डारनायके से प्रेरणा पाकर छ: राष्ट्रों (श्रीलंका म्यांमार कम्बोडिया इण्डोनेशिया मिल घाना) के प्रतिनिधियों ने भारत-चीन विवाद को हल करने के लिए 19 जनवरी, 1963 को कोलम्बो प्रस्ताव प्रकाशित किये । पिछले कुछ वर्षों से भारत-चीन सम्बन्धों में सामान्यता आ रही है दोनों देशों में सीमा विवाद हल करने के लिए वार्ताओं के कई दौर सम्पन्न हुए हैं तथा द्विपक्षीय व्यापार के सम्बन्ध में समझौते हुए हैं ।
3. श्रीलंका में तमिल अप्रवासियों की समस्या:
श्रीलंका भारत के दक्षिण में स्थित एक छोटा द्वीप है जो सांस्कृतिक दृष्टि से भारत के साथ जुड़ा हुआ है । श्रीलंका में भारतीय प्रवासियों की समस्या को लेकर दोनों देशों में तनाव रहे है । श्रीलंका में भारतीय प्रवासियों के सम्बन्ध में 1949 में नेहरू-कोटलेवाला समझौता तथा 1964 में शास्त्री-भण्डारनायके समझौता हुआ किन्तु 1982-90 में यह मसला भारत-श्रीलंका सम्बन्धों को प्रभावित करने की दृष्टि से अहम् मसला बन गया ।
श्रीलंका की डेढ़ करोड़ की जनसंख्या में 74% सिंहली 13% श्रीलंका के तमिल, 6% भारतमूलक तमिल और शेष अन्य लोग हैं । तमिल श्रीलंका के उत्तर में जाफना जिले में रहते हैं । तमिल समुदाय ने मुख्य रूप से अपने को तुला तमिल यूनाइटेड लिबरेशन फ्रण्ट नाम के राजनीतिक संगठन में संगठित कर रखा है और समय-समय पर वह इसके माध्यम से अपने असन्तोष की अभिव्यक्ति भी करता रहता है । अमृतलिंगम इसके नेता हैं ।
श्रीलंका के तमिलों के वर्तमान आन्दोलन का मूल कारण बहुसंख्यक सिंहलियों द्वारा की गयी भेदभाव की नीति है । बौद्ध धर्म को देश का राष्ट्रीय धर्म बना दिया गया और सिंहली भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया गया जबकि बहुसंख्यक तमिल हिन्दु धर्म के मानने वाले हैं और उनकी मातृभाषा तमिल है ।
विश्वविद्यालयों में प्रवेश और सरकारी नौकरियों में भर्ती के वक्त तमिलों के साथ भेदभाव किया जाता है । तमिलों के कुछ उग्रवादी संगठन ईलम पृथक् राष्ट्र के निर्माण की बात करते हैं तो तुल्क स्वायत्तता की मांग कर रहा है ।
श्रीलंका के तमिल अल्पसंख्यक समुदाय की समस्या श्रीलंका का आन्तरिक मामला है । भारत श्रीलंका के आन्तरिक मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता । भारत ईलम (पृथक् तमिल राज्य) की धारणा का समर्थक नहीं है ।
फिर भी श्रीलंका का पड़ोसी देश होने के कारण वहां पर होने वाली घटनाओं से भारत का चिन्तित होना स्वाभाविक है विशेषकर उस स्थिति में जब श्रीलंका सरकार तमिल उग्रवादियों को सबक सिखाने के लिए इजरायल की खुफिया संस्थाओं ‘शिनबेत’ और भोसाद को श्रीलंका की सेनाओं और पुलिस को प्रशिक्षण देने के लिए भाड़े पर रखती है, अथवा जब श्रीलंका भारत के दो प्रतिद्वन्द्वी राष्ट्रों (चीन और पाकिस्तान) के साथ सांठगांठ करता है और उसके द्वारा दिये गये हथियारों या प्रशिक्षित किये गये सैनिकों द्वारा जाफना को कुचलता है अथवा जब श्रीलंका सरकार भारत को धमकाने के लिए त्रिकोमल्ली बन्दरगाह में अमरीकी नौ सेना जहाजों और युद्धपोतों को सुविधाएं देने के लिए वार्ताएं करती है ।
