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Here is an essay on ‘South-East Asia’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘South-East Asia’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on South-East Asia
Essay Contents:
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में दक्षिण-पूर्वी एशिया (South-East Asia in International Politics)
- दक्षिण-पूर्वी एशिया का महत्व (South-East Asia: Significance)
- दक्षिण-पूर्वी एशिया-अशान्त स्थल क्यों ? ( Reasons of Conflicts in South-East Asia)
- दक्षिण-पूर्वी एशिया: भौगोलिक रूप (South-East Asia: Geographical Setting)
- दक्षिण-पूर्वी एशिया में रूस-चीन तथा अमरीका प्रतिस्पर्द्धा (Super Powers and South-East Asia)
- दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों की प्रमुख समस्याएं (Major Problems of South-East Asia)
- दक्षिण-पूर्वी एशिया सन्धि संगठन: ‘सीटो’ (South-East Asian Treaty Organization- ‘SEATO’)
- दक्षिण-पूर्वी एशियाई राष्ट्र संगठन ‘आसियान’ (Association of South-East Asian Nations- ‘ASEAN’)
Essay # 1. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में दक्षिण-पूर्वी एशिया (South-East Asia in International Politics):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से दक्षिण-पूर्वी एशिया विश्व के सर्वाधिक विस्फोटक और महत्वपूर्ण स्थलों में से एक है । इस क्षेत्र के अन्तर्गत चीन के दक्षिण में तथा भारतीय उप-महाद्वीप के पूरब में स्थित देश अर्थात् म्यांमार (बर्मा), थाईलैण्ड, मलयेशिया, इण्डोनेशिया, कम्पूचिया, वियतनाम, फिलीपाइन्स, आदि सम्मिलित किये जाते हैं ।
वर्तमान समय में यह क्षेत्र विश्व राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है तथा पश्चिमी एशिया के समान ही विश्व शक्तियों के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है ।
इस क्षेत्र में द्वितीय विश्व-युद्ध के पश्चात् तीन आधारभूत परिवर्तन दृष्टिगत हुए हैं:
प्रथम:
यूरोपीय नियन्त्रण का क्रमश: समाप्त होना;
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द्वितीय:
यहां के देशों का स्वतन्त्र होना एवं
तृतीय:
चीन के प्रभाव की इस क्षेत्र में क्रमिक वृद्धि होना ।
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अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ‘दक्षिण-पूर्वी एशिया’ एक नया शब्द है जिसका प्रयोग द्वितीय विश्व-युद्ध से पहले नहीं होता था । इस शब्द के प्रचलन का तात्कालिक कारण अगस्त 1943 में क्यूबेक संम्मेलन के द्वारा एडमिरल माउण्टबैटन की अधीनता में ‘दक्षिण-पूर्वी एशिया कमाण्ड’ की स्थापना था ।
प्रारम्भ में यह शब्द भारत के पूरब और चीन के दक्षिण-पश्चिम में स्थित छ: देशों के लिए प्रयोग किया जाता था लेकिन द्वितीय महायुद्ध के उपरान्त नये समृध राष्ट्रों के उदय से इस संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई । आधुनिक युग में अन्तर्राष्ट्रीय महत्व के दस राष्ट्र- म्यांमार (बर्मा) बरूनी, इण्डोनेशिया, कम्पुचिया, लाओस, मलेशिया, फिलीपाइन, सिंगापुर, थाईलैण्ड, वियतनाम-इस प्रदेश में स्थित हैं ।
डॉ.बी.आर. चटर्जी के अनुसार- “दक्षिण-पूर्वी एशिया पूरब से पश्चिम तक फिलीपाइन, वियतनाम, लाओस, कम्बोडिया, थाईलैण्ड और म्यांमार तथा दक्षिण की ओर मलाया और सुमात्रा से लेकर यूगिनी तक इण्डोनेशियन द्वीपसमूह से मिलकर बना है ।”
कतिपय भूगोलवेत्ता भारत, पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका को भी दक्षिण-पूर्वी एशिया के अन्तर्गत शामिल करते हैं जबकि कुछ विद्वान इन देशों को ‘दक्षिण एशिया’ (South Asia) नामक पृथक् भौगोलिक प्रदेश मानते हैं ।
Essay # 2. दक्षिण-पूर्वी एशिया का महत्व (South-East Asia: Significance):
दक्षिण-पूर्वी एशिया का वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में कई कारणों से बड़ा महत्व है:
प्रथम:
इस प्रदेश की सामरिक (Strategic) और भौगोलिक महत्ता है । यह हिन्द-महासागर को प्रशान्त महासागर से मिलाने वाले समुद्री मार्ग पर स्थित है और एशिया व आस्ट्रेलिया के मध्य एक प्राकृतिक पुल का सा कार्य करता है ।
साम्यवादी चीन व संयुक्त राज्य अमरीका के मध्य संघर्ष का यह मुख्य केन्द्र है । यदि इस क्षेत्र पर चीन का प्रभुत्व स्थापित हो जाय तो फिर आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड में साम्यवाद की स्थापना का कार्य मुश्किल नहीं होगा । अत आस्ट्रेलिया इस प्रदेश की सुरक्षा में गहरी दिलचस्पी रखता है ।
द्वितीय:
आर्थिक दृष्टि से दक्षिण-पूर्वी एशिया बहुत समृद्ध है । चावल, टीन, रबड़ और पेट्रोल यहां प्रचुर मात्रा में पाया जाता है । म्यामार थाईलैण्ड और हिन्दचीन में अन्न का भण्डार है तथा इन्हें एशिया का ‘चावल का कटोरा’ (Rice Bowl) कहा जाता है । मलाया में इतना अधिक टिन और रबड़ है कि विश्व की आवश्यकता पूरी कर सकता है । इण्डोनेशिया, सारावाक और उतरी बूनेई में तेल पाया जाता है ।
तृतीय:
जनसंख्या की दृष्टि से यह क्षेत्र महत्वपूर्ण है । अमरीका से लगभग आधे भू-क्षेत्र में यहां 25 करोड़ लोग रहते हैं जिनमें 1.5 करोड़ चीनी हैं ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से इस क्षेत्र के विशिष्ट महत्व का कारण यहां प्रभुता पाने के लिए साम्यवादी चीन का प्रबल प्रयास तथा इसे रोकने के लिए पश्चिमी शक्तियों के प्रयत्न रहे हैं ।
Essay # 3. दक्षिण-पूर्वी एशिया-अशान्त स्थल क्यों ? ( Reasons of Conflicts in South-East Asia):
दक्षिण-पूर्वी एशिया इस समय विश्व राजनीति के प्रधान संकट के स्थल में गिना जाता है ।
इसके तीन बड़े कारण हैं:
प्रथम:
यहां विभिन्न प्रकार की जातियों का निवास है तथा इनके परस्पर विरोधी संघर्ष हैं । यह प्रदेश प्राचीन काल से विभिन्न जातियों के संगम और सम्मिश्रण का केन्द्र रहा है । मलाया की मूल जाति मलय है किन्तु यहा चीनियों की सख्या पर्याप्त है ।
फिलीपाइन्स में अत्यधिक सांस्कृतिक एकता होते हुए भी आठ भाषाएं बोली जाती हैं । थाईलैण्ड में 80 प्रतिशत थाई हैं किन्तु यहां के आर्थिक जीवन पर 17 प्रतिशत से कम चीनियों का नियन्त्रण है । म्यांमार में बर्मी 75 प्रतिशत हैं । यहा का आर्थिक जीवन भारतीयों और चीनियों के हाथों में है । अत: इन देशों में विभिन्न जातियों की सत्ता इन राज्यों की अशान्ति का प्रधान कारण है ।
द्वितीय:
इस क्षेत्र के अधिकांश राज्यों में लोकतन्त्रात्मक संस्थाओं की परम्पराओं का अभाव है । कुछ समय पहले तक ये प्रदेश पश्चिमी शक्तियों के हाथों में थे, उन्होंने जानबूझकर यहां उदार लोकतन्त्रीय संस्थाओं का विकास नहीं होने दिया है और इनका अपने स्वार्थ के लिए शोषण किया । लोकतंत्रीय परम्पराएं सुदृढ़ न होने के कारण यहां सैनिक अधिनायकवाद की ओर प्रवृत्ति बढ़ रही है और साम्यवादी भी सक्रिय हैं ।
तीसरा:
आन्तरिक अव्यवस्था और अस्थिरता है । साम्यवादी इस प्रयत्न में रहते हैं कि शासन से असन्तुष्ट तत्वों को विद्रोह के लिए भड़कायें और विद्रोहियों को सहायता दी जाय । फिलीपाइन्स में हुक, म्यांमार में केरन, लाओस में पाथेटलाओ, दक्षिण वियतनाम में वियतकांग इसी प्रकार के तत्व रहे हैं और इनसे निरन्तर अशान्ति और विद्रोह बने रहते हैं ।
Essay # 4. दक्षिण-पूर्वी एशिया: भौगोलिक रूप (South-East Asia: Geographical Setting):
दक्षिण-पूर्वी एशिया का क्षेत्र अनेक प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक विविधता लिये हुए है, किन्तु साथ ही यहां अनेक एकता के तत्व भी विद्यमान हैं, जो यहां स्थित लोगों एवं देशों में एकता प्रदान करते हैं । वास्तव में, इस क्षेत्र का राजनीतिक स्वरूप एकता एवं विविधता की प्रतिरोधक शक्तियों की उपज है । दक्षिण-पूर्वी एशिया में विविधता के लिए अनेक प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक तत्व उत्तरदायी हैं ।
दक्षिण-पूर्वी एशिया का क्षेत्र विभिन्न रूप में है अर्थात् इसके देश दूर-दूर स्थित है । केवल देश ही नहीं अपितु एक देश के भाग भी दूर-दूर स्थित होने के कारण एकता में बाधा पड़ती है । धरातलीय असमानताएं, मिट्टी के उपजाऊपन में भिन्नता, आदि अन्य प्राकृतिक कारण हैं ।
इसी प्रकार यहां के देशों के आर्थिक स्तर में भिन्नता है । जनसंख्या के वितरण की भिन्नता जाति धर्म भाषा एवं राजनीतिक स्वरूप ने इस क्षेत्र में विविधता को जन्म दिया है । उपर्युक्त विविधता के कारकों के होते हुए भी दक्षिण-पूर्वी एशिया में एकता का सूत्र विद्यमान है । यह एकता आधुनिकता की उपज न होकर प्राचीन है । इसी कारण इसकी जड़ें इतनी गहरी चली गयी हैं कि सहज ही में समाप्त नहीं होतीं ।
इस क्षेत्र की एकता में सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्राकृतिक तत्व जलवायु है यद्यपि इसमें भी क्षेत्रीय भिन्नताएं दृष्टिगत होती हैं । इस क्षेत्र की एकता के लिए उत्तरदायी अन्य तत्वों में प्राचीन संस्कृति कृषि जीवन का आधार विकासशील अर्थ-व्यवस्था राजनीतिक चेतना आदि हैं ।
जनसंख्या के विविध स्वरूपों ने दक्षिण-पूर्वी एशिया की राजनीति को विभिन्न प्रकार से प्रभावित किया है । यद्यपि यहां का सम्पूर्ण क्षेत्र उष्ण-कटिबन्धीय जलवायु रखता है, किन्तु फिर भी यहां अधिक जनसंख्या निवास करती है । यहां कुछ क्षेत्र अपेक्षाकृत अधिक जनसंख्या रखते हैं जबकि अनेक क्षेत्रों में मध्यम एवं अल्प जनसंख्या निवास करती है ।
