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Here is a compilation of essays on the ‘Foreign Policy of U.S.A.’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Foreign Policy of U.S.A.’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on the Foreign Policy of U.S.A.
Essay Contents:
- अमरीकी विदेश नीति : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (The U.S. Foreign Policy : Historical Background)
- द्वितीय महायुद्धोत्तरकालीन अमरीकी विदेश नीति (The Post-Second War U.S. Foreign Policy)
- संयुक्त राज्य अमरीका की विदेश नीति (The Foreign Policy of the U.S.A.: Basic Factors)
- अमरीकी विदेश नीति : उद्देश्य (The U.S. Foreign Policy: Objects)
- अमरीकी विदेश नीति की विशेषताएं (Salient Features of U.S. Foreign Policy)
- राष्ट्रपति हुसैन और अमरीकी विदेश नीति (1945-1952) (President Truman and U.S. Foreign Policy, 1945-1952)
- राष्ट्रपति आइजनहॉवर और अमरीकी विदेश नीति (1953-1960) (President Eisenhower and U.S. Foreign Policy, 1953-1960)
- राष्ट्रपति कैनेडी और अमरीकी विदेश नीति (1960-63) (President Kennedy and U.S. Foreign Policy, 1960-63)
- राष्ट्रपति जॉनसन और अमरीकी विदेश नीति (1964-68) (President Johnson and U.S. Foreign Policy, 1964-68)
- राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और अमरीकी विदेश नीति (1969-74) (President Nixon and U.S. Foreign Policy, 1969-74)
- राष्ट्रपति फोर्ड और अमरीकी विदेश नीति (1974-77) (President Ford and U.S. Foreign Policy, 1974-77)
- राष्ट्रपति कार्टर और अमरीकी विदेश नीति (1977-80) (President Carter and U.S. Foreign Policy, 1977-80)
- राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और अमरीकी विदेश नीति (1981-88) (President Ronald Reagan and U.S. Foreign Policy, 1981-88)
- राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और अमरीकी विदेश नीति (1989-1992) (President George Bush and U.S. Foreign Policy, 1989-1992)
- राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और अमरीकी विदेश नीति (1993 से 2000) (President Bill Clinton and U.S. Foreign Policy, 1993 to 2000)
- राष्ट्रपति जार्ज वाकर बुश और अमेरिकी विदेश नीति (2001 से) (President George W.Bush and U.S. Foreign Policy, From January 2001)
- अमरीकी विदेश नीति : मूल्यांकन (The U.S. Foreign Policy: An Estimate)
Essay # 1. अमरीकी विदेश नीति : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (The U.S. Foreign Policy : Historical Background):
1783 में संयुक्त राज्य अमरीका अटलाण्टिक महासागर के पश्चिमी किनारे पर 13 छोटे-छोटे राज्यों का संघात्मक राज्य स्थापित हुआ । 1812 में ब्रिटेन से और 1861-65 के गृह-युद्ध से वह अवश्य त्रस्त रहा । इसके अतिरिक्त उसे किसी युद्ध में सम्मिलित नहीं होना पड़ा अत: पुरानी दुनिया से दूर पार्थक्यकरण की नीति को अपनाते हुए तीव्र गति से उन्नति करता रहा ।
अमरीका के पहले राष्ट्रपति वाशिंगटन ने अपने शासनकाल में तटस्थता की नीति अपनायी । इस नीति के पक्ष में उन्होंने कहा था कि ”हमें यूरोप के झगड़ों से बिल्कुल विलग होकर तटस्थता की नीति निर्धारित करनी है यही हमारी सफलता की कुन्जी है…….हमें किसी भी देश के साथ स्थायी सन्धियां अथवा समझौते में नहीं बंधना चाहिए केवल गम्भीर अवस्था में अस्थायी सन्धि की जा सकती है ।”
जेफरसन ने भी वाशिंगटन की नीति का अनुसरण किया । 1823 में राष्ट्रपति मुनरो ने यूरोपीय शक्तियों को चेतावनी देते हुए कहा था कि, ”हम बता देना चाहते हें कि यूरोपीय राज्यों ने अपनी प्रणाली को अमरीकी गोलार्द्ध में फैलाने का कोई प्रयत्न किया तो उनके इस यत्न को हमारी शान्ति एवं सुरक्षा के लिए खतरा समझा जाएगा…..यदि यूरोपीय राष्ट्रों द्वारा हस्तक्षेप किया गया तो उसे संयुक्त राज्य अमरीका के प्रति
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अमित्रतापूर्ण रुख के अतिरिक्त और कुछ न समझ सकेंगे ।”
इसे पार्थक्य सिद्धान्त भी कहा जाता है । 19वीं शताब्दी में अमरीका ने ‘पार्थक्य नीति’ (Isolation Policy) या ‘अहस्तक्षेप नीति’ का पालन किया । 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में अमरीका ने विश्व राजनीति में दिलचस्पी लेनी प्रारम्भ कर दी । 1901 में थियोडोर रूजवेल्ट अमरीका के राष्ट्रपति बने ।
उनका मानना था कि अमरीका विश्व की महानतम् शक्ति है अत: उसने विश्व राजनीति में अपना प्रभाव बढ़ाने का निश्चय किया । 1904-05 में जापान-रूस युद्ध को समाप्त करने में उसने दिलचस्पी ली और उस युद्ध को समाप्त करने में उसे सफलता प्राप्त हुई ।
1906 में जर्मनी और फ्रांस में मोरक्को के विषय में झगड़ा प्रारम्भ हुआ और अमरीका ने मध्यस्थता करके दोनों देशों में समझौता कराया और विश्व-शान्ति को भंग होने से बचाया । 1914 में प्रथम विश्व-युद्ध के समय अमरीका युद्धरत-राज्यों को युद्ध-सामग्री बेच-बेचकर काफी आर्थिक लाभ उठा रहा था पर जब जर्मन पनडुब्बियों ने अमरीका के नि:शस्त्र तेलवाहक जहाजों को डुबाना प्रारम्भ किया तो अमरीका में उत्तेजना फैल गयी और 6 अप्रैल, 1917 को अमरीका ने बाकायदा जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी ।
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अमरीका के युद्ध में प्रवेश करते ही युद्ध का पासा पलट गया और जर्मनी की हार होना प्रारम्भ हो गयी । अमरीकी राष्ट्रपति विल्सन ने राष्ट्र संघ के निर्माण में गहरी दिलचस्पी ली । किन्तु नवम्बर 1920 में राष्ट्रपति का चुनाव हुआ और रिपच्छिकन सदस्य वारेन हार्डिंग नए राष्ट्रपति चुने गए ।
मार्च 1921 में नए राष्ट्रपति ने घोषणा की कि अमरीका राष्ट्र संघ में भाग नहीं लेगा । राष्ट्रपति हार्डिंग ने पुन: अमरीकी पृथकतावाद की नीति अपनायी । मार्च 1933 में फ्रेन्कलिन डी. रूजवेल्ट के राष्ट्रपति बनने के बाद अमरीकी विदेश नीति स्पष्ट रूप से पृथकतावाद से शनै:-शनै: अन्तर्राष्ट्रीयतावाद की ओर उन्मुख होने लगी ।
7 दिसम्बर, 1941 को जब एकदम आकस्मिक रूप से जापान ने पर्ल हारबर पर प्रलयकारी बम-वर्षा कर दी तो 8 दिसम्बर को जापान के विरुद्ध अमरीकी कांग्रेस द्वारा युद्ध की घोषणा कर दी गयी और तीन दिन बाद ही अमरीका को जर्मनी और इटली के साथ भी उलझ जाना पड़ा ।
Essay # 2. द्वितीय महायुद्धोत्तरकालीन अमरीकी विदेश नीति (The Post-Second War U.S. Foreign Policy):
द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् अमरीका ने अपने को एकदम नयी स्थिति में पाया । इस महायुद्ध ने जर्मनी, जापान और इटली की शक्ति को नष्ट कर दिया तथा ब्रिटेन एवं फ्रांस को इतना अधिक कमजोर बना दिया कि वे द्वितीय श्रेणी की शक्तियां मात्र रह गए ।
अमरीका ने पाया कि युद्ध के बाद वह न केवल विश्व की महानतम् शक्ति है, अपितु साम्यवाद और सोवियत संघ विरोधी पश्चिमी दुनिया का प्रधान संरक्षक और नेता भी है। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् अमरीकी विदेश नीति का प्रधान लक्ष्य साम्यवादी खतरे का सामना करने और सोवियत सघ तथा साम्यवादी चीन के प्रभाव-क्षेत्र की वृद्धि को रोकने की दृढ़ व्यवस्था करना रहा है । इसके लिए उसने अलगाववाद का परित्याग कर न केवल यूरोप के मामलों में रुचि ली वरन् सुदूरपूर्व, मध्य-पूर्व, दक्षिण-पूर्वी एशिया और अफ्रीका के मामलों में सक्रिय दिलचस्पी ली ।
शूमां के शब्दों में- ”प्रथम महायुद्ध के बाद अमरीका आसानी से अलगाववादी नीति का अनुसरण कर सकता था क्योंकि धुरी राष्ट्रों की पराजय के बाद यूरोप और एशिया में एक नया शक्ति-सन्तुलन स्थापित हो गया था, परन्तु द्वितीय महायुद्ध के बाद अमरीका के लिए पार्थक्य नीति का अनुसरण करना सम्भव नहीं था, क्योंकि नाजी राष्ट्रों के त्रिगुट की हार के बाद यूरोप और एशियाई देशों पर साम्यवादी राष्ट्रों का प्रभाव बढ़ता जा रहा था ।”
Essay # 3. संयुक्त राज्य अमरीका की विदेश नीति (The Foreign Policy of the U.S.A.: Basic Factors):
अमरीकी विदेश नीति प्रतियोगी उद्देश्यों एवं दबावों का एक दर्पण है । वह राष्ट्रीय स्वार्थ व अव्यावहारिक आदर्शवाद का विचित्र मिश्रण है । अमरीका के लोगों की यह विशेषता है कि वे अपनी समस्या को सम्पूर्ण मानव समुदाय की समस्या समझ लेते हैं । अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं में अस्पष्ट होते हुए भी अमरीका के लोग सदैव यह समझ लेते हैं कि वे सन्मार्ग पर हैं । यह वृत्ति जॉर्ज वाशिंगटन से ही चली आ रही है ।
‘अमरीकन इण्डियन’ के अतिरिक्त संयुक्त राज्य अमरीका के सभी लोग बाहर से आए हुए ‘आगत जातियों’ के हैं । उनकी विशाल संख्या यूरोप से आयी थी और अन्तर्राष्ट्रीय तनाव के समय वे अब भी उस पुराने महाद्वीप से धृणा और प्रेम करते हैं जिससे कि वे नाता तोड़ चुके हैं ।
यूरोप न केवल उनकी सभ्यता की मातृ-भूमि है वरन् उनके अनुयायियों का लगभग आधा भाग बसता भी वहीं है । जब कभी यूरोप के विनाश का भय होता है तो अमरीकी लोग चौकन्ने हो जाते हैं । जब कभी यूरोप पर संकट आता है तो अमरीका में भी भारी राजनीतिक संघर्ष उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता । यही कारण है कि यह कहा जाता है ”अमरीकी पश्चिम की ओर मुंह करके जन्म लेते हैं ।”
संयुक्त राज्य अमरीका की विदेश नीति वहां के निवासियों के चरित्र व उनकी महत्वाकांक्षाओं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति उनकी प्रतिक्रियाओं एवं वहां के राष्ट्रपति और कांग्रेस के संयुक्त प्रभाव पर आधारित है । अमरीका की विदेश नीति किसी भी विदेश नीति की भांति वहां की जनता के ऐतिहासिक अनुभवों, भौगोलिक स्थिति, प्राकृतिक साधनों, सुरक्षात्मक तनाव, मानवीय स्रोत जनसंख्या वैदेशिक मामलों में कुशलता राष्ट्रीय लक्ष्य और हित आदि पर आधारित है ।
अमरीकी विदेश नीति के कतिपय महत्वपूर्ण निर्माणक तत्व अग्रलिखित हैं:
1. भोगोलिक स्थिति:
एक फ्रेंच राजदूत ने कहा था कि ”यह देश ऐसा भाग्यशाली है कि उत्तर और दक्षिण में तो इसकी सीमाओं पर निर्बल पड़ोसी बसते हैं और पूरब एवं पश्चिम में मछलियां ।” भौगोलिक स्थिति की दृष्टि से अमरीका भाग्यशाली है उसके पास प्राकृतिक साधनों का विपुल भण्डार है ।
इस भौगोलिक स्थिति के कारण अमरीका की विश्व में वाणिज्य और व्यापार में आशातीत वृद्धि हुई है । अमरीका की आधारभूत नीतियां उसकी भौगोलिक स्थिति और पश्चिमी गोलार्द्ध की सुरक्षा के लिए अनुकूल परिस्थितियों से उत्पन्न हुई हैं । जलवायु, पहाड़ों और नदियों ने राष्ट्र के विकास और एकता में बाधा नहीं पहुंचायी है ।
2. प्राकृतिक साधन:
यदि आर्थिक आत्म-निर्भरता शक्ति का एक तत्व है तो अमरीका आवश्यकता पड़ने पर सभी खतरों का सामना कर सकता हैं । खाद्योत्पादन जो कि कभी गृह समस्या थी आज अमरीकी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में एक महत्वपूर्ण विषय बन गया है ।
3. सुरक्षात्मक शक्ति:
निर्बलता सुरक्षा का कोई विकल्प नहीं है । उन नीतियों की अपेक्षा जो उच्च आदर्शों और ऊंची आशाओं पर आधारित होती हैं शक्ति नीतियां अधिक सफल होती हैं । अमरीका के लोगों का विचार है कि विदेश नीति को सैनिक कार्यक्रम द्वारा सहायता मिलनी ही चाहिए ताकि राष्ट्र को सुरक्षित रखा जा सके ।
4. मानवीय स्रोत:
औसत अमरीकी श्रमिकों का प्रति व्यक्ति उत्पादन अधिकतर गैर-पश्चिमी देशों के श्रमिकों के उत्पादन की तुलना में बहुत ऊंचा है । अमरीका की विदेश नीति के निर्माण में इस प्रकार उसकी जनसंख्या के आकार और गुणात्मक विशेषता का महत्वपूर्ण हाथ है ।
5. गृह नीति और दबाव गुट:
गृह नीति और दबाव गुटों का अमरीका की विदेश नीति पर इतना प्रभाव पड़ता है कि अनेक बार अमरीका की कार्यपालिका के लिए उसकी अवहेलना करना असम्भव हो जाता है । अमरीका की फिलिस्तीन सम्बन्धी नीति अल्पसंख्यक यहूदियों की मांग को ध्यान में रखकर बनायी गयी थी । धार्मिक और व्यापारिक संस्थाएं तथा दूसरे सामाजिक संगठन भी विदेश नीति को अपने हितों के अनुरूप प्रभावित करते रहते हैं ।
6. संवैधानिक बन्धन:
जनतन्त्रात्मक और संघीय प्रणाली वाला राष्ट्र होने के कारण अमरीका की विदेश नीति को अनेक संवैधानिक संकटों का सामना करना पड़ता है । संविधान और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों ने विदेश नीति के सचालन में केन्द्रीय सरकार के हाथों को जकड़ रखा है । राष्ट्रपति को यदि विदेश नीति के संचालन की जिम्मेदारी दी है तो उसके ‘युद्ध’ और ‘सन्धि’ आदि के निर्णयों पर सीनेट का अंकुश लगा रखा है ।
7. दलगत सहयोग:
अमरीका की विदेश नीति का निर्माण बहुत कुछ दलगत सहयोग और प्रशासनिक समन्वय पर निर्भर रहता है । विदेश नीति के संचालन में उस समय बहुत कठिनाई अनुभव होती है, जबकि राष्ट्रपति उस दल का नहीं होता जिसका कि कांग्रेस में बहुमत होता है ।
हाल ही में अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की विदेश नीति के साथ-साथ व्यापक परमाणु परीक्षण निषेध सन्धि (CTBT) के भविष्य को एक बड़ा झटका उस समय लगा जब रिपब्लिकनों के वर्चस्व वाली अमरीकी सीनेट ने इसका अनुमोदन नहीं किया । 100 सदस्यों वाली सीनेट में 13 अक्टूबर, 1999 को इसकी पुष्टि के लिए हुए मतदान में सीनेट ने इसे 48 के मुकाबले 51 मतों से अस्वीकार कर दिया ।
सन्धि के अनुमोदन के लिए दो-तिहाई मतों (67 मत) का इसके पक्ष में होना आवश्यक था । राष्ट्रपति क्लिंटन ने सन्धि के अनुमोदन के लिए भारी प्रयास करते हुए इसके लिए सीनेटरों से अपील की थी । राष्ट्रपति पद के अपने मौजूदा दूसरे कार्यकाल में इस सन्धि को ही उन्होंने अपनी विदेश नीति का प्रमुख मुद्दा बनाया था ।
Essay # 4. अमरीकी विदेश नीति : उद्देश्य (The U.S. Foreign Policy: Objects):
यह सर्वमान्य तथ्य है कि प्रत्येक राष्ट्र के अपने स्वार्थ होते हैं जिन पर वह अपनी विदेश नीति आधारित करता है । संयुक्त राज्य अमरीका इसका अपवाद नहीं है ।
अमरीका की विदेश नीति के निम्नांकित लक्ष्य बताए जा सकते हैं:
1. राष्ट्रीय सुरक्षा:
अमरीका की विदेश नीति का मुख्य लक्ष्य इस प्रकार की व्यवस्था करना है ताकि उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा पर किसी प्रकार की आच न आने पाए । इसलिए अमरीका यूरोप, एशिया तथा अफ्रीका में शक्ति-सन्तुलन बनाए रखना चाहता है ।
यूरोप में पश्चिमी जर्मनी और एशिया में जापान व पाकिस्तान का समर्थन उसकी इसी आवश्यकता पर आधारित रहे हैं ताकि सोवियत संघ और साम्यवादी शक्तियों के विरुद्ध शक्ति-सन्तुलन स्थापित किया जा सके ।
2. जनतन्त्र की रक्षा:
अमरीका जनतन्त्र का प्रबल समर्थक है । प्रथम महायुद्ध उसने जनतन्त्र की रक्षा के लिए लड़ा था । द्वितीय महायुद्ध के समय रूजवेल्ट ने अमरीका का उद्देश्य हिटलर की तानाशाही को नष्ट करना तथा विश्व में प्रत्येक स्थान पर चार स्वतन्त्रताओं-भाषण की स्वतन्त्रता धर्म की स्वतन्त्रता अभाव से स्वतन्त्रता और भय से स्वतन्त्रता की स्थापना करना बताया था ।
3. साम्यवाद का अवरोध:
द्वितीय महायुद्ध के बाद अमरीका ने साम्यवाद के बढ़ते हुए प्रसार को रोकने का दृढ़ संकल्प ले रखा है । चेस्टर बोल्स के शब्दों में- ”युद्ध के बाद-मुख्यत: अमरीकी कूटनीति साम्यवाद को उसके विस्तारशील सोवियत और चीनी रूपों में विशाल रूस और चीनी सीमा के चारों ओर शक्ति की स्थितियां उत्पन्न करके रोक रखने की रही है ।” इसके लिए अमरीका ने प्रत्येक सोवियत विस्तारवादी कार्य के मार्ग में विप्न डालने का निश्चय किया ।
4. तनाव कम करना:
सोवियत संघ और अमरीका दोनों ही पारस्परिक तनाव को कम करने की चर्चा करते रहे हैं और दोनों ही एक-दूसरे पर तनाव बढ़ाने का आरोप लगाते रहे हैं । अणु परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (1963), परमाणु अप्रसार सन्धि (1968), साल्ट-प्रथम एवं द्वितीय समझौतों तथा आई. एन. एफ. सन्धि (1987), स्टार्ट सन्धि (1991 एवं 1993) पर दोनों महाशक्तियों द्वारा हस्ताक्षर किए जाने से इस विचार को समर्थन मिलता है कि अमरीका सोवियत संघ एवं रूस के साथ अपने तनावपूर्ण सम्बन्धों को सुधारना चाहता था ।
5. विश्व-शान्ति:
डलेस ने 1955 में कहा था कि ”हमारी विदेश नीति का व्यापक लक्ष्य संयुक्त राज्य के लोगों को शान्ति और स्वतन्त्रता का सुख भोगने का अवसर प्रदान करना है ।”
6. नई विश्व व्यवस्था का निर्माण:
सोवियत संघ के अवसान तथा सोवियत संघ एवं पूर्वी यूरोप में साम्यवाद के पतन के बाद राष्ट्रपति बुश ने नई विश्व व्यवस्था के निर्माण का उद्देश्य घोषित किया । यह ऐसी विश्व व्यवस्था होगी जिसमें अमरीका अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का केन्द्रीय ध्रुव होगा विश्व में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का सुदृढ़ीकरण होगा तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णय अमरीकी विदेश नीति के उद्देश्यों के अनुरूप होंगे ।
आज संयुक्त राज्य अमेरिका अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का केन्द्रीय ध्रुव है, वह विश्व की एकमात्र महाशक्ति है । उसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता, उसे कोई ललकार या चुनौती नहीं दे सकता । उसके पास परमाणु अस्त्रों की ही प्रचण्ड शक्ति नहीं उसके पास आर्थिक क्षमता भी अत्यधिक है ।
इस समय विश्व की आय का एक-तिहाई हिस्सा अमरीका में उत्पन्न हो रहा है । अमरीका विश्व का सबसे बड़ा आयातक है । विश्व व्यापार का पांचवां हिस्सा अमरीका से होता है । अमरीका की भूख इतनी अधिक है कि विश्व के अधिकतर देश अपने निर्यातों के लिए अमरीका पर निर्भर हो चुके हैं ।
इन्टरनेट, आदि के तकनीकी आविष्कारों से वहां के पूंजी बाजार मे तेजी आई है । विश्व की पूंजी अमरीका की ओर दौड़ रही है डॉलर की मांग बढ़ रही है डॉलर महंगा हो रहा है । डॉलर के दृढ़ होने से दूसरे देश अपने विदेशी मुद्रा भण्डार को डॉलर में रखना पसन्द करते हैं । इससे डॉलर को विश्व मुद्रा की संज्ञा मिल गई है ।
डॉलर की ताकत से अमरीका का अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक एवं संयुक्त राष्ट्र पर दबाव बढ़ता जा रहा है । ये संस्थाएं अमरीका के इशारे पर कार्य करने लगी हैं । संयुक्त राष्ट्र संघ ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक जैसी अन्तर्राष्ट्रीय वित्त संस्थाएं भी उसकी मुट्ठी में हैं ।
