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Here is an essay on the ‘Political System Theory’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Political System Theory’ especially written in Hindi language.
Essay on the Political System Theory
Essay Contents:
- सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त: उद्गम और प्रारम्भिक विकास (General System Theory: Origin and Early Growth)
- सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त: अभिप्राय (General System Theory)
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में व्यवस्था सिद्धान्त (System Theory in this Study of International Politics)
- मॉर्टन कैप्लन का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति व्यवस्था सिद्धान्त (International Politics System: Mortan Kaplan’s Theory)
- कैप्लन के अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति व्यवस्था सिद्धान्त का मूल्यांकन (Appraisal of Kaplan’s Theory of International Political System)
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में व्यवस्था विश्लेषण संप्रत्यय की सीमाएं (Limitations of System Analysis in International Politics)
Essay # 1. सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त: उद्गम और प्रारम्भिक विकास (General System Theory: Origin and Early Growth):
सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त (General System Theory), व्यवस्था सिद्धान्त (System Theory), उपव्यवस्था सिद्धान्त (Sub-System Theory), आदि ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सिद्धान्तकिरण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योग दिया । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में व्यवस्था सिद्धान्त व्यवहारवादी क्रान्ति की उपज है ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विद्वानों ने सामाजिक विज्ञानों में अन्त: अनुशासनात्मक एकीकरण पर बल दिया और यही धारणा सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त की उपज का कारण थी । इस दृष्टिकोण के प्रतिपादकों का कहना था कि ज्ञान-विज्ञान को विभिन्न विषयों (टुकड़ों) में कठोरता के साथ विभाजित कर दिया गया था जिसके परिणामस्वरूप ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में तो एक-दूसरे के साथ आदान-प्रदान की क्रिया रुक ही गयी थी ज्ञान के प्रत्येक विशिष्ट क्षेत्र की प्रगति में भी बाधा आ रही थी ।
यह स्थिति उत्पन्न हो गयी कि एक विज्ञान में होने वाले विकास की सहायता से दूसरे विज्ञानों की उसी प्रकार की समस्याओं को समझ पाना सम्भव नहीं रह गया था । अत: कतिपय विद्वानों का विचार था कि हमारे अध्ययन और शोध से एक ऐसा सामान्य ढांचा बनना चाहिए जिसमें विभिन्न अनुशासनों से प्राप्त ज्ञान को सार्थक ढंग से संघटित किया जा सके ।
इस प्रकार ‘व्यवस्था सिद्धान्त’ एक ऐसे आन्दोलन का परिचायक बन गया जिसका ध्येय विज्ञान और वैज्ञानिक विश्लेषण का एकीकरण करना है एक ऐसे व्यापक सिद्धान्त की खोज करना है जिसकी सहायता से प्रत्येक विज्ञान को अपनी समस्याएं अधिक अच्छी तरह समझने में सहायता मिल सके ।
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सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त का आरम्भ सैद्धान्तिक रूप में प्राकृतिक विज्ञानों और विशेषकर जीव विज्ञान में हुआ परन्तु सामाजिक विज्ञान में उसका व्यवहार सबसे पहले मानव विज्ञान में होना आरम्भ हुआ । इसके बाद समाजशास में उसके कुछ समय बाद मनोविज्ञान में और काफी समय बाद राजनीति विज्ञान और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में उसे प्रयोग में लाया गया ।
सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त की संकल्पना सबसे पहले 1920 के दशक में लुडविग बौन बर्टलनफी नाम के प्रसिद्ध जीव-विज्ञानशास्री की रचनाओं में पायी जाती है । उसने 1920-30 में विज्ञान के एकीकरण की आवश्यकता पर बल दिया था । सामाजिक शास्त्रों में इसका प्रारम्भ सबसे पहले सामाजिक मानव विज्ञान में इमाइल दुर्खीम की रचनाओं में और ए. आर. रैडक्तिफ ब्राउन और ब्रोनिसली मैलिनोवस्की की रचनाओं में स्पष्ट रूप से हुआ ।
सामाजिक मानव विज्ञान के क्षेत्र में इन दोनों लेखकों ने जो सैद्धान्तिक आविष्कार किए उनका प्रभाव राजनीतिशास पर दो समाजशास्त्रियों: रॉबर्ट के. मर्टन और टालकॉट पार्सन्स के माध्यम से आया । 1960 के दशकों के मध्य तक यह दृष्टिकोण राजनीति विज्ञान की खोज और विश्लेषण की प्रमुख प्रविधि बन गया था । राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में डेविड ईस्टन तथा ग्रेब्रियल आमण्ड और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में मॉर्टन कैपलन ने इस सिद्धान्त के विकास में महत्वपूर्ण काम किया ।
Essay # 2. सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त: अभिप्राय (General System Theory):
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व्यवस्था की अवधारणा विभिन्न अनुशासनों में विद्यमान कठोर विभक्तीकरण, शोध प्रयासों के अनावश्यक आवृत्तिकरण प्रति-अनुशासनात्मक अभाव से उत्पन्न परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए प्रस्थापित हुई है । विभिन्न विज्ञानों या अनुशासनों के बीच स्वत: ही दीवारें खड़ी होने लगी थीं जिससे ज्ञान का एक अनुशासन से दूसरे अनुशासन की तरफ प्रवाह नहीं हो पा रहा था ।