दक्षिण-पूर्वी एशिया में विश्व के सर्वाधिक सघन जनसंख्या को प्रश्रय देने वाले कुछ कृषि क्षेत्र है । इण्डोनेशिया में जावा तथा मदुरा में प्रतिवर्ग किमी. जनसंख्या घनत्व 1,000 व्यक्ति से भी अधिक है तथा वियतनाम में टानकिन डेल्टा क्षेत्र में 12,000 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी. तक जनसंख्या घनत्व हो गया है ।
दक्षिण-पूर्वी एशिया की जनसंख्या का जातीय प्रारूप अत्यधिक जटिल है तथा इसने यहां की राजनीति को अत्यधिक प्रभावित किया है । यहां की जनसंख्या में प्रमुखत: मलाई, थाई, बर्मी, अनामीज, लाओरियन्स तथा कम्पूचियन हैं ।
इसके अतिरिक्त अनेक छोटे-छोटे समूह भी प्रत्येक देश में अपनी पृथकता बनाये हुए हैं । इसके अतिरिक्त विदेशी भी इस क्षेत्र में आकर बस गये है । विदेशी जनसंख्या में चीनी भारतीय एवं यूरोपीय प्रमुख हैं । इनमें सबसे अधिक संख्या चीनियों की है जिनका अनुमान लगभग एक करोड़ है । इस क्षेत्र में चीनी जनसंख्या की उपस्थिति के कारण वर्तमान समय में अनेक राजनीतिक जटिलताओं का जन्म हुआ तथा वे चीन के प्रभाव विस्तार की गतिविधियों का प्रमुख साधन हैं ।
दक्षिण-पूर्वी एशिया में स्वतन्त्रता की लहर:
द.-पू. एशिया का वर्तमान राजनीतिक स्वरूप ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है । द.-पू. एशिया में भारत चीन आदि से प्राचीन काल से ही प्राकृतिक अवरोध होते हुए भी लोग यहां आकर बसते रहे । 13वीं शताब्दी में समुद्र के मार्ग से मुस्लिम व्यापारी इस क्षेत्र में आये तथा इस्लाम का प्रचार किया ।
यूरोपीय साम्राज्यवादियों में सर्वप्रथम 13वीं शताब्दी में पुर्तगीज आये । उनके एक शताब्दी बाद डच आये जिन्होंने इण्डोनेशिया के अनेक द्वीपों पर अधिकार किया तथा 17वीं शताब्दी तक हालैण्ड इस क्षेत्र में प्रमुख शक्ति बन गया । इसके पश्चात् ब्रिटिश तथा फ्रेंच आये ।
इनका प्रारम्भिक उद्देश्य व्यापार एवं व्यापारिक मार्गों पर अधिकार करना था । इसी उद्देश्य से 1819 में सिंगापुर पर तथा उसके पश्चात् म्यांमार एवं मलाया पर अधिकार कर लिया तथा फ्रांस ने दक्षिणी इण्डोचीन पर अधिकार किया ।
इसके पश्चात् ये दोनों शक्तियां क्रमश: विस्तार करती रहीं । केवल थाईलैण्ड को एक ‘बफर राज्य’ (Buffer State) के रूप में रहने दिया गया । स्पष्ट है कि सम्पूर्ण द.-पू. एशिया केवल थाईलैण्ड को छोड़कर विदेशी शासन के अन्तर्गत आ गया ।
यूरोपीय शक्तियों ने इस क्षेत्र को केवल राजनीतिक भागों में ही विभक्त नहीं किया अपितु अनेक समुदायों को राष्ट्रीय स्वरूप भी प्रदान किया; जैसे म्यांमार, इंडोचीन, मलाया, इण्डोनेशिया । साम्राज्यवादी शक्तियों ने इस क्षेत्र में प्रशासन की सुविधा के लिए राजनीतिक खण्ड किये, जिसके कारण एक ही प्रकार की जाति के लोगों का विभाजन हो गया, जैसे फ्रेंच लोगों ने इण्डोचीन को क्म्पूचिया, लाओस, टानकिन तथा अनाम में विभक्त कर दिया ।
इसी प्रकार डच लोगों ने इण्डोनेशिया तथा ब्रिटेन ने मलाया में नौ छोटे-छोटे राज्य शामिल किये । विदेशी शासन ने इस क्षेत्र के विकास को एक नवीन दिशा प्रदान की यद्यपि उसका उद्देश्य शोषण था । साम्राज्यवादी शासन के विरुद्ध दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों में स्वतन्त्रता आन्दोलन का सूत्रपात प्रथम विश्व-युद्ध के पश्चात् हुआ । द्वितीय विश्व-युद्ध का इस क्षेत्र पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा ।
सितम्बर 1941 में जापान ने इस क्षेत्र पर अधिकार जमाना प्रारम्भ किया तथा 1942 तक जापान ने मलाया इण्डोनेशिया म्यांमार तक अधिकार कर लिया । जापान के तीन वर्ष के शासन में इस क्षेत्र के विकास हेतु ‘ग्रेटर ईस्ट एशिया की प्रास्पेरिटी प्लान’ बनायी गयी ।
उन्होंने इण्डोचीन के पूर्ववर्ती राज्यों को वियतनाम के रूप में संगठित किया तथा सम्पूर्ण इण्डोचीन को लाओस तथा वियतनाम तीन राजनीतिक इकाइयों में बदल दिया । जापान के इस क्षेत्र से हटने के साथ ही यहां के देश स्वतन्त्र होने लगे ।
सर्वप्रथम संयुक्त राज्य अमरीका ने 4 जुलाई, 1946 को फिलीपाइन्स को स्वतन्त्रता प्रदान कर दी । इण्डोनेशिया में स्वतन्त्रता आन्दोलन का सूत्रपात अगस्त 1945 में हुआ । जनवरी, 1949 में डच सरकार के अधीन स्थानीय सरकार बनायी गयी तथा जनवरी, 1950 में इण्डोनेशिया पूर्ण स्वतन्त्र हो गया । 1954 में फ्रांस को वियतनाम से बाध्य होकर हटना पड़ा और जेनेवा समझौते के अनुसार जुलाई, 1954 में वियतनाम 17० उत्तरी अक्षांश के सहारे उत्तरी और दक्षिणी भागों में विभक्त कर दिया गया ।