7. आतंकवाद का उन्मूलन:
11 सितम्बर, 2001 से पूर्व अमरीका विश्व में उग्रवाद को रोकने के लिए नाटकीय वक्तव्य ही देता रहा है । भारत जैसे देशों में आतंकवाद निर्दोष लोगों की देह तक को झुलसाता रहा और अमरीका शाब्दिक संवेदना प्रकट करके अलग खड़ा होता रहा । भारत द्वारा ठोस सबूत पेश करने के बावजूद पाकिस्तान को आतंककारी देश घोषित करने को अमरीका तैयार नहीं हुआ ।
विश्व व्यापार केन्द्र और पेंटागन पर हमला पहली बार अमरीका पर सीधा आतंककारी हमला है । अब अमरीकी राष्ट्रपति कहते: “यह हमारे देश के खिलाफ युद्ध की कार्यवहियां हैं……यह छदम् युद्ध है……..इस युद्ध को जीतने के लिए अमरीका कृतसंकल्प है……।” अमरीका ने बदले की कार्यवाही के लिए विश्व व्यापी समर्थन जुटाने का राजनयिक प्रयास शुरू किया । अमरीका के अनुसार आतंकवादी हमले अमरीका के खिलाफ युद्ध नहीं बल्कि यह युद्ध समूची सभ्यता के खिलाफ है ।
Essay # 5. अमरीकी विदेश नीति की विशेषताएं (Salient Features of U.S. Foreign Policy):
द्वितया महायुद्ध के बाद अमरिकी विदेश नीति की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
1. साम्यवाद का अवरोध:
द्वितीय महायुद्ध के बाद ‘साम्यवाद का अवरोध’ (Containment of Communism) अमरीकी विदेश नीति की आधारभूत विशेषता रही है । साम्यवाद के अवरोध की नीति का अर्थ है जहां कहीं सोवियत संघ ‘दबाव’ का प्रयोग करता है वहां संयुक्त राज्य अमरीका ‘प्रति-दबाव’ का प्रयोग करेगा ।
जार्ज अर्ल के शब्दों में- ”सोवियत संघ नाजी खतरे से भी अधिक अत्यधिक बड़ा खतरा है ।” अमरीकी विदेश नीति के अन्य सभी तत्व द्वि-पक्षीय या बहु-पक्षीय सुरक्षा सन्धियां सैनिक संगठन विदेशों में सैनिक अड्डों की स्थापना, शस्त्रों की होड़ आदि ‘साम्यवाद के अवरोधक’ की नीति के परिणाम थे । चार्ल्स लर्च के अनुसार- ”संयुक्त राज्य ने प्रत्येक सोवियत विस्तारवादी कार्य के मार्ग में विघ्न डालने का निश्चय किया ।
विश्व के किसी भी भाग में जहां सोवियत संघ और चीन अपना साम्राज्य फैलाना चाहते थे वहां संयुक्त राज्य विरोध करने के लिए कृत-संकल्प था । इस नीति के क्रियान्वयन ने अमरीका को यूरोप में सैनिक सन्धियां करने के लिए अफ्रीका में संयुक्त राष्ट्र की कार्यवाही का समर्थन करने के लिए दक्षिण-पूर्वी एशिया में खुले तौर पर युद्ध करने के लिए लैटिन अमरीका में विशाल स्तर पर दीर्घकालीन विकास सहायता योजनाओं का उत्तरदायित्व वहन करने के लिए प्रेरित किया है……प्रत्येक मामले में साम्यवादी विस्तार को निरुत्साहित करने की भावना एक स्थायी तत्व है ।”
2. सैनिक सन्धियों की नीति:
अमरीका ने साम्यवाद का अवरोध करने के लिए सैनिक सन्धियों एवं मैत्रियों का निर्माण किया । इनमें प्रमुख हैं : रीओ सन्धि, नाटो सन्धि, एन्जस सन्धि, सीटी सन्धि, बगदाद पैक्ट (सेण्टो सन्धि) आदि । लैटिन अमरीकी राज्यों के साथ 1947 में अमरीका ने रीओ सन्धि पर हस्ताक्षर किए । आज इस सन्धि का व्यावहारिक रूप ‘अमरीकी राज्यों का संगठन’ (O.A.S.) है ।
4 अप्रैल 1949 को अमरीका ने पश्चिमी यूरोप के कतिपय देशों के साथ नाटो सन्धि पर हस्ताक्षर किए । दक्षिण-पूर्वी एशिया और दक्षिण-पश्चिम प्रशान्त महासागर क्षेत्र को साम्यवाद से बचाने के लिए 1957 में मनीला सीट सन्धि पर हस्ताक्षर किए गए । 1951 में आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड तथा अमरीका ने एन्जस समझौते पर हस्ताक्षर किए ।
अमरीका ने जापान, ताइवान तथा पाकिस्तान के साथ द्वि-पक्षीय सन्धियां कीं । इनके अतिरिक्त, यूरोपीय राष्ट्रों की सैनिक शक्ति को बढ़ाने के लिए 25 जुलाई 1949 को पारस्परिक प्रतिरक्षा सहायता कार्यक्रम को शुरू किया गया और 1951 में पारस्परिक सहायता सुरक्षा कानून बनाया गया ।
शीतयुद्ध के अन्त के बाद भी अमरीका नाटो के विस्तार के लिए कृतसंकल्प है । अमरीकी पहल पर ही पूर्वी यूरोप के तीन प्रमुख देश-पोलैण्ड, हंगरी और चैक गणतन्त्र-को इस संगठन में शामिल कर लिया गया है ।
3. विदेशी आर्थिक सहायता की नीति:
विदेशी आर्थिक सहायता अमरीकी विदेश नीति का अभिन्न अंग है । विदेशी आर्थिक सहायता कार्यक्रम के कई उद्देश्य हैं:
(i) आर्थिक सहायता द्वारा राष्ट्रों को आत्म-निर्भर बनाना,
(ii) आर्थिक और तकनीकी सहायता देकर साम्यवाद के खतरे को टालना,
(iii) आर्थिक और सैनिक सहायता द्वारा विदेशों में पारस्परिक महत्व की सुविधाओं, सैनिक अड्डों, बन्दरगाहों, आदि की सुविधा प्राप्त करना ।
द्वितीय महायुद्ध के बाद अमरीका ने आर्थिक और तकनीकी सहायता के कई महत्वपूर्ण कार्यक्रम शुरू किए, जैसे:
(i) उदार पट्टा कार्यक्रम:
इसके अन्तर्गत दी जाने वाला अमरीकी आर्थिक सहायता की कुल राशि 1945 तक 49.1 बिलियन डॉलर तक पहुंच गयी थी । सहायता प्राप्त करने वाले देश थे ब्रिटेन फ्रांस सोवियत संघ और चीन ।
(ii) मार्शल योजना:
मार्शल योजना के अन्तर्गत यूरोप के 16 राज्यों को 1948-1952 की अवधि में 20 अरब डॉलर की सहायता देना स्वीकार किया गया । इसका उद्देश्य यूरोप के राष्ट्रों को साम्यवाद से बचाना था ।
(iii) चार-सूत्रीय कार्यक्रम:
इस कार्यक्रम को अमरीकी राष्ट्रपति ट्रूमैन ने 20 फरवरी, 1949 को कांग्रेस के समक्ष प्रस्तुत किया । इसका मूल उद्देश्य अल्प-विकसित राष्ट्रों को अमरीकी तकनीकी सहायता की सुविधाएं उपलब्ध कराना था ।
(iv) अन्तर्राष्ट्रीय विकास योजना:
1961 में विदेशी सहायता अधिनियम के अन्तर्गत इसे राष्ट्रपति कैनेडी ने शुरू किया था । इस कार्यक्रम के अन्तर्गत सहायता प्राप्त करने वाले देश मुख्यत: एशिया के राष्ट्र थे ।
(v) प्रगति के लिए मैत्री:
यह योजना लैटिन अमरीकी राज्यों के विकास के लिए बनायी गयी ।
4. मानवाधिकारों का समर्थन:
अमरीकी विदेश नीति की एक विशेषता मानवाधिकारों का समर्थन करना है । कार्टर प्रशासन ने तो मानवाधिकार मुद्दे को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के ताने-बाने में ठोस रूप से लपेट दिया । कार्टर प्रशासन ने मानवाधिकारों की देख-रेख के लिए स्टेट डिपार्टमेण्ट में एक पृथक् ब्यूरो की स्थापना की । अमरीकी राजदूतों का यह व्यक्तिगत उत्तरदायित्व बन गया कि वे दूसरे देशों में मानवाधिकार सम्बन्धी नीति को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करें ।
5. लोकतन्त्र बहाली के नाम पर पड़ोसी देशों में हस्तक्षेप:
अमरीका ने पिछली सदी के उत्तरार्द्ध से मध्य और दक्षिणी अमरीकी देशों में कानून व्यवस्था और लोकतन्त्र की बहाली तथा अमरीकी नागरिकों के हितों के नाम पर साठ से अधिक बार दखल (हस्तक्षेप) किया ।
द्वितीय महायुद्ध के बाद भी अमरीका ने अपने आसपास दखल का सिलसिला जारी रखते हुए 1983 में ग्रेनेडा में और 1989 में पनामा में दखल किया । अमरीका ने 1965 में डोमिनिकन गणराज्य में दखल किया और तत्कालीन राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन ने वहां 14,000 नौ सैनिक भेजे ।
उन्होंने अपने इस आदेश को यह कहते हुए जायज ठहराया था कि डोमिनिकन गणराज्य में उन्हें अमरीकी नागरिकों की रक्षा करनी है । राष्ट्रपति जॉनसन ने यह भी दावा किया था कि दखल का मकसद डोमिनिकन में साम्यवाद स्थापित होने से रोकना है । अमरीकी सैनिक 1966 में वहां से लौट गए थे । ग्रेनेडा में 25 अक्टूबर, 1983 को अमरीका के 1,900 सैनिक उतरे ।
सितम्बर 1994 में लोकतन्त्र बहाली के नाम पर अमरीकी सेनाएं हैती की राजधानी पोर्तु प्रिंस के नागरिक विमान तल पर उतरीं । वैसे अमरीका हैती में पहले भी दखल कर चुका है । अमरीकी नौसैनिक जुलाई 1915 में हैती में उतरे थे । उस समय वहां गम्भीर राजनीतिक उथल-पुथल और वित्तीय संकट था ।
अमरीकी सैनिक 1934 में वापस हुए थे और उस समय अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डी. रूजवेल्ट ने हैती के संविधान का प्रारूप तैयार कराया था । हैती का वित्तीय नियन्त्रण 1947 तक अमरीका के हाथ में ही रहा था ।
6. विकासशील देशों पर दबाव बनाये रखने की नीति:
अमरीका विकासशील देशों पर दबाव बनाये रखने की नीति अपनाये हुए है । उदाहरणार्थ, रूस और भारत के बीच क्रायोजेनिक इंजन और उससे सम्बन्धित तकनीक उपलब्ध कराने सम्बन्धी समझौता हो जाने के कारण अमरीका ने एम. ची. सी. आर. के अन्तर्गत पहले बदले की कार्यवाही के रूप में भारत के अंतरिक्ष संगठन इसरो तथा रूस के संगठन ग्लाबकांसयास को दो वर्ष के लिए काली सूची में शामिल किया फिर रूस पर दबाव डालकर भारत से हुए समझौते को रद्द करवा दिया ।
अमरीका की इस नीति का लक्ष्य भारत की रॉकेट टेक्नोलॉजी विकसित करने के प्रयासों को अवरुद्ध करना है । अमरीकी दबाव के कारण ही भारत ने क्यूबा को चावल नहीं बेचे ईरान को परमाणु रिएक्टर बेचने सम्बन्धी प्रस्ताव पर अमल नहीं किया मध्यम दूरी के प्रक्षेपास्त्र ‘अग्नि’ का परीक्षण कुछ समय तक स्थगित किया ।
अमरीका भारत पर निरन्तर दबाव डाल रहा है कि वह परमाणु अप्रसार संधि तथा सी.टी.बी.टी. पर हस्ताक्षर कर दे । जब भारत ने मई 1998 में पोखरण में परमाणु परीक्षण किए तो अमरीका के राष्ट्रपति क्लिंटन ने तुरन्त ही भारत पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने की घोषणा कर दी ।
7. एशिया-प्रशान्त क्षेत्र में विशेष दिलचस्पी:
पिछले लगभग एक दशक में एशिया-प्रशान्त क्षेत्र का तेजी से विकास हुआ है और 21 वीं शती एशिया की शती होने के जो अनुमान लगाए जा रहे हैं उनके कारण इस क्षेत्र के प्रति अमरीका की दिलचस्पी कुछ ज्यादा बढ़ गई है ।
शीत युद्ध की समाप्ति के बाद एशिया-प्रशान्त क्षेत्र में अमरीका की बढ़ती दिलचस्पी का कारण यह भी है कि यूरोपीय साझा बाजार के देश अब अमरीकी माल और पूंजी के उपयुक्त बाजार नहीं रहे । यूरोप अमरीका का सहयोगी न होकर प्रतिद्वन्द्वी हो गया है ।
एशिया-प्रशान्त क्षेत्र में अपनी उपस्थिति बनाए रखने के लिए राष्ट्रपति क्लिंटन ने (नवम्बर 1993) अमरीका के प्रशान्त तटवर्ती नगर सियेटल में एशिया-प्रशान्त आर्थिक सहयोग के 15 सदस्य देशों का शिखर सम्मेलन आयोजित किया ।
क्लिंटन ने कहा- ”एशिया-प्रशान्त क्षेत्र में हो रहा आर्थिक विस्फोट हमारे लिए चिन्ता का विषय है । भय यह है कि रोजगार और बाजार दोनों एशिया के देश छीन ले जाएंगे । हम नहीं चाहते कि एशिया में अपनी सैनिक उपस्थिति बनाये रखें क्षेत्रीय नेतृत्व का बोझ उठायें पर क्षेत्र के आर्थिक विकास से होने वाले लाभ से वंचित रहें न तो यह उचित है और न यह दूरगामी हित में है ।”
एशिया-प्रशान्त क्षेत्र का प्रत्येक देश आयात की बजाय अमरीका को निर्यात ज्यादा करता है । अकेले चीन और जापान के साथ अमरीका 70 अरब डॉलर के घाटे में चल रहा है जो अमरीका के कुल व्यापारिक घाटे के एक-तिहाई के बराबर है ।
8. आतंकवाद को समर्थन या पनाह देने वाला देश अमरीका का दुश्मन माना जाएगा:
21 सितम्बर, 2001 को अमरीकी कांग्रेस को सम्बोधित करते हुए राष्ट्रपति जार्ज बुश ने संयुक्त राज्य अमरीका को आतंकवाद के विरुद्ध अन्तर्राष्ट्रीय गठबन्धन का नेतृत्व करते हुए पाया । बुश ने कहा कि आज के बाद जो देश आतंककारियों को पनाह या समर्थन जारी रखेगा वह अमरीका का दुश्मन माना जाएगा ।
9. आश्रित एवं उपग्रही राज्यों की स्थापना की नीति:
ऐसा कहा जाता है कि अमरीका उपनिवेशवादी तकनीक का सहारा लिए बिना अपने ‘वैश्विक साम्राज्य’ की स्थापना का प्रयत्न कर रहा है । वैश्विक साम्राज्य की स्थापना के लिए वह आश्रित (dependent) एवं उपग्रही (Satellite) राज्यों की स्थापना एवं सैनिक हस्तक्षेप (armed intervention) की नीति पर चल रहा है । उसकी नीति विश्व पर कब्जा करने की नहीं है वह जहां-तहां युद्ध करता है (जैसे अफगानिस्तान और इराक में), उसके बाद मित्रतापूर्ण शासन की स्थापना करता है और स्वयं वहां से हट जाता है ।
Essay # 6. राष्ट्रपति हुसैन और अमरीकी विदेश नीति (1945-1952) (President Truman and U.S. Foreign Policy, 1945-1952):
द्वितीय महायुद्ध के बाद अमरीकी प्रशासन की बागडोर राष्ट्रपति ट्रूमैन के हाथों में आयी । ट्रूमैन ने अमरीकी विदेश नीति की जो आधारशिलाएं रखीं वे आज भी जूनाधिक परिवर्तन के साथ अमरीकी विदेश नीति का मार्गदर्शक बनी हुई हैं ।
ट्रूमैन काल में अमरीकी विदेश नीति का अध्ययन हम निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कर सकते हैं:
1. सहयोग और आनुकूल्य की नीति:
द्वितीय महायुद्ध समाप्त होने पर अमरीका को यह आशा थी कि मित्र-राष्ट्रों का युद्धकालीन सहयोग शान्तिकाल में भी चलता रहेगा । यही कारण था कि राष्ट्रपति ट्रूमैन ने ‘सहयोग और आनुकूल्य की नीति’ (Policy of Co-operation and Accommodation) को अपनाया ।
अत: इस समय उसने अन्य शक्तियों के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की, युद्ध से विध्वस्त देशों के साथ पुनर्वास और पुनर्निर्माण का कार्य किया, यूरोप से सेनाओं को हटाया, जर्मनी तथा उसके साथी राष्ट्रों के साथ शीघ्र ही सन्धि करने पर बल दिया ।
28 अक्टूबर, 1945 को राष्ट्रपति ट्रूमैन ने अमरीका की विदेश नीति के सम्बन्ध में बारह-सूत्रीय (Twelve Point) उद्देश्यों की घोषणा की । सोवियत संघ से सहयोग प्राप्त होते रहने की अमरीकी आशा इतनी दृढ़ थी कि अमरीका ने अपनी सशस्त्र सेनाएं 2 वर्ष के अन्दर 1 करोड़ 20 लाख सैनिकों से घटाकर 15 लाख सैनिक कर दीं ।
परन्तु अमरीका ने शीघ्र ही यह अनुभव किया कि सोवियत संघ उसका कट्टर विरोधी और प्रतिद्वन्द्वी है तथा समस्याओं के समाधान में दोनों देशों के दृष्टिकोणों में काफी अन्तर है, जिसके कारण उनमें किसी प्रकार का समझौता या सहयोग सम्भव नहीं है ।
ट्रूमैन के विशेष परामर्शदाता हैरीमेन तथा जॉर्ज कैनन का मत था कि- ”मास्को सहयोग और समझौते की नीति को दुर्बलता का लक्ष्य समझता है यह केवल शक्ति की ही परवाह करता है, इसलिए उसके विरुद्ध दृढ़ता की नीति ही अपनायी जानी चाहिए ।”
2. साम्यवाद के अवरोध की नीति:
1946 के मध्य तक सोवियत संघ की ओर से अमरीका निराश होता जा रहा था । अब अमरीका ने यह निश्चय कर लिया कि साम्यवादी प्रसार को अविलम्ब अवरुद्ध किया जाए । साम्यवाद के अवरोध की नीति का वास्तविक कारण ईरान, यूनान और तुर्की पर बढ़ता हुआ साम्यवादी दबाव था ।
अगस्त 1941 में रूसी सेनाओं ने उत्तरी ईरान पर अधिकार कर लिया था । परन्तु युद्ध के पश्चात् सोवियत संघ ने तब तक सेनाएं नहीं हटायीं जब तक कि मई 1946 में ईरान में 51% रूसी हिस्सों वाली एक संयुक्त सोवियत-ईरानी तेल कम्पनी की स्थापना का समझौता नहीं कर लिया ।
इसी प्रकार सोवियत संघ ने 7 अगस्त 1946 को तुर्की के समुख भूमध्य सागर और कृष्ण सागर को संयुक्त करने वाले बास्फोरस और दर्रे दानियाल जलडमरूमध्यों के सम्बन्ध में कुछ ऐसे प्रस्ताव रखे जिनको कार्यान्वित करने पर उन पर सोवियत संघ की सत्ता स्थापित हो जाती ।
तुर्की ने इन प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया और सम्भावित रूसी आक्रमण के विरुद्ध अमरीका से सहायता मांगी । इसी समय यूनान में साम्यवादियों ने ब्रिटिश समर्थक यूनानी सरकार के विरुद्ध छापामार युद्ध छेड़ दिया । सोवियत संघ यूनान के गृह-युद्ध में सक्रिय रुचि ले रहा था । ब्रिटेन के लिए अकेले साम्यवादियों का मुकाबला करना अत्यन्त कठिन था । उसने अमरीका से यूनान को साम्यवादी खतरे से बचाने का अनुरोध किया ।
अमरीकी विदेश सचिव मार्शल ने 23 फरवरी 1947 को यह परामर्श दिया कि यूनान को भारी सहायता दी जानी चाहिए क्योंकि “यदि यूनान हाथ से निकल गया तो तुर्की साम्यवाद के महायुद्ध में एक अरक्षणीय चौकी बन जाएगा ।” 27 फरवरी, 1947 को राष्ट्रपति ट्रूमैन ने यूनान और तुर्की को सहायता देने का निर्णय कर लिया ।
3. ट्रूमैन सिद्धान्त: अवरोध का राजनीतिक सिद्धान्त:
मध्यपूर्वी क्षेत्र में यूनान, तुर्की, ईरान, आदि देशों को साम्यवादी बनने से बचाने के लिए ट्रूमैन ने इन्हें आर्थिक सहायता देने की नीति अपनायी; इस नीति को ‘ट्रूमैन सिद्धान्त’ (Truman Doctrine) कहा जाता है । मार्च 1947 में राष्ट्रपति ट्रूमैन ने अमरीकी कांग्रेस से अपील की कि साम्यवाद का प्रसार रोकने के लिए यूनान और टर्की के लिए आर्थिक सहायता स्वीकार की जाए ।
यूनान को 25 करोड़ डॉलर और टर्की को 15 करोड़ डॉलर देने की सिफारिश की गयी । ट्रूमैन सिद्धान्त के अन्तर्गत प्राप्त विपुल आर्थिक सहायता के बल पर 1950 के अन्त में यूनान और टर्की ने साम्यवादी दबाव से सफलतापूर्वक मुक्ति प्राप्त कर ली ।
ट्रूमैन सिद्धान्त ने अमरीकी विदेश नीति के इतिहास में एक असाधारण कीर्तिमान की स्थापना की । इस नीति ने घोषणा की कि जहां कहीं भी शान्ति भंग करने वाला प्रत्यक्ष या परोक्ष आक्रामक कार्य होगा उसे अमरीका की सुरक्षा के लिए संकट माना जाएगा । अमरीका उसे रोकने का भरसक प्रयत्न करेगा ।
टूमैन सिद्धान्त के फलस्वरूप अमरीकी विदेश नीति का कार्यक्षेत्र विश्वव्यापी हो गया । इस सिद्धान्त ने अमरीका की विदेश नीति में मौलिक परिवर्तनों को जन्म दिया उसे विकास की एक नयी दिशा दी । माइकेल डोनेलन के शब्दों में ट्रूमैन सिद्धान्त निश्चय ही सम्पूर्ण स्वतन्त्र विश्व के लिए मुनरो सिद्धान्त था । इसने पुराने सिद्धान्त का विस्तार स्वतन्त्र विश्व की सीमाओं तक कर दिया ।
ट्रूमैन सिद्धान्त का प्रभाव:
ट्रूमैन सिद्धान्त अमरीका की विदेश नीति में एक क्रान्तिकारी कदम था ।
इसके प्रभाव इस प्रकार हैं:
(i) यह सिद्धान्त साम्यवाद के अवरोध की नीति के विकास का प्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण था । यद्यपि ट्रूमैन ने सोवियत संघ का कहीं उल्लेख नहीं किया था तथापि ‘सर्वाधिकारवादी’ और ‘स्वतन्त्रता का अपहरण करने वाले राज्य’ से किस देश का अभिप्राय था यह सारा विश्व भली-भांति जानता था ।
(ii) ट्रूमैन सिद्धान्त, मुनरो सिद्धान्त का वृहत् और विश्वव्यापी रूप था । मुनरो सिद्धान्त का कार्यक्षेत्र पश्चिमी गोलार्द्ध था । लेकिन ट्रूमैन सिद्धान्त ने पश्चिम के साथ पूर्वी गोलार्द्ध को भी अमरीका का कार्यक्षेत्र बना दिया ।
(iii) यह इस बात का प्रतीक था कि अमरीका ने सोवियत संघ के साथ मैत्री बढ़ाने की रूजवेल्ट की नीति को अन्तिम रूप से त्याग दिया था ।
(iv) यह इस बात की स्पष्ट स्वीकृति थी कि विश्व सैद्धान्तिक रूप से दो विरोधी गुटों में बंट गया है ।
(v) इसे एक प्रकार से ‘शीत-युद्ध’ (Cold War) का उद्घाटन कहा जा सकता है क्योंकि यह सिद्धान्त इस तथ्य की स्पष्ट अभिव्यक्ति था कि अमरीका सोवियत संघ के साथ संघर्ष के लिए तैयार था । यह सिद्धान्त इस तथ्य की स्वीकृति था कि भूमध्य सागर और मध्यपूर्व में उत्पन्न हुई शक्ति-शून्यता का सोवियत संघ द्वारा लाभ उठाए जाने से पूर्व अमरीका लाभ उठाने का इच्छुक है ।
