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Here is an essay on the ‘Cold War’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Cold War’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on Cold War
Essay Contents:
- शीत-युद्ध की उत्पत्ति (Origin of the Cold War)
- शीत-युद्ध: अर्थ (Cold War: Meaning)
- शीत-युद्ध: परिभाषा (Cold War: Definition)
- शीत-युद्ध की प्रगति और विस्तार (Cold War: Development and Expansion)
- शीत-युद्ध के विशिष्ट साधन (Techniques of the Cold War)
- निष्कर्ष: शीत-युद्ध का अन्त (Conclusions: End of the Cold War)
Essay # 1. शीत-युद्ध की उत्पत्ति (Origin of the Cold War):
द्वितीय महायुद्ध के बाद विश्व में दो महाशक्तियां रह गयीं और इन दो महाशक्तियों के आपसी सम्बन्धों को अभिव्यक्त करने वाला सबसे अधिक उपयुक्त शब्द है-शीत-युद्ध (Cold War) । द्वितीय विश्व-युद्ध से पूर्व यद्यपि अमरीका और सोवियत संघ में बुनियादी मतभेद थे फिर भी युद्ध के दौरान उनमें मित्रतापूर्ण सम्बन्ध दिखायी पड़ते हैं ।
द्वितीय विश्व-युद्ध की समाप्ति के पश्चात् सोवियत संघ-अमरीकी सम्बन्धों में कटुता तनाव वैमनस्य और मनोमालिन्य में अनवरत वृद्धि देखी गयी । दोनों महाशक्तियों में राजनीतिक प्रचार का खल संग्राम छिड़ गया और दोनों एक-दूसरे का विरोध आलोचना और सर्वत्र अपना प्रसार करने में लग गये ।
सोवियत संघ-अमरीकी कटुतापूर्ण सम्बन्धों ने सपूर्ण विश्व को दो विरोधी गुटों में विभाजित कर दिया । अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर दोनों ही गुट एक-दूसरे के विरुद्ध अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने का प्रयास करने लगे ।
वे एक-दूसरे को कूटनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और सम्भव हो तो सैनिक मोर्चे पर भी पराजित करने में संलग्न हो गये और समूचे विश्व में एक प्रकार का भय अविश्वास और तनाव का वातावरण बन गया जिससे विश्व में एक बार पुन: संघर्षपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो गयी ।
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एक नये युग का आविर्भाव हुआ जिसे ‘सशस्त्र शान्ति का युग’ कहा जा सकता है । द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर अन्तर्राष्ट्रीय रंगमंच प्रलयंकर आणविक आयुधों से सम्पन्न इन दोनों भीमाकार दानवों (शक्तियों) के संघर्ष का अखाड़ा बन गया ।
शीत-युद्ध द्वितीय महायुद्ध के उपरान्त की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण विकास है, जिसकी व्याख्या दो प्रकार से की जा सकती हैं-प्रथम तो यह कि शीत-युद्ध एक वैचारिक संघर्ष था जिसमें दो विरोधी जीवन पद्धतियां- उदारवादी लोकतन्त्र तथा सर्वाधिकारवादी साम्यवाद-सर्वोच्चता प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रही थीं ।
इस दृष्टि से यह दो वैचारिक प्रणालियों का सैद्धान्तिक संघर्ष है । दूसरी ओर यथार्थवादी सिद्धान्त के अनुसार (जिसके प्रमुख प्रवक्ता प्रो. हेन्स जे. मॉरगेन्थाऊ हैं) शीत-युद्ध पुरानी शक्ति-सन्तुलन राजनीति का नवीनीकरण है, जिसमें बदले अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिवेश में उदित हुई दो महाशक्तियां-अमरीका और सोवियत संघ-विश्व के अधिकांश राज्यों को अपने प्रभाव-क्षेत्र में लाने के लिए निरन्तर संघर्ष कर रही थीं ।
Essay # 2. शीत-युद्ध : अर्थ (Cold War : Meaning):
‘शीत-युद्ध’ शब्द से सोवियत संघ-अमरीकी शत्रुतापूर्ण एवं तनावपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की अभिव्यक्ति होती है जो कि द्वितीय महायुद्धोत्तर विश्व राजनीति की वास्तविकता है । इन शत्रुतापूर्ण सम्बन्धों को गर्म युद्ध (Hot War) में परिवर्तित किये बिना इस शीत-युद्ध में वैचारिक घृणा (Ideological Hatred), राजनीतिक अविश्वास (Political Distrust), कूटनीतिक जोड़-तोड़ (Diplomatic Manoeuvering), सैनिक प्रतिस्पर्द्धा (Military Competition), जासूसी (Espionage), मनोवैज्ञानिक युद्ध (Psychological War-Fare), और कटुतापूर्ण सम्बन्ध देखे गये ।
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‘शीत-युद्ध’ शब्द बन्ध का सर्वप्रथम प्रयोग 16 अप्रैल, 1947 को बर्नार्ड एम.बरूच ने दक्षिणी कैरोलिन विधानमण्डल में भाषण देते हुए किया । उन्हीं के शब्दों में, “We are today in the midst of a cold war. Our enemies are to be found abroad and at home.”
शीत-युद्ध ‘युद्ध’ न होते हुए भी युद्ध की सी परिस्थितियों को बनाये रखने की कला थी जिसमें प्रत्येक विषय पर विश्व-शान्ति के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि अपने संकीर्ण स्वार्थों को ध्यान में रखकर विचार और कार्य किया जाता था ।
शीत-युद्ध सोवियत संघ-अमरीकी आपसी सम्बन्धों की वह स्थिति थी जिसमें दोनों पक्ष शान्तिपूर्ण राजनयिक सम्बन्ध रखते हुए भी परस्पर शत्रुभाव रखते थे तथा शस्त्र-युद्ध के अतिरिक्त अन्य सभी उपायों से एक-दूसरे की स्थिति और शक्ति को निरन्तर दुर्बल करने का प्रयत्न करते थे । यह एक ऐसा युद्ध था जिसका रणक्षेत्र मानव का मस्तिष्क था यह मनुष्य के मनों में लड़ा जाने वाला युद्ध था ।
इसे स्नायु युद्ध (War of nerves) भी कहा जा सकता है । इसमें रणक्षेत्र का सक्रिय युद्ध तो नहीं होता परन्तु विपक्षी राज्यों के सभी राजनीतिक आर्थिक सामाजिक सम्बन्धों में शत्रुता भरे तनाव की स्थिति रहती थी । शीत-युद्ध वस्तुत: युद्ध के नर-संहारक दुष्परिणामों से बचते हुए युद्ध द्वारा प्राप्त होने वाले समस्त उद्देश्यों को प्राप्त करने का एक नूतन शस्त्र था ।
