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Here is an essay on the ‘Indian Ocean’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Indian Ocean’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on the Indian Ocean
Essay Contents:
- हिन्द महासागर: भौगोलिक स्थिति एवं महत्व (The Indian Ocean: Geographical Position and its Significance)
- हिन्द महासागर: महाशक्तियों की प्रतिस्पर्द्धा का केन्द्र (The Indian Ocean: The Centre of Super Power Rivalry)
- हिन्द महासागर की समस्या और भारतीय दृष्टिकोण (India’s Approach to the Problem of Indian Ocean)
- हिन्द महासागर तटीय क्षेत्रीय सहयोग संगठन (हिमतक्षेस) (Indian Ocean Rim Association for Regional Co-Operation–IORARC)
Essay # 1. हिन्द महासागर: भौगोलिक स्थिति एवं महत्व (The Indian Ocean: Geographical Position and Its Significance):
19वीं शताब्दी के आरम्भ में अमरीकी नौसेना विशेषज्ञ अल्फ्रेड माहन ने कहा था- ”जो भी देश हिन्द महासागर को नियन्त्रित करता है वह एशिया पर वर्चस्व स्थापित करेगा । यह महासागर सात समुद्रों की कुंजी है । 21वीं शताब्दी में विश्व का भाग्य निर्धारण इसकी समुद्री सतहों पर होगा ।” माहन का यह कथन सिर्फ ब्रिटेन के लिए ही नहीं, बल्कि अमरीका सहित सभी विश्व शक्तियों के लिए नौसैनिक नीति निर्धारण करता आ रहा है ।
वर्तमान समय में हिन्द महासागर विश्व का ऐसा क्षेत्र है जो अस्थिर और अशान्त है । राजनीतिक हलचल और महाशक्तियों की प्रतिद्वन्द्विता इस क्षेत्र की मूल विशेषताएं हैं । जब से नौसैनिक शक्ति के महत्व को समझा जाने लगा है, विशेषकर द्वितीय महायुद्ध के बाद से, तब से यह क्षेत्र संघर्ष, तनाव और टकराव का केन्द्र बन गया है । अपना नौसैनिक वर्चस्व स्थापित करने के लिए विश्व की महाशक्तियां, विशेषकर अमरीका व सोवियत रूस, हिन्द महासागर में अपनी उपस्थिति बढ़ाती रही हैं ।
हिन्द महासागर का महत्व उसके जल मार्गों और उसके क्षेत्र में उपलब्ध कच्चे माल के कारण अत्यधिक है । इसके जल मार्ग पश्चिम और जापान के लिए जीवन रेखाएं हैं जिनके बन्द होने या जिन पर विरोधी का प्रभुत्व स्थापित होने से उनके लिए जीवन-मरण का प्रश्न पैदा हो जाता है । इसके गर्भ में उपलब्ध कच्चे माल के भण्डार महाशक्तियों में प्रतिद्वन्द्विता के कारण हैं ।
विश्व का 37% तेल, 90% रबड़, 70% टिन, 79% सोना, 28% मैंगनीज, 27% क्रोमियम, 16% लोहा, 12.5% सिक्का, 11.5% टंगस्टन, 11% निकल, 10% जिंक, 98% हीरे और 60% यूरेनियम इसके क्षेत्र में पाये जाने की आशा है । इसकी समुद्री सतह पर उपलब्ध होने वाले स्रोतों, विशेषकर ऊर्जा स्रोतों, की कमी नहीं ।
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सोवियत लेखक येव्गेनी रूम्यांत्सेव ने अपनी पुस्तक ‘हिन्द महासागर: शान्ति और सुरक्षा की समस्याएं’ में लिखा है- “संयुक्त राज्य अमेरिका यहां से 40 तरह का कच्चा माल ले जाता है जिसमें यूरेनियम, लिथियम, बेरीलियम, इत्यादि सैनिक महत्व का कच्चा माल भी होता है । जापान अपनी तेल की प्राय: शत-प्रतिशत मांग फारस की खाड़ी के तेल से पूरी करता है । हिन्द महासागर क्षेत्र के देशों से ही वह 75 प्रतिशत लौह अयस्क, 35 प्रतिशत कोक कोयला, 90 प्रतिशत बॉक्साइट, जिंक और प्राकृतिक रबड़ का आयात करता है ।”
हिन्द महासागर विश्व का तीसरा बड़ा महासागर है । यह 10,400 किलोमीटर लम्बा, 9,600 किलोमीटर चौड़ा है । यह विश्व के 20.3% समुद्री क्षेत्र में फैला हुआ है और 47 राज्य उसके तटों को छूते हैं । पूरब से पश्चिम की दिशा में यह आस्ट्रेलिया से अफ्रीका तक और उत्तर से दक्षिण में यह केप कोमोरिन से अटलांटिक महाद्वीप तक फैला हुआ है ।
इसका जल आस्ट्रेलिया, एशिया और अफ्रीका के तीन महाद्वीपों को छूता है । मलक्का जलडमरूमध्य तथा स्वेज नहर के बीच से यह क्रमश: प्रशान्त महासागर के तीन महाद्वीपों को छूता है । तीसरी विश्व के अधिकांश राष्ट्र इसके तट पर स्थित हैं या इसके भीतरी प्रदेश में हैं । इसके 36 तटवर्ती और 11 भीतरी देश हैं । इस विशाल जल क्षेत्र में सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण द्वीप और प्रवालद्वीप हैं । आस्ट्रेलिया द्वीप तो पूरा महाद्वीप ही है ।
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विश्व में क्षेत्रफल की दृष्टि से पांचवां द्वीप मेडागास्कर भी यहां पर स्थित है । इसके अतिरिक्त श्रीलंका, सुमात्रा और जावा जैसे बड़े द्वीप, तीन बड़े द्वीप समूह तथा सारे महासागर में फैले अनेक छोटे-छोटे द्वीप हैं । 15वीं शताब्दी में एक मानचित्र बनाने वाले ने अनुमान लगाया था कि हिन्द महासागर में 12,600 टापू हैं ।