(vi) यह सोवियत संघ को एक खुली चुनौती था कि उसको अपने प्रभाव का विस्तार करने की महत्वाकांक्षाओं को सहन नहीं किया जाएगा ।
ट्रूमैन सिद्धान्त की आलोचना:
ट्रूमैन सिद्धान्त को कुछ लोग ‘साम्राज्यवाद का एक नया रूप’ या ‘डॉलर कूटनीति’ के नाम से पुकारते हैं । आलोचकों का कहना है कि अमरीका द्वारा स्वतन्त्रता की रक्षा के नाम पर सहायता देना कोरा ढोंग था और वास्तविक उद्देश्यों को शब्दाडम्बर में छिपाने का एक प्रयास था । ट्रूमैन जनतन्त्र की नहीं वरन् जनतन्त्र के नाम पर मध्यपूर्व के तेल की रक्षा करना चाहता था । अपने भाषण में उसने स्वीकार किया था कि ”यदि रूसियों का ईरान के तेल पर अधिकार हो गया तो विश्व सन्तुलन बिगड़ जाएगा ।”
4. मार्शल योजना : अवरोध की आर्थिक रणनीति:
साम्यवाद के प्रसार को सीमित करने का दूसरा कदम मार्शल योजना थी । यह इस धारणा पर आधारित थी कि महायुद्ध के परिणामों से ध्वस्त यूरोप यदि शीघ्र ही अपना आर्थिक पुनर्निर्माण नहीं करेगा तो वह साम्यवादी विचारधारा का शिकार हो जाएगा ।
अमरीकी विदेश सचिव जॉर्ज मार्शल ने मास्को की विदेश मन्त्री परिषद् में सोवियत संघ की महत्वाकांक्षाओं को आकने की चेष्टा की थी । 26 अप्रैल 1947 को यूरोप का दौरा समाप्त करके वाशिंगटन लौटने पर मार्शल ने इस बात पर जोर दिया कि यूरोपीय देशों को तुरन्त आर्थिक सहायता प्रदान की जाए अन्यथा उनके साम्यवादी होने का खतरा हो जाएगा ।
परिणामस्वरूप राष्ट्रपति ट्रूमैन ने मार्शल द्वारा दिए गए सुझाव के अनुसार पश्चिमी यूरोपीय देशों के आर्थिक पुनर्निर्माण तथा इन देशों में व्याप्त बेकारी, भुखमरी, निर्धनता, साधनहीनता और अव्यवस्थाओं को समाप्त करने के उद्देश्य से मार्शल योजना शुरू की ।
सभी यूरोपीय राज्यों को आर्थिक पुनर्निर्माण के इस कार्य में भाग लेने के लिए आमन्त्रित किया गया । ब्रिटेन और फ्रांस की पहल पर जुलाई 1947 में पेरिस में 16 यूरोपीय देशों के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन हुआ जिसमें यूरोप के आर्थिक पुनरुद्धार के लिए एक चार-वर्षीय कार्यक्रम तैयार किया गया । यह योजना यूरोपियन रिलीफ प्रोग्राम कहलायी ।
इसके अन्तर्गत चार वर्ष में (1947 से 1951) अमरीका ने यूरोप को 12 बिलियन डॉलर की सहायता दी जिसके बल पर एक ओर तो पश्चिमी यूरोप आर्थिक पतन और साम्यवादी आधिपत्य से बच गया और दूसरी ओर अमरीका पश्चिमी जगत का सर्वमान्य नेता बन गया । मार्शल योजना को ‘समसामयिक कूटनीतिक इतिहास की सर्वाधिक ‘दिलचस्प और युग-प्रवर्तक’ घटना कहा गया है ।
यह योजना ट्रूमैन सिद्धान्त की पूरक थी और इसने साम्यवाद के अवरोध की नीति को तीन प्रकार से आगे बढ़ाया:
प्रथम जहां लैन सिद्धान्त में अलग-अलग राज्यों को सहायता देने की व्यवस्था की गयी थी वहां मार्शल योजना में यूरोप को समग्र रूप से सहायता देने की व्यवस्था की गयी ।
द्वितीय इसने अवरोध की नीति में आर्थिक तत्वों के महत्व को स्पष्ट कर दिया ।
तृतीय इसके द्वारा प्रथम अमरीकन आर्थिक सहायता को एक सहयोगी और योजनाबद्ध रूप प्रदान किया गया ।
5. सैनिक सन्धियों की नीति अवरोध की सैन्य रण-विधि:
राजनीतिक और आर्थिक प्रयत्नों के साथ सैनिक रणनीति के माध्यम से भी अमरीका साम्यवादी प्रसार के अवरोध का प्रयल करने लगा । मई 1948 में सीनेट ने 64 के विरुद्ध 4 मतों से ब्रेण्डेनबर्ग का एक प्रस्ताव स्वीकार किया ।
अमरीकी विदेश विभाग के अनुसार अमरीकी विदेश नीति में यह सर्वथा नया परिवर्तन था क्योंकि इसमें राष्ट्र के इतिहास में पहली बार संयुक्त राज्य अमरीका द्वारा शान्तिकाल में पश्चिमी गोलार्द्ध से बाहर की शक्तियों के साथ सामूहिक सुरक्षा सम्बन्धी समझौतों में सम्मिलित होने की व्यवस्था इस दृष्टि से की गयी थी कि अमरीका में शान्ति बनी रहे तथा इसकी सुरक्षा सुदृढ़ हो ।
इसका पहला परिणाम ‘नाटो’ की सन्धि था । इसके साथ ही नवम्बर 1949 में यूरोपियन देशों की सैनिक शक्ति बढ़ाने के लिए तथा उन्हें नवीनतम रण-सामग्री से सुसज्जित करने के लिए ‘पारस्परिक प्रतिरक्षा सहायता कार्यक्रम’ पास किया गया । अक्टूबर 1951 में ‘पारस्परिक सहायता सुरक्षा कानून’ पास हुआ ।
इसके अनुसार अमरीका के साथ सैनिक सन्धि करने वाले देशों की सहायता के लिए 7 अरब 33 करोड़ डॉलर की सहायता की व्यवस्था की गयी । इनमें 4 अरब 81 करोड़ 90 लाख तो सैनिक सहायता के लिए थे और शेष आर्थिक सहायता के लिए ।
इसके बाद संयुक्त राज्य अमरीका ने दूसरे देशों के साथ सैनिक सन्धियां करके इन्हें सहायता देना शुरू किया । 8 सितम्बर 1951 को अमरीका ने जापान के साथ अनिश्चित काल के लिए प्रतिरक्षा समझौता किया । 1 सितम्बर, 1952 को प्रशान्त महासागर में शान्ति बनाए रखने के उद्देश्य से आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड के साथ सुरक्षा सन्धियां कीं ।
6. चार-सूत्री कार्यक्रम:
1948-49 में तीन महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं जिन्होंने अमरीका की नीति पर पर्याप्त प्रभाव डाला । ये घटनाएं थीं: साम्यवादियों द्वारा चेकोस्लोवाकिया में बलपूर्वक सत्ता हस्तगत करना, बर्लिन का घेरा तथा चीन में साम्यवादी शासन की स्थापना ।
अमरीका को इन घटनाओं ने बेचैन कर दिया और उसे यह भय हो गया कि उपनिवेशों या नव-जाग्रत देशों में बसने वाले लोग कहीं चीन का अनुसरण करके जनतन्त्र की अपेक्षा साम्यवादी व्यवस्था को न अपना लें । अतएव राष्ट्रपति ट्रूमैन ने साम्यवाद के प्रसार को रोकने के उद्देश्य से चार-सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की ।
इस कार्यक्रम के अन्तर्गत ही अविकसित देशों को आर्थिक और तकनीकी सहायता देने की नींव पड़ी जो आज तक विद्यमान है । कहा जाता है अमरीका ने इस कार्यक्रम को नि:स्वार्थ की अपेक्षा अपने राष्ट्रीय हितों की दृष्टि से अपनाया क्योंकि शीत-युद्ध में उसे नव-जाग्रत राज्यों का समर्थन प्राप्त करना आवश्यक था ।
ट्रूमैन द्वारा घोषित अमरीकी विदेश नीति का ‘चार-सूत्री कार्यक्रम’ (Four-Point Programme) इस प्रकार था:
(i) संयुक्त राष्ट्र संघ का पूर्ण समर्थन;
(ii) विश्व के आर्थिक पुनरुद्धार के लिए कार्य करते रहना;
(iii) आक्रमण के विरुद्ध स्वतन्त्रता प्रेमी राष्ट्रों को सुदृढ़ बनाना; एवं
(iv) अल्प-विकसित देशों के उत्थान के लिए प्राविधिक (Technical) सहायता देना ।
7. खुले संघर्ष का काल : कोरिया युद्ध:
जून 1950 में दक्षिणी कोरिया पर उत्तरी कोरिया का आक्रमण हो जाने से संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्तर्गत अमरीकी सेनाओं ने ही लगभग पूर्ण युद्ध लड़ा अमरीकी विदेश नीति में नए तत्व का प्रवेश हुआ-साम्यवाद से खुले संघर्ष की प्रवृत्ति । कोरिया युद्ध जून 1950 से जुलाई 1953 तक चला । यह अवधि शीत-युद्ध की जगह खुले संघर्ष अथवा सक्रिय युद्ध की थी । इस अवधि में अवरोध नीति के राजनीतिक तथा आर्थिक पक्ष की अपेक्षा सैनिक पक्ष को विशेष महत्व देते द्वर अमरीका ने फिलिपाइन्स तथा जापान के साथ प्रतिरक्षा सथिया कीं ।
Essay # 7. राष्ट्रपति आइजनहॉवर और अमरीकी विदेश नीति (1953-1960) (President Eisenhower and U.S. Foreign Policy, 1953-1960):
1953 में 24 वर्षों में प्रथम बार एक रिपब्लिकन राष्ट्रपति के रूप में जनरल आइजनहॉवर ने ह्वाइट हाउस में प्रवेश किया । रिपब्लिकन पार्टी का चुनावी नारा था “साम्यवाद का अवरोध करने की नीति बहुत महंगी है और इसका कोई परिणाम नहीं निकला है ।”
आइजनहॉवर के राष्ट्रपति बनने के कुछ ही महीनों के अन्दर कुछ महत्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय घटनाएं हुईं: मार्च 1953 में स्टालिन की मृत्यु हुई, कोरिया युद्ध की विराम-सन्धि पर हस्ताक्षर हुए और ऐसा लगा कि शीत-युद्ध में कुछ नरमी आयी है । लेकिन राष्ट्रपति आइजनहॉवर ने अमरीकी विदेश नीति में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं किया ।
हिन्दचीन, स्वेज, हंगरी, बर्लिन और कांगो की समस्याओं ने उन्हें पूर्ववत् साम्यदाद के प्रचार के विरुद्ध सैनिक सन्धियों के जाल का विस्तार मित्रों को सैनिक सहायता देने सोवियत संघ और चीन के समीपवर्ती देशों व अन्य अल्प-विकसित देशों को आर्थिक सहायता देते रहने और अमरीकी सेना का आधुनिकीकरण करने की नीति पर चलते रहने के लिए बाध्य किया ।
आइजनहॉवर काल में हम अमरीकी विदेश नीति का अध्ययन अग्रलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कर सकते हैं:
आइजनहॉवर सिद्धान्त:
1956 में स्वेज नहर संकट ने मध्यपूर्व में ब्रिटेन और फ्रांस के रहे-सहे प्रभाव को भी सदैव के लिए समाप्त कर दिया । अमरीका ने ब्रिटेन फ्रांस और इजरायल को स्पष्ट परामर्श दिया कि वे मिस्र पर अपना आक्रमण समाप्त कर दें । आक्रमणकारियों को स्वेज से हटना पड़ा और मध्यपूर्व में अमरीका के लिए सहानुभूति बढ़ गयी ।
इस समय स्थिति यह थी कि ब्रिटेन और फ्रांस के हट जाने से मध्यपूर्व में ‘शक्ति-शून्यता’ पैदा हो गयी थी और भय था कि सोवियत संघ अपना प्रभाव स्थापित कर लेगा । अत: अमरीका ने इस ‘शक्ति-शून्यता’ को भरना चाहा और इस क्षेत्र में साम्यवादियों का प्रसार रोकने के लिए आइजनहॉवर का सिद्धान्त (Eisenhower Doctrine) प्रतिपादित किया गया । 5 जून 1957 को राष्ट्रपति आइजनहॉवर ने कांग्रेस को भेजे गए एक संदेश में मध्यपूर्व के सम्बन्धों में अमरीकी नीति की घोषणा की ।
आइजनहॉवर का प्रस्ताव था कि:
(1) मध्यपूर्व के राष्ट्रों की सुरक्षा प्रादेशिक अखण्डता और स्वतन्त्रता के लिए संयुक्त राष्ट्र की सेनाओं का प्रयोग किया जा सके लेकिन ऐसा तभी होगा जबकि कोई राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय साम्यवाद से आतंकित होकर इसके लिए प्रार्थना करेगा;
(2) संयुक्त राज्य अमरीका मध्यपूर्ण के राष्ट्रों के आर्थिक विकास में योगदान दे;
(3) मध्यपूर्ण के राष्ट्रों को सैनिक सहायता दी जाए ।
यह सिद्धान्त पश्चिम में लीबिया से लेकर पूरब में पाकिस्तान और उत्तर में तुर्की से लेकर दक्षिण में अरब प्रायद्वीप पर लाए किया गया । मार्च 1957 में कांग्रेस ने इसका समर्थन करके 200 मिलियन डॉलर की विशाल धनराशि स्वीकृत की । आइजनहॉवर सिद्धान्त का सोवियत संघ और अन्य अनेक एशियाई देशों ने घोर विरोध किया । नेहरू ने उसे ‘उपनिवेशवाद की ओर प्रत्यावर्तन’ की संज्ञा दी ।
सीरिया और मिल ने उसे ‘अरब राष्ट्रीयता को कुचलने वाला तथा इजरायल को अरब के विरुद्ध आक्रमण के लिए प्रोत्साहित करने वाला सिद्धान्त’ कहा । ‘आइजनहॉवर सिद्धान्त’ मध्यपूर्व से सम्बन्ध रखने वाले ‘ट्रूमैन सिद्धान्त’ का विकसित रूप कहा जाता है क्योंकि ट्रूमैन के सिद्धान्त की भांति यह भी अमरीका के नवीन साम्राज्यवाद का सूचक था जिसका मुख्य लक्ष्य मध्यपूर्व में ब्रिटेन के पलायन से उत्पन्न हुई ‘शक्ति-शून्यता’ (Power Vacuum) की पूर्ति करना था ।
मध्यपूर्व में आइजनहॉवर सिद्धान्त का प्रयोग:
जुलाई 1958 में लेबनान और जोर्डन में इस सिद्धान्त का अमरीका ने प्रयोग किया । 1958 में लेबनान के राष्ट्रपति ने अपने विरुद्ध विद्रोह के दमन के लिए अमरीका से सैनिक सहायता की मांग की । जुलाई 1958 में अमरीकी फौजें लेबनान में उतर गयीं । अगस्त 1958 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के एक प्रस्ताव द्वारा मांग की गयी थी कि अमरीका लेबनान से अपनी सेनाएं वापस बुला ले, लेकिन अमरीका ने ऐसा करने से साफ इकार कर दिया ।
लेबनान में गृह-युद्ध जारी रहा और विद्रोही नए राष्ट्रपति का निर्वाचन कराने में सफल हुए । नयी सरकारी की मांग पर 26 अक्टूबर, 1958 को अमरीकी सेना को लेबनान खाली कर देना पड़ा । जुलाई 1958 में इराकी क्रान्ति से जोर्डन के शाह को आशंका हुई कि कहीं जोर्डन में सैनिक विद्रोह न हो जाए । अत: ब्रिटेन और अमरीका से सैनिक सहायता मांगी गयी ।
ब्रिटेन ने अपनी सेनाएं जोर्डन भेजीं तो अमरीका ने शाह हुसैन को 75 लाख डॉलर की नयी आर्थिक सहायता दी । पर दोनों ही कार्यवाहियां अप्रभावी रहीं क्योंकि संयुक्त राष्ट्र महासभा के अगस्त 1958 के प्रस्ताव के अनुसार ब्रिटेन को अपनी सेनाएं जोर्डन से वापसी बुलानी पड़ी । ब्रिटिश सहायता से ‘आइजनहॉवर सिद्धान्त’ का जो सैनिक प्रयोग जोर्डन में किया गया वह निष्फल रहा ।
वस्तुत: आइजनहॉवर सिद्धान्त को मध्यपूर्व में साम्यवादी प्रभाव को रोकने में सफलता नहीं मिली । इसके विपरीत मध्यपूर्व में पश्चिम विरोधी भावनाओं की जड़ें मजबूत हो गयीं । सीरिया इराक और मिस्र में सोवियत प्रभाव बढ़ने लगा और इराक ने बगदाद पैक्ट से अपने सम्बन्ध-विच्छेद कर लिए ।
शीत-युद्ध में शिथिलता : ख्रुश्चेव की अमरीकी यात्रा:
सितम्बर 1959 में सोवियत प्रधानमन्त्री ख्रुश्चेव ने राष्ट्रपति आइजनहॉवर के निमन्त्रण पर अमरीका की यात्रा की । अपनी अमरीकी यात्रा की समाप्ति पर ख्रुश्चेव ने आइजनहॉवर के निवास-गृह कैम्प डेविड में राष्ट्रपति के साथ तीन दिन तक विश्व की विभिन्न समस्याओं पर विचार-विमर्श किया ।
इस यात्रा ने दोनों देशों के बीच बड़े सौहार्द तथा प्रीति का वातावरण उत्पन्न किया । इस सौहार्द को ‘कैम्प डेविड की भावना’ का नाम दिया गया और यह कहा गया कि इस भावना से दोनों देशों में अन्तर्राष्ट्रीय तनाव दूर हो जाएगा, शीत-युद्ध की बर्फ पिघल जाएगी ।
ख्रुश्चेव ने आइजनहॉवर को सोवियत संघ आने का निमन्त्रण दिया । दोनों नेताओं ने यह निर्णय लिया कि पारस्परिक मतभेदों के प्रश्नों पर बातचीत करने के लिए अमरीका सोवियत संघ ब्रिटेन और फ्रांस का एक शिखर सम्मेलन आयोजित किया जाए ।
16 मई, 1960 को प्रस्तावित शिखर सम्मेलन होना निश्चित हुआ किन्तु जर्मनी से सम्बन्धित विवाद एवं यू-2 विमान काण्ड के कारण शिखर सम्मेलन खटाई में पड़ गया । फिर भी जब 16 मई को शिखर सम्मेलन प्रारम्भ हुआ तो सोवियत प्रधानमन्त्री ने अचानक ही यू-2 विमान काण्ड के लिए अमरीका की निन्दा प्रारम्भ कर दी । 17 मई को सम्मेलन आरम्भ होने पर ख्रुश्चेव नहीं आए तो यह घोषणा कर दी गयी कि ”ख्रुश्चेव द्वारा अपनाए गए रुख के कारण शिखर सम्मेलन की वार्ता आरम्भ करना सम्भव नहीं है ।”
Essay # 8. राष्ट्रपति कैनेडी और अमरीकी विदेश नीति (1960-63) (President Kennedy and U.S. Foreign Policy, 1960-63):
नवम्बर 1960 में जॉन एफ. कैनेडी अमरीका के राष्ट्रपति बने । कैनेडी जो अमरीका के सबसे अधिक युवा राष्ट्रपति थे, अद्भुत साहस और सूझबूझ के व्यक्ति थे और उनके नेतृत्व में अमरीका ने अपनी विदेश नीति में अत्यन्त साहसपूर्ण और दूरगामी परिवर्तन किए । कैनेडी ने अपने पूर्वाधिकारी के विपरीत साम्यवाद के प्रति सहयोग का नारा बुलन्द किया । लेकिन वह साम्यवादी राष्ट्रों के प्रति सचेत थे ।
कैनेडी काल में हम अमरीकी विदेश नीति का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कर सकते है:
1. पश्चिमी जगत: वफादारी का वचन:
अमरीका के पुराने मित्र-राष्ट्रों से कैनेडी ने ‘वफादार मित्रों की निठा’ देने का वायदा किया ओर उसे निभाया । उन्होंने नाटो को और अधिक सुदृढ़ बनाने के प्रयत्न किए तथा जर्मनी के प्रश्न पर झुकने से इन्कार कर दिया ।
जून 1961 में ख्रुश्चेव ने पूर्वी जर्मनी के साथ एक पृथक् शन्ति सन्धि पर हस्ताक्षर करने की धमकी दी और कहा कि इससे अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस के लिए पश्चिमी बर्लिन में जाने के अधिकारों की प्रत्याभूति करने वाले चतुःशक्ति समझौते समाप्त हो जाएंगे । परन्तु कैनेडी ने स्पष्ट रूप से यह उत्तर दिया कि वे सोवियत संघ के एकपक्षीय कार्य को मान्यता नहीं देंगे । इस पर सोवियत संघ ने अपनी धमकी को कार्यान्वित नहीं किया ।
2. निर्गुट जगत: नवीन बोध:
कैनेडी के काल में संयुक्त राज्य की भारत आदि निर्गुट राष्ट्रों तथा एशिया-अफ्रीका के नवोदित राष्ट्रों के प्रति नीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए । इसके पूर्व अमरीका यह बात मानने को तैयार नहीं था कि कोई राष्ट्र साम्यवाद और लोकतन्त्र के संघर्ष में तटस्थ रह सकता है ।
कैनेडी ने उनकी निर्गुटता को मान्यता दी और उनको पहले की अपेक्षा अधिक तकनीकी एवं अन्य प्रकार की सहायता देना प्रारम्भ कर दिया । कैनेडी ने इन देशों में परोपकारी और प्रचारात्मक कार्य के लिए मार्च 1961 में ‘शान्ति सेना’ (Peace Crops) नामक कार्यक्रम प्रारम्भ किया जिसके अन्तर्गत सैकड़ों अमरीकन विश्व के अल्प-विकसित देशों में विकास कार्यों मे सहायता देने के लिए भेजे गए ।
3. क्यूबा संकट:
कैनेडी शासनकाल में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विश्व राजनीति को प्रभावित करने वाली घटना क्यूबा की थी । क्यूबा मध्य अमरीका में वेस्ट इण्डीज का सबसे बड़ा टापू है । 1959 से पूर्व वहां अमरीकी समर्थित सरकार थी परन्तु 2 जून, 1959 को फिदेल कासो के नेतृत्व में हुई साम्यवादी क्रान्ति ने तख्ता पलट दिया और क्यूबा अब सोवियत समर्थक बन गया ।
क्यूबा में कासो की साम्यवादी सरकार को सोवियत संघ ने आणविक शस्त्रों तथा प्रक्षेपास्त्रों से लैस करना शुरू कर दिया । क्यूबा में रूसी सैनिक अड्डे की स्थापना अमरीका की सुरक्षा के लिए एक बहुत बड़ा संकट थी क्योंकि क्यूबा मुख्य अमरीकी भूमि से केवल 90 मील की दूरी पर स्थित है ।
कैनेडी ने क्यूबा में सैनिक अड्डे की स्थापना की निन्दा करते हुए अक्टूबर 1962 को क्यूबा की नाकेबन्दी की घोषणा की जिसका उद्देश्य अमरीकी जहाजों द्वारा क्यूबा को घेर लेना था ताकि वहां सोवियत संघ से भेजी जाने वाले सैनिक सामग्री न पहुंच सके । कैनेडी का यह कदम सोवियत संघ के लिए एक स्पष्ट चुनौती था कि या तो वह क्यूबा को सैनिक सहायता बन्द करे अथवा युद्ध के लिए तैयार हो जाए । ख्रुश्चेव ने क्यूबा से सोवियत सैनिक अड्डे उठा लेना स्वीकार कर लिया । यह कैनेडी की विदेश नीति की सबसे बड़ी सफलता थी ।
4. लैटिन अमरीका: प्रगति के लिए मैत्री:
कैनेडी ने ‘क्यूबा संकट’ से यह सबक सीखा कि लैटिन अमरीकी राज्यों को ‘साम्यवाद’ या ‘कास्त्रोवाद’ का शिकार ने होने देने के लिए यह जरूरी है कि उन राज्यों में संयुक्त राष्ट्र के बिम्ब को सुधारा जाए । उन्हें खुलकर आर्थिक सहायता दी जाए जिससे कि वे विकसित होकर अपने पैरों पर खड़े हो सकें ।
इसी उद्देश्य से कैनेडी ने 13 मार्च, 1961 को अमरीकन गणराज्यों के राजनयिक प्रतिनिधियों के समुख ‘प्रगति के लिए मैत्री’ (Alliance for Progress) का प्रस्ताव रखा । इस नीति के अन्तर्गत अमरीका ने लैटिन अमरीका के देशों के आर्थिक विकास और जीवन-स्तर को उन्नत बनाने के लिए 20 हजार मिलियन डॉलर की सहायता तथा ऋण देने का प्रस्ताव रखा ।
5. संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रति नीति:
कैनेडी विश्व-शान्ति और सुरक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ को एक अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण विश्व संगठन मानते थे । 1960 में संयुक्त राष्ट्र ने कांगो में जिसे उसी वर्ष बेल्जियम के शासन से स्वतन्त्रता प्राप्त हुई थी शान्ति और राष्ट्रीय एकता की स्थापना का भार अपने ऊपर ले लिया । इस कार्य के लिए संयुक्त राष्ट्र को करोड़ों डॉलर व्यय करने पड़े । इस विशाल व्यय भार का अधिकांश अमरीका ने वहन किया ।
6. नि:शस्त्रीकरण:
कैनेडी ने विश्व-शान्ति की स्थापना के लिए नि:शस्त्रीकरण पर जोर दिया । शीत-युद्ध को कम करने के लिए 15 अप्रैल, 1963 को सोवियत संघ और अमरीका के बीच सीधा टेलीफोन तथा रेडियो सम्पर्क स्थापित करने का समझौता हुआ । 25 जुलाई, 1963 को अमरीका, ब्रिटेन और सोवियत संघ के बीच ‘परमाणु प्रतिबन्ध सन्धि:’ पर भी हस्ताक्षर हुए ।
Essay # 9. राष्ट्रपति जॉनसन और अमरीकी विदेश नीति (1964-68) (President Johnson and U.S. Foreign Policy, 1964-68):
22 नवम्बर, 1963 को राष्ट्रपति कैनेडी की हत्या के बाद तत्कालीन उपराष्ट्रपति लिण्डन बी. जॉनसन संयुक्त राज्य अमरीका के राष्ट्रपति बने । 1964 के चुनावों में भी वे ही राष्ट्रपति चुने गए । जॉनसन के प्रशासन काल की दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां थीं: इसमें पहली ‘परमाणु अप्रसार सन्धि’ (1968) तथा दूसरी ‘अपोलो 8’ यान की सफलता, जिसने मानव के चन्द्रमा पर उतरने की सम्भावनाओं को दृढ बना दिया । जॉनसन की विदेश नीति काफी विवादास्पद रही ।
वियतनाम युद्ध में अपने सैनिकों को झोंककर उसने न केवल विश्व के शान्तिप्रिय देशों को अपना विरोधी बना लिया वरन् स्वयं अमरीकी जनता को विदेश नीति विरोधी बना लिया । वियतनाम युद्ध ने अमरीका की अर्थव्यवस्था को भी पंगु बना दिया जिसका प्रमाण अमरीका का 1969 का बजट था जिसमें 12 अरब डॉलर का घाटा दिखाया गया था ।
1967 के अरब-इजरायल संघर्ष में राष्ट्रपति जॉनसन ने इजरायल को अपना समर्थन प्रदान किया । इससे अरब देश अमरीका से नाराज हो गए जिसका लाभ उठाकर सोवियत संघ और फ्रांस ने मध्यपूर्व में अपना प्रभाव बढ़ा लिया ।
सात अरब देशों: संयुक्त अरब गणराज्य, सूडान, मौरसियना, अल्जीरिया, सीरिया, इराक और यमन-ने अमरीका से राजनीतिक सम्बन्ध तोड़ लिए तथा अधिकांश अरब देशों ने अमरीका और ब्रिटेन को तेल देना बन्द कर दिया । 23 जनवरी, 1968 को उत्तरी कोरिया ने अपने प्रादेशिक समुद्र में अमरीका के जासूसी पोत प्यूब्लो (Pueblo) और उसके 83 नाविकों को पकड़ लिया ।
उत्तरी कोरिया ने पोत छोड़ने से इन्कार कर दिया । यह स्थिति अमरीका जैसी विश्व शक्ति के लिए अपमानजनक थी । बाद में अमरीका के राज्य सचिव डीन रस्क ने एक ब्राडकास्ट में यह स्वीकार कर लिया कि भूली जासूसी पोत भूल से उत्तरी कोरिया के प्रादेशिक जल में भटक गया था । उत्तरी कोरिया ने इस स्वीकारोक्ति से सन्तोष करके प्यूब्लो के नाविकों को मुक्त कर दिया ।
Essay # 10. राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और अमरीकी विदेश नीति (1969-74) (President Nixon and U.S. Foreign Policy, 1969-74):
20 जनवरी, 1969 को निक्सन अमरीका के राष्ट्रपति बने । निक्सन का कार्यकाल अमरीका के इतिहास में क्रान्तिकारी माना जाएगा क्योंकि उन्होंने साम्यवादी जगत के प्रति अमरीका की नीति को एक नयी दिशा दी । राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने ‘साम्यवाद’ को सीमित रखने वाली अमरीका की पुरानी नीति’ (Containment Policy) में परिवर्तन करते हुए अपनी नवीन नीति की घोषणा की और यह कहा कि अमरीका के लिए यह सम्भव नहीं है कि वह दूसरे देशों की सुरक्षा के लिए लड़े ।
अन्य देशों की प्रगति और प्रतिरक्षा उनका अपना ही कार्य होना चाहिए । स्पष्ट शब्दों में इसका यह अभिप्राय था कि अब अमरीका भविष्य में साम्यवाद का प्रसार रोकने के लिए वियतनाम जैसे युद्धों में नहीं पड़ेगा । यह नयी नीति राष्ट्रपति के नाम से ‘निक्सन सिद्धान्त’ (Nixon Doctrine) कहलाती है ।
निक्सन काल में हम अमरीकी विदेश नीति का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कर सकते हैं:
1. यूरोप की सदभावना यात्रा:
राष्ट्रपति बनने के लगभग छ: सप्ताह बाद ही निक्सन ने यूरोप की सद्भावना यात्रा की जिसका उद्देश्य एक ‘नए यूरोप’ की खोज करना था । निक्सन की यात्रा पर यूरोप में कोई उत्साह नहीं दिखाया गया । फ्रांस में तीव्र विरोध हुआ तो पश्चिमी जर्मनी अणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर करने के लिए तैयार नहीं हुआ । यूरोप की यात्रा के दौरान बेल्जियम को छोड्कर हर जगह राष्ट्रपति निक्सन को अमरीका विरोधी नारों की गूंज सुनायी दी ।
2. वियतनाम:
राष्ट्रपति पद संभालने पर निक्सन ने कहा था कि वियतनाम समस्या का स्थायी हल ढूंढा जाएगा । उन्होंने यह भी कहा था कि अमरीका वियतनाम की समस्या को नए परिप्रेक्ष्य में देखेगा । पेरिस में वियतनाम की समस्या पर चल रही वार्ता में अमरीका की ओर से हैरिसन के स्थान पर कैबटलॉंज को नियुक्त किया गया ।
अमरीकी जनता और विश्व जनमत बराबर यह मांग करता जा रहा था कि वियतनाम से अमरीकी सिपाहियों को वापस बुलाया जाए । राष्ट्रपति बनने के बाद निक्सन ने प्रारम्भ में उत्तरी वियतनाम पर बम-वर्षा को बहुत सीमित कर दिया और एक बड़ी संख्या में अमरीकी सैनिकों को स्वदेश बुला लिया ।
परन्तु वियतनाम में अमरीकी तकनीकी सामरिक शक्ति को इस प्रकार बनाए रखा कि उत्तरी वियतनाम दक्षिणी वियतनाम पर हावी न हो सके । निक्सन प्रशासन यद्यपि वियतनाम से अमरीकी सैनिकों को हटाना चाहता था किन्तु युद्ध बन्द नहीं करना चाहता था ।
कुछ ही समय बाद निक्सन प्रशासन ने वियतनाम समस्या के प्रति कठोर रुख अपनाया और दिसम्बर 1971 में एक बड़े पैमाने पर पुन: उत्तरी वियतनाम पर हवाई हमले प्रारम्भ कर दिए । निक्सन प्रशासन की नीति यह थी कि एक तरफ समझौता-वार्ता प्रारम्भ की जाए तो दूसरी ओर सैनिक शक्ति के बल पर उत्तरी वियतनाम को समझौता करने के लिए बाध्य किया जाए ।
26 अप्रैल, 1972 को निक्सन ने घोषणा की कि “हम पराजित नहीं होंगे और न ही हम अपने मित्रों को साम्यवादी आक्रमण के सम्मुख घुटने टेकने देंगे ।” काफी कशमकश के बाद 27 जनवरी, 1973 को एक समझौता हुआ, जिसके अन्तर्गत अमरीका सब अमरीकी सैनिकों को इस शर्त पर वापस बुलाने को तैयार हो गया कि सभी पक्ष विसैन्यीकृत क्षेत्र का आदर करेंगे ।
3. चीन के सम्बन्ध में नीति परिवर्तन:
राष्ट्रपति निक्सन ने साम्यवादी चीन के साथ सम्बन्धों में सुधार पर विशेष जोर दिया । 1970 के प्रारम्भ में अमरीकी विदेश सचिव रोजर्स ने चीन के साथ व्यापारिक सम्बन्ध बढ़ाने की इच्छा प्रकट की । जुलाई 1971 में अमरीकी राष्ट्रपति के विशेष दूत के रूप में किसिंगर ने पीकिंग की गुप्त यात्रा की । 26 अक्टूबर, 1971 को अमरीका की सहमति से चीन संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बना दिया गया । 1972 में निक्सन स्वयं पीकिंग की यात्रा पर गए। निक्सन की चीन यात्रा के बाद निश्चय ही दोनों देशों के सम्बन्धों में एक नया अध्याय शुरू हुआ ।
4. पश्चिमी एशिया:
पश्चिमी एशिया में निक्सन का रुख इजरायल समर्थक रहा । 1 अक्टूबर, 1973 से अरब-इजरायल संघर्ष में अमरीका ने अरब विरोधी रुख अपनाया । जनवरी 1972 में अमरीका ने इजरायल को फैण्टम विमान देने का निर्णय लिया ।
5. कम्बोडिया संकट:
18 मार्च, 1970 को कम्बोडिया की राजनीति में एक नया मोड़ आया, जब वहां की संसद ने एक सर्वसम्मत प्रस्ताव द्वारा राजकुमार नरोतम सिंहनुक को राष्ट्राध्यक्ष के पद से हटा दिया । यह राजपल्टी थी जिसमें सेना ने प्रमुख भूमिका अदा की थी । कम्बोडिया के सेनाध्यक्ष जनरल लोननोल नयी कम्बोडियाई सरकार के प्रधानमन्त्री बने । कहा जाता है कि इस राजपल्टी के पीछे संयुक्त राज्य अमरीका का मुख्य हाथ था । चूंकि राजकुमार नरोत्तम सिंहनुक वियतनाम वियतकांग बनाम अमरीका के युद्ध में तटस्थता की नीति का अवलम्बन कर रहे थे, इसलिए अमरीका ने उनकी सरकार को अपदस्थ करना आवश्यक समझा ।
6. निक्सन की युद्धपोत कूटनीति:
निक्सन ने 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान पाकिस्तान की हिमायत के लिए बंगाल की खाड़ी में अमरीकी सातवां बेड़ा भेज दिया और बहाना यह बनाया कि ढाका में स्थित अमरीकियों को बाहर निकालना है । वस्तुत: यह निक्सन की ‘युद्धपोत कूटनीति’ (Gun boat Diplomacy) थी जिसका उद्देश्य भारत को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भयभीत करके बांग्लादेश से अपनी सेनाएं हटाने को बाध्य करना और पाकिस्तान को विभाजन से बचाना था ।
7. सोवियत संध के साथ दितान्त सम्बन्धों को आगे बढ़ाना:
राष्ट्रपति निक्सन ने सोवियत संघ के साथ दितान्त सम्बन्धों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया । 22 मई, 1972 को वे दल-बल सहित मास्को पहुंचे । निक्सन की यह छः दिवसीय मास्को यात्रा ऐतिहासिक थी, क्योंकि 1945 में याल्टा सम्मेलन के बाद दोनों महाशक्तियों के राष्ट्राध्यक्षों की यह पहली भेंट थी ।
मास्को यात्रा के दौरान सोवियत संघ और अमरीका के बीच अस परिसीमन की एक ऐतिहासिक सन्धि हुईं । जून 1973 में सोवियत नेता ब्रेझनेव ने अमरीका की यात्रा की और दोनों देशों में कुछ सथिया हुईं । एक सन्धि में दोनों देशों ने संकल्प किया कि उनमें से कोई भी परमाणु युद्ध नहीं करेगा ।
एक दूसरी सन्धि परमाणु अस्र-शस्र की सीमा और परमाणु शक्ति के शान्तिपूर्ण उपयोग से सम्बन्धित थी । दोनों देशों के पारस्परिक सम्बन्धों में तब और निकटता आयी जब 27 जून, 1974 को राष्ट्रपति निक्सन सोवियत संघ की यात्रा पर गए और 3 जुलाई, 1979 को प्रतिप्रक्षेपास प्रणालियों परमाणु अस्त्रों को सीमित करने तथा भूमिगत परीक्षणों पर कुछ प्रतिबन्ध लगाने सम्बन्धी समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए । इस शिखर वार्ता में ही 29 जून को दोनों में एक महत्वपूर्ण दसवर्षीय समझौता हुआ जिसे 1972 के व्यापार समझौते का पूरक बताया गया ।
Essay # 11. राष्ट्रपति फोर्ड और अमरीकी विदेश नीति (1974-77) (President Ford and U.S. Foreign Policy, 1974-77):
9 अगस्त, 1974 को जेराल्ड फोर्ड अमरीका के राष्ट्रपति बने । ‘वाटर गेट’ के जासूसी काण्ड में फंस जाने के कारण जनमत के दबाव एवं महाभियोग के भय से निक्सन को राष्ट्रपति पद त्यागना पड़ा । फोर्ड के समय में विदेश नीति की प्रधान घटना दक्षिणी वियतनाम का आत्मसमर्पण और अमरीका द्वारा दक्षिणी-पूर्वी एशिया से अपनी सेनाओं को वापस बुला लेना था । यह अमरीका की द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद सबसे बड़ी कूटनीतिक विफलता थी ।
इसी काल में डॉ. किसिंगर के प्रयासों से सितम्बर 1975 में मिल और इजरायल के बीच सिनाई समझौता सम्भव हो सका जो अमरीकी राजनय की एक महान् सफलता थी । फोर्ड प्रशासन ने फरवरी 1975 में अमरीकी सरकार द्वारा विगत दस वर्षों से पाकिस्तान के हथियारों की सच्चाई पर जो प्रतिबन्ध लगा रखा था उसे समाप्त कर दिया ।
राष्ट्रपति फोर्ड ने नवम्बर 1974 में सोवियत नेता ब्रेझनेव से काडीवोस्टक में शिखर वार्ता की जिसमें ‘साल्ट’ (SALT) वार्ताओं की रूपरेखा बनी । जुलाई-अगस्त 1975 में हेलसिंकी सम्मेलन को सफल बनाने के लिए अधिकारी स्तर पर वार्ता चली और जुलाई 1975 मे सोवियत संघ तथा अमरीका के संयुक्त अन्तरिक्ष अभ्यास हुए ।
दोनों के अन्तरिक्ष यात्री अन्तरिक्ष में एक-दूसरे से मिले । इन सहयोगों से विश्व तनाव में कमी हुई और तनाव-शैथिल्य की भावना बड़ी । फोर्ड ने निक्सन काल में चीन-अमरीकी सम्बन्धों की जो कड़ी जुड़ी, उसे बनाए रखने की दिशा में दिसम्बर 1975 में चीन की यात्रा की ।
Essay # 12. राष्ट्रपति कार्टर और अमरीकी विदेश नीति (1977-80) (President Carter and U.S. Foreign Policy, 1977-80):
जिम्मी कार्टर के राष्ट्रपति पद पर आसीन होने में अमरीकी विदेश नीति से सम्बन्धित चुनाव मुद्दों का महत्वपूर्ण योगदान रहा था । उदाहरण के लिए, अमरीकी जनता वियतनाम, लाओस, कम्पूचिया एवं अंगोला में अपनी विदेश नीति की करारी हार के कारण रिपब्लिकन प्रशासन से ऊब चुकी थी ।
इसके अतिरिक्त जिम्मी कार्टर ने मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाने तीसरी दुनिया के गरीब देशों को ज्यादा मदद देने घातक परमाणु अस्त्रों की होड़ रोकने दक्षिण अफ्रीका एवं रोडेशिया में बहुसंख्यक अश्वेतों की सरकार स्थापित करवाने पश्चिमी एशिया में शान्ति लाने तथा अमरीका की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुन: प्राप्त करने जैसे आकर्षक एवं महत्वपूर्ण वायदे भी किए ।
इसी परिप्रेक्ष्य में कार्टर काल में हम अमरीकी विदेश नीति का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कर सकते हैं:
1. मानवाधिकार पर जोर देने की नीति:
मानवाधिकारमुद्दे को अपने देश की विदेश नीति का एक प्रमुख अंग बनाने के बाद कार्टर प्रशासन ने उरुग्वे, अर्जेण्टाइना, इथियोपिया, आदि देशों में उनके हनन के तथ्य को लेकर विदेशी मदद रोक दी । किन्तु फिलिपीन, दक्षिणी कोरिया एवं ईरान के अधिनायकवादी शासनों के खिलाफ इस प्रकार का कदम न उठाना कार्टर प्रशासन की नीति में समरूपता का परिचायक नहीं माना जा सकता ।
कार्टर प्रशासन ने मानवाधिकार मुद्दे को अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के ताने-बाने में ठोस रूप से लपेट दिया । मानवाधिकारों की देख-रेख के लिए स्टेट डिपार्टमेण्ट में एक पृथक् ब्यूरो की स्थापना की गयी । एक पृथक् मानवाधिकार अधिकारी नियुक्त कियागया । विदेश मन्त्रालय ने मानवाधिकारों के हनन के ब्यौरे प्रकाशित किए ।
2. परमाणु शस्त्रों के परिसीमन की नीति:
कार्टर विदेश नीति का दूसरा मुद्दा घातक परमाणु अस्त्रों में कटौती करना तथा जान-लेवा अस्त्रों की बिक्री में भारी कमी करने से सम्बन्धित था । ईरान को अमरीकी 250 एफ-18 लड़ाकू विमान एवं पाकिस्तान को 110 ए-7 बम-वर्षक विमानों की सप्लाई पर रोक लगाना कार्टर प्रशासन की इस क्षेत्र में अच्छी शुरुआत मानी गयी ।
3. पश्चिमी एशिया में शान्ति स्थापित कराने में कार्टर की भूमिका:
पश्चिमी एशिया में शान्ति स्थापित कराने की दिशा में कार्टर की भूमिका अत्यन्त प्रशंसनीय रही है । अमरीकी कूटनीति के कमाल के कारण ही 19 नवम्बर, 1977 को मिल के राष्ट्रपति अनवर सआदत 36 घण्टे की यात्रा के लिए येरूशलम पहुंचे ।
सितम्बर 1978 में कैम्प डेविड में बेगिन, सआदत तथा कार्टर वार्ता अमरीकी कूटनीति की दूसरी बड़ी सफलता कही जा सकती है । कैम्प डेविड का समझौता अमरीकी राष्ट्रपति कार्टर की व्यक्तिगत विजय एवं सफलता कहा जाना चाहिए ।
4. तीसरी दुनिया के राष्ट्र:
कार्टर प्रशासन ने तीसरी दुनिया के कुछ देशों के साथ वैदेशिक सम्बन्ध सुधारे । वियतनाम के संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश पर अमरीकी प्रशासन ने ‘वीटो’ का प्रयोग नहीं किया तथा दोनों देशों के बीच लापता अमरीकी सैनिकों को लेकर मतभेद भी खत्म कर दिया ।
अमरीका और वियतनाम के बीच दृढ़ आर्थिक सम्बन्ध स्थापित करने की बातचीत भी चल पड़ी । क्यूबा के साथ भी जिसे विगत अमरीकी रिपब्लिकन प्रशासक सोवियत संघ का पिट्ठु कहकर गाली देते रहे कार्टर प्रशासन ने राजनयिक सम्बन्ध स्थापित किए । राष्ट्रपति कार्टर ने भारत की यात्रा की ।
राष्ट्रपति की पत्नी श्रीमती रोजालिन कार्टर लैटिन अमरीका के कुछ देशों में सद्भावना यात्रा पर गयीं जिनका काफी गर्मजोशी के साथ मेजबान देशों ने स्वागत किया । कार्टर प्रशासन पनामा नहर समस्या का सिरदर्द समाप्त करने में सफल हुआ । मार्च 1978 में कार्टर ने वेनेजुएला तथा ब्राजील का यात्रा की और लैटिन अमरीका के राष्ट्रों में अमरीकी साम्राज्यवाद का भय दूर करने का सफल प्रयास किया ।
5. अफ्रीका:
कार्टर प्रशासन ने अफ्रीका के काले लोगों से अमरीकी हमदर्दी दिखायी । कार्टर ने नीग्रो नेता एण्ड्रू यंग को संयुक्त राष्ट्र संघ में अमरीकी राजदूत बनाया तथा रोडेशिया से क्रोम उत्पादों के आयात पर पाबन्दी लगा दी । दक्षिणी अफ्रीका को दिए जाने वाले अमरीकी शस्त्रों पर रोक लगा दी गयी ।
6. चीन:
अमरीकी विदेश मन्त्री साइरस बैंस ने 22 से 27 अगस्त 1977 तक चीन की यात्रा की, परन्तु ताइवान सम्बन्धी मतभेदों के कारण दोनों में मतैक्य नहीं हो सका । बैंस की यात्रा की समाप्ति पर कोई संयुक्त विज्ञप्ति प्रकाशित नहीं की गयी । साइरस बैंस के बाद कार्टर के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रेजेन्स्की ने पीकिंग यात्रा की । ब्रेजेन्स्की ने यात्रा के दौरान दोनों देशों के व्यापारिक सम्बन्धों में सुधार की बात भी उठायी । चीन के प्रति अपनी नीति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन करते हुए राष्ट्रपति कार्टर ने चीन को विभिन्न किस्मों के हथियारों तथा विद्युत आणविक उपकरणों के निर्यात पर लगे प्रतिबन्धों में ढील देने का निश्चय किया ।
7. ईरान में अमरीकी बन्धक तथा अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप:
कार्टर की विदेश नीति दो क्षेत्रों में बुरी तरह विफल रही । प्रथम, 4 नवम्बर, 1979 को ईरान की राजधानी तेहरान में छात्रों ने अमरीकी दूतावास के कर्मचारियों को बन्दी बना लिया । यद्यपि 20 जनवरी, 1981 को बन्धकों को रिहा कर दिया गया किन्तु यह घटना अमरीका जैसी महाशक्ति के लिए बड़ी परेशानी एवं असम्मान का कारण बनी ।
द्वितीय, 27 दिसम्बर, 1979 को बड़ी संख्या में सोवियत सेनाओं ने अफगानिस्तान में प्रवेश किया, किन्तु अमरीका मूकदर्शक बनकर रह गया । अमरीका ने सोवियत संघ को चेतावनी दी । उसने मास्को पर दबाव डालने के लिए अपना गेहूं सोवियत संघ को बेचना बन्द कर दिया मॉस्को ने ओलम्पिक खेलों का बहिष्कार किया किन्तु इन सबके बावजूद सोवियत सेनाएं अफगानिस्तान में डटी रहीं ।
Essay # 13. राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और अमरीकी विदेश नीति (1981-88) (President Ronald Reagan and U.S. Foreign Policy, 1981-88):
रिपब्लिकन पार्टी के वर्षीय रोनाल्ड रीगन 1981 में अमरीका के नए राष्ट्रपति चुने गए । अभिनेता से राजनीतिज्ञ बने रीगन सबसे अधिक उम्र वाले राष्ट्रपति थे । रीगन ने विदेश नीति और देश की निरन्तर बिगड़ती आर्थिक-स्थिति को चुनावी मुद्दा बनाया ।