शीत-युद्ध एक प्रकार का बाबू-युद्ध था जिसे कागज के गोलों पत्र-पत्रिकाओं रेडियो तथा प्रचार साधनों से लड़ा गया । इसमें प्रचार द्वारा विरोधी गुट के देशों की जनता के विचारों को प्रभावित करके उनके मनोबल को क्षीण करने का प्रयत्न किया गया तथा अपनी श्रेष्ठता शक्ति और न्यायप्रियता का तार्किक दावा किया जाता था ।
वस्तुत: शीत-युद्ध एक प्रचारात्मक युद्ध था जिसमें एक महाशक्ति दूसरे के खिलाफ घृणित प्रचार का सहारा लेती थी । यह एक प्रकार का कूटनीतिक युद्ध भी था जिसमें शत्रु को अकेला करने और मित्रों की खोज करने की चतुराई का भी प्रयोग किया गया ।
Essay # 3. शीत-युद्ध : परिभाषा (Cold War: Definition):
डॉ. एम. एस. राजन के शब्दों में:
“शीत-युद्ध शक्ति-संघर्ष की राजनीति का मिला-जुला परिणाम है, दो विरोधी विचारधाराओं के संघर्ष का परिणाम है; दो प्रकार की परस्पर विरोध पद्धतियों का परिणाम है, विरोधी चिन्तन पद्धतियों और संघर्षपूर्ण राष्ट्रीय हितों की अभिव्यक्ति है, जिनका अनुपात समय और परिस्थितियों के अनुसार एक-दूसरे के पूरक के रूप में बदलता रहा है ।”
जबाहरलाल नेहरू के अनुसार:
“शीत-युद्ध पुरातन शक्ति- सन्तुलन की अवधारण का नया रूप है । यह दो विचारधाराओं का संघर्ष न होकर दो भीमाकार शक्तियों का आपसी संघर्ष है ।”
के. पी. एस. मेनन के अनुसार:
“शीत-युद्ध जैसा कि विश्व ने अनुभव किया दो विचारधाराओं दो पद्धतियों, दो गुटों दो राज्यों और जब वह अपनी पराकाष्ठा पर था तो दो व्यक्तियों के मध्य उग्र संघर्ष था; दो विचारधाराएं थीं-पूंजीवाद और
साम्यवाद । दो पद्धतियां थीं-संसदीय लोकतन्त्र और जनवादी जनतन्त्र-बुर्जुआ जनतन्त्र और सर्वहारा वर्ग की तानाशाही । दो गुट थे-नाटो और वारसा पैक्ट । दो राज्य- संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ । दो व्यक्ति- जोसेफ स्टालिन और जॉन फॉस्टर डलेस ।”
जॉन फॉस्टर डलेस के शब्दों में:
”शीत-युद्ध नैतिक दृष्टि से धर्म-युद्ध था अच्छाइयों के लिए बुराइयों के विरुद्ध, सत्य के लिए गलतियों के विरुद्ध और धर्म-प्राण लोगों के लिए नास्तिकों के विरुद्ध…संघर्ष था ।”
ग्रीब्ज के शब्दों में:
“परमाणु युग में शीत-युद्ध एक ऐसी तनावपूर्ण स्थिति है जो शस्त्र-युद्ध से कुछ परे हटकर है । दूसरे शब्दों में यह एक साधन है जो एक पारस्परिक विरोधी ध्येय की प्राप्ति के लिए एक ऐसे युग में कारगर सिद्ध होता है जिसमें सपूर्ण अस्त्र-युद्ध न सिर्फ अत्यधिक खर्चीला होगा किन्तु सभी सम्बन्धित राष्ट्रों को नष्ट करने की शक्ति भी रखता होगा ।”
लुई हाले (Louis Halle) ने अपनी पुस्तक ‘The Cold War as History’ (1967) में लिखा है,
“शीत-युद्ध परमाणु युग में एक ऐसी तनावपूर्ण स्थिति है जो शस्त्र-युद्ध से एकदम भिन्न किन्तु उससे अधिक भयानक युद्ध है । यह एक ऐसा युद्ध है जिसने अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान करने के स्थान पर उन्हें उलझा दिया । विश्व के सभी देश और सभी समस्याएं चाहे वह वियतनाम हो चाहे कश्मीर या कोरिया हो, अथवा अरब-इजरायल संघर्ष हों-सभी शीत-युद्ध में मोहरों की तरह प्रयुक्त किये गये ।”
वस्तुत: शीत-युद्ध वास्तविक युद्ध नहीं था अपितु युद्ध का वातावरण था । नेहरू के शब्दों में शीत-युद्ध का वातावरण ‘निलम्बित मृत्युदण्ड के वातावरण’ (Some Kind of Suspended Death Sentence) के समान तनावपूर्ण था । यह गरम युद्ध से भी अधिक भयानक युद्ध था क्योंकि यह चिन्तन भावनाओं एवं मनोवेगों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता था जिसने अन्ततोगत्वा अशिष्ट एव असम्भव आचरण को जन्म दिया ।
संक्षेप में, शीत-युद्ध के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं:
(1) शीत-युद्ध दो सिद्धान्तों का ही नहीं, अपितु दो भीमाकार शक्तियों-सोवियत संघ और अमरीका का संघर्ष था ।
(2) शीत-युद्ध में प्रचार का महत्व था, यह वाक्-युद्ध था ।
(3) शीत-युद्ध में दोनों महाशक्तियां व्यापक प्रचार गुप्तचरी सैनिक हस्तक्षेप सैनिक सन्धियों तथा प्रादेशिक संगठनों की स्थापना करके अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने में लगी रहीं ।
(4) दोनों शिविरों के मध्य तनावपूर्ण सम्बन्धों की स्थिति को शीत-युद्ध कहा गया ।
(5) यह गरम युद्ध (Hot War) से भी अधिक भयानक था ।
(6) इसे मस्तिष्क में युद्ध के विचारों को प्रश्रय देने वाला युद्ध कहा गया था ।
शीत-युद्ध की प्रकृति:
शीत-युद्ध की प्रकृति कूटनीतिक युद्ध-सी है, जो अत्यन्त उग्र होने पर सशस्त्र युद्ध को जन्म दे सकती है । शीत-युद्ध में रत दोनों ही पक्ष आपस में शान्तिकालीन कूटनीतिक सम्बन्ध बनाये रखते हुए भी शत्रु-भाव रखते हैं और सशस्त्र युद्ध के अलावा अन्य सभी उपायों से एक-दूसरे को कमजोर बनाने का प्रयत्न करते हैं ।
शीत-युद्ध में दोनों ही पक्ष अपने प्रभाव-क्षेत्र के विस्तार के लिए अपनी सैद्धान्तिक विचारधाराओं और मान्यताओं पर बल देते हैं । दूसरे देशों को प्रभाव-क्षेत्र में लेने के लिए आर्थिक सहायता देना प्रचार-अस्त्र को काम में लेना जासूसी सैनिक हस्तक्षेप शस्त्र-सप्ताई, शस्त्रीकरण सैनिक गुटबन्दी और प्रादेशिक संगठनों का निर्माण आदि शीत-युद्ध के अंग हैं । वस्तुत: शीत-युद्ध युद्ध का बहिष्कार या त्याग नहीं बल्कि सिर्फ दो महा-शक्तियों के सीधे टकराव की अनुपस्थिति थी ।
शीत-युद्ध के तमाम वर्षों में तीसरी दुनिया में व्यापक घातक मुठभेड़ें होती रहीं । इनमें प्रकारान्तर से परोक्ष रूप से महाशक्तियों की प्रतिस्पर्द्धा साफ झलकती थी । शीत-युद्ध एक ऐसी स्थिति थी जिसे मूलत: ‘उष्ण शान्ति’ कहा जाना चाहिए ।
