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Here is an essay on the ‘Resurgence of Asia’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Resurgence of Asia’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. एशिया के नव-जागरण के कारण (Resurgence of Asia: Causes):
उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप उन्नति करता चला गया और एशिया पिछड़ता गया । औद्योगिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ एशिया कच्चे माल की आवश्यकता उत्पादित माल को खपाने के लिए मण्डियों और अतिरिक्त धन के विनियोग के लिए यूरोपीय राष्ट्रों के आकर्षण का मुख्य केन्द्र बना ।
आर्थिक स्रोतों के शोषण की आवश्यकता पर आधारित पश्चिमी स्वामित्व ने कालान्तर में एशियाई देशों को भुखमरी, दरिद्रता, पीड़ा तथा अगणित कष्टों के द्वार पर लाकर खड़ा कर दिया । जब तक लोगों ने विदेशी सत्ता के वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचाना तब तक वे निष्क्रिय और शान्त रहे ।
जैसे ही उन्हें यह आभास हो गया कि उनके पतन और शोषण का कारण विदेशी शासक और उनकी औपनिवेशिक प्रवृत्तियां हैं वे विद्रोही हो उठे । यह चेतना बहुत कुछ पश्चिमी ज्ञान साहित्य कानूनों व संस्थाओं के कारण उत्पन्न हुई थी ।
प्रथम विश्व-युद्ध के उपरान्त एशिया में स्वशासन और राष्ट्रीयता की पहली लहर आयी । एशियाई राष्ट्रों के नेतागण ‘स्वशासन’, ‘राष्ट्रीय आत्म-निर्णय’ तथा ‘विश्व में अपने उचित स्थान’ की मांग करने लगे । इस मांग ने आगे चलकर स्वाधीनता आन्दोलन का रूप धारण कर लिया ।
संक्षेप में, एशियाई नव-जागरण के निम्नलिखित कारण हैं:
1. जापान की रूस पर विजय:
एशियाई राष्ट्रों में नव-जागरण उत्पन्न करने वाली सबसे प्रभावक घटना 1904-05 में जापान द्वारा रूस को पराजित करना था । इस घटना ने एशिया के लोगों में नयी चेतना और आत्म-विश्वास की एक लहर फैला दी । जापान ने एक नया नारा दिया कि ‘एशिया, एशिया वालों के लिए है’ (Asia for Asians) । एशिया के अधिकांश देश अब विदेशी शोषण से मुक्त होने की बात सोचने लगे ।
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2. उपनिवेशवादी शक्तियों की दुर्बलता:
द्वितीय विश्व-युद्ध में यद्यपि साम्राज्यवादी शक्तियां फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष में जनतन्त्रवादी शक्तियों के साथ थीं, फिर भी जहां एक ओर जनतन्त्रवादी एवं समाजवादी तत्व मजबूत बने वहां दूसरी ओर साम्राज्यवादी एवं उपनिवेशवादी राष्ट्रों का हास हुआ ।
ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस केवल नाममात्र के ही बड़े राष्ट्र रह गए । इटली और जर्मनी को अपार क्षति हुई और एक प्रकार से वे बरबाद हो गए । फ्रांस और ब्रिटेन द्वितीय श्रेणी के राष्ट्र बन गए थे और उनमें इतनी क्षमता नहीं रह गयी कि वे अपने विशाल साम्राज्यों का बोझ संभाल पाते ।
3. पाश्चात्य शिक्षा और सभ्यता का प्रभाव:
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एशिया के नव-जागरण में पाश्चात्य शिक्षा और सभ्यता की प्रमुख भूमिका रही है । एशिया के लोगों ने स्वतन्त्रता समानता तथा राष्ट्रीय आत्म-निर्णय की शिक्षा पश्चिमी जगत से ही सीखी । शूमां के शब्दों में- “इन पिछड़े हुए राष्ट्रों के नए बुद्धिजीवियों ने विज्ञान युद्ध कला तथा राजनीति में पश्चिमी राष्ट्रों की दक्षता तथा निपुणता का ज्योंही एक आंशिक भाग प्राप्त किया त्योंही उनमें इस बात की मांग करने वाले नेतागण भी पैदा हो गए कि उन्हें अपना भविष्य स्वयं निश्चित करने का अधिकार मिलना चाहिए ।”
4. सोवियत संघ और समाजवादी राष्ट्रों का मजबूत होना:
द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान सबसे अधिक क्षति सोवियत संघ की हुई थी । फिर भी युद्ध के उपरान्त न केवल सोवियत संघ एक बड़ी शक्ति के रूप में विश्व रंगमंच पर आया बल्कि यूरोप का समस्त पूर्वी भाग साम्यवादी व्यवस्था के अन्तर्गत आ गया । इससे साम्राज्यवाद-उपनिवेशवाद विरोधी शक्तियों को बड़ा प्रोत्साहन मिला ।
सोवियत संघ सदा से ही साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद का विरोधी रहा और उसने उपनिवेशों में हो रहे राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों का सदैव ही समर्थन किया । दूसरे महायुद्ध के बाद सोवियत संघ द्वारा एक बड़ी शक्ति के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय जगत में भूमिका निभाने से एशिया अफ्रीका और लैटिन अमरीका के जागरण को बल मिला ।