रीगन ने कार्टर की विदेश नीति को ‘ढीली-ढाली’ विदेश नीति करार दिया । उन्होंने कहा कि हम चाहते हैं कि ईरान से अमरीकी बन्धक तुरन्त वापस आएं । उन्होंने यह भी कहा कि जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर हमला किया था यदि वह सत्ता में होते तो वह तुरन्त क्यूबा की नाकेबन्दी करते ।
रीगन के सत्तारूढ़ होते समय सोवियत संघ के साथ सम्बन्धों में निरन्तर बिगाड़ के कारण जिस तरह की राजनीतिक स्थिति पैदा हो गयी थी उससे अमरीका और सोवियत संघ में एक प्रकार के शीत-युद्ध का नवीनीकरण हो गया था ।
रीगन की विदेश नीति का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है:
1. शीत-युद्ध का नवीनीकरण:
रोनाल्ड रीगन की विदेश नीति अधिक आक्रामक और सोवियत संघ विरोधी रही । रीगन बातचीत और शिखर वार्ताओं को अधिक प्राथमिकता नहीं देते थे वे तो कठोर नीति और टकराव पर बल देते थे । उनकी नीति अमरीकी-रूसी तनाव-शैथिल्य की पुष्टि नहीं करती । उनके निर्देशन में अमरीका की विदेश नीति में डलेसवादी अनुदारवाद का पुनरागमन होता दिखायी पड़ रहा था ।
वे साल्ट वार्ताओं पर नहीं अपितु शस्त्रों की दौड़ में तेजी लाने शस्त्रों में परिसीमन पर नहीं अपितु न्यूट्रॉन जैसे भयानक विध्वंसकारी बमों के निर्माण पर बल देते रहे । परमाणु अस्त्रों और प्रक्षेपास्त्रों के प्रश्न को लेकर सोवियत संघ और अमरीका के बीच तनातनी दोनों के सम्बन्धों का एक अंग बन गया ।
वस्तुत: रीगन की विदेश नीति से अमरीका और सोवियत संघ के मध्य एक दूसरा शीत-युद्ध प्रारम्भ हो गया । अपने शासनकाल के उत्तरार्द्ध में राष्ट्रपति रीगन सोवियत संघ से सम्बन्धों को उदार बनाने के लिए उत्सुक थे । जेनेवा (नवम्बर 1985) में रीगन-गोर्बाव्योव वार्ता रिकजाविक (अक्टूबर 1986) में रीगन-गोर्बाव्योव शिखर वार्ता और दिसम्बर 1987 में सम्पन्न वाशिंगटन शिखर सन्धि दिताना की ओर बढ़ते चरण के सूचक कहे जा सकते हैं ।
स्टारवार्स पर रीगन के अड़े रहने से रिकजाविक वार्ता यद्यपि विफल हो गयी तथापि 8 दिसम्बर, 1987 को रीगन और गोर्बाव्योव ने जिस ऐतिहासिक सन्धि पर हस्ताक्षर किए वह राष्ट्रपति की महानत उपलब्धि कही जा सकती है । सन्धि में दोनों देश मध्यम व कम दूरी के प्रक्षेपास नष्ट करने को सहमत हो गए । दोनों देशों के बीच कतिपय अन्य समझौते भी हुए । एक समझौते के अनुसार अमरीका से सोवियत संघ तक वायु सेवा मई 1988 से आरम्भ करने का निर्णय लिया गया ।
2. शस्त्रों की दौड़ में तेजी:
रीगन प्रशासन चाहता था कि अमरीका की सामरिक शक्ति में इतनी वृद्धि हो जाए कि वह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अपनी शक्ति के बल पर धाक जमा सके । रीगन प्रशासन ने 9 अगस्त 1981 को न्यूट्रॉन बम बनाने का निश्चय किया । साल-वार्ता के प्रति रीगन प्रशासन की कोई रुचि नहीं थी और अमरीका अपने बजट में पर्याप्त वृद्धि कर चुका था ।
3. डियागो गार्सिया अड्डे का विस्तार:
अमरीका विश्व में जहां कहीं भी सम्भव हो अपने सैनिक अड्डे बनाकर अपनी रक्षा-पंक्ति को मजबूत करने हेतु कटिबद्ध रहा । डियागो गार्सिया में उसने अपनी सामरिक शक्ति को बहुत विकसित कर लिया । रीगन प्रशासन डियागो गार्सिया पर पृथक् से पांचवां हिन्द महासागर बेड़ा बनाकर लगभग 1 लाख 10 हजार व्यक्तियों को वहां स्थायी रूप से रंखना चाहता था ।
4. पाकिस्तान को सैनिक सहायता:
रीगन प्रशासन की नजरों में पाकिस्तान एशिया में अमरीकी हितों के लिए उपयोगी है । अत : वह उसे ईरान का दर्जा देना चाहता था । वह उसे ऐसा विश्वसनीय क्षेत्रीय मित्र बना देना चाहता था जिस प्रकार पश्चिम एशिया में इजरायल है । इसी कारण अमरीका पाकिस्तान से सम्बन्ध बढ़ाने लगा, उसे समर्थन देता रहा उसे आर्थिक और सैनिक सहायता देता रहा तथा उसे आधुनिकतम घातक हथियारों से लैस करता रहा ।
जहां कार्टर प्रशासन पाकिस्तान को 40 करोड़ डॉलर की सहायता देना चाहता था वहीं रीगन प्रशासन ने 1982-87 में पांच वर्षों के लिए 3 अरब डॉलर और 1987- 1993 के छ: वर्षों के लिए साढ़े चार अरब डॉलर की सहायता की घोषणा की । पाकिस्तान को अमरीका से एफ-16 लडाकू विमान का सुधरा रूप एफ-16 सी, हॉट मिसाइल और पूर्व चेतावनी देने वाले ‘अवाक्स’ विमान, आदि प्राप्त होते रहे ।
5. चीन के साथ दोस्ताना सम्बन्ध:
रीगन प्रशासन चाहता था कि चीन-अमरीकी सम्बन्धों को नया रूप दिया जाए । सोवियत विस्तारवाद को रोकने के लिए अमरीका और चीन के मध्य जून 1981 में एक समझौता हुआ । ऐसा भी कहा जाता है कि 1979 में चीन और अमरीका के मध्य एक गुप्त समझौता हुआ था, जिसके अन्तर्गत चीन के पश्चिमी सीक्यांग के निकट अमरीकी-चीनी प्रक्षेपास्त्र चौकसी केन्द्र कायम किया गया, जिसका उद्देश्य सोवियत संघ की गतिविधियों पर निगरानी रखना था ।
इतना ही नहीं, 6 मई 1982 को राष्ट्रपति रीगन ने अपने उपराष्ट्रपति जॉर्ज बुश के माध्यम से चीन के तीन शीर्षस्थ नेताओं को पत्र लिखकर सोवियत संघ के विरुद्ध चीन तथा अमरीका के सहयोग को मजबूत बनाने की अपील की । 1984 में अमरीकी राष्ट्रपति रीगन की यात्रा के दौरान 28 अप्रैल 1984 को परमाणु सम्बन्धी एक समझौते पर सहमति हुई ।
इस सहमति के अनुसार अमरीका चीन को 12 परमाणु भट्टियां तथा अन्य संयन्त्र देने पर सहमत हुआ । जुलाई 1985 में अमरीका में चीनी राष्ट्रपति ली सियेन नियेन का गर्मजोशी से स्वागत किया गया और दोनों देशों में आणविक सहयोग सम्बन्धी समझौते पर हस्ताक्षर हो गए ।
6. अमरीकी आर्थिक सहायता:
विकासशील देश विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में रीगन के अनुदार दृष्टिकोण से क्षुब्ध रहे । रीगन ने 29 सितम्बर, 1981 को विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की सम्मिलित बैठक में कहा कि “बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता (कर्ज की पूंजी) गरीब लोगों की खुशहाली की कुंजी नहीं है….जब तक कोई राष्ट्र अपनी अर्थव्यवस्था और वित्त-व्यवस्था को नहीं सुधारता तब तक निवेश की राशि चाहे जितनी बड़ी हो उन्नति का कारण नहीं बन सकती ।” विकासशील देश उनके इस दृष्टिकोण का यह अर्थ लगाने लगे कि अमरीका खुले ढंग से निजी क्षेत्र के मार्फत विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर आधिपत्य स्थापित करना चाहता है तथा जो देश अमरीका की नीतियों का समर्थन नहीं करते उन्हें विशेष रूप से कसकर रखने को इच्छुक है ।
7. गुटनिरपेक्ष आन्दोलन:
रीगन को निर्गुट आन्दोलन में सोवियतवाद की ही गन्ध आती रही । संयुक्त राष्ट्र महासभा के मंच से सन् 1983 में रीगन ने सोवियत पिछलग्गू सरकारों के इसमें घुस आने का आरोप लगाते हुए पूरे आन्दोलन को छद्मवेशी गुटनिरपेक्ष आन्दोलन घोषित किया । गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों से मोल ली गयी कटुता का यह परिणाम था कि संयुक्त राष्ट्र संघ का मंच अमरीका की निन्दा का मंच बनता चला गया ।
8. जापान नीति:
रीगन जापान को अति महत्व देते रहे । नवम्बर 1983 में रीगन ने जापान व द कोरिया की सद्भाव यात्रा की । उनकी इच्छा थी कि जापान पूरी तरह से उनके देश के साथ रक्षा समझौते में शामिल हो जाए । बाद में जापान व अमरीका सैन्य तकनीकी के आदान-प्रदान पर सहमत हो गए थे । अमरीका की सोवियत संघ विरोधी नीति के अन्तर्गत जापान ने चीन के साथ भी अपने सम्बन्ध सुधारे । इस प्रकार से सोवियत संघ के विरुद्ध सुदूरपूर्व में चीन, जापान व अमरीका ने एक गुट बनाया ।
9. आर्थिक मुद्दों पर अमरीका व जापान में मतभेद:
राष्ट्रपति रीगन ने जापानी कम्प्यूटरों, टेलीविजनों व उनके उपकरणों पर 18 अप्रैल 1987 को 30 करोड़ डॉलर के दण्डात्मक कर लगाने की घोषणा की । उन्होंने आरोप लगाया कि जापान ने चिप व्यापार समझौते का उल्लंघन कर अमरीकी इलेक्ट्रॉनिक उद्योग को हानि पहुंचाई है । द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद व्यापार के क्षेत्र में अमरीका द्वारा जापान के विरुद्ध उठाया गया यह सबसे व्यापक कदम था ।
10. दक्षिणी कोरिया नीति:
रीगन ने द. कोरिया को उत्तरी कोरिया के विरुद्ध पूरी सहायता देने का आश्वासन दिया । इस समय दक्षिणी कोरिया में अमरीका के 38 हजार सैनिक थे । रीगन ने इस संख्या में वृद्धि करने का प्रस्ताव रखा ।
11. दक्षिणी-पूर्वी एशिया में नाभिकीय प्रक्षेपास्त्रों की तैनाती:
रीगन प्रशासन विश्व को सैनिक कैम्प बनाने में लगा रहा । अमरीकी प्रशासन दक्षिण-पूर्व एशिया में क्रूज प्रक्षेपास्त्रों और रासायनिक अस्त्रों को ले आने की सम्भावनाओं पर गम्भीरता से विचार करने लगा ।
12. अमरीकी बजट में रक्षा व्यय में भारी वृद्धि:
राष्ट्रपति रीगन ने वर्ष 1986 का 973.7 अरब डॉलर का राष्ट्रीय बजट कांग्रेस के विचारार्थ भेजा । बजट में रक्षा व्यय में 32 अरब डॉलर की वृद्धि का प्रावधान था । रीगन ने बजट प्रस्ताव में इस वृद्धि को उचित ठहराते हुए कहा कि सोवियत संघ की सैनिक तैयारी को देखते हुए यह आवश्यक समझा गया ।
13. यूनेस्को से हटना:
रीगन प्रशासन ने यूनेस्को छोड़ने का निर्णय लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ के सामने गम्भीर आर्थिक परेशानियां उत्पन्न कीं ।
14. निकारागुआ:
अमरीका ने निकारागुआ सरकार के खिलाफ सक्रिय विद्रोहियों को दी जाने वाली सहायता में वृद्धि की घोषणा की ।
15. संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यप्रणाली में अविश्वास:
फिलिस्तीनी मुक्ति मोर्चे के अध्यक्ष यासर अराफात को रीगन प्रशासन ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में भाग लेने के लिए ‘वीजा’ न देकर न्यूयार्क आने से वंचित कर दिया । विश्व भर में इसके लिए अमरीका की निन्दा हुई तथा संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक अभूतपूर्व निर्णय लिया कि वह अराफात को सुनने के लिए जेनेवा में महासभा का अधिवेशन आयोजित करेगी ।
अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा आमन्त्रित अतिथि को वीजा न देकर संयुक्त राष्ट्र संघ का अपमान किया और संयुक्त राष्ट्र संघ ने जेनेवा में अधिवेशन विस्तारित कर रीगन की हठधर्मितापूर्ण विदेश नीति को पीड़ित किया ।
Essay # 14. राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और अमरीकी विदेश नीति (1989-1992) (President George Bush and U.S. Foreign Policy, 1989-1992):
रीगन समर्थित जॉर्ज बुश को राष्ट्रपति चुनकर अमरीकी जनता ने स्पष्टतया रीगनकी नीतियों का ही समर्थन किया तथापि जॉर्ज बुश ने अमरीकी विदेश नीति में बुनियादी परिवर्तन कर रीगन की नीति से अलग प्रकार की विदेश नीति का सूत्रपात किया ।
जहां रीगन ने नवशीत-युद्ध की शुरुआत की वहां बुश ने शीत-युद्ध की समाप्ति की घोषणा की; जहां रीगन ने नाटो को शक्तिशाली बनाने की पेशकश की वहीं बुश ने नाटो की अवांछनीयता प्रतिपादित की । जहां रीगन ने ‘स्टारवार’ कार्यक्रम प्रस्तुत किया वहीं बुश ने सामरिक हथियारों में कटौती करने की एकतरफा घोषणा की ।
जॉर्ज बुश की विदेश नीति के प्रमुख लक्ष्य एवं घटनाएं इस प्रकार हैं:
1. शीत-युद्ध का अन्त:
राष्ट्रपति बुश की उदार एवं सौम्य विदेश नीति के कारण सोवियत संघ के साथ अमरीका के मधुर सम्बन्ध स्थापित हुए । दोनों देशों में आर्थिक व्यापारिक एवं वैज्ञानिक क्षेत्रों में सहयोग के अनेक समझौते हुए । दोनों महाशक्तियों के मध्य द्वितीय महायुद्ध के दिनों से चला आ रहा शीत-युद्ध समाप्त हो गया । खाड़ी संकट के समय सोवियत संघ ने अमरीकी नीति का समर्थन किया और रोड़े अटकाने के बजाय सहयोगात्मक रुख अपनाया ।
2. निःशस्त्रीकरण:
राष्ट्रपति बुश ने निःशस्त्रीकरण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी । उनके प्रोत्साहन से ही 10 नवम्बर, 1990 को नाटो व वारसा सन्धि देशों के उप-शासनाध्यक्षों ने एक ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किए । इस सन्धि द्वारा यूरोप में शीत-युद्ध को समाप्त कर दिया गया । सन्धि में दोनों गुटों के लिए सैनिकों की संख्या निर्धारित नहीं की गई लेकिन परम्परागत शस्त्रों की अधिकतम संख्या प्रत्येक के लिए नियत कर दी गई ताकि कोई भी पक्ष इसका उल्लंघन न कर सके ।
3. खाड़ी युद्ध:
खाड़ी युद्ध (1991) राष्ट्रपति बुश की विदेश नीति की महत्वपूर्ण उपलब्धि है । अमरीका ने सक्रिय विदेश नीति अपनाकर सर्वप्रथम सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाच्योव का सहयोग हासिल किया; संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् से अपनी नीति के अनुकूल प्रस्ताव पारित करवाए, बहुराष्ट्रीय सेना का नेतृत्व किया और कुवैत को आजाद कराया ।
कुवैत की स्वतन्त्रता का प्रश्न अमरीका के महत्वपूर्ण राष्ट्रीय हितों से सम्बद्ध था । कुवैत का पेट्रोल अमरीका और पश्चिमी देशों के अस्तित्व से जुड़ा हुआ था । जमीनी लड़ाई में इराक को परास्त कर आज अमरीका पश्चिमी एशिया के शक्ति समीकरण में अपना वर्चस्व स्थापित कर चुका है । यह अमरीकी कूटनीति का ही कमाल है कि उसने खाड़ी युद्ध के दिनों में अरब राज्यों को विभाजित रखा इजरायल को युद्ध में हस्तक्षेप नहीं करने दिया और इराक को तहस-नहस कर दिया ।
4. पूर्वी यूरोप के देशों का समर्थन:
इन्हीं दिनों पूर्वी यूरोप में उदारवाद और लोकतन्त्र की बहार आयी । राष्ट्रपति बुश ने जुलाई 1989 में पोलैण्ड और हंगरी की यात्रा की और वहां उठाए जा रहे लोकतान्त्रिक सुधारों का समर्थन किया । उन्होंने कहा कि पोलैण्ड और हंगरी के आर्थिक विकास में अमरीका सहभागी होगा । उन्होंने कहा कि वह अमरीकी कांग्रेस से हंगरी को 25 मिलियन डॉलर की सहायता प्रदान करने की अनुशंसा करेंगे ।
5. चीन से मैत्री सम्बन्धों को पुख्ता करना:
फरवरी 1989 में राष्ट्रपति बुश ने चीन की यात्रा की और कहा कि अमरीका ऐसा कोई निर्णय नहीं लेगा जिससे चीन के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े । उन्होंने चीन को आश्वस्त किया कि अमरीका ‘एक चीन’ की नीति पर कायम रहेगा ।
6. इजरायल पर अमरीकी दबाव:
इन्हीं दिनों इजरायल के विदेश मन्त्री ने कहा कि इजरायल अरब राज्यों के साथ पश्चिम एशिया शान्ति सम्मेलन में भाग लेने के लिए तैयार है । यह असाधारण इजरायली वक्तव्य संयुक्त राज्य अमरीका के विदेश मन्त्री जेन्स बेकर की इजरायल यात्रा (अप्रैल 1991) के फलस्वरूप आया क्योंकि अमरीका के विदेश मन्त्री ने इससे पूर्व स्पष्ट शब्दों में कहा था कि पश्चिम एशिया में स्थायी शान्ति के लिए इजरायल को अधिकृत अरब क्षेत्रों को खाली करना पड़ेगा । बुश प्रशासन द्वारा इजरायल पर अरबों के साथ बातचीत करने के लिए सहमत होने के लिए दबाव डालना पश्चिम एशिया के प्रश्न पर अमरीका की पूर्व-अनिश्चित नीति से हटकर एक नया रचनात्मक कदम है ।
7. संयुक्त राष्ट्र की बदलती भूमिका:
जनवरी 1992 में सम्पन्न सुरक्षा परिषद् की विशेष शिखर बैठक में राष्ट्रपति बुश ने शीत-युद्ध की समाप्ति के बाद के समय को अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को सुलझाने का महान् अवसर बताया और इसमें संयुक्त राष्ट्र को अपनी भूमिका बढ़ाने की बात कही ।
8. रूस के साथ सहयोग:
1 फरवरी, 1992 को कैम्प डेविड में राष्ट्रपति बुश ने रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन के साथ एक घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किए । इसमें कहा गया कि दोनों क्षमतावान देश शत्रु न होकर ‘विश्वसनीय मित्र’ हैं । दोनों नेताओं ने शीत-युद्ध के बचे अस्त्रों के भण्डार को समाप्त करने लोकतन्त्र को बढ़ावा देने तथा कानून का शासन और मानवाधिकारों की बहाली करने के लिए कार्य करने की प्रतिबद्धता को दोहराया ।
जून 1992 में राष्ट्रपति बुश ने रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन से शिखर वार्ता के बाद वाशिंगटन चार्टर पर सहमति व्यक्त की । दोनों राष्ट्रपतियों ने कुल मिलकर 39 समझौतों पर हस्ताक्षर किए जिनमें सैनिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, तकनीकी और सांस्कृतिक विषय शामिल थे ।
इस व्यापक समझौते के अन्तर्गत परमाणु हथियारों की संख्या दो-तिहाई कम करना तय हुआ । इसमें 2003 ई. तक दोनों देशों के परमाणु हथियार 21,000 से घटाकर 7,000 करने का समझौता हुआ । अमरीका ने रूस के आर्थिक सुधारों में समर्थन देने को अपनी 24 अरब डॉलर की बहुस्तरीय वित्तीय सहायता राशि में साढ़े चार अरब डॉलर देने का वचन दिया ।
9. अब एक ही महाशक्ति-संयुक्त राज्य अमरीका:
सोवियत संघ के विघटन एवं पूर्वी यूरोप से साम्यवाद के अवसान के बाद आज विश्व में एक ही महानतम शक्ति है और वह है संयुक्त राज्य अमरीका । एशिया, लैटिन अमरीका, अफ्रीका और यूरोप में उसका विरोध करने वाला कोई नहीं है ।
खाड़ी युद्ध के माध्यम से अमरीका ने यह सिद्ध कर दिया कि विश्व में यदि स्थिरता आनी है तो वह तभी आएगी जब अमरीका स्वयं उन मूल्यों की रक्षा के लिए सक्रिय भूमिका निभाएगा जिन्हें वह न्याय मूल्यों के रूप में मान्यता देता है ।
अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने अपना समूचा राजनीतिक अस्तित्व दांव पर लगाकर मानव इतिहास की यह सबसे महंगी लड़ाई केवल कुवैत की आजादी या विश्व बाजार में तेल के प्रवाह को अमरीकी नियन्त्रण में लाने के ही उद्देश्य से नहीं लड़ी बल्कि यह युद्ध उन्होंने ‘एक नयी विश्व व्यवस्था’ (A New World Order) की स्थापना के लिए लड़ा । संक्षेप में, शीत-युद्ध का अन्त खाड़ी में अमरीकी विजय पश्चिम एशिया में अमरीकी वर्चस्व और अमरीका का अकेले महानतम शक्ति के रूप में अभ्युदय बुश की विदेश नीति के प्रमुख सीमा-चिह्न हैं ।
यह राष्ट्रपति बुश की ही विदेश नीति की करामात है कि खाड़ी युद्ध में पश्चिम नेतृत्व (विशेषकर अमरीकी) वाली एलायड फोर्सेज की सद्दाम हुसैन पर शानदार विजय तथा सोवियत संघ के पतन के पश्चात् एक बार पुन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की लगाम अमरीका के हाथों में आ गई ।
संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्था अमरीका के हाथ की कठपुतली बन गयी । इसकी सुरक्षा परिषद्, जिसको अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा की स्थापना का मौलिक उत्तरदायित्व सौंपा गया था अमरीका की विदेश नीति के क्रियान्वयन का एक प्रभावशाली यन्त्र मात्र बनकर रह गई ।
Essay # 15. राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और अमरीकी विदेश नीति (1993 से 2000) (President Bill Clinton and U.S. Foreign Policy, 1993 to 2000):