तमिल समस्या का समाधान करने हेतु भारत शुरू से ही बातचीत का रास्ता अपनाता रहा है । जुलाई 1983 में जी. पार्थसारथी भारतीय प्रधानमन्त्री के विशेष दूत के रूप में कोलम्बो में बातचीत करते रहे । श्रीलंका सरकार समस्या का समाधान सैनिक शक्ति के बल पर निकालना चाहती थी ।
अत: जनवरी 1987 में जाफना की आंशिक नाकेबन्दी की गयी मई 1987 में श्रीलंका की थलसेना और वायुसेना ने जाफना पर चौतरफा हमले भी किये । भारत ने तमिल नरसंहार पर दु:ख जाहिर किया और जून, 1987 में मानवीय आधार पर जाफना की पीड़ित जनता के लिए राहत सामग्री भेजने की घोषणा की ।
भारत ने खाद्य सामग्री और दवाएं जाफना प्रायद्वीप पर विमान से गिराने का निर्णय किया । श्रीलंका ने भारत की इस कार्यवाही की तीखी आलोचना की । हवाई राहत का एक गम्भीर परिणाम यह निकला कि इसने श्रीलंका की जातीय समस्या को भारत-श्रीलंका समस्या में बदल दिया ।
29 जुलाई, 1987 को राजीव-जयवर्द्धन समझौता हुआ । इस समझौते के अन्तर्गत भारत ने श्रीलंका को उसकी एकता सम्प्रभुता तथा क्षेत्रीय अखण्डता की रक्षा करने की गारण्टी दी । भारतीय शान्ति सेना को समझौता लागू कराने के लिए श्रीलंका भेजा गया । शान्ति सेना का मुख्य कार्य था, युद्धविराम को लागू करना स्थिति को सामान्य बनाना और तमिल उग्रवादियों द्वारा हथियारों के समर्पण को सुनिश्चित करने में सहायता देना ।
यह समझौता निश्चित रूप से भारत की कूटनीतिक सफलता है । इसने श्रीलंका का कम-से-कम राष्ट्रपति जयवर्द्धन का पाकिस्तान व पश्चिम की ओर झुकाव खत्म कर उन्हें भारतीय प्रभामण्डल में खींच लिया । 18 सितम्बर, 1989 को कोलम्बो में भारत और श्रीलंका के मध्य हुए समझौते के अन्तर्गत शान्तिसेना ने अपनी आक्रामक फौजी कार्यवाही को स्थगित कर दिया तथा 31 मार्च, 1990 से पहले ही स्वदेश वापस लौट आयी ।
श्रीलंका में तमिल विद्रोहियों और सेना के बीच संघर्ष बढ़ता गया जिससे शान्ति प्रक्रिया की बहाली की उम्मीद धूमिल होती गयी और यह प्रायद्वीप एक बार फिर गृहयुद्ध की ओर बढ़ता गया । दिसम्बर, 2005 में युद्ध विराम के उल्लंघन की घटनाओं में और अधिक तेजी आयी । लिट्टे के द्वारा किया गाय एक बड़ा ‘एक्शन’ 7 जनवरी 2006 का था । उस दिन लिट्टे के आत्मघाती दस्ते के सदस्य ने विस्फोटक से लदी हुई नौका को श्रीलंका की नौसेना के लड़ाकू पोत से टकराकर उसे नष्ट कर दिया ।
युद्ध विराम को मॉनीटर करने के लिए नियुक्त पर्यवेक्षकों (नॉर्वे, डेनमार्क, स्वीडन, फिनलैण्ड तथा आइसलैण्ड से) ने लिट्टे के हमलों को युद्ध विराम पर गहरी चोट के रूप में बताया । नॉर्वे के मध्यस्थ एरिक सोलहाईम के सहयोग से 25 जनवरी, 2006 को लिट्टे तथा श्रीलंका की सरकार के मध्य एक समझौता हो गया जिसके अनुसार दोनों पक्ष जेनेवा में वार्ता करेंगे तथा वार्ता का विषय होगा युद्ध विराम को प्रभावी ढंग से कैसे लागू किया जाए ?