एक परिवहन मार्ग के नाते हिन्द महासागर का महत्व अपार है । यूरोप, पूर्वी अफ्रीका, पश्चिमी, दक्षिणी और दक्षिणी-पूर्वी एशिया, सुदूरपूर्व, आस्ट्रेलिया तथा ओशियाना को जोड़ने वाले जल एवं वायु मार्ग यहां से गुजरते हैं ।
हिन्द महासागर अटलांटिक और प्रशान्त महासागरों को जोड़ता है । जल मार्गों का जाल यहां सबसे घना है । उदाहरणार्थ, संसार में टैंकरों द्वारा ढोये जाने वाले खनिज तेल का 57 प्रतिशत ओर्मुज जलडमरूमध्य से होकर जाता है ।
हर ग्यारह मिनट में एक जहाज यहां से गुजरता है । कुछ समय पहले इस मार्ग से माल से लदे ईस्ट इण्डिया कम्पनी के जहाजों का ही आना-जाना होता था, परन्तु आज अमरीका व रूस की पनडुब्बियां यहां से आती-जाती हैं एवं तेल से भरे सैकड़ों जहाज प्रत्येक माह जापान, यूरोप एवं उत्तरी व दक्षिणी अमरीका जाने के लिए हिन्द महासागर से होकर ही गुजरते हैं, क्योंकि इनके लिए यही मुख्य मार्ग बन गया है ।
हिन्द महासागर के ऊपर से जाने वाले वायुमार्गों का महत्व भी इधर बहुत बढ़ गया है । इनकी कुल लम्बाई दस लाख किलोमीटर से अधिक है । अन्तर-महाद्वीप वायुमार्गों की सेवाएं प्रदान करने वाले विश्व के 240 हवाई-अड्डों में से लगभग एक-तिहाई हिन्द महासागर क्षेत्र के देशों में हैं । हाल के वर्षों में अण्टार्कटिका के महत्व में भारी वृद्धि हुई है । अण्टार्कटिका के आर्थिक दोहन के दौर में निश्चय ही हिन्द महासागर के महत्व में भारी वृद्धि होगी ।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस क्षेत्र में शान्ति और सहयोग का वातावरण बनाना तथा ऐसी परिस्थितियां पैदा करना कितना आवश्यक है जिनमें सभी अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अनुरूप हिन्द महासागर का निर्बाध उपयोग कर सकें ।
Essay # 2. हिन्द महासागर: महाशक्तियों की प्रतिस्पर्द्धा का केन्द्र (The Indian Ocean: The Centre of Super Power Rivalry):
द्वितीय महायुद्ध से पूर्व हिन्द महासागर के अधिकांश तटवर्ती क्षेत्रों पर ब्रिटेन का नियन्त्रण था तथा हिन्द महासागर को ब्रिटेन की झील के नाम से पुकारा जाता था । द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के साथ हिन्द महासागर के तटवर्ती क्षेत्रों से ब्रिटेन का प्रभुत्व समाप्त होने लगा; 1966 में ब्रिटेन ने स्वेज से पूर्व में स्थित अपने नौ-सैनिक अष्टों को धीरे-धीरे समाप्त करने की घोषणा कर दी । इससे यह क्षेत्र महाशक्तियों की राजनीति का एक प्रधान अखाड़ा बन गया ।
इस सम्बन्ध में तीन दृष्टिकोण प्रचलित हैं:
प्रथम:
यह कहा जाता है कि हिन्द महासागर में अमरीकी हित उसकी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं से प्रेरित है तथा वह जानबूझकर सोवियत प्रसारवाद का भूत खड़ा कर रहा है ।
द्वितीय:
कतिपय विद्वानों का मत है कि महाशक्तियों की हिन्द महासागर में रुचि शीत-युद्ध का एक दिस्तार है जिसने इस क्षेत्र में अति शक्ति प्रतिद्वन्द्विता को जन्म दिया है ।
तृतीय:
कतिपय चीनी और अमरीकी कूटनीतिज्ञ किसिंगर आदि यह मानते हैं कि सोवियत संघ इस क्षेत्र में अपना आधिपत्य स्थापित करने को लालायित रहा है ।
भारत और आस्ट्रेलिया को छोड्कर किसी तटवर्ती देश के पास बड़ी नौसेना नहीं है और भारत और आस्ट्रेलिया की नौ-सेनाएं भी बाहरी शक्तियों की नौसेनाओं की तुलना में बहुत साधारण हैं । बाहरी शक्तियों के हस्तक्षेप की स्थिति में महासागरीय क्षेत्र कमजोर और असुरक्षित होता है ।
1960 के दशक के अन्तिम वर्षो में ब्रिटिश नौसेना ने इस क्षेत्र से हटना प्रारम्भ कर दिया । इससे इस महासागर में अन्य शक्तियों की गतिविधियां प्रारम्भ हो गयीं । इन शक्तियों के इस क्षेत्र में रुचि के अनेक कारण हैं: व्यापारिक, राजनीतिक, सामरिक ।
इस समय इस महासागर में भारतीय नौसैनिक बेड़ा हे अमरीका का सातवां नौसैनिक बेड़ा है रूस की पनडुब्बियां और लड़ाकू जहाज हैं ब्रिटेन और फ्रांस के घटते हुए पर महत्वपूर्ण नौसैनिक हित हैं तथा चीन और जापान की उभरती हुई नौसैनिक उपस्थिति है । इस समय कुल मिलाकर हिन्द महासागर में 181 विदेशी युद्धपोत तैनात हैं । इनमें से अमरीका के 77, रूस के 40, ब्रिटेन के 18 और फ्रांस के 33 युद्धपोत शामिल हैं ।
हिन्द महासागर में अमरीकी उपस्थिति:
हिन्द महासागर में अमरीका की उपस्थिति सन् 1949 के बाद से ही देखी जा सकती है जब उसने साम्यवाद के प्रतिरोध की नीति अपना ली थी । अमरीका ने हिन्द महासागर क्षेत्र से अपनी उपस्थिति का विस्तार उस समय करना प्रारम्भ किया जब ब्रिटेन ने यह संकेत दिया था कि वह हिन्द महासागर क्षेत्र से हटने की मजबूरी में है ।