इस स्थिति से निपटने के लिए अनेक विद्वान विभिन्न विज्ञानों के एकीकरण की बात करने लगे । इन लोगों की मान्यता थी कि विविध अनुशासनों में अनेक सामान्य बातें समान रूप में पायी जाती है अत: इनको एक तारतम्य में पिरोने के लिए कोई ऐसा अमूर्त ढांचा निर्मित करना आवश्यक समझा गया जिससे कोई सामान्य सिद्धान्त बनाया जा सके और सभी अनुशासनों में समस्याओं को समझने में लागू किया जा सके ।
ऐसे सामान्य सिद्धान्त के निर्माण में प्रयत्नशील विद्वानों ने सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त की अवधारणा विकसित की जो ‘व्यवस्था’ के विचार पर आधारित है । सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त विभिन्न अनुशासनों में एकता लाने वाली अवधारणाओं की खोज से सम्बन्धित है ।
इसका निर्माण ‘व्यवस्था’ की अवधारणा से हुआ है । भौतिक विज्ञानों के अन्तर्गत व्यवस्था का अर्थ सुपरिभाषित अन्त: क्रियाओं के समूह से है जिसकी सीमाएं निश्चित की जा सकें । शाब्दिक परिभाषा के अनुसार ‘व्यवस्था’ का अर्थ है जटिल सम्बन्धित वस्तुओं का समग्र समूह विधि संगठन पद्धति के निश्चित सिद्धान्त तथा वर्गीकरण का सिद्धान्त ।
इन अर्थों में महत्वपूर्ण शब्द ‘सम्बन्धित’ ‘संगठित’ और ‘संगठन’ हैं अर्थात् एक व्यवस्था संगठित होनी चाहिए अथवा उसके अंग सम्बद्ध हों । यदि किसी भी स्थान पर हमें संगठन मिलता है अथवा जहां संगठित होने के गुण पाए जाते हैं और उसके सभी अंग एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं तो वहां ‘व्यवस्था’ विद्यमान है ।
बर्टलेन्फी व्यवस्था की परिभाषा करते हुए लिखते हैं कि, ‘यह अन्त क्रियाशील तत्वों का समूह (A set of elements standing in interaction) है ।’ हॉल एवं फैगन के अनुसार यह ‘वस्तुओं में परस्पर तथा वस्तुओं और उनके लक्षणों के बीच सम्बन्धों सहित वस्तुओं का समूह (A set of objects together with relationship between the objects and between their attributes) है ।’
कोलिन चेरी ने लिखा है कि, ‘व्यवस्था एक ऐसा सपूर्ण संघटक है, जो लक्षणों के विभिन्न निर्माणक भागों में सम्मिलित रहती है ।’ (A whole which is compounded of many parts-As assemble of attributes) । व्यवस्था सिद्धान्त का प्रयोग अनेक अनुशासनों में किया गया है और विभिन्न अनुशासनों में व्यवस्था की विभिन्न परिभाषाएं अपनायी गयी हैं ।
इसलिए कोई सर्वमान्य परिभाषा खोज निकालना सम्भव नहीं है । मोटे रूप से ‘व्यवस्था’ किन्हीं वस्तुओं या अवयवों का वह समूह है जिसमें वस्तुओं या अवयवों का एक-दूसरे के साथ कोई संरचनात्मक सम्बन्ध होता है । सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त की बुनियादी मान्यता है कि सम्बन्धों के कुछ-न-कुछ लक्षण सब प्रकार के निकायों में साझे होते हैं ।
सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त ‘संप्रत्ययों, संकल्पनाओं और प्रमाणित प्रतिज्ञप्तीयों का एक संघटित और सामान्यीकृत समुच्चय है ।’ सामान्य सिद्धान्त को कुछ तकनीकों का समुच्चय भी कहा जा सकता है जिनका किसी व्यवस्थित विश्लेषण में प्रयोग किया जा सकता है ।
वैज्ञानिक प्रणाली के समर्थक इसे वैज्ञानिक विश्लेषण का ढांचा मानते हैं । अनाटोल रैपोर्ट का अभिमत है कि सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त वास्तव में सिद्धान्त नहीं बल्कि वैज्ञानिक प्रणाली के विकास की ओर ले जाने वाला एक मार्ग है ।
Essay # 3. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में व्यवस्था सिद्धान्त (System Theory in the Study of International Politics):
पिछले कुछ वर्षों से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन व्यवस्था विश्लेषण के सन्दर्भ में करने के प्रयत्न किए जा रहे हैं । इस दृष्टिकोण के समर्थकों का मत है कि, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का वैज्ञानिक अध्ययन तभी किया जा सकता है, जबकि इसे एक ‘व्यवस्था’ (System) के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए । अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की धारणा की कल्पना सर्वप्रथम के. डबल्यू थाम्पसन ने की और मॉर्टन कैप्लन ने इस धारणा का और अधिक विस्तार किया ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ‘व्यवस्था’ शब्द तीन अर्थों में प्रयोग होता हैं:
पहले अर्थ में:
व्यवस्था का अर्थ है, अन्तर्राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं का ऐसा विन्यास जिसमें परस्पर क्रियाएं स्पष्ट रूप से पहचानी जा सकती हैं ।
दूसरा अर्थ में:
व्यवस्था का है कि, विशेष विन्यास जिसमें स्वयं विन्यास का स्वरूप ही राज्यों के व्यवहार की व्याख्या करने में सबसे महत्वपूर्ण तत्व माना जाता है ।
तीसरे अर्थ में:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में विशेष प्रकार की प्रविधियों के प्रयोग को व्यवस्था कहते हैं ।
पहला अर्थ, अन्तर्राष्ट्रीय वास्तविकता का दिग्दर्शन कराता है । जेम्स रोजिनो ने इसी अर्थ में व्यवस्था सिद्धान्त का प्रयोग करते हुए इसे वर्णन का एक तरीका माना है ।