पिछले 25 वर्षों में सबसे बड़ी सफलता हासिल करते हुए श्रीलंकाई सेना ने 2 जनवरी 2009 को लिट्टे के गढ़ तथा प्रशासनिक राजधानी ‘किलिनोच्चि’ पर विजय हासिल कर ली । 25 जनवरी, 2009 को लिट्टे के अन्तिम गढ़ मुल्लाईथिबु शहर का पतन हो गया ।
श्रीलंका में जातीय हिंसा के चलते लोगों की बली चढ़ चुकी है । इस लम्बे संघर्ष से श्रीलंकाई सरकार को यह समझ जरूर आ गयी कि तमिलों को संवैधानिक तथा समान अधिकारों से अधिक समय तक वंचित नहीं रखा जा सकता । दूसरी ओर तमिलों को भी इस बात का आभास हो चुका है कि उनकी स्वतन्त्र राष्ट्र जैसी अवधारणा कभी पूरी नहीं हो सकती ।
4. हिन्द महासागर में महाशक्तियों की प्रतिस्पर्द्धा:
विश्व राजनीति में हिन्द महासागर का विशिष्ट महत्व है । भौगोलिक दृष्टि से हिन्द महासागर 10,400 किमी. लम्बे और 1,600 किमी. चौड़े क्षेत्र में फैला हुआ है । इस विशाल जल क्षेत्र में सामरिक दृष्टि से अनेक महत्वपूर्ण द्वीप मेडागास्कर मॉरीशस अण्डमान निकोबार मालद्वीप आदि बसे हुए हैं ।
हिन्द महासागर का जल एशिया अफ्रीका एवं आस्ट्रेलिया के तटों को छूता है । इसके अतिरिक्त मलक्का जलडमरूमध्य तथा स्वेज नहर के माध्यम से प्रशान्त और अन्ध महासागर से भी इसका सम्बन्ध है । भारत के लिए हिन्द महासागर का अत्यधिक महत्व है । भारत के समस्त जलमार्ग हिन्द महासागर में होकर ही गुजरते हैं । हिन्द महासागर ही भारत को दक्षिण-पूर्वी एशिया अफ्रीका और आस्ट्रेलिया से जोड़ता है ।
द्वितीय महायुद्ध से पूर्व हिन्द महासागर के अधिकांश तटवर्ती क्षेत्रों पर ब्रिटेन का नियन्त्रण था तथा हिन्द महासागर को ब्रिटेन की झील के नाम से पुकारा जाता था । द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के साथ-साथ हिन्द महासागर के तटवर्ती क्षेत्रों से ब्रिटेन का प्रभुत्व समाप्त होने लगा किन्तु देखते-देखते हिन्द महासागर में शक्ति-प्रदर्शन से इस क्षेत्र के सभी देशों के लिए एक गम्भीर खतरा पैदा हो गया ।
संयुक्त राज्य अमरीका ने डियागो गार्शिया पर नौ-सैनिक अट्ठा बनाने के लिए करोड़ों डीलरों की राशि खर्च की । 1971 से 1978 के मध्य अमरीका ने अपने नौ-सैनिक जहाजों द्वारा हिन्द महासागर में 38 बार घुसपैठ की । 1978 के बाद से अमरीका के पांच गश्ती जहाजों ने हिन्द महासागर में स्थायी रूप से चक्कर लगाना प्रारम्भ कर दिया ।
28 अप्रैल, 1980 को विमान-वाहक जहाज ‘कांस्टलेशन’ तथा 6 सहायक युद्धक जहाजों के हिन्द महासागर में पहुंच जाने से इस क्षेत्र में अमरीकी नौ-सैनिक शक्ति रिकार्ड स्तर पर पहुंच गयी । एक सूचना के अनुसार अपने हितों की रक्षार्थ अमरीका ने हिन्द महासागर में 30 सैनिक अड्डे 10,000 लड़ाकू विमान, 80 युद्धपोत और 3 परमाणु पनडुब्बियों को तैनात किया ।
इस क्षेत्र में हस्तक्षेप के लिए अमरीकी रक्षा मत्रालय ने तथाकथित केन्द्रीय कमान का भी गठन किया जिसके अन्तर्गत फौजी उड़नदस्ते से सम्बद्ध सेनिक आते हैं । डियागो गार्शिया अड्डे में अमरीका ने आधुनिकतम परमाणु प्रक्षेपास भी पहुंचा दिये ।