5. विश्व-युद्धों का प्रभाव:
प्रथम और द्वितीय विश्व-युद्धों की एशिया के जागरण में प्रभावकारी भूमिका रही है । इन युद्धों ने एशियाई लोगों में राष्ट्रवाद की लहर को और अधिक प्रबल कर दिया । एशियाई सैनिक अपने यूरोपियन प्रभुओं की ओर से विश्व के अन्य प्रदेशों में युद्ध में शामिल हुए और उन्होंने जहां-तहां यूरोपीय सेनाओं को पराजित किया । इससे उनका यह भ्रम टूट गया कि यूरोपियन सैनिक अपराजेय हैं ।
वुडरो विल्सन द्वारा प्रतिपादित चौदह सूत्रों से आत्म-निर्णय ओर राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के विचारों ने उनमें नयी चेतना उत्पन्न की । विश्व-युद्धों ने यूरोपीय साम्राज्यों को नष्ट कर दिया । साम्राज्यवादी देश दुर्बल हो गए तथा तुर्की के अरब उपनिवेश जर्मनी के एशियाई-अफ्रीकी उपनिवेश, इटली के अफ्रीकी उपनिवेश उनसे छिन गए । द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद ब्रिटेन ने सबसे पहले इस तथ्य को समझ लिया कि शालीनता के साथ अपने उपनिवेशों को स्वतन्त्र कर देना ही समय की मांग है ।
6. संयुक्त राष्ट्र संघ का योगदान:
संयुक्त राष्ट्र संघ ने उपनिवेशी दासता से त्रस्त मानवता की मुक्ति के लिए कुछ ऐसे सराहनीय कार्य किए जिससे न केवल एशियाई अपितु अफ्रीकी एवं लैटिन अमरीकी नव-जागरण को बड़ा बल मिला ।
7. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के बदलते हुए स्वरूप का प्रभाव:
एशियाई नव-जागरण को द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद की उभरती अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति ने भी काफी कुछ प्रेरित किया:
(i) दूसरे महायुद्ध के बाद विश्व ने सर्वव्यापक रूप ले लिया और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक समस्याएं अब केवल कुछ यूरोपीय राष्ट्रों का मसला न रहकर विश्वव्यापी समस्याएं बन गयीं । शान्ति की भांति अब अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति भी अविभाज्य हो गयी ।
(ii) द्वितीय महायुद्ध से पूर्व शक्ति का केन्द्र यूरोप था, लेकिन अब शक्ति अमरीका तथा सोवियत संघ में केन्द्रित हो गयी और इस तरह विश्व दो महान शक्तियों-सोवियत संघ और अमरीका-के प्रभावों के अन्तर्गत विभाजित हो गया । शक्ति के इस ध्रुवीकरण का एशियाई नव-जागरण पर व्यापक प्रभाव पड़ा । अमरीकी विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य साम्यवाद का विरोध तथा सोवियत संघ के बढ़ते हुए प्रभावों को रोकना रहा । इसके लिए अमरीका आर्थिक और सैनिक सहायता की नीति का अवलम्बन करता रहा । दूसरी तरफ सोवियत संघ अमरीकी आर्थिक और सैनिक सहायता के नव-उपनिवेशवादी दुर्गुणों का पर्दाफाश करता रहा । इस प्रकार दो महाशक्तियों की परस्पर विरोधी नीतियों ने एशिया एवं अफ्रीका के जागरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है ।
(iii) विज्ञान एवं तकनीकी क्षेत्र में क्रान्तिकारी विकास का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर विशेष प्रभाव पड़ा । आवागमन तथा संचार के साधनों के विकास के कारण अविकसित एशियाई राष्ट्रों में न केवल जागरूकता बड़ी, अपितु आकांक्षाएं भी बड़ी । एशिया और अफ्रीका के लोगों को यह आभास हुआ कि वे यूरोपीय राष्ट्रों तथा अमरीका से आर्थिक एवं औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं । यह आभास भी एशियाई-अफ्रीकी जागरण का एक कारण है ।
(iv) द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सैद्धान्तिक वैचारिक मान्यताओं पर भी अधिक बल दिया जाता है । साम्यवाद और पूंजीवाद के बीच टकराव ने भी एशियाई-अफ्रीकी राष्ट्रों को सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक घटनाओं को परखने पर मजबूर किया है ।
Essay # 2. एशियाई नव-जागरण की प्रमुख प्रवृत्तियां (Resurgence of Asia: Emerging Trends):
एशिया का नव-जागरण 20वीं शताब्दी की अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना है । यह उपनिवेशवाद के उन्मूलन का परिचायक है स्वाधीनता आन्दोलन का प्रेरक है तथा साम्राज्यवाद एवं रंगभेद के स्वरूपों को खुली चुनौती है ।
एशिया के जागरण के फलस्वरूप दो प्रकार की प्रवृतियां स्पष्टत: दिखायी देती हैं: बौद्धिक स्तर पर यह आकांक्षा है कि परम्परागत जीवन-पद्धति को कायम रखते हुए अपने भाग्य का स्वयं निर्माण किया जाए अथवा पश्चिमी जीवन-पद्धति का अनुसरण किया जाए ।
भौतिक स्तर पर भी दो प्रकार की परस्पर विरोधी प्रवृतियां:
(A) सकारात्मक और
(B) नकारात्मक दिखायी देती हैं ।
(A) सकारात्मक प्रवृत्तियां (Positive Trends):
1. साम्राज्यवाद की समाप्ति:
एशियाई नव-जागरण के फलस्वरूप पुराने ढंग के साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद का अन्त हुआ । भारत, श्रीलंका, मलाया, इण्डोचीन, फिलिपाइन्स, अब सपूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न राज्य बन गये । जाग्रत एशिया साम्राज्यवाद के हर रूप से नफरत करता है । एशिया के सभी राष्ट्रों की विदेश नीति का मुख्य लक्ष्य साम्राज्यवाद-उपनिवेशवाद तथा रंग-भेद का उन्मूलन रहा है ।
2. सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की दिशा:
एशिया के राष्ट्रों में सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की प्रवृत्ति पायी जाती है । वे राजनीतिक स्वतन्त्रता को स्वयं में साध्य स्वीकार नहीं करते अपितु सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन के लिए साधन मानते हैं । एशिया का परिवर्तन राजतन्त्र की पुरानी शासन प्रणाली तथा सामन्तवाद की पुरानी सामाजिक व्यवस्था के साथ-साथ दरिद्रता निरक्षरता तथा बेकारी के उन्मूलन का अभियान है । एशिया के लोग विषमताओं को दूर करना चाहते हैं । वे सामाजिक और आर्थिक न्याय चाहते हैं ।
3. राष्ट्रीयता की भावना का प्रबल होना:
एशिया के नव-जागरण की एक विशेष प्रवृति राष्ट्रीयता की भावना का सभी देशों में शक्तिशाली होना है जिसने इजरायल से लेकर फिलिपाइन्स तक नए राष्ट्रों का निर्माण किया है । इस भावना के कारण सभी देशों में बड़ी क्रान्तियां हुई हैं । टर्की में कमाल पाशा के नेतृत्व में, भारत में गांधी, म्यांमार में औंगसान, चीन में सुनयात सेन, इण्डोनेशिया में सुकर्ण तथा वियतनाम में हो ची मिन्ह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम चलाए गए ।
राष्ट्रीयता की भावना ने आर्थिक पुनर्निर्माण और विकास के कार्यक्रमों को गति दी है । एशियाई राष्ट्रवाद ने अफ्रीका के नव-जागरण में भी योग दिया है और वहां साम्राज्यवादियों द्वारा अपनायी गयी जाति-भेद और रंग-भेद की नीतियों के विरुद्ध जनमानस बनाया है ।
4. साम्यवाद के प्रति आकर्षण:
एशिया के देशों में साम्यवाद के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है । उत्तरी एशिया का बड़ा भाग सोवियत संघ के साम्यवादी शासन में रहा । विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश चीन साम्यवादी बन चुका है उत्तरी कोरिया और वियतनाम में साम्यवादी शासन है । भारत में केरल, प बंगाल और त्रिपुरा राज्यों में साम्यवादियों का काफी जोर है ।
एशिया में साम्यवादी प्रसार में कई कारण सहायक हैं:
प्रथम:
साम्यवादी रूस सदैव एशियाई देशों में स्वाधीनता के लिए चलाए जाने वाले राष्ट्रीय आन्दोलनों का समर्थन तथा पश्चिमी देशों द्वारा एशियाई देशों के शोषण का विरोध करता रहा है ।
द्वितीय:
इन देशों को साम्यवादी रूस की आर्थिक स्वतन्त्रता पर बल देने वाली लोकतन्त्र की भावना पश्चिमी यूरोप की लोकतन्त्र की भावना की अपेक्षा अधिक आकर्षक प्रतीत होती थी । पश्चिमी देश राजनीतिक स्वतन्त्रता पर बल देते हैं जबकि साम्यवाद आर्थिक स्वतन्त्रता पर अधिक बल देता है । एशियावासियों के लिए सूक्ष्म राजनीतिक अधिकारों की अपेक्षा रोटी अधिक महत्वपूर्ण है ।
तृतीय:
साम्यवाद वहां अधिक पनपता है जहां निर्धनता भुखमरी बेकारी आदि समस्याएं होती हैं । एशिया के अधिकांश पिछड़े देशों में ऐसी ही स्थिति है अत. यहां साम्यवाद के प्रसार का उपयुक्त धरातल बना ।
चतुर्थ:
साम्यवादी क्रान्ति से पूर्व रूस एवं चीन अत्यन्त पिछड़े हुए देश थे । साम्यवादी विचारधारा के कारण कुछ ही वर्षों में वे महाशक्तियां बन गए । अत: उनका अनुभव एशिया के अन्य पिछड़े देशों के लिए बड़ा महत्वपूर्ण तथा उन्नति में सहायक सिद्ध हो सकता है ।
5. गुटों से अलग रहने की नीति:
एशिया के देशों में गुटों से पृथक् रहने की प्रवृति पायी जाती है । वे अपने आपको किसी गुट से सम्बद्ध नहीं करना चाहते । भारत, श्रीलंका, इण्डोनेशिया, आदि देशों ने निर्गुट राष्ट्रों के आन्दोलन को कोलम्बो शिखर सम्मेलन (1976), नयी दिल्ली शिखर सम्मेलन (1983), तथा जकार्ता शिखर सम्मेलन (1992) के माध्यम से काफी शक्ति प्रदान की । एशिया के अनेक देश आज गुटों से अलग रहने की नीति में आस्था रखते हैं ।
(B) नकारात्मक प्रवृत्तियां (Negative Trends):
1. जन आकांक्षाओं की बढ़ती हुई प्रवृत्ति:
राजनीतिक चेतना से एशिया के लोगों में इतनी अधिक आकांक्षाएं और मांगें बढ़ गयीं कि उन्हें पूरा करना आसान नहीं है । इससे लोगों में निराशा की प्रवृत्ति बढ़ने लगी ।
2. उग्र राष्ट्रबाद एवं आपसी टकराहट:
एशिया का राष्ट्रवाद उग्र होता जा रहा है । आज एशिया का शायद ही कोई ऐसा देश हो जो अपने किसी एशियाई देश के साथ विवादों में न उलझा हो । इन विवादों के कारण एशिया में युद्ध और तनाव चलते रहते हैं ।
जैसा कि थामस ए. रुश ने कहा है कि एशिया में विद्यमान प्रमुख तनाव क्षेत्र हैं: चीन-रूस विवाद, चीन-वियतनाम विवाद, भारत-चीन विवाद, भारत-पाक विवाद, अरब-इजरायल विवाद, मलेशिया-इण्डोनेशिया विवाद, राष्ट्रवादी (फारमोसा) चीन और साम्यवादी चीन में विवाद, अफगानिस्तान में रूसी हस्तक्षेप, ईरान-इराक विवाद, श्रीलंका में तमिलों की समस्या ।
Essay # 3. एशियाई जागरण के चार युग (The Four Stages of the Resurgence of Asia):
एशिया के जागरण और उसकी अन्तर्राष्ट्रीय जगत में अभिव्यक्ति को आन्तरिक क्षेत्र की विशेषताओं तथा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक सन्दर्भ के पारस्परिक प्रभावों के आधार पर अलग-अलग भागों में बांटा जा सकता है । जिस तरह एशियाई राष्ट्रों में आन्तरिक परिवर्तन होते रहे हैं वैसे ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भी परिवर्तन आए हैं । इन्हीं परिवर्तनों के आधार पर हम एशियाई जागरण को कुछ निश्चित युगों में बांट सकते हैं ।
ऐसे युग मुख्यत: चार हैं:
(1) सन् 1947 से 1955;
(2) सन् 1955 से 1962;
(3) सन् 1962 से 1971 ;
(4) सन् 1971 से अब तक ।
1. प्रथम युग (1947 से 1955 तक):
प्रथम विश्व-युद्ध के बाद एशिया और अफ्रीका में स्वतन्त्रता तथा लोकतन्त्र की पहली लहर आयी । एशियावासी ‘आत्म-निर्णय’ की मांग करने लगे । सम्पूर्ण महाद्वीप में पाश्चात्य प्रभुत्व से छुटकारा पाने की प्रबल लालसा जाग्रत हुई ।
द्वितीय विश्व-युद्ध में श्वेत जातियों को जिन प्रारम्भिक गम्भीर पराजयों का सामना करना पड़ा था उससे एशियाई जनता को यह विश्वास हो गया कि पश्चिमी राष्ट्र अजेय नहीं हैं । इस अनुभूति के फलस्वरूप स्वातन्य आन्दोलनों में नयी जान आ गयी । थके हुए यूरोप के लिए आजादी की लहर को दबाना कठिन हो गया और एक के बाद एक लगभग सभी एशियाई राष्ट्रों के स्वप्न पूरे होते चले गए ।
स्वाधीनता की लहर का प्रसार:
इस काल में विभिन्न एशियाई राष्ट्रों में स्वतन्त्रता आन्दोलनों ने जोर पकड़ा और 1947 में स्वतन्त्र भारत के उदय से एशियाई राष्ट्रवाद को बहुत प्रोत्साहन मिला । म्यांमार, श्रीलंका, कम्बोडिया, लाओस, आदि अनेक राष्ट्र स्वतन्त्र हो गए । 1949 में चीन में जो साम्यवादी क्रान्ति हुई वह भी एशियाई जागरण की प्रतीक थी ।
उपनिवेशवाद का विरोध:
इस काल में उपनिवेशवाद का भी कड़ा विरोध किया जाने लगा था क्योंकि:
(i) साम्राज्यवाद के विरुद्ध सोवियत संघ एक महान् शक्ति के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर आया था;
(ii) पुरानी साम्राज्यवादी-उपनिवेशवादी शक्तियां कमजोर होती जा रही थीं;
(iii) अमरीका इस प्रारम्भिक युग में एशियाई राष्ट्रवाद व साम्यवाद में भेद कर रहा था और जबकि वह साम्यवाद का कट्टर विरोधी था; राष्ट्रवाद के प्रति अभी तक उसकी सहानुभूति थी । साम्यवाद का विरोध अभी जोर नहीं पकड़ पाया था । इस प्रकार की अवस्था 1949 तक चलती रही जब चीन में क्रान्ति हुई और साम्यवाद का विरोध अमरीकी नीति का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया ।
एशियाई एकता के प्रयास:
विश्व मामलों में उपयुक्त प्रभाव की प्राप्ति के लिए नवस्वतन्त्र एशियाई राष्ट्र एक उगेर तो पाश्चात्य शक्तियों और साम्यवादी गुट के शीत-युद्ध में अधिकांशत गुटनिरपेक्षता को अपनाने लगे तथा दूसरी ओर, वे गुटनिरपेक्षता पंचशील उपनिवेशवाद का विरोध जातीय समानता (Racial Equality) की मांग के आधार पर एक सामान्य नीति के विकास का प्रयत्न करने लगे । इस प्रयत्न के परिणामस्वरूप एशियाई- अफ्रीकी ऐक्य (Afro-Asian Solidarity) के आन्दोलन का विकास हुआ ।
प्रथम एशियाई सम्मेलन:
इस प्रकार के ऐक्य की अभिव्यक्ति मार्च 1947 में ‘विश्व मामलों की भारतीय परिषद्’ (Indian Council for World Affairs) के तत्वावधान में नयी दिल्ली में आयोजित गैर-सरकारी ‘एशियाई मैत्रीपूर्ण सम्मेलन’ (Asian Relations Conference) में हुई, जिसमें 28 देशों के प्रतिनिधि आए । इसका उद्देश्य एशियाई राष्ट्रों के बीच मैत्री व सहयोग को प्रोत्साहित करना तथा एशियाई जनता की प्रगति व हितों में वृद्धि करना निश्चित किया गया ।