अमरीकी विचारकों का मत था कि हिन्द महासागर क्षेत्र से ब्रिटिश वापसी से वहां एक शक्ति-शून्य उत्पन्न हो जायेगा जिसका भरा जाना आवश्यक है । अगस्त 1964 में औग्ल-अमरीकी संयुक्त दल ने सैनिक अड्डों के लिए द्वीपों के चुनाव के निमित्त हिन्द महासागर का संयुक्त सर्वेक्षण किया ।
सन् 1965 में BIOT (British Indian Ocean Territory) के निर्माण के पश्चात् दिसम्बर, 1966 में अमरीका के साथ पचास वर्षीय द्विपक्षीय समझौता (2016 तक) करके ब्रिटेन ने चागोस द्वीप समूह स्थित डियागोगार्सिया अड्डे का रक्षा उद्देश्यों हेतु विकसित करने का अधिकार दे दिया ।
13 मील लम्बे व 6 मील घोड़े इस अड्डे को नौसैनिक सुविधाओं से सुसज्जित करने हेतु अमरीका ने लगभग 50 मिलियन डॉलर व्यय करके विश्व के प्रमुख अड्डे के रूप में विकसित कर लिया है । अमरीका ने त्वरित प्रविस्तार टुकड़ी (आर.डी.एफ.) व सेण्ट्रल कमाण्डर के मुख्य आधार के रूप में अत्याधुनिकतम रक्षा व संचार सुविधाओं से सुसज्जित डियागोगार्सिया की सामरिक उपादेयता यमन संघर्ष (1979-81), ईरान-ईराक संघर्ष (1979-81), डिजर्ट स्टार्म (1990-91) व ऑपरेशन इराकी फ्रीडम में पुष्ट हो चूंकि है ।
यह अड्डा न केवल अमरीका के पेसिफिक कमाण्ड का हिस्सा है अपितु उसके बी-52 बमवर्षकों व अमरीकी लड़ाकू कमाण्ड का आधार भी है । हिन्द महासागरीय क्षेत्र में अमरीका के न्यस्त आर्थिक हित बड़े महत्वपूर्ण हैं । अर्थशास्त्रियों की गणनाओं के अनुसार हिन्द महासागर क्षेत्र के देशों की अर्थव्यवस्थाओं में अमरीका का सीधा पूंजी-निवेश दस अरब डॉलर से अधिक का है ।
विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था में लगाये गये हर डॉलर से अमरीका 4.25 डॉलर का लाभ पाता है । जिन देशों से यह लाभ पाया जाता है, उनमें अधिसंख्य हिन्द महासागर क्षेत्र में ही स्थित हैं । हिन्द महासागर में अमरीका की उपस्थिति का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है, कि इसमें उसके न केवल स्थायी सैनिक अड्डे हैं बल्कि उसे अनेक देशों की हवाई पट्टियों और बन्दरगाहों के प्रयोग की सुविधाएं भी उपलब्ध हैं । उसके परमाणु अस्त्रों से लैस युद्धपोत इसमें निरन्तर गश्त लगाते हैं ।
अमरीका का ‘निमित्ज’ नामक विमान वाहक जहाज भी यहां विद्यमान है । डियागो गार्शिया उसका एकमात्र बन्दरगाह बन गया है । जिन देशों में अमरीका को हवाई पट्टियों या बन्दरगाहों की सुविधाएं उपलब्ध हैं, उनमें प्रमुख हैं- मिस्र में एट्ज्योन का हवाई सैनिक अड्डा शर्म-अल-शेख का नौसैनिक अड़ा तथा रस बानस का अड्डा सोमालिया में बरबेरा, पाकिस्तान में कराची के पश्चिम में ग्वादर का बन्दरगाह कीनिया में मोम्बासा ओमान में मसीरा हवाई अड्डा और मैराह आस्ट्रेलिया में डार्विन हवाई अड्डा, आदि । इसके अतिरिक्त, बहरीन, जिबूती और सऊदी अरब में अमरीका के पास स्थायी अड्डे हैं ।
अमरीका के हिन्द महासागरीय अड्डों में डियागो गार्शिया सबसे अधिक महत्वपूर्ण है । इस अड्डे का संचार नेटवर्क आणविक पनडुब्बियों से प्रक्षेपित सामरिक प्रक्षेपास्त्रों की दिशा निर्धारित करने की क्षमता रखता है । इस अड्डे का तेजी से विस्तार किया जा रहा है । इस अड्डे को नये-नये शस्त्रास्त्रों से सुजज्जित किया जा रहा है । यहां नाभिकीय और रासायनिक अस्त्र रखे गये हैं ।
भण्डार पोतों को यहां स्थायी लंगर डालकर खड़ा किया गया है । ‘डियागो गार्शिया’ अमरीका का न केवल नौसैनिक अड्डा ही है, वरन् यहां पर वायुसैनिक अड्डे भी निर्माण किया गया है । इसी द्वीप पर बारह हजार फीट लम्बी हवाई पट्टी का भी निर्माण किया गया है । डियागो गार्शिया पर अपनी सैनिक शक्ति को सुदृढ़ करके अमरीका एशिया और अफ्रीका के महाद्वीपों पर अपने प्रभाव का विस्तार करना चाहता है और सोवियत संघ के नौसैनिक रास्तों पर नजर रखने लगा है ।
हिन्द महासागर में सोवियत उपस्थिति:
सोवियत संघ भी अपनी सुरक्षा के नाम पर हिन्द महासागर क्षेत्र में सक्रिय रहा है । 1967 में ब्रिटेन द्वारा स्वेजपूर्व के नौसैनिक अड्डों को छोड़ देने की घोषणा के बाद हिन्द महासागर में प्रथम बार सोवियत नौसैनिक गतिविधियों की शुरुआत हुई ।
मार्च, 1968 में पांच युद्धपोतों का एक सोवियत नौसैनिक स्क्वैड्रन दक्षिण एशिया अरब सागर फारस की खाड़ी लालसागर और पूर्वी अफ्रीका के बन्दरगाहों में पहुंचा । उसके बाद अनेक वर्षों तक सोवियत संघ का एक नौसैनिक स्क्वैड्रन हिन्द महासागर की यात्रा करता रहा । 1979 से सोवियत संघ ने हिन्द महासागर में अधिक संख्या और अधिक बार युद्धपोत भेजना प्रारम्भ कर दिया ।