हिन्द महासागर में अमरीकी सैन्य शक्ति को बढ़ोतरी के लक्ष्य इस प्रकार हैं:
a. तेल तथा अन्य कच्चे माल के स्रोतों पर नियन्त्रण प्राप्त करना ।
b. हिन्द महासागर क्षेत्र के देशों में राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन के विकास को अवरुद्ध करना ।
c. अरब तथा अफ्रीकी देशों की एकता को तोड़ना ।
d. महत्वपूर्ण वायुमार्गों और सागर मार्गों पर नियन्त्रण स्थापित करना ।
सोवियत संघ भी हिन्द महासागर में सक्रिय रहा । फरवरी 1980 में इस क्षेत्र में उसके जहाजों की संख्या 32 तक पहुंच गयी थी जो एक रिकार्ड है । सोवियत संघ ने अपना एक स्थायी अड़ा भी इस क्षेत्र में कायम कर लिया जो कि अणु शक्ति-सम्पन्न विध्वंसकों से लैस था तथा इसमें पनडुब्बी तथा लगभग 20 जहाज भी थे ।
री. यूनियन द्वीप पर फ्रांस का अधिकार है, इसलिए फ्रांस भी कभी-कभी इस क्षेत्र में घुसपैठ करता रहता है । हाल ही में चीन भी हिन्द महासागर में रुचि लेने लगा है । इस प्रकार इसे महाशक्तियों की सीनाजोरी ही कहा जायेगा कि वे तटवर्ती देशों की मांग की उपेक्षा करके हिन्द महासागर के शान्त जल को अशान्त बनाने पर तुली हुई हैं ।
महाशक्तियां हिन्द महासागर को अपनी शक्ति प्रदर्शन का अखाड़ा बना सकती हैं इस सम्भावना को ध्यान में रखते हुए ही भारत ने 1975 में हिन्द महासागर को ‘शान्त क्षेत्र’ (Peace Zone) घोषित किये जाने की मांग उठायी थी ।
कालान्तर में श्रीलंका, बांग्लादेश, मॉरीशस आदि देशों ने भी स्थिति की गम्भीरता को समझते हुए भारत की मांग का समर्थन किया । अगस्त, 1976 में श्रीलंका में हुए गुट-निरपेक्ष देशों के पांचवें सम्मेलन ने भी हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र बनाये जाने की मांग का समर्थन किया । मार्च 1983 में नयी दिल्ली में आयोजित गुट-निरपेक्ष शिखर सम्मेलन ने ऐसी ही मांग की ।
महाशक्तियों पर हिन्द महासागर के तटवर्ती देशों के आग्रह का कोई असर नहीं हुआ और अमरीका तथा सोवियत संघ दोनों ही अन्तर्राष्ट्रीय जल में अबाध प्रवेश के अपने अधिकार का दुरुपयोग करते हुए हिन्द महासागर में अपनी-अपनी शक्ति का विस्तार करने में लगे रहे ।
अमरीकी रक्षा विभाग पेंटागन की यह धारणा थी कि हिन्द महासागर में अपनी शक्ति बढ़ाकर वह एशिया आस्ट्रेलिया और यूजीलैण्ड में अपना प्रभाव बढ़ा सकता है और इसीलिए वह भारत श्रीलंका तथा अन्य तटवर्ती देशों की हिन्द महासागर की शान्ति क्षेत्र घोषित किये जाने की मांग को अनसुना करके इस क्षेत्र में अपनी शक्ति बढ़ाता जा रहा है ।
बड़े राष्ट्रों ने अपनी गतिविधियों के द्वारा शान्ति क्षेत्र के निर्माण की सम्भावनाओं को एकदम उलट दिया ही है; साथ ही वे तटीय देशों की इस मांग को भी टालते रहे हैं कि हिन्द महासागर में शान्ति स्थापना के लिए तटवर्ती तथा दूसरे सम्बद्ध राष्ट्रों का एक विश्व सम्मेलन बुलाया जाये ।
मार्च 1997 में भारत तथा तेरह अन्य देशों ने हिन्द महासागर के तटवर्ती देशों के बीच सहयोग बढ़ाने के उद्देश्य से इण्डियन ओशन रिम एसोसिएशन फॉर रीजनल को ऑपरेशन (हिमतक्षेस) के गठन की घोषणा की ।