जवाहरलाल नेहरू ने सम्मेलन का महत्व बताते हुए कहा कि- “परिस्थितियों में परिवर्तन आ रहा है तथा एशिया को अपनी स्थिति का ज्ञान हो गया । एशिया के देश अब दूसरे के हाथ का मोहरा नहीं बनेंगे विश्व के विषय में उनकी अपनी नीतियों का होना निश्चित है ।”
द्वितीय एशियाई सम्मेलन:
जनवरी, 1949 में दूसरा एशियाई सम्मेलन नयी दिल्ली में इण्डोनेशिया के प्रश्न पर विचार करने के लिए बुलाया गया जिसमें भाग लेने वाले 19 देशों के प्रतिनिधियों ने डच पुलिस और सेनाओं के इण्डोनेशिया से अविलम्ब चले जाने और 1 जनवरी, 1950 तक उसे स्वतन्त्र किए जाने की मांग की । इस अवसर पर एशियाई राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने पारस्परिक एकता का परिचय देते हुए गुटबन्दी की भावना को बुरा बताया और भविष्य में और भी अधिक पारस्परिक सहयोग के लिए सहमति प्रकट की ।
बोगुई सम्मेलन:
मई, 1950 में फिलिपाइन्स में एशियाई राष्ट्रों के मध्य सांस्कृतिक और आर्थिक सहयोग बढ़ाने के उद्देश्य से बोगुई में एक एशियाई सम्मेलन का आयोजन किया गया ।
बोगोर सम्मेलन:
अप्रैल 1954 में कोलम्बो शक्तियों-भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार तथा इण्डोनेशिया-के प्रधानमन्त्रियों ने चीन की समस्या पर विचार-विमर्श करने के लिए पारस्परिक वार्ताएं कीं । ये प्रधानमन्त्री पुन: दिसम्बर 1954 में बोगोर में एकत्रित हुए और उन्होंने एशिया एवं अफ्रीका के राष्ट्रों का बृहत् सम्मेलन बुलाने का निश्चय किया जो बाण्डुंग सम्मेलन के नाम से प्रसिद्ध है ।
बाण्डुंग सम्मेलन:
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद एशिया और अफ्रीका में नव-जागरण की लहर का सर्वोच्च रूप बाण्डुंग सम्मेलन में प्रकट हुआ । भारत, म्यांमार और इण्डोनेशिया द्वारा इस महान अफ्रो-एशियाई सम्मेलन का आयोजन किया गया जो 18 अप्रैल, 1955 से 27 अप्रैल, 1955 तक चला । इस सम्मेलन में भारत सहित 29 राष्ट्र शामिल हुए ।
जिन 29 राष्ट्रों ने इस सम्मेलन में भाग लिया वे शक्ति व राजनीतिक दृष्टि से अधिक शक्तिशाली नहीं थे किन्तु ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परम्पराओं की दृष्टि से वे केवल पुराने ही नहीं वरन् सम्माननीय भी थे । पहली बार साम्यवादी चीन भी गैर-साम्यवादी राष्ट्रों के साथ सद्भावना और मैत्रीपूर्ण विचार-विमर्श में भाग लेने के लिए उपस्थित हुआ ।
इस सम्मेलन को बुलाने के प्रयोजन निम्नलिखित थे:
सद्भावना और सहयोग की वृद्धि, एशिया तथा अफ्रीका के देशों से विशेष सम्बन्ध रखने वाली आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं पर विचार वर्तमान विश्व में एशिया तथा अफ्रीका की स्थिति पर तथा इन देशों द्वारा विश्व-शान्ति एवं अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए किए जा सकने वाले कार्यों पर विचार-विमर्श करना ।
इस सम्मेलन का उद्घाटन अप्रैल 1955 को इण्डोनेशिया के राष्ट्रपति डॉ. अहमद सुकर्ण ने किया । भारत के प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने इस सम्मेलन में चीन के प्रधानमन्त्री चाऊ एन लाई के साथ प्रमुख भाग लिया । सम्मेलन में एशिया और अफ्रीका की समस्याओं पर विस्तृत विचार हुआ ।
इस सम्मेलन में एशियाई और अफ्रीकी नेताओं ने सर्वसम्मति से चार महत्वपूर्ण मांगे प्रस्तुत कीं:
(i) राष्ट्रीय प्रतिष्ठा की और उपनिवेशवाद के अन्त की मांग;
(ii) मानवीय गौरव की, प्रतिष्ठा की और जातीय भेदभाव के अन्त की मांग;
(iii) दरिद्रता और सामन्तवाद के अन्त की मांग;
(iv) युद्ध के शाश्वत भय के अन्त की मांग ।
सम्मेलन में भाग लेने वाले देशों ने यह निश्चय किया कि वे आर्थिक विकास के लिए एक-दूसरे को विशेषज्ञों, अग्रगामी योजनाओं तथा उपयुक्त साधन सामग्री सहायता द्वारा प्रदान करेंगे आर्थिक विकास के कार्यक्रमों को चलाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा एक विशेष निधि की व्यवस्था होनी चाहिए; आणविक शक्ति का विकास एशिया तथा अफ्रीका के देशों के शान्तिपूर्ण प्रयोजनों के लिए होना चाहिए ।
इन देशों को अपनी आर्थिक उन्नति तथा विशेष हितों की रक्षा के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठकों में सम्मिलित होने से पहले विचार-विमर्श करके सामान्य हित की नीति निश्चित कर लेनी चाहिए । व्यापारिक उन्नति तथा विशेष हितों की रक्षा के लिए अन्तर्राष्ट्रीय मूल्यों को स्थिर करना चाहिए ।