लगभग 20 से 40 सोवियत जहाज इस क्षेत्र में लगातार उपस्थित रहने लगे । बाद में सोवियत संघ ने सोकोतरा द्वीप अदन, होदेदा, सिचेलेस और कम्पूचिया में कुछ सुविधाएं प्राप्त कीं, परन्तु अमरीका के समान कोई स्थायी सैनिक या असैनिक अड्डा प्राप्त नहीं किया । सोवियत संघ के अनुसार अपनी सुरक्षा के खातिर ही उसे हिन्द महासागर में अपने युद्धपोत रखने पड़ रहे हैं । सोवियत संघ के यहां कभी कोई अड्डे नहीं रहे और न ही वह कोई अड्डा बनाने का इरादा रखता था ।
हिन्द महासागर में फ्रांस और चीन:
री यूनियन द्वीप पर फ्रांस का अधिकार है इसलिए फ्रांस भी कभी-कभी इस क्षेत्र में घुसपैठ करता रहता है । हाल ही में चीन भी हिन्द महासागर में रुचि लेने लगा है । सोवियत रिक्तता की पूर्ति एवं वैश्विक स्तर पर अपनी शक्ति की अभिवृद्धि हेतु व्यावसायिक व नौसैन्य में चीन की बढ़ रही गतिविधियां हिन्द महासागरीय क्षेत्र की सुरक्षा में अत्यधिक चिन्ता का विषय है ।
‘पीपुल लिबरेशन आर्मी नेवी’ (PLAN) की त्रिस्तरीय विस्तारवादी नीतियां संघर्ष के नए सोपान की द्योतक हैं जिसके अन्तर्गत उसने 2000-2020 ई. तक हिन्द महासागरीय क्षेत्र में एअर-क्राफ्ट कॅरियर, नाभिकीय पनडुब्बियां, बैलिस्टिक व क्रूज मिसाइलों, सतही लड़ाकू पोतों व एअर क्राफ्ट की संख्या सामर्थ्य में वृद्धि करके वर्चस्व-रणनीति निर्धारित की है ।
चीन जहां एक ओर होरमुज स्ट्रेट के निकट पाकिस्तान के ‘ग्वादर’ में बन्दरगाह सुविधाएं विकसित कर रहा है, वहीं पूर्व में ‘कोको द्वीप’ पर सामरिक सुविधाएं विकसित करके भारत की सामुद्रिक घेरेबन्दी करने हेतु गम्भीर कदम उठा रहा है ।
इसके अतिरिक्त म्यांमार में सैन्य सुविधाएं विकसित कर, चीन क्षेत्रीय समुद्री मार्ग विकसित करने की दूरगामी कोशिश में है । म्यांमार का सामरिक दृष्टि से उभार भारत व दक्षिण पूर्व एशियाई सामरिक हितों के लिए भावी चुनौती का नवीन आयाम है । भारत द्वारा म्यांमार को सामरिक सहयोग देने के बावजूद वह चीन के माध्यम से भारत के इन्सर्जेट्स को सहायता कर रहा है ।
चीन-अमरीकी स्पर्धा के अतिरिक्त हिन्द महासागर से संलग्न क्षेत्र में अन्तर्राज्य-संघर्षों व आतंकवादी गतिविधियों के फलस्वरूप जहां एक ओर सामुद्रिक संचार सेवाओं (SLOCs) की सुरक्षा के समक्ष गम्भीर खतरे उत्पन्न हो गए हैं वहीं हिन्द महासागरीय क्षेत्र के कुछ देशों में इस्लामिक कट्टरपंथ के उदय ने इसे ‘जेहादी आतंकवाद की झील’ (Lake of Jahadi Terrorism) में परिवर्तित कर दिया है।
होरमुज व दक्षिण पूर्वी स्ट्रेट में ‘फ्री एसे मूवमेण्ट’ (Free Aceh Movement) मोरे इस्लामिक लिबरेशन फ्रण्ट (More Islamic Liberation Front) व अबू सयाफ (Abu Sayyaf) जैसे सामुद्रिक आतंकवादी संगठनों का उदय तथा समाह इस्लामियाह (I-Jammah Islamiyah), अलकायदा (Al Qaida) आदि बेड़े आतंकवादी संगठनों से इनकी संलग्नता हिन्द महासागर के तटीय राष्ट्रों की सुरक्षा के लिए चिन्ताजनक है ।
इस प्रकार इसे महाशक्तियों की सीनाजोरी ही कहा जायेगा कि वे तटवर्ती देशों की मांग की उपेक्षा करके हिन्द महासागर के शान्त जल को अशान्त बनाने पर तुली हुई हैं । महाशक्तियां हिन्द महासागर को अपने शक्ति प्रदर्शन का अखाड़ा बना सकती हैं, इस सम्भावना को ध्यान में रखते हुए ही भारत ने 1975 में हिन्द महासागर को ‘शान्त क्षेत्र’ घोषित किये जाने की मांग उठायी थी ।
पर्यावरण प्रदूषण के खतरे:
हिन्द महासागर पर पर्यावरण प्रदूषण का प्रकोप कुछ अधिक ही रहा है । वर्तमान समय में सेनिक खतरों से भी अधिक गम्भीर खतरा पर्यावरण प्रदूषण से है जिसके कारण इस महासागर के अस्तित्व का प्रश्न उठ खड़ा हुआ है ।
हिन्द महासागर विश्व के दो प्रमुख जल मार्गों में से एक है । जिन देशों में जलमार्ग के माध्यम से तेल की आपूर्ति होती है, उनके जहाज प्राय: इसी महासागर से होकर जाते हैं, इस कारण इस मार्ग पर चलने वाले तेल के टैंकरों से रिसने वाला तेल हिन्द महासागर में गिरता है, एवं पानी को प्रदूषित करता है । इतना ही नहीं, इस महासागर में ही तेल के खाली टैंकरों को धोया भी जाता है । इस प्रकार तेल का कचरा भी अत्यधिक मात्रा में समुद्र के पानी में मिल जाता है ।
समुद्र के बीच में जहाजों को धोना जहाजरानी व पर्यावरण कानून का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन है । वैज्ञानिकों का मानना है, कि टैंकरों से गिरा कुछ तेल समुद्र के जल में मिल जाता है, बाकी तेल कचरे के साथ ठोस पिण्ड बनकर समुद्र के तल में बैठ जाता है ।
कुछ तेल तेज लहरों के साथ समुद्र तट पर आ जाता है, परन्तु जो तेल कचरा रहित समुद्र के तल में बैठ जाता है उससे प्रति वर्ष हजारों टन के ठोस पिण्ड समुद्र में बन जाते हैं । ये पिण्ड लगातार पर्वताकार होते जा रहे हैं ।