अप्रैल, 1999 में हिमतक्षेस की मोपुल बैठक में पांच अन्य देशों-ओमान थाईलैण्ड संयुक्त अरब अमीरात सेशल्स एवं बांग्लादेश की सदस्यता के आवेदन स्वीकार कर लिए जाने से सदस्य राष्ट्रों की संख्या 14 से बढ्कर 19 हो गई है ।
मिस्र और जापान को ‘डायलाग पार्टनर’ के रूप में आमन्त्रित किया जाता है । हिमतक्षेस का उद्देश्य आर्थिक सहयोग बढ़ाना तथा क्षेत्रीय व्यापार वृद्धि के लिए सीमा करों में कटौती तथा आयात-निर्यात को बढ़ावा देना है ।
5. परमाणु शस्त्र प्रतिस्पर्धा:
दक्षिणी एशिया के दो पड़ोसी देशों-भारत और पाकिस्तान-में परमाणु शस्त्र प्रतिस्पर्धा प्रारम्भ हो गई है । भारत द्वारा किए गए पांच परमाणु परीक्षणों के जवाब में पाकिस्तान ने 28 मई, 1998 को चगाई क्षेत्र में पहला परमाणु विस्फोट किया । पाकिस्तान द्वारा गौरी तथा शाहीन प्रक्षेपास्त्रों का भी परीक्षण किया गया । गौरी की मारक क्षमता 1,000 किमी तथा शाहीन की 600 किमी तक बताई गई है ।
6. नेपाल में राजनीतिक संकट:
इन वर्षों में नेपाल गम्भीर राजनीतिक-आर्थिक संकटों से त्रस्त रहा । जहां एक ओर माओवादियों ने राजशाही विरोधी आन्दोलन चलाया वहीं दूसरी ओर सात प्रमुख विपक्षी दलों के गठबन्धन ने देश में लोकतन्त्र बहाली के लिए 6 अप्रैल, 2006 से राष्ट्रव्यापी हड़ताल प्रारम्भ की जिसके चलते पहले से जर्जर नेपाली अर्थव्यवस्था और बुरी तरह से चरमरा गई ।
लोकतन्त्र की राह पर चल पड़े नेपाल में तीन महत्वपूर्ण घटनाक्रम हुए पहला नई संसद ने राजा ज्ञानेन्द्र से करीब-करीब सारे अधिकार छीन लिए; दूसरा अब देश में संसद सर्वोच्च होगी और तीसरा माओवादियों ने अन्तरिम सरकार में शामिल होने का निर्णय किया अर्थात् एक दशक तक हिंसा से जूझ रहे नेपाल की फिजा बदल रही है पर उसके सामने चुनौतियां कम नहीं हैं ।
वर्ष 2015 में नया संविधान लागू करने के बाद नेपाल में सीमा से सटे क्षेत्रों में भौगोलिक आधार पर प्रान्तों के बंटवारे के विरुद्ध आन्दोलन छिड़ गया । मधेशी और थारू समुदाय के लोग नए संविधान का विरोध करने लगे । राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री पद पर कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चुने गए हैं ।
नेपाल का स्वर भारत विरोधी होता जा रहा है । नेपाल पेट्रोलियम पदार्थो के लिए अब तक भारत पर निर्भर था किन्तु अक्टूबर, 2015 से भारतीय सीमा पर अघोषित नाकाबन्दी से तेल संकट से चिन्तित नेपाल ने चीन से हाथ मिला लिया । पुनर्निर्माण के दौर से गुजर रहे नेपाल की हालत जर्जर है । नेपाल में 31 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने को मजबूर हैं ।
Essay # 9. दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन-सार्क (South Asian Association for Regional Co-Operation-SAARC):