दूसरा अर्थ, अन्तर्राष्ट्रीय वास्तविकता की व्याख्या करता है । केनेथ बोल्डिंग और चार्ल्स मैक्लेलैण्ड ने इसी अर्थ में व्यवस्था सिद्धान्त का प्रयोग करते हुए अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार के मुख्य चरों की व्याख्या करने का प्रयत्न किया है ।
तीसरा अर्थ, अन्तर्राष्ट्रीय वास्तविकता का विश्लेषण करता है । प्रणाली के रूप में व्यवस्था का अभिप्राय एक ऐसे विशिष्ट दृष्टिकोण से है जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की विस्तृत आधार सामग्री में सैद्धान्तिक व्यवस्था लाना चाहता है । जार्ज लिस्का और आर्थर ली बर्न्स ने ऐसे ही विशिष्ट दृष्टिकोण विकसित कर उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर लागू किया है ।
संक्षेप में, विश्लेषण प्रणाली के रूप में व्यवस्था विश्लेषण की धारणा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को एक व्यवस्था के रूप में प्रतिपादित करने की चेष्टा है । जेम्स एन. रोजेनाऊ ने सन् 1960 में ही अपनी पुस्तक में लिखा था कि- ”अन्तर्राष्ट्रीय गतिविधियों के अध्ययन में जो नवीनतम प्रवृतियां विकसित हो रही हैं उनमें से सम्भवत: सबसे अधिक महत्वपूर्ण और लोकप्रिय प्रवृति पूरे अन्तर्राष्ट्रीय जगत को व्यवस्था मानकर चलने की है ।”
इस प्रवृति का मूलाधार अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक आचरण को भौतिकशास्त्र और जीवनशास की स्पष्ट संकल्पनाओं के आधार पर समझने का प्रयत्न करता है । व्यवस्था विश्लेषण में अन्तर्राष्ट्रीय जगत को जीवनशास्त्र के आधार पर एक सावयव इकाई मानकर चला जाता है ।
जिस प्रकार भौतिक-शास्त्रों में भविष्य कथन (Prediction) किए जाते हैं, वैसे ही यहां भी करने का प्रयत्न किया जाता है । गणित में जिस प्रकार कार्यकारण का सम्बन्ध है, उसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय जगत की भी विवेचना की जा सकती है ।
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था एक क्रियाशील गतिमान व्यवस्था है और विशिष्ट काल में उसका विशिष्ट रूप रहता है जैसे मानव शरीर में क्रम से बचपन किशोरावस्था यौवन और जरावस्था आती है । यदि एक व्यवस्था के समस्त अंग समान रूप से विकसित होते हैं तो वह स्वस्थ विकास होता है ।
जैसे सावयव में एक ही विशिष्ट अंग का बढ़ना रोग का लक्षण है वैसे ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में जब एक राज्य अत्यधिक शक्तिशाली हो उठता है तो युद्ध होते हैं । जिस प्रकार शरीर में बहुत अधिक असन्तुलन हो जाता है तो ज्वर आदि उस असन्तुलन को सन्तुलित करने में तीव्र कदम होते हैं, उसी प्रकार राज्यों में जब गहरे असन्तुलन होते हैं तो क्रान्तियां होती हैं और उसके उपरान्त नया सन्तुलन स्थापित हो जाता है ।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था की परिभाषा करते हुए डी. कोपकिन ने लिखा है कि- ”अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था को हम क्षेत्रीय आधार पर संगठित अर्द्ध-स्वायत्त कानूनी और तथ्यात्मक राजनीतिक इकाइयों के एक सेट के रूप में देख सकते हैं । इन राजनीतिक इकाइयों का अभिप्राय राष्ट्रों अथवा राज्यों से है जो इस विश्व को घेरे हुए हैं और बड़ी संख्या में विभिन्न विवाद क्षेत्रों में एक-दूसरे के प्रति स्वतन्त्र और सामूहिक रूप से कार्य करते हैं ।”
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था उन स्वतन्त्र राजनीतिक इकाइयों का संग्रह है जो कुछ नियमित रीति से पारस्परिक क्रिया करती है । अर्थात् राज्यों में पारस्परिक क्रियाएं नियमित भी होनी चाहिए और अनवरत भी । जहां ऐसी क्रियाएं नहीं होतीं वहां किसी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की कल्पना नहीं की जा सकती ।
व्यवस्था विश्लेषण धारणा के अनुसार किसी राष्ट्र का व्यवहार अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था से कुछ लेने और उसे कुछ देने की दुतरफा क्रिया है । व्यवस्था दृष्टिकोण राज्यों के व्यवहार के अध्ययन पर बल देता है । राज्यों का व्यवहार अनवरत रूप में बदलता रहा है, जिससे अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में भी रूपान्तरण होता है ।
प्राचीन काल में राज्यों की संख्या कम थी जिससे पारस्परिक अन्तःक्रिया भी कम होती थी । जैसे-जैसे राज्यों की संख्या बढ़ती गयी वैसे-वैसे राज्यों की पारस्परिक क्रियाएं भी बढ़ने लगीं । व्यवस्था विश्लेषण दृष्टिकोण अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के भूत और वर्तमान से सम्बन्धित है ।
यह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन के लिए एक विशुद्ध सिद्धान्त या संप्रत्यय अपनाने पर बल देता है । यह संप्रत्यय ऐसी संकल्पना का निर्माण करता है कि राज्यों का एक-दूसरे के साथ सम्पर्क पारस्परिक क्रिया के प्रक्रम से बनने वाले सम्बन्धों के एक जटिल ढांचे में होता है ।
Essay # 4. मॉर्टन कैप्लन का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति व्यवस्था सिद्धान्त (International Politics System: Mortan Kaplan’s Theory):
अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में व्यवस्था उपागम को लोकप्रिय करने में मॉर्टन कैप्लन का विशेष हाथ है । ‘शक्ति राजनीति’ की धारणा को स्वीकार करते हुए उसने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था की कुछ विशिष्ट आत्म-नियामक विशेषताएं बतायी हैं ।