सम्मेलन ने अफ्रीका में जातीय भेदभाव और पृथकत्व की नीतियों की घोर निन्दा की । एक अन्य प्रस्ताव द्वारा मध्य-पूर्व में तनाव और संकट का कारण पेलेस्टाइन की स्थिति को बताया गया । सम्मेलन ने नि:शस्त्रीकरण का समर्थन करते हुए मानव जाति के परित्राण के लिए अणु परीक्षणों पर तथा आणविक आयुधों के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाने का प्रस्ताव पास किया ।
जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि इस सम्मेलन द्वारा एशियाई देशों के बीच सहयोग और मित्रता की भावना को और मजबूत किया जाए । उनका विचार था कि एशियाई देशों के बीच मित्रता विश्व-शान्ति के लिए बहुत जरूरी है और शान्ति के वातावरण में ही एशिया को साम्राज्यवादी-उपनिवेशवादी हस्तक्षेप से दूर रखा जा सकता है ।
लेकिन जब सम्मेलन प्रारम्भ हुआ तो एशिया के देशों के परस्पर विरोध और उनकी विदेश नीतियों में मतभेद स्पष्ट सामने आए । कुछ देश पूरी तरह साम्यवाद विरोधी और पश्चिमी साम्राज्यवादी राष्ट्रों के समर्थक थे और कुछ साम्यवाद का विरोध करने के साथ-साथ साम्राज्यवाद का विरोध करते थे । ऐसे देश भी थे जो गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाते थे और कुछ पूरी तरह साम्यवादी थे ।
इन विभिन्न विदेश नीतियों के बीच टकराव बाण्डुंग सम्मेलन में पूरी तरह से सामने आया । जहां एक ओर यह मत व्यक्त किया गया कि साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का डटकर विरोध करना चाहिए और इस बात में सन्देह नहीं था कि कौन-से राष्ट्र इस प्रकार की नीतियां अपनाते हैं वहां श्रीलंका के प्रधानमंत्री जॉन कोटेलवाला ने यह कहा कि उपनिवेशवाद की निन्दा करते हुए सम्मेलन को इसमें साम्यवादी शासन के उस प्रकार को भी सम्मिलित करना चाहिए जो शक्ति, घुसपैठ (Infiltration) तथा विध्वंस (Subversion) द्वारा स्थापित किया जाता है ।
इस विषय पर सम्मेलन में बड़ा कटु तथा उग्र विवाद हुआ और इसके बाद यह निश्चय हुआ कि ऐसा शासन भी उपनिवेशवाद है । इस विषय में प्रतिनिधियों के मतभेदों को हल करने के लिए दस सिद्धान्तों का प्रस्ताव स्वीकार किया गया । इनमें पांच सिद्धान्त तो ‘पंचशील’ वाले थे और पांच नए सिद्धान्त थे ।
ये दस सिद्धान्त इस प्रकार हैं:
(1) मानव के मौलिक अधिकारों के प्रति सम्मान;
(2) संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के उद्देश्यों और सिद्धान्तों के प्रति सम्मान की भावना;
(3) बडे और छोटे सभी राज्यों को तथा सब जातियों को समान समझना;
(4) दूसरे देश के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना;
(5) प्रत्येक राष्ट्र के इस अधिकार का सम्मान कि वह स्वयं अकेले ही अथवा संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुसार सामूहिक रूप से आत्म-रक्षा कर सकता है;
(6) महाशक्तियों द्वारा विशेष हितों की पूर्ति के विशेष उद्देश्य से की गयी सामाजिक प्रतिरक्षा की व्यवस्थाओं का प्रयोग न करना तथा दूसरे देशों पर दबाव न डालना;
(7) आक्रमण के कार्य न करना, इसकी धमकी न देना, किसी देश की प्रादेशिक अखण्डता या राजनीतिक स्वतन्त्रता भंग करने के लिए शक्ति का प्रयोग न करना;
(8) सभी अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का समाधान सन्धि-वार्ता, संराधन, पंच-निर्णय, न्यायिक निर्णय, आदि शान्तिपूर्ण उपायों से करना;
(9) पारस्परिक हितों तथा सहयोग की वृद्धि;
(10) न्याय के प्रति तथा अन्तर्राष्ट्रीय दायित्वों के प्रति सम्मान की भावना ।
बाण्डुंग सम्मेलन को ‘तीसरी शक्ति’ (third force) के अभ्युदय का प्रतीक कहा गया । सम्मेलन में भाग लेने वाले एशियाई और अफ्रीकी राष्ट्रों के जीवन में एक आत्म-विश्वास और आशा का उदय हुआ । इस सम्मेलन के सम्बन्ध में बार्नेट ने लिखा है कि- ”यह एशिया और अफ्रीका के पुनरुत्थान (Resurgence) का प्रतीक था ।”
बाण्डुंग सम्मेलन के परिणामस्वरूप साम्यवादी चीन को एशिया के देशों के मध्य अपनी स्थिति को स्पष्ट करने का मौका मिला । चीन के प्रधानमन्त्री चाऊ एन लाई ने एशिया और अफ्रीका के मुक्ति संग्रामों का जोरदार समर्थन किया ।
फिर भी इस सम्मेलन के बाद एशियाई एकता का कोई सर्वमान्य स्वरूप सामने नहीं आया । इस सम्मेलन में यह स्पष्ट हो गया कि एशियाई देशों पर तीन प्रकार के दबाव पड रहे थे । प्रथम तो पश्चिमी राष्ट्रों का प्रभाव था जिसके अन्तर्गत साम्यवाद विरोधी देशों में सैनिक अड्डे बनाए जा रहे थे । इन अड्डों का मुख्य उद्देश्य असंलग्न देशों पर अपनी नीति बदलने के लिए दबाव डालना था ।