Essay # 3. हिन्द महासागर की समस्या और भारतीय दृष्टिकोण (India’s Approach to the Problem of Indian Ocean):
हिन्द महासागर विश्व का अकेला ऐसा महासागर है जिसका नाम किसी देश के नाम पर पड़ा है । इस महासागर की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियां सभ्यता के प्रारम्भिक काल से ही भारतीय उपमहाद्वीप से जुड़ी हैं । हिन्द महासागर की कुल तटरेखा का 12.5 प्रतिशत भाग भारतीय तट रेखा है ।
हिन्द महासागर में भारत के लगभग 1,156 द्वीप हैं । इनकी सुरक्षा और विकास का उत्तरदायित्व भारत पर है । भारत का लगभग 98 प्रतिशत अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार हिन्द महासागर के मार्ग से होता है । उल्लेखनीय है कि भारत का समुद्री क्षेत्र करीब 24 लाख वर्ग किमी है ।
इसका आर्थिक दोहन हिन्द महासागर की शान्ति पर निर्भर करता है । भारत का लगभग 63 प्रतिशत पेट्रोलियम और खनिज तेल समुद्री क्षेत्रों से ही प्राप्त होता है । हिन्द महासागर में अनेक छोटे देश हैं जिनके हितों की सुरक्षा में भारत की रुचि है ।
भारत की विदेशी नीति के क्रमिक विकास पर सम्यक दृष्टिपात से यह स्पष्ट हो जाताहै कि भारत ने बृहत् अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति तथा हिन्द महासागर की क्षेत्रीय राजनीति के मध्य एक सन्तुलन तलाशने की कोशिश की है । इसने सार्क, हिमतक्षेस का गठन करने के साथ ही साथ आसियान के साथ अपने सम्बन्धों को लगातार बढ़ाया है ।
एशिया महाद्वीप में सामान्य स्थिति में उत्पन्न जटिलता को देखते हुए भारत अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा तभी सुनिश्चित कर सकता है, जबकि न केवल उसकी सीमाओं से लगे भागों में, बल्कि सारे एशिया में तनाव में शिथिलता आये, शान्ति और स्थिरता का वातावरण बने ।
यही कारण है कि भारतीय नेता दक्षिणी एशिया में तनाव बढ़ाये जाने और हिन्द महासागर का सैन्यीकरण करने के विरोध को, दक्षिण-पूर्वी और दक्षिण पश्चिमी तथा सुदूरपूर्व में राजनीतिक नियमन लाने में सहयोग को देश की विदेश नीति के प्रमुख कार्यभारों में गिनते हैं ।
भारत की प्रायद्वीपीय स्थिति ने हिन्द महासागर के भू-राजनीतिक व भू-सामरिक महत्ता को और भी बढ़ा दिया है । महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग होने के कारण ही विश्व की बड़ी शक्तियां इस क्षेत्र पर नियन्त्रण स्थापित कर न केवल अपने भू-आर्थिक व राजनीतिक हितों की पूर्ति चाह रही हैं अपितु शक्ति राजनीति के माध्यम से अपने वर्चस्व व प्रभाव-वृद्धि हेतु सतत तत्पर हैं ।
अमरीकी नौसेना के भूतपूर्व कमाण्डर एच.जे. गिंपल का मत है कि- ”चूंकि विश्व का ज्यादातर भाग पानी है समुद्र है इसलिए जाहिर है कि तूती उसी की बोलेगी जो महासागरों पर वर्चस्व रखेगा और महासागरों पर कब्जा करने की सबसे आसान तरकीब है कि महासागरों में छितरे हुए द्वीपों पर कब्जा करके वहां सैनिक अड्डे कायम कर लेना ताकि वक्त जरूरत कहीं भी सैनिक मदद भेजी जा सके ।”
हिन्द महासागर के बढ़ते सैन्यीकरण पर भारत में उचित ही चिन्ता व्याप्त हो रही है । इस सैन्यीकरण का भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों पर सीधा प्रभाव पड़ता है । वस्तुत: भारत के व्यापक राष्ट्रीय सुरक्षात्मक और आर्थिक हित इसके शान्त बने रहने पर निर्भर करते हैं ।
प्रथम:
हिन्द महासागर का जल भारत को तीन दिशाओं से छूता है । इसके शान्त और स्थिर रहने से उसकी समुद्री सीमाएं सुरक्षित हैं ।
द्वितीय:
भारत की सीमाएं हिन्द महासागर में सैकड़ों मील दूर तक चली गयी हैं । उसमें स्थित सैकड़ों द्वीपों की सुरक्षा इसके शान्त बने रहने पर ही निर्भर करती है । उदाहरणार्थ- केवल बंगाल की खाड़ी में उसके 667 द्वीप हैं और अरब सागर में 508 द्वीप हैं । अण्डमान और निकोबार द्वीपों की सुरक्षा, जो भारतीय तट से क्रमश: 500 अरि 700 मील दूर हैं इसके शान्त बने रहने पर ही निर्भर करती है ।
तृतीय:
भारत को दूसरे क्षेत्रों और महाद्वीपों से जोड़ने वाले समुद्री और वायु मार्ग यहां से गुजरते हैं । इन मार्गों की सुरक्षा उसके लिए बुनियादी महत्व का प्रश्न है । यह बात देश की 6 हजार किलोमीटर से अधिक लम्बी समुद्री सीमा के लिए भी सही है और देश के प्रमुख औद्योगिक एवं सांस्कृतिक केन्द्रों के लिए भी, क्योंकि वे मुख्यत: सागर तट पर या उससे थोड़ी दूर ही स्थित हैं ।
चतुर्थ:
हिन्द महासागर के अनेक द्वीपों में जैसा कि श्रीलंका, मालदीव, मारीशस, सेशेल्स आदि में भारतीय मूल के अनेक लोग निवास करते हैं उनके हितों और अधिकारों की रक्षा की भी आवश्यकता है ।
पंचम:
तेल और दूसरे खनिज भण्डारों के दोहन की, मत्स्य पालन के विकास की भारत की व्यापक योजनाएं भी सागर से ही जुड़ी हुई हैं । स्पष्ट ही है कि ये योजनाएं शान्तिपूर्ण हैं । इनका ध्येय देश की आर्थिक उन्नति करना जनता की खुशहाली बढ़ाना है । इसके साथ ही यह भी स्पष्ट है कि अमरीका द्वारा हिन्द महासागर के सैन्यीकरण से भारत की सुरक्षा के लिए खतरा है ।
भारतीय विद्वान जेड़ इमाम ने चिन्ता व्यक्त करते हुए पैट्रियट में लिखा है- ”डियागो गार्शिया अड्डे से छोड़े गये नाभिकीय अस्त्रयुक्त प्रक्षेपास्त्र कुछ मिनटों में ही नई दिल्ली पहुंच सकते हैं ।” अत: हिन्द महासागर के परिप्रेक्ष्य में भारत इस समूचे क्षेत्र को ‘शान्ति क्षेत्र’ घोषित करने तथा इस प्रश्न पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने के समर्थन में अपनी आवाज बुलन्द करता आया है ।
हिन्द महासागर में शान्ति क्षेत्र के प्रश्न का अपना इतिहास हे । 1964 में यह विचार रखा गया था कि इस महासागर को ‘शान्ति और चैन’ का क्षेत्र घोषित करने सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय समझौता किया जाय । ऐसा प्रस्ताव काहिरा में हो रहे गुटनिरपेक्ष देशों के दूसरे सम्मेलन में श्रीलंका ने रखा था ।
एशिया और अफ्रीका के गुटनिरपेक्ष देशों ने इस पहल का समर्थन किया । परिणामस्वरूप काहिरा सम्मेलन के प्रस्ताव में यह परामर्श प्रकट हुआ कि सर्वप्रथम उन महासागरों को परमाणु अस्त्र-रहित क्षेत्र घोषित किया जाये, जहां अभी ऐसे अस नहीं पहुंचे हैं । हिन्द महासागर में फौजी अड्डे बनाने के साम्राज्यवादी राज्यों के इरादे की सम्मेलन में भर्त्सना की गयी ।
सातवें और आठवें दशक में हिन्द महासागर को परमाणु अस्त्र-रहित घोषित करने का विचार अधिसंख्य तटवर्ती देशों के लिए अपर्याप्त हो गया था । वे अब अपना लक्ष्य यह मानते थे कि इस महासागर में न केवल नाभिकीय अस्त्रों को न आने दिया जाये बल्कि यहां साम्राज्यवादी ताकतों की सैनिक उपस्थिति को ही रोका जाये । इस प्रकार उपर्युंक्त विचार का आगे विकास हुआ और हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र घोषित करने का प्रश्न अधिकाधिक सक्रिय रूप से उठाया जाने लगा ।
1970 में लुसाका में हुए गुटनिरपेक्ष देशों के तीसरे शिखर सम्मेलन में श्रीलंका ने यह प्रस्ताव रखा कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र बनाने सम्बन्धी पेशकश की जाये । इस सम्मेलन में स्वीकृत ‘संयुक्त राष्ट्र के बारे में प्रस्ताव’ में सम्मेलन के सहभागियों ने एक ऐसा घोषणा-पत्र तैयार करने का समर्थन किया जिसमें सभी देशों से आह्वान किया जाये कि वे हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र मानें; वहां थलसेना, नौसेना या वायुसेना किसी का भी कोई विदेशी अड्डा न हो और साथ ही इस क्षेत्र में नाभिकीय अस्त्र न लगाये जायें ।
संयुक्त राष्ट्र महासभा के 26वें अधिवेशन में 16 दिसम्बर, 1971 को हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र घोषित करने सम्बन्धी घोषणा-पत्र स्वीकार किया गया । इसका मसौदा निम्न 13 देशों ने तैयार किया-इराक, ईरान, कीनिया, जाम्बिया, तंजानिया, बुरूण्डी, भारत, यमन, युगाण्डा, यूगोस्लाविया, श्रीलंका, सोमाली और स्वाजीलैण्ड ।
इस घोषणा-पत्र में कहा गया था कि संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा यह विश्वास रखते हुए कि विशाल भौगोलिक क्षेत्र में शान्ति क्षेत्र की स्थापना समानता और न्याय के आधार पर सार्विक शान्ति लाने पर सुप्रभाव डाल सकती है, संयुक्त राष्ट्र संघ के ध्येयों और सिद्धान्तों के अनुरूप- ”घोषणा करती है कि हिन्द महासागर को उन सीमाओं में जिन्हें अभी निर्धारित किया जाना है, इसके ऊपर फैले आकाशीय क्षेत्र तथा उसके समुद्र तल सहित इस प्रस्ताव द्वारा चिरकाल के लिए शान्ति क्षेत्र घोषित किया जाता है ।”
घोषणा-पत्र में बड़े देशों से आह्वान किया गया कि वे हिन्द महासागर में सैनिक उपस्थिति का विस्तार रोकने, यहां से अपने सभी फौजी अड्डे, फौजी ठिकाने नाभिकीय संयन्त्र और जनसंहार के शस्त्रास्त्र हटाने तथा अपनी सैनिक उपस्थिति का प्रदर्शन समाप्त करने के उद्देश्य से तटवर्ती देशों इस क्षेत्र के निकटवर्ती देशों सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य देशों का भी आह्वान किया गया कि वे इस बात को आवश्यक प्रत्याभूति दें कि हिन्द महासागर के क्षेत्र में जो युद्धपोत और वायुसैनिक टुकड़ियां हैं. वे बल प्रयोग का खतरा पैदा नहीं करेंगी; वे हिन्द महासागर के तटवर्ती या निकटवर्ती किसी देश की सम्प्रभुता क्षेत्रीय अखण्डता या स्वतन्त्रता को खतरे में न डालें ।