अमरीका में 3 नवम्बर, 1992 को हुए राष्ट्रपति चुनाव में मतदाताओं ने रिपब्लिकन पार्टी को अपदस्थ कर डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता बिल लिटन को भारी बहुमत से नया राष्ट्रपति चुना । 20 जनवरी, 1993 को क्लिंटन ने राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण की । चुनाव प्रचार के दौरान क्लिंटन के भाषणों मे घरेलू मुद्दे बहुतायत से उठाए गए और विदेश नीति से सम्बन्धित मसलों पर वे बहुत कम बोले ।
लेकिन इन मुद्दों पर उन्होंने अपनी जीत के बाद दिए गए अभिवादन भाषण में विचार व्यक्त किए । उनका यह कथन महत्वपूर्ण है कि ”जब शासन बदलता है तो अमरीका के हित नहीं बदलते ।” इसका अभिप्राय यह है कि मुख्य रूप से पिछली विदेश नीति की अधिकतर बातों को जारी रखा जाएगा ।
लिटन ने विशेष रूप से कहा कि उनकी प्राथमिकताओं में पश्चिम एशिया शान्ति वार्ता को जारी रखना रूस के साथ साल्ट सन्धि के प्रयासों में निष्कर्ष पर पहुंचना युद्धरत पूर्व यूगोस्लाविया में शान्ति बहाल करना और अकाल पीड़ित सोमालिया में सहायता आपूर्ति करना शामिल हैं ।
राष्ट्रपति क्लिंटन की विदेश नीति की प्रमुख विशेषताएं तथा क्षेत्र निम्नलिखित हैं:
1. संयुक्त राष्ट्र संघ का पुनर्गठन:
नब्बे के दशक से संयुक्त राष्ट्र संघ के पुनर्गठन की मांग की जा रही थी । सुरक्षा परिषद् के पुनर्गठन का सवाल पहली बार जनवरी 1991 में सुरक्षा परिषद् की पहली शिखर बैठक में उठा था । 1992 में जकार्ता गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन में भी सुरक्षा परिषद् के पुनर्गठन की मांग की गई थी । प्रारम्भ में अमरीका ने सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता हेतु जर्मनी व जापान को अपना स्पष्ट समर्थन देने की घोषणा की ।
जुलाई 1997 में अमरीका सुरक्षा परिषद् की अन्य तीन स्थायी सीटें विकासशील देशों को देने के लिए सहमत हो गया । अमरीकी अधिकारियों के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में विकासशील देशों की भूमिका बढ़ाने के लिए अमरीका ने यह निर्णय किया ।
अमरीकी विदेश विभाग के प्रवक्ता निकोलस बर्न्स ने कहा कि यह एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के विकासशील देशों पर है कि वे स्थायी प्रतिनिधि का चयन चाहेंगे या बारी-बारी से सभी को यह स्थान देने का समर्थन करेंगे । संयुक्त राज्य अमरीका के दबाव के चलते संयुक्त राष्ट्र संघ को संरचनात्मक सुधारों के लिए बाध्य होना पड़ा ।
अमरीका ने जिस पर संयुक्त राष्ट्र संघ की सर्वाधिक बकाया राशि है अपने बकाया के भुगतान के लिए कड़ी शर्तें आरोपित कीं । इनमें संयुक्त राष्ट्र स्टाफ में कटौती संयुत्ह राष्ट्र बजट में अमरीकी हिस्सेदारी में कटौती तथा सुरक्षा अभियानों में अमरीकी सहायता के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा भुगतान करना शामिल है । अमरीका चाहता है कि संयुक्त राष्ट्र के नियमित बजट में उसका अंशदान 25 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत तथा शांति अभियानों में अंशदान 30 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत किया जाए ।
2. रूस के लिए आर्थिक सहायता:
4 अप्रैल, 1993 को क्लिंटन प्रशासन ने रूस के लिए 1.6 अरब डॉलर के सहायता पैकेज की घोषणा की । रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन के साथ अमरीकी राष्ट्रपति की शिखर बैठके (वेंकूवर) के बाद इस योजना की रूपरेखा तैयार हुई जिसमें रूस को 69 करोड़ डालर प्रत्यक्ष अनुदान 70 करोड़ डॉलर की सहायता गेहूं व अन्य खाद्यान्न के रूप में तथा 20 करोड़ अन्य सहायता के रूप में दिया जाना शामिल है ।
अमरीका ने इस पैकेज की घोषणा रूस में राजनीतिक और आर्थिक सुधारों को समर्थन के बतौर की । राष्ट्रपति क्लिंटन के अनुसार रूस की आर्थिक स्थिति को सुधारना तथा येल्तसिन के सुधारों को समर्थन देना अमरीका के अपने हित में है । राष्ट्रपति ने कहा कि एक सशक्त तथा लोकतान्त्रिक रूस अमरीका के लिए लाभदायक है । राष्ट्रपति के अनुसार येल्तसिन के हटाए जाने से रूस में उदारवादी मुक्त बाजार समर्थक अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी और यह पश्चिमी जगत की कूटनीतिक एवं आर्थिक पराजय होगी ।
राष्ट्रपति क्लिंटन ने कहा कि- “चूंकि हमने शीतयुद्ध के दौरान अरबों डॉलर साम्यवाद को हराने में खर्च किए थे अत अब हमें उस धन का एक छोटा-सा हिस्सा निश्चय ही उन देशों के लिए सहायतार्थ देना चाहिए जहां साम्यवाद के स्थान पर लोकतन्त्र की विजय हुई है ।”
राष्ट्रपति ने आगे कहा, “हमें (यानी अमरीका को) विदेश से सम्बद्ध अपनी कार्यसूची में रूस और उसके पड़ोसी देशों को सबसे ऊपर स्थान देना चाहिए ।” 20-21 मार्च 1997 को सम्पन्न हेलसिंकी शिखरवार्ता में राष्ट्रपति क्लिंटन तथा राष्ट्रपति येल्तसिन इस बात पर भी सहमत हुए कि परमाणु हथियारों के परिसीमन की संधि स्टार्ट-III के रूसी संसद द्वारा अनुमोदन के पश्चात स्टार्ट-III वार्ता प्रारम्भ कर दी जाए । इससे वर्ष 2007 तक परमाणु हथियारों के जखीरे में और भी कटौती की जा सकेगी । आर्थिक सहयोग के मामलों पर शिखर वार्ता में यह तय किया गया कि रूस को दाता राष्ट्रों के पेरिस क्लब का सदस्य बनाने में अमरीका सहयोग करेगा ।
3. विदेश स्थित सैनिक अड्डों को बन्द करने का निर्णय:
विदेशों में सैनिक अड्डे बनाने की अमरीकी नीति शीतयुद्ध की राजनीति और 1949 में नाटो तथा ऐसे ही अन्य परवर्ती संगठनों की स्थापना से प्रेरित थी । इस प्रकार अमरीका ने विश्वभर में सैनिक ठिकानों की एक शृंखला तैयार की-पश्चिमी यूरोप से लेकर सुदूर-पूर्व में थाईलैण्ड, दक्षिण कोरिया और फिलिपीन्स जैसे देशों में उसने सैनिक अड्डे कायम किए ।
शीत युद्ध के अन्त के साथ इन सैनिक अष्टों का महत्व कम हो गया । अत: 1990 के अन्तिम दिनों से ही अमरीका अपने सेनिक ठिकानों में कमी करने की नीति का अनुकरण कर रहा है । राष्ट्रपति क्लिंटन ने अप्रैल 1993 में विदेश स्थित 29 ठिकानों को समाप्त करने की घोषणा की । इन्हें मिलाकर अमरीका अब तक 704 सैनिक ठिकाने समाप्त कर चुका है । अमरीका के रक्षा मन्त्री लेस ऐस्यिन के अनुसार सैनिक ठिकानों में की जा रही इस कटौती से सन् 2000 तक 56 अरब डॉलर प्रतिवर्ष की बचत होगी जो संसाधनों की एक बहुत बड़ी बचत साबित होगी ।
4. नक्षत्र युद्ध योजना समाप्त:
अमरीका ने नक्षत्र युद्ध योजना को समाप्त कर दिया । क्लिंटन प्रशासन का मानना है कि शीतयुद्धोतरकाल में एक अस्तित्व-विहीन खतरे के नाम पर इस योजना के अन्तर्गत अरबों डॉलर व्यर्थ व्यय किए जा रहे थे । उल्लेखनीय है कि नक्षत्र युद्ध कार्यक्रम का आरम्भ पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने किया था । इसे जॉर्ज बुश के कार्यकाल की अवधि में भी जारी रखा गया ।
5. मानवाधिकार कूटनीति:
अमरीकी प्रशासन ने घोषणा की कि यदि चीन ने अपने मानवाधिकार रिकार्ड को ठीक नहीं किया तो उसे ‘मोस्ट फेवर्ड नेशन ट्रेड स्टेट्स’ से वंचित कर दिया जाएगा । किन्तु मानवाधिकार के मुद्दे पर चीन झुकने के लिए तैयार नहीं है । चीनी प्रधानमन्त्री फेरा ने स्पष्ट कहा है कि ”चीन कभी अमरीकावादी मानवाधिकारों को स्वीकार नहीं करेगा ।”
यदि कभी अमरीका “मोस्ट फेवर्ड नेशन ट्रेड स्टेट्स” को समाप्त करना चाहता है तो चीन की भी इस ‘स्टेट्स’ में कोई इकतरफा रुचि नहीं है । चीनी-प्रधानमत्री ने कहा कि वर्ष 2000 तक चीन दस खरब डॉलर मूल्य का माल आयात करने लगेगा यदि अमरीका को चीन का वृहद् आयात बाजार नहीं चाहिए तो वह भले ही एम. एफ. एन. स्टेट्स को समाप्त कर दे ।
इस प्रकार चीन ने अमरीकी दबाव के खिलाफ तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की तथा अमरीका पर अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर यह आरोप लगाया कि वह मानवाधिकारों के बहाने से चीन के आन्तरिक मामलों में अवांछनीय हस्तक्षेप कर रहा है । क्लिंटन प्रशासन को चीन के आक्रामक तेवर के आगे झुकना पड़ा तथा चीन को पुन: ‘मोस्ट फेवर्ड नेशन’ का दर्जा प्रदान कर दिया ।
6. अमरीका बनाम जापान:
इस समय जापान के साथ व्यापार में अमरीका को 60 अरब डॉलर अर्थात् 18 खरब रुपयों का वार्षिक घाटा हो रहा था जिससे पूरी अमरीकी अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही थी । क्लिंटन निर्णायक रूप से ऐसा कुछ करना चाहते थे जिससे जापान के दबाव से उनकी अर्थव्यवस्था मुक्ता हो सके ।
अमरीका की जापान से यह शिकायत थी कि वह अमरीका की मुक्त बाजार-व्यवस्था से लाभ उठाकर अपने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को तीव्र गति से बढ़ा रहा है लेकिन अपने बाजार को उसने पूरी तरह बन्द कर रखा है । जापान निर्यात के लिए अपने उत्पादकों को तरह-तरह की रियायतें देता है तथा आयातों पर प्रतिबन्ध लगाता है ।
अल्प आयात व अधिक निर्यात की उसकी अर्थव्यवस्था को क्लिंटन बदल देना चाहते थे । क्लिंटन के दबाव पर जापान ने अपने चावल को विश्व बाजार के लिए खोल दिया । अमरीका को जापान अपना खुला बाजार प्रदान करे, यह आग्रह करने के लिए क्लिंटन जापान की यात्रा कर गए । लेकिन जापान ने उनकी बात नहीं मानी ।
अमरीका ने जापान पर ‘सुपर-301’ लागू करने की चेतावनी दी । ‘सुपर-301’ के अन्तर्गत अमरीका किसी भी देश से होने वाले आयात पर 100 प्रतिशत दण्डात्मक प्रशुल्क लगा सकेगा । राष्ट्रपति क्लिंटन एवं जापान के प्रधानमंत्री हाशीमोती ने 17 अप्रैल 1996 को टोक्यो में संयुक्त सुरक्षा घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किए ।
अमरीका ने एशिया-प्रशान्त क्षेत्र में शांति व स्थिरता की सुरक्षा के लिए एक लाख सैनिक तैनान करने का वचन दिया । संयुक्त घोषणापत्र में रक्षा सहयोग के महत्व पर बल दिया गया । इसमें कहा गया कि जापान अपने यहां अमरीकी सैनिकों को वित्तीय और अन्य सैनिक सहायता देता रहेगा ।
7. भारत-अमरीकी सम्बन्धों में ऐतिहासिक मोड़:
राष्ट्रपति क्लिंटन ने 27 सितम्बर 1993 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में कश्मीर को ऐसा संघर्षग्रस्त क्षेत्र बताया जिससे विश्व-शान्ति को खतरा है । इससे पहले किसी अमरीकी राष्ट्रपति ने किसी अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर इस तरह का बयान नहीं दिया था । कश्मीर के अलावा मानवाधिकार परमाणु अप्रसार और व्यापार भारत-अमरीका सम्बन्ध में कडवाहट के प्रमुख मुद्दे रहे ।
11 एवं 13 मई, 1998 को भारत ने पोखरण में पांच परमाणु परीक्षण किए जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप 18 जून को अमेरिका ने भारत के खिलाफ आर्थिक प्रतिबन्ध लागू करने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी । पोखरण परमाणु विस्फोटों के बाद 200 से ज्यादा भारतीय संस्थानों व कम्पनियों को अमेरिका ने काली सूची में डाल दिया था ।
प्रतिबन्धित संस्थानों व कम्पनियों के साथ किसी भी तरह के कारोबार पर रोक गा दी गई थी । दिसम्बर 1999 में क्किटन प्रशासन ने पोखरण में परमाणु विस्फोट के बाद लागू प्रतिकन्त्रों की सूची से 51 भारतीय कम्पनियों को हटा दिया जिसका भारत ने सही दिशा में कदम बताकर स्वागत किया ।
मार्च 2000 में राष्ट्रपति क्लिंटन ने 5 दिवसीय भारत की यात्रा की । दोनों देशों ने अपने सम्बन्धों की भविष्य की दिशा को लेकर एक दृष्टिकोण पत्र जारी किया जिसमें दोनों देशों के शासनाध्यक्षों के बीच नियमित रूप से शिखर बैराक सुरक्षा तथा परमाणु अप्रसार पर चल रही बातचीत को गति प्रदान करने आपसी सम्बन्धों तथा अन्य मुद्दों की समीक्षा करने और आतंकवाद से और अधिक कारगर ढंग से मिलकर निपटने पर सहमति व्यक्त की ।
साथ ही दोनों पक्षों ने इस क्षेत्र की समस्याओं के समाधान में तीसरे पक्ष की मध्यस्थता को अस्वीकार करते हुए स्वीकार किया कि दक्षिण एशिया में तनाव इस क्षेत्र के देश ही दूर कर सकते हैं । दस्तावेज में जिसे ‘दृष्टिकोण पत्र-2000’ नाम दिया गया भारत-अमेरिका के आपसी सम्बन्धों को प्रगाढ़ बनाने के लिए आठ सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की गई । करगिल के सन्दर्भ में क्लिंटन ने भारत का प्रखर एवं मुखर समर्थन किया जिससे पाकिस्तान अलग-थलग पड गया ।
8. नाफ्टा:
नाफ्टा (उत्तरी अमरीका मुक्ता व्यापार सगझौता) के निर्माण में क्लिंटन की भूमिका उल्लेखनीय है । यह समझौता उत्तरी अमरीका महाद्वीप के तीन देशों-अमरीका कनाडा और मैक्सिको के एक नए शक्तिशाली क्षेत्रीय संगठन का जनक है जो तीखे अन्तर्विरोधों से ग्रस्त संयुक्त राज्य अमरीका के आर्थिक तन्त्र को स्फूर्ति प्रदान करने वाला ताबीज साबित होगा ।
नाफ्टा लागू होने के बाद मैक्सिको जाने वाला 65 प्रतिशत अमरीकी माल बिना आयात शुल्क अदा किए मैक्सिको के बाजारों में बिक सकेगा । इसके अतिरिक्त अमरीकी पूंजी निवेश पर क्रमश: सभी प्रतिबन्ध हट जाएंगे ।
नाफ्टा के अन्तर्गत अमरीका, कनाडा और मैक्सिको अगले 15 वर्षों में अपने यहां व्यापार पर लगे सारे प्रतिबन्धों को हटाकर मुक्त व्यापार क्षेत्र बन जाएंगे । यह विश्व का इस समय सबसे बड़ा मुक्त व्यापार क्षेत्र माना जा रहा है ।
9. एपेक:
राष्ट्रपति क्लिंटन के प्रयासों से ‘एशिया-प्रशान्त आर्थिक सहयोग संगठन’ (APEC) का गठन नवम्बर 1993 में किया गया । इसमें अमेरिका और चीन सहित 18 सदस्य राष्ट्र हैं । आर्थिक दृष्टि से गतिशील इस क्षेत्र में 25 वर्षों के भीतर सभी व्यापारिक बाधाएं दूर कर ली जाएंगी । इसके माध्यम से पूर्वी एशिया की उभरती आर्थिक शक्ति के दोहन का अमेरिका को बड़ा बाजार क्षेत्र मिल सकेगा ।
10. उत्तर कोरिया:
अगस्त 1994 में अमेरिका और उत्तर कोरिया के मध्य परमाणु मुद्दे पर तनाव कम करने व राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करने की तैयारी पर सहमति हो गई । वार्ता के दौरान अमेरिका उत्तर कोरिया को सुरक्षित परमाणु प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल में मदद देने राजनीतिक व आर्थिक सम्बन्ध सामान्य बनाने तथा व्यापारिक व निवेश बाधाओं को कम करने पर सहमत हो गया ।
11. नाटो का विस्तार:
राष्ट्रपति क्लिंटन की पहल पर पूर्वी यूरोप के तीन देशों-पोलैण्ड, हंगरी एवं चेक-गणराज्य को जुलाई 1997 में नाटो का सदस्य बना लिया गया ।
12. क्लिंटन की चीन यात्रा:
लगभग 1,000 लोगों के दल सहित क्लिंटन ने जून-जुलाई 1998 में चीन की यात्रा की । अपने भाषण में क्लिंटन ने कहा कि हम (अमेरिका और चीन) एक साझा रणनीति बनाने पर विचार कर रहे हैं । चीन से व्यापार सौदे प्राप्त करने में क्लिंटन अवश्य सफल रहे और यही उनकी यात्रा का प्रमुख उद्देश्य भी था ।
27 जनवरी, 2000 को कांग्रेस के संयुक्त सत्र के समक्ष अपने अन्तिम उद्बोधन में राष्ट्रपति क्लिंटन ने कांग्रेस से अपील की कि विश्व व्यापार संगठन में चीन के प्रवेश का विरोध न किया जाए । उनके अनुसार चीन की अर्थव्यवस्था आज जितनी खुली है, उतनी खुली पहले कभी नहीं थी ।
13. क्लिंटन-येल्तसिन शिखर वार्ता:
2 सितम्बर, 1998 को मास्को में क्लिंटन-येल्तसिन शिखर वार्ता सम्पन्न हुई । येल्तसिन ने क्लिंटन के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया कि रूस भारत के साथ रक्षा सहयोग बन्द कर दे । चेचेन्या को लेकर भी क्लिंटन और येल्तसिन में टकराव देखा गया ।
रूस चेचेन्या को अपने देश का अंग मानता है और वहां उसकी सेना क्या करती है, यह रूस का निजी मामला है । लेकिन अमेरिका मानवाधिकारों के हनन का तर्क देते हुए रूस को चेचेन्या में जोर जर्बदस्ती बन्द करने के लिए दबाव डालने लगा । दोनों महाशक्तियों ने सभी देशों से सी. टी. बी. टी. पर हस्ताक्षर करने का अनुरोध भी किया ।
14. सिएटल वार्ता की विफलता में अमरीकी भूमिका:
3 दिसम्बर, 1999 को सिएटल में सम्पन्न विश्व व्यापार संगठन की तृतीय मन्त्रिस्तरीय वार्ता बिना किसी साझी घोषणा के समाप्त हुई । अमेरिका चाहता था कि पर्यावरण एवं श्रम मानक के मुद्दों पर कोई समझौता आरोपित कर दिया जाए ।
विकासशील देशों को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करने के लिए उसने स्वैच्छिक संगठनों (NGOs) का एक विराट प्रदर्शन सम्मेलन के समक्ष आरोपित किया । जब विकासशील देश इससे प्रभावित नहीं हुए तब राष्ट्रपति क्लिंटन ने धमकी दी ‘यदि पर्यावरण एवं श्रम मानकों के मुद्दों को स्वीकार नहीं किया गया तो अमेरिका उन देशों के खिलाफ आर्थिक प्रतिकध लगा देगा ।’ विकासशील देश सिएटल में अमरीकी हेकड़ी के खिलाफ एकजुट हो गए । अमरीकी अखबारों ने क्लिंटन की सिएटल रणनीति की भरपूर आलोचना की ।
15. क्लिंटन-पुतिन शिखर वार्ता (जून, 2000):
जून 2000 में अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन ने रूस की यात्रा की और रूसी गणराज्य के राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन के साथ सम्पन्न 4 जून को पहली शिखर वार्ता में हजारों परमाणु हथियार बनाने में सक्षम 34 टन प्लूटोनियम नष्ट करने पर सहमति हो गई । दोनों पक्ष परमाणु हमले से बचने के लिए मॉस्को में एक ऐसा संयुक्त केन्द्र स्थापित करने पर भी सहमत हो गए जो प्रक्षेपास्त्र प्रक्षेपण की निगरानी करेगा ।
शिखर वार्ता के अन्त में दोनों पक्षों ने सोलह सूत्री घोषणा-पत्र स्वीकार किया जिसमें सामूहिक संहार, प्रक्षेपास्त्र व इसकी प्रौद्योगिकी पर चिन्ता व्यक्त की गई । लेकिन दोनों नेता 1972 की प्रक्षेपास्त्र निरोधक सन्धि में संशोधन पर मतभेद दूर करने में विफल रहे ।
संक्षेप में, राष्ट्रपति बिल क्लिंटन अरब-इजरायल समस्या को सुलझाना चाहते थे । वे उन देशों पर दबाव डालते रहे (जैसे-भारत पाकिस्तान) जो परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर करने के इच्छुक नहीं हैं । जहां तक मानवाधिकारों की बात है, लिटन इसे लागू करने के लिए काफी उत्सुक और चिन्तित थे । वे युद्धास्त्रों के अंबार में कटौती करने के पक्ष में थे ।
Essay # 16. राष्ट्रपति जार्ज वाकर बुश और अमेरिकी विदेश नीति (2001 से) (President George W.Bush and U.S. Foreign Policy, From January 2001):
जनवरी, 2001 में राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू. बुश ने आते ही विदेश नीति के क्षेत्र में आक्रामक रुख अपनाने के संकेत दिए । इसकी शुरुआत खाड़ी युद्ध के समय सेनाध्यक्ष रहे जनरल कोलिन पावेल को विदेश मन्त्री बनाने के साथ ही हो गई थी ।