कैप्लन का अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था दृष्टिकोण कई सैद्धान्तिक मान्यताओं पर आधारित है:
प्रथम मान्यता यह है कि:
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक पद्धति (व्यवस्था) के अन्तर्गत व्यवहारों के कुछ विशिष्ट एवं आवर्तनीय (Repeatable) समुच्चय का अस्तित्व है ।
द्वितीय मान्यता यह है कि:
ये व्यवहार समुच्चय (Pattern) का रूप इसलिए धारण करते हैं कि, इस समुच्चय के विभिन्न तत्वों में घनिष्ठ आन्तरिक सम्बन्ध होता है तथा इनसे अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय आवश्यकताओं की समान रूप से पूर्ति होती है ।
तृतीय मान्यता यह है कि:
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहारों के समुच्चय अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भाग लेने वाले लोगों और संस्थाओं के चरित्र एवं उनकी विशेषताओं को प्रतिबिम्बित करने के साथ ही साथ उनके द्वारा सम्पादित किए जाने वाले कार्यों की विशेषताओं को भी प्रतिबिम्बित करते हैं ।
चतुर्थ मान्यता यह है कि:
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार कई तत्वों; जैसे सेनिक तथा आर्थिक क्षमता संचार तथा सूचना तकनीकी परिवर्तन जनसांख्यिकीय परिवर्तन आदि तत्वों से सम्बद्ध रहते हैं और इनके सम्बन्धों को दर्शाया भी जा सकता है ।
कैप्लन का यह भी कहना है कि- राजनीतिक व्यवस्था को अक्षुण्ण रखने के लिए शारीरिक बल कम-से-कम आखिरी उपाय के तौर पर काम में लिया जाना चाहिए । इन मान्यताओं के आधार पर कैप्लन ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था के विभिन्न प्रतिमानों की कल्पना की है । उसका विश्वास है कि इन प्रतिमानों (Models) का व्यवहारवादी विश्लेषण सम्भव है तथा इनके विशिष्ट आधार वाक्यों की जांच की जा सकती है ।
कैप्लन ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक पद्धति ( व्यवस्था) में छ: प्रतिमानों की कल्पना की है:
(1) शक्ति सन्तुलन व्यवस्था;
(2) शिथिलद्विध्रुवीय व्यवस्था;
(3 ) दृढ़ द्विध्रुवीय व्यवस्था;
(4) विश्वव्यापी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था;
(5) सोपानीय अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था;
(6) इकाई वीटो अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था ।
(1) शक्ति सन्तुलन व्यवस्था (Balance of Power System):
शक्ति सन्तुलन व्यवस्था 18वीं और 19वीं शताब्दी में प्रचलित ‘शक्ति सन्तुलन सिद्धान्त’ से मिलती-जुलती है । इसमें राजनीतिक उपपद्धति का अभाव होता है । इसमें दो प्रकार के कार्यकर्ता (actors) होते हैं: आवश्यक कार्यकर्ता और अन्य लघु कार्यकर्ता । महत्वपूर्ण आवश्यक राष्ट्रीय कार्यकर्ता हैं; जैसे अमरीका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन, चीन, आदि । अन्य लघु कार्यकर्ताओं में छोटे-छोटे दे शो को शामिल किया जा सकता है ।
कैप्लन के अनुसार, शक्ति सन्तुलन व्यवस्था के छ: अपरिहार्य नियम हैं:
(i) प्रत्येक आवश्यक कार्यकर्ता को अपनी क्षमता बढ़ानी चाहिए, परन्तु युद्ध करने के बजाय समझौते का सहारा लेना चाहिए (Increase capabilities but negotiate rather than fight),
(ii) यदि समझौते के कारण अपनी क्षमता बढ़ाना कठिन हो तो युद्ध का सहारा लेना-चाहिए (Fight rather than fail to increase capabilities),
(iii ) किसी आवश्यक कार्यकर्ता को समाप्त करने के बजाय युद्ध बन्द कर देना ज्यादा अच्छा है (Stop fighting rather than eliminate an essential actor),
(iv) अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के भीतर यदि कोई विशेष कर्ता या कर्ताओं का कोई विशेष संविद (Coalition) ता आधिपत्य स्थापित करना चाहे या उसमें सफलता प्राप्त करे तो उसका विरोध करो (Oppose any coalition or single actor which tends to assume a position of predominance within the system),
(v) यदि कोई कर्ता या कर्ताओं का समूह अधिराष्ट्रीय (supernational) सिद्धान्त का पोषण करे तो उसे वैसा न कर ने को बाध्य करो (Constrain actors who subscribe to supernational organizational principles),
(vi) पराजित या अवरुद्ध आवश्यक राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं को व्यवस्था में फिर प्रवेश करने देना चाहिए । सभी आवश्यक कर्ताओं को सहयोगी मानना चाहिए (Permit defeated or constrained essential national actors to re-enter the system as acceptable role partners. Treat all essential actors as acceptable role partners) ।
शक्ति सन्तुलन वाली अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के पहले दो नियमों से प्रकट होता है कि, अन्तर्राष्ट्रीय सामाजिक पद्धति के अन्तर्गत किसी राजनीतिक उपपद्धति का अस्तित्व नहीं है । इसलिए आवश्यक राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं को अपनी सुरक्षा के लिए अपने सहयोगियों पर निर्भर रहना पड़ता है अथवा उनमें सदा इतनी क्षमता होनी चाहिए कि वे अपनी सुरक्षा स्वयं कर सकें ।