ऐसी स्थिति में न तो ‘पूर्ण रूप से शान्ति’ रहती है और न ही ‘वास्तविक युद्ध’ होता है बल्कि शान्ति एवं युद्ध के बीच की अस्थिर स्थिति बनी रहती है । हालांकि वास्तविक युद्ध नहीं होता, किन्तु यह स्थिति युद्ध की प्रथम सीढ़ी है जिसमें युद्ध के वातावरण का निर्माण होता रहता था । प्रसिद्ध विद्वान इसाक डोयशर ने लिखा है, “शीत-युद्ध की प्रकृति ट्राटस्की की ब्रेस्त लिटोस्क में की गयी प्रसिद्ध घोषणा की याद दिलाने वाली थी जहां उन्होंने कहा था-न युद्ध और न शान्ति ।”
Essay # 4. शीत-युद्ध की प्रगति और विस्तार (Cold War: Development and Expansion):
शीत-युद्ध की प्रगति और विस्तार का अध्ययन हम अपनी सुविधा की दृष्टि से निम्न चरणों में कर सकते हैं:
(1) पहला चरण- 1917-1945,
(2) द्वितीय चरण- 1946-1953,
(3) तृतीय चरण- 1953-1958,
(4) चतुर्थ चरण- 1959-1962,
(5) पंचम चरण- 1963-1979,
(6) षष्ट चरण- 1980-1989
(1) शीत-युद्ध के विस्तार का प्रथम चरण (1917-1945):
अमरीकी विद्वान हॉल तथा फ्रेंच विद्वान आंद्रे फोन्तेन मानते हैं कि वस्तुत अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शीत-युद्ध का आरम्भ 1945 में नहीं वरन् 1917 में बोल्शेविक क्रान्ति के साथ हुआ जिससे राज्य शक्ति का नया स्वरूप और सामाजिक-आर्थिक विकास का वैकल्पिक कार्यक्रम सामने आया ।
सही मायने में विचारधाराओं के संघर्ष के रूप में शीत-युद्ध का प्रारम्भ उसी दिन से हो जाता है, जिस दिन (1917 में) रूस में बोल्शेविक क्रान्ति हुई । 1917 में विश्व का प्रथम साम्यवादी राज्य अस्तित्व में आया और कार्ल मार्क्स के विचारों को मूर्त रूप दिया गया ।
रूस में साम्यवाद की स्थापना का पूंजीवादी राज्यों ने स्वागत नहीं किया । अभी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में यद्यपि ‘शीत-युद्ध’ शब्द का प्रयोग नहीं हुआ था तथापि दो वैचारिक पक्ष अवश्य प्रकट होने लगे थे । एक ओर अकेला सोवियत संघ था और दूसरी ओर अपने मित्रों सहित ग्रेट ब्रिटेन था ।
इन दोनों पक्षों का एक-दूसरे के प्रति जो दृष्टिकोण था उससे स्पष्ट परिलक्षित होता था कि भविष्य में इन दोनों के मध्य आपसी मतभेद बढ़ते रहेंगे । इस काल में शीत-युद्ध अपने उग्र रूप में इसलिए प्रकट नहीं हुआ, क्योंकि सोवियत रूस एक निर्बल राष्ट्र था और दूसरी ओर पूंजीवादी राज्य-ब्रिटेन-अमरीका अत्यन्त शक्तिशाली राष्ट्र थे ।
द्वितीय महायुद्ध में दोनों पक्षों की हिटलर के विरुद्ध मित्रता एक मजबूरी थी । सच्चाई यह है कि ब्रिटेन और अमरीका ने कम्युनिस्ट विचारधारा को कभी पसन्द नहीं किया । 1920 में जब सोवियत रूस की साम्यवादी सरकार ने अमरीका के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करने चाहे तो अमरीका उस समय तक उसके साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिए तैयार नहीं हुआ जब तक कि रूस ने उसकी कतिपय आवश्यक शर्तें नहीं मान लीं ।
ब्रिटेन में मजदूर दल की सरकार के सत्तारूढ़ होने पर ही ब्रिटेन द्वारा 1924 में सोवियत रूस की साम्यवादी सरकार को मान्यता दी गयी । अमरीकी सरकार तो अनेक वर्षों तक साम्यवादी व्यवस्था से भयभीत रही और नम्बम्बर 1933 में जाकर उसने साम्यवादी सरकार को मान्यता प्रदान कर कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना की ।
फ्लेमिंग के अनुसार इस काल में शीत-युद्ध को जन्म देने वाली निम्नलिखित घटनाएं प्रमुख हैं:
i. अप्रैल 1942 से जून 1944-द्वितीय मोर्चे का स्थगन;
ii. 29 मार्च, 1944 से फरवरी 1945 सोवियत सेनाओं द्वारा पूर्वी यूरोप पर अधिकार;
iii. मार्च 1945 इटली में जर्मन आत्म-समर्पण समझौतों पर रूस से मतभेद;
iv. 6 अगस्त, 1945 प्रथम अमरीकी अणु बम का हिरोशिमा पर प्रयोग जिसने विश्व के सम्भावित सामरिक सन्तुलन को उलट दिया;
v. 18 अगस्त, 1945-बर्नेज बेविन की पूर्वी-यूरोप में स्वतन्त्र चुनाव कराने की कूटनीतिक चेष्टा का श्रीगणेश, आदि ।
(2) शीत-युद्ध के विस्तार का द्वितीय चरण (1946-1953):
इस काल में शीत-युद्ध का असली रूप सामने आ जाता है । इस काल में अमरीका ने साम्यवाद को घेरकर उसके विस्तार का प्रत्येक स्तर पर प्रतिरोध करने की नीति अपनायी ।
इस काल में शीत-युद्ध में वृद्धि के लिए कई घटनाएं प्रमुख थीं जैसे:
i. चर्चिल का फुल्टन भाषण:
5 मार्च, 1946 को अमरीका के फुल्टन स्थान पर चर्चिल द्वारा दिये गये भाषण ने शीत-युद्ध का आधुनिक रूप में श्रीगणेश किया । फुल्टन नगर में भाषण करते हुए चर्चिल ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में एक नयी विचारधारा का सूत्रपात किया ।
उसने कहा, “हमें तानाशाही के एक स्वरूप के स्थान पर उसके दूसरे स्वरूप की संस्थापना को रोकना चाहिए ।” उसने “स्वतन्त्रता की दीप-शिखा प्रज्वलित रखने एवं ईसाई सभ्यता की सुरक्षा के लिए” एक आंग्ल अमरीकी गठबन्धन की मांग की । उसका सुझाव था कि साम्यवाद के प्रसार को सीमित रखने के लिए हर सम्भव एवं नैतिक-अनैतिक उपायों का अवलम्बन किया जाये ।
इसके बाद समूचे अमरीका में सोवियत विरोधी भावना का तूफान फूट पड़ा । 29 दिसम्बर 1946 को राष्ट्रपति ट्रूमैन ने तत्कालीन वाणिज्य सचिव हेनरी ए वालेस से त्यागपत्र देने को कहा क्योकि उसने 12 सितम्बर 1946 को न्यूयार्क में एक सार्वजनिक भाषण में सोवियत संघ और अमरीका के बीच मैत्री-स्थापना की वकालत की थी । राज्य सचिव डीन एचिसन ने 18 फरवरी 1947 को सीनेट के ससुख कहा कि ”सोवियत संघ की विदेश नीति आक्रामक तथा विस्तारवादी है ।”
ii. ट्रूमैन सिद्धान्त:
12 मार्च, 1947 को अमरीकी राष्ट्रपति ट्रूमैन ने अमरीका की यह नीति घोषित की कि वह साम्यवादी प्रसार को रोकेगा । इस नीति के अनुसार दुनिया में जहां कहीं भी शान्ति भंग करने वाला प्रत्यक्ष या परोक्ष आक्रामक कार्य होगा वहां संयुक्त राज्य अमरीका की सुरक्षा संकट में मानी जाएगी और वह उसको रोकने के लिए पूरा प्रयत्न करेगा ।