7 व 8 दिसम्बर, 1985 को ढाका में दक्षिण एशिया के सात देशों के राष्ट्राध्यक्षों का सम्मेलन हुआ तथा ‘दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन’ (सार्क) की स्थापना हुई । क्षेत्रीय सहयोग संगठन के सदस्य देशों (भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका और मालदीव) के नेताओं ने इस अवसर पर जो भाषण दिये उनमें आपसी सहयोग बढ़ाने और तनाव समाप्त करने पर जोर दिया गया ।
उन्होंने यह भी कहा कि इस नये संगठन के जन्म से इन सात देशों के बीच सद्भावना भाईचारा और सहयोग का नया युग शुरू होगा । उन्होंने ‘क्षेत्रीय सहयोग संगठन’ के जन्म को ‘युगान्तरकारी घटना’, ‘नये युग का शुभारम्भ’, ‘सामूहिक सूझबूझ और राजनीतिक इच्छा शक्ति की अभिव्यक्ति’ तथा ‘एक जन आन्दोलन’ बताया ।
मालदीव को छोड़कर संघ के शेष सदस्य (भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान और श्रीलंका) भारतीय उपमहाद्वीप के हिस्से हैं । ये सभी देश इतिहास भूगोल धर्म और संस्कृति के द्वारा एक-दूसरे से जुड़े हैं । विभाजन के पहले भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश एक ही प्रशासन और अर्थव्यवस्था के अभिन्न अंग थे । लेकिन स्वतन्त्रता के बाद ये देश एक-दूसरे से दूर हो गये ।
सात देशों के बीच यद्यपि राजनीतिक एवं सुरक्षा के विवादास्पद नये-पुराने उलझाव हैं पर आर्थिक विकास एवं सहयोग की अमिट सम्भावनाएं हैं । दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन की स्थापना ऐसे समय में हुई जबकि इसके कुछ सदस्य देशों के आपसी सम्बन्ध सामान्य नहीं हैं ।
मसलन पड़ोसी देशों के साथ भारत के सम्बन्ध उतार-चढ़ाव के हैं । लेकिन राजनीतिक विग्रह के बावजूद आर्थिक व्यापारिक सामाजिक व सांस्कृतिक सहयोग से आगे बढ़ा जा सकता है । ढाका के शिखर नेता महत्वपूर्ण क्षेत्रीय समस्याओं पर विचार करने के लिए प्रतिवर्ष मिलने के लिए सहमत हो गये । शिखर बैठक की तैयारी करने के लिए विदेश मन्त्रियों की बैठक वर्ष में दो बार होगी ।
इससे अनेक क्षेत्रीय विवादों तथा तनावों को समाप्त करने में महत्वपूर्ण सहायता मिलेगी । एक महत्वपूर्ण निर्णय यह भी रहा कि विशेषज्ञों की एक अन्य समिति गठित की जाये जो इस क्षेत्र एवं विकासशील देशों को चिन्तित करने वाली आर्थिक समस्याओं पर विकसित देशों तथा ‘व्यापार एवं मूल्य नीति’ पर आम राय गाट जैसे बहुपक्षीय संगठनों के साथ विचार-विमर्श के तरीके सुझाये ।
नया संगठन द्विपक्षीय विग्रह एवं तनाव उत्पन्न करने वाले विषयों से दूर रहेगा और आर्थिक एवं विकास के मुद्दों को लेकर आगे बढ़ेगा । यही कारण है कि सम्मेलन में कम्पुचिया एवं अफगानिस्तान और श्रीलंका की तमिल समस्या पर विचार नहीं हुआ ।
सात देशों का क्षेत्रीय संगठन में आबद्ध होना जहां तक एक अंच्छी बात है वहीं यह कहना होगा कि ऐतिहासिक व भौगोलिक दृष्टि से बर्मा और अफगानिस्तान भी इस क्षेत्र के अविभाज्य अंग हैं । इनको समाहित किये बिना यह क्षेत्रीय एकात्मकता अधूरी ही रहेगी । यह आश्चर्य का ही विषय है कि इन दोनों देशों को इस क्षेत्रीय सहयोग में सहभागी होने के लिए आमन्त्रित क्यों नहीं किया गया ?