तीसरे नियम से यह तथ्य प्रकट होता है कि, आवश्यक कर्ता अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में एक सीमा के बाहर भूमिका अदा नहीं कर सकते हैं क्योंकि यह उनके राष्ट्रीय हितों या राष्ट्रीयता के सिद्धान्त के प्रतिकूल होगा । चौथे एवं पांचवें नियमों से यह प्रतिबिम्बित होता है कि, यदि किसी आवश्यक राष्ट्रीय कर्ता या कर्ताओं के समूह द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में आधिपत्य कायम किया जाता है तो वह दूसरे राष्ट्रीय कर्ता या कर्ताओं के समूह के लिए खतरनाक साबित होता है ।
छठे नियम से यह स्पष्ट होता है कि, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था की सदस्यता उन व्यवहारों पर निर्भर करती है जो व्यवहार ‘शक्ति सन्तुलन व्यवस्था’ के नियमों के अनुकूल हैं । यदि आवश्यक कार्यकर्ताओं की संख्या घट जाए तो ‘शक्ति सन्तुलन वाली अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था’ में अस्थायित्व आ जाएगा ।
यदि शक्ति सन्तुलन व्यवस्था अस्थायी हो जाती है तो यह निश्चय ही एक भिन्न व्यवस्था में परिवर्तित हो जाएगी इसलिए अस्थायित्व को प्रकट करने वाले सीमाचिन्ह के ऊपर आवश्यक कर्ताओं की संख्या को स्थिर रखना इस व्यवस्था के स्थायित्व की एक महत्वपूर्ण शर्त है । शक्ति सन्तुलन वाली अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था समाप्त हो जाएगी यदि आवश्यक राष्ट्रीय कार्यकर्ता खेल के नियमों के अनुसार न खेलें और यदि राष्ट्रीय कार्यकर्ता अधिराष्ट्रीय संगठन की स्थापना का प्रयत्न करें ।
आधुनिक युग में शक्ति सन्तुलन की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था के पतन के कई कारण है सशक्त प्रतिकूलगामी (Deisant) कर्ताओं का अन्त, अनुकूलगामी (Non-Deisant) सदस्यों द्वारा प्रतिकूलगामी सदस्यों के खिलाफ यथोचित कदम उठाने में विफलता, साम्यवादी गुट तथा इसके अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने पर संगठित राजनीतिक संगुट्ट का उदय, आदि । मॉर्टन कैप्लन ने शक्ति सन्तुलन व्यवस्था के परिवर्तित रूप को ‘द्विध्रुवीय व्यवस्था’ (Bi-Polar System) कहा है । इसके दो रूप बताए हैं: शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था और दृढ़ द्विध्रुवीय व्यवस्था ।
(2) शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था (Loose Bipolar System):
शक्ति सन्तुलन वाली व्यवस्था’ की व्यवहार में स्थापना नहीं हो सकी और उसके स्थान पर काफी समय तक विश्व राजनीति में अस्थिरता रहने के बाद शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था अस्तित्व में आयी । द्वितीय विश्वयुद्ध में बाद स्थापित शक्ति सन्तुलन की व्यवस्था धीरे-धीरे शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था बनती गयी ।
इसमें दो महाशक्तियों के चारों ओर लघु शक्तियों और निर्गुट राज्यों का समूह घिरा रहा है और जिसमें निर्गुट राज्यों का एक गुट-सा होने के कारण दो बड़ी शक्तियों की शक्ति शिथिल बनी रहती है । यह व्यवस्था शक्ति सन्तुलन व्यवस्था से कई अर्थों में भिन्न है; जैसे प्रथम, शक्ति सन्तुलन व्यवस्था में सन्तुलन की भूमिका मूलत: विभिन्न राष्ट्रों को एकीकृत करने की भूमिका थी क्योंकि इसके अन्तर्गत किसी भी गुट को आधिपत्य जमाने से रोका जाता था ।
इसके विपरीत शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था में एकीकरण की भूमिका वस्तुत: समझौता कराने की भूमिका है । इस भूमिका को अदा करने वाला कर्ता (जैसे निर्गुट राष्ट्र) किसी गुट का सदस्य न होकर प्रतियोगी गुटों में समझौता कराने की भूमिका अदा करता है ।
द्वितीय, शिथिल द्विध्रुवीय अवस्था में हर गुट का एक प्रधान कार्यकर्ता होता है जबकि शक्ति सन्तुलन व्यवस्था में ‘सन्तुलनकर्ता’ उत्पन्न हो जाता है; तृतीय शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था में कई प्रकार के कर्ता होते हैं, जैसे गुटीय कर्ता (अमरीका और रूस), गैर-सदस्य कर्ता (निर्गुट राष्ट्र), सार्वभौमिक कर्ता (संयुक्त राष्ट्र संघ) । जबकि शक्ति सन्तुलन वाली व्यवस्था में ‘आवश्यक राष्ट्रीय कर्ताओं’ की ही प्रभावकारी भूमिका होती है ।
कैप्लन शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था के निम्नलिखित बारह नियम बताते हैं:
(i) पदसोपानीय तथा मिश्रित पदसोपानीय ढांचों पर आधारित गुट दूसरे सामन गुट को खत्म करना चाहते हैं ।
(ii) पदसोपानीय तथा मिश्रित पदसोपानीय ढांचों पर आधारित गुट युद्ध के बदले समझौता करना, बड़े युद्ध के बदले छोटे युद्ध लड़ना तथा विपक्षी गुट को समाप्त करने में असफल होने के बजाय निर्धारित खतरों एवं लागत को ध्यान में रखते हुए बड़ी लड़ाई चाहेंगे ।
(iii) किसी गुट के सभी कर्ता दूसरे गुट के कर्ताओं की अपेक्षा अपनी क्षमता बढ़ाना चाहेंगे ।
(iv) अशृंखलाबद्ध ढांचों पर आधारित गुट युद्ध के बदले समझौता करना अपनी क्षमता बढ़ाना क्षमता बढ़ाने में असफल होने पर छोटी लड़ाई लड़ना चाहेंगे किन्तु वे हमेशा बड़ी लड़ाई से बचेंगे ।
(v) सभी गुटों के कर्ता विपक्षी गुट को आधिपत्य जमाने देने के बजाय लड़ाई लड़ना चाहेंगे ।
(vi) सभी गुटों के सदस्य (Bloc members) अपने विश्वव्यापी उद्देश्यों को गुट के उद्देश्यों के अधीनस्थ रखेंगे, किन्तु विपक्षी गुट के गुटीय उद्देश्यों को विश्वव्यापी उद्देश्यों के अधीनस्थ रखना चाहेंगे ।
(vii) सभी निर्गुट सदस्य (Non-bloc members) अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों को विश्वव्यापी उद्देश्य का समर्थन करने वाले कर्ताओं के साथ सम्बद्ध करना चाहेंगे ।
(viii) गुटों के कर्ता अपने गुट की सदस्यता में वृद्धि करना चाहेंगे ।