यूनान, टर्की, ईरान आदि देशों को साम्यवादी खेमे में जाने से बचाने के लिए ट्रूमैन ने यह निर्णय लिया कि इन्हें आर्थिक सहायता प्रदान की जाये । मार्च 1947 में ट्रूमैन ने अमरीकन कांग्रेस को यह सिफारिश की कि यूनान को 25 करोड़ डॉलर तथा टर्की को 15 करोड़ डॉलर आर्थिक सहायता स्वीकार की जाये और चेतावनी दी कि ”विश्व की स्वतन्त्र जनताएं अपनी स्वाधीनता बनाये रखने के लिए हमारी तरफ देख रही हैं । यदि हमने नेतृत्व में चूक की तो समूचे विश्व की शान्ति खतरे में पड़ जायेगी और हम निश्चय ही अपने स्वयं के राष्ट्र के कल्याण को संकट में डाल देंगे ।”
वस्तुत: आर्थिक सहायता के माध्यम से साम्यवाद के प्रसार को सीमित करने की अमेरिका ने जो नीति अपनायी उसे ‘ट्रूमैन सिद्धान्त’ के नाम से पुकारा जाता है ।
iii. मार्शल योजना:
अमरीकी विदेश सचिव मार्शल ने 23 अप्रैल, 1947 को इस बात पर बल दिया कि यदि इस समय फौरन (तत्काल) यूरोप के आर्थिक पुनरुद्धार का यल न किया गया तो वह साम्यवादी हो जायेगा । परिणामस्वरूप राष्ट्रपति ट्रूमैन ने मार्शल द्वारा दिये गये सुझाव के अनुसार पश्चिमी यूरोपीय देशों के आर्थिक पुनर्निर्माण तथा इन देशों में व्याप्त बेकारी भुखमरी निर्धनता साधनहीनता और अव्यवस्था को समाप्त करने के उद्देश्य से मार्शल योजना शुरू की ।
इस योजना के अन्तर्गत अमरीका ने 1948 से 1952 तक कुल चार वर्ष की अवधि में पश्चिमी यूरोपीय देशों को 12 अरब डालर की आर्थिक सहायता देने का कार्यक्रम स्वीकार किया । वस्तुत: इस योजना का मुख्य उद्देश्य पश्चिमी यूरोपीय देशों को साम्यवादी प्रभाव में जाने से रोकना और साम्यवादी प्रभाव को समाप्त करना था ।
चूंकि जिन देशों को इस योजना के अन्तर्गत सहायता दी गयी उन पर मुख्य शर्त यह लागू की गयी कि वे अपने देश की शासन-व्यवस्था में साम्यवादियों को कोई स्थान नहीं देंगे । इस योजना ने अमरीका की ‘साम्यवाद के अवरोध की नीति’ (Containment of Communism) को सफल बनाने में सहायता दी ।
iv. बर्लिन की नाकेबन्दी:
1948 में सोवियत संघ ने बर्लिन की नाकेबन्दी करके शीत-युद्ध को चरम सीमा पर पहुंचा दिया । बर्लिन की नाकेबन्दी के अवसर पर दोनों ही पक्षों को अपनी शक्ति आजमाने का मौका मिला । इससे पश्चिमी जर्मनी के बीच सभी रेल सड़क और जलीय यातायात बन्द कर दिया गया ।
इस समय अमरीका ने कठोर रुख अपनाया और सोवियत संघ इस नाकेबन्दी में असफल रहा एवं मई 1948 में उसने इस नाकेबन्दी को समाप्त कर दिया किन्तु इसका परिणाम यह हुआ कि सोवियत संघ का विरोध करने की दृष्टि से अमरीका नये-नये सैनिक संगठनों की स्थापना करने के लिए प्रयत्नशील हो गया ।
v. जर्मनी का विभाजन:
अब क्षत-विक्षत जर्मनी ‘शीत-युद्ध’ का एक प्रधान केन्द्र बन गया । ब्रिटेन फ्रांस और अमरीका ने अपने अधीनस्थ जर्मनी के तीनों पश्चिमी क्षेत्रों का एकीकरण कर दिया । इस तरह 21 सितम्बर, 1949 को संघीय जर्मन गणराज्य (Federal Republic of Germany) जिसे ‘पश्चिमी जर्मनी’ भी कहते हैं, का उदय हुआ ।
मित्र-राष्ट्रों के इस कार्य के प्रत्युत्तर में 7 अक्टूबर, 1949 को जर्मनी के रूसी क्षेत्र में जर्मन प्रजातन्त्रात्मक गणराज्य (German Democratic Republic ) जिसे ‘पूर्वी जर्मनी’ भी कहते हैं की स्थापना कर दी गयी । इस प्रकार जर्मनी-पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी-में विभाजित हो गया । जर्मनी के एकीकरण का प्रश्न शीत-युद्ध को बल प्रदान करने लगा ।
vi. नाटो की स्थापना:
1949 में संयुक्त राज्य अमरीका के नेतृत्व में नाटो (NATO) जैसी सैनिक सन्धि का निर्माण किया गया । इसके अनुसार यूरोप में या उत्तरी अमरीका में किसी एक या अनेक देशों के विरुद्ध किया गया सशस्त्र आक्रमण सब देशों के विरुद्ध आक्रमण समझा जायेगा और ऐसा आक्रमण होने की दशा में वैयक्तिक रूप से अथवा अन्य सदस्यों के साथ मिलकर ‘उत्तरी अटलाण्टिक क्षेत्र’ में शान्ति बनाये रखने के लिए आवश्यक समझा जाने वाला कार्य करेंगे । नाटो सोवियत संघ को चेतावनी थी कि यदि उसने इस सन्धि पर हस्ताक्षर करने वाले किसी देश पर आक्रमण किया तो संयुक्त राज्य अमरीका तत्काल उसकी सहायता करेगा ।
vii. चीन में साम्यवादी शासन की स्थापना:
1 अक्टूबर 1949 को चीन में साम्यवादी शासन स्थापित हो जाने से शीत-युद्ध में उष्णता आ गयी । साम्यवादियों की इस विजय ने सोवियत संघ के उत्साह में काफी वृद्धि की । संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुसार चीन सुरक्षा परिषद् का एक स्थायी सदस्य था ।
परन्तु जब च्यांग काई शेक की राष्ट्रवादी सरकार भागकर फारमोसा चली गयी तो चीन की साम्यवादी सरकार ने महासभा एवं सुरक्षा परिषद् में अपना स्थान पाने की मांग की । संयुक्त राज्य अमरीका ने उसका विरोध किया । संयुक्त राज्य अमरीका यह नहीं चाहता था कि सुरक्षा परिषद् में सोवियत संघ का एक और समर्थक हो जाय ।
साम्यवादी चीन की सदस्यता की माग को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अस्वीकार किये जाने की सोवियत संघ में तीव्र प्रतिक्रिया हुई और इस पर उसने सुरक्षा परिषद् की बैठकों का भी बहिष्कार किया । साम्यवादी चीन की सदस्यता के प्रश्न को लेकर सोवियत संघ और अमरीका के मध्य शीत-युद्ध में भयंकर कटुता और वैमनस्य पैदा हो गया जिसका प्रभाव परवर्ती अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर परिलक्षित होता है ।
viii. कोरिया युद्ध:
कोरिया का युद्ध वास्तव में पश्चिमी गुट और कम्युनिस्ट गुट के बीच युद्ध था । 1950 में साम्यवादी उत्तरी कोरिया ने दक्षिणी कोरिया पर आक्रमण कर दिया । अमरीका ने सैनिक संगठनों के माध्यम से ‘स्वतन्त्र विश्व’ की रक्षा का दायित्व अपने ऊपर लिया । अमरीका ने सुरक्षा परिषद् से सोवियत संघ की अनुपस्थिति का खूब अवैध लाभ उठाया ।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने उत्तरी कोरिया को आक्रमणकारी घोषित कर दिया और उसके झण्डे के नीचे अनेक देशों की विशेषत: अमरीका की सेनाओं ने दक्षिणी कोरिया की सहायता की । कोरिया संघर्ष में शीत-युद्ध सशस्त्र संघर्ष में बदल गया ।
”चीनी सैनिकों और सोवियत संघ के हथियारों से उत्तरी कोरिया लड़ रहा था और संयुक्त राष्ट्र की सेना के नाम पर संयुक्त राज्य अमरीका दक्षिण कोरिया की तरफ से मैदान में था ।” संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर तथा उसके बाहर सोवियत संघ और अमरीका ने एक-दूसरे के खिलाफ राजनीतिक प्रचार अभियान तीव्र कर दिया । यह युद्ध लगभग चार वर्ष तक चला और जून 1953 में बन्द हुआ किन्तु दोनों गुटों के बीच शीत-युद्ध जारी रहा ।
ix. अमरीका द्वारा जापान के साथ शान्ति सन्धि:
जिस समय कोरिया युद्ध चल रहा था तभी सितम्बर 1951 में अमरीका सहित कई अन्य पश्चिमी देशों ने जापान के साथ एक शान्ति सन्धि पर हस्ताक्षर किये । सोवियत संघ ने इस कार्यवाही को एकपक्षीय कहकर अमरीका की काफी निन्दा की । वस्तुत: इस चरण में शीत-युद्ध में काफी तीव्रता देखी गयी । इस काल में चर्चिल, ट्रूमैन, मार्शल, डलेस, सीनेटर, वेण्डनबर्ग, स्टालिन जैसे नेताओं ने मिलकर शीत-युद्ध का हौवा खडा किया ।
(3) शीत-युद्ध के विस्तार का तृतीय चरण (1953-1958):
इस काल में अमरीका और सोवियत संघ के नेतृत्व में परिवर्तन आया और यह आशा की जाने लगी कि शीत-युद्ध की उष्णता में ठण्डापन आयेगा । मार्च 1953 में स्टालिन की मृत्यु के बाद शीत-युद्ध के इतिहास में एक नया मोड़ आने की आशा थी, चूंकि स्टालिन की नीतियों को शीत-युद्ध का बहुत बड़ा कारण माना जाता था ।
यद्यपि स्टालिन ने पश्चिमी राष्ट्रों से कूटनीतिक सम्बन्ध कायम रखे तथापि वह इतना अडंगेबाज था कि उसके साथ कार्य करना दु:साध्य था । स्टालिन के उत्तराधिकारी ख्रुश्चेव ने शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व और समझौतावादी नीति को अपनाने पर जोर दिया । इसी दौरान अमरीकी नेतृत्व में भी परिवर्तन आया तथा शीत-युद्ध के उन्नायक राष्ट्रपति ट्रूमैन के स्थान पर जनरल आइजनहॉवर अमरीका के राष्ट्रपति बने ।
इस काल की प्रमुख घटनाएं इस प्रकार हैं:
i. सोवियत संघ द्वारा आणविक परीक्षण:
अगस्त 1953 में सोवियत संघ द्वारा प्रथम आणविक परीक्षण किया गया इससे अमरीका सशंकित हुआ वहां दूसरी ओर नि:शस्त्रीकरण को दोनों पक्ष आवश्यक समझने लगे ।
ii. हिन्दचीन का प्रश्न:
फ्रांसीसी साम्राज्यवाद के विरुद्ध हिन्दचीन में चलने वाले संघर्ष में दोनों गुटों ने अलग-अलग पक्षों का समर्थन किया । अमरीका ने इस संघर्ष में फ्रांस का सहयोग किया तो सोवियत रूस ने हिन्दचीन के लोगों का समर्थन किया । इस प्रकार हिन्दचीन की समस्या शीत-युद्ध का अन्तिम अंग बन गयी ।
iii. सीटो का निर्माण:
सीटों का प्रमुख उद्देश्य दक्षिण-पूर्वी एशिया में कम्युनिस्ट चीन के साम्यवादी प्रसार का विरोध करना है । 1953 में चर्चिल ने संयुक्त राज्य अमेरिका के आगे यह प्रस्ताव रखा था कि दक्षिण-पूर्वी एशिया के लिए नाटो जैसे एक संगठन का निर्माण किया जाय । 8 सितम्बर, 1954 को सीटो सन्धि पर हस्ताक्षर हुए । इस सन्धि के मूल में एक ही बात थी: कम्बोडिया, वियतनाम और लाओस को साम्यवादियों (चीन के) के प्रभाव में जाने से रोका जाये ।
iv. वारसा पैक्ट का निर्माण:
14 मई 1955 को सोवियत संघ और उसके साथी आठ देशों ने वारसा पैक्ट का निर्माण किया । इसके अनुसार यदि किसी सदस्य पर सशस्त्र सैनिक आक्रमण होता है, तो अन्य देश उसकी सैनिक सहायता करेंगे । वारसा पैक्ट नाटो का पूरा जवाब था ।
v. हंगरी में सोवियत हस्तक्षेप:
1956 में हंगरी में सोवियत हस्तक्षेप ने अन्तर्राष्ट्रीय तनाव और शीत-युद्ध में पर्याप्त अभिवृद्धि की । पश्चिमी देशों ने सोवियत संघ की इस कार्यवाही की कटु निन्दा की ।
vi. आइजनहॉवर सिद्धान्त:
जून 1957 में आइजनहॉवर सिद्धान्त की घोषणा की गयी । यह अमरीकी विदेश नीति में उग्रता का प्रतीक था । इसमें कहा गया कि साम्यवादी गुलामी से घिरी जनता कोई स्वतन्त्रता के संघर्ष में अमरीका सहायता करेगा ।
अमरीकी सीनेट ने राष्ट्रपति को अधिकार दिया कि वह स्वविवेक से अमरीकी सेना को मध्य-पूर्व के किसी भी देश में साम्यवादी आक्रमण को रोकने के लिए भेज सकता है । इससे शीत-युद्ध में भारी उग्रता आ गयी । 1955 से 1958 तक पश्चिमी एशिया शीत-युद्ध का भयंकर अखाड़ा बन गया ।
स्वेज नहर के राष्ट्रीयकरण के फलस्वरूप 1956 में मिस्र पर होने वाले ऐंग्लो-फ्रेंच-इजरायल आक्रमण की सोवियत संघ ने तीव्र भर्त्तना की । पश्चिमी एशिया के सामरिक महत्व और तेलकूपों पर प्रभुता कायम करने के लिए अमरीका-सोवियत संघ में घोर संघर्ष होता रहा । फारस का तेल विवाद, स्वेज संकट, लेबनान में अमरीकी फौज का उतारना, इराक की क्रान्ति, आदि अवसरों पर दोनों गुट शीत-युद्ध के अखाड़े में डट गये ।
(4) शीत-युद्ध के विस्तार का चतुर्थ चरण (1959-1962):
1958 के बाद ऐसा लगने लगा कि शीत-युद्ध के ज्वार में कमी आयेगी, क्योंकि सोवियत प्रधानमन्त्री ख्रुश्चेव ने शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति को अंगीकार कर लिया था ।
इस काल की कतिपय घटनाएं निम्नांकित हैं:
i. ख्रुश्चेव की अमरीका यात्रा:
15 सितम्बर से 28 सितम्बर, 1959 तक सोवियत प्रधानमन्त्री ख्रुश्चेव ने अमरीका की यात्रा की । इस यात्रा से सोवियत संघ और अमरीका के मध्य बड़े सौहार्द और प्रेम का वातावरण बना । ख्रुश्चेव ने आइजनहॉवर को सोवियत संघ आने का निमन्त्रण दिया ।