दूसरे प्रकार का दबाव असंलग्न देशों का था, जो यह मांग कर रहे थे कि साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद का विरोध करने के लिए एकजुटता आवश्यक है । एशिया के अधिकतर राष्ट्र असंलग्नता की विदेश नीति अपना रहे थे और वे एशिया को शीत-युद्ध से दूर रखने के लिए कटिबद्ध थे ।
तीसरा दबाव साम्यवादी राष्ट्रों का था । लेकिन साम्राज्यवादियों के विरुद्ध संघर्ष में साम्यवादी देश गुटनिरपेक्ष देशों के साथ थे । गुटनिरपेक्ष देशों में साम्यवाद के प्रति परस्पर विरोधी धारणाएं थीं । कुछ गुटनिरपेक्ष देशों में साम्यवाद के प्रति आकर्षण था तो कुछ गुटनिरपेक्ष देश साम्यवाद को सन्देह की दृष्टि से देखते थे ।
2. द्वितीय युग (1955 से 1962 तक):
बाण्डुंग सम्मेलन के बाद कुछ समय तक ‘बाण्डुंग भावना’ का बोलबाला रहा । गुटनिरपेक्षता का अर्थ अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में स्वतन्त्र भूमिका निभाना था । संयुक्त राष्ट्र संघ में मतभेदों के बावजूद अफ्रो-एशियाई गुट की स्थापना की गयी । बाण्डुंग में एशिया के राष्ट्रों के अतिरिक्त अफ्रीका के स्वतन्त्र राष्ट्रों ने भी भाग लिया था ।
कुछ समय के लिए ऐसा प्रतीत होने लगा कि विश्व के ये दो बड़े महाद्वीप अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में साम्राज्यवाद के विरुद्ध महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे । अफ्रो-एशियाई गुट ने संयुक्त राष्ट्र संघ में रंगभेद की नीतियों के विरोध में और उपनिवेशवाद के मसलों पर एकमत होकर कार्य किया ।
गुटनिरपेक्ष देशों ने विश्व की दो महाशक्तियों-संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ के बीच सम्बन्धों के सुधार के लिए भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । इन दो महाशक्तियों के बीच शीत-युद्ध में न केवल शिथिलता आयी अपितु परमाणु अस्त्रों के निर्माण एवं उनके इस्तेमाल के सम्बन्ध में पारस्परिक वार्ता का सूत्रपात हुआ ।
इस युग में एशिया के कई देश स्वतका हुए और एशिया के जागरण को काफी प्रोत्साहन मिला । यह ऐसा समय था जिसमें महाशक्तियां एशिया और अफ्रीका के देशों की उपेक्षा नहीं कर सकती थीं । इन सभी उपलब्धियों के साथ-साथ कतिपय नकारात्मक तथ्य भी सामने आए । जहां एक ओर उपनिवेशवाद का हास हो रहा था वहीं दूसरी ओर साम्राज्यवादी ताकतें अप्रत्यक्ष रूप से एशियाई राष्ट्रों के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप करने लगीं ।
1956 में ब्रिटेन, फ्रांस और इजरायल ने मिलकर मिस्र के स्वेज नहर के क्षेत्र पर हमला किया । ईरान में जब तेल कम्पनियों के राष्ट्रीयकरण की बात आयी तो वहां की सरकार का तख्ता पलट दिया गया । अमरीका ने पाकिस्तान को सैनिक सन्धि के जाल में फंसा लिया ।
सीटो और बगदाद पैक्ट जैसी सन्धियों में एशिया के राष्ट्र बंधने लगे । अमरीका ने जापान के साथ सैनिक सन्धि कर ली । भारत-चीन सीमा विवाद उग्र रूप धारण करने लगा । अक्टूबर 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया । गुटनिरपेक्ष भारत न केवल परास्त हुआ अपितु संघर्ष की इस कठिन घड़ी में अकेला पड़ गया । गुटनिरपेक्षता और पंचशील के उच्च आदर्श खोखले सिद्ध हुए । एशियाई एकता का सपना टूटने लगा ।
3. तृतीय युग (1962 से 1971 तक):
अब बाण्डुंग भावना का अन्त और एशियाई एकता में दरारें साफ परिलक्षित होने लगीं । अक्टूबर, 1962 में भारतीय सीमाओं पर आक्रमण करके चीन ने अपने इरादों को स्पष्ट कर दिया । इसने एशिया की दो शक्तियों-भारत और चीन-में सहयोग की सम्भावनाओं को नष्ट कर दिया । 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण करके शत्रुतापूर्ण कार्यवाही का परिचय दिया ।
भारत के विरुद्ध पेकिंग-पिण्डी धुरी का उदय हुआ । 1965 में इण्डोनेशिया में हस्तक्षेप करके चीन ने साम्यवादी क्रान्ति करवाने का असफल प्रयास किया । एशियाई राष्ट्रों में झगड़े और विवाद इतने प्रबल होने लगे कि दस वर्ष बाद अफ्रेशियाई सम्मेलन का आयोजन करना ही कठिन हो गया ।
यद्यपि अल्जीरिया की राजधानी अल्जीयर्स में 29 जून, 1965 को अफ्रेशियाई सम्मेलन बुलाने का निश्चय किया गया परन्तु अल्जीयर्स की क्रान्ति के कारण सम्मेलन का आयोजन न किया जा सका और आज तक बाण्डुंग भावना को पुन: स्थापित करने वाला कोई सम्मेलन अस्तित्व में नहीं आया ।