(ix) गैर-गुटीय सदस्य दोनों गुटों के बीच युद्ध के खतरे को कम करना चाहेंगे ।
(x) विश्वव्यापी कर्ता की भूमिका अदा करने की स्थिति को छोड्कर अन्य स्थितियों में गैर-गुटीय कर्ता किसी भी गुट का समर्थन करना नहीं चाहेंगे ।
(xi) विश्वव्यापी उद्देश्यों के समर्थक कर्ता दोनों गुटों के पारस्परिक विरोध को कम करना चाहेंगे । (Universal Actors are to Reduce the Incompatibility between the Blocs) ।
(xii) विश्वव्यापी उद्देश्यों के समर्थक कर्ता गैर-गुटीय सदस्यों को तब एकताबद्ध करना चाहेंगे जब कोई गुट खुल्लमखुल्ला शक्ति का प्रयोग जैसा कोई प्रतिकूलगामी कार्य करना चाहेंगे ।
शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था में काफी सहज अस्थायित्व होता है । शक्ति सन्तुलन वाली अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के विपरीत इस आधारित गुट दूसरे समान गुट को खत्म करना व्यवस्था में भूमिका विभेदन (Role Differentiation) की मात्रा अधिक होती है । यदि किसी भूमिका का निर्वाह दूसरी भूमिका को नजरअन्दाज कर किया जाता है तो यह व्यवस्था रूपान्तरित हो जाएगी ।
उदाहरण के लिए, यदि एक गुट का कर्ता दूसरे गुट के कर्ता को समाप्त कर देता है तो यह व्यवस्था पदसोपानीय अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में परिवर्तित हो जाएगी । यदि विश्वव्यापी उद्देश्यों का समर्थक कर्ता अपनी भूमिका का ठीक से निर्वाह करता है तो यह व्यवस्था विश्वव्यापी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में रूपान्तरित हो जाएगी ।
(3) दृढ़ द्विध्रुवीय व्यवस्था (Tight Bipolar System):
दृढ़ द्विध्रुवीय व्यवस्था एक तरह से शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था का रूपान्तरित रूप है जिसमें गैर-गुटीय (तटस्थ या निर्गुट) तथा विश्वव्यापी उद्देश्यों के समर्थक सदस्यों का या तो पूर्णत: लोप हो जाता है या वे महत्वहीन हो जाते हैं परन्तु इस व्यवस्था के स्थायित्व की गारण्टी तभी होगी जब दोनों गुटों का सोपानीय रीति में संगठन हो ।
इस अवस्था में मध्यस्थीकरण से सम्बद्ध भूमिकाओं का अभाव होता है, जिससे दुष्क्रियात्मक तनावों (Dysfunctional Tension) के बढ़ने की सम्भावना रहती है । यही कारण है कि दृढ़ द्विध्रुवीय व्यवस्था में स्थायित्व का अभाव रहता है ।
(4) विश्वव्यापी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था (Universal International System):
विश्वव्यापी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था एक शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था में आवश्यकताओं (Essential Actors) के प्रकार्यों का विस्तार करने से बनता है । इसमें विश्वव्यापीकर्ता जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ इतना शक्तिशाली होता है कि राष्ट्रीय कर्ताओं के मध्य होने वाले युद्ध को रोक सके ।
इस व्यवस्था में विश्वव्यापी उद्देश्यों के समर्थक कर्ताओं तथा गैर-गुटीय कर्ताओं का प्राबल्य रहता है । इसमें राष्ट्रीय कर्ताओं का व्यक्तित्व बना रहता है और वे अधिकतम शक्ति का प्रयत्न भी करते रहते हैं । राष्ट्रीय कार्यकर्ता अपने उद्देश्य विश्वव्यापी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के ढांचे के भीतर ही सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे । राष्ट्रीय हितों को विश्वव्यापी व्यवस्था के आगे गौण माना जाएगा और सब कार्यकर्ता अपने उद्देश्यों की सिद्धि के लिए शान्तिमय साधनों का सहारा लेंगे । विभिन्न राष्ट्रों के संघर्षों को नियमों के अनुसार तय किया जाएगा ।
वस्तुत: विश्वव्यापी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था एक अन्तर्राष्ट्रीय सामाजिक व्यवस्था की उपव्यवस्था (Sub-System) के समान है, किन्तु यह उपव्यवस्था परिसंघात्मक (Confederation) किस्म की होती हैं, अर्थात् यह विभिन्न राष्ट्रों के भूभागों के आधार पर प्रचलित होगी न कि मनुष्यों के ऊपर प्रत्यक्ष रूप से ।
जब तक विश्वव्यापी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के पास समुचित शक्ति का अभाव रहेगा तब तक यह व्यवस्था स्थायी नहीं बन सकती । इसका स्थायित्व इस तथ्य पर निर्भर करता है कि, इसकी क्षमताओं एवं राष्ट्रीय कर्ताओं की क्षमताओं में सही अनुपात है या नहीं ।
(5) सोपानीय अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था (Hierarchical International System):
सोपानीय व्यवस्था भी एक अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था है । इसमें संगठन के भौगोलिक तत्वों की अपेक्षा प्रकार्यात्मक तत्व अधिक सुदृढ़ होते हैं । इसमें एक विश्वव्यापी कर्ता प्राय सारे विश्व को समेट लेता है और केवल एक राष्ट्र बाहर रह जाता है ।
यह सोपानीय अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था निदेशात्मक और गैर-निदेशात्मक दोनों प्रकार की हो सकती है । यदि यह किसी निरंकुश राज्य (जैसे नाजी जर्मनी) जैसे किसी राष्ट्रीय कर्ता द्वारा की गयी विश्व विजय का परिणाम है तो निदेशात्मक होगी और यदि यह प्रजातान्त्रिक देशों में प्रचलित नियमों पर आधारित हो तो गैर-निर्देशात्मक कहलाएगी । एकीकरण की अधिकतम मात्रा के कारण इस व्यवस्था में काफी स्थायित्व रहता है ।
(6) इकाई बीटो अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था (Unit Veto International System):