26वें अधिवेशन में इस प्रस्ताव के पक्ष में 61 देशों ने मत दिया और 55 ने मतदान में भाग नहीं लिया । इसके विरुद्ध किसी ने मत नहीं दिया । सन् 1993 में महासभा ने हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र बनाने का संकल्प पारित किया । इस संकल्प में हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र घोषित करने की 1971 की घोषणा का अनुसरण किया गया । संक्षेप में, भारत हिन्द महासागर क्षेत्र की लगभग आधी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है अत: इस क्षेत्र में मुख्य भूमिका निभाने के लिए प्रयत्नशील है ।
भारत इस बात का समर्थन करता है कि:
(a) हिन्द महासागर शान्ति क्षेत्र घोषित किया जाय सभी विदेशी अड्डों का उन्मूलन हो;
(b) यहां नाभिकीय शस्त्रास्त्र तथा जनसंहार के दूसरे शस्त्रास्त्र न लगाये जायें;
(c) तटवर्ती और तटेतर देशों के विरुद्ध नाभिकीय अस्त्रों का उपयोग न हो ओर सभी नाभिकीय राष्ट्र तत्सम्बन्धी दायित्व ग्रहण कर लें;
(d) यहां ऐसी सशस्त्र सेनाएं और शास्त्रास्त्र न रखे जायें जो इस क्षेत्र के देशों की सम्प्रभुता, क्षेत्रीय अखण्डता और स्वतन्त्रता के लिए खतरा पेश करें ।
भारत की इन प्रस्थापनाओं की पूर्ति से हिन्द महासागर वास्तव में ही शान्ति क्षेत्र बन सकता है । मार्च, 1983 में दिल्ली में हुए गुटनिरपेक्ष देशों के सातवें शिखर सम्मेलन में हिन्द महासागर के प्रश्न की ओर विशेष ध्यान दिया गया ।
Essay # 4. हिन्द महासागर तटीय क्षेत्रीय सहयोग संगठन (हिमतक्षेस) (Indian Ocean Rim Association for Regional Co-Operation–IORARC):
मॉरीशस की पहल पर मार्च, 1997 में भारत तथा तेरह अन्य देशों ने हिन्द महासागर के तटवर्ती देशों के बीच सहयोग बढ़ाने के उद्देश्य से ”इण्डियन ओशन रिम एसोसिएशन फॉर रीजनल कोऑपरेशन” अर्थात् ”हिन्द महासागर तटीय क्षेत्रीय सहयोग संगठन’ (हिमतक्षेस) के गठन की घोषणा की ।
इस संगठन में एशिया, अफ्रीका तथा आस्ट्रेलिया के वे देश शामिल हैं जो हिन्द महासागर के तट पर बसे हुए हैं । भारत के अतिरिक्त संगठन में शामिल देश हैं- आस्ट्रेलिया, मलेशिया, इण्डोनेशिया, श्रीलंका, सिंगापुर, ओमान, यमन, तंजानिया, केनिया, मोजाम्बिक, मेडागास्कर, दक्षिण अफ्रीका और मॉरीशस ।
अप्रैल, 1999 में हिमतक्षेस की मोपुल बैठक में हिमतक्षेस में पांच अन्य राष्ट्रों-ओमान, थाईलैण्ड, संयुक्त अरब अमीरात, सेशल्स एवं बांग्लादेश की सदस्यता के आवेदन स्वीकार कर लिए जाने से सदस्य राष्ट्रों की संख्या 14 से बढ्कर 19 हो गई ।
इनके अतिरिक्त दो अन्य राष्ट्रों-मिस्र तथा जापान को ‘डायलॉग पार्टनर’ के रूप में आमन्त्रित करने का भी निर्णय किया गया । मार्च, 1999 से मार्च 2001 तक मोजाम्बिक हिमतक्षेस बैठकों का अध्यक्ष रहा । आई ओ आर-ए आर सी की मत्रिपरिषद् की नौंवी बैठक 25 जून, 2009 को साना (यमन) में सम्पन्न हुई ।
मत्रिपरिषद् की बैठक के प्रमुख निष्कर्षों में क्षेत्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी अन्तरण केन्द्र, मत्स्यपालन सहायक यूनिट और समुद्री परिवहन परिषद् की स्थापना करना शामिल है । भारत ने यमन से उपाध्यक्ष का कार्यभार ग्रहण किया और आई ओ आर-ए आर सी का अगले दो वर्षों की अवधि तक अध्यक्ष बना । भारत अध्यक्ष का पद वर्ष 2011 में ग्रहण करेगा ।
वैसे इस संगठन के निर्माण के विचार बीज दक्षिण अफ्रीका के गोरे विदेश मंत्री पिक बोया के मस्तिष्क की उपज है जिसको उन्होंने 1993 में अपनी भारत यात्रा के समय व्यक्त किया था । हिन्द महासागर के तटवर्ती देशों की संख्या लगभग 47 है जो विश्व की 31 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं लेकिन विश्व व्यापार में इनका हिस्सा केवल 10.7 प्रतिशत है तथा इनका सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) 6.3 प्रतिशत है ।
यदि यह संगठन कारगर हो जाए तो लगभग 140 करोड़ लोगों की जनसंख्या के लिए आर्थिक अन्त क्रिया का माध्यम बन सकता है । मॉरीशस के प्रधानमंत्री रामगुलाम के अनुसार- ”हिमतक्षेस इस असंतुलन को दूर करेगा तथा हिन्द महासागरीय देशों की अर्थव्यवस्था को एक छलांग भरने का अवसर देगा ।”
चूंकि इन देशों के पास सब कुछ है-प्रचुर प्राकृतिक संसाधन बहुमूल्य खनिज विशाल जनशक्ति उन्नत कृषि, विकसित सेनाएं उच्चस्तरीय प्रौद्योगिकी ज्ञान एवं औद्योगिक क्षमता अत: हिन्द महासागर के देशों के बीच व्यापार व आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देकर आर्थिक एकजुटता के आधार पर सभी क्षेत्रीय राज्यों के हित सुरक्षित रखे जा सकेंगे ।