दुष्ट परमाणु ताकतों से अमेरिका और उसके मित्र देशों की सुरक्षा के लिए बुश 100-200 अरब डॉलर की एनएमडी व्यवस्था विकसित करना चाहते थे जिससे विश्व में हड़कम्प मच गया । आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई जारी रखने एवं विश्व भर में लोकतन्त्र को आगे बढ़ाने की प्रतिज्ञा के साथ राष्ट्रपति जार्ज डबल्यू. बुश ने 20 जनवरी, 2005 को अपने दूसरे कार्यकाल के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति पद की शपथ ली ।
राष्ट्रपति जार्ज डबल्यू. बुश की विदेश नीति के प्रमुख सीमा चिन्ह निम्नांकित हैं:
रूस:
बुश के कार्यकाल के प्रारम्भिक 6-7 महीनों में रूस के साथ अमेरिका के सम्बन्ध तनावपूर्ण हो चुके थे । मार्च 2001 में दोनों देशों ने जासूसी के आरोप में एक-दूसरे के दर्जनों राजनयिकों को देश से निकाल दिया। उस दौरान रूसी राष्ट्रपति पुतिन के बयानों से भी लगा कि शीतयुद्ध काल के तनाव फिर से सतह पर आ सकते हैं ।
अमरीका में क्रेफोर्ड में 14-16 नवम्बर, 2001 को राष्ट्रपति बुश एवं राष्ट्रपति पुतिन के मध्य तीन दिवसीय वार्ता सम्पन्न हुई । अफगानिस्तान में वैकल्पिक सरकार के गठन के साथ-साथ नाभिकीय शस्त्रों में कटौती करने, ऐसे शस्त्रों का प्रसार रोकने आदि पर जहां दोनों नेताओं में आम सहमति थी वहीं अमरीका के राष्ट्रीय प्रक्षेपास सुरक्षा कार्यक्रम पर दोनों पक्षों के मतभेद कायम रहे । रूस ने अमरीका के इस कार्यक्रम का भारी विरोध करते हुए इसे 1972 की एंटी-बैलिस्टिक मिसाइल संधि का उल्लंघन बताया ।
24 मई, 2002 को अमेरिका के राष्ट्रपति पहली बार मास्को गए । स्वागत और विरोध के बीच बुश ने रूस के साथ मित्रता मजबूत करने के लिए परमाणु शस्त्रों में कटौती के ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किए । 13 मई को परमाणु हथियारों में कटौती सन्धि की घोषणा करने के बाद राष्ट्रपति बुश ने कहा कि यह सन्धि शीत युद्ध की विरासत को खत्म करेगी ।
सन्धि की शर्तों के मुताबिक अमेरिका और रूस दोनों मिलकर साढ़े चार हजार के लगभग परमाणु हथियार कम करेंगे । तथापि नाटो के विस्तार की योजना ने रूस के लिए चिन्ता की स्थिति उत्पन्न कर दी है । मार्च 2004 में सात नए राज्यों को नाटो में शामिल करके नाटो तथा उसकी आड़ में अमरीका की सैनिक शक्ति का बढ़ता दबाव रूस के लिए भारी चिन्ता का विषय है । अब रूस चारों तरफ से अमरीकी सैनिक अड्डों से घिर गया है ।
चीन-अमेरिकी रिश्तों में तनाव:
अप्रैल 2001 में चीन-अमेरिकी रिश्तों में शीतयुद्ध की सी स्थितियां उभरने लगीं । अमरीकी नौसेना का तथाकथित टोही विमान चीन की सीमा में घुस गया तथा चीन के युद्धक जेट विमान से टकरा गया । अमेरिकी टोही विमान को चीन ने अपने हैनान द्वीप के सैनिक अहुए पर जबर्दस्ती उतार लिया ।
चीन ने इसे अमरीका की आक्रामक कार्रवाई माना । इस घटना ने दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संकट पैदा कर दिया । चीन जिद करने लगा कि अमेरिका इस हादसे कि लिए क्षमा याचना करे । ग्यारह दिन बाद अमेरिकी चालक दल रिहा हुआ लेकिन इसके पहले अमेरिका ने लिखित रूप से दो बार ‘वेरी सॉरी’ कहकर दुःख प्रकट किया ।
पांच महीनों की नोक-झोंक के बाद अगस्त 2001 में अमरीका ने चीन के एफ लड़ाकू विमान को गिराने के एवज में 34,567 डॉलर की राशि चीन को प्रेषित की । चीन ने इसके लिए 10 लाख डॉलर की क्षतिपूर्ति की मांग की थी । अमेरिका और चीन के महत्वाकांक्षी अन्तरिक्ष कार्यक्रमों की घोषणा के बाद से दोनों देशों के मध्य एक मंहगी और खतरनाक अन्तरिक्ष होड़ शुरू हो चुकी है और दोनों देश प्रतिस्पर्धात्मक मुद्रा में आ गए हैं ।
भारत:
जार्ज डबल्यू. बुश के प्रशासन में सामरिक दृष्टि से भारत को अधिक महत्व दिया जा रहा है तथा भारत से रक्षा सहित अन्य क्षेत्रों में सम्बन्ध बनाने की सम्भावनाओं पर विचार किया जा रहा है । भारत पर लगे प्रतिबन्धों के बावजूद अमरीकी प्रशासन ने राष्ट्रीय प्रक्षेपास्त्र रक्षा प्रणाली पर भारत से सलाह लेने का निर्णय किया ।
अप्रैल 2001 में भारत के विदेश मन्त्री बुश प्रशासन के साथ पहचान बनाने और रिश्तों की सम्भावना टटोलने गए थे लेकिन राष्ट्रपति बुश के साथ उनकी अचानक और सीधी वार्ता ने व्यावहारिकता के धरातल पर भारत-अमेरिका सम्बन्धों की नींव डाल दी । जब जसवन्त सिंह अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सुश्री राइस के कार्यालय में थे तब राष्ट्रपति बुश वहां अचानक आए और जसवन्त सिंह से मिले ।
बुश ने जसवन्त सिंह को अपने ओवल ऑफिस आने का निमन्त्रण दिया । 23 सितम्बर, 2001 को अमरीका ने भारत व पाकिस्तान पर आरोपित अमरीकी प्रतिबन्धों को हटाने की घोषणा की । कश्मीर के मामले में अमरीका के दृष्टिकोण में बदलाव आने लगा जिसका आभास अमरीकी विदेश मन्त्री कोलिन पावेल की 27-28 जुलाई, 2002 की भारत व पाकिस्तान यात्रा के दौरान भारत को हुआ ।
अभी तक कश्मीर को भारत व पाकिस्तान के बीच का द्विपक्षीय मामला बताने वाले अमरीका ने यह स्पष्ट कर दिया कि कश्मीर का मुद्दा अन्तर्राष्ट्रीय एजेण्डे पर है । तथापि पाकिस्तान को नाटो के बाहर मुख्य सैन्य सहयोगी का दर्जा देने की अमरीकी घोषणा ने अमरीका पर से भारत का भरोसा कम होने लगा ।
28 जून, 2005 को पारस्परिक रक्षा सम्बन्धों को नये आयाम प्रदान करते हुए भारत व अमरीका ने एक नये रक्षा सहयोग समझौते पर वाशिंगटन में हस्ताक्षर किये । ‘न्यू फ्रेमवर्क फॉर दि यूएस-इण्डिया डिफेन्स रिलेशनशिप’ शीर्षक वाले इस समझौते में दोनों देशों के मध्य अगले 10 वर्षों के लिए सुरक्षा सहयोग की रूपरेखा निर्धारित की गई है ।
18 जुलाई, 2005 को भारत-अमरीका के द्वारा जारी साझा बयान (डॉ. मनमोहन सिंह की अमरीका यात्रा के अवसर पर) का सबसे महत्वपूर्ण भाग नाभिकीय ऊर्जा समझौता है । मार्च 2006 (जॉर्ज बुश की भारत यात्रा के अवसर पर) में सम्पन्न समझौते के अन्तर्गत भारत अपने सैन्य य असैन्य उपयोग वाले परमाणु संयन्त्रों को अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी की निगरानी के अधीन लाने को सहमत हुआ है ।
भारत और अमरीका के बीच परमाणु समझौते से दोनों देशों के द्विपक्षीय सम्बन्धों में नया मोड़ आया है । भारत की तर्ज पर ही पाकिस्तान के साथ भी परमाणु सहयोग समझौते को राष्ट्रपति बुश ने नकार दिया । अमरीका भारत को जहां एक जिम्मेदार देश मानता है वहीं पाकिस्तान का इस मामले में रिकार्ड अच्छा नहीं मानता ।
पश्चिमी गोलार्द्ध का व्यापारिक गुट:
अप्रैल, 2001 में क्यूबेक सिटी में अमेरिका महाद्वीप का शिखर सम्मेलन सम्पन्न हुआ । इस सम्मेलन में अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज डबल्यू. बुश सहित उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका महाद्वीपों के विभिन्न देशों के राष्ट्रपतियों एवं प्रधानमन्त्रियों ने वर्ष 2005 के अन्त तक मुक्त व्यापार क्षेत्र की स्थापना पर सहमति व्यक्त की ।
इस एकीकरण से 130 खरब की आर्थिक व्यवस्थाएं इकट्ठी हो जाएंगी इससे प्रतिस्पर्द्धा में वृद्धि होगी । शिखर वार्ता में यह भी निर्णय किया गया कि अमेरिका के मुक्त व्यापार क्षेत्र में केवल लोकतन्त्र को ही स्थान दिया जाएगा तथा जो देश लोकतन्त्र को छोड़ देंगे वे इस क्षेत्रीय गठबन्धन का भाग नहीं रहेंगे अर्थात् किसी देश में सेना द्वारा तख्ता पलट होगा तो उसे निकाल दिया जाएगा ।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की सदस्यता से वंचित:
अमेरिका को संयुक्त राष्ट्र की एक महत्वपूर्ण संस्था ‘अन्तर्राष्ट्रीय मादक पदार्थ नियन्त्रण बोर्ड’ के चुनाव में (मई 2001) पराजय का सामना करना पड़ा जबकि भारत तथा पांच अन्य देश इसके सदस्य चुन लिए गए । इससे पहले अमेरिका को ‘संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग’ की सदस्यता से वंचित होना पड़ा ।
लगातार तीसरी बार चुनाव लड़ रहे अमेरिकी प्रत्याशी हर्बर्ट ओकुन मतदान के प्रथम चरण में ही हार गए । विश्लेषकों का मानना पैं कि संयुक्त राष्ट्र की बकाया राशि का समय पर भुगतान न करना तथा प्रक्षेपास्त्र रक्षा प्रणाली तैनात करने के चलते अमेरिका को हार का सामना करना पड़ा । आर्थिक तंगहाली से गुजर रहे संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य देशों पर कुल 4,295 अरब डॉलर (15 जुलाई, 2001 तक) बकाया है और उसमें से आधी से भी ज्यादा रकम अकेले अमरीका पर बाकी है ।
क्योटो-प्रोटोकोल का विरोध:
विषाक्त गैसों से मुक्ति दिलाने के लिए 1997 में जापान के क्योटो शहर में द्वितीय पृथ्वी सम्मेलन हुआ जो क्योटो प्रोटोकोल के नाम से जाना जाता है । अमेरिका सहित सभी औद्योगिक एवं विकासशील देशों ने इस प्रोटोकोल पर हस्ताक्षर किए थे । क्योटो प्रोटोकोल के अनुसार 5 से 7 प्रतिशत तक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सरण कम करना है ।
28 मार्च, 2001 को राष्ट्रपति जार्ज बुश ने स्पष्ट कर दिया कि वे सीनेट से ‘क्योटो प्रोटोकोल’ की अभिपुष्टि का आग्रह नहीं करेंगे क्योंकि यह प्रोटोकोल अमरीका के आर्थिक एवं राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल है । राष्ट्रपति की उद्घोषणा से अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरणविदों को जबरदस्त धक्का लगा है ।
यूरोपीय संघ के नेताओं ने कहा कि अमेरिका को ‘अहम्मन्य’ महाशक्ति की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए । यूरोपीय संघ के पर्यावरण आयुक्त मार्गोट वालस्ट्रोम ने कहा ”यदि यह सच है कि अमरीका क्योटो प्रोटोकोल से बाहर चले जाने का विचार रखता है तो यह गम्भीर चिन्ता का विषय है ।”
राष्ट्रीय प्रक्षेपास्त्र सुरक्षा प्रणाली (एन.एम.डी.):
राष्ट्रपति बुश ने 1 मई, 2001 को वाशिंगटन में नेशनल डिफेन्स यूनिवर्सिटी में भाषण देते हुए अमेरिका की राष्ट्रीय प्रक्षेपास सुरक्षा प्रणाली (National Missile Defence-NMD) की घोषणा की । यदि किसी भी देश ने अमरीका पर या किसी दूसरे देश को निशाना बनाते हुए अणु शास्त्र छोड़ा तो जमीन पानी या आसमान पर खड़ी अमेरिकी मिसाइलें उस छोड़े गए अस पर प्रत्याक्रमण कर तुरन्त उसे नष्ट कर देंगी और फिर उनके पीछे से दूसरी अमरीकी मिसाइलें सीधे उसी ठिकाने को भी निशाना बना देंगी जहां से अणु शस्त्र छोड़ा गया होगा ।
4 दिसम्बर, 2001 को किये गये तीसरे सफल परीक्षण के तहत हमलावर डमी परीक्षण मिनटमैन 11 को कैलीफोर्निया के वेन्डेनबर्ग हवाई अड्डे से छोड़ा गया जिसके लगभग 22 मिनट पश्चात् 7,725 किमी. दूर प्रशांत महासागर में मार्शल द्वीपसमूह में स्थित क्वाजालीन एटॉल से अवरोधक प्रक्षेपास छोड़ा गया । ‘किल ह्वीकल’ युक्त इस मारक प्रक्षेपास्त्र ने 15 हजार मील प्रति घण्टे की गति से उड़कर हमलावर मिसाइल को आकाश में ही नष्ट करने में सफलता प्राप्त की ।
ऐसा लगता है कि बुश 1972 के एन्टी बैलिस्टिक मिसाइल (ABM) समझौते को दरकिनार करके ऐसा सुरक्षा कवच बनाना चाहते हैं जिसमें ऐसी अत्याधुनिक प्रणालियां शामिल हों जो हमलावर मिसाइलों का पहले ही पता लगाकर उन्हें बीच में ही नष्ट करके अमेरिका और उसके मित्रों को ‘एक खतरनाक और अनिश्चित विश्व’ से सुरक्षा प्रदान करें ।
बुश ने अमरीका के परमाणु अस्त्रों की संख्या 7,500 से घटाकर 2,000 करने की भी पेशकश की । जिसे आलोचकों के अनुसार पुराने बेकार अस्त्रों से निजात पाने और बेहतर अल बनाने की चाल कहा गया है ।
एबीएम संधि से हटने की घोषणा:
23 अगस्त, 2001 को राष्ट्रपति जार्ज वाकर बुश ने 1972 की प्रक्षेपास्त्र संधि (ABM Treaty) से अमरीका के हटने की घोषणा की । उनके अनुसार अपनी सुविधानुसार अमरीका किसी भी समय इस संधि से हट जाएगा क्योंकि यह संधि 21वीं सदी के खतरों से अमरीका को बचाने के लिए जरूरी रक्षात्मक हथियारों के विकास करने की अमरीकी क्षमता को बाधित करती है ।
तालिबानों के विरुद्ध अमरीकी सैन्य कार्यवाही:
न्यूयार्क एवं वाशिंगटन में 11 सितम्बर, 2001 को हुए आतंकी हमलों के प्रत्युतर में अमरीका द्वारा 7 अक्टूबर, 2001 से अफगानिस्तान में सैन्य कार्यवाही प्रारम्भ की गई । ‘आपरेशन एंडच्योरिंग फ्रीडम’ के तहत यह सैन्य कार्यवाही उस समय प्रारम्भ की गई जब तमाम अन्तर्राष्ट्रीय दबावों के बावजूद आतंकवादी सरगना ओसामा बिन लादेन को अमरीका को सौंपने के लिए तालिबान प्रशासन तैयार नहीं हुआ ।
अफगानिस्तान में तालिबान नियन्त्रित ठिकानों पर हमलों से पूर्व अमरीका ने विश्व के अधिकांश राष्ट्रों का कूटनीतिक समर्थन प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर ली थी । अमरीकी सैन्य कार्यवाही का समर्थन करने वाले राष्ट्रों में वे तीनों राष्ट्र पाकिस्तान सऊदी अरब व संयुक्त अरब अमीरात भी शामिल थे जिनके तालिबान सरकार से राजनयिक सम्बन्ध थे ।
अमरीकी सैन्य कार्यवाही में तालिबानी ठिकाने जहां ध्वस्त हुए वहीं कार्यवाही के मुख्य लक्ष्य ओसामा बिन लादेन तथा तालिबानों के प्रमुख मुल्ला मोहम्मद उमर का बाल भी बांका नहीं हो सका ।
इराक पर आक्रमण:
मार्च 2003 में अमरीका ने राष्ट्रपति बुश की पहल पर इराक के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया । युद्ध का मानस बना चुका अमरीका इराक पर हमले के लिए ज्यादा समर्थन नहीं जुटा सका । गत दशक के शुरू में हुए खाड़ी युद्ध में संयुक्त राष्ट्र साथ था और सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव में इराक को स्पष्ट अल्टीमेटम दिया गया था, किन्तु इस बार संयुक्त राष्ट्र के अप्रासंगिक हो जाने की धमकी भी काम नहीं आई ।
सुरक्षा परिषद् में कई देशों की वीटो की धमकी को देख उसकी बैठक का सामना न करना ही अमरीका ने बेहतर समझा । फ्रांस ने तो वीटो की धमकी दी ही थी रूस और चीन ने अमरीकी हमले को अन्तर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन बताया ।
जर्मनी ने भी स्पष्ट आलोचना की । राष्ट्रपति बुश ने अपने प्रसारण में 35 देशों के समर्थन की बात कही इसी से स्पष्ट है कि अधिकांश देश अमरीका के साथ नहीं थे । तमाम प्रयासों के बावजूद अमरीका सुरक्षा परिषद् को साथ नहीं ले पाया ।
20 मार्च, 2003 को शुरू किए गए ‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ मिशन अन्तर्गत 26 दिन के इस युद्ध के बाद अमरीकी सेना ने इराक पर कब्जा कर लिया । इराक को हुई क्षति का आकलन अभी नहीं किया जा सका है जबकि संयुक्त सेना के 132 सैनिक इस युद्ध में मारे गए ।
युद्ध के दौरान किसी तरह के रासायनिक जैविकीय या नाभिकीय शस्त्र भी अमरीकी सेनाओं के हाथ नहीं लगे । ऐसे हथियारों की खोज के लिए हैंस च्चिक्स के नेतृत्व वाले व सुरक्षा परिषद् द्वारा अधिकृत जांच दल की आगे किसी भूमिका को अमरीका ने नकार दिया तथा आगे इस कार्य को अपनी सेना के माध्यम से ही कराने को उसने कहा ।
इराक पर कब्जे के साथ ही 55 सर्वाधिक वांछितों र्को एक सूची अमरीकी प्रशासन ने जारी की इनमें सद्दाम हुसैन का नाम सबसे ऊपर है । उसकी गिरफ्तारी के लिए 2 लाख डॉलर का इनाम अमरीका ने घोषित किया । ऑपरेशन इराकी फ्रीडम की सफलता के बाद इराक में पुनर्निर्माण का नेतृत्व अपने सेवानिवृत्त जनरल ले. गार्नर को अमरीका ने सौंपा ।
22 मई, 2003 को सुरक्षा परिषद् ने अमरीका व ब्रिटेन को इराक का शासन चलाने और उसका तेल बेचने के अधिकार प्रदान कर दिए । वस्तुत: इराक युद्ध के वास्तविक कारण हैं: इराक का तेल डॉलर व यूरो में वर्चस्व की लड़ाई नई विश्व व्यवस्था में पश्चिम एशिया को पूर्णत: अमरीकी-प्रभुत्व में लाना तथा अमरीका की आर्थिक बहाली में युद्धरूपी ऑक्सीजन की जरूरत ।
अमेरिका के आर्मी वार कॉलेज की एक रिपोर्ट में इराक के खिलाफ युद्ध को ‘गैर जरूरी’ बताया गया । इसमें कहा गया कि आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की लड़ाई में संसाधनों की बर्बादी हुई और ध्यान भटका । अमेरिका ने इराक युद्ध में अपनी 1,40,000 सेना झोंक दी और सेना की लगभग आधी युद्धक शक्ति इराक में अटकी रही-एक ऐसे देश में जो अलकायदा से सम्बन्धित नहीं था और जिसके पास जाहिरा तौर पर जनसंहार के हथियार नहीं थे ।
ईरान को चेतावनी:
यूरोपीय संघ और अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) के कड़े रुख से उत्ताहित अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने ईरान को चेतावनी देते हुए 20 जून, 2003 को संकेत दिया कि इराक के बाद अमेरिका का अगला निशाना ईरान हो सकता है ।
उन्होंने ईरान के विरुद्ध किसी तरह की कार्रवाई की रणनीति का खुलासा नहीं किया लेकिन इतना तय है कि ईरान के खिलाफ यूरोपीय संघ और संयुक्त राष्ट्र की एक महत्वपूर्ण एजेंसी के कड़े रुख से उत्साहित बुश ने ईरान मुद्दे को इराक के बाद अपनी प्राथमिकता में रखा है ।
वे विश्व समुदाय से पहले ही आग्रह कर चुके हैं कि ईरान पर चौतरफा दबाव डाला जाए । बुश ने पिछले वर्ष ईरान को तुष्ट राष्ट्रों की धुरी का सदस्य करार दिया था । अब अमेरिका ने ईरान पर परमाणु हथियार कार्यक्रम में तेजी लाने का आरोप लगाया है ।
ईरान के अपने परमाणु कार्यक्रम पर कायम रहने से अमरीका जनसंहारक हथियारों का हौव्वा खड़ा कर रहा है । अमरीका की पूरी कोशिश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में ईरान को दोषी ठहराने की है । हाल ही ईरान ने यूरेनियम सम्बर्द्धन में सफलता का दावा भी किया है । ईरान का कहना है कि उसे परमाणु क्षमता वाला राष्ट्र माना जाये ।
जनसंहारक अस्त्र होना अमरीका के लिए कार्यवाही करने का एक बड़ा आधार है । ईरानी नेता अहमदी निजाद के खिलाफ वैसा ही दुष्प्रचार किया जा रहा है जैसा सद्दाम हुसैन के खिलाफ किया गया था ।
नाटो के बाहर पाकिस्तान मुख्य सैन्य सहयोगी:
मार्च 2004 में अमरीका ने पाकिस्तान के साथ अपनी दोस्ती को और मजबूती देते हुए घोषणा की कि वह उसे ‘प्रमुख गैर नाटो सहयोगी’ का दर्जा देगा । प्रमुख गैर नाटो सहयोगी का दर्जा मिलने के बाद पाकिस्तान और अमरीका के बीच सैन्य सहयोग बढ़ेगा ।
नए दर्जे के बाद पाकिस्तान नाटो से बाहर के उन गिने-चुने देशों में शामिल हो जाएगा जिन्हें सैन्य मोर्चे पर अमेरिका तरजीह देता है । अभी तक नाटो देशों के अतिरिक्त इजरायल, आस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, कुवैत, जापान, अर्जेन्टीना, न्यूजीलैण्ड, फिलीपीन्स और मिस्र जैसे कतिपय देशों को ही यह दर्जा प्राप्त है ।
सीरिया के विरुद्ध अमरीकी प्रतिबन्ध:
11 मई, 2004 को आतंकवाद को समर्थन प्रदान करने तथा व्यापक विनाश के हथियारों को प्राप्त करने का आरोप लगाते हुए अमरीका ने सीरिया के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबन्ध आरोपित करने की घोषणा की । इन प्रतिबन्धों के चलते अमरीकी उत्पाद सीरिया को निर्यात नहीं किए जा सकेंगे; इसके साथ ही सीरियाई सरकार व वहां की चुनीन्दा नागरिकों की सम्पत्तियां फ्रीज कर दी जाएंगी तथा सीरियाई विमानों को अमरीकी क्षेत्र में प्रवेश की अनुमति नहीं होगी ।