इकाई वीटो अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का सारतत्व है कि हर राज्य के पास अपने विरोधी को नष्ट करने की क्षमता रहती है । इसमें सभी कर्ताओं की क्षमता लगभग समान होती है । यदि एक कर्ता दूसरे पर आक्रमण कर विजयी बनना चाहता है तो उसे भी नष्ट किया जा सकता है ।
इस व्यवस्था में सभी कर्ता अपनी सुरक्षा के लिए अपनी सामर्थ्य पर निर्भर करते हैं । यह व्यवस्था पारस्परिक धमकी पर आधारित है । इसलिए इस व्यवस्था में दुष्क्रियात्मक तनाव (Dysfunctional tension) अधिक होंगे ।
इकाई वीटो व्यवस्था तभी स्थायी रह सकती है जब सारे कर्ता धमकियों का मुकाबला करने को तैयार रहते हों । इसमें स्वयं को नष्ट करने का खतरा रहता है । ऐसी व्यवस्था तभी स्थापित हो सकती है जबकि सब कर्ताओं के पास इस तरह के हथियार (जैसे आणविक शस्त्र) हों जिनसे प्रत्येक कर्ता दूसरे को नष्ट करने में समर्थ हो सके ।
Essay # 5. कैप्लन के अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति व्यवस्था सिद्धान्त का मूल्यांकन (Appraisal of Kaplan’s Theory of International Political System):
कैप्लन के व्यवस्था निकाय सिद्धान्त की प्रशंसा के बजाय आलोचना ही अधिक हुई है ।
इसकी कई तर्कों के आधार पर आलोचना की गयी है:
प्रथम:
कैप्लन द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का छ: प्रतिमानों (Models) में विभाजन वस्तुत: एक प्रकार से मनमाना बंटवारा है । इस प्रकार से तो कोई भी व्यक्ति प्रतिमानों की संख्या अन्य विश्लेषणात्मक ढांचे में कम-ज्यादा कर सकता है ।
द्वितीय:
कैप्लन ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के छ: प्रतिमानों को दो भिन्न कसौटियों के आधार पर अलग-अलग वर्गों में बांटा है । पहली कसौटी यथार्थवादी है और उसके आधार पर शक्ति सन्तुलन व्यवस्था और शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था वास्तविक प्रतिमानों (Actual models) की श्रेणी में आती है । दूसरी कसौटी आदर्शवादी या यूरोपियन है और उसके आधार पर अन्य चार प्रतिमान ‘सम्भव प्रतिमानों’ (Probable Models) की श्रेणी में आते हैं ।
इन सम्भव प्रतिमानों के आधार पर कैमरून ने भविष्य में अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का एक सामान्य सिद्धान्त बनाने का प्रयत्न किया है जबकि भविष्य की सम्भावनाएं व्यक्त करना अत्यन्त कठिन है और यह कोरा आदर्श मात्र है ।
तृतीय:
कैप्लन की यह मान्यता है कि इन अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्थाओं में क्रमश: पहले से छठे की ओर चलने की प्रवृत्ति दिखायी देती है । शक्ति सन्तुलन व्यवस्था आगे चलकर शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था में परिवर्तित हो जाती है और शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था दृढ़ द्विध्रुवीय व्यवस्था में और वह फिर सोपानीय और विश्व व्यवस्था में बदल जाती है । इस प्रकार कैप्लन ‘प्रक्रिया निकाय सिद्धान्त’ (Process System Theory) अपनाता है, किन्तु यह आवश्यक नहीं कि कैन्तन के सिद्धान्त के अनुसार ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था एक से दूसरे प्रतिमान में बदली जाती हो ।
चतुर्थ:
कैप्लन की मान्यता है कि शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था से जो परिवर्तन होगा वह दृढ़ द्विध्रुवीय व्यवस्था में होगा जबकि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के उभरते स्वरूप को देखते हुए ऐसा लगता है कि शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था का रूपान्तरण बहुध्रुवीय व्यवस्था में होना चाहिए ।
चूंकि दृढ़ द्विध्रुवीय व्यवस्था तो तभी बन सकती है, जबकि निर्गुट देशों का अन्तर्राष्ट्रीय मंच से अवसान (लोप) हो जाए, जबकि आज की प्रवृत्ति गुटनिरपेक्षता की ओर है गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है ।
अब शक्ति के मात्र दो ही केन्द्र अमरीका और रूस नहीं रह गए हैं अपितु शक्ति के अनेक केन्द्रों का उदय हुआ है । ऐसी स्थिति से शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था दृढ़ द्विध्रुवीय व्यवस्था में न बदलकर ‘बहुध्रुवीय व्यवस्था’ (Multi-polar System) में बदल रही है ।
पंचम:
कैप्लन यह मानता है कि, विश्वव्यापी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था ‘सोपानीय अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था’ में बदल जाएगी जिसमें सिर्फ एक राष्ट्र सार्वभौमिक कर्ता के रूप में रह जाएगा । ऐसा परिवर्तन साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के पुनर्जीवित हो जाने पर ही सम्भव है । ऐसी व्यवस्था में सभी राष्ट्र व्यावहारिक रूप से एक शक्तिशाली राष्ट्र के नेतृत्व में आ जाएंगे । खाड़ी युद्ध के बाद अमरीका के नेतृत्व में एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था के उदय की सम्भावना बढ़ती जा रही है । संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व बैंक तथा अन्य संस्थाओं में अमरीकी वर्चस्व बढ़ा है ।
षष्ठम:
कैप्लन की योजना में छठी और अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था ‘इकाई वीटो’ (निषेधाधिकार) व्यवस्था है जिसमें इस प्रकार के घातक अस्त्रों का अस्तित्व होगा कि कोई भी राष्ट्र स्वयं नष्ट होने से पहले दूसरों को नष्ट कर देने में समर्थ होगा । यह एक ऐसी व्यवस्था होगी जिसमें प्रत्येक राज्य के पास मानो निषेधाधिकार होगा अर्थात् स्वयं के निर्णय अन्तिम होंगे ।