मॉरीशस की बैठक में 7 देशों ने भाग लिया था, उसी से इस संगठन का प्रारंभिक नाम: ‘एमन’ पड़ गया । ये देश हैं: मॉरीशस, केनिया, दक्षिण, अफ्रीका, ओमान, भारत, सिंगापुर एवं आस्ट्रेलिया । इसके बाद ‘एम-7’ की बैठक आस्ट्रेलिया में पर्थ (जून, 1995) में हुई जिसमें लगभग 23 देशों के 122 प्रतिनिधियों ने भाग लिया । पर्थ में ऐसे देशों के प्रतिनिधि भी थे जो इस संगठन के सदस्य नहीं हैं लेकिन सदस्यता के इच्छुक हैं ।
अभी तक 7 संस्थापक सदस्यों के अतिरिक्त सिर्फ 7 अन्य सदस्यों-श्रीलंका, इंडोनेशिया, यमन, तंजानिया, मेडागास्कर, मलेशिया और मोजाम्बिक को शामिल किया गया । नये संगठन में शामिल होने की जीतोड़ कोशिशों के बावजूद पाकिस्तान को इसका सदस्य नहीं बनाया गया । सदस्य देशों का कहना है कि भारत तथा पाकिस्तान दोनों को एक साथ सदस्य बनाये जाने से यह नया संगठन शुरू से ही संकट में पड़ जायेगा क्योंकि वे रिम संगठन में भी अपने द्विपक्षीय मुद्दे उछालने लगेंगे ।
‘एम-7’ ने जिन 7 सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया है जो इसके लक्ष्य भी कहे जा सकते हैं, निम्न हैं:
i. क्षेत्र के निवासियों के कल्याण व जीवन स्तर में वृद्धि करना ।
ii. क्षेत्र के देशों का संतुलित विकास करना ।
iii. आर्थिक सहयोग बढ़ाना तथा व्यापार, पर्यटन, पूंजी नियोजन, प्रौद्योगिकी विनिमय, मानव संसाधन विकास में वृद्धि ।
iv. माल वस्तुओं, सेवाओं, पूंजी, प्रद्योगिकी के मुक्त प्रवाह से इस क्षेत्र के देशों को सम्पन्न बनाना ।
v. विश्वस्तरीय आर्थिक मुद्दों पर विचार विनिमय ।
vi. बौद्धिक स्तर पर सहयोग प्रशिक्षण व विश्व-विद्यालयों के स्तर पर सहयोग व सम्पर्क बढ़ाना ।
vii. क्षेत्रीय व्यापार को बढ़ाने के लिए सीमा करों में कटौती तथा आयात-निर्यात को बढ़ावा देना ।
4 मई, 2008 को तेहरान में आयोजित हिन्द महासागर तटीय क्षेत्रीय सहयोग संघ मन्त्रियों की परिषद् की 8वीं बैठक में 3-4 वर्ष की कार्य योजना प्रस्तुत की गई, जिसमें प्राथमिकता वाले निम्नलिखित 6 क्षेत्रों पर विशेष बल दिया गया:
a. व्यापार और निवेश तथा वित्त एवं ऊर्जा,
b. शिक्षा संस्कृति तथा प्रौद्योगिकी,
c. मत्स्यिकी,
d. पर्यटन,
e. आपदा प्रबन्धन और जोखिम प्रशासन तथा
f. सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी ।
विदेश मन्त्री सलमान खुर्शीद ने 1 नवम्बर, 2013 को पर्थ आस्ट्रेलिया में आयोजित ‘भारतीय समुद्री रिम संगठन’ क्षेत्रीय सहयोग मन्त्रिपरिषद् (सीओएम) की 13वीं बैठक में भारतीय प्रतिनिधिमण्डल की अगुवाई की । भारत ने इस बैठक में इस संगठन की अध्यक्षता आस्ट्रेलिया को सौंप दी ।
इस बैठक में हिन्द महासागर रिम संगठन (आईओआरए) के नए नाम को स्वीकार किया गया । 13वें सीओएम में भारतीय ओसन रिम संगठन की पर्थ घोषणा को अंगीकार किया गया जो हिन्द महासागर और ‘इसके संसाधनों के शान्तिपूर्ण, उत्पादक तथा सतत उपयोग के सिद्धान्तों पर आधारित था ।
भारतीय महासागर कोर के मन्त्रियों की परिषद् की 14वीं बैठक 9 अक्टूबर, 2014 को पर्थ आस्ट्रेलिया में हुई । श्रीमती सुजाता मेहता सचिव (ई.आर. तथा डी.पी.ए.) ने बैठक के लिए शिष्टमण्डल का नेतृत्व किया । बैठक की कार्यसूची सम्बन्धी मुद्दों में जल अर्थव्यवस्था विकसित करना महिला सशक्तिकरण समुद्रीय सहयोग, मानव संसाधन विकास और क्षमता, विकास पर्यटन को बढ़ावा देना वार्ता साझेदारों के साथ भागीदारी को बढ़ाना और क्षेत्रीय आर्थिक विकास में आई.ओ.आर.ए. सहयोग शामिल थे ।
ADVERTISEMENTS:
संक्षेप में ‘हिमतक्षेस’ एक अदभुत अन्तर्राष्ट्रीय संगठन है । थाईलैण्ड बांग्लादेश तथा ईरान जैसे देशों की रुचि इसमें शामिल होने की है । जापान ने भी इसमें पर्यवेक्षक स्तरीय प्रतिनिधित्व मांगा है । हिमतक्षेस का बाजार यूरो-अमरीकी कम्पनियों के हवाले होने से बचाकर ही इस क्षेत्र के सकल घरेलू उत्पाद को तथा विश्व व्यापार में हिस्सेदारी को बढ़ाया जा सकता है ।
आलोचना:
बड़े राष्ट्र हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र बनाने के भारतीय दृष्टिकोण से सहमत नहीं हैं । वे भारत जैसे देशों की इस मांग को भी टालते रहे हैं कि हिन्द महासागर में शान्ति स्थापना के लिए तटवर्ती तथा दूसरे सम्बद्ध राष्ट्रों का एक विश्व सम्मेलन बुलाया जाये ।
आज सभी यह देख रहे हैं कि हिन्द महासागर के शान्तिमय जल विस्तार और उसके ऊपर निरभ्र आकाश के लिए संघर्ष में एक खेमे में वे राष्ट्र हैं जो वास्तव में इस ध्येय के लिए संघर्ष कर रहे हैं तथा दूसरे खेमे में वे राष्ट्र हैं जो खुलेआम इसका विरोध करते हैं ।
पहले खेमे में इस क्षेत्र के विकासशील देश हैं जो हिन्द महासागर क्षेत्र में शान्ति क्षेत्र के विचार का समर्थन कर रहे हैं । उधर, दूसरे खेमे में हैं अमरीका, नाटो गुट के सदस्य देश तथा वे राज्य जो आंख मूंदकर वाशिंगटन की आधिपत्यवादी नीति का अनुसरण करते हैं ।