भारत-चीन संघर्ष से एशिया के लघु राष्ट्रों में चीन का आतंक छा गया । इसका एक परिणाम यह निकला कि चीनी आतंक से भयभीत राष्ट्रों में पश्चिमी साम्राज्यवादी राष्ट्रों को हस्तक्षेप करने का अवसर मिल गया । वस्तुत: 1971 तक एशियाई एकता का ठोस रूप उभरकर सामने नहीं आया ।
कुछ लोगों का यह मानना था कि एशिया जैसे विशाल महाद्वीप के राष्ट्रों में इतनी अधिक विविधता है कि उन्हें एक सूत्र में बांधना असम्भव-सा है । इसलिए क्षेत्रीय आधार (Regional Integration) पर एशियाई राष्ट्रों को संगठित किया जाए । इसी प्रक्रिया में दक्षिणी-पूर्वी एशिया के राष्ट्रों का संगठन जिसे ‘आसियन’ (ASEAN) के नाम से पुकारा जाता है, अस्तित्व में आया ।
इस संगठन में मलेशिया, इण्डोनेशिया, थाईलैण्ड, फिलिपाइन्स, आदि सम्मिलित हैं । किन्तु क्या एशियाई राष्ट्रों में क्षेत्रीय एकता सम्भव है ? दक्षिण एशिया में भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में आपसी वैमनस्य विद्यमान है, पूर्वी एशिया में चीन और जापान में प्रतिस्पर्द्धा विद्यमान है, और पश्चिमी एशिया में ईरान-इराक एवं इजरायल और अन्य राज्यों में संघर्ष की स्थिति बनी हुई है ।
4. चतुर्थ युग (1971 से आज तक):
इस काल में एशिया में एकता के बजाय संघर्ष के अनेक स्थल दिखायी पड़ते हैं । 1971 में स्वतन्त्र बांग्लादेश का अभ्युदय हुआ । इससे भारत-पाक सम्बन्धों में तनाव और अधिक बढ़ गया । 1973-74 में पश्चिमी एशिया में अरब-इजरायल संघर्ष व युद्ध चलता रहा । दक्षिणी-पूर्वी एशिया में वियतनाम संघर्ष अपनी चरम सीमा पर था । 17 फरवरी, 1979 को चीन ने वियतनाम पर आक्रमण कर दिया ।
संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता से वर्ष 1991 के पेरिस समझौते के कार्यान्वयन के पूर्व कंबोडिया एक गहरे आंतरिक संघर्ष एवं अधिकांश विश्व से सापेक्षिक अलगाव की स्थिति में था । उसके वर्ष 1975 से वर्ष 1979 के ख्मेर रूज शासन में 20 लाख लोग हत्या रोग या भूख के कारण मारे गए ।
27 दिसम्बर, 1979 को अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं का प्रत्यक्ष हस्तक्षेप तथा उनका वहां 1988 तक बने रहना दक्षिण एशिया को तनाव का सक्रिय केन्द्र बना देता है । 22 सितम्बर, 1980 से शुरू होने वाला ईरान-इराक युद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ के अथक् प्रयासों से अगस्त 1988 में बन्द हुआ ।
महाशक्तियों के हस्तक्षेप के कारण कम्पूचिया की समस्या 1992 तक जटिल और उलझन भरी बनी रही । न तो चीन और न ही वियतनाम चाहता था कि कम्पूचिया स्वतन्त्र और तटस्थ महसूस करे । 1982 से जाफना प्रयद्वीप और पूर्वी क्षेत्र को अलग कर स्वतन्त्र देश बनाने की एलटीटीई की योजना से श्रीलंका गृहयुद्ध की चपेट में आ गया ।
ADVERTISEMENTS:
आज भी भारत की हजारों वर्ग मील भूमि पर चीन ने अनधिकृत कब्जा कर रखा है । इजरायल और अरब राष्ट्रों के मध्य संघर्ष, पख्तूनिस्तान के प्रश्न को लेकर पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच तनाव कश्मीर को लेकर भारत-पाक मतभेद ऐसे मुद्दे हैं जिनको लेकर एशियाई देश विभाजित और खण्डित हैं । 1999 के प्रारम्भ में भारत के करगिल क्षेत्र में घुसपैठिए भेजकर पाकिस्तान ने भारत के साथ अघोषित युद्ध की सी स्थिति उत्पन्न कर दी ।
20 मार्च, 2003 को अमेरिका के नेतृत्व में इराक में सैन्य हस्तक्षेप और उस देश पर नियन्त्रण नव-उपनिवेशवाद की एक अप्रत्याशित मिसाल है । अमरीकी गठबन्धन सेना के विरुद्ध इराकियों ने प्रतिरोध किया जिसमें हजारों इराकी और 1700 के लगभग अमरीकी सैनिक मारे गये हैं ।
नेपाल में 1996 से राजशाही के खिलाफ माओवादी आन्दोलन सक्रिय रहा जिसकी परिणति 28 मई, 2008 को 240 वर्षों से चली आ रही राजशाही की समाप्ति में हुई । 28 मई को नव निर्वाचित संविधान सभा ने अपनी पहली ही बैठक में देश को धर्मनिरपेक्ष संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित कर दिया ।
मार्च, 2008 में नेशनल असेम्बली के चुनावों के साथ भूटान में नरेश जिग्मे वांगचुक ने स्वयं लोकतंत्र की स्थापना के विचार को आगे बढ़ाया । पाकिस्तान ने एक बार पुन: 25 मार्च, 2008 को लोकतांत्रिक युग में उस समय प्रवेश किया जब लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित प्रधानमंत्री सैयद यूसुफ रजा गिलानी ने शासन की बागडोर संभाली ।
परमाणु हथियार रखने की घोषणा से उत्तर कोरिया तनाव का क्षेत्र बन गया जहां अमेरिका द्वारा सैन्य हस्तक्षेप की सम्भावना बड़ी । म्यांमार में सैनिक गुटों और लोकतन्त्र समर्थकों के बीच लम्बे समय से तनाव चला आ रहा है ।