सप्तम:
कैप्लन की इस छ: प्रतिमानों वाली योजना में उन तत्वों पर विचार नहीं किया गया है जो राष्ट्रों के व्यवहार का पैमाना तय करते हैं । राज्यों के व्यवहार का अध्ययन करने वाले किसी भी सिद्धान्त में उन गतिशील तत्वों का अध्ययन आवश्यक है जो उसको प्रभावित करते हैं । वस्तुत: कैप्लन राष्ट्रीय हित की अवधारणा पर ही अधिक बल देता है । उसने इस तथ्य की उपेक्षा कर दी है कि राष्ट्रीय हित कैसे बनते हैं और वे राज्यों के सामूहिक व्यवहार को कैसे प्रभावित करते हैं ।
कैप्लन के छ: प्रतिमानों में से कुछ प्रतिमानों की सार्थकता अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में किसी-न-किसी रूप में अवश्य दिखायी देती है । ‘शक्ति सन्तुलन’ वाला प्रतिमान किसी-न-किसी रूप में अवश्य विद्यमान रहा है । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की विश्व-व्यवस्था को शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था कहा जा सकता है क्योंकि दो प्रमुख कर्ताओं-अमरीका और सोवियत संघ-के हाथों में अधिकतम शक्ति थी और निर्गुट राज्यों के अस्तित्व के कारण इन दोनों कर्ताओं की शक्ति शिथिल पड़ गयी थी । आज परमाणु देशों की बढ़ती हुई संख्या से हम इकाई वीटो व्यवस्था की ओर बढ रहे हैं ।
कैप्लन के अतिरिक्त व्यवस्था प्रतिमान (model) के सम्बन्ध में सी. ए. डबल्यू, मैनिंग, रिचार्ड रोजक्रेंस (Richard Rosecrance), चार्ल्स ए. मैक्लेलैण्ड (Charles A. Mc-Clelland), जॉन हर्ज (John Herz) तथा केनेथ बोल्डिंग (Kenneth Boulding) का कार्य भी महत्वपूर्ण है ।
सी. ए. डबल्यू. मैनिंग का विचार है कि राष्ट्र-राज्य पर आधारित परम्परागत (Classical) अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था अब भी पुष्ट और सशक्त है । जबकि जॉन हर्ज और केनेथ बोल्डिंग मानते हैं कि पुरानी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था परमाणु युग में बेकार हो गयी है । यद्यपि राष्ट्र-राज्य का अस्तित्व मौजूद है तथापि राष्ट्र-राज्य की संरचना और प्रकार्यों में धीमी गति से बदलाव आ गए हैं ।
इन बदलावों से राष्ट्र-राज्य की बुनियादी विशेषता सम्पभुता की परम्परागत धारणा में भी कुछ गम्भीर परिवर्तन आए हैं जिनका प्रभाव अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के प्रकार्य और स्वरूप पर भी पड़ा है । माइकेल हास नामक विद्वान ने इसी पद्धति का अनुसरण करते हुए 20 अन्तर्राष्ट्रीय उप-पद्धतियों (Sub-System) का विश्लेषण किया है ।
इनमें से 10 उप-पद्धतियां यूरोप में 1849 से 1963 तक की अवधि में प्रचलित थीं, 1689 से 1964 की अवधि में एशिया में पांच का तथा 1738 से 1898 की अवधि में हवाई में पांच पद्धतियों का प्रचलन था । रोजक्रेंस नामक विद्वान ने 1740 से 1960 तक के यूरोप के इतिहास में 9 उप-पद्धतियों का वर्णन किया है ।
बाद में सम्पूर्ण विश्व परिप्रेक्ष्य में विभिन्न क्षेत्रीय व्यवस्थाओं; जैसे मध्य-पूर्व, दक्षिण-पूर्व एशिया, पश्चिम यूरोप, पश्चिम अफ्रीका, लैटिन अमरीका का उप-व्यवस्थाओं के रूप में तुलनात्मक विश्लेषण हुआ है । बर्टन ने भी व्यवस्था सिद्धान्त के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन प्रस्तुत किया है ।
Essay # 6. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में व्यवस्था विश्लेषण संप्रत्यय की सीमाएं (Limitations of System Analysis in International Politics):
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में व्यवस्था विश्लेषण संप्रत्यय के प्रयोग में दिलचस्पी बढ़ रही है, किन्तु इससे सम्बन्धित कई समस्याएं भी उत्पन्न हो गयी हैं ।
प्रथम:
ADVERTISEMENTS:
क्या विश्व के सभी राष्ट्रों को एक अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का अंग माना जाए अथवा कई उप-व्यवस्थाओं के मिलने से अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का निर्माण होता है ? याने अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की इकाई राज्य हैं अथवा साम्यवादी व्यवस्था दक्षिण-पूर्व एशिया व्यवस्था आदि हैं ।
द्वितीय:
अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की इकाइयों या कर्ताओं को कैसे पहचाना जाए ? संयुक्त राष्ट्र संघ यूनेस्को, अरब लीग, राष्ट्रमण्डल, अमरीका, रूस, भारत, नाटो, सेण्टो, जैसे- संगठन एक ओर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में क्रियाशील हैं तो दूसरी ओर महाशक्तियों और श्रीलंका, भूटान, नेपाल जैसे राज्य भी स्थित हैं । अर्थात् यह समस्या है कि राज्यों को कर्ता माना जाए अथवा राज्यों के समूहों को ।
तृतीय:
समस्या अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के परिवेश के निर्धारण की है । जिस प्रकार सामाजिक व्यवस्था राजनीतिक व्यवस्था का परिवेश मानी जाती है, उसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का पर्यावरण किसे माना जाए ? यदि सपूर्ण विश्व को एक अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था माना जाए तो शेष बाह्य अन्तरिक्ष के परिवेश को ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का परिवेश मानना पड़ेगा जो तर्कसंगत नहीं होगा ।