महाबम का परीक्षण:
अमेरिका ने देश के सबसे शक्तिशाली गैर परमाणु महाबम जीबीयू-43 मैसिव आर्डिनेन्स एयर ब्लास्ट (एओएबी) का 21 नवम्बर, 2003 को फ्लोरिडा के एगलिन वायुसेना अड्डे से सफल परीक्षण किया ।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए अमरीकी नीति:
17 जून, 2005 को अमरीका ने घोषणा की कि सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए वह जापान के अतिरिक्त किसी एक ‘विकासशील देश’ का समर्थन करेगा । उसने यह भी कहा कि वह नए स्थायी सदस्यों को वीटो का अधिकार देने के खिलाफ है । उसने वीटो के मामले में 15 वर्ष बाद समीक्षा के ग्रुप-4 देशों के प्रस्ताव को खारिज कर दिया । समझा जाता है कि अमरीका निकट भविष्य में उन मापदण्डों की घोषणा करेगा, जिसके आधा पर स्थायी सदस्यता के लिए प्रत्याशियों का समर्थन करेगा । मराके इन मापदण्डों में, लोकतन्त्र, विकासशील देश और संयुक्त राष्ट्र में निवेश प्रमुख हो सकते हैं ।
पाकिस्तान को एक अरब डॉलर की मदद:
वर्ष 2007 में अमेरिका ने पाकिस्तान को आतंकवाद से निपटने के लिए चलाए जा रहे अभियान और देश को लोकतांत्रिक इस्लामिक मुल्क बनाने में मदद के तौर पर एक अरब डॉलर की आर्थिक और कैम्प सहायता की पेशकश की है । उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान के कबाइली क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य आर्थिक परियोजनाओं में पिछले पांच वर्षों में बुश प्रशासन ने 75 करोड़ डॉलर मदद के तौर पर खर्च किए है ।
अमरीकी सरकार की पाकिस्तान के सीमावर्ती इलाकों में तैनात सैनिकों की मदद के लिए 30 करोड़ डॉलर की सहायता की भी योजना है । 10 जुलाई, 2007 को अमेरिका की ओर से पाकिस्तान को दो लड़ाकू विमान एफ-16 दिए जाने के साथ ही विमानों की आपूर्ति भी शुरू हो गयी है ।
अमेरिका का मानना है कि वह पाकिस्तान को एक ऐसे आधुनिक और उदारवादी इस्लामिक देश के रूप में उभरते हुए देखना चाहता है जो तालिबान एवं अलकायदा जैसे आतंकवादी संगठनों के खिलाफ लड़ाई में अमरीका के साथ मिलकर काम करे । इसीलिए अमेरिका मुशर्रफ को बनाये रखने हेतु मुशर्रफ और बेनजीर भुट्टो के बीच समझौते के लिए काफी जोर देने लगा ।
संक्षेप में, राष्ट्रीय प्रक्षेपास्त्र सुरक्षा प्रणाली, एबीएम संधि से हटने की घोषणा, तालिबान के विरुद्ध सफल अमरीकी सैन्य कार्यवाही, भारत एवं पाकिस्तान के विरुद्ध प्रतिबन्धों को हटाना, पाकिस्तान को प्रमुख गैर-नाटो सहयोगी का दर्जा देना, सीरिया के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबन्ध, भारत के साथ परमाणु सहयोग समझौता आदि जार्ज वाकर बुश की विदेश नीति के प्रमुख सीमा चिह्न हैं ।
30 जनवरी, 2002 को अमरीकी कांग्रेस के एक संयुक्त अधिवेशन में आतंकवाद पर चर्चा करते हुए राष्ट्रपति बुश ने ईरान, इराक व उत्तरी कोरिया को ‘शैतानियत की धुरी’ (axis of evil) बताते हुए चेतावनी के स्वर में कहा कि आतंकवाद के विरुद्ध अमरीकी अभियान का अगला निशाना ये तीनों देश हो सकते हैं ।
इसी कडी में 6 सितम्बर, 2002 को अमरीका और ब्रिटेन के लगभग सौ लडाकू विमानों ने पश्चिमी इराक के एक प्रमुख हवाई सैन्य ठिकाने पर हमला किया । मार्च 2003 का ‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ अब राष्ट्रपति बुश को बेनकाब कर रहा है ।
उनसे पूछा जा रहा है कि इराक के कथित जैविकीय और जनसंहारक हथियार कहां हैं सीनेट की इन्टेलीजेंस कमेटी के डेमोक्रेट सदस्यों ने मांग की कि राष्ट्रपति बुश ने सीआईए की जिन कथितं रिपोर्टों के आधार पर आक्रमण को उचित ठहराया था उन रिपोर्टों को उजागर किया जाए ।
सुरक्षा परिषद् को प्रस्तुत क्लिक की ‘फाइनल रिपोर्ट’ से भी बुश के झूठ की पोल खुलती गयी । सामरिक रूप से बुश भले ही विजयी रहे हों लेकिन नैतिक स्तर पर उनकी करारी हार हुई है और अब फजीहत भी हो रही है ।
इराक में बगदाद के निकट अबू गरीब कारागार में इराकी बन्दियों के साथ ब्रिटिश व अमरीकी सैनिकों के कुर एवं अमानवीय व्यवहार के खुलासे के पश्चात् अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश की प्रतिष्ठा को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर धक्का लगा ।
15 सितम्बर, 2004 को बीबीसी को दिए गए एक साक्षात्कार में संयुक्त राष्ट्र महासचिव कोफी अन्नान ने इराक पर अमरीकी हमले की कार्यवाही को ‘अवैध’ करार दिया । आलोचकों के अनुसार अमरीका (बुश के नेतृत्व में) समग्र दृष्टि के बजाय चुनिन्दा नजरिए से वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ता है ।
अमरीकी विदेश नीति के सैन्यकरण ने धीमे से सही लेकिन निश्चित तौर पर, सैनिक थकान और तनाव पैदा कर दिया । अपनी सारी सैनिक शक्ति के साथ दादा (राष्ट्रपति बुश) ने अपने पैर इतने पसार लिए कि वह युद्ध के लिए तैयार रहने की क्षमता में चूक जाने की आशंका से परेशान रहे ।
इराक युद्ध में 1,40,000 सैनिक झोंक दिए; इसके अतिरिक्त वह बाल्कान में शांति रक्षा करते रहे; उत्तरी कोरिया की ओर से किसी संभावित हमले से दक्षिण कोरिया और जापान की रक्षा करते रहे और साथ ही ‘आतंकवाद’ के खिलाफ युद्ध को उसने अफगानिस्तान से लेकर (जहां उसकी 9,000 सेना तैनात है और जहा उसका मासिक खर्च लगभग एक अरब डॉलर आ रहा है) काकेशस और अफ्रीका के उत्तरी इलाकों से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैला दिया ।
यह एक सतत युद्ध की भांति प्रतीत होता है जिसे सैनिक विश्लेषक राल्फ पीटर्स ने ”17 वीं सदी के 30 वर्ष चले युद्ध के समान माना जिसने यूरोप को छिन्न-भिन्न कर दिया था ।” अमरीकी विदेश नीति के एक प्रसिद्ध विश्लेषक ने लिखा है: “राष्ट्रपति बुश की अव्यावहारिक नीतियों ने अफगानिस्तान और इराक में त्वरित विजय दिला दी लेकिन देश की मजबूती को भी तोड़कर रख दिया परिणामस्वरूप विश्वव्यवस्था ज्यादा अस्त-व्यस्त और अमेरिका के लिए अमैत्रीपूर्ण हो गई है और अमेरिका कम सुरक्षित रह गया ।”
Essay # 17. अमरीकी विदेश नीति : मूल्यांकन (The U.S. Foreign Policy: An Estimate):
प्रसिद्ध अमरीकी राजनयिक जॉर्ज कैनन ने बार-बार कहा था कि ”अमरीकी विदेश नीति घड़ी के पेण्डुलम की भांति एकान्तवास एवं हस्तक्षेप के दो छोरों पर झूलती है ।” यह बात एशिया, लैटिन अमरीका, अफ्रीका और यहां तक कि यूरोप में अमरीकी नीति पर अच्छी तरह लागू होती है ।
वैसे अमरीका की विदेश नीति अधिकांश देशों को या तो अधीनस्थ बनाने या उसका प्रभाव रोकने की रही है जबकि आदर्श स्थिति समायोजन की होनी चाहिए । द्वितीय महायुद्ध के बाद अमरीकी विदेश नीति की उग्रता से शीत-युद्ध का वातावरण बना । अमरीका ने आर्थिक और सैनिक सहायता के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से अपने साम्राज्यवादी पंजे को फैलाया ।
लैटिन अमरीका दक्षिण-पूर्वी एशिया और मध्य एशिया अमरीकी साम्राज्य विस्तार के प्रमुख क्षेत्र रहे हैं । हिन्दचीन, कम्बोडिया, वियतनाम, अरब-इजरायल, पाकिस्तान आदि में अपनायी गयी अमरीकन नीति इस साम्राज्यवादी लालसा की द्योतक है ।
अमरीकी विदेश नीति में उपनिवेशवाद विरोधी तत्वों को कभी भी स्थान नहीं दिया गया । लैटिन अमरीकी देशों और सुदूरपूर्व में अमरीका ने हमेशा से अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं को पूरा करने का प्रयास किया । अमरीकी द्वि-पक्षीय विदेशी आर्थिक सहायता अभी भी अधिकतर एशियाई-लैटिन अमरीकी देशों को औद्योगिक विकास के लिए नहीं दी जाती बल्कि उसके द्वारा मनचाही दिशा में विकास हेतु दी जाती है जो अमरीका का हित सम्बर्द्धन अधिक करती है और प्राप्तकर्ता देश का कम ।
संसार के अनेक देशों में अमरीका ने अपने सैनिक अड्डे स्थापित किए । अनेक देशों के साथ उसने असमान व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किए जिससे उसे उनकी आर्थिक व्यवस्था को अपने नियन्त्रण में रखने का अधिकार प्राप्त हो गया । पश्चिमी एशिया के तेल को अपने अधिकार में लेने के लिए उसने वहां की राजनीति में हस्तक्षेप किया । साम्यवाद को रोकने के नाम पर उसने वियतनाम पर अत्याचार किए ।
लैटिन अमरीका को वह अपनी जागीर समझने लगा । अमरीकी विदेश नीति की असफलता का इससे बढ्कर दूसरा प्रमाण क्या हो सकता है कि सर्वत्र उसे ‘नव-उपनिवेशवाद’ का प्रतीक समझा जाने लगा ।
चीन से उसे विनम्रतापूर्वक मैत्री का हाथ बढ़ाना पड़ा, वियतनाम से बदनाम होकर निकलना पड़ा पाकिस्तान को शस्त्र देकर भारत की नाराजगी मोल लेनी पड़ी ईरान ने अमरीकी राजनयिकों को 444 दिन तक बन्दी (बन्धक) बनाए रखा अफगानिस्तान सोवियत संघ के प्रभाव-क्षेत्र में चला गया कपूचिया साम्यवादी बन गया नाटो में दरारें पड़ने लगीं और उनके पुराने साथी भी उसकी नीति से ऊबकर अमरीकी चंगुल से निकलने का प्रयास करने लगे ।
रीगन प्रशासन की नीति ने नव-शीत युद्ध एवं शस्त्रास्त्रों की होड़ को जन्म दिया । रीगन की ‘स्टारवार’ योजना विश्व को आतंकित करती रही । ग्रेनाडा पर नृशंस आक्रमण पड़ोसी लैटिन अमरीकी मित्रों को चौंकाता है । निकारागुआ, अल साल्वाडोर और हैती के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप अमरीकी छवि को कलंकित करता है…..।
राष्ट्रपति जार्ज बुश ने जनवरी 1992 में आस्ट्रेलिया सिंगापुर दक्षिण कोरिया व जापान की यात्रा की । सिंगापुर को छोड्कर शेष देशों में उनके विरुद्ध लोगों ने प्रदर्शन किया । आस्ट्रेलिया के प्रधानमन्त्री पॉल कीटिंग ने अमरीकी व्यापार नीति की आलोचना की और कहा कि अमरीका विश्व में गुटबाजी बढ़ा रहा है ।
यदि अमरीका अपनी आर्थिक नीति नहीं बदलेगा तो विश्व तीन धड़ों-अमरीकी, यूरोपीय व जापानी में बंटकर रह जाएगा । जापान में बुश ने जापान की व्यापार नीति की आलोचना की । बुश प्रशासन पूरी दुनिया पर अपनी राजनीतिक और आर्थिक नीतियां थोपने पर आमादा था । अमरीका के लिए नई विश्व व्यवस्था का मतलब गैर-अमरीकी विश्व को अमरीकी माल का बाजार अर्थात् आर्थिक उपनिवेश बनाना है ।
सोवियत संघ के विघटन उसके साथ शीत-युद्ध की समाप्ति और इराक पर विजय के बाद बुश तथा लिटन प्रशासन की महत्वाकांक्षाएं अमरीका को पूरे विश्व का ‘ठेकेदार’, ‘चौधरी’, अथवा ‘काजी’ और मानवाधिकारों का स्वयंभू रक्षक बनने के लिए उकसाने लगीं । यूगोस्लाविया के सन्दर्भ में अमेरिका ने जिस तरह नाटो को झौंक दिया यह अमरीकी उन्मादी विस्तारवादी नीति का ताजा उदाहरण है ।
अमरीका में अब यह सोच उभर रहा है कि शीत-युद्ध के बाद विश्व में व्यापार युद्ध छिड़ने की जो सम्भावनाएं बन रही है उनमें अमरीका के लिए जरूरी है कि वह एशिया-प्रशान्त क्षेत्र मैं एक पृथक् आर्थिक ढांचा खड़ा करके सुरक्षा के साथ समृद्धि और स्थायित्व बनाये रखने की व्यवस्था करे ।
एशिया में आर्थिक विकास का जैसा विस्फोट हो रहा है उससे अमरीका को चिन्ता है कि 21वीं सदी में विश्व पर एशिया के दो देश-जापान और चीन अपना-अपना प्रभाव विस्तार कर सकते हैं । अमेरिका की दिलचस्पी तेजी के साथ पश्चिम एशिया मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में बढ़ रही है ।
दक्षिण एशिया की सुरक्षा में तो उसकी खासी दिलचस्पी है । इस सिलसिले में अमेरिका इस इलाके के देशों के आपसी रिश्ते सुधारने की भूमिका में आ गया है । वह उनके बीच के झगड़े मिटाने में पहल करना चाहता है । वह इस क्षेत्र के मामलों को अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा पॉलिसी के अन्तर्गत निबटाना चाहता है ।
अमेरिकी पॉलिसी का दूसरा अहम पहलू यह है कि वह दक्षिण एशिया में आणविक हथियारों के माहौल को जल्द से जल्द अपने नियन्त्रण में कर लेना चाहता है और अपने लिए इस्तेमाल करने की जल्दी में है ।
तीसरे, उसे राजनीतिक ढांचे को अपने अनुसार ढालना है, ताकि उस क्षेत्र के देशों के बीच आर्थिक आदान-प्रदान होता रहे और अमेरिका जैसा चाहे, उनका इस्तेमाल कर सके । असल में अमेरिका बहुत आगे की सोच रहा है । वह इस क्षेत्र के तमाम प्राकृतिक संसाधनों और ऊर्जा के क्षेत्रों पर अधिकार जमाने की फिराक में है ।
अमेरिका की चौथी कोशिश सुरक्षा इंतजामों को लेकर है । वह इलाके का भू-सामरिक नक्शा बदल देना चाहता है । इराक में सद्दाम के जाने से पहले अमेरिका सुरक्षा के मामले पर चार देशों को खास मानता था । ये देश उसके लिए कुछ भी करने को तैयार थे । तुर्की इजरायल सऊदी अरब और पाकिस्तान ये चार देश थे जहां अमेरिकी सुरक्षा एजेंसिया अपने हिसाब से काम कर सकती थीं ।
यहीं से अमेरिका पश्चिम एशिया और खाड़ी के देशों की सुरक्षा पर नजर रख सकता था या रख रहा था । यहीं से वह इन देशों को मार्गदर्शन दे रहा था और सीरिया ईरान इराक वगैरह को भी दबा कर रख रहा था जो उसकी प्रभुता को नहीं मान रहे थे यानी उसके लिए इस्तेमाल नहीं हो रहे थे ।
अब इराक और अफगानिस्तान कुल मिलाकर अमेरिकी सेना के प्रभाव में हैं । कजाखस्तान और उज्बेकिस्तान नाटो के शान्ति करार के तहत बंधे हुए हैं । जाहिर है कि अमेरिका मिस्र से लेकर तुर्की तक उत्तर में और दक्षिण-पूर्व में फिलीपीन्स तक अपना सुरक्षा जाल फैलाकर वहां अपना दबदबा बना सकता है ।
यही वजह है कि अमेरिका ने सैनिक तैनाती को लेकर ज्यादातर दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ करार किया हुआ है । उन देशों में बांग्लादेश भी शामिल है । आने वाले समय में नेपाल के साथ भी कुछ इस तरह की व्यवस्था हो सकती है ।
हालांकि इस क्षेत्र के देशों में भीतर ही भीतर अमेरिका को लेकर सन्देह का माहौल है । अन्दर-ही-अन्दर वे उसकी आलोचना भी करते हैं लेकिन चुपचाप अमेरिकी दखल को मान लेते हैं । उसे मानने के अतिरिक्त कोई चारा भी तो उनके पास नहीं है । जापान तो उसका सहयोगी है । रूस और चीन में अमेरिका को लेकर कुछ हिचक है ही लेकिन वे भी धीरे-धीरे सच्चाई को गले उतार रहे हैं ।
वे अमेरिका के साथ पटरी बिठाने को जैसे-तैसे तैयार हो गए हैं । उन्हें पता है कि यह एक मजबूरी है । आर्थिक तकनीकी और राजनीतिक मजबूरियों को वे समझने लगे हैं । भारतीयों की समझ और सन्देह भी कुछ-कुछ रूस और चीन की तरह ही हैं । हालांकि अपने आम लोगों की सोच अमेरिका के मामले में ज्यादा साफ है । वे अमेरिका का सही मूल्यांकन करते हैं उसकीं सही आलोचना करते हैं लेकिन अमेरिका में राष्ट्रपति जार्ज बुश से लेकर वरिष्ठ अधिकारियों तक यह सन्देश दे रहे हैं कि अमेरिका के लिए विदेश और सुरक्षा के मामलों में भारत को वह खास अहमियत देता है ।
उसकी पॉलिसी में भारत के लिए खास जगह है । ह्वाइट हाउस ने 2002 के सितम्बर में एक राष्ट्रीय सुरक्षा दस्तावेज तैयार किया था । उसमें भारत की चर्चा खासतौर पर नाम लेकर की गई थी । उसमें भारत को महत्वपूर्ण सामरिक सहयोगी कहा गया था । हालांकि उसके बाद एशियाई क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं ।
उन बदलावों के बाद ही ब्रजेश मिश्र ने वाशिंगटन में बातचीत की और इधर आर्मिटेज भारत के दोरे पर आए । भारत के उपप्रधानमन्त्री लालकृष्ण आडवाणी भी जून 2003 में बारह दिन की अमरीका यात्रा पर गए जहां राष्ट्रपति बुश प्रोटोकॉल को दरकिनार करते हुए आडवाणी से मिले ।
डॉ. मनमोहन सिंह की अमरीका यात्रा (18-20 जुलाई, 2005) का सबसे महत्वपूर्ण पनाग नाभिकीय ऊर्जा समझौता है । राष्ट्रपति बुश की भारत यात्रा (1-3 मार्च, 2006) के दौरान परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में हुई सहमति के अन्तर्गत भारत अपने 22 मौजूदा परमाणु संयन्त्रों में से 14 को अन्तर्राष्ट्रीय निगरानी के अधीन लाएगा ।
संक्षेप में, संयुक्त राज्य अमरीका की नीति को आलोचकों ने नवीन साम्राज्यवाद कहा है, जिसके अन्तर्गत वह आर्थिक सहायता और सैनिक सन्धियों के नाम पर अपना प्रभुत्व थोपने का प्रयास कर रहा है ।
अफगानिस्तान युद्ध के बूते पहले ही मध्य एशिया में अमेरिका की मौजूदगी और पश्चिमी एशियाई देशों पर उसकी पकडू बढ़ चुकी थी और इराक युद्ध इस पकड़ को और मजबूत करने के लिए था । लगभग 15 लाख अमरीकियों ने इराक में अपनी सेवाएं दी, लगभग 4500 लोग मारे गये और 32 हजार घायल हुए ।
तेल अमरीका की राजनीति का एक बेहद महत्वपूर्ण पहलू है तथापि अमरीकी राजनीति तेल से कहीं आगे जाती है और यह विश्व व्यवस्था पर प्रभुत्व स्थापित करने की दिशा में है । आज करीब-करीब पूरी दुनिया अमरीकी अड्डों से भिदी पड़ी है ।
जहां तक एशिया का सम्बन्ध है, इस समय अमरीकियों की सैन्य उपस्थिति अफगानिस्तान, पाकिस्तान, फिलीपींस, जापान, दक्षिण कोरिया, मध्य एशिया, सऊदी अरब, कुवैत, ओमान और कतर में है: इन अड्डों पर कुल मिलाकर कोई 50,000 अमरीकी सेनिक मौजूद है ।
वाशिंगटन की अव्यावहारिक नीतियों ने इराक जैसी त्वरित विजय तो दिला दी लेकिन आतंकवाद को हवा दे दी जिसके परिणामस्वरूप विश्व व्यवस्था और अस्त-व्यस्त हो गई और न केवल अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया अब पहले से ज्यादा असुरक्षित हो गई है ।
इस पर सीनेटर राबर्ट बायर्ड से ज्यादा साफ टिपणी किसी की नही हो सकती । बॉयर्ड 85 वर्ष के हैं और अमरीकी सीनेट के सबसे लंबे समय तक सदस्य रहे हैं । उन्होंने कहा, ”आज मैं अपने देश के लिए रोता हूं……अब अमेरिका की छवि सबसे शक्तिशाली लेकिन मित्रवत् शांतिरक्षक की नहीं बची है…..विश्व भर में हमारे मित्र हम पर अविश्वास करते हैं हमारी बात पर विवाद होते है हमारी नीयत पर सदेह किया जाता है ।
जो लोग हमसे असहमत हैं उनसे तर्क करने के बजाय हम उनसे आज्ञापालन की अपेक्षा करते है और ऐस न करने पर उन्हें दंड का हकदार करार दे देते हैं । सद्दाम हुसैन को अलग-थलग करने के बजाय हेंमें लगता है हमने अपने आपको ही अलग-थलग कर डाला है…..हम महाशक्ति के तौर पर अपनी हैसियत को उदंडता से जताते है……अब हमें विश्व भर में अमेरिका की छवि का पुनर्निर्माण करना होगा ।”
आज अमरीका आर्थिक संकट में धंसता जा रहा है । आंकड़े कहते हैं कि आज अमरीका में 1 करोड़ 40 लाख बेरोजगार हैं या उसकी बेरोजगारी दर 8.9 प्रतिशत है । अमरीकी सरकार कर्ज में डुबी हुई है । लगभग 4 करोड़ 62 लाख अमरीकी गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं ।
वर्ल्ड बैंक के कई बताते हैं कि प्रत्येक अमरीकी नागरिक पर औसतन 43 हजार डॉलर से ज्यादा कर्ज है जबकि देश पर विश्व का 14.939 अरब डॉलर बकाया है । पाकिस्तान व अरब विश्व में लोग अमरीका की बात मानने से इकार करने लगे हैं । पाकिस्तान को मिल रही अरबों डॉलर की अमरीकी मदद के बावजूद पाकिस्तान में अमरीका विरोधी भाव कम नहीं हो रहा है ।