दिसम्बर 1985 से सितम्बर 2014 तक सार्क देशों के 18 शिखर सम्मेलन सम्पन्न हुए । सार्क का पहला शिखर सम्मेलन बांग्लादेश की राजधानी ढाका में दिसम्बर 1985 में तथा 18वां शिखर सम्मेलन नवम्बर, 2014 में काठमाण्डू (नेपाल) मालदीव के अतोल (अडू) में सम्पन्न हुआ ।
‘सार्क’ देश यदि आपसी हितों के आधार पर अपने अनुभव व तकनीक का आदान-प्रदान कर सकें और सदस्य देशों में उत्पादकता बढ़ाने के लिए साज-सामान व सेवा का लेन-देन होता रहे तो सामूहिक निर्भरता प्राप्त कर सकेंगे और महाशक्तियों के चंगुल से बच सकेंगे । काठमाण्डू में सार्क के स्थायी सचिवालय की स्थापना से लगता है कि आठों देश आपसी सहयोग से आर्थिक समृद्ध में योगदान करने को कृतसंकल्प हैं ।
‘सार्क’ का विकास धीरे-धीरे हुआ है । दक्षिण एशियाई देशों का क्षेत्रीय संगठन बनाने का विचार बांग्लादेश के भूतपूर्व राष्ट्रपति जिया उर रहमान ने दिया था । उन्होंने 1977 से 1980 के बीच भारत, पाकिस्तान नेपाल और श्रीलंका की यात्रा की थी । उसके बाद उन्होंने एक दस्तावेज तैयार करवाया जिसमें नवम्बर 1980 में आपसी सहयोग के लिए दस मुद्दे तय किये गये ।
बाद में इसमें से पर्यटन और संयुक्त उद्योग को निकाल दिया गया । ये मुद्दे आज भी ‘सार्क’ देशों के बीच सहयोग का आधार हैं । ‘सार्क’ के विदेश सचिवों की अप्रैल 1981 में बांग्लादेश के दस्तावेज पर विचार करने के लिए एक बैठक हुई थी । विदेश मंत्रियों की पहली बैठक नई दिल्ली में सन् 1983 में हुई । इसी बैठक में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग की पहली औपचारिक घोषणा हुई ।
विदेश मन्त्रियों की बैठक जुलाई 1984 में मालदीव में और 1985 में भूटान में हुई । उसके बाद ही दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन की स्थापना हुई और इसका संवैधानिक स्वरूप निश्चित किया गया । अफगानिस्तान को सार्क के आठवें सदस्य के रूप में भारत में सम्पन्न 14वें शिखर सम्मेलन (नई दिल्ली अप्रैल, 2007) में सम्मिलित किया गया ।
बिम्स्टेक (BIMSTEC):
बिम्स्टेक का पहला शिखर सम्मेलन 30-31 जुलाई, 2004 को थाईलैण्ड की राजधानी बैंकाक में आयोजित किया गया । बिम्सटेक सम्मेलन में अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद और अपराधों पर चिन्ता जताते हुए भारत और छ: अन्य एशियाई देशों ने आतंकवाद से निपटने के लिए एक संयुक्त कार्यदल के गठन का निर्णय लिया जिसे प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने एक महत्वपूर्ण कदम बताया ।
ADVERTISEMENTS:
बिम्सटेक का दूसरा शिखर सम्मेलन 2008 में नई दिल्ली तथा तीसरा शिखर सम्मेलन 4 मार्च, 2014 को म्यांमार की नई राजधानी नेपेडा में सम्पन्न हुआ । सम्मेलन में निर्णय लिया गया कि बिम्स्टेक का स्थायी सचिवालय बांग्लादेश की राजधानी ढाका में स्थापित किया जाएगा ।
इस संगठन की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह एशिया के दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों-दक्षिण एशिया तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ सहयोग बढ़ाने में सहायक है । बिम्सटेक समूह में शामिल 7 सदस्यों में से 5 सदस्य देश सार्क के भी सदस्य हैं । अब इस समूह का नाम है: बे ऑफ बंगाल इनिशिएटिव फॉर माल्टी सेक्टर टेक्निकल एण्ड इकोनोमिक कोऑपरेशन ‘बंगतक्षेस’ (BIMSTEC) ।
निष्कर्ष:
दक्षिण एशिया की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका का विश्लेषण तीन परिवर्त्यों के सन्दर्भ में ही किया जा सकता है: प्रथम, भारत-पाकिस्तान शक्ति प्रतिस्पर्द्धा; द्वितीय, दक्षिण एशिया की राजनीति में बड़ी शक्तियों का हस्तक्षेप (Involvement) तथा तृतीय, उपर्युक्त दोनों परिवर्तों को प्रभावित करने के लिए छोटी शक्तियों (राष्ट्रों) की प्रभावक भूमिका ।
वर्तमान में इस क्षेत्र में चीन की उपस्थिति क्षेत्रीय शक्ति-सन्तुलन की दृष्टि से महत्वपूर्ण तत्व है । एक जमाने में यहां चीन के विरुद्ध भारत का समर्थन करने की सोवियत संघ-अमरीकी सहयोग वृत्ति दिखायी देती थी तो दूसरी तरफ चीन के खिलाफ भारत-पाक मैत्री विकसित करने की सोवियत कूटनीतिक प्रयास भी उभरते हुए नजर आये थे । 1970 के बाद सोवियत हस्तक्षेप को रोकने के लिए चीनी-अमरीकी सांठ-गांठ नजर आती है और इसी धारणा के आधार पर वे पाकिस्तान को सुदृढ़ करना चाहते थे ।