इस सौहार्द को ‘कैम्प डेविड भावना’ (Spirit of Camp David) का नाम दिया गया और कहा गया था कि इस भावना से प्रेरित होकर दोनों देश अन्तर्राष्ट्रीय तनाव को दूर करने का सम्मिलित प्रयास करेंगे जिससे शीत-युद्ध की बर्फ पिघलेगी और विश्व-शान्ति की नींव दृढ होगी ।
ii. यू-2 विमान काण्ड:
शीत-युद्ध के तनाव को कम करने के लिए चार बड़े देशों के शासनाध्यक्षों का एक शिखर सम्मेलन आयोजित करना आवश्यक समझा गया । यह भी तय हुआ कि मई 1960 में पेरिस में शिखर सम्मेलन हो और उसके बाद वहीं से राष्ट्रपति आइजनहॉवर सोवियत संघ की यात्रा करें । पर दुर्भाग्यवश शिखर सम्मेलन के आरम्भ होने से पूर्व ही 1 मई, 1960 को अमरीका का जासूसी विमान यू-2 सोवियत सीमा में जासूसी करते हुए पकड़ा गया ।
इस विमान में जासूसी के अनेक उपकरण तथा यन्त्र पकड़े गये । विमान चालक ने यह स्वीकार किया कि उसे सोवियत संघ के आकाश में सैनिक निरीक्षण तथा सैनिक-अड्डे की सूचना प्राप्त करने के लिए भेजा गया था ।
बात तब बहुत बढ गयी जब राष्ट्रपति आइजनहॉवर ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि सोवियत संघ में सामरिक गतिविधियां बड़ी गुप्त रहती हैं अत: किसी भी आकस्मिक आक्रमण को रोकने के लिए अमरीका ऐसी जासूसी कार्यवाहियां करता है और आगे भी करता रहेगा । अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अन्तर्गत इसकी मनाही नहीं है ।
ख्रुश्चेव ने इस जासूसी उड़ान को अत्यन्त उत्तेजनात्मक कार्य और सोवियत संघ का घोर अपमान करना कहा । सोवियत संघ ने सुरक्षा परिषद् में इस घटना की शिकायत की । यू-2 विमान काण्ड ने शीत-युद्ध में तूफान ला दिया । सोवियत संघ ने इसका खूब प्रचार किया और अमरीका को शान्ति भंग करने वाला बताया ।
iii. पेरिस का शिखर सम्मेलन:
यू-2 विमान काण्ड की घटना से 16 मई 1960 को होने वाले पेरिस शिखर सम्मेलन की असफलता साफ नजर आने लगी । पेरिस के शिखर सम्मेलन में अमरीका ब्रिटेन और फ्रांस के शासनाध्यक्ष शामिल हुए और जटिल अन्तर्राष्ट्रीय प्रश्नों पर चर्चा होनी थी किन्तु शिखर सम्मेलन में ख्रुश्चेव ने यू-2 का मामला उठाया अमरीका की भर्त्तना की और आइजनहॉवर का अपमान किया ।
ख्रुश्चेव ने शीत-युद्ध को पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया जब उसने डिगॉल तथा मैकमिलन से तो हाथ मिलाया, लेकिन जब आइजनहॉवर ने हाथ बढ़ाया तो ख्रुश्चेव ने इकार कर दिया । ख्रुश्चेव ने यहां तक कहा कि अमरीकी राष्ट्रपति को अब सोवियत संघ आने की कोई आवश्यकता नहीं है । सम्मेलन के दूसरे सत्र में ख्रुश्चेव ने भाग ही नहीं लिया अत सम्मेलन की कार्यवाही बन्द कर देनी पड़ी । शिखर सम्मेलन की असफलता से सारी दुनिया में गहरी निराशा छा गयी ।
iv. कैनेडी का राष्ट्रपति निर्वाचित होना:
8 नवम्बर, 1960 को अमरीकी राष्ट्रपति पद के निर्वाचन में जॉन कैनेडी विजयी हुए । ख्रुश्चेव ने कैनेडी को बधाई भेजते समय यह आशा व्यक्त की कि उनके निर्वाचन से सोवियत संघ और अमरीका के सम्बन्ध सुधरेंगे और शीत-युद्ध की उग्रता में कमी आयेगी ।
कैनेडी ने बधाई का उत्तर भेजते हुए लिखा कि उनका मुख्य कार्य ‘न्यायपूर्ण और स्थायी शान्ति’ की स्थापना के लिए प्रयास करना होगा । कैनेडी की नीतियों एवं दृष्टिकोण से ऐसा आभास होने लगा कि शीत-युद्ध में कमी आयेगी अमरीका-सोवियत संघ निकट आ सकेंगे । कैनेडी ने अपने पूर्वाधिकारी के विपरीत साम्यवाद के प्रति सहयोग की नीति अपनाने का नारा बुलन्द किया ।
v. ख्रुश्चेव द्वारा पूर्वी जर्मनी से पृथक् सन्धि करने की धमकी:
जून 1961 में ख्रुश्चेव ने पूर्वी जर्मनी के साथ एक पृथक् सन्धि पर हस्ताक्षर करने की धमकी दी थी लेकिन कनहा ने उसे खुले शब्दों में बता दिया था कि सोवियत रूस की एकपक्षीय कार्यवाही किसी भी अवस्था में स्वीकार्य नहीं होगी ।
vi. क्यूबा की घटना:
क्यूबा अमरीका के निकट एक टापू है जहां 1958 में डॉ. फिडेल कास्त्रो के नेतृत्व में साम्यवादी शासन की स्थापना हुई । अब डॉ. कास्त्रो ने सोवियत संघ के साथ घनिष्ट सम्बन्ध बढ़ाने शुरू कर दिये । अमरीका के लिए यह चिन्ता का विषय था कि उसकी सीमा पर साम्यवादी रूस का क्यूबा के माध्यम से प्रभाव बढ़ रहा है ।
कास्त्रो की सरकार को सोवियत संघ से बड़ी मात्रा में आर्थिक और सैनिक सहायता मिलने लगी । 1962 के आसपास तो सोवियत संघ ने क्यूबा में नये-नये अड्डे कायम कर दिये । इन अड्डों में रॉकेट-प्रक्षेपण-अस्त्र रखे जाने लगे । इससे संयुक्त राज्य अमरीका की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो गया ।
22 अक्टूबर, 1962 को कैनेडी ने क्यूबा में एक सैनिक अड्डे की स्थापना की निन्दा करते हुए क्यूबा की नाकेबन्दी की घोषणा की जिसका उद्देश्य अमरीकी जहाजों द्वारा क्यूबा को घेर लेना था ताकि वहां सोवियत संघ से भेजी जाने वाली सैनिक-सामग्री न पहुंच सके ।
कैनेडी का यह कदम सोवियत संघ के लिए एक स्पष्ट चुनौती थी कि या तो वह क्यूबा को सैनिक सहायता देना बन्द करे अथवा युद्ध के लिए तैयार हो जाये । सोवियत प्रधानमन्त्री ख्रुश्चेव ने इस समय दूरदर्शिता से काम लिया और क्यूबा से सोवियत संघ के सैनिक अड्डे को उठा लेना स्वीकार कर लिया । कैनेडी ने उनके इस निर्णय को ‘एक महान् राजनेता का निर्णय’ कहा । शीत-युद्ध के इतिहास में क्यूबा का संकट तीसरे विश्व-युद्ध का कारण बन सकता था ।
(5) शीत-युद्ध के विस्तार का पंचम चरण (1963-1979):
1962 के बाद शीत-युद्ध में शिथिलता आने लगी । एडबर्ड क्रैंक्शा के शब्दों में, “उष्ण स्थलों का शीतलीकरण” हुआ तथा तनाव-भरा युद्ध एक ठण्डे सह-अस्तित्व में बदल गया । सच्चाई यह है कि इस काल में जहां एक ओर शीत-युद्ध में शिथिलता आयी वहीं दूसरी ओर महाशक्तियों में प्रतिद्वन्द्विता भी बनी रही ।
इस काल में शीत-युद्ध में शिथिलता की प्रमुख घटनाएं इस प्रकार हैं:
i. परमाणु परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि:
25 जुलाई, 1963 को ब्रिटेन सहित दोनों देशों ने मॉस्को में वायुमण्डल, बाह्य अन्तरिक्ष और समुद्र में अणु परीक्षणों पर प्रतिबन्ध लगाने वाली एक सन्धि पर हस्ताक्षर किये । 26 जुलाई, 1963 को अमरीकी जनता के नाम अपने एक भाषण में कैनेडी ने इस सन्धि को शीत-युद्ध की समाप्ति की दिशा और युगों से विश्व-शान्ति की दिशा में किये जाने वाले प्रयासों के मार्ग में एक ऐतिहासिक चिह्न बताया और इस संक्षिप्त सन्धि का मूल्यांकन करते हुए कहा, “यह सन्धि सतयुग (Millennium) लाने वाली नहीं है….यह संघर्षों को कम नहीं करेगी….किन्तु यह एक महत्वपूर्ण कदम है-शान्ति की ओर विवेक की दिशा में तथा युद्ध से विपरीत दिशा में ।”
ii. हॉट लाइन समझौता, 1963:
इस सन्धि के साथ ही वाशिंगटन और क्रेमलिन में टेलीफोन और रेडियो का सीधा सम्पर्क स्थापित करने का समझौता (Hot line Agreement) हुआ । इस सम्पर्क का उद्देश्य महत्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय संकट के समय दोनों महाशक्तियों में सीधा सम्पर्क स्थापित करके भूल अथवा आकस्मिक दुर्घटना से छिड़ने वाले युद्ध के संकट का निवारण करना था ।
iii. परमाणु अप्रसार सन्धि:
1968 में सोवियत संघ, अमरीका और ब्रिटेन ने मिलकर अन्य देशों के साथ ‘परमाणु अप्रसार सन्धि’ पर हस्ताक्षर किये । इसमें कहा गया कि परमाणु अस सम्पन्न राष्ट्र परमाणु असविहीन राष्ट्रों को परमाणु अस्त्र प्राप्त करने में किसी प्रकार की सहायता नहीं करेंगे ।
iv. मास्को-बोन समझौता:
सोवियत संघ और पश्चिमी जर्मनी के मध्य 1970 में यह समझौता हुआ और इसने शीत-युद्ध की जड़ को ही समाप्त कर दिया । इस समझौते द्वारा मास्को और बोन ने शक्ति प्रयोग का परित्याग किया और वस्तुस्थिति को स्वीकार कर लिया ।
v. बर्लिन समझौता:
अठारह माह तक बातचीत करने के बाद अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस और सोवियत संघ के प्रतिनिधियों के बीच पश्चिमी बर्लिन के बारे में भी अगस्त 1971 में एक समझौता हो गया । इस समझौते के अनुसार अब पश्चिमी बर्लिन के लोग पूर्वी बर्लिन जा सकेंगे । इस तरह पश्चिमी जर्मनी से पूर्वी बर्लिन जाने पर भी रुकावट नहीं रहेगी । बर्लिन समझौता शान्ति की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था ।
vi. दो जर्मन राज्यों का सिद्धान्त:
बड़े राष्ट्रों के मध्य बर्लिन पर जो समझौता हुआ उसके कारण शीत-युद्ध की उग्रता में ही कमी नहीं आयी; इसने पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के मध्य सामान्य सम्बन्ध कायम करने के लिए दिशा-निर्देश किया । 19 नवम्बर, 1972 को पश्चिमी जर्मनी की राजधानी बोन में इन दोनों देशों के प्रतिनिधियों ने एक सन्धि पर हस्ताक्षर किये जिसके फलस्वरूप इन दोनों जर्मन राज्यों के बीच पिछले तेईस वर्षों से चलती आ रही तनातनी समाप्त हो गयी । दोनों जर्मन राज्यों ने एक-दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया और अनेक मानवीय क्षेत्रों में सहयोग करने का वादा किया । 1973 में दोनों जर्मन राज्यों को संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता प्रदान की गयी ।
vii. यूरोपीय सुरक्षा सम्मेलन:
3 से 6 जुलाई, 1973 तक फिनलैण्ड की राजधानी हेलसिंकी में यूरोपीय सुरक्षा सम्मेलन आयोजित किया गया । इस सम्मेलन में यूरोप के पैंतीस राज्यों के विदेश मन्त्रियों ने भाग लिया । यूरोपीय राज्यों के इस सुरक्षा सम्मेलन का उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय तनाव को समाप्त करके शीत-युद्ध का अन्त करना तथा सुरक्षा की नयी भावना पैदा करना था ।
viii. द्वितीय यूरोपीय सुरक्षा सम्मेलन:
नवम्बर 1974 का व्लाडीवोस्टक शिखर सम्मेलन अमरीका और सोवियत संघ द्वारा तनाव कम करने के ही प्रयत्नों का परिणाम था । व्लाडीवोस्टक में राष्ट्रपति फोर्ड और सोवियत नेता ब्रेझनेव की यह मुलाकात तथा उसमें सामरिक अस परिसीमन समझौते की रूपरेखा तैयार करना शीत-युद्ध को समाप्त करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था ।
ix. तृतीय यूरोपीय सुरक्षा सम्मेलन:
तृतीय यूरोपीय सहयोग और सुरक्षा सम्मेलन बेलग्रेड में जून 1977 में हुआ । सम्मेलन में लगभग पचास यूरोपीय देशों ने भाग लिया । सम्मेलन में पूरब और पश्चिम के बीच सुरक्षा तथा सद्भाव स्थापित करने के लिए यूरोपीय सहयोग को और दृढ़ बनाने के प्रश्न पर विचार हुआ । यूरोपीय सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत करने के लिए भी अनेक सुझाव दिये गये ।
(6) शीत-युद्ध के विस्तार का षष्ठ चरण (1980-1989):
शीत-युद्ध के इस चरण में महाशक्तियों में सहयोग के साथ-साथ प्रतिद्वन्द्विता भी चलती रही । इस चरण को ‘युद्ध के अलावा सभी साधनों द्वारा संघर्ष’ भी कहा जाता है । कुछ लोग इसे ‘दूसरा शीत-युद्ध’ (The Second Cold War) अथवा ‘नया शीत-युद्ध’ (New Cold War) भी कहते हैं ।
वैसे तो इस ‘नये शीत-युद्ध’ का प्रारम्भ राष्ट्रपति रीगन के सत्ता में आते ही अमरीका को पुन: कार्य पर लगाने अस उद्योग को बढ़ावा देने, मित्र-राष्ट्रों का पुन: शस्त्रीकरण करने शस्त्रों की होड़ को तेज करने और सोवियत संघ के प्रति कठोर नीति अपनाने की घोषणा’ से माना जाता है, तथापि इससे पूर्व ‘दितान्त’ काल में अनेक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों और समस्याओं पर अमरीका और सोवियत संघ ने पृथक-पृथक् पक्षों का साथ दिया ।