मलाया संघ 1957 में स्वतन्त्र हुआ तथा राष्ट्रमण्डल का सदस्य बन गया । 1963 में मलाया सिंगापुर तथा ब्रिटिश बोर्नियो का संयुक्त संघ मलेशिया नाम से बनाया गया । 1965 में एक समझौते के द्वारा सिंगापुर एक स्वतन्त्र राज्य बन गया । जुलाई, 1976 में वियतनाम पुन: संयुक्त हो गया । कम्पूचिया आज भी समस्याग्रस्त क्षेत्र बना हुआ है ।
Essay # 5. दक्षिण-पूर्वी एशिया में रूस-चीन तथा अमरीका प्रतिस्पर्द्धा (Super Powers and South-East Asia):
दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों में अमरीका की प्रमुख दिलचस्पी हिन्द-चीन के देशों, विशेषकर कम्बोडिया, लाओस और वियतनाम में रही है । अक्टूबर, 1949 में चीन में साम्यवादी शासन के अभ्युदय से चिन्तित होकर अमरीका ने द.-पू. एशिया में ‘साम्यवादी अवरोध’ की नीति अपनायी ।
1952 का ‘डोमिनो सिद्धान्त’ (The Domino Theory) तथा 1954 का सीटो (S.E.T.O.) संगठन इसी नीति के परिणाम थे । डोमिनो सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित था कि ‘यदि द.-पू. एशिया का कोई राष्ट्र साम्यवादियों के हाथों में आ जाता है तो इसका दूसरे राष्ट्रों पर ‘डोमिनो’ प्रभाव पड़ेगा और वे एक-एक करके साम्यवाद के शिकार हो जायेंगे ।’
डोमिनो सिद्धान्त ने ही 1954 के सीटी संगठन के निर्माण को प्रेरित किया । अमरीका ने वियतनाम में हस्तक्षेप किया अमरीका से प्रोत्साहन पाकर कम्बोडिया में लोननोल (1970) ने विद्रोह कर दिया । 1975 के बाद वियतनाम कम्बोडिया एवं लाओस के शासन की बागडोर साम्यवादी हाथों में पड़ने के बाद अमरीका की प्रतिष्ठा दक्षिण-पूर्व एशिया से घटने लगी ।
एशिया में अमरीका द्वारा घोषित दायित्वों को निभाने की क्षमता के बारे में केवल जापान कोरिया और ताइवान ही चिन्तित नहीं थे बल्कि थाईदेश, सिंगापुर, मलेशिया, इण्डोनेशिया एवं फिलीपाइन्स द्वीप समूह भी चौकन्ने हुए । पांचवें दशक तक दक्षिण-पूर्वी एशिया में अमरीका तथा जापान के प्रभाव से टक्कर लेने वाली कोई शक्ति नहीं थी ।
छठे दशक में सोवियत संघ तथा चीन ने इस क्षेत्र में बागी आन्दोलनों को भारी मदद देना शुरू किया जिसका प्रभाव सातवें दशक में पड़ा । अमरीका द्वारा दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के लिए गढ़ी गयी ‘डोमिनो थ्योरी’ उसके स्वय द्वारा अपार सैनिक आर्थिक मदद के बावजूद रक्षित न हो सकी ।
वर्तमान में साम्यवादी वियतनाम कम्बोडिया एवं लाओस से द.-पू. एशिया के सभी गैर-साम्यवादी देश आतंकित और भयभीत हैं कि कहीं उनके यहां भी साम्यवादी ताकतें गड़बड़ी करने का सक्रिय प्रयास न करें । अमरीका के इस क्षेत्र में जो सैनिक अड्डे थे उनमें से अब वह धीरे-धीरे अपनी फौज कम कर रहा है । थाईदेश ने भी अमरीका से अपनी सैनिक उपस्थिति हटा लेने की मांग कुछ समय से की है किन्तु साम्यवादी चीन नहीं चाहता कि अमरीका अपने सैनिक अड्डे दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्र से पूरी तरह हटाये, क्योंकि उसे सोवियत संघ द्वारा उसकी जगह ग्रहण कर लिये जाने का खतरा था ।
असल में दक्षिण-पूर्व एशिया में अभी भी अमरीका के आर्थिक एवं राजनीतिक हित महत्वपूर्ण हैं । नौ देशों के क्षेत्रीय संगठन आसियान’ (इण्डोनेशिया मलयेशिया फिलीपाइन्स, सिंगापुर एवं थाईलैण्ड) में केवल थाईलैण्ड को छोड्कर शेष सभी देशों में अमरीका की असीमित पूंजी लगी हुई है ।
इस क्षेत्र की अपार प्राकृतिक सम्पदा उसके आर्थिक हितों का आकर्षण बनी हुई है । इससे लगता है कि अमरीका की सैनिक उपस्थिति का पूरी तरह हटना बहुत दूर की बात है । अमरीका के सैनिक अड्डों, का जाल इस समय जापान के समुद्र तटवर्ती क्षेत्रों से लेकर दक्षिण अफ्रीका में विशाल क्षेत्र तक फैला है । इसमें डेढ लाख से अधिक अमरीकी सैनिक व अधिकारी तैनात हैं । अमरीका के सातवें जहाजी बेड़े पर ‘टोमहॉक’ क्रूज प्रक्षेपास्त्रों की तैनाती की गयी है ।
अमरीका की इस सैन्य योजना में जपान वद कोरिया की प्रमुख सहभागिता है । जापान में योकोसुका व सेसीबी में अमरीकी नौ सेना के विशाल अट्टे हैं । जापान के होंशू द्वीप के उत्तर में स्थित मिसावा अड्डे पर एफ-16 बम वर्षक रखे गये हैं । द.कोरिया में भी पेंटागन के नाभिकीय अस्त्रों की 600 से अधिक यूनिटें पहले से मौजूद हैं ।
अमरीकी स्रोतों के अनुसार ही उसके सातवें जहाजी बेड़े पर मध्यम मार वाले परमाणु शींर्षों सहित 15,000 प्रक्षेपास हैं । यह जहाजी बेड़ा जापान से फिलिपीन्स और दक्षिण में काफी दूर तक गश्त करता है । यह भी सर्वविदित है कि हिन्द महासागर में डियागो गार्शिया को बड़े अड्डे के रूप में विकसित किया जा चुका है । फारस की खाड़ी के आस-पास उसके जहाजों का जमाव है । इस तरह समूचा दक्षिण और द.-पू. एशिया आज अमरीकी शस्त्रों की घेराबन्दी में आ गया है ।
दक्षिण-पूर्वी एशिया में संयुक्त राज्य अमरीका की ‘विशेष दिलचस्पी’ जरा भी कम नहीं हो रही है, बल्कि वह बनी हुई है क्योंकि उसे पेंटागन की नाभिकीय राजनीति मे महत्वपूर्ण भूमिका दी जाती है । प्रशान्त एवं हिन्द महासागरों के इस संगम क्षेत्र में अमरीका अपनी फौजी उपस्थिति बरकरार रखने पर आमादा है, वह उसे ‘अपनी सुरक्षा का महत्वपूर्ण क्षेत्र’, अमरीकी पूंजीनिवेशों का क्षेत्र कच्चे माल तथा सस्ती श्रम शक्ति का स्रोत बनाना चाहता है ।
वियतनाम युद्ध की समाप्ति के बाद दक्षिण-पूर्वी एशिया में सोवियत संघ और चीन द्वारा अपनी प्रभाव-वृद्धि के लिए प्रतिस्पर्द्धा शुरू हो गयी । अमरीका द्वारा द.-पू. एशिया से अपनी सेनाओं को वापिस बुला लेने से इस क्षेत्र में जो शून्यता उत्पन्न हुई उसको मास्को और पेकिंग भरने का प्रयत्न करने लगे ।
दोनों देशों ने वियतनाम को अपना संघर्ष सफल बनाने में सैनिक सहायता प्रदान की । चीन की यह सहायता हल्के हथियारों के रूप में थी और सोवियत संघ ने उसे तोपखाने प्रक्षेपास्त्र तथा भारी हथियारों की मदद की । मॉस्को को यह आशंका थी कि चीन कम्बोडिया लाओस और वियतनाम में भी अपना प्रभाव बढ़ाने का प्रयल कर रहा है । सोवियत संघ इस बात का प्रयत्न करने लगा कि उसे वियतनाम में महत्वपूर्ण अड्डे प्राप्त हों ।
चीन वियतनाम के बिल्कुल निकट है । पड़ोसी होने के कारण पिछले दो हजार वर्ष में वियतनाम के साथ उसके सैनिक सीमा-संघर्ष होते रहे हैं । वियतनाम इस बात को अच्छी तरह जानता है कि उसके आस-पास के टापुओं पर चीन की गिद्ध-दृष्टि लगी हुई है । वह उसके एक टापू पैरासिल (Paracel) पर अधिकार कर चुका है, अत: वियतनाम में चीन के प्रति काफी अविश्वास की भावना है । यह स्थिति सोवियत संघ के लिए लाभदायक थी किन्तु सोवियत संघ इसका लाभ अधिक न उठा सके इसलिए चीन दक्षिण-पूर्वी एशिया से अमरीकी सेनाओं को पूरी तरह नहीं हटने देना चाहता था ।
वियतनाम और चीन के सम्बन्ध उत्तरोत्तर बिगड़ने लगे । दक्षिण-पूर्वी एशिया में वियतनाम एक स्वाधीन देश की तरह आचरण करे इसको चीन के शासक सहन नहीं कर पाये । वियतनाम को दी जाने वाली चीनी सहायता में कटौती चीनी विशेषज्ञों की वियतनाम से वापसी वियतनाम स्थित चीनी राजदूत का स्वदेश लौटना और अन्त में वियतनाम को पाठ सिखाने के लिए बर्बरतापूर्ण चीनी आक्रमण चीनी विस्तारवादी दबावपूर्ण नीति को स्पष्ट करते हैं ।
वियतनामियों के मन आज चीन के प्रति बहुत ही धृणा व शत्रुता के भाव से आपूरित है । उनका यह मानना है कि सन् 1972 में जब निक्सन ने चीन की यात्रा की तभी से चीन वियतनाम के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार कर रहा है । अमरीकी सहायकों के साथ मिलकर चीन वियतनाम की आर्थिक सैनिक व राजनीतिक नाकेबन्दी करना चाहता है ।
30 वर्षों से युद्धरत राष्ट्र की मजदूरियों को राजनीतिक रूप से भुनाने का प्रयत्न कर रहा है । वह चाहता है कि वियतनाम राजनीतिक क्षेत्र में अपनी स्वतन्त्र दिशा को छोड़कर उसकी राजनीति का उपांग बन जाये । जब भी वियतनाम थोड़ी राहत की सांस लेने लगता है चीन उसको कुरेदना शुरू कर देता है ।
Essay # 6. दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों की प्रमुख समस्याएं (Major Problems of South-East Asia):
आज सम्पूर्ण विश्व की निगाहें द.-पू. एशिया पर स्थित हैं क्योंकि विगत कुछ वर्षों में यह प्रदेश अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों का एक अत्यन्त ज्वलनशील केन्द्र बन गया है ।
इस प्रदेश की प्रमुख समस्याएं निम्न प्रकार हैं:
1. चीनी साम्यवाद का खतरा:
यहां के सभी देशों में चीनियों की बहुत बड़ी संख्या निवास करती है । चीन इसके माध्यम से सभी देशों में अपना मनचाहा साम्यवादी शासन स्थापित करना चाहता है । सितम्बर, 1965 में इण्डोनेशिया में उसने ऐसा शासन स्थापित करने का प्रयत्न किया किन्तु उसे सफलता नहीं मिली । 1976 से चीन कम्पूचिया के मामलों में सक्रिय रुचि ले रहा है और 1979 में उसने वियतनाम पर सशस्त्र आक्रमण कर दिया था ।
2. शक्ति-शून्यता:
दूसरी समस्या ब्रिटेन द्वारा द.-पू. एशिया से अपनी सैनिक छावनियां और अड्डे हटाने की घोषणा है । उसके अड्डे फारस की खाड़ी में, सिंगापुर में तथा उसके आस-पास के प्रदेशों में हैं । उसके जंगी जहाज हिन्द महासागर का चक्कर काटते रहते हैं । इससे इस प्रदेश में शान्ति और स्थिरता बनी हुई है किन्तु ब्रिटिश सेनाओं द्वारा इस प्रदेश को खाली करने पर बड़ी भयानक स्थिति उत्पन्न हो सकती है ।
यहां मलयेशिया, थाईलैण्ड, सिंगापुर जैसे छोटे राष्ट्र हैं । ये अपनी रक्षा के लिए आधुनिक साधन जुटाने में असमर्थ हैं । इस क्षेत्र में इनकी रक्षा कौन करेगा ? ब्रिटेन के हट जाने से जो शक्ति-शून्यता की स्थिति उत्पन्न हो जायगी उसकी पूर्ति कौन करेगा ?
अमरीका वियतनाम से काफी बदनाम होकर निकला है तथा सीटों (SEATO) का संगठन फ्रांस एवं पाकिस्तान के आन्तरिक विरोध के कारण निर्जीव हो चुका है । चीन अवश्य ब्रिटेन का स्थान लेने को उत्सुक है, किन्तु उसकी विस्तारवादी प्रवृत्ति से द.-पू. एशिया के राष्ट्र सशंकित एवं चिन्तित हैं ।
इस भयावह स्थिति का प्रतिकार करने के लिए दो सुझाव दिये जाते हैं:
प्रथम:
द.-पू. एशिया को ‘तटस्थ क्षेत्र’ (Neutral Zone) बना दिया जाये और चीन सहित सभी देश इसकी तटस्थता को बनाये रखने की गारण्टी दें ।
दूसरा:
आर्थिक सहयोग को बढ़ावा दिया जाये । यहां के सभी राष्ट्र एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हुए अपना आर्थिक संगठन इतना सुदृढ़ बनायें कि कोई भी आक्रमणकारी यहां किसी भी देश को हानि नहीं पहुंचा सके ।
3. सीमा विवाद:
इस क्षेत्र के कुछ देशों के बीच ऐसे विवाद उत्पन्न हो सकते हैं जो कभी भी अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के भंग होने के कारण बन सकते हैं । चीन-वियतनाम सीमा विवाद इण्डोनेशिया-मलेशिया विवाद ऐसे ही विवाद हैं ।
4. आर्थिक संकट:
विगत दशक में दक्षिण-पूर्व एशिया के देश भयंकर आर्थिक संकट में फंस गए । विदेशी निवेश के बल पर बने ‘टाइगर’ अचानक बिल्लियां बन गए । हालत यह बन चली कि इण्डोनेशिया के 239 बैंकों में से 70 की हालत नाजुक बन गई और 15 बैंकों को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव में बन्द करना पड़ा ।
लगभग यही स्थिति दक्षिणी कोरिया की हुई । दक्षिण-पूर्व एशिया के देश अपनी मुद्रा में निरन्तर आ रही गिरावट को रोक पाने में असमर्थ रहे । जापान का सुदृढ़ येन निरन्तर गिरता रहा । जापान ने दक्षिण-पूर्व के देशों में भारी निवेश किया था । वे सभी देश चाहे मलेशिया हो, इण्डोनेशिया हो, सिंगापुर हो, फिलिस्तीन हो अथवा थाईलैण्ड हो सभी की अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी ।
जिस गति से इन देशों में विदेशी निवेश हुआ उससे ये देश ऋणभार से दब गए । जब ऋण अदायगी का समय आया तब इनकी अर्थव्यवस्था का पर्दाफाश हो गया और सभी देशों को बाध्य होकर अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की शरण में जाना पड़ा ।
आसियान देशों के मनीला सम्मेलन में प्रस्तुत किए प्रतिवेदन से इस बात का आभास मिलता है कि दक्षिण-पूर्व एशिया के देश विगत वर्षों के आर्थिक संकट से धीरे-धीरे उबर रहे हैं । इस क्षेत्र के देशों की आर्थिक वृद्धि दर में सुधार के संकेत दीख रहे हैं । यह अनुमान लगाया जा रहा है कि सिंगापुर, मलेशिया, इण्डोनेशिया व थाईलैण्ड में लगभग 2.0 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि दर रहेगी ।
1998 में यहां की आर्थिक वृद्धि दर 7 प्रतिशत के लगभग थी । आसियान देशों में ब्याज दरों में कमी आई है तथा मुद्रास्फीति दर में भी गिरावट आई है । इन देशों की मुद्रा में भी स्थिरता आई है । घरेलू खपत में वृद्धि हुई है जो कि अर्थव्यवस्था में सुधार का एक संकेत है ।
इन देशों में विदेशी निवेश में भी वृद्धि के संकेत दिखायी देते हैं । इस बात के संकेत मिलते हैं कि आसियान देशों सहित इस क्षेत्र के अन्य देशों में वर्ष के अन्त तक 70 अरब डॉलर का विदेशी निवेश होगा । पिछले वर्षों की तुलना में इन देशों के निर्यात में वृद्धि हुई है ।
वस्तुत: यह अनुमान लगाया जा रहा है कि निर्यात में वृद्धि के कारण ही ये देश आर्थिक पुनर्भरण की स्थिति में दिखायी देते हैं । इसके बावजूद भी यह माना गया है कि, आर्थिक स्थिति अभी बहुत अधिक उत्साह जनक नहीं दिखायी देती क्योंकि बैंक व कॉरपोरेट सेक्टर की पुनर्संरचना धीमी गति से हो रही है विनियोजन कम है तथा पूंजी का विस्तार व वृद्धि नहीं हो पायी है ।
Essay # 7. दक्षिण-पूर्वी एशिया सन्धि संगठन: ‘सीटो’ (South-East Asian Treaty Organization- ‘SEATO’):
द.-पू. एशिया में साम्यवादी चीन के विस्तार को रोकने के लिए 6 से 8 सितम्बर, 1954 तक फिलीपाइन्स द्वीपसमूह के वाग्यो नामक स्थान पर एक सम्मेलन हुआ जिसमें इस क्षेत्र के राष्ट्र म्यांमार, भारत, श्रीलंका, इण्डोनेशिया, पाकिस्तान आदि को आमन्त्रित किया गया था परन्तु पाकिस्तान के अतिरिक्त किसी भी देश ने इसमें भाग नहीं लिया ।
8 सितम्बर, 1954 में ब्रिटेन, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, अमरीका पाकिस्तान, फिलीपाइन, न्यूजीलैण्ड और थाईलैण्ड के प्रतिनिधियों ने द.-पू. एशिया की सामूहिक सुरक्षा और आर्थिक साधनों के विकास के उद्देश्य से एक सन्धि-पत्र पर हस्ताक्षर किये जिसे ‘दक्षिण-पूर्वी एशिया सन्धि संगठन’ (SEATO) की संज्ञा दी गयी ।
इस सन्धि के अनुच्छेद 4 में कहा गया है कि किसी भी सदस्य राष्ट्र के विरुद्ध सशत्र आक्रमण की स्थिति में अथवा शान्ति भंग होने की आशंका पर सभी सदस्य राज्य अपनी वैधानिक प्रक्रियाओं के अनुसार सामूहिक कार्यवाही करेंगे ।
इस सन्धि पर हस्ताक्षर करते समय संयुक्त राज्य अमरीका ने अपनी स्पष्ट व्याख्या दी कि अनुच्छेद 4 के अन्तर्गत ‘आक्रमण’ का तात्पर्य ‘साम्यवादी आक्रमण’ से है अर्थात् केवल साम्यवादी आक्रमण के समय ही अमरीका सहायता देगा अन्यथा वह आपसी विवाद में हस्तक्षेप नहीं करेगा ।
इस सन्धि संगठन का मुख्य कार्यालय बैंकाक में है । इसकी एक ‘परिषद’ है जिसमें प्रत्येक सदस्य राष्ट्रों का एक-एक प्रतिनिधि होता है । परिषद की बैठक वर्ष में एक बार होती है । फ्रांस 1967 में इसकी सैनिक गतिविधियों से अलग हो गया तथा 1974 से उसने अपना अंशदान देना भी बन्द कर दिया ।
जवाहरलाल नेहरू ने इसकी आलोचना करते हुए ‘इसे एक प्रकार का मुनरो सिद्धान्त बताया जिसे द.-पू. एशिया के देशों पर जबरदस्ती थोप दिया गया है ।’ वी.के. कृष्णमेनन के शब्दों में ‘यह सुरक्षा का क्षेत्रीय संगठन नहीं है अपितु ऐसे विदेशी लोगों का संगठन है जिन्हें इस क्षेत्र में अपने न्यस्त स्वार्थों की रक्षा करनी है ।’
वस्तुत: ‘सीटो’ को क्षेत्रीय संगठन कहना उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि इसमें द.-पू. एशिया के तीन राज्य शामिल हैं लेकिन इसमें पश्चिम के पांच राष्ट्र हैं । यथार्थ में ‘सीटो’ नवीन रूप में उपनिवेशवाद ही है । संयुक्त राज्य अमरीका ने पिछले वर्षों में दक्षिण वियतनाम, कम्बोडिया और लाओस में जिस प्रकार से हस्तक्षेप किया और कठपुतली सरकारों का निर्माण किया उसके आधार पर इसे ‘संरक्षण पद्धति का नग्न रूप’ कहा जा सकता है ।
व्यवहार में ‘सीटो’ कभी भी प्रभावशाली संगठन नहीं रहा है । इस सन्धि के बावजूद पाकिस्तान और फ्रांस ने मई 1965 में अमरीका के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया कि सीटो देश वियतनाम युद्ध में सक्रिय सहायता दें ।
Essay # 8. दक्षिण-पूर्वी एशियाई राष्ट्र संगठन ‘आसियान’ (Association of South-East Asian Nations- ‘ASEAN’):
द.-पू. एशिया के देशों की सुरक्षा कैसे की जाये ? आस्ट्रेलिया के विदेश मन्त्री ने सुझाव दिया था कि ‘इसकी रक्षा करना हमारी जिम्मेदारी है, दूसरी शक्तियां हमारा भार क्यों उठायें ? सबसे सुरक्षित और विश्वसनीय उपाय तो अपनी शक्ति बढ़ाना तथा एशियाई देशों का संगठन सुदृढ़ बनाना है ।’
इस सन्दर्भ में 1967 में इण्डोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैण्ड तथा फिलीपाइन्स के द्वारा ‘दक्षिण-पूर्वी एशियाई राज्य संगठन’ (ASEAN) का निर्माण किया गया । 1984 में ब्रूनेई, 1995 में वियतनाम और जुलाई 1997 में लाओस एवं म्यां भी इसके सदस्य बन गए ।
1999 में कम्बोडिया को पूर्ण सदस्यता प्रदान करने से आसियान की सदस्य संख्या 10 हो गई । इस संगठन का मुख्यालय इण्डोनेशिया को राजधानी जकार्ता में है । प्रत्येक देश को तीन वर्ष के लिए महासचिव का पद वर्णक्रमानुसार दिया जाता है । राष्ट्रीय स्तर पर प्रत्येक देश की राजधानी में अपना एक कार्यालय है ।
इसका उद्देश्य इस क्षेत्र में एक साझा बाजार तैयार करना और सदस्य देशों के बीच आर्थिक सहयोग को बढ़ाना है । 27 जनवरी, 1993 को आसियान की चौथी शिखर बैठक (सिंगापुर) में दक्षिण-पूर्व एशिया को शान्ति क्षेत्र बनाने पर जोर दिया गया ।
यह भी तय किया गया कि दक्षिण-पूर्व एशिया में 15 वर्षों के अन्दर एक मुक्त व्यापार क्षेत्र विकसित किया जाये । आसियान संगठन के देशों ने उन 15 उत्पादों की सूची भी तैयार की जिन्हें मुक्त व्यापार क्षेत्र के अन्तर्गत समान तटकर योजना के तहत लाया जाएगा ।
आसियान क्षेत्र को मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने के प्रयत्न क्षेत्रीय सहयोग की दिशा में महत्वपूर्ण चरण हैं । 15-16 दिसम्बर, 1998 को हनोई में सम्पन्न छठे शिखर सम्मेलन में दक्षिण-पूर्वी एशिया में स्वतन्त्र व्यापार क्षेत्र (Asean Free Trade Area-AFTA) को पूर्व निर्धारित समय सीमा से पहले ही प्रभावी करने पर सहमति हुई ।
आसियान के पूर्व निर्धारित ‘विजन 2020’ की दिशा में पहले व्यावहारिक कदम के रूप में 1999-2004 ई. की अवधि के लिए स्वीकृत इस ‘हनोई कार्य योजना’ के अन्तर्गत क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण, व्यापार उदारीकरण व वित्तीय सहयोग वृद्धि के लिए विभिन्न उपाय निर्धारित किए गए हैं ।
नवम्बर 1999 में सम्पन्न आसियान नेताओं के सम्मेलन में इस बात पर विशेष बल दिया गया कि आसियान देशों को एक समूहके रूपमें वित्तीयव आर्थिक सहयोग के लिए गम्भीरता से प्रयास करने चाहिए । इस देशों का यह संगठन इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि वृहत्तर पूर्वी एशिया के रूप में इन देशों को आर्थिक एकीकरण के प्रयास करने होंगे तथा क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देना होगा ।
इस सन्दर्भ में चीन-आसियान सम्बन्धों का विस्तार इस सम्मेलन की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है । चीन, कोरिया तथा जापान के सकारात्मक रुख से आसियान देशों में नया उत्साह आया तथा यदि यह रुख बना रहा तो क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग इस भाग में नया मोड़ ले सकता है ।
23 जुलाई, 1996 से भारत को आसियान में पूर्णवार्ताकार का दर्जा प्राप्त है । भारत के अतिरिक्त पूर्णवार्ताकार का दर्जा प्राप्त पैश हैं: अमेरिका चीन एवं रूस । जापान चीन तथा दक्षिण कोरिया के साथ ‘आसियान + 3’ का गठन किया गया है । भारत भी आसियान के साथ + 3 की तरह की भूमिका चाहता है ।
जनसंख्या की दृष्टि से यह विश्व का सबसे बड़ा सहयोग संगठन है । नवम्बर, 2004 में लाओस के वियनतिएन में 10वें आसियान शिखर सम्मेलन के साथ ही तीसरा भारत-आसियान तथा तीन विशेष आमन्त्रित सदस्यों चीन जापान और कोरिया का सम्मेलन भी आयोजित हुआ ।
ADVERTISEMENTS:
आसियान ने साझेदारी दस्तावेज जारी कर क्षेत्रीय शान्ति और विकास सुनिश्चित करने के वास्ते संयुक्त राष्ट्र विश्व व्यापार संगठन और अन्य वैश्विक संस्थाओं में परस्पर सहयोग करने और आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष की घोषणा की ।
आसियान राष्ट्रों का पहला शिखर सम्मेलन 23-24 फरवरी, 1976 को बाली में आयोजित किया गया तथा 27वां शिखर सम्मेलन म्यांमार के नेपेडा में 21-22 नवम्बर 2015 को सम्पन्न हुआ । ऐसा नहीं है कि आसियान के रास्ते में फूल ही फूल हैं ।
आर्थिक सम्बन्धों की राह में राजनीति का दखल एक गम्भीर विषय है । 11 सितम्बर के बाद आसियान आतंकवाद के भूत से मुक्त नहीं हो पा रहा है । व्यापार एवं उद्योग पीछे छूटे चुके हैं । इण्डोनेशिया और मलेशिया जैसे मुस्लिम राष्ट्रों से धार्मिक कट्टरता की बातें उठती रहती हैं । म्यांमार में लोकतन्त्र को कब में दफन कर देने की नीति भी सदस्य राष्ट्रों की परेशानी का सबब बन चुकी है ।
10वां पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन (22 नवम्बर, 2015):
मलेशिया की राजधानी क्वालालंपुर में 22 नबम्बर, 2015 को 10वां पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन आयोजित हुआ । प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने मलेशिया, सिंगापुर और अन्य आसियान देशों को भारत में बुनियादी परियोजनाओं में निवेश के लिए आमन्त्रित किया है ।
क्वालालंपुर में 22 नवम्बर, 2015 को आसियान व्यापार शिखर सम्मेलन में श्री मोदी ने कहा कि भारत में परिवर्तन का दौर चल रहा है । उन्होंने कहा कि बीमा रक्षा और रेलवे के क्षेत्र प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश के लिए खुले हैं तथा निर्माण और मीडिया जैसे अन्य क्षेत्रों में इसे उदार बनाया गया है । उन्होंने आश्वासन दिया कि बौद्धिक सम्पदा अधिकार नीति में आविष्कारकों के अधिकार संरक्षित किए जाएंगे ।