उदाहरणार्थ, 1971 में बांग्लादेश के स्वाधीनता संघर्ष में अमरीका ने पाकिस्तान का साथ दिया और सोवियत संघ ने भारत का पक्ष लिया । पश्चिमी एशिया के संघर्ष में अमरीका ने इजरायल की पीठ थपथपायी तो सोवियत संघ ने अरबों का पक्ष लिया । 1969 में जब पश्चिमी जर्मनी ने राष्ट्रपति के चुनावों को पश्चिमी बर्लिन में सम्पन्न कराने का निश्चय किया तो पश्चिम और पूरब में पुन: गम्भीर संकट उत्पन्न हो गया ।
1975 में अंगोला में दोनों पक्ष-अमरीका और सोवियत संघ-ने विरोधी गुटों का साथ दिया । सोवियत संघ ने क्यूबा से मिलकर अंगोला में अमरीका चीन और दक्षिण अफ्रीका के ‘यूनिटा’ (UNITA) को समर्थन देने के संयुक्त प्रयासों को विफल किया था ।
1977 में इथियोपिया-सोमालिया विवाद में सोवियत संघ ने सोमालिया के विरुद्ध इथियोपिया को हथियार दिये और अमरीका ने सोमालिया की सहायता की । रोडेशिया में पश्चिमी शक्तियां इयान स्मिथ का समर्थन करती थीं और सोवियत संघ देशभक्त मोर्चे का समर्थन करता था ।
पश्चिमी देश दक्षिणी अफ्रीका की रंगभेद नीति का समर्थन करते और सोवियत संघ इसका कट्टर विरोधी रहा । राष्ट्रपति कार्टर ने क्यूबा में सोवियत सेना की उपस्थिति पर चिन्ता प्रकट की । इससे पूर्व वाशिंगटन में हुए नाटो शिखर सम्मेलन में कार्टर ने वारसा शक्तियों की सेनिक क्षमताओं की चर्चा करते हुए नाटो शक्तियों के आधुनिकीकरण पर जोर दिया था ।
1979 के अन्त में अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप पर अमरीका ने बहुत बावेला मचाया । राष्ट्रपति कार्टर ने अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप को विश्व-शान्ति के लिए एक गम्भीर खतरे की संज्ञा दी । राष्ट्रपति कार्टर के शासनकाल के उत्तरार्द्ध के दिनों में “सोवियत संघ के साथ सम्बन्धों में निरन्तर बिगाड़ के कारण जिस तरह की राजनीतिक स्थिति पैदा हो गयी उससे अमरीका और सोवियत संघ में एक प्रकार के शीत-युद्ध का नवीनीकरण हो गया ।”
सन् 1983 के मध्य में द. कोरिया के विमान को सोवियत संघ द्वारा मार गिराये जाने की अमरीका में सबसे तीखी प्रतिक्रिया हुई । मध्य सितम्बर (1983) में आरम्भ हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा अधिवेशन में भाग लेने के लिए सोवियत विमान से आने वाले वहां के विदेश मन्त्री श्री ग्रोमिको को अमरीका ने आवश्यक सुरक्षा प्रदान करने में असमर्थता प्रकट कर दी । इस पर सोवियत संघ की सरकार ने यह मांग की कि संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय को अमरीका से हटाया जाये ।
सन् 1986 में अमरीकी स्टारवार कार्यक्रम के विरुद्ध सोवियत संघ ने भी जवाबी कार्यवाही आरम्भ कर दी । फरवरी 1987 में सोवियत संघ ने अपने ऊपर लगाये गये प्रतिबन्ध को समाप्त करते हुए परमाणु परीक्षण किया और अमरीका को चेतावनी दी कि यदि 1987 में अमरीका ने परमाणु परीक्षण किया तो वह भी इसे पुन: शुरू कर देगा । सन् 1988 के प्रारम्भ में राष्ट्रपति रीगन द्वारा कांग्रेस को प्रस्तुत दस्तावेज यह संकेत करते थे कि सोवियत संघ के प्रति अविश्वास अब भी अमरीका की राष्ट्रीय नीति का आधार बना हुआ था ।
Essay # 5. शीत-युद्ध के विशिष्ट साधन (Techniques of the Cold War):
शीत-युद्ध के विशिष्ट साधन क्या थे ? युद्ध के साधन होते हैं अस्त्र-शस्त्र, गोला तथा बारूद ।
शीत-युद्ध के मोटे रूप से निम्नांकित साधन थे:
प्रथम:
शीत-युद्ध का सबसे प्रमुख साधन था प्रचार । शीत-युद्ध वाक् युद्ध था । युद्ध में जो कार्य हथियारों से होता है वही कार्य शीत-युद्ध में शब्दों द्वारा किया गया । शीत-युद्ध में शब्द ही गोला-बारूद का काम करते थे । शीत-युद्ध में प्रचार का उद्देश्य था-शत्रु राष्ट्र के प्रति तीव्र धृणा जाग्रत करना, अपने राष्ट्रीय आदर्शों के प्रति निठा बनाये रखना मित्र-राष्ट्रों के प्रति सौहार्द की भावना विकसित करना । शीत-युद्ध में रेडियो टेलीविजन समाचार-पत्रों पत्रिकाओं आदि प्रचार माध्यमों से निरन्तर विपक्षी राष्ट्रों को शोषक और अत्याचारी बताया गया ।
द्वितीय:
शीत-युद्ध का अन्य साधन अपनी शक्ति का प्रदर्शन था अपनी सैनिक और तकनीकी शक्ति की श्रेष्ठता का प्रदर्शन और शत्रु पक्ष को कमजोर बताना अपरिहार्य माना गया ।
तृतीय:
कमजोर और अविकसित राष्ट्रों को आर्थिक और अन्य सहायता देना भी शीत-युद्ध का एक साधन था । आर्थिक सहायता का उद्देश्य उन्हें अपने गुट में शामिल करना होता था ।
चतुर्थ:
शीत-युद्ध का एक अन्य साधन जासूसी था । दोनों ही पक्ष जासूसी के तरीकों से एक-दूसरे की सैनिक शक्ति का पता लगाने की कोशिश करते रहते थे । यू-2 विमान काण्ड जासूसी के तरीकों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है ।
पंचम:
ADVERTISEMENTS:
शीत-युद्ध का एक साधन कूटनीति था । यह कूटनीतिक साधनों से लड़ा गया था । इसमें दोनों महाशक्तियां कूटनीतिक साधनों से एक-दूसरे को निर्बल बनाने का प्रयास करती रहती थीं ।
Essay # 6. निष्कर्ष : शीत-युद्ध का अन्त (Conclusions: End of the Cold War):
सन् 1989 में विश्व इतिहास में चमत्कारी मोड़ आया । शीत-युद्ध के मूल कारणों की समाप्ति हो गयी । बर्लिन की दीवार का पतन हो गया, जर्मनी का एकीकरण हो गया वारसा पैक्ट भंग कर दिया गया और दोनों महाशक्तियों के बीच सहयोग के मधुर सम्बन्धों का सूत्रपात हुआ ।
यह शीत-युद्ध की समाप्ति का ही परिणाम था कि खाड़ी संकट (1989-90) के समय सोवियत संघ और अमरीका ने मिलकर सुरक्षा परिषद् प्रस्तावों का समर्थन किया । शीत-युद्ध के अन्त का मुख्य कारण पूर्वी यूरोप में साम्यवाद का ध्वस्त होना तथा सोवियत संघ में उभरता हुआ आर्थिक एवं राजनीतिक संकट था ।
सोवियत संघ अमरीका से प्रतिस्पर्द्धा करने की स्थिति में ही नहीं था । राष्ट्रपति गोर्बाच्योव ने सोवियत संघ की स्थिति का यथार्थपरक मूल्यांकन करते हुए शीत-युद्ध की राजनीति का परित्याग करना ही हितकारी समझा । आज ‘शीत-युद्ध’ अतीत की वस्तु बन